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पाप करत बहु कष्ट होत है, धरम करत सुख भाई! बाल गुपाल सबै इम भाषै, सो कहनावत आई! दुहिमें जो तोकौं हित लागै, सो कर मनवचकाई। तुमको बहुत सीख क्या दीजे, तुम त्रिभुवनके राई॥चेतन.॥७॥ बस पंचेन्द्रीसेती मानुष, औसर फिर नहिं पै है। तन धन आदि सकल सामग्री देखत देखत जे है। समझ समझ अब ही तू प्राणी! दुरगतिमें पछतैहै। भज अरहन्तचरण जुग 'धानत', बहुरि न जगमें ऐ है।। चेतन.॥८॥
हे विवेकी सुजन ! तुम चैतन्य राजा हो, अब तो चेतो। अपना हित करो।
सर्वप्रथम अनन्त चतुष्टय के धारी अरहंत देव को प्रणाम करो। फिर सिद्ध, आचार्य, गुरु अर्थात् उपाध्याय और मुनि के चरणों में नमन करो। ये पाँचों ही उपकार करनेवाले हैं। फिर सरस्वती जो इस भव-समुद्र से पार उतारनेवाली है
और कमति का नाश करनेवाली है, का वंदन करो। वे मुझे मेरे अन्तर में सुबुद्धि दें। ऐसी हितकारी कथा कहें कि जिससे उनके गुणों की अनुभूतिरूप पहचान हो।
यह संसार अनादि व अनन्त है, इसका कोई पार नहीं है, किन्तु यह निस्सारसाररहित है। अनादिकाल से मिथ्यात्व के कारण जीव इसमें लिपटा हुआ है, जिसके कारण चारों गतियों में भटककर सुख नहीं, बहुत दुःख पाये हैं । जिनेन्द्र वचन/जिनवाणी का श्रद्धान किए बिना अनन्तकाल व्यर्थ में व्यतीत हो गए, बिता
दिए।
काम और भोग को सुख मानकर जीव इन्द्रिय-विषयों की पीड़ा को सहन करता रहा। जिसके परिणामस्वरूप उससे भी अनन्तगुणा फल पाकर नरकगति में दुर्दशा को प्राप्त हुआ। पाप करके सुख की कामना करता रहा। हे भाई! उससे सुख नहीं होता। जरा सोच! आकड़ा बोकर आम किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? जैसे काच कभी भी हीरा नहीं हो सकता।
छानत भजन सौरभ
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