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________________ (८७) आपमें आप लगा जी सु हौं तो॥टेक ॥ सुपनेका सुख दुख किसके, सुख दुख किसके, मैं तो अनुभवमाहिं जगा जी सु हौं तो ॥ आप.॥१॥ पुदगल तो ममरूप नहीं, ममरूप नहीं, जैसे का तैसा सगा जी सु हौं तो। आप. ॥ २॥ 'धानत' मैं चेतन वे जड़, वे जड़ हैं, जड़ सेती पगा जी, सु हौं तो॥आप. ॥ ३ ॥ हे जीव ! तू अपने आप में अपने को केन्द्रित कर, उसमें ही अपने आपको लगा। ये सुख-दुःख तो स्वप्न के समान हैं । ये किसके हैं ? मेरा अपना तो मात्र अनुभव है, जो स्वयं अपने में होता है। __जो जैसा होता है वैसे ही उसके सगे होते हैं । पुद्गल मेरा जैसा नहीं हैं इसलिए वह मेरा सगा नहीं है । अर्थात् समान गुण- धर्मवाले ही परस्पर सगे होते हैं, मैं जीव हूँ वह पुद्गल है अत: वह मेरा सगा नहीं हो सकता। द्यानतराय कहते हैं कि मैं चेतन हूँ, यह देह जड है। जड के समान ही इसका व्यवहार है। इसलिए ये देह मेरी नहीं है। धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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