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राग वसन्त भवि कीजे हो आतमसँभार, राग दोष परिनाम डार॥ भवि.।। कौन पुरुष तुम कौन नाम, कौन ठौर करो कौन काम॥ भवि.॥१॥ समय समय में बंध होय, तू निचिन्त न वारै कोय ।। भवि.॥२॥ जब ज्ञान पवन मन एक होय, 'द्यानत' सुख अनुभवै सोय ॥ भवि.॥३॥
हे भव्य! राग-द्वेष के परिणाम भाव छोड़कर तुम अपनी आत्मा को संभाल करो।
हे पुरुष! हे प्राणि! विचार करो कि तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है? तुम्हारा स्थान कौन-सा है? क्या कार्य करते हो?
बंध की प्रक्रिया सदैव हो रही है। हर समय बंध हो रहा है और तुम इस बात पर ध्यान न देकर निश्चिन्त हो रहे हो!
द्यानतराय कहते हैं कि श्वास स्थिर हो जाए, मन थम जाए और ज्ञान, मन व श्वास सब एकाग्र हो केन्द्रित हो जाए तब सुख की अनुभूति होती है।
द्यानत भजन सौरभ