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राग काफी भाई! जानो पुदगल न्यारा रे ॥ टेक॥ क्षीर नीर जड़ चेतन जानो, धातु पखान विचारा रे॥भाई,॥ जीव करमको एक जाननो, भाख्यो श्रीगणधारा रे। इस संसार दुःखसागरमें, तोहि भ्रमावनहारा रे ॥ भाई. ॥ १ ॥ ग्यारह अंग पढ़े सब पूरब, भेद-ज्ञान न चितारा रे।। कहा भयो सुवटाकी नाईं, रामरूप न निहारा रे॥भाई.॥२॥ भवि उपदेश मुकत पहुँचाये, आप रहे संसारा रे। ज्यों मलाह पर पार उतारै, आप बारका वारा रे।। भाई.।।३।। जिनके वचन ज्ञान परगासैं, हिरदै मोह अपारा रे। ज्यों मशालची और दिखावै, आप जात अँधियारा रे॥ भाई.॥४॥ बात सुनैं पातक मन नासै, अपना मैल न झारा रे। बांदी परपद मलि मलि धोवै, अपनी सुधि न संभारा रे॥ भाई.॥५॥ ताको कहा इलाज कीजिये, बूड़ा अम्बुधि धारा रे। जाप जप्यो बहु ताप तप्यो पर, कारज एक न सारा रे॥ भाई.।। ६ ।। तेरे घटअन्तर चिनभूरति, चेतनपदउजियारा रे। ताहि लखै तासौं बनि आवै, 'द्यानत' लहि भव पारा रे। भाई.॥७॥
अरे भाई ! इस पुद्गल को अपने से (आत्मा से) भिन्न अर्थात् न्यारा जानो। जैसे दूध व पानी और धातु व पापाण भिन्न भिन्न हैं, वैसे ही जड़ व चेतन भिन्ना भिन्न हैं, ऐसा विचार करो।
श्री गणधरदेव ने कहा है कि जो जीव जोव व कर्म को एक रूप जानता है वह इस संसार के दु:खों के सागर में भ्रमता हो रहता है, भटकता ही रहता है।
झानत भजन सौरभ
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