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(९०) ए मेरे मीत! निचीत कहा सोवै ॥ टेक ।। फूटी काय सराय पायकै, धरम रतन जिन खोवै ॥ ए. ॥ १॥ निकसि निगोद मुकत जैवेको, राहविर्षे कहा जोवै॥ ए. ॥ २॥ 'धानत' गुरु जागुरू पुकारें, खबरदार कि न होवै॥ए.॥३॥
ऐ मेरे मित्र, प्रिय ! तू निश्चिन्त होकर क्यों सो रहा है?
ये कायारूपी सराय जिसके नौ द्वार हैं अर्थात् नौ स्थान से फूटी हुई है तू इसमें रत होकर धर्मरूपी रत्न को क्यों खो रहा है?
निगोद से निकलकर तुझे मुक्ति/मोक्ष को जाना है तब तू बीच में, राह में विषयों की ओर क्यों देखता है ? विषयों में क्यों फँसाता है?
द्यानतराय कहते हैं कि सत्गुरु तुझे पुकार-पुकार कर जगाते हैं, सावचेत कराते हैं तो तू सावधान क्यों नहीं होता? खबरदार क्यों नहीं होता?
कई देश, अपन देना।
जोवै - देखना, ध्यान देना।
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द्यानत भजन सौरभ