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(७४) आतम अनुभव करना रे भाई ।। टेक॥ जबलों भेद-ज्ञान नहिं उपजै,जनम मरन दुख भरना रे॥ भाई.॥ आतम पढ़ नव तत्त्व बखान, व्रत तप संजम धरना रे। आतम-ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी-संकट परना रे॥ भाई.॥१॥
काल-ग्रंश की रक्षा हैं लाई, सिस्य सपने हरना रे। कहा करै ते अंध पुरुषको, जिन्हें उपजना मरना रे। भाई. ॥ २॥ 'धानत' जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। 'सोहं ये दो अक्षर जपकै, भव-जल-पार उतरना रे॥भाई. ।। ३॥
अरे भाई! अपनी आत्मा का स्मरण करो, उसके चिंतन में लीन रहो, उसकी अनुभूति करो।
जब तक भेद-ज्ञान अर्थात् जीव व पुद्गल के स्वरूप का भेदरूप ज्ञान नहीं हो तब तक जन्म और मरण की श्रृंखला चलती ही रहेगी, उसके दुःख होते ही रहेंगे।
आत्म-चिन्तन के लिए नवतत्व अर्थात् जीव- पुद्गल और उनका एक- दूसरे की ओर आकर्षण-विकर्षण, उसके कारण होनेवाली आप्रव-बंध, संवर-निर्जरा की स्थितियाँ और तत्पश्चात् मोक्ष की स्थिति - इन सबका विचार-चिन्तन करते हुए अणुव्रत, तप और संयम का पालन करो । आत्मज्ञान के बिना किया गया कोई कार्य मुक्ति की ओर अग्रसर नहीं करता। आत्मज्ञान के अभाव में भव-भव में. चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण होता ही रहेगा।
सारे ग्रन्थ दीपक के समान प्रकाशक हैं। उनका स्वाध्याय ज्ञानार्जन का साधन है जिससे मिथ्यात्व का अंधकार दूर होता है, मिटता है । वे अन्धे हैं जो उन ग्रन्थों में निहित ज्ञान का उपयोग नहीं करते. वे नियम से जन्म-मरण करते ही रहेंगे।
द्यानत भजन सौरभ
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