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लेख लिखके अपनी चातुराई प्रगट किवी हैं उसीका उतारा नीचे मुजब जानो-
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[ अधिक मासको अचेतन रूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना देखो आवश्यक निर्युक्ति विषे कहा है यथाजर फुल्ला कणिआरडा, चूअग अहिमासयंमिघुटंमि । तुहनखमं फुल्लेड, जइ पच्चंता करिति डमराई ॥ १ ॥ भावार्थ: हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरे को फुलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं अब देखिये हे मित्र यह अच्छी जातिकी वनपति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है ]
ऊपर के लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गकों दिखाता हुं-कि हे सज्जन पुरुषों न्यायाम्भोनिधिजीनें प्रथमतो ( अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है ) यह अक्षर लिखे हैं सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि दशलक्ष प्रत्येक वनस्पति तथा चौदह लक्ष साधारण वनस्पति यह चौata लक्ष योनीको सब वनस्पति अवश्यमेव अधिक मासमें हवा पाणीके संयोग यथोचित नवीन पैदाश होती है औरवृद्धि पानती है प्रफुल्लित होती है और निमित्त कारणसे नष्ट भी होजाती है जैसे बारह मासोंमें हानी वृद्धयादि वनस्पतिका स्वभाव हैं तैसे ही अधिक मास होने से तेरह मासों में भी बरोबर है यह बात अनादि कालसे चली आती है दिखती है क्योंकि इस संवत् १९६६ का लौकिक
और प्रत्यक्ष भी
पञ्चाङ्गमें दो
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