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________________ (७६) आतम अनुभव कीजिये, यह संसार असार हो ॥ टेक ॥ जैसो मोती ओसको, जात न लागै बार हो । आतम. ॥ जैसें सब वनिजौंविषै, पैसा उतपत सार हो । तैसैं सब ग्रंथनिविषै अनुभव हित निरधार हो । आतम. ॥ १ ॥ पंच महाव्रत जे गहैं, सहैं परीषह भार हो । आतमज्ञान लखें नहीं, बूड़ें कालीधार हो । आतम. ॥ २ ॥ बहुत अंग पूरब पढ़ घो, अभयसेन गँवार हो । भेदविज्ञान भयो नहीं, रुल्यो सरब संसार हो । आतम. ॥ ३ ॥ बहु जिनवानी नहिं पढ़ घो, शिवभूती अनगार हो । घोष्यो तुष अरु भाषको, पायो मुकतिदुवार हो ॥ आतम. ॥ ४ ॥ जे सीझे जे सीझ हैं, जे सीझैं इहि बार हो । ते अनुभव परसादतैं, यों भाष्यो गनधार हो । आतम. ॥ ५ ॥ पारस चिन्तामनि सबै सुरतरुआदि अपार हो । J ये विषयसुखको करें; अनुभवसुख सिरदार हो । आतम. ॥ ६ ॥ इंद फनिंद नरिंदके, भाव सराग विधार हो । 'द्यानत' ज्ञान विरागतैं, तद्भव मुकतिमँझार हो । आतम. ॥ ७ ॥ हे साधों ! आत्मा का अनुभव कीजिए, चिन्तन कीजिए। यह संसार असार हैं, सार रहित है, विनाशीक है, प्रतिपल नष्ट होनेवाला है। जैसे ओस के मोती क्षणिक हैं- अस्थायी हैं, उसको नष्ट होने में देर नहीं लगती, उसीप्रकार यह संसार भी क्षणिक है, अस्थायी है । जैसे वणिक व्यवहार में पैसा कमाना, द्रव्य-अर्जन करना ही सार है, वैसे ही सब ग्रन्थों में अपने हित की बात का निर्धारण ही श्रेष्ठ हैं । ८० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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