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पाप क्रिया करके ध्यान अर्जित किया और उसे फिर पाप-कार्यों में ही लगा दिया। इन दोनों क्रियाओं के पाप का भागी - भोगनेवाला कौन होगा? इस भेद की बात को जीव समझ ही नहीं पाया। दुश्मन को (मिथ्यात्व को) पोषण देकर, उसे पाल-पोसकर हर्षित हुआ और कल्याणकारी व उपयोगी मित्रों का (सम्यक्त्व का) साथ मन को रुचिकर नहीं लगा। इस प्रकार नरभव पाकर तूने क्या किया? (कुछ भी भला नहीं किया।) तू तो नाहक ही मनुष्य कहलाया।
जीव सातों नरकों के दुःखों को, गर्भकाल व जन्म के दुःखों को (जो उसने भोगे थे उन) सभी को भूल गया। इस अशुचि - 'मैल से भरे तन को जो सदा नाशवान है, जो सदा मृत्यु की दाढ़ में रहता है, उसे पाकर जीव फूला हुआ रहता है, फूला जाता है, प्रसन्न होता है । हे जीव ! तू जान-बूझकर भ्रम में पड़ा हिण्डोले की भाँति इधर-उधर झूल रहा है। यह जीव राई के समान थोड़ा सा दुःख भी सहन नहीं कर पाता, पर काम दु:ख उपजाने के करता रहता है।
साता का (सुख का) थोड़ा-सा उदय होने पर सख मानता है और असाता होने पर दुःखी होकर रोता है। ये दोनों अवस्थाएँ तो कर्मजन्य हैं, कर्मों के कारण हैं । परन्तु जीव अपने आप की ओर नहीं देखता । दूसरों को तो भली प्रकार सीख व शिक्षा देता है, पर स्वयं उस पर आचरण नहीं करता। यह ही सत्य है। इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। इस ही के कारण दुःख पाता है।
हे जीव ! पाप से पीड़ा व कष्ट होता है । धर्म से सुख होता है। सभी यह कहते हैं कि छोटे से लेकर बड़े तक सब इस बात को समझते हैं। इन दोनों (पाप और धर्म) में जो तुझे हितकर लगे उसे मन-वचन-कायसहित कर। तू स्वयं तीनभुवनपत्ति होने की क्षमता रखता है। इसलिए तुझको क्या सीख दी जावे? __ त्रसकाय में पंचेन्द्री मनुष्य होने का अवसर फिर नहीं मिलेगा। देखते-देखते तन- धन आदि सब सामग्री चली जावेगी । हे प्राणी! तू अब तो समझ, वरना फिर दुर्गति में पड़कर पछताएगा। द्यानतराय कहते हैं कि तू अरहंत चरण का भजन कर, जिससे जगत में फिर से आगमन ही न हो।
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अनन्त चतुष्टय = अनन्त दर्शन, अनन्त जान, अनन्त सुख, अनन्त बीर्य ।
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द्यानत भजन सौरभ