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इस जीवको, यों समझाऊं री ! ॥ टेक ॥
अरस अफरस अगंध अरूपी, चेतन चिन्ह बताऊं री ॥ इस. ॥ १ ॥ तत तत तत तत थेई थेई थेई थेई तन नन री री गाऊं री ।। इस. ॥ २ ॥ 'द्यानत' सुमत कहै सखियनसों, 'सोहं' सीख सिखाऊं री ॥ इस ॥ ३ ॥
सुमति कहती हैं कि मैं इस जीव को इस प्रकार समझाती हूँ. -
तू न तो रस है, न स्पर्श है, न गंध है और न रूप है अर्थात ये इन्द्रियाँ और इनके विषय तू नहीं है। तू तो चेतन है, यह हा तेरा चिह्न है, पहचान हैं 1 और इस प्रकार समझाती हुई मैं तत तत थेई थेई, तन तन गाती रहती हूँ ।
द्यानतराय कहते हैं कि सुमति इसप्रकार अपनी सखियों को 'सोऽहं' की सीख, प्रतीति, ज्ञान सिखलाती है अर्थात् बताती है कि आत्मा का जो शुद्धरूप है 'वह मैं हूँ' ।
द्यानत भजन सौरभ
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