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राग जैजैवन्ती महावीर जीवाजीव खीर निरपाप ताप, नीर तीर धरमकी जर हैं। टेक।।। आश्रव स्त्रवत नाहिं, बँधत न बंधमाहिं, निरजरा निजरत, संवरके घर हैं। महावीर, ॥१॥ तेरमौं है गुनथान, सोहत सुकल ध्यान, प्रगट्यो अनन्त ज्ञान, मुकतके वर हैं। महावीर.॥२॥ सूरज तपत करे, जड़ता हू चंद धरै, 'द्यानत' भजो जिनेश, दोऊ दोष न रहैं।। महावीर.॥३॥
जीव-अजीव मिश्रित इस संसार में, महावीर का द्रव्यस्वरूप ( का सिद्धान्त) खीर के समान मिष्ठ - मीठा है, श्रेष्ठ है, पापरहित - निष्पाप है व दुखरूपी दाह के लिए नौर के समान शीतल है । धर्म को जड़ है, आधार है, इस संसारसागर से पार उतरने के लिए तीर है - किनारा है।।
जिन्हें कर्मों का आश्रव हो नहीं होता है, जिससे बँधे हुए कर्मों में वृद्धि या ग्रगाढ़ता नहीं होती है। कर्म निर्जरा में निज की लगन लगी है, ऐसा संवर हो उनको होता है।
तेरहवें गुणस्थान अर्थात् अहंत पद में, शुक्लध्यान द्वारा अनन्तज्ञान प्रगट हो गया है, अब वे मुक्ति के वर हैं, श्रेष्ठ हैं।
जब तक सूर्य में ताप रहे, चन्द्र में शीतलता - ठंडक रहे, द्यानतराय कहते हैं कि तुम जिनेन्द्र की वंदना करो, तो कोई दोष दोषरूप नहीं रहेगा अर्थात् दोष गुणरूप संक्रमण हो जावेगा - परिवर्तित हो जाएगा, बदल जाएगा।
हानत भजन सौरभ