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कोई कहता है कि वह पवन के समान है, तो वह पवन तो देह को छूती है और स्पर्श से उसका अनुभव होता है। जब जीव गर्भावस्था में रहता है तब जीव का उस गर्भवती नारी से स्पर्श होता है तब उस नारी को उस जीव के स्वरूप का ज्ञान/भान क्यों नहीं होता?
कोई कहता है कि जो बोलता है वह ही आत्मा है, उसके वचन कान में पड़ते हैं पर कान तो उस जीव को नहीं जानता । इमलिा ग्रह लात भी समटा नहीं आती।
कोई कहता है कि वह ब्रह्म/आत्मा पुष्यों की गंध के समान है जिसकी गंध (नाक में आनेपर) सब जान जाते हैं पर नाक से भी ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता इसलिए यह बात भी समझ नहीं आती।
कोई कहता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सब मिलकर एक हो जाते हैं, इनका योग ही आत्मा है पर ये सभी तत्व नेत्रों द्वारा देखे जाते हैं पर यह आत्मा जीते हुए या मरते हुए कैसे भी नैनों से दिखाई नहीं देती अत: यह बात भी समझ में नहीं आती।
कोई आत्मा को धूप (सूर्य की ज्योति), कोई चाँद या दीपक की ज्योति जैसी बताते हैं, ये सब तो स्पष्ट दिखाई देते हैं पर आत्मा तो दिखाई नहीं देती। ___ कोई कहता है कि आत्मा रक्त (खून) में है, तो भाई ! मृत शरीर में भी रक्त तो भरा होता है पर वहाँ आत्मा नहीं होती ! कोई कहता है कि बहुत खोज की उस ब्रह्म की फिर भी उसे कोई नहीं जानता, फिर क्यों कहा जाता है कि जीव को जानो? जो ऐसा कहता है कि ब्रह्म को जानो, आत्मा को जानो बस वह ही उसे जानता है क्योंकि वह स्वयं ही तो आत्मा है।
इस प्रकार ये सब मत-मतान्तर की, कल्पना की दौड़ है। जो बोला जाता है वह भी नष्ट हो जाता है। यानतराय कहते हैं - अरे ! जो देखनेवाला है, जो जाननेवाला है, जो चेतन है वह ही ब्रह्म है, वह ही आत्मा है, उसका ज्ञान तो गुरु की कृपा होने पर ही होता है ।
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द्यानत भजन सौरभ