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________________ (८८) इस जीवको, यों समझाऊं री ! ॥ टेक ॥ अरस अफरस अगंध अरूपी, चेतन चिन्ह बताऊं री ॥ इस. ॥ १ ॥ तत तत तत तत थेई थेई थेई थेई तन नन री री गाऊं री ।। इस. ॥ २ ॥ 'द्यानत' सुमत कहै सखियनसों, 'सोहं' सीख सिखाऊं री ॥ इस ॥ ३ ॥ सुमति कहती हैं कि मैं इस जीव को इस प्रकार समझाती हूँ. - तू न तो रस है, न स्पर्श है, न गंध है और न रूप है अर्थात ये इन्द्रियाँ और इनके विषय तू नहीं है। तू तो चेतन है, यह हा तेरा चिह्न है, पहचान हैं 1 और इस प्रकार समझाती हुई मैं तत तत थेई थेई, तन तन गाती रहती हूँ । द्यानतराय कहते हैं कि सुमति इसप्रकार अपनी सखियों को 'सोऽहं' की सीख, प्रतीति, ज्ञान सिखलाती है अर्थात् बताती है कि आत्मा का जो शुद्धरूप है 'वह मैं हूँ' । द्यानत भजन सौरभ ९५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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