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( ७० ) राग आसावरी
अब हम अमर भये न मरेंगे ॥ टेक ॥
तन- कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे। अब ॥ उपजै मेरै कालतें प्रानी, तातैं काल हरेंगे।
राग दोष जग बंध करत हैं, इनको नाश करेंगे | अब ॥ १ ॥
देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे। नासी जासी इस शिव जोखे हो निष्टरेंगे | अब ॥ २ ॥
मेरे अनन्त बार बिन समझें, अब सब दुख विसरेंगे। 'द्यानत' निपट निकट दो अक्षर, बिन सुमरैं सुमरेंगे । अब ॥ ३ ॥
द्रव्य स्वरूप की प्रतीति श्रद्धान होने पर साधक कहता है कि द्रव्य अक्षय
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है, अविनाशी हैं, मैं जीव द्रव्य हूँ सदा जीव हूँ, जीव का विनाश नहीं होगा, ऐसा मेरा आत्मा अमर हैं। ऐसी बोधि होने पर वह कहता है कि अब हम अमर हैं, अब हमारा मरण नहीं होगा, क्योंकि देह धारण करने का मुख्य कारण मिथ्यात्व है, जिसे हमने छोड़ दिया है। सम्यक्च की प्राप्ति ही देह धारण से मुक्त कराने में कारण हैं। मिध्यात्व तजने और सम्यक्त्व होने पर फिर देह क्यों धारण करेंगे?
काल द्रव्य के परिणमन के कारण प्राणी जीवन-मरण करता है । हम अब अपने निज शुद्ध स्वरूप में ठहरकर काल की इस आश्रितता से, जन्म-मरण से मुक्त हो जाएँगे । राग-द्वेष जगत में बंध के कारण हैं, उनका हम नाश करेंगे। यह देह विनाशी हैं। मैं आत्मा हूँ, अविनाशी हूँ हम इस भेदज्ञान को समझेंगे। देह जो नाशवान है, वह नष्ट हो जायेगी और यह आत्मा सदा एकसा रहनेवाला है, ऐसे शुद्ध रूप में हम निखर जायेंगे ।
अब तक बिना समझे हमने अनन्त बार जन्म-मरण किया। अब उन सब दुःखों को भूलकर द्यानतराय कहते हैं कि हम केवल दो अक्षर 'सोऽहं ' ( मैं वह सिद्धरूप हूँ) को स्वभाव से निरंतर ध्याते रहेंगे अर्थात् उस रूप की शाश्वत पहचान व प्रतीति करेंगे।
द्यानत भजन सौरभ
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