________________
(८९) एक ब्रह्म तिहुँलोकमँझार, ऐसैं कहैं बनै नहिं यार। टेक॥
और हुकमते मार और, और पुकार करै उस ठौर ॥ एक.॥१॥ ...षट रस भोजन जीमैं धीर, भीख न पावै एक फकीर॥ एक.॥२॥
धरमी सुरगमाहिं सुख करै, पापी नरक जाय दुख भरै॥ एक.॥३॥ एकरूप अविनाशी वस्त, खंड खंड क्यों भया समस्त ।। एक.॥४॥ शुद्ध निरंजन शुचि अविकार, क्यों कर लयो गरभ अवतार॥एक.॥५॥ करम बिना इच्छा क्यों भई, इच्छा भई शुद्धता गई॥ एक. ।। ६ ।। जीव अनन्त भरे भुबिमाहिं, 'द्यानत' कर्म कटैं शिव जाहिं। एक.॥७॥
__ कहा जाता है कि तीन लोक में एक ही ब्रह्म है, वह सर्वत्र व्याप्त है। सो मित्र, ऐसा कहने से कुछ बात बनती नहीं है। ___ यदि कोई एक ही नियन्ता है तो जब कोई किसी को मारता है तब वह स्वयं नहीं मारता, वह अन्य की (ब्रह्मा की, नियन्ता की) आज्ञा से मारता है तब वह पीड़ित अपने दुःख की पुकार किस से करे? किससे प्रार्थना करे, किसकी शिकायत करे व कहाँ करे? ।
कोई धैर्यपूर्वक छहों रस से युक्त भोजन करता है, पर फकीर को माँगने पर भीख भी नहीं मिलती। (जब एक ही नियन्ता है तो ऐसी भिन्नता क्यों?)
धर्म करनेवाले स्वर्ग में जाकर सुख पाते हैं और पाप करनेवाले नरकगामी होकर दु:ख पाते हैं । तो उस एक ही ब्रह्मा के नियन्ता होते हुए जीव पाप क्यों करता है? कैसे करता है?
जो एक रूप है, कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता, वह इस प्रकार विभिन्ना जीवरूपों में खंड-खंड क्यों होता है?
छानत भजन सौरभ