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राग विलावल मानुषभव पानी दियो, जिन राम न जाना ।। पाए अनेक उपायकै, गयो नरक, निदाना॥मानुष.॥ पुन्य उदय सम्पत मिली, फूल्या न समाना। पाप उदय जब खिर गई, हा! हा! बिललाना॥ मानुषः॥१॥ तीरथ बहुतेरे फिरे, अरचे पाषाना। राम कहूँ नहिं पाइयो, हूए हैराना ॥ मानुष.॥२॥ राम मिलनके कारनैं, दीए बहु दाना। आठ पहर शुक ज्यों रटे, नहिं रूप पिछाना॥ मानुष. ।।३।। तल कहै ऊपर कहै, पावै न ठिकाना। देखे जाने कौन है, यह ज्ञान न आना॥ मानुष.॥ ४ ॥ वेद प. केई तप तपैं, कोई जाप जपाना। रैन दिना खोटी घड़ें, चाहे कल्याना ।। मानुष. ॥ ५ ॥ राम सबै घट घट बसै, कहिं दूर न जाना। ज्यों चकमकमें आग है, त्यों तन भगवाना॥ मानुष. ॥ ६ ॥ तिनका ओट पहार है, जानै न अयाना। 'द्यानत' निपट नजीक है, लख चेतनवाना ॥ मानुष. ॥ ७॥
हे मानव! जिसने आत्मा को नहीं जाना, उसका यह मनुष्य भव पानो के समान ही बह गया, नाष्ट हो गया। बहुत पाप करके नरक का निदान किया है अर्थात् उपार्जन किया है।
यदि पुण्य उदय से कुछ संपदा मिल गई तो मानव फूलकर अपने में नहीं समाता और पाप-उदय होने पर विकल होकर बिलबिलाने लगता है।
धानत भजन सौरभ
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