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जो पाँच महाव्रतों को ग्रहण कर उनका पालन करते हैं और सब परीषहों को सहन करते हैं, परन्तु आत्मा को देखते ही नहीं, जिनको आत्मस्वरूप का ज्ञान ही नहीं है, वे व्रत धारण करके भी अंधकार की कालिमा में ही डूबे रहते हैं। ____ अभयसेन ने बहुत अंगों और पूर्वो का अध्ययन किया पर फिर भी अज्ञानी हो रहा, उसको भेद-विज्ञान नहीं हुआ और इस कारण संसार में ही रुलता (भटकता) रहा, भ्रमण करता रहा।
दूसरी ओर मुनि शिवभूति ने अधिक शास्त्र नहीं पढ़े, परन्तु उनको भेदज्ञान हो गया। उन्होंने तुष-माष की भिन्नता को देख चेतन और जड़ की भिन्नता को जाना और वे मुक्त हो गए।
अब तक जो भी सिद्ध हुए हैं, जो सिद्ध हो रहे हैं तथा जो अब सिद्ध होंगे वे सब अपनी आत्मा का अनुभव करने के परिणामस्वरूप ही सिद्ध हुए हैं - गणधर ने इस प्रकार स्पष्ट बताया है।
पारस, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न आदि सब सुखदाता हैं परन्तु ये सब विषयसुख के दाता हैं जो कि नष्ट होनेवाले होते हैं पर अनुभव से उपजा ( उत्पन्न होनेवाला) सुख इन सबमें सर्वोपरि है जो कभी नहीं विनशता।
इन्द्र, नरेन्द्र, फणीन्द्र द्वारा की गई भक्ति सराग भक्ति है, उसका विस्तार है। द्यानतराय कहते हैं कि ज्ञान और वैराग्य से उसी भव से/में मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
तुष - उड़द आदि दालों का ऊपर का छिलका; माष - उड़द।
द्यानत भजन सौरभ