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व्यभिचारिणी स्त्री और वेश्या कहने लगी कि, यह तो नपुंसक है इसलिये हमारे पास नहीं आता है ।
अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि जैसे उस व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मन्तव्य एस शेठसे परिपूर्ण न हुवा तब उसीको नपुंसक कहके उसीकी निन्दा करी परन्तु जो विवेकबुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होवेंगे सैा तो उस शेठको नपुंसक न कहते हुवे उत्तमपुरुष ही कहेंगे, तैसेही सातवें महाशयजी भी अधिक मासको faraiमें लेनेका निषेध करनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक कुयुक्तियों का संग्रह करते भी अपना मन्तव्यको सिद्ध नहीं कर सके तब नपुंसक कहके अधिक मासकी निन्दा करी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घन होनेसे संसार वृद्धिका भय न किया परन्तु जो विवेक बुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होयेंगे सेा ता अधिक मासको नपुंसक न कहते हुवे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार विशेष उत्तमही कहेंगे सा तत्व पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;
और अधिक मासको नपुंसक कहके धर्म कार्योंमें निवेध करनेके लिये चौथे महाशयजीने भी उत्सूत्र भाषण रूप कुयुक्तियों के संग्रहवाला लेख लिखके बाल जीवोंका मिथ्यात्व में गेरनेका कारण किया था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ट २०० से २०४ तक अच्छी तरह से खुलासा पूर्वक छप गई है सो पढ़नेसे विशेष निःसन्देह हो जावेगा ;और जैसे धर्मी पुरुषों को पर स्त्री देखने में अभ्धेकी तरह होना चाहिये परन्तु देव गुरुके दर्शन करने में तो
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