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(४३) बन्दौ नेमि उदासी, मद मारिवेकौं ।। टेक॥ रजमतसी जिन नारी छाँरी, जाय भये वनवासी॥ बन्दौं. ॥
ह्य गय रथ पायक, सब छांडे, तोरी ममता फाँसी। पंच महाव्रत दुद्धर धारे, राखी प्रकृति पचासी ।। बन्दौं. ॥१॥ जाकै दरसन ज्ञान विराजत, लहि बीरज सुखरासी। जाकौं वंदत त्रिभुवन-नायक, लोकालोकप्रवासी । बन्दौं ।। २॥ सिद्ध शुद्ध परमातम राजै, अविचल थान निवासी। 'द्यानत' मन अलि प्रभु पद-पंकज, रमत रमत अघ जासी॥ बन्दौं. ॥ ३॥
मैं नेमिनाथ भगवान के उस वैराग्य को. जो समस्त प्रकार के मदों से विरक्त हैं, मदों का नाश करने में समर्थ है, वन्दन करता हूँ। जिस वैराग्य के प्रभाव से उन्होंने राजमती जैसी नारी के मोह को छोड़कर, विरक्त होकर बनवासी हो जाना स्वीकार किया अर्थात् गृह त्यागकर तप हेतु वन को चले गए उस वैराग्य को वन्दन करता हूँ।
जिस वैराग्य के प्रभाव से उन्होंने हाथी, गायें, रथ, पैदल सिपाही आदि सभी को छोड़कर मोह-ममता की फाँसी को तोड़ दिया। पाँच महाव्रत धारण कर दुर्लभ तप किया और तिरेसठ प्रकृति का नाशकर अहंत पद प्राप्त किया, जहाँ अघातिया कर्मों को केवल ८५ प्रकृतियाँ ही शेष रह जाती हैं भगवान नेमिनाथ के उस वैराग्य की वंदना करता हूँ। ___जिनके अनन्त चतुष्टय [अनन्त दर्शन-ज्ञान, सुख-वीर्य (बल)] प्रकट हो गए हैं, जो तीन लोक के नेता हैं, जो लोक-अलोक को जानते हैं अर्थात् प्रकाशित करते हैं उन नेमिनाथ के वैराग्य की वंदना करता हूँ।
जो सिद्धपद प्राप्तकर शुद्ध परमार्थ रूप में, सिद्धशिला पर अविचल रूप से सदा-सदैव के लिए विद्यमान व आसीन हैं, स्थिर हैं। धानतराग्य कहते हैं कि पुष्प पर निरन्तर मँडरानेवाले भँवरे की भाँति मेरा यह मन आपके चरणों के ध्यान में निरंतर रत रहे, रमता रहे।
घानत भजन सौरभ