________________
आतम महबूब यार, आतम महबूब । टेक॥ देखा हमने निहार, और कुछ न खूब॥ आतम.॥ पंचिन्द्रीमाहिं रहै, पाचोंते भिन्न । बादलमें भानु तेज, नहीं खेद खिन्न ॥ आतम. ॥ १ ॥ तनमें है तजै नाहिं, चेतनता सोय। लाल कीच बीच पर्यो, कीचसा न होय॥आतम.॥२॥ जामें हैं गुन अनन्त, गुनमें है आप। दीवेमें जोत जोतमें है दीवा व्याप ॥ आतम.॥ ३ ।। करमों के पास वसै, करमोंसे दूर । कमल वारिमाहिं लसै, वारिमाहिं जूर ।। आतम, ।। ४ ।। सुखी दुखी होत नाहि, सुख दुखकेमाहिं। दरपनमें धूप छाहिं, घाम शीत नाहिं । आतम. ॥ ५ ॥ जगके व्योहाररूप, जगसों निरलेप। अंबरमें गोद धर्यो, व्योमको न चेप॥ आतम. ॥ ६ ॥ भाजनमें नीर भर्यो, थिरमें मुख पेख। 'द्यानत' मनके विकार, टार आप देख॥आतम ॥ ७॥
हे मित्र! यह आत्मा ही प्रियतम है। हमने इसको देखा तो पाया कि इससे अधिक उत्तम कुछ भी नहीं है। ___यह पाँचों इन्द्रियों के बीच में रहते हुए भी उनसे भित्र है। जैसे बादलों के बीच में आने पर भी सूर्य का तेज यथावत रहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। जैसे रत्न कीचड़ के बीच में पड़ा होने पर भी वह कीचड़ नहीं हो जाता, उसी प्रकार देह में स्थित चैतन्य अपना चैतन्य गुण/चेतना नहीं खोता।
धानस भजन सौरभ