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राग विहागरा जो ते आतमहित नहिं कीना ॥ टेक॥ रामा रामा धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना ॥ जो तें.॥ जप तप करकै लोक रिझाये, प्रभुताके रस भीना। अंतर्गत परिनाम न सोधे, एको गरज सरी ना॥जो तें.॥१॥ बैठि सभामें बहु उपदेशे, आप भये परवीना। ममता डोरी तोरी नाहीं, उत्तम भये हीना॥जो तें.॥२॥ 'द्यानत्त' मन वच काय लायके, जिन अनुभव चित दीना। अनुभव धारा ध्यान विचारा, मंदर कलश नवीना !। जो तें. ॥३॥
हे प्राणी ! अरे, तैंने अपनी आत्मा का हित नहीं किया 1 तू स्त्री और धन में ही रमा रहा। मनुष्य जन्म पाने का यथार्थ प्रयोजन फलरूप में तूने प्राप्त नहीं किया, सिद्ध नहीं किया।
जप-तप करके भी लोक को रिझाया, उनको हर्षित किया और अपने आपको बड़ा मानने के मान में, बड़प्पन प्राप्त करने में मगन हो गया। अपने अन्तर के परिणामों को शुद्ध नहीं किया और किसी भी लक्ष्य अर्थात् एक भी लक्ष्य को सिद्धि न हो सकी।
सभा में बैठकर बहुत उपदेश दिए मानो स्वयं उसमें पारंगत व प्रवीण हो गए। पर मोह-ममता की डोरी नहीं टूटी, जिसके कारण जितने श्रेष्ठ हो सकते थे उतने ही हीन हो गए।
द्यानतराय कहते हैं कि जिनने मन, वचन और काय से अपने अनुभव में, अपने चित्त को लगाया, उस आत्मा के अनुभव में, उसके ध्यान में उसने नएनए क्षितिज देखें, उन्होंने चैतन्य भावों के नित नए कलश चढ़ाकर आत्म वैभवरूपी मन्दिर की सुन्दरता की वृद्धि में अपना योग दिया।
द्यानत भजन सौरभ