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राग विलावल भजि मन प्रभु श्रीनेमिको, तजी राजुल नारी ।। टेक॥ जाके दरसन देखतें, भाजै दुख भारी । भजि.॥ ज्ञान भयो जिनदेवको, इन्द्र अवधि विचारी। धनपतिने समोसरनकी, कीनी विधि सारी॥भजि.॥१॥ तीन कोट चहुं थंभश्री, देखें दुखहारी । द्वादश कोठे बीचमें, वेदी विस्तारी॥ भजि. ॥ २॥ तामै सोहैं नेमिजी, छयालिस गुणधारी। जाकी पूजा इन्द्रने, करी अष्ट प्रकारी। भजि.॥ ३ ॥ सकल देव नर जिहिं भौं, बानी उच्चारी। जाको जस जम्पत मिले, सम्पत्त अविकारी॥ भजि. ॥ ४॥ जाकी वानी सुनि भये, केवल दुतिकारी। गनधर मुनि श्रावक सुधी, ममतावुधि डारी । भजि. ॥ ५॥ राग-दोष मद मोह भय, जिन तिस्त्रा टारी। लोक-अलोक त्रिकालकी, परजाय निहारी । भजि.॥६॥ ताको मन वच कायसों, वन्दना हमारी। 'द्यानत' ऐसे स्वामिकी, जइये बलिहारी । भजि. ॥ ७॥
हे मन! तू श्री नेमिनाथ की भजन बंदना कर, उन्होंने अपनी होनेवाली पत्नी स्त्री का नेह छोड़ दिया। उनके दर्शन मात्र से ही कठिन दुःख भी दूर हो जाते हैं।
उन नेमिनाथ जिनदेव को केवलज्ञान हुआ। तब इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से यह जाना और कुबेर ने आकर समवसरण की रचना की और सारे नियोगों (निर्धारित कर्तव्यों) का निर्वाह किया।
द्यानत भजन सौरभ