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राग काफी अब हम आतमको पहचानाजी ॥ टेक ।। जैसा सिद्धक्षेत्रमें सजत, तैसा घटमें जानाजी । अब हम.॥१॥ देहादिक परद्रव्य न मेरे, मेरा चेतन बानाजी । अब हम.॥२॥ 'धानत' जो जानै सो स्याना, नहिं जानैं सो दिवानाजी॥अब हम.॥३॥
अब हमने अगटी मात्मा को जान लिग' है: "इयान लिया है। सिद्धशिला पर ज्ञानाकारी चैतन्य अपने-अपने अन्तिम देहाकार में अरूपी, सूक्ष्म व शुद्ध होकर निर्बाध रूप से जैसे आसीन होता है, मैंने आत्मा को उसीप्रकार मेरे अन्तर्मन पर आसीन रूप में जान लिया है।
देह आदि सभी द्रव्य मेरे से भिन्न हैं, पर हैं, अन्य हैं । मेरा अपना तो यह चैतन्य स्वरूप ही है।
द्यानतराय कहते हैं कि जिसने इस रूप को जान लिया वह सयाना है, जागृत है और जिसने नहीं जाना वह उन्मत है, सुप्त है ।
द्यारत भजन सौरभ