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(१२)
कर कर आतमहित रे प्रानी ॥ टेक ॥
जिन परिनामनि बंध होत हैं, सो परनति तज दुखदानी ॥ कर. ।
कौन पुरुष तुम कहां रहत हौ, किहिकी संगति रति मानी । जे परजाय प्रगट पुद्गलमय, ते तैं क्यों अपनी जानी ॥ कर. ॥ १ ॥
चेतनजोति झलक तुझमाहीं, अनुपम सो तैं विसरानी । जाकी पटतर लगत आन नहिं दीप रतन शशि सूरानी ॥ करः ॥ २ ॥ आपमें आप लखो अपनो पद, 'द्यानत' करि तन- मन- बानी । परमेश्वरपद आप पाइये, यौं भाषै केवलज्ञानी ॥ कर. ॥ ३ ॥
अरे भले प्राणी, अपनी आत्मा का हित कर ले। जिन कषाययुक्त परिणामों के कारण संक्लेश होकर कर्मों का बंधन होता है वे सब दुःखदायी हैं, उनको छोड़ दो।
हे प्राणी ! जरा विचार करो तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो? किसकी संगति तुमको रुचिकर लग रही है ? किसका साथ तुमको भा रहा है ? ये पर्यायें जो प्रकट में हैं वे सब स्पष्टतः तो पुद्गलजन्य हैं, तू चेतन उन्हें क्योंकर अपना मान रहा है ?
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हे प्राणी! तुझमें चैतन्य का अनुपम प्रकाश / झलक दिखाई देता है, उसे तूने विस्मृत कर दिया, भुला दिया । चन्द्र, सूर्य, रत्नदीप या अन्य कोई भी उस चेतनप्रकाश की समता/ तुलना करने में समर्थ नहीं ।
द्यानतराय कहते हैं कि हे प्राणी! मन, वचन और काय से अपने आपका स्वरूप - चिन्तन करो तो तुमको भी कैवल्य की उपलब्धि हो जायेगी । ऐसा केवलज्ञानी देवों ने स्वयं ने बताया है, कथन किया है।
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द्यानत भजन सौरभ