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ऐसो सुमरन कर मेरे भाई, पवन भै मन कितहूँ न जाई ॥ टेक ॥ परमेसुरसों साँच रही जै, लोकरंजना भय तज दीजै । ऐसो. ॥ जम अरु नेम दोउ विधि धारो, आसन प्राणायाम सँभारी । प्रत्याहार धारना कीजैं, ध्यान-समाधि- महारस पीजै । ऐसो. ॥ १ ॥ सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना ।
सो व्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐसे मरो बहुरि नहिं मरना ।। ऐसो. ।। २ ॥ पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्रीको न पतीजै । 'द्यानत' पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजै ।। ऐसो. ॥। ४ ॥
ऐ मेरे मन, ऐ मेरे भाई ! तू ऐसा सुमिरन कर कि जिससे तेरे श्वास की चंचलता थम जाए अर्थात् उद्वेग रुककर मंदता समता आ जाये और मन इधरउधर न भटके अर्थात् एकाग्रता हो जाए। परमेश्वर से सदा सच्चे रहिए और लोक - दिखावा व उसके भय को छोड़ दीजिए।
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यम और नियम दोनों का विधिपूर्वक पालन करो। तन को स्थिर करने हेतु आसन और प्राणायाम दोनों का अभ्यास- साधन करो। फिर प्रत्याहार व धारणा करते हुए ध्यान में लीन होकर समाधिस्थ हो जाओ और आनन्द रस का आस्वादन करो।
तप करो तो ऐसा कि फिर पुनः तप न करना पड़े, जाप जपो तो ऐसा कि फिर पुनः जाप न करना पड़े। व्रत का अनुपालन करो तो ऐसा कि फिर पुन: कभी व्रत न करना पड़े और मृत्यु का वरण करो तो ऐसा कि फिर कभी मृत्यु का प्रसंग ही न आए अर्थात् मुक्ति हो जाए, मोक्ष हो जाए।
संसार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव, इन पंचपरावर्तन को दृष्टिगत रखकर पंच-इन्द्रिय के विषयों में रत मत हो । द्यानतराय कहते हैं कि इस प्रकार पाँच लब्धियों को प्राप्तकर पंचपरमेष्ठी की शरण ग्रहण करो ।
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यम = जीवनपर्यन्त के लिए किया गया त्याग; नियम काल की मर्यादा लेकर किया गया त्याग।
द्यानत भजन सौरभ
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