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आतम अनुभव कीजिये, यह संसार असार हो ॥ टेक ॥ जैसो मोती ओसको, जात न लागै बार हो । आतम. ॥
जैसें सब वनिजौंविषै, पैसा उतपत सार हो ।
तैसैं सब ग्रंथनिविषै अनुभव हित निरधार हो । आतम. ॥ १ ॥ पंच महाव्रत जे गहैं, सहैं परीषह भार हो । आतमज्ञान लखें नहीं, बूड़ें कालीधार हो । आतम. ॥ २ ॥
बहुत अंग पूरब पढ़ घो, अभयसेन गँवार हो । भेदविज्ञान भयो नहीं, रुल्यो सरब संसार हो । आतम. ॥ ३ ॥
बहु जिनवानी नहिं पढ़ घो, शिवभूती अनगार हो । घोष्यो तुष अरु भाषको, पायो मुकतिदुवार हो ॥ आतम. ॥ ४ ॥ जे सीझे जे सीझ हैं, जे सीझैं इहि बार हो ।
ते अनुभव परसादतैं, यों भाष्यो गनधार हो । आतम. ॥ ५ ॥
पारस चिन्तामनि सबै सुरतरुआदि अपार हो ।
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ये विषयसुखको करें; अनुभवसुख सिरदार हो । आतम. ॥ ६ ॥
इंद फनिंद नरिंदके, भाव सराग विधार हो । 'द्यानत' ज्ञान विरागतैं, तद्भव मुकतिमँझार हो । आतम. ॥ ७ ॥
हे साधों ! आत्मा का अनुभव कीजिए, चिन्तन कीजिए। यह संसार असार हैं, सार रहित है, विनाशीक है, प्रतिपल नष्ट होनेवाला है। जैसे ओस के मोती क्षणिक हैं- अस्थायी हैं, उसको नष्ट होने में देर नहीं लगती, उसीप्रकार यह संसार भी क्षणिक है, अस्थायी है ।
जैसे वणिक व्यवहार में पैसा कमाना, द्रव्य-अर्जन करना ही सार है, वैसे ही सब ग्रन्थों में अपने हित की बात का निर्धारण ही श्रेष्ठ हैं ।
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द्यानत भजन सौरभ