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राग सोरठ निरविकलप जोति प्रकाश रही ॥टेक॥ ना घट अन्तर ना घट बाहिर, वचननिसौं किनहू न कही। निर. ।।१।। जीभ आंख बिन चाखी देखी, हानिसौं किनहू न गही। निर.॥ २॥ 'द्यानत' निज-सर-पदम-भ्रमर है, समता जोरै साधु लही। निर. ।। ३ ।
सर्वविकल्परहित, निर्विकल्प मुद्रा से ज्योति का उजास फैल रहा है।
वह न हृदय में है और न बाहर है। वह वचनों द्वारा कहा नहीं जा सकता, अवर्णनीय है।
उस निर्विकल्प ज्योति को इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता अर्थात् जिह्वा से जिसका स्वाद चखा नहीं जा सकता, नेत्रों से देखा नहीं जा सकता है, उसको न कभी हाथ से छूआ और न ग्रहण किया जा सकता।
द्यानतराय कहते हैं कि साधुजन समता धारणकर ऐसी भव्य निर्विकल्प ज्योति को अपने आत्मारूपी सरोवर में खिले कमलपुंज पर मँडराता हुआ भंवरा होकर प्राप्त करते हैं।
धानत भजन सौरभ