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के लिये और सत्य बातोंका निषेध करनेके लिये नवीनधी कुयुक्तियों के विकल्प खड़े करके विशेष मिथ्यात्व फैलावेना और दूसरे भाले जीवोंको भी उसीमें फंसावेना सोती उसीकेही निवड़ कर्मों का उदय समझना परन्तु उसीमें शास्त्र कारका कोई दोष नहीं है इसलिये यहां मेरा खुलासा पूर्वक यही कहना है कि अधिकमासकी गिनती निषेध करनेवाले और गिनती प्रमाण करनेवालों को अनेक कुयुक्तियों से कल्पित दूषण लगानेवाले सातवें महाशयजी जैसे विद्वान् कहलाते भी निःकेवल अन्ध परम्पराके कदाग्रहमें पड़के बालजीवों को भी उसी में फंसाने के लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराज की और अपने पूर्वजोंकी आशातना करते हुवे पांगी प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़कर फिर शास्त्रकार नहाराजके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणों करके खूब पाखन्ड फैलाबाई और फैला रहे हैं जिससे श्रीतीर्थंकर महाराजकी आचाको उत्थापन करते हैं इसलिये अधिक मासको गिनती निषेध करनेवाले कदाग्राहियों को मिथ्यादृष्टि निन्हवेंकी गिनती गिनने चाहिये । यदि श्रीतीर्थंकर महाराजकी आज्ञाको अराधन करके आत्म कल्याणकी इच्छा होवे तो अचिक मासके निषेध करने सम्बन्धी कार्योंका निच्या दुष्कृत देकर उसीकी गिनती प्रमाण सुजध वर्तों नहीं तो उत्सूत्र भाषणोंके विपाकता भोगे बिना छूटने मुशकिल है;--
और फिरभी स्वपरम्परा पालने सम्बन्धी सातवें महाशयजीने लिखा है कि ( स्वमंतव्यने विरोध न जाये ऐसा बर्ताव करना बुद्धिमान पुरुषों का काम है) इस लेखापर
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