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चेतन ! मान लै बात हमारी ॥ टेक ॥।
जीव जीन पुन दोनों की निधि न्यारी ॥ चेतन ॥ १ ॥ चहुँगतिरूप विभाव दशा है, मोखमाहिं अविकारी ॥ चेतन ॥ २ ॥ 'द्यानत' दरवित सिद्ध विराजै, 'सोहं' जपि सुखकारी ॥ चेतन. ॥ ३ ॥
अरे चेतन ! तू हमारी बात मान ले। यह पुद्गल जीव नहीं है और न जीव पुद्गल है। दोनों द्रव्य अलग अलग हैं, उनकी विधि, व्यवस्था, द्रव्य, सब अलग अलग हैं।
चारों गतियाँ जीव की वैभाविक दशा है, वैभाविक स्थिति है। केवल मोक्ष में ही जीव का शुद्ध रूप है, अविकारी रूप हैं अर्थात् मोक्ष ही एक ऐसा स्थान है जहाँ शुद्धता है, विकार नहीं है ।
द्यानतराय कहते हैं कि जीवद्रव्य का जो सिद्धरूप है, निर्मलरूप हैं, वह ही मैं हूँ, उस रूप का जाप ही सुखकारी है।
धानत भजन सौरभ
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