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राग काफी आपा प्रभु जाना मैं जाना।। टेक ॥ परमेसुर यह मैं इस सेवक, ऐसो भर्म पलाना ॥ आपा.॥ जो परमेसुर सो मम मूरति, जो मम सो भगवाना। मरमी होय सोइ तो जाने, जानै नाहीं आना॥आपा.॥१॥ जाको ध्यान धरत हैं मुनिगन, पावत है निरवाना। अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतमरूप बखाना ।। आपा.॥२॥ जो निगोदमें सो मुझमाहीं, सोई है शिव थाना। 'द्यानत' निह● रंच फेर नहि, जानै सो मतिवाना ।। आपा.॥३॥
मैंने अपने प्रभु आत्मा को जान लिया है, और आत्मा को जानकर मैंने यह जान लिया है कि कोई एक परमेश्वर हैं और मैं उनका सेवक हूँ - यह एक भ्रम है, इसे दूर करो/दूर करना है।
ये जो परमेश्वर हैं, वह तो मेरी स्वयं की मूर्ति ही है । जो मैं हूँ • वह ही परमेश्वर हैं । जो अनुभवी है वह ही इस सत्य को जानता है, जो यह जानता वह हो वास्तव में ज्ञानी हैं । जो इससे भिन्न अन्य जानता है वह वास्तव में कुछ नहीं जानता है।
जिसका (आत्मा का) ध्यान करके मुनिजन निर्वाण को प्राप्त करते हैं, अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि ये सब आत्म-स्वरूप के ही वर्णन हैं, ये सब आत्मा के ही विभिन्न रूप हैं।
जैसी मेरी अपनी आत्मा है, वैसी ही आत्मा निगोद पर्याय के जीवों में है और वैसी ही सिद्धों में है। इस प्रकार परस्पर में भेद से परे, जिसे आत्मस्वरूप का निश्चय है, जो यह नि:शंक रूप से जानता है, वह ही बुद्धिवान है, ज्ञानवान है।
धानत भजन सौरभ