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(८६) आतमज्ञान लखें सुख होई॥टेक।। पंचेन्द्री सुख मानत भोंदू, यामें सुखको लेश न कोइ॥आतम.॥ जैसे खाज खुजावत मीठी, पीछे ते दुखतें दे रोइ। रुधिरपान करि जोंक सुखी है, गुंतत बहुदुख पावै सोई । आतम. ॥१॥ फरस-दन्तिरस-मीनगंध-अलि, रूप-शलभमृग-नाद हिलोइ। एक एक इन्द्रनिः प्राणी, दुखिया भये गये तन खोइ ।। आतम.॥२॥ जैसे कूकर हाड़ चचौरै, त्यों विषयी नर भोगै भोइ। 'द्यानत' देखो राज त्यागि नृप, वन वसि सहैं परीषह जोइ॥आतम. ॥३॥
हे ज्ञानी ! ज्ञानस्वरूपी आत्मा के दर्शन, ज्ञान व चिन्तवन से सुख होता है। अरे भोंदू : .. अशाही ! तू मन्दियों के शियों में सुध पड़ता है, जबकि इनमें तनिक भी सुख नहीं है। इनमें सुख का अंश भी नहीं है।
जैसे खुजली रोग से पीड़ित व्यक्ति खुजलाने लगता है, तब तनिक स! दुःख का निवारण मानता है, पर जब खुजलाने के पश्चात् चमड़ी छिल जाती है तो उसकी पीड़ा को, उस दुःख को सहन करना पड़ता है। उसी प्रकार जैसे खराब खून को चूसकर जौंक मोटी हो जाती है तब सुख मानती है, परन्तु जब उसे दबाकर खून बाहर निकलते हैं तब वेदना होने से अत्यन्त दुःखी होती है।
स्पर्श सुख के कारण हाथी, रसना सुख के लोभ में मछली, सुगंध के लोभ में भंवरा, रूप के लोभ में पतंगा तथा संगीत की धुन के कारण हरिण प्रारंभ में मस्ती व आनन्द का अनुभव करते हैं किन्तु इस प्रकार एक एक इन्द्रिय विषय के कारण ये प्राणी उसके वशीभूत हो, दुःखी होते हैं और प्राण भी गंवाते हैं।
जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है और उसमें उस समय सुख मानता है, वैसे ही भोगी, विषयी मनुष्य इन्द्रिय भोग भोगने में सुख समझता है। द्यानतराय कहते हैं जो यह तथ्य समझ जाते हैं वे राजा होते हुए भी राज्य त्यागकर जोगी बनकर वन को चले जाते हैं और अनेक परीषह सहन कर आत्म-साधना करते हैं।
घानत भजन सौरभ