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भावार्थको समझे बिना व्यर्थ ही यह सोलहवी बडी भूलकीहै। .. १७-जैसे श्री मल्लीनाथस्वामि स्त्रीत्वपनमें तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं. सो विशेषतासे प्रसिद्धही है, तो भी चौवीश तीर्थकरमहाराजोकी अपेक्षासे सामान्यतासे श्री मल्लीनाथ स्वामीकोभी पुरुषत्वपनेमें क. हनेमें आते हैं. मगर उसमे सामान्य विशेष संबंधी अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे कोई तरहका विरोध भाव नहीं आ सकता। तैसेही श्रीमहावीर स्वामीकेभी विशेषताले छ कल्याणक आचारांग-स्थानांग- कल्पसूत्रादि आगमोंमें कहेहैं. तो भी अतित, अनागत, और घर्तमान कालसंबंधी भरतक्षत्रके तथा ऐरवर्त क्षेत्रके सबी तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यतासे श्रीमहावीर स्वामिके भी पांच कल्याणक 'पंचाशक सूत्रवृत्ति' में कहे हैं, मगर उसमें सामान्य विशेष अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे इनके आपसमें कोई तरहका विरो. धभाव नहीं आ सकता, जिसपरभी आचारांग, स्थानांगादि आगमोके छ कल्याणक संबंधी विशेषताके और 'पंचाशक'के पांच कल्याणक संबंधी सामान्यताके आभिप्रायको समझे बिनाही सामान्य पांच कल्याणक संबंधी पूर्वापार संबंध बिनाका अधूरापाठ भोले जीवोंको पतलाकर आगमों में विशेषतापूर्वक छ कल्याणक कहे हैं उन्होंका निषेध करनेके लिये आग्रह किया है,सो भी अज्ञानता जनक सर्वथा अनुचित यह सत्तरहवी बड़ी भूलकी है।
१८- आचारांग, स्थानांगादि मूल आगोमें च्यवनादि अलग २ छ कल्याणक खुलासा पूर्वक बतलाये हैं, और उन्होंकी टीकामों मेंभी कल्याणक अर्थकी सूचना करनेवाले पर्यायवाचक च्यवनादि छ स्थान बतलाये हैं उसका भावार्थ समझे बिनाही च्यवनादि कोको वस्तु या स्थान कहकर कल्याणकपनेका सर्वथा निषेध किया सोभी अतीवगहनाशयवाले आगोके भावार्थका अजानपना हो. नेसे यहभी भठाहरवी बडी भूलकी है।
१९- आषाढ शुदी ६ को भगवान देवानन्दामाताकी कुक्षिमे आ. थे, सो नीचगौत्रके कर्म विपाकका उदयरूप है,उसीकोही शाखकारोने आश्चर्यरूप अच्छरा कहा है तोभी उसको प्रथम च्यवनकल्या. णक मानते हैं । और नीच गौत्रका कर्मविपाक क्षय हुए बाद उंच. गौत्रके कर्मविपाकका उदय होनेसे आसोज वदी १३ को त्रिशलामाताकी कुक्षिमें उत्तम कुलमें भगवान् पधारे तब अनादि भया
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