Book Title: Bruhat Paryushana Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHYAKSHES ॥ अहम् ॥ श्रीशांतिनाथाय नमः॥ AAAAAdd००००००.. बृहत्पर्युषणा निर्णय पूर्वार्द्ध. प्रथम-दूसरा खीर coooo कर्ता श्रीमान् परमपूज्य उपाध्यायजी श्री १००८ श्री से सागरजी महाराजके लघु शिष्य मुनि श्रीमणिसागरजी महाराज. प्रसिद्ध कर्ता कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, वीकानेर, जयपुर, जेसलमेर, मुंबई, धूलिया, चालीसगांव वगैरह शहरोंके जैनसंघकी द्रव्य साहतासे श्रीमत् अभयदेवसूरि ग्रंथमालाके कार्यवाहक कलकत्ता. तथा श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभंडारके कार्यवाहक, शा.पानाचंद भगुभाई,सुरत. मूलग्रंथ बी. एल. प्रेस, कलकत्ता में छपा. भूमिकादि, धि आत्माराम प्रिंटिंग अॅन्ड पब्लिशिंग कंपनी, श्री. वि. ग. जावडेकर द्वारा आत्माराम छापखाना धूलियामें छपा. श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४४७. विक्रम संवत् १९७८. वैशाख शुदी ३ मंगल वाग. प्रथम बार ३१५० कॉपी. भेट [ मूल्य सत्य ग्रहण. HIRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRENT Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्रीचंद्रप्रभस्वामिने नमः ॥ G याद रखने योग्य उपयोगी सूचना. deare १- आत्मार्थी है ! भव्यजीवों खरतरगच्छ, तपगच्छ, कमलागच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादिकके आग्रहकी बातें करनेमें आत्मकल्याण मुक्ति नहीं है, किंतु जिनाशानुसारभावसे शुद्धधर्मक्रिया करने में मु क्ति है. इसलिये अपने २ गच्छकी परंपरा रूढीको छोडकर जिनाज्ञानुसार सत्यबातकी परीक्षाकरके उसमुजबधर्मकार्यकरो उससे श्रेयहो. वा २- श्रीसर्वज्ञ भगवान् के कहे हुए अतीव गहनाशयवाले, अपेक्षा सहित, अनंतार्थयुक्त जैनशास्त्र अविसंवादी हैं, मगर " कत्थई देसग्गहणं, कत्था धिप्पंति निरवसेसाइं । उक्कमकम जुत्ताई, कारण वसओ निरुत्ताई ॥ १ ॥ " श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र की वृत्तिके इस महावाक्य मुजब - सामान्य, विशेष, ओपमा, वर्णनक, उत्सर्ग, अपवाद, विधि, भय, निश्चय, व्यवहारादिक संबंधी शब्दार्थ, भावार्थ, लक्ष्यार्थ, च्यार्थ, संबंधार्थादि भेदोंवाले गंभीरार्थके भावार्थ संबंधी शास्त्रवाक्योंकों समझे बिनाही अभी अविसंवादी सर्वज्ञशासन में कितने गच्छों के भेदोका आग्रह बढ गया है. देखो - "गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनीघातकरतां न लाजे । उदरभरणादि निजकाज करतांथ कां, मोहनडिया कलिकालराजे ॥ १ ॥ देवगुरुधर्मनी शुद्धि कहो किमरहे, किमरहे शुद्ध श्रद्धान आणो । शुद्धश्रद्धाविना सर्वकरियाकरी, छारपर निपणो तेह जाणो ॥ २ ॥ पापनहीं कोई उत्सूत्रभाषण जिस्युं, धर्म नहीं कोई जगसूत्र सरिखो । सूत्र अनुसारें जे भविक किरिया करें, तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥ ३ ॥ इत्यादि बातोंको विचार कर आत्मार्थियोंकों अपना असत्य आग्रहको छोडकर अपनी आत्माको हितकारी, सुखकारी होवे, वैसा सत्य ग्रहण करना चाहिये. ३- कितनेक मुनिमहाशय वर्षोवर्ष पर्युषणापर्वके व्याख्यानमें अधिक महीनेके व श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक के निषेध संबंधी बर्खा उठाते हैं, उससे भोले लोगोंको अनेक तरहकी शंकायें उत्पन्न होती हैं, और कितनेही महाशयतो इन बातों में तत्त्वदृष्टिसे सत्य असत्यका निर्णय किये बिनाही अपने पक्षको सत्य मान्य करके दूसरोंको झूठे. ठहरानेका एकांत आग्रह करते हैं । शास्त्रोंमें एकांत आग्रहको और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] शंकारूपी शल्यको एकप्रकारले मिथ्यात्वही कहाहै, उसका निवारण करनेकेलिये और शास्त्रानुसार सत्य बातोंका निर्णय बतलानेके लिये वर्तमानिक सर्व शंकाओंका समाधान सहित मैने यह ग्रंथ बनायाहै, मगर मैरी तरफसे किसी तरहका नवीन विवाद शुरूकरनेकेलिये न. ही बनाया. इसलिये इस ग्रंथके बनानेमें सुबोधिका, किरणावली वां चनेवाले कितनेक विद्वान् मुनि महाशयही कारणभूत हैं, पाठक गण इसमें मैरेको किसी तरहका दोषी न समझें, मैने तो उन्होंकी शंकाऔका समाधान लिखा है. ४- शुद्धश्रद्धाविना द्रव्यसे व्यवहारमें चाहे जितनेधर्मकार्य करें, तो भी आत्म कल्याण करने वाले नहीं होते, और आग्रही लोगोंकी अभी अलग २ प्ररूपणा होनेसे भोले जीवोंको जिनाज्ञानुसार सत्य बातकी प्राप्ति होना बहुत मुश्किल होरहा है. और अविसंवादी रूप आगम-पंचांगी-प्रकरण-चरित्रादि सर्वशास्त्रोको मानने वालों में पर्युषणा-छ कल्याणक-सामायिकादि विषयों संबंधी शास्त्रकारमहाराजो. के अभिप्रायको न समझनेसे व्यर्थही विसंवाद होरहाहै, उसकानिर्ण. य करनेके लिये और भव्यजीवाको शुद्धश्रद्धारूप सम्यक्त्व रत्नकी प्राप्तिके उपकारकेलिये मैने यह ग्रंथ बनायाहै । मगर किसी गच्छके साधु-श्रावकोको किसी अन्य गच्छमें ले जानेके लिये नहीं बनाया. किसी गच्छमें रहो, परंतु आपसमें राग द्वेष निंदा ईर्षा अंगतविरो धादिक बखेडे छोडकर शुद्ध श्रद्धापूर्वक आत्मिक कल्याण करनेके लियेही इस ग्रंथकी रचना करने में आयी है, इसलिये पक्षपात छोड. कर इस ग्रंथको वारंवार पूरेपूरा वांच,विचार,मननकर सत्य समझकरके शांति पूर्वक शुद्ध श्रद्धासहित अपना आत्मसाधन करके आस्मार्थी पाठकगण मेरे परिश्रमको सफल करेगे. ५-जिनाज्ञानुसार शुद्धश्रद्धापूर्वकभावसे धर्मकार्य करनेका योग महान्पुण्योदयहोवे तब प्राप्तहोताहै, इसलिये उसमें लोकपूजा बहुत समुदायवैगरकी प्रवृत्तिमुजब करना योग्यनहीं है. इसकालमें आत्मा“अल्पही होते है. कदाचित् गच्छ-गुरुपरंपरा-बहुत समुदाय वगैरह बाह्यकारणोंसे आज्ञामुजब क्रियाकरनेका योग न बनसके तोभी शुद्धश्रद्धा-प्ररूपणा तो आज्ञामुजब सत्यबातोंकीही करना योग्यहै,उ. ससे भवांतरमें सुलभबोधिकी प्राप्ति हो सकेगी. मगर गुरु-गच्छलोकसमुदायके आग्रहसे जिनाज्ञा बाहिर क्रिया करतेहुए आशामुजब सत्यबातोका निषेध करनेसे भवांतरमे दुर्लभबोधिकी प्राप्ति होतीहै, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] इसलिये भवभिरुयों को गुरु गच्छ व लोक समुदायादिकका पक्षरखनेके बदले जमालिके शिष्योंकी तरह जिनाशाका पक्ष रखनाही योग्य है, अर्थात् - जैसे- अपने गुरु जमालिके उत्सूत्रप्ररूपणा के पक्ष को छोड़कर बहुत भव्यजीव भगवान्की आज्ञामुजब मामनेलगेथे, तैसेही अभी भी आत्मार्थियों को करना योग्य है. यही सम्यक्त्वका मुख्य लक्षण है. ६- मैंरे बनाये इस एक ग्रंथके सामने अनेकग्रंथ लिखे जाने की मैरेको कोई परवाह नहीं है, देखो-जैसे एकवीतराग सर्वज्ञभगवान् के परोपकारी जैन आगमोंके विरुद्ध हजारों मतवादी अनेक तरहसे अ पना २ कथन करते हैं. मगर तत्त्व दृष्टिले आत्महितकारी सत्य बात क्या है, यही देखा जाता है. तैसेही- मैंरे बनाये इस ग्रंथपरभी १-२ नहीं; परंतु १०-२० लेखकभी अपना २ विचार सुखसे लिखें. मगर जिनाशानुसार सत्य बात क्या है. यही देखना है. झूठे मतवादियों का यही स्वभाव है, कि - हजारों सत्य बातें छोड़ देते हैं, और अतिश - योक्ति या क्रोध में आकर क्लेश बढानेलगजाते हैं, मगर अपनी बात को छोडते नहीं. वैसे इस ग्रंथपर न होना चाहिये यही प्रार्थना है. ७- इस ग्रंथ में पर्युषणा संबंधी अधिक महीने के ३० दिनोंकी गिनती सहित आषाढचौमास से ५० वे दिन दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषण पर्व का आराधन करनेका तथा श्रावण भाद्रपद आ सोज अधिक महीने होंवे तब पर्युषणा के पीछे कार्तिकतक१०० दिन ठहरनेका खरतर गच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादि सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंके वचनानुसार और निशीथचूर्णि, वृहत्कल्पचूर्णि, पर्युषणाकल्पचूर्णि, स्थानांग सूत्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रपाठानुसार अच्छी तरह से साबित करके बतलाया है । जैसे अधिक म हीना होवे तोभी ५० दिने पर्युषणापर्व करनेकी सर्व शास्त्रोंकी आशा है, वैसेही - अधिक महीना होवे तोभी पीछे हमेश ७० दिन रहने की आ ज्ञा किसी भी शास्त्रमें नहीं है, समवायांगसूत्रका पाठ तो सामान्य रीति से अधिक महीना न होवे तब ४ महीनोंके वर्षाकाल संबंधी है, उसका भावार्थ समझे बिना अधिक महीना होवे तब अभी पांच महीनोंके वर्षाकालमै भी उसी सामान्य पाठको आगे करना और १०० दिन पीछे रहने संबंधी अनेक शास्त्रोंके विशेष पाठोंकी बातको छोड देना यह सर्वथा अनुचित है । ८- लौकिक टिप्पणा में दो श्रावणादिमहीने होंवे, तब पांच महीनोंका वर्षाकाल मान्य करना यह बात अनुभवसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाणानुसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है,तोभी उनको ४ महीनोंका वर्षाकाल कहनसे मिथ्या भाषण करनेकादोषआताहै। यदि अभी वर्तमानमें अधिकमहीनेश्रावणादि होनेपर भी जैनशास्त्रानुसार ४ महीनोका वर्षाकालमानोगे, तो,पौष-आषाढ अधिक होनेवाला ८८ ग्रहसहित जैनपंचांगभी अभी मानना पडेगा. मगर वो जैनपंचांग तो अभी विच्छेद है, इसलिये लौकिकपंचांग मुजब व्यवहार करने में आताहै । अब यहांपर विवेकबुद्धिसे न्यायपूर्वक विचारकरना चाहिये, कि-अभी पौष-आषाढमहीनेकी वृद्धिवाला८८ ग्रह सहित जैनपंचांग विच्छेदभी मानना. व लौकिक पंचांग मुजब व्यवहारभी करना. और लौकिक पंचांग मुजब अधिकमहीने दो श्रावण,या दो भाद्रपद,वा दो आसोजभी मानने. फिर ४महीनोकावर्षाकालभी कहना, यह तो बालचेष्टा' की तरह पूर्वापर विरोधी वि. संवादी कथनकरना विवेकी विद्वानोंको सर्वथाही योग्य नहीं है। अ. धिकश्रावणादिमहीने नहींमानने होवे तो अभी अधिकपोषादि वाला जैनपंचांग बतावो अथवा लौकिक पंचांग मुजब अधिक श्रावणादि मानो तो अधिकपोषादिका बहाना बतलाकर ४ महीनोंकावर्षाकाल कहनेका आग्रहछोडो । अधिकश्रावणादिभी मानोगे और ४ महीनोंका वर्षाकालभी कहोंगे, यह कभी नहीं बन सकेगा. विच्छेद जैनपंचांगकी बातका आश्रय लेना और प्रत्यक्ष विद्यमान बातका निषेध करना, यह न्याय विरुद्धहै। पहिले पौष आषाढ बढतेथे तबभी फा. ल्गुन और आषाढचौमासा पांच२ महीनोंसे होताथा और अभी श्रा. वणादिबढतेहैं तब कार्तिक चौमासाभी पांचमहीनोंका होताहै.अभी जैनपंचांग विच्छेद होनेसे लौकिक पंचांग मुजब अधिक श्रावणादि मान्यकरके उसमुजब व्यवहार करना युक्तियुक्त व पूर्वाचायौँकी आज्ञानुसारहै, जिसपरभी अधिक श्रावणादि होवे,तब पांच महीनों के वर्षाकालमें ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्व आराधन करनेका उल्लंघन करना और पीछे १०० दिन रहने की जगह ७० दिन रहनेका आग्रह करना सर्वथा अनुचित है देखो यद्यपि जैन पंचांगमें ४ महीनोंका वर्षाकाल कहाहै, परंतु जैन पंचांगके अभावसे अभी लौकिक पंचांग मुजब श्रावणादि बढतेहैं, तब पांच महीनोंका वर्षाकालभी मानना पडता है, इसलिये इसका निषेधकरना सर्वथा अनुचितहै.बस ! पौष-आषाढमहिनेकी वृद्धिसहित ४ महीनोंके वर्षाकाल वाला जैन पंचांग शुरू बतावो या लौकिक पंचांग मुजब श्रावणादि बढ़े तब पांच महीनोंका वर्षाकाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य करो और जब पांच महीनोका वर्षाकाल मान्य हुआ तो फिर अधिकमहीना निषेध करनेकी व पर्युषणाके पीछे ७० दिन हमेश रखने वगैरहकी सर्व बातें आपही आप निष्फल हो जाती हैं इसतरहसे अधिकमहीनेकेनिषेधसंबंधी धर्मसागरजीने 'कल्प कि. रणावली'में, जयविजयजीने 'कल्प दीपिका' में, विनयविजयजीने 'सु. बोधिका में,कांतिविजयजी-अमरविजयजीने जैन सिद्धांत समाचारी' में,शांतिविजयजीने मानवधर्मसंहिता में,वल्लभविजयजीने जैनपत्रमें, विद्याविजयजीने पर्युषणा विचार'में,कुलमंडनसूरिजीने 'विचारामृत संग्रह' में, हर्षभूषणजीने 'पर्युषणास्थिति' में, और वर्तमानिक चर्चाके हेडबिले, किताबे वगैरहमें जो जो शंकायें कीहैं, उन सर्व शंकाओंका खुलासा पूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकामे व पीठिका और इस ग्रंथमें अच्छी तरहसे लिखनेमे आयाहै, इसलिये जिनाशानुसार धर्मकार्य करनेकी इच्छावाले,सत्यतत्त्वाभिलाषी,आत्माहितैषी पाठक गण इसथको पूर्णतया वांचकर सत्यसार ग्रहण करें। ९-तीर्थकर भगवान्के च्यवन-जन्म-दीक्षादिकोंको कल्याणक मा ननका आगमानुसार अनादि सिद्ध है,इसलिये श्री महावीरस्वामिभी देवलोकसे देवानंदामाताके गर्भमे आषाढ शुदी ६ को आये; उन. को प्रथम च्यवन कल्याणक, और आलोजवदी १३ को देवानंदामा. ताकेगर्भसे त्रिशलामाताके गर्भमें आये; सो गर्भापहाररूप (गर्भसंक्रमणरूप)दूसराच्यवन कल्याणक माननेका स्थानांग-आचारांग-दशाश्रुतस्कंधादिक आगम पंचांगी प्रकरण चरित्रादि अनेक शास्त्रानुसा. र और वडगच्छ, चंद्रगच्छ, उपकेशगच्छ (कमलागच्छ ) खरतर. गच्छ,तपगच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादि अनेक गच्छोंके पूर्वाचार्योंके ग्रंथानुसार अच्छी तरहसे सिद्ध करके बतलायाहै. च्यवनजन्म-दीक्षादिकोको चाहे वस्तु कहो, चाहे स्थानकहो, चाहे कल्याणक कहो. इन तीनोंबातोंमें प्रसंगोपात संबंधानुसार पर्याय वाचक एकार्थवाले शब्द अलग २ हैं, मगर सबका भावार्थ एकही है, उसबातकाभेद समझे बिनाही च्यवन-जन्म-दीक्षादिकाको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणक पनेका निषेध करके आगमार्थरूप पंचांगीको उ. स्थापनकरनेके दोषी बनना किसीकोभी योग्य नहीं है। १०- श्रीवीरप्रभुके आषाढ शुदी ६ को प्रथम च्यवनकल्याणक मान्यकरके आसोजवदी १३ को दूसरेच्यवनको कल्याणकपनेका नि. षेध करनेवालोंको न्यायबुद्धिसे विचार करना चाहिये, कि-तीर्थकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] भगवान्केच्यवनकल्याणकसमय उनकी माता१४महास्वप्न आकाशसे उत्तरतेहुएदेखतीहैं, उसीसमय तीनजगतमें उद्धयोत होता है व सर्व संसारीप्राणीमात्रको सुखकीप्राप्तीहोती है, और इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देखकर विधिपूर्वक पूर्णभक्तिसहित नमुत्थुणंरूप नमस्कारकरके तत्काल माताके पासआकर१४ महास्वप्न देखनेसे स्वप्नोंके अनुसार तीनजगतकेपूज्यनी क तीर्थकर पुत्र होनेका कहकर इन्द्रमहाराज अपने स्थानपरजाते हैं. और प्रभातसमय फजरमे राजा स्वप्न पाठकोसे १४ महास्वप्नोंकाफल पूछताहै,तब तीर्थकर पुत्र होनेका सुनकर हर्ष सहित महोत्सव करता है, और इन्द्र महाराज देवताओं द्वारा उस रोजसे भगवान के माता-पिताके घरमे धन धान्यादिकसे राज्य ऋद्धिकीवृद्धि करवाते हैं इत्यादि तीर्थकरभगवान्के च्यवनकल्याणकके कार्यहोतेहैं, यही सर्व कार्य आषाढशुदी के रोज भगवान् देवानंदामाताके गर्भमें आये तब नहीं हुए,किंतु आसोज वदी १३के रोज त्रिशलामाताके गर्भ में आये; तब उससमय हुएहैं, क्योंकि देखो-आषाढ सुदी ६ को तो प्राचीन कर्मके उदयसे भगवान् ब्राह्मणीदेवानंदामाताके गर्भमें आये. और ८२दिनतकवहां ठहरनापडा,उनको कल्पसूत्रादिक शास्त्रोमें अच्छेरा कहाहै, इसलिये ८२ दिन तकतो इन्द्रादिक किसीकोभी तीर्थकरभगवान्के उत्पन्न होनेकी मालूम न पडी,मगर संपूर्ण८२ दिन गयेबाद इन्द्रमहाराजको अवधिशानसे मालूमपडी उसीसमय पूर्णहर्षसहित नमुत्थुणंकिया और हरिणेगमेषिदेवको आज्ञाकरके क्षत्रियाणीत्रिशला माताके गर्भमें पधराये, तब त्रिशलामाताने (देवानंदाके १४महास्वप्न हरणकरनेका१स्वप्न नहीं देखा-किंतु)तीर्थकर भगवान्के च्यवन कल्याणककी सूचनाकरने वाले १४ महास्वप्न आकाशसे उत्तरत हुए और अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखे हैं. इसलिये खास कल्प: सूत्रके मूल पाठमेभी "एए चउद्दस सुमिणा, सव्वा पासेई तित्थयर भाया। जं रयणि वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरिहा"अर्थात्-जिस समय तीर्थकर भगवान माताके गर्भ में आकर उत्पन्न होतेहैं,उस समय यह १४ महास्वप्न सर्व तीर्थकरमहाराजोंकी मातायें देखती हैं, बैसेही-त्रिशलामातानेभी १४ महास्वप्न देखे हैं, इसलिये त्रिशलामा. ताके गर्भमें आनेकोही शास्त्रकार महाराजोंने च्यवन कल्याणक मा. न्य कियाहै, इसीकारणसे समवायांगसूत्रवृत्तिमें देवानंदामाताके गभैसे त्रिशला माताके गर्भमें आनेको अलग भव गिनकर तीर्थकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] पनेमें प्रकट होनेकालिखाहै. और 'महापुरुष चरित्र' में तथा 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' आदिक प्राचीन शास्त्रोमेभी ८२ दिन गये बाद इन्द्रका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवान्को देखकर नमुत्थुण किया और त्रिशलामाताके गर्भमैपधराये, जब त्रिशलामाताने १४महास्वप्न देखें,तब खास इन्द्रने त्रिशलामाताके पासमें आकर तीर्थकर पुत्र होनेका कहा है, और फजरमें स्वप्न पाठकॉसभी तीर्थकर पुत्र होने का सुनकर सबको तीर्थकर भगवान्के उत्पन्न होने की मालूम होगई. इसलिये कल्पसूत्रमें जो नमुत्थुणंका पाठ है, सोभी आसोज वदी १३ के दिन संबंधी है, किंतु आषाढ शुदि६ के दि. न संबंधी नहींहै, क्योंकि देखो- 'नमुत्थुणं करके त्रिशलामाताके ग. र्भमें पधराये' ऐसा कल्पसूत्रादिमें खुलासालिखाहै, मगर आषाढ शु. दीदको आसनप्रकंपनसे नमुत्थुणं किया और फिर उसके बादमे ८२ दिन गये पीछे त्रिशलामाताके गर्भमें पधराये. या ८२दिन तो इन्द्रको विचारकरते चलेगये. वा पूरे ८२ दिन गयेबाद आसोज वदी १३ को फिर आसन प्रकंपनसे त्रिशलामाताके गर्भपधराये. अथवा ८२दिन ठहरकर पीछे त्रिशलामाताके गर्भमें पधराये. ऐसे पाठ किसीभी शास्त्रमें नहींहै. मगर ८२दिन तक तो मालूमभी नहींपडी, परंतु ८२दिन जाने बाद आसन प्रकंपनहोनेसे मालूम पडी, तब नमुत्थुणं किया और उसी रोज पधराये, ऐसे पाठ तो "महापुरुष चरित्र" में तथा "त्रि. षष्ठिशलाका पुरुष चरित्र" आदि अनेक प्राचीन शास्त्रोमें खुलासा पूर्वक प्रत्यक्ष मिलतेहैं, इसलिये आसोज वदी १३ कोही 'नमुत्थुणं' वगैरह च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होनेसे आगम पंचांगीकी श्रद्धावालाको व श्रीवीरप्रभुकी भक्तिवालाको यह दूसरा च्यवनरूप कल्याणक मान्य करनाही उचित है, बस ! आसोज वदी १३ कोही नमुत्थुणं करने वगैरह च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होनेका मा. न्यकरो या आषाढ शुदी ६ को नमुत्थुणं करने वगैरह च्यवन कल्या. णकके तमाम कार्य होनेका खुलासा पूर्वक शास्त्रपाठ बतलावो,व्यर्थ विवाद करने में कोई सार नहीं है. ११- श्रीआदीश्वर भगवान के राज्याभिषेकमें तो कोईभी क. ल्याणकके लक्षण नहीं हैं, मगर गर्भापहारसे गर्भ संक्रमणरूप दूस. रेच्यवनमें तो च्यवन कल्याणकके सर्व लक्षण प्रत्यक्ष मौजूद है, इ. सलिये उसका भावार्थ समझे बिनाही राज्याभिषेककी तरह गर्भापहारकोभी कल्याणकपनेका निषेध करना यहभी बे समझ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] १२- श्री आदीश्वरमगधान् १०८ मुनियोंके साथ 'अष्टापद' पर मोक्ष पधारे सो अच्छेरा कहते हैं, तोभी उनको मोक्ष कल्याणक माननेमें कोई भी बाधा नहीं आसकती. तैसेही- श्री वीरप्रभुकेभी देवानंदा माता के गर्भ में आने से त्रिशलामाता के गर्भ में जाना पडा. सो अच्छेरारूप कहते हैं, तोभी उनको च्यवनकल्याणक माननेमें कोई भी बाधा नहीं आसकती. इसलिये अच्छेरा कहकर कल्याणकपनेका निषेध करना यहभी बे समझही है. १३- और श्री मल्लिनाथस्वामि स्त्रीपने में तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं, तोभी चावीश तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यता से पुरुषपनेमें कहने में आते हैं. तैसेही श्रीवीरप्रभुकेभी छ कल्याणक आचारांग - स्थानांगादि आगमों में विशेषता से खुलासापूर्वक कहे हैं, तोभी 'पंचाशक' में सर्व तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यतासे पांच क. ल्याणक कहे हैं, उसकाभावार्थ समझे बिनाही सर्वजिन संबंधी पांचकल्याणकोका सामान्य पाठको आगे करके आचारांग - स्थानांगादि आगमों में कहे हुए विशेषतावाले छ कल्याणक का निषेधकरना यह भी वे समझका व्यर्थही आग्रह है । १४ - इसतरहसे आगमपंचांगीके अनेक शास्त्रानुसार तीर्थकर, ग णधर, पूर्वधरादि प्राचीन पूर्वाचार्योंके कथनमुजब गर्भापहारको दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपनाप्रत्यक्षसिद्ध होनेसे. श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने चितोड में छठे कल्याणककी नवीनप्ररूपणाकी, पहिले न ह्रीं थी, ऐसा कहेनाभी वे समझसे व्यर्थ ही है । १५ - और गर्भापहाररूप दूसरे च्यवनकल्याणक के अतीव उत्तम कार्यको 'सुबोधिका ' टीकामे अतीव निंदनीक कहकरके निंदा की है, सोभी भगवान्की आशासनाकारक होने से सम्यक्त्वको व संयमको हानी पहुंचाने वाली है, उसका तत्त्वदृष्टिसे विचार किये बिनाही विद्वान् कहलानेवाले सर्व मुनिमहाराज वर्षौंवर्ष पर्युषणापर्वके मांगलिक रूप व्याख्यान समय ऐसी अनुचित बातको वांचते हैं, यह बडीही शर्म की बात है, भवभीरू आत्मार्थियोंको ऐसा करना कदापि योग्य नहीं हैं। इन सर्व बातोंका विशेष निर्णय प्रथम भागकी भूमिका में और इस ग्रंथके उत्तरार्द्धमें अच्छी तरहसे लिखने में आया है, उनके वांचने से सर्व बातोंका निर्णय हो जावेगा. १६-- सामायिक में प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेले इरियावही करने संबंधी भी आवश्यक चूर्णि बृहद्वृत्ति- लघुवृत्तिनवपदप्रकरण विवरणरूपवृत्ति - दूसरीवृत्ति-भावकधर्मप्रकरणवृत्ति २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] वंदितासूत्रचूर्णि श्राद्धदिनकृत्य सूत्रवृत्ति - पंचाशकन्चूर्णि वृत्ति-विचारामृत संग्रह - धर्म संग्रहवृत्ति संबोधसप्तरी प्रकरणवृत्ति-जयसोमोपाध्यायजी कृत 'ईयापथिकी षट्त्रिंशिका विवरण', श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति इत्यादि अनेक शास्त्रानुसार श्रीजिनदासगणिमहात्तराचार्यजी पू धर, श्रीहरिभद्रसूरिजी, अभयदेवसूरिजी, हेमचंद्राचार्यजी, देवेंद्रसूरिजी, देवगुप्तसूरिजी वगैरह सर्व गच्छोंके प्राचीन पूर्वाचार्यांने सा मायिक विधि प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पछिसे इरियावदी करके स्वाध्याय, ध्यानादि धर्मकार्य करनेका बतलाया है, यह बात जिनाशानुसार है. पहिले सर्व गच्छों में इसीप्रकार से ही सामाकिविधि करतेथे, मगर पीछेसे कितनेही चैत्यवासियोंनें अपनीमतिकल्पना मुजब प्रथम इरियावही पीछेकरेमिभंते स्थापन करनेका आग्रहचलाया था, उनकी परंपरा मुजब अबीभी कितनेक महाशय प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करने के लिये अन्य कोईभी प्र कट अक्षरवाले शास्त्रप्रमाण न मिलने से महानिशीथ - दशवैकालिकादिकके अधूरे २ पाठोंसे संबंध के विरुद्ध अर्थ करके सामायिकमें प्रथमइरियावही पीछेक रेमिभंते ठहराते हैं, परंतु उससे अनेक दोष आते हैं, उसका विचारभी कभी नहीं करते हैं. देखो - विसंवादी शा' त्रकों व विसंवादी कथन करनेवालोको शास्त्रोंमें मिथ्यात्वी कहे हैं, इसलिये जैन शास्त्रोंको व पूर्वाचार्योंको अविसंवादी कहने में आते हैं, और आवश्यक चूर्णिआदि अनेक शास्त्रों में सामायिक में प्रथमकरेमि भंते पीछेइरियाघहीके पाठमौजूद होनेपरभी महानिशीथ - दशवेकालिकादि से प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेस सर्वश शास्त्रों में विसंवादरूप यह प्रथमदोष आता है. और आवश्यक बडी टीका, महानिशीथका उद्धार, 'दशवैकालिक बडीटीका यह सर्वशास्त्र श्रीहरिभ द्रसूरिजी महाराजने किये हैं, इसलिये आवश्यक बडी टीका के विरु द्ध महानिशीथ से प्रथम इरियावही ठहरानेसे इन महाराजके कथनमें विसंवाद आनेरूप यह दूसरा दोष आता है. आवश्यकादिमें सामाfara नामसे प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावद्दी खुलासा लिखी है, महानिशीथ के तीसरे अध्ययनमें उपधानसंबंधी चैत्यवंदन स्वाध्यायादिकरनेकापाठहै, दशवैकालिककी टीका में साधुके गमनागमन ( जाने आने) संबंधी इरियावही करके स्वाध्यायादि करनेका पाठहै, इसप्रकार भिन्न २ अपेक्षा वाले शास्त्रोंके पाठोंके संबंध विरुद्ध होकर अ धूरे २ पाठोंसे सामायिक में भी प्रथम इरियावही ठहराने से शास्त्रोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] मर्यादाका भंगहोनेरूप यह तीसरा दोषआताहै. और सर्व गीतार्थपू. चार्योने महानिशीथादि देखेथे, उन्होके अर्थकोभी अच्छी तरहसे जानतेथे, तोभी सामायिकमें प्रथम इरियावही नहीं लिखी, जिसपरभी अभी महानिशीथसे सामायिकमें प्रथम इरियावही ठहरानेसे उन सर्वे गीतार्थ पूर्वाचार्योको महानिशीथके अर्थको नहीं जाननेवाले अशानी ठहरानेका यहचौथादोषआताहै. और सर्वपूर्वाचार्योंने सामायिक प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही लिखीहै,उसको उत्थापनकरनेसे सर्व पूर्वाचार्योंकी आज्ञा लोपनेका यह पांचवा दोषभी आताहै. और आवश्यकचूर्णि आदिक सर्व शास्त्रोंके विरुद्ध होकर सामायिक में प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे आगम पंचांगीके उत्थापनरूप यह छठा दोषआताहै. और खास तपगच्छके श्रीदेवेंद्रसूरिजी,कुलमंडनसूरिजी वगैरहोंनेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरिया. वही खुलासा लिखी है, उसकेभी विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अपने पूर्वज बडील आचार्योकीभी अवज्ञा करनेरूप यह सातवा दोषभी आताहै. इसप्रकार सामायिकमें प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही कहनेका निषेध करके प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अनेक दोष आते हैं, इ. सका विशेष खुलासा पूर्वक निर्णय शास्त्रोके संपूर्ण संबंधवाले पा. ठोकेसहित इसीग्रंथके दूसरेभागकी पीठिकाके पृष्ठ८७से११२ पृष्ठतक और इस ग्रंथमभी पृष्ठ ३१० से ३२९ पृष्ठ तक छपगयाहै. वहां सर्व शंकाओंका खुलासा समाधान करनेमें आया है, इसलिये आत्मार्थी भव्य जीवोंको जिनाशानुसार, सर्व गच्छेोके पूर्वाचार्योंके वचनानुसार, प्राचीन अनेक शास्त्रानुसार, तीर्थकर गणधर पूर्वधरादि महाराजोकी भाव परंपरानुसार सामायिक प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनाहीयोग्यहै, और प्रथमहरियावही करनेकी अभी थोडेकालकी गच्छकीरूढीके आग्रहको छोडनाही श्रेयरूप है । इस बातको विशेष तत्त्वज्ञ जन आपही विचार लेंगे. जिन २ महाशयोंको इतना बडा संपूर्णग्रंथ वांचनेका अवकाश न होवे; उनमहाशयोको इसग्रंथके प्रथमभागकी भूमिका और दूसरे भागकी पीठिकाको अवश्यही वाचनाचाहिये. मैने भूमिका-पीठिकामें अन्य २बाते नहींलिखी,किंतु इसग्रंथकासार और सर्वशंकाओंका थोडेसे में समाधानमात्रही लिखाहै इसलिये भूमिका-पीठिका वांच. नेवालोंको ग्रंथकासार अच्छीतरहसे मालूम होसकेगा. इतिशुभम् . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] इसग्रन्थके उत्तरार्द्धके तीसरे खंडकी-जाहिर खबर. १.इसप्रेथके उत्तरार्द्धके तीसरेखंडमें आगमादि अनेकप्राचीन शा. स्त्रानुसार,व चंद्रगच्छ,वडगच्छ, स्वरतरगच्छ,तपगच्छ,अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादि सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्योंके बनायेग्रंथानुसार श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणक मान्यकरनेका अच्छी तरहसे सिद्ध करके पत. लाया है. और शांतिविजयजीने जैनपत्र'मैं, विनयविजयजीने 'सु. बोधिका में, कांतिविजयजी-अमरविजयजीने 'जैनसिद्धांत सामाचा. री' में, श्रीआत्मारामजीने 'जैन तत्त्वादर्श में, धर्मसागरजीने 'कल्पकिरणावली' 'प्रवचन परीक्षा' वगैरहमें जो जो छ कल्याणक नि. षेध संबंधी शंकायें की हैं. और शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायको समझे बिनाही अधूरे२ पाठ लिखकर उनके खोटे २ अर्थ करके भोले जीवोंको उलटा मार्ग बतलानेकी कौशिश की है, उन सर्वबातोका समाधान सहित निर्णय इसमें लिखनेमें आया है। २-और श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजसे वस्तिवासी-सुविहित खरतर विरुदकी शुरुयात हुयीहै,इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज खरतर गच्छमें हुए हैं, यह बात प्राचीन शास्त्रानुसार तथा तपगच्छके पूर्वाचार्योके बनाये ग्रंथानुसार सिद्धकरके बतलायाहै । और कोई महाशय श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजसे संवत् १२०४में बरतरगच्छकी शुरुयातहोनेका कहते हैं, सोभी सर्वथा असत्य है. क्योंकि-इन महाराजसे सं.१२०४ में खरतरगच्छकी शुरुयात होनेका कोईभी कारण नहीं हुआ है. व्यर्थ झूठे आक्षेप करने बडी भूलहै, देखो-१२०४में तो खरतर गच्छकी तीसरी शाखा हुई है. इस बातका अच्छीतरहसे खुलासा इसग्रंथमें करनेमें आयाहै. ३-और जैनशास्त्रोकी यह आशा है, कि-यदि अपनी गच्छ परंपरामें ३-४ पेढीके आगेसेही शिथिलाचार चला आता होवे, तो क्रिया उद्धार करनेवाले दूसरेगच्छके अन्यशुद्ध संयमीके पासमें क्रिया उद्धार करें. अर्थात् - उनके शिष्य होकरके शुद्ध संयम पाले, उससे पहिलेकी शिथिलाचारकी अशुद्ध परंपरा छुटकर, क्रिया उद्धार करवानेवाले गुरुकीशुद्धपरंपरा मानीजावे. देखो जैसे-श्रीआत्माराम जीने ढूंढियोंके झूठेमतको छोडकर तपगच्छमें दीक्षाली है. इसलिये यद्यपि पहिलेढूंढियेथे तोभी उनकीपरंपरा ढूंढियोमैनहींलिखी जावे; किंतु तपगच्छमेही लिखीजावे. तथा कोई शिथिलाचारी यति अपने गुरु व गच्छको छोडकर अन्यगच्छवाले शुद्धसंयमीके पासमें क्रिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] उद्धारकरे(फिरसे दीक्षालेवे)तो उनकी यतिपनकी अशुद्धपरंपरा छु. टकर जिसगुरुके पासमें क्रिया उद्धार किया होगा, उन्हीं गुरुकीशद्ध परंपरा चलेगी। इसी तरहसे श्रीवडगच्छके जगचंद्रसूरिजी म. हाराजने अपनेको व अपनी गच्छ परंपराको शिथिलाचारी अशुद्ध जानकर छोडदियाथा और श्रीवैत्रवालगच्छके शुद्ध परंपरावाले शुद्ध संयमी श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके पासमें क्रिया उद्धार कियाथा,अर्था -उनके शिष्य होकर शुद्ध संयमी बने थे. और उसके बादमें बहुत तपस्या करनेसे 'तपा' विरुद मिलाथा, उस रोजसे इन महाराजकी समुदायवाले तपगच्छके कहलाये गये. इसलिये श्रीदेवेंद्रसूरिजीमहाराजने और श्री क्षेमकार्तिसूरिजी महाराजने श्रीजगचंद्रसूरिजीमहाराजकी पहिलेकी शिथिलाचारकी वडगच्छकी अशुद्ध परंपरा लिखना छोडकर; इनमहाराजकी चैत्रवाल गच्छकी शुद्ध परंपरा अपनी बनाई 'धर्मरत्न प्रकरण वृत्ति' में और 'श्रीबृहत्कल्प भाग्य वृत्ति' में लिखीहै. यही शुद्ध परंपरा लिखना जिनाशानुसार है, मगर पहिलेकी वडगच्छकी अशुद्ध परंपरा लिखना जिनाशानुसार नहींहै.यह बात अल्पशभी अच्छी तरहसे समझसकताहै. जिसपरभी अभी वर्तमानि क तपगच्छके विद्वान मुनिमंडल देवेंद्रसूरिजी वगैरह महाराजोंकी लिखी हुई जिनाशानुसार चैत्रवालगच्छकी शुद्ध परंपराको छोड देते हैं.और जिनाशाविरुद्ध शिथिलाचारी वडगच्छकी अशुद्ध परंपराको लिखते हैं. यह सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है. इन सर्व बातोंका विस्तार पूर्वक खुलासा इस ग्रन्थके उत्तरार्द्धमे लिखा गयाहै. सोभी छपकर तैयार होगयाहै, इस पूर्वार्द्धके प्रकट हुएबाद, थोडे समयसे उत्तरा. ईभी प्रकट होगा, सो संपूर्ण तया वांचनेसे सर्व निर्णय हो जावेगा. विद्वान् सर्व मुनिमंडलसे विनति. श्रीमान्-विजयकमलसूरिजी, विजयधर्मसूरिजी, विजयनेमिसूरिजी, बुद्धिसागरसूरिजी, विजयवीरसूरिजी, विजयनीतिसूरिजी विजयसिद्धिसूरिजी, आनंदसागरसूरिजी, उ०इन्द्रविजयजी, प्र० श्री कांतिविजयजी-मंगलविजयजी, पं० गुलाबविजयजी-धर्मविजयजीकेशरविजयजी-दानविजयजी-मणिविजयजी- अजितसागरजी, श्री. हंसविजयजी-कपूरविजयजी-वल्लभविजयजी-कल्याणविजयजी-लब्धिविजयजी-आनंदविजयजीमादि विद्वान्सर्व मुनिमंडलसेविनति.. आप यह तो जानतेहीहैं, कि-श्रीनिशीथचूर्णिमें वर्षाऋतुमेही मु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] नियोंको आलोयणालेनेकाकहाहै, और अभीश्रावणादिमहीने बढ़े.तब पांच महीनोंके दश पक्ष; १५० दिन वर्षाकालके होते हैं, उसमें आयंबिल, उपवास, नवकरवाली गुणने वगैरहसे जितने दिन धर्मकार्य होंगे, उतनेही दिन आलोयणाकी गिनतीमें आवेंगे,इसी तरहसे वर्षी और छमासीतपके दिनों में व ब्रह्मचर्य पालने वगैरह कार्योमेभी अधिक महीने के ३० दिन गिनती में आते हैं । इस हिसाबसे धर्मकार्यमें व कर्म बंधनके व्यवहारमै सूर्यके उदय अस्त (रात्रि दिनके) परिवर्तन के हिसाबसे और अंग्रेजी, मुसलमानी, पारसी, बंगलाकी तारिखोके हिसाबसेभी आषाढ चौमासीसे जब दो श्रावण होवें; तब भाद्रपद तक, या जब दो भाद्रपद होवे तब दूसरेभाद्रपद तक ८० दिन होतेहैं, उसके ५०दिन कहते हैं, और जब दो आसोज होवे तब कार्तिक तक१००दिनहोतेहैं, उसकेमी ७०दिन कहतेहैं. यहबात संसार व्यवहारके हिसाबसे, रात्रिदिनके जानेके (समयके प्रवाहके) हिसाबसे, धर्म शास्त्रोके हिसाबसे, ज्योतिषपंचांगकेहिसाबसे,राज्यनीतिके हिसाबसे, और धर्म-कर्मके अनादि नियमके हिसाबसेभी सर्वथा विरुद्धहै. और अन्य दर्शनियों के विद्वानोंके सामने जैनशासनको कलंक रूपहै. इसलिये मेहेरबानी करके बहुत समयकी गच्छ परंपराकी रूढीरूप प्रवाहके आग्रहको छोडकर जिनाशाका विचार करके यह अनुचित रीवाजको वगर बिलंबसे सुधारनेकी कौशिशकरें. इसके संबंध सर्व बातोका खुलासापूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकाके ४७ प्रकरणों में व सुबोधिकादिककी २८ भूलोवाले लेखमें और इसग्रंथमें अ. च्छीतरहसे लिखने में आयाहै, उसको पूरेपूरा अवश्यवांचे और योग्य लगे उतना सुधाराकरें,पक्षपात झूठाआग्रह शास्त्रविरुद्ध बहुतलोगोंकी समुदाय व गुरुगच्छकी परंपरा हितकारीनहीं है, किंतु जिनाशाही हित कारीहै. परोपदेशकेलिये बहुत लोगबडे कुशल होते हैं, मगर वैसाही कार्य करनेवाले आत्मार्थीबहुतहीअल्पहोतेहैं, यहभी आपजानतेहीहै. और सर्वज्ञ शासनमें कर्मबंधन व धर्मकार्यसंबंधी समय २ का व श्वासोश्वासका हिसाब किया जाताहै, उसमें ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन कहनेवाले, यदि कसाई व व्यभिचारी वगैरह पापीप्राणियोंके कर्मबंधन और साधु मुनिमहाराजोके व ब्रह्मचारी वगैरह धर्मी प्राणियोंके कर्मक्षयकरने संबंधीभी ८० दिनके ५० दिन, व १००दिनके ७०दिन कहेगें, तबतो-सर्वश भगवान के प्रवचन की व धर्म-कर्मकी अनादिमर्यादा भंग करनेके दोषी ठहरेंगे, अथवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] ८०दिनके व १००दिनके धर्म-कर्म समयर के श्वासोश्वासके हिसाब से सर्वज्ञ भगवान्के प्रवचनानुसार अनादिमर्यादा मुजब मान्यकरेंगे, तो-८०दिनके ५ दिन,व १०० दिनके ७० दिन कहनेकाआग्रह झूठाही ठहरजावेगा यहभी न्यायबुद्धिसे विचारने योग्यहै, विशेष क्या लिखें. देव द्रव्य निर्णयः। १-वर्तमानिक देवद्रव्यकी चर्चा संबंधी अर्पण बुद्धिसे भगवा. नुको चढाई हुई वस्तु देव द्रव्यमै गिनी जातीहै, यह बात सर्वमान्य है, इसी तरहसे पूजा और आरतीकी बोलीभी अर्पण बुद्धिसे पहिले सेही संघ तरहसे भगवानको चढाई हुई वस्तु हैं, अर्थात्-देवद्रव्यमें आनेका नियम होचुका है, उनको अन्य मार्गमें ले जानेसे बिनाकारण संघकी आशा भंगका व भगवान्को अर्पण कीहुई वस्तु रूपांतरसे पीछी लेनेका दोष आताहै, इसलिये ऐसा करना योग्य नहीं है। २-भगवान की पूजा आरतिकी बोली कलेश निवारण करनेके लिये नहीं है, किंतु शुद्ध भक्तिके लिये है, देखो-अपने अनुभवसे यही मालूम होता है, कि-बहुत भाविक जन आज अमुक पर्व दिवस है, मैंरी शक्तिके अनुसार आज १०।२० या १००।२०० रुपये भगवानकी भक्तिके लिये देवद्रव्यमें जावे तोभी कोई हरज नहीं है, मगर आज तो भगवान्की पहिली पूजा-आरति मैं करूं, तो मैरे कल्याण-मंगल होवे,वर्षभर भगवान की भक्तिमे जावे,इसी निमित्तसे मैरा द्रव्य भगधानकी भक्तिमें लगेगा.तो मैरी कमाईभी सफल होवेगी, और सुकृत कीकमाईवालेभाग्यशालीको आज भगवान्की भक्तिका पहिलालाभ मिलेगाऐसाकहनेभीआताहै. इत्यादि शुभभावसेबोलीबोलते हैं, इस लिये कलेश निवारणकेलिये बोली बोलनेका ठहराना योग्य नहीं है. __ औरभी देखो-भगवान्केमंदिर बनवाने व प्रतिमा भरवाने में महान् लाभ कहा है, यह कार्य भक्ति केलिये धर्म बुद्धिसे करनेकी शास्त्राक्षा है. तोभी कितनेक बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखा देखीके विरोधभावले करते हैं, सो यह अनुचितहै. इसी तरहसे बोली बोलनेका रीवाजभी भगवान की भक्तिके लिये महान् लामका हेतु है, तोभी कितनेक बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखादेखीके विरोध भावसेबोलतेहैं. उनको देखकर बोलीबोलनेके रीवा. अको भक्ति राग छोडकर कलेश निवारणका हेतु ठहराना योग्यनहींहै. तथा देवद्रव्यकी तरह साधारण द्रव्यकीमी बहुतही आवश्य. कताहै, उसमें बे दरकारीका दोष मुनिमंडल व आगेवानोपरहै. औ. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] रभी देव द्रव्य संबंधी सर्व शंकाओंका समाधान व साधारण द्रव्य. की वृद्धि के लिये उपायवगैरह बहुतबातोंके खुलासे समाधान 'देव. दन्य निर्णय' नामा पुस्तकमें लिखनेमे आवेंगे. निवेदन और उपकार. इसग्रंथकी कोईबात समझमें न मावे, या वांचते २ कोई शंका हो, तो इस ग्रंथके कर्ताको लिखकर खुलासा मंगवानेका सषको हक है, ग्रंथ संबंधी सब तरहका जवाबदार लेखक है. इस ग्रंथमें अनुमान ३०० शास्त्रोके प्रमाण बतलाये गये हैं, इस ग्रंथके बनवाने संबंधी शास्त्रों के संग्रह करने वगैरहमें, श्रीमान् जिनयशसूरिजीमहाराज, श्रीमान् शिवजीरामजीमहाराज, श्रीमानजिन चारित्रसूरिजीमहाराज,श्रीमान् कृपाचंद्रसूरिजीमहाराज, पन्यासजी श्रीमान् केशरमुनिजीमहाराज,पं०श्रीमानगुमानमुनिजीमहाराज और कलकत्तानिवासी उ.श्रीमानुजयचंद्रजीगणि व रायबहादुर बद्रीदास जीजौहरीवगैरहोंने जो जो मदतदीहै, उनका मैं उपकार मानता हूं. संवत् १९७८ वैशाख शुदी ३. हस्ताक्षर मुनि-मणिसागर. बिनाकिंमतभेटसे पुस्तक मिलनेके नाम व स्थान. यहन्थ एकहजार पृष्ठकापडाहोनेसे दो विभागमें प्रकटकियाहै. १ बृहत्पर्युषणा निर्णय पूर्वार्द्ध, प्रथम-दूसरा खंड. २ बृहत्पर्युषणा निर्णय उत्तरार्द्ध, तीसरा खंड. ३ लघुपर्युषणा निर्णयका प्रथम अंक. ४ प्रश्नोत्तर विचार. ५-६-७ प्रश्नोत्तर मंजरीके १-२-३ भाग. ८-९ हर्षहृदय दर्पण १-२ भाग. १० आत्मभ्रमोच्छेदन भानुः. यह ग्रन्थभी छपनेवाले हैं. १ देवद्रव्यनिर्णय. २ न्यायरत्न समीक्षा. ३ प्रवचनपरीक्षा निर्णय. १ श्रीमद् अभयदेवलार प्रन्थमाला कार्यालय, ठे० श्रीजैनश्वेतांबर मित्रमंडल केनिंगस्ट्रीट नं. २१, मु०-कलकत्ता. २ श्रीमद् अभयदेवसूरि ग्रन्थमाला कार्यालय, ठे० षडा उपाश्रय देश-मारवाड, मु०-बीकानेर. ३ श्रीजिनदत्तसूरिजी शानभंडार, ठे० गोपीपुरा-शीतलवाडी देश-गुजरात, मु०-सुरत. ४ जौहरी मामल्लजी धनपतसिंहजी भणशाली, सुंदरबील्डिंग ठे० फतहपुरी, मु०- दिल्ली. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः प्रथम भागकी भूमिका पहिले इसको अवश्य पढिये. मांगलिक्यके करनेवाले श्रीस्थंभनपार्श्वनाथ जिनेश्वर भगवान् । को नमस्कार करके, श्रीजिनामाभिलाषी सर्व सज्जन महाशयोको निवेदन किया जाता है, कि-जन्म-मरण-रोग-शोक-आधि-व्याधि संयोग-वियोगादि-उपाधियुक्त दुतर संसार समुद्र के परिभ्रमणका दुःख निवारण करने के लिये, आत्महितैषी पुरुषों को जिनाज्ञानुसार शांतिपूर्वक धर्मकार्य करना चाहिये । जिसमें वर्तमानिक द्रव्यगच्छ परंपरा बहुत समुदायकी देखादेखीकी रूढिको अहितकारी जानकर स्यागना चाहिये । और सुधारेके जमाने में गच्छांतर भेदोंकी भिम भिन्न प्रवृत्ति देखकर शंकाशील होकर धर्मकार्यों में शिथिलता कर नाभी योग्य नहीं, किंतु 'मेरा सो सञ्चा' का आग्रह छोडकर मध्यस्थ बुद्धिसे गुणग्राही होकरके सत्यकी परीक्षाकरके उसको अंगीकार करना, यही मनुष्य जन्मकी सफलताका कारण है। यद्यपि खंडनमंडनके विवाद में सत्यासत्यका विचार छोडकर अपनापक्ष स्थापन करनेके लिये शुष्कवाद या वितंडावाद करनेवाले आजकल बहुत लोग देखे जाते है. मगर दूसरेकी सत्यवात अंगी. कार करके अपना असत्य आग्रहको छोडनेवाले बहुतही थोडे देखने में आते हैं । जब दूसरेके पक्षका खंडन करनेके ईरादेसे उद्यम करनेमें आता है, तब उसपक्षवालेकी भनेक शास्त्र प्रमाणसहित युक्तिपूर्वक सत्यवातकोभी छोडकर भोले जीवोको अपना पक्ष सत्य दिखलाने के लिये शास्त्रोके आने पीछेके संबंध वाले सब पाठोंको छुपाकर थोडेसे अधूरे २ पाठ लिखते हैं. तथा शास्त्रकारोंके अभिप्राय वि. रूब उनके अर्थ करते हैं. या शास्त्रीय बातको झूठी ठहराने के लिये कुयुक्तिये लगाने में उद्यम किया जाता है. अथवा विषय संबंध छो. उफर विषयांतर लेकर निष्प्रयोजन व्यक्तिगत आक्षेप करने लग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] जाते हैं. और अपनी या अपने पक्षकारोंकी बडाई करने लग ते हैं। मगर शास्त्रों में तो कहा है. कि-आत्मप्रदेशगत मिथ्यात्वसभी प्ररूपणागत मिथ्यात्व अधिक दोषवाला होनेसे अनेक भवभ्रमण करानेवाला होता है। और अनादिकालसे ११ अंगादिकको देखकर अनंतजीव संसार परिभ्रमणके दुःखसे मुक्त होगये. और अनंतजीव संसार परिभ्रमणके दुःखको बढानेवालेभी होगये । इसका आशय यही है, कि. अतीव गहनाशयवाले, अपेक्षा गर्भित शास्त्रकारोंके अभिप्रायको समझकर वर्ताव करनेवाले मुक्तिगामी होते हैं । और शास्त्रकारोके अभिप्राय विरुद्ध होकर शब्दमात्रके आग्रहमें पड़नेवाले संसारगामी होते हैं.। मगर जो आत्मार्थी होते हैं वो तो शब्द मात्रके विवादको छोडकर तात्पर्यार्थ तरफ दृष्टि करते हैं, और जो आग्रही होते हैं, वो तात्पर्यार्थको छोडकर शब्दमात्रके विवादको विशेष ब. ढाते हैं। इसी ही कारणसे रागद्वेषादि भाव शत्रुओंको हटानेवाला वीतराग सर्वश भगवान्का कथन किया हुआ अविसंवादी शांति. प्रिय जैनशासनमें अभी विसंवादरूपी विरोध भावको स्थान मिल. गया है। ___और पहिले तो तीर्थकर महाराजोंके जितने गणधर होतेथे उतने ही गच्छ [ साधु समुदायको ओलखान ] होतेथे और पीछे. भी प्रभावकाचार्योंकी बहुत समुदाय होनेसे कुल-गण-शाखा वगैरह होतेथे, मगर सबकी प्ररूपणा और क्रिया एक समान होनेसे संपशां. तिसे मिलते हुए आत्मकल्याण करतेथे, उस समय विरोधी प्ररूपणा के अभावसे किसीकोभी कोई तरहकी शंकाका कारण या अपने गच्छके आग्रहका कारण नहींथा. मगर श्रीवीरप्रभुके निर्वाणबाद पडताकाल होनेसे कितनेक शिथिलाचारी चैत्यवासी होगये, उन्हींसे गच्छोंका आग्रह और भिन्नभिन्न प्ररूपणा विशेष होने लगी. तबसे ही शास्त्रोक्त जिनपूजा विधिमे कुछ अविधिभी होगई, और जैन पंचांगके विच्छेद होनेपर जैनसमाज लौकिक टिप्पणा मानने लगा, उसमें श्रावणादिभी महीने बढते हैं उस मुजब वर्ताव शुरू. किया, तबसे महामांगल्यकारी शांतिमय अति उत्तम पर्युषणा जैसे पर्व आराधनमेभी भेद पड़गया. और शासन नायक श्रीवर्द्धमान स्वामिकेछ कल्याणक नहीं मानने वगैरह कितनाही बातोंका विवाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] उपस्थित होगया. उसके विषयमें आगे लिखने में आवेगा, मगर इस जगह तो हम केवल पर्युषणा संबंधी थोडासा लिखते हैं. जैन पंचांगके अनुसार जब वर्ताव करनेमें आताथा तब पयु. षणासंबंधी " अभिवढियंमि वीसा, इयरेसु सीसई मालो" इत्यादि निशिथ भाष्य-चूणि, बृहत्कल्प भाष्य-चूर्णि-वृत्ति, पर्युषणाकल्प. नियुक्ति-चूर्णि-वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोंमें खुलासा लिखा है, कि, आषाढ चौमासीसे वर्षाऋतुम जीवाकुलभूमि होनेसें जीवदयाके लिये, मुनियोंको विहार करने का निषेध और वर्षाकालमे १ स्थानमें ठहरना उसका नाम पर्युषणा है. इसलिये जब अधिक महिना होवे तब उसको तेरह (१३) महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे २० वे दिन प्रसिद्ध पर्युषणा करना । और जिस वर्षमें अधिक महिना न आवे तब उसको १२ महिनोंका चंद्रवर्ष कहते हैं, उस वर्ष में आषाढ चौमासीसे ५० वे दिन प्रसिद्धपर्युषणा करना [ वर्षाकालमें रहनेका निश्चय कहना] उसीमेंही उ. सीदिन वार्षिक कार्य और उसका उच्छव किया जाता है, यह अनादि नियम है. इसलिये निशिथ चूर्णि, पर्युषणा कल्पनियुक्ति, चू. र्णि, जिवाभिगमसूत्रवृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, कल्पसूत्रमूल और उसकी सबी टीकाओंमें संवच्छरी शब्दकोभी पर्युषणा शब्दसे व्या. ख्यान कियाहै, और प्रसिद्ध पर्युषणा के दिनसे भिन्न (अलग) वा. र्षिक कार्योंका दिन कोईभी नहीं है, किंतु एकही है. इसीका पर्युषणा पर्व कहो, संवच्छरीपर्व कहो, सांवत्सरिकपर्व कहो या वार्षिक पर्व कहो, सबका तात्पर्य एकही है । और कारणवश " अंतरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पर तं रयणि उवायणा वित्तए" इत्यादि कल्पसूत्र वगैरह शास्त्र पाठोंके प्रमाणसे आषाढ चौमासीसे ५० वें दिन पहिले तो पर्युषणा करना कल्पताहै, मगर ५० वे दिनकी रात्रिको उल्लंघन करके आगे करना नहीं कल्पताहै। ५० वे दिनतक पर्यु षणाकरनेको ग्राम नगरादि योग्यक्षेत्र न मिलसकेतो, जंगलमेंभी वृक्ष नीचे अवश्य पर्युषण करनाकहाहै । और अभिवद्धितवर्षमें २० दिने, तथा चंद्रवर्षमे ५० दिने पर्युषणा न करे और विहार करेतो "छक्काय जीव विराहणा" इत्यादी स्थानांगसूत्रवृत्ति वगैरह पाठोसे छका. य जीवोंकी विराधना करनेवाला, आत्मघाती, संयम और जिना. ज्ञाको विराधन करनेवाला कहा है । यह नियम जैन पंचांगानुसार पौष और आषाढ बढताथा तब चलताथा, मगर जबसे जैन पंचांग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [४] विच्छेद हुआ, तबसे लौकिक टीप्पणा मुजब मास पक्ष-तिथी-चारनक्षत्र-मुहूर्तादि व्यवहार जैन समाजमें शुरू हुआ. उसमें श्रावण भाद्रपदादि मासभी बढने लगे. तब जैनसंघने श्रीवीर निर्वाणसे ९९३ वर्षे अधिक महिने वाला वर्षमें २० दिने पर्युषणापर्व करनकी मर्यादा बंध करी और अधिक महिना हो, चाहे न हो, तो भी५० वें दिन प. र्युषणापर्वमें वार्षिक कार्य करनेका नियम रख्खा. सो " जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाऽऽषाढ एव वर्धते नान्ये मासास्तट्टिप्पणक तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते ततः पंचाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः" यह पाठ कल्पसूत्रकी सबी टीकाओं में प्रसिद्धही है । उसके अनुसार श्रावण बढे तो दूसरे श्रावण और भाद्रपद बढे तो प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने पर्युषणा पर्व करना जिनाशा है । और पहिले मास वृद्धिके अभावसे ५० वे दिन पर्युषण करतेथे, तब पिछाडी कार्तिक तक ७० दिन ठहरतेथे, मगर जब मा स वृद्धी होनेपर २० दिने पर्युषणा करतथे, तब तो पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरतेथे, यह बात निशिथभाष्य-चूर्णिपर्युषणाकल्पचूर्णि-बृहत्कल्प चूर्णि-वृत्ति-जीवानुशासनवृति, गच्छा चारपयन्नवृति, स्थानांगसूत्रवृति वगैरह शास्त्र पाठोंसे सिद्ध हो.ती है। और वर्तमानमें श्रावण, भाद्रपद तथा आश्विन बढनेपरभी ५० -दिने पर्युषणापर्व करनेसे पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरते हैं। यह भी कल्पसूत्रकी टीकाओके अनुसार होनेसे जिनाज्ञानुसारही है, इसलिये इसमे किसी प्रकारका दोष नहीं है.। इस ऊपरके शास्त्रीय लेखपर दीर्घ दृष्टिसे निष्पक्ष होकर मध्य. स्थ बुद्धिसे विचार किया जावे तो स्पष्ट मालूम हो जायेगा, कि-प. र्युषणा पर्व करनेमें जैन टिप्पणानुसार या लौकिक टिप्पणानुसार आधिक मास या कोई भी मास वा कोई भी दिन बाधक नहीं है. क्योंकि पर्युषणा पर्व करनेमें ५० दिनोंका व्यवहारिक गिनतीका नियम होनेसे पर्युषणा पर्व दिन प्रतिबद्ध ठहरता है. किंतु मास प्रतिबद्ध नहीं ठहर सकता । और ५० दिनोंकी गिनतीमें अधिक महिनेके ३० दिवस तो क्या मगर एक दिवस मात्रभी गिनतीमें नहीं छुट सकता। जिसपरभी पर्युषणा पर्व-- दो श्रावण होनेपरभी भाद्रपद मास प्रतिबद्ध ठहराना १. अधिक महिनके ३० दिनोंकों विचमेसे छोड देना २. वीश दिनोले पर्युषणा पर्व करने की बातको सर्वथा उडा देना ३. श्रावण भाद्रपद या आश्विन बढनेसे १०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] दिन होनेपरभी उसको ७० दिन कहनेका आग्रह करना ४. सो सर्वथा शास्त्रकारोंके विरुद्ध है । अब पर्युषण पर्व करने संबंधी ५० दिनोंकी गिनती करने में अधिक महीने के ३० दिनोंकों गिनतीमेंसे छोड देनेका आग्रह करने के लिये कितनेक लोग शास्त्रविरुद्ध होकर कुयुक्तियें करते हैं उसके विषय में थोडासा लिखते हैं: --: १ - कल्पसूत्रादिमें आषाढ चौमासीसे दिनोंकी गिनती से ५० वें दिन अवश्य ही वार्षिक कार्य पर्युषणापर्व करना कहा है, उसमें अधिक महीनेका १ दिनमात्र भी गिनती में नहीं छुट सकता और ५० दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करना नहीं कल्पे, जिसपर भी वर्तमा निक श्रावण भाद्रपद बढनेपर ८० दिने पर्युषणापर्व करते हैं, सो शास्त्र विरुद्ध है इसका विशेष खुलासा इसीही ग्रंथकी आदिले पृष्ठ २७ तक देखो. २ -- अधिक महीनेके ३० दिन जैनशास्त्रों में गिनती में नहीं लिये, ऐसा कहते हैं सो भी शास्त्र विरुद्ध है, अधिक महिनेके ३० दिनोंकों-दिनोंमें, पक्षोमें, मासोंमें, वर्षोंमें और युगकी गिनती में खुलासा पूर्वक गिने हैं, विशेष खुलासा देखो पृष्ठ २८ से ४८ तक. ३ - अधिक महीना काल चूलारूप है सो गिनती में नहीं लेना ऐसा कहते हैं, सो भी शास्त्र विरुद्ध है. निशीथचूर्णि, दशवैकालिक वृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रों में अधिक महीनेको काल चूलाकी शिखर रूप श्रेष्ठ, [उत्तम] ओपमादी है और उसके ३० दिनोंकों गिनतभी लिये हैं. इसका विशेष खुलासा देखो पृष्ठ ४९ से ६५ तक | तथा पृष्ट ७५ से ९१ तक. ४ - पर्युषणाकल्प चूर्णि तथा निशीथ चूर्णिके पाठसे दो श्रावण हो तो भी भाद्रपद में पयुषेणापर्व करना ठहराते हैं सो भी शास्त्र विरुद्ध है, दोनों चूर्णिके पाठोंमें अधिक महीना पौष या आषाढ आवे तब उसके ३० दिन गिनती में लेकर आषाढ चौमासीसे २० वे दिन श्रावण में पर्युषणा पर्व करना लिखा है और अधिक महीना न होवे तब ५० वे दिन भाद्रपद में पर्युषणा करना लिखा है | और ५० वै दिनको उल्लंघन करनेवालोंको प्रायश्चित कहा है, इसलिये दो श्रावण होनेपर भी ८० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा करना योग्य नहीं 1 और अधिकमास के ३० दिन गिनतीमें छोड देनाभी शास्त्र वि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] रु है. इसका विशेष खुलासा देखो दोनों चूर्णिके विस्तार पूर्वक पाठों सहित पृष्ठ ९१ से १०६ तक ५ - जैन टिप्पणामें अधिक महीना होताथा तबभी २० वे दिन श्रावण शुदी पंचमीको पर्युषणा वार्षिक कार्य होतेथे, इसलिये २० वे दिनकी पर्युषणामें वार्षिक कार्य नहीं हो सकते, ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है इसका विशेष खुलासा देखो पृष्ट १०७ से ११७ तक. ६- श्रावण भाद्रपद या आश्विन बढे तो भी ५० वे दिन पर्युषणापर्व करनेसे शेष कार्तिक तक १०० दिन होते हैं जिसपर भी ७० दिन रहनेका आग्रह करते हैं सोभी शास्त्र विरुद्ध है ७० दिन मास वृद्धि के अभाव संबंधी हैं और मास वृद्धि होवे तब १०० दिन रहना शास्त्रानुसार है । इसका विशेष खुलासा पृष्ठ ११७ से १२८ तक, तथा १७४ से १८५ तक देखो. ७ अधिक महीना होनेसे उस वर्ष में १३ महीने तथा चौमा सेमै ५ महीने होते हैं. तब उतनेही महीनोंके कर्मबंधनभी होते हैं, जिसपर भी १२ महीनोंके क्षामणे करने कहते हैं. सो भी शास्त्र विरुद्ध है. अधिक महीना होवे तब १३ महीनोंके क्षामणे करना शास्त्रानुसार हैं; इसका विशेष खुलासा पृष्ठ १३३ से १३६ तक तथा १७० से १७१ तक और पृष्ठ ३६२ से ३७८ तक देखो. ८ अधिक महीने में सूर्यचार नहीं होता ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है, छछ महीने १८३ वे दिन, सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायनमें और उत्तरायनसे दक्षिणायनमें हमेशा होता रहता है, उसमें अधिक महीने के ३० दिनोंमें भी जैनशास्त्र मुजब या लौकिक टिप्पणा मुजब भी सूर्यचार होता है. इसका विशेष खुलासा देखो पृष्ठ १३७ से १३९ तक ९ अधिक महीने के ३० दिनोंमें देवपूजा मुनिदान वगैरह धर्मकार्य करने, मगर उसके ३० दिनोंकों गिनती में नहीं लेनेका कहना, सो भी शास्त्र विरुद्ध है । जितने रोज देवपूजादि धर्मकार्य किये जावेंगे, उतने दिन अवश्यही गिनती में लिये जावेगें, और जैसे मुनिदानादि दिन प्रतिबद्ध हैं, वैसेही पर्युषणाभी ५० दिन प्रतिबद्ध है. इसका विशेष खुलासा पृष्ठ १४२ से १४३ तक देखो १० अधिक महिने में विवाहादि शुभकार्य नहीं होते, उसमु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] जब पर्युषणा पर्वभी नहीं हो सकते. ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है, मुहूर्त्तवाले विवाहादि तो मलमास, अधिकमास, क्षयमास, १३ महिनोंके सिंहस्थ, अधिकतिथि, क्षयतिथि, गुरुशुक्रका अस्त और हरि शयनका चौमासा वगैरह कितनेही तिथि-वार-नक्षत्र-मास वगै. रह योगोंमें नहीं किये जाते, मगर बिना मुहूर्त्तके धर्मकार्य करने में तो किसी समयका निषेध नहीं हो सकता इसी तरह पर्युषणा पर्वभी अधिकमासमे,१३ महीनोंके सिंहस्थमें, और चौमासे में करनेमे आते हैं । इसमें अधिकमहीना या कोईभी योग बाधक नहीं हो सकता. इसका विशेष खुलासा पृष्ठ १९३ से २०४ तक देखोः- . ११- अधिकमहीनेको वनस्पतिभी अंगीकार नहीं करती ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है, अधिक महीनेके ३० दिन तो क्या १ दिन मात्रभी वनस्पति नहीं छोड़ सकती, किंतु हरेक समय प्रत्येक दिवसको अंगीकार करती है. इसका विशेष खुलासा पृष्ठ २०५ से २१० तक देखो.- इत्यादि मुख्य २ बातों संबंधी शास्त्रीय प्रमाण और युक्तिपूर्व क इस प्रथमभागमें अच्छीतरहसे खुलासापूर्वक लिखनेमें आया है. और इस ग्रंथको पक्षपात रहित होकर संपूर्ण पढनेवाले सजनाको सत्यासत्यकी परीक्षा स्वंय होसकेगी, इससे यहांपर विशेष लिखने की कोई अवश्यकता नहीं है। ग्रंथकारका उद्देश क्या है ? इस ग्रंथकारका मुख्य उद्देश यहीहै, कि-सबगच्छवाले संपपूर्वक सुखशांतिले धर्म कार्य करे, मगर पर्युषणा जैसे धार्मिक शांतिकेदि. नोमें अधिक महिनेके ३० दिनोंको धर्मकार्यों में गिनती से छोड देने के लिये तपगच्छके मुनिमहाराज जो खंडन मंडनका विषय व्याख्यानमें चलाते हैं, सो सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है.और समयके प्र. तिकूल होनेसे कर्मबंधन, कुसंप व शासनहिलना कराने वालाहै (इसीका निर्णय इस ग्रंथमे अच्छी तरहसे लिखा गया है) उसको (इस ग्रंथके वांचे बाद ) अवश्य बंध करना योग्य है. पक्षपात रहित ग्रंथकी रचना ___ " पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युति मेंद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१॥" इत्यादि महापुरुषोके न्यायानुसार पक्षपात रहित होकर आगम पंचांगी सम्मत युक्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] क खरतरगच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छादि सब गच्छवालोंके वा. क्योंका संग्रह इसग्रंथम करने में आया है । मगर अमुक गच्छवालेके अमुक आचार्यके वाक्य हमको मंजूर नहीं, ऐसा एकांत आग्रह किली जगहभी करनेमें नहीं आया. और शास्त्रविरुद्ध युक्ति बाधित वाक्य तो कोईगच्छवालेकाभी मान्य करना योग्य नहीं. यह बात सर्व जन सम्मतहीहै, वोही न्याय इस ग्रंथमें रखा गया है. इसलिये पाठकगणको किसी गच्छ समुदायका पक्षपात न रखकर अवश्य संपूर्ण अवलोकन करके सार निकालना चाहिये. इस ग्रंथका लेखक में खास संसारीपनेमे तपगच्छका वीसापोरघाल श्रावकथा मगर उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके पास श्रीसिद्धक्षेत्र (पालीताणा) में विक्रम संवत् १९६० वैशाख शुदी २ को खरतरगच्छमें दीक्षा अंगीकार की,तो भी दोनों गच्छोंके पूर्वा. चार्योंपर तथा वर्तमानिक मुनिमहाराजोपर पूज्यभाव था, और हेभी । मगर जिस २ अंशमे शास्त्र विरुद्ध जिस २ बातोंका झूठाही आग्रह किया गया है,उन २ बातोंकी आलोचना करके शास्त्रानुसार सत्य बाते जनसमाजमें प्रकट करना, यह मैरा खास कर्तव्य समझ कर मैने इस ग्रंथमें इतना लिखाहै। इसमे किसीका पक्षपात न समज ना चाहिये. और किसीको नाराज होनेकाभी कोई कारण नहीं है। वर्तमानिक समयके अनुसार परंपराकी अंधरूढीको त्यागना और सत्यको ग्रहण करना, सब सज्जनोंको प्रिय है । और समय बदलता जाता है. संपसे शासन्नोनतिके कार्य करनेकी बहुत जरुरत है, इसलिये कुसंप वढानेवाला पर्युषणाके व्याख्यानमे आपसका खंडन मंडन चलाना योग्य नहीं है. विशेष दूसरे, तीसरे और चौथे भागमे अनुक्रमसे लिखनेमे आवेगा। क्षमा याचना तथा अपनी भूल स्वीकार । इसग्रंथकी रचना करते समय मैरी अल्पवय व अल्प अभ्यास होनेसे, इसग्रंथमे-लेखक दोष, भाषादोष, दृष्टिदोष, पुनरुक्ति दोष, प्रेसदोष व शास्त्रीय पाठोकी विशेष अशुद्धताके दोषोंकी पाठक गण अवश्य क्षमा करें तथा हंसकी तरह दोष त्यागकर सार ग्रहण करें, और सुधारकर घांचे; दूसरी आवृत्तिमें इन दोषोंका संशोधन अच्छी तरहसे करने में आवेगा और सुबोधिका व दीपिका, किरणावली आदिक शास्त्र विरुद्ध जो जो बातें लिखी हैं, उन सब बातोंका निर्णय इस ग्रंथमें लिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [s] गया है. उसको समझकर उनके अनुयायी विद्वान् पुरुषों को उनकी सब भूलोंकों क्रमशः अवश्य सुधारना योग्य है, तथा इस ग्रंथ मैभी जो कोई बात शास्त्र विरुद्ध देखने में आवे तो जरूर मेरेको लिख भेजना. लिखने वालेका उपकार मानकर अपनी भूलको अवश्य स्वीकार करूंगा, और दूसरी आवृत्ति में सुधार लूंगा. यह ग्रंथ विलंब से प्रकट होनेका कारण । इस ग्रंथ की रचनाका कारण ग्रंथकी आदि मेंही लिखा है तथा सु. बोधिकादिककी खंडनमंडन संबंधी भूलोंका कारण प्रगटही है । और यह ग्रंथ छपने पर शीघ्रही प्रगट होने वालाथा. मगर कितनेही म हाशयका कहना था कि यदि मुनिमंडलकी सभा में, विद्वानोंकी सम क्ष, इस विषयका, शास्त्रार्थसे निर्णय हो जावे तो बहुत अच्छा होवे, और ३ वर्ष पहिले दो भाद्रपद होनें से इसके निर्णय की चर्चा खूब जोरशोर से चली थी, तब मैने भी मुंबई से 'पर्युषणा निर्णयका शास्त्रार्थ' करने संबंधी विज्ञापन छपवाकर जाहिर किया था. उसपर आनंदसागरजी और शांतिविजयजी हां हां करने लगेथे तो भी आडी २ बातें निकालकर चुप बैठ गये, इसका खुलासा आगे लिखूँगा. और अन्य कोई भी मुनि सभामें निर्णय करने को तैयार नहीं हुए. इसलिये अब यह ग्रंथ इतने विलंब से प्रकाशित किया जाता है. ग्रंथ एकहजार पृष्ठके लगभग होनेसे, ४ भागों में अनुक्रमसे यथा अवसर प्रकट होता रहेगा. और मंगवाने वाले साधु-साध्वी श्रावकश्राविका यति-श्री पूज्य-ज्ञान भंडार-लायब्रेरी और साक्षर वर्ग सबको बिना किंमत से भेट भेजा जायेगा । १- एक बम ॥ तपगच्छके मुनिमहाराजोंने अपनी समाजमें यहभी एक तर हका वहम ठसा दिया है, कि-अधिकमहीने में विवाह सादी वगैरह शुभ कार्य लोग नहीं करते हैं, उसी तरह अधिकमहीने में पर्युषण पर्वादि धार्मिक कार्यभी नहीं हो सकते. मगर तत्व दृष्टिले विचार किया जावे तो यहभी एक तरहका एकांत आग्रहसे झूठाही वहेम है, क्योंकि विवाहादि मुहूर्त्तवाले कार्य तो मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्रादि देखकर, वर्ष छ महीने आगे पीछेभी करते हैं. परंतु बिना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] मुहूर्त्त के लोकोत्तर धर्मकार्य तो नियमित दिवस से आगे पीछे कभी नहीं हो सकते. इसलिये लौकिक वालेभी मुहूर्त्त वाले कार्य नहीं करते, मगर बिना मुहूर्त्तके दान पुण्य परोपकारादि तो विशेष रूपसे करनेके लिये अधिकमहीनेको 'पुरुषोत्तम अधिक मास कहते हैं, उसकी कथाभी सुनते हैं और सिंहस्थ में नाशिकादि तीथों में यात्राका मेला भी भरते हैं । इसी प्रकार वर्तमानिक जैन समाजमेभी मुहूर्त्त वाले कार्य अधिक महीने में नहीं करते. मगर बिना मुहूर्त्तके पर्यु णादि धार्मिक कार्य करने में कोई हरजा नहीं है। अधिक महीने के ३० दिनोंको मुहूर्त्तादि कार्यों में नहीं लेते, परंतु बिना मुहूर्त्तके (दिव सौकी संख्यासे प्रतिबद्ध ) धार्मिक कार्योंमें लेते हैं । बस ! इसका मर्म सरल दिलसे न्यायपूर्वक समझ लिया जावे तो अधिकमहीने में पर्युषणादि धर्म कार्य नहीं हो सकते. ऐसा एकांत आग्रहका झूठा हेम आपसेही निकल सकता है. इसका विशेष निर्णय इसको बांचने वाले सज्जन स्वयंकर सकेंगे । ܕ २- बे समझ या हठाग्रह ॥ अधिक महिनेके अभाव में ५० दिने भाद्रपद में पर्युषणा करना लिखा है । ५० दिनके अंदर करनेवाले आराधक होते हैं उपरांत करनेवाले विराधक होते हैं. इसलिये ५० वै दिनकी रात्रिको किसीप्रकारभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है. यह बात जैन समाज में प्रसिद्ध ही है । जिसपर भी सिर्फ भाद्रपद शब्दमात्रको पकडकर वर्तमानिक दो श्रावण होनेपर भी भाद्रपद में पर्युषणा करनेका आग्रह करते हैं, मगर ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसका विचार करते नहीं हैं। और पर्युषणा के पिछाडी हमेशा ७० दिन रखनेका एकांत आग्रह करते हैं, मगर ७० दिनका नियम अधिक महिनेके अभावसंबंधी है और अधिक महिना होवे तब निशीथ चूर्णि, बृहत्कल्पम्बूर्णि, स्थानांगसूत्रवृत्ति और कल्पसूत्रकी टीकाओंम १०० दिन रहनेका कहा है । इसलिये ७० दिन या १०० दिन यथा अवसर दोन बातें मान्य करने योग्य हैं। जिसपर भी १०० दिन संबंधी शास्त्र. प्रमाणोंको छोड़कर सिर्फ ७० दिनके शब्द मात्रको आगेकरके १०० की जगहभी ७० दिन रहनेका आग्रहकरते हैं. इसलिये उपरकी दोनो ब... संबंधी शास्त्रीय अपेक्षाकी वे समझ है, या समझने परभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] हठाग्रह है। इसका विचार तत्वज्ञ पाठकगणको करना चाहिये। . ३-कहते हैं मगर करतेनहीं, यहभी देखिये-आग्रह ! ___अधिकमहीनेके ३० दिनोंको गिनती से छोडदेनेके आग्रह क. रनेवाले दो श्रावण होवे तो भी भाद्रपद् तक ५० दिन हुए ऐसा कहतेहैं, मगर प्रत्यक्ष प्रमाण व न्यायकी युक्तिसे विचारकर देखा जावे तो यह कहना सर्वथा अनुचित मालूम होता है। देखियेकिसी श्रावक या श्राविकाने आषाढचौमासीसे उपवास करने शुरू किये होवें, उसको बतलाईये दो श्रावण होनेपर ५० उपवास कब. पूरे होवेगें और ८० उपवास कब पूरे होवेगे? इसके जवाब में छोटासा बालक होगा वहभी यही कहेगा, कि-५० दिनोंके ५० उपवास दूसरे श्रावणमें और ८० दिनोंके ८० उपवास दोश्रावण होनेसे भाद्रपदमें पूरे होवेंगें । इसीतरह साधुसाध्वीयोंके संयमपालने में, तथा सर्व जीवोके प्रत्येक समयके हिसाबसे ७८ कमोके शुभाशुभ बंधन होने और धार्मिक पुरुषों के धर्मकार्योले कर्मोकी निर्जरा होने में व सूर्यके उदय अस्तके परिवर्तन मुजब दिवसोंके व्यतीत होनेके हि. साबमें , इत्यादि सब कार्यो में दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन कहते हैं । ५० उपवास दूसरे श्रावणभे, व ८० उपवास भाद्रप. दमें पूरे होनेकाभी कहते हैं. और उपवासादि उपरके सब कार्यो में. अधिक महिनेके ३० दिनोंको बीचमें सामील गिनकर ८० दिन कहते हैं, ८० दिनोंके लाभालाभ-पुण्यपापके कार्य भी मंजूर करतेहैं. ऐसेही दो आश्विन होनेसे पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन होते हैं, उसके १०० उपवास, व १०० दिनोंके कर्मबंधन तथा धर्मकार्य वगैरह सब कार्यों में १०० दिन कहते हैं. और १०० दिनोंको आपभी व्यवहारमें मंजूर करते हैं। उसमें अधिक श्रावणके ३० दिनोंकी तरह अधिक आसोजकेभी ३० दिनोंको गि. नतीमें मान्य करना कहते हैं, मगर दो श्रावण होवे तब भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं, व दो आश्विन होवे तब कार्तिक १०० दिन होते हैं उनको अंगीकार करते नहीं. और ८० दिनके ५० दिन व १०० दिनके ७० दिन कहते हैं यह जगत विरुद्ध कैसा जबरदस्त आग्रह कहा जावे इसको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं। ४- कालचूलारूप अधिकमहीना पहिला या दूसरा ? यद्यपि जैनटिप्पणा विच्छेद है, इसलिये लौकिक टिप्पणा मु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] जब मास पक्षादि मानते हैं, मगर जैनशास्त्रतो मौजूदही हैं. इसलिये पर्युषणादि धार्मिक कार्य जैनसिद्धांत मुजब करनेमें आते हैं । और जैनशास्त्र मुजबही सब गच्छवाले अधिक महीनेकों कालचुला कहते हैं । किंतु कितनेक प्रथम महीनेको कालचूला कहते हैं, मगर प्रवचनसारोद्धार, सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति, चंद्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, लोकप्रकाश, ज्योतिष्करंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रप्रमाणोंसे दूसरा अधिक महीना कालचूला ठहरता है - देखिये - " सठ्ठीए अ ईयाए, हवई हु अहिमासो जुगर्द्धमि । बावीसे पव्वसए, हवइ हु बीओ जुगंतंमि ॥ १ ॥ इत्यादि सूर्य प्रज्ञप्तिवृत्ति के अनुसार ६० पर्व ( पक्ष ) के ३० महीने व्यतीत होनेपर ३१ वा महीना दूसरा पौष अधिक होता है, और १२२ पक्षके ६१ महीनें जानेपर कालचूलारूप दूसरा आषाढ अधिक होता है. उसी कालचूलारूप दूसरे अधिक आषाढमेही चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिककार्य सब गच्छवालोके करने में आते हैं । और अधिक पौष व अधिक आषाढके दिनोंकी गिनती सहित, ६२ महीने, १२४ पक्ष, १८३० दिन और ५४९०० मुहूतों के पांच वर्षोंका एक युग कहा है । इसलिये कालचूलारूप अधिक महीने के ३० दिन गिनती में नहीं आते १, तथा कालचूलारूप अधिक महीने में चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिक कार्य नहीं हो सकते २, और प्रथम महीनेको कालचूलाकहना ३, यह सब बातें शास्त्रविरुद्ध हैं। इसको विशेष पाठकगण स्वयंविचार लेवेंगे । ५- पूर्वापर विसंवादी ( विरोधी ) कथन ॥ जिस अधिक महीने को कालचूला कहकर गिनती मे लेनेका व पर्युषणादि धर्मकार्य करनेका निषेध करते है, उसी कालचूलारूप दूसरे अधिक आषाढको गिनती में लेकर चौमासीप्रतिक्रमणादि कार्य आप करते हैं. जिसपर भी मुहसे कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनती में नहीं लेना व उसमें धर्म कार्य नहीं करने कहते हैं और कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनकर धर्मकार्य करने वालोंको दोष बतुलाते हैं। एक जगह कालचूलारूप अधिक महीना गिनती में छोडते हैं । दूसरी जगह उसीकोही आप गिनती में लेकर अंगीकार करते हैं और दूसरे गिनने वालोंकों दोष बतलाते हैं यह तो " मम वदने जिव्हा नास्ति की तरह कैसा पूर्वापर विसंवादी ( विरोधी ) कुथन है, सो भी विचारने योग्य हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ६- कालचूला शिखररूप है या चोटीरूप है ? अधिक महीनेको शास्त्रों में कालचूला कहा है और दिनोंकी गिनती में भी लिया है जिसपरभी कितनेक महाशय दिनोंकी गिनती निषेध करनेके लिये चोटीरूप कहते हैं. और जैसे पुरुष के शरीर के मापमें उसकी चोटीकी लंबाईका माप नहीं गिना जाता, तैसेही अधिक महीना कालपुरुषकी चोटीसमान होनेसे उसीके ३० दिनोकों प्रमाण गिनती में नहीं लिये जाते. ऐसा दृष्टांत देते हैं. सो भी शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि पुरुषकी उँचाईकी गिनती में उसकी चोटी १-२ हाथ लंबी हो तो भी कुछभी गिनती में नहीं आती, उससे उसका प्रमाणभी नहीं बढ सकता, मगर जैसे देवमंदिरोंके शिखर व पर्वतों के शिखर प्रत्यक्षपणे उनकी उंचाईकी गिनती में आते हैं, उसीसे उन्होंकी उंचाईका प्रमाणभी बढजाता है. तैसेही अधिकमहीने को कालचूला कहा है सो शिखररूप होने से गिनती में आता है, उससे वर्षका प्रमाणभी १२ महीनोंके ३५४ दिनोंकी जगह १३ महीनोंके ३८३ दिनोंका होता है, और वृद्धि के कारण चंद्र वर्षकी जगह अभिवर्द्धित वर्ष कहा जाता है. इसलिये शिखरकी जगह घासरूप चोटी कह करके गिनती में लेनेका निषेध करना सो " करे माणे अकरे " जमालिकी तरह सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है । ७- अधिक महीना गिनतीमें न्यूनाधिक है या बरोबर है ? जैन सिद्धांतोंके हिसाब से तो जैसे १२ महीनों के सबी दिन धर्मकार्यों में बरोबर हैं तैसेही अधिक महीना होनेसे १३ महिनों के भी सब दिन बरोबर हैं। इसमें न्यूनाधिक कोई भी नहीं है. और पापी प्राणियों के कर्मोंकाबंधन होनेमें व धर्मीजन के कर्मोंकी निर्जरा होने, समयमात्र भी खाली नहीं जाता और समय, आवलिका मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग, पल्योपम, सागरोपमादि कालमानमैसे, समयमात्र भी गिनती में नहीं छूट सकता. जिसपर भी धर्म कार्यों में ३० दिनोंको गिनतीमें छोड़ देनेका कहते हैं या अधिक महीने के दिनोंकों तुच्छ समझते हैं सो जिनाशा विरुद्ध है इसको विशेष पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे । ८- अधिकमहीना नपुंशक है या पुरुषोत्तम है ? जैसे ब्रह्मचारी उत्तम पुरुष समर्थ होने पर भी परस्त्री प्रति नपुं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] शक समान होता है, तैसेही लौकिक रूढीसे अधिक महिने में विवाह सादी वगैरह आरंभ वाले या मुहूर्तवाले कार्य करनेमें तो नपुंशक समान कहते हैं. तोभी दिनोंकी गिनती में लेते हैं । और निरारंभी व I बिना मुहूर्तवाले दान, पुण्य, परोपकार, जप तपादि कार्य करने में तो अधिक महीनेको 'पुरुषोत्तम मास ' कहा है सो प्रकटही है इस लिये जैन सिद्धांतों के हिसाब से या लौकिक शास्त्रोंके हिसाब से दिनोंकी गिनती में निषेध करते हैं सो शास्त्रीय दृष्टिले व युक्ति प्र माणसे या दुनियाके व्यवहारसेभी विरुद्ध हैं । इसलिये गिनती में निषेध कभी नहीं हो सकता, इसको विशेष पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं । ९- दूसरे आषाढमें चौमासी करनेका क्या प्रयोजन है ? भो देवानुप्रिय ! चौमासीप्रतिक्रमणादि कार्य ग्रीष्मऋतुपूरी होनेपर वर्षा ऋतु की आदिमें किये जाते हैं, और ज्येष्ट व आषाढ ग्रीमऋतु कही जाती है. इसलिये जब दो आषाढ होवे तब उन दोनोंआषाढको ग्रीष्मऋतुमें गिने जाते हैं, यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे जगजाहीर ही है. और जैनसिद्धांतानुसार दूसरे आषाढ शुदी पूर्णिमाका हमेशा क्षय होता है, इसलिये दूसरे आषाढ शुदी १४ को पांच वर्षोंका एक युग पुरा होता है, उसी रोज ग्रीष्मऋतुभी पूरी होती है, तथा पांचवा अभिवद्धितवर्षभी उसी रोज पूरा होता है. और १ युगमें सूर्यके दश अयनभी १८३० दिनोंसे उसी दिन पूरे होते हैं. इसलिये उसीदिन दूसरे आषाढ शुदी १४ को चौमासी प्रतिक्रमणादि करने की अनादि मर्यादा है । और प्रथम आषाढ ग्रीमऋतु होने से वहां ग्रीष्मऋतु, युग, वर्ष अयन वगैरह पूरे नहीं होते, व प्रथम आषाढमें वर्षाऋतुभी शुरू नहीं होती, इसलिये प्रथम आषाढमे चौमासी प्रतिक्रमणादि नहीं हो सकते. और शास्त्रीय हिसाब से श्रावण वदी १ को ( गुजरातकी अपेक्षा आषाढ वदी १ को) युगकी, वर्षकी और वर्षाऋतुकी शुरूआत होती है. इस • लिये उसकी आदिमें और ग्रीष्मऋतुकी, वर्षकी, युगकी समाप्ति समय दूसरे आषाढमे चौमासीप्रतिक्रमणादि कार्य करने शास्त्र प्रमाण युक्तियुक्त हैं ॥ १० - चौमासा ४ महीनोंका या ५ महीनोंका ? देखिये १२ महीनों का वर्ष कहा जाता है, मगर अधिक मही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] ना होवे तब १३ महीनौका वर्ष कहा जाता है, इसीतरह यद्यपि चौमासा शब्द व्यवहारसे ४ महीनोंका कहा जाता है, मगर अधिक महीना होनें से १३ महीनों के वर्षकी तरह चौमासाभी पांच महीनें - का होता है. इसलिये अधिक महीना न होवे तब तो ४ महीनोंके ८ पक्ष, १२० दिनोंका चौमासी, मगर अधिक महीना होवे तब पांच महीनोंके दश (१०) पक्ष, १५० दिनांका चौमासी प्रतिक्रमणादि होते हैं । यहबात प्रत्यक्ष प्रमाणसे व लौकिक टिप्पण के प्रमाणसे जग जाहिर है और आगमपंचांगी सिद्धांत प्रमाणसेतो अनादि सिद्ध है. इसलिये इसको कोईभी निषेध नहीं कर सकता. इसका विशेष विचार तत्वज्ञ पाठक गण स्वयं कर सकते हैं । ११ - एक कुतर्क ॥ 1 कितनेक कहते हैं, कि- 'चौमासी आषाढमें करना कहा है, इस लिये प्रथम आषाढमें करोगे तो दूसरा छूट जावेगा और दूसरे में करोगे तो, प्रथम छूट जायेगा. या दोनोंमें करेंगे तो पुनरुक्ति दोष आवेगा ' ऐसी २ कुतर्क करते हैं सोभी सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है । क्योंकि प्रथम आषाढमे ग्रीष्मऋतु वगैरह उपर मुजब कारण होनेसे चौमासी नहीं हो सकता, इसलिये 'प्रथममें करेंगे तो दूसरा छुट जावेगा' ऐसा कहना व्यर्थही है । और दो आषाढ होने से दोनोंकी गिनती पूर्वक ५ महीने दूसरे आषाढमें चौमासी करते हैं, इसलिये 'दूसरेमें करोगें तो प्रथम छूट जावेगा ' ऐसा कहनाभी व्यर्थ है । और दोनों आषाढमें दो वार चौमासी नहीं किंतु ग्रीष्मऋतुकी समाप्ति वगैरह उपर मुजब कारणोंसे दूसरे में एकही वार चौमाली करते हैं इसलिये ' दोनोमें करोंगे तो पुनरुक्ति दोष आवेगा ' ऐसा कहनाभी व्यर्थ ही है । और चौमासी प्रतिक्रमण तो ४ महीने या मासवृद्धि होवे तब पांच महीने सब गच्छवाले एकबार प्रत्यक्षपने करते इसलिये चौमासी ४ महीनें होवे मगर पांच महीने नहीं होवे, ऐसा प्रत्यक्ष असत्य भाषण करना योग्य नहीं है. इसकोभी पाठकगण स्वयं विचार लेंगे । १२- दूसरे आषाढमें चौमासपिर्वकी तरह पर्युषणाभी दूसरे भाद्रपदमें हो सके या नहीं ? आषाढ- कार्तिकादि चौमासा ४-४ महीनोंसे होता है, मगर अधिक महीना होनेसे पांच महीनों का भी होता है, यह बात उपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] लिख चुके है. इसलिये मासवृद्धि होनेसे १२० दिनकी जगह १५० दिनभी चौमासेमें होते है, उसमें किसी प्रकारका दोष नहीं बतलाया. मगर पर्युषणातो वर्षास्तु दिन प्रतिबद्ध होनेसे ५० दिने अ. वश्य करना कहाहै, उसपर १ दिनभी बढ जावे तो दोष कहा है. और दूसरे भाद्रपदमें पर्युषणा करें तो, ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसलिये दूसरे आषाढंमें चौमासी पर्वकी तरह. पर्युषणापर्व ८० दिन होनेसे दूसरे भाद्रपदमें नहीं हो सकता. किंतु सर्व शास्त्रों की आशा मुजब ५० दिने प्रथम भाद्रपदमें करना युक्तियुक्त न्याय. संपन्न है. इसको तो पाठक गण स्वयं विचार सकते हैं. १३-जिसको मानना उसीकोही उत्थापना । हमेशां भाद्रपदमें पर्युषणा ठहराने के लिये निशीथचूर्णिके पाठको आगे करते हैं, मगर चूर्णिमेतो ५० दिने या ४९ दिने पर्युषणा करना लिखा है, परंतु ऊपरांत करना नहीं लिखा और अधिक महीनेके ३० दिनोंकोभी गिनतीमें लिये हैं। जिसपरभी दो भाद्रपद होवे तब ५० दिने प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करना छोडकर, ८० दिने दूसरे भाद्रपदमें करते हैं। उसीसे जिस चूर्णिका पाठ मान्य करते हैं उसी चूर्णिका पाठ (दूसरे भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करनेसे) उत्थापन करते हैं । इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयंविचार सकते हैं . १४ - वितंडा वाद ।। ८० दिने पर्युषणा करना शास्त्रविरुद्ध ठहराते हो मगर दो आषाढ होवे तब प्रथम आषाढमें चौमासी करो तो तुमारेभी ८० दिने पर्युषणा होवेगें तब कैसे करोगे? समाधान भो-देवानुप्रिय ! पर्युषणाके ५० दिनोंकी गिनती ग्रीष्मऋतुकी समाप्ति होनेपर वर्षाऋतुकी शुरूआतसे गिनी जाती है. और प्रथम आषाढ ग्रीष्मरुतुमें होनेसे उसमे चौमासी नहीं हो सकता और ग्रीष्मरुतुकी समाप्ति हुए बिना व वर्षारुतुकी शुरूआत हुए बिना प्रथम आषाढ़से पर्युषणासंबंधी दिनोंकी गिनती नहीं हो सकती इसलिये प्रथम आ. षाढमें चौमासी करने का व उससे पर्युषणाके दिन गिननेका कहना अज्ञानताका कारण है,क्योंकि वर्षारुतुकी आदिमें दूसरे आषाके अंतमें चौमासी होनेसे पर्युषणाके दिन गिननेका निशीथचूर्णि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] diceमें कहा है. इसलिये प्रथम आषाढले ८० दिन बतलाकर दो श्रावण होनेपरमी भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा करना या दो भाद्रपद होवे तब दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा ठहराना सर्वथा शास्त्र' विरुद्ध है, इसको भी विवेकी पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे । १५-- देखिये यह - कैसी कुयुक्ति है । ८८ 39 कितनेक महाशय अपना असत्य आग्रहको छोड सकते नहीं व सत्यबात को ग्रहणभी कर सकते नहीं और अपनी सचाई ज मानेकेलिये कहते हैं, कि- " दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा करना किसी आगम में नहीं लिखा " ऐसी २ कुयुक्तिये करते हैं और भद्रजीवोंकों संशय में गेरते हैं, मगर इतना विचार करते नहीं है, कि - ५० दिने पर्युषणापर्व करना सबी आगमोंमें लिखा है, यही जिनाशा है. देखिये - "सवीसई राए मासे " वा " सविंशतिरात्रे मासे " वा दश पंचके वा " पचशतैव दिनैः पर्युपणा युक्तेति वृद्धाः इन सबी वाक्य के अर्थ से वर्तमानमें ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्व करना कल्पसूत्रादि आगमानुसार ठहरता है, इससे ५० दिने कहो, या हूसरा श्रावण प्रथम भाद्रपद कहो, दोनों एकार्थही हैं इसलिये दूसरे श्रावण या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा करना किसी आगममें नहीं लिखा. ऐसी २ जानबुझकर कुयुक्तिये लगाकर अपना झूठा पक्ष जमानेकेलिये मायामृषा भाषण करना आत्मार्थियोंकों योग्य नहीं है । ,, १६- उत्सूत्र प्ररूपणा ॥ चंद्रप्रशति सूर्यप्रशति- जंबूद्वीपप्रशति-भगवती समवायांगादि आगम-निर्युक्ति भाष्य चूर्णि वृत्ति प्रकरणादि शास्त्रों में अधिक म होनेके ३० दिन गिनती में लिये हैं. वे सब पाठ छुपानेसे छुप ल. कते नहीं, और अर्थ बदलनेले अर्थभी बदल सकते नहीं. इसलिये कितनेक आग्रही जन कहते हैं, कि ' उन शास्त्रों में तो अधिक म हीना होने से १३ महीनोंके ३८३ दिनों का अभिवर्द्धितवर्षका स्वरप बतलाया है, मगर १३ महीनें गिनती में लेनेका कहां लिखा है ऐसा कहनेवाले उत्सूत्र प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि उन शास्त्रों में जैसे १ वर्षके १२ महीनोंके ३५४ दिन का स्वरूप [ गणित ] प्रमा. ण बतलाया है, तैसेही अधिक महीना होनेसे उस वर्षके १३ महीनौके ३८३ दिनोंका स्वरूप ( गणित ) प्रमाण बतलाया है, इसलिये ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] चंद्र और अभिवार्द्धत दोनों वर्षों का स्वरूप गणित प्रमाण सबी शा. स्त्रोमे खुलासापूर्वक होनेपरभी १२ महीनोंके वर्षको प्रमाणभूत मानना और १३ महीनोके वर्षको स्वरूपका बहाना बतलाकर प्र. माणभूत नहीं मानना यह तो प्रत्यक्षही अन्याय है । यदि १३ महीनोंका स्वरूप बतलानेका कहकर गिनतीमें प्रमाणभूत नहीं मानोगे, तो, १२ महीनोंकाभी स्वरूप बतलाया है उसकोभी गिनतीमें प्रमाणभूत नहीं मान सकोगे और शास्त्रों में तो १२ या १३ महीनोंके दोनों वर्षों के स्वरूप बतलाकर गिनतीमे प्रमाणभूत माने हैं. इस. लिये दोनों प्रकारके वर्ष मानने योग्य हैं, इसमें शास्त्रप्रमाणसे तो एकभी निषेध नहीं हो सकता. देखिये- ११ अंग,व १४ पूर्वादिमें जैसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र-चौदहराजलोक--षद्रव्य--नवतत्त्व-चौदहगुणस्थान-जीवाजीवादि पदार्थोका स्वरूप व चरणकरणानुयोगमें संयमके आराधनकी क्रियाका स्वरूप बतलाया है. वोही सब मान्य करने योग्य है. इसलिये स्वरूप बतलाना सोही श्रद्धापूर्वक मान्य करने योग्य सत्यप्ररूपणा कही जाती है । जिसपरभी चरणकरणानुयोगमे संयमकी क्रियाका व षद्रव्य-नवतत्वादिकका स्वरूप बतलाया है, मगर उस मूजब मान्य करना कहा लिखा है. ऐसा कोई कहे और उसको प्रमाणभूत नहीं माने, तो, ११ अगं, व १४ पूर्वोके उत्थापनका प्रसंग आनेसे अनेक भवोंकी वृद्धि करनेवाली उत्सूत्र प्ररूपणा होवे.इसी तरहसे १३ महीनोंका स्वरूप कहकर प्रमाणभूत नहीं माने, तो, सूर्यप्रज्ञप्ति वगैरह पूर्वोक्त शास्त्रोके उत्थापनका प्रसंग भानेसे उत्सूत्र प्ररूपणा होगी । और जैसे षद्रव्य-नवतत्त्वादिकके स्वरूप शास्त्रोंमें कहे हैं उस मुजबही मानना पडताहै । तैसेही१२ म. हीनोंके स्वरूपकी तरह १३ महीनोंका स्वरूप शास्त्रोंमें बतलायाहै उस मुजबही १३ महीने प्रमाणभूत गिनती मानने पड़ते हैं. इसलिये '१३ महीनोंके अभिवर्द्धितवर्षका स्वरूप बतलायाहै, मगर मानना कहां लिखा है ऐसी उत्सूत्र प्ररूपणा करना और भोले जीवोंको संशयमें गेरना आत्मार्थी भवभिरूओंकों योग्य नहीं है। १७- लौकिक आधिक महीना मानना या नहीं ? कितनेक महाशय कहते हैं, कि- जैन टिप्पणामें तो पौष और आषाढ बढताथा अब लौकिक टिप्पणामें श्रावण भाद्रपदादिभी बढने लगे हैं सो कैसे माने जावे ? इसपर इतनाही विचार कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] नेका है, कि- जैनटिपपणा में तीसरे वर्ष में महीना बढता था उसको गिनती में लेते थे और जैन टिप्पणा में ज्यादे में ज्यादे३६घटिका प्रमाणे दिनमान होताथा, तथा कमती में कमती २४ घटिकाप्रमाणे दिनमान होताथा. और माघ महीने दक्षिणायनसे सूर्य उत्तरायनमें होताथा और श्रावणमहीने उत्तरायनसे दक्षिणायनमें होताथा और श्रावण वदि एकमसे ६२ वीं तिथि क्षय होतथी. इसीप्रकार १ वर्षमें ६ तिथि क्षय होती थी बीच में कोई भीतिथि क्षयनहीं होती थी. और तिथि बढ़ने कातो सर्वथा अभाव होने से कोईभीतिथि बढतीनहीं थी और ६० घडीसेकम तिथिकाप्रमाण होनेसे, ६० घडीके ऊपर कोई भी तिथि नहीं होतीथी. और नक्षत्र संवत्सर, ऋतुसंवत्सर, सूर्य संवत्सर, चंद्रसं वत्सर और अभिवर्द्धितसंवत्सर सहित पांचवर्षका १ युग, व ८८ ग्रह मानतेथे इत्यादि अनेक बातें जैन टिप्पणा में होती थी वो जैन टिप्पणा परंपरागत जैनी राजा देशभर में चलाते थे और पूर्वगत आमनाय से गुरुगम्यता से जैन कुलगुरु बनाते थे. इसलिये उसमे ग्रहणादि किसी तरहका फरक नहीं पडताथा. मगर परंपरागत जैनी राजाओंका व पूर्वगत आम्नायका अभाव हुआ जबसे ८८ ग्रहवाला जैन पंचांग बंध हुआ. तबसे जैन समाजमै ९ ग्रहवाला लौकिक टिप्पणा मानने की प्रवृत्ति शुरू हुई. उसमें श्रावण व माघमे दक्षिणायनमें व उत्तरायन में सूर्य होनेका नियम न रहा और हरेक महीने बढने से ज्येष्ट-- आषाढ व मार्गशीर्ष पौषादिमे दक्षिणायन व उत्तरायन होनेलगा. तथा क्षेत्रफल व गणित विभाग में फेर पडने से ज्यादेमे ज्यादे ३४ घाटका, व कमती में कमती २६ घटीकाप्रमाणे दिनमानभी मानने लगे और एक तिथिका ६० घटिकासे ज्यादे प्रमाण मानने से हरेकपक्ष में तिथियों का क्षयभी होनेलगा. और हरक तिथियोंकी वृद्धि होनेसे दो दो तिथियैभी होने लगी. और१२वर्षका युग इत्यादि अनेक बातें जैन पंचांगके अमावसे लौकिक टिप्पणाकी माननी पडती हैं, इसीतरह अधिक महीनाभी लौकिक रीतिसे वर्तमान में मानना पड़ता है, इसलिये ८४ गच्छोंके सबी पूर्वाचार्यों में श्रावण भाद्रपदादिमहीनें लौकिक टिप्पणामुजब माने हैं. वोही प्रवृत्ति सबजैन समाजमें शुरू है । और दक्षिणायन, उत्तरायन, तिथिकी हानी वृद्धि वगैरह तिथि, वार, नक्षत्र, पक्ष, मास, वर्ष सब लौकिक टिप्पणामुजब मानना मगर अधिक महीना बाबत जैनपंचांगकी आड लेकर नहीं मानना यह न्याय युक्ति बाधक होनेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] सत्य नहीं ठहर सकता. इसलिये ऊपर मुजब बातोंकी तरह अधिक महीनाभी लौकिक मुजब वर्तमानमें मान्य करना युक्तियुक्त न्याय संपन्न होनेसे निषेद्ध नहीं हो सकता। और यद्यपि जैन टिपणामें पौष आषाढ बढताथा उस वातको जिनकल्पी व्यवहारकी तरह सत्य मानना, श्रद्धा रखना, प्ररूपणा करना. मगर जिनकल्पी व्यव. हार अभी विच्छेद होने से उसको अंगीकार नहीं कर सकते, उसी तरह अभी जैन टिप्पणाभी विच्छेद होनेसे वर्तमानमें जैन टिप्पणा मुजब तिथि, वार, या पौष आषाढ महीने माननेका आग्रह करना सर्वथा अनुचित है। १८- जैन ज्योतिष्परसे अभी जैन टिप्पणा शुरू हो सके या नहीं? यद्यपि जैन ज्योतिष्के चंद्रप्राप्ति-ज्योतिष्करंडपयन्नादि अ. नेक शास्त्र मौजूद हैं, उसपरसे तिथि-वार-मास-पक्ष-वर्षादिकका गणित हो सकता है। मगर ग्रहचार ग्रहणादि सब बाते बरोबर मिलान करना मुश्किल पडता है, इसलिये कितनीक बातों में अन्य आधार लेना पडता है. और लौकिक व जैन दोनोके गणितमें फेर होनेसे, तिथि-वार-मास व ग्रहणादि दोनोंके समान नहीं आसकते. और पूर्वगत गुरुगम्य आम्नायके अभावसे व अ. ल्पज्ञताके कारणसे यदि ग्रहणादि बतलानेमे न्यूनाधिक कुछ फरक पड जावे तो सर्वज्ञशासनकी लघुता होनेका कारण बनजावे। और परंपरागत जैनीराजाओंके अभाव होनेसे व ब्रह्मचारी, व्रत. धारी, गुरुगम्यतावाले कुलगुरुओका अभाव होनेसे तथा खरतरगच्छ नायक श्रीनवांगी वृत्तिकारक श्रीअभयदेसूरिजी, श्रीशांतिसू. रिजी, श्रीहेमचंद्राचार्य जी वगैरह समर्थ व प्रभावकाचार्योंके समयसेभी बहोत कालसे जैन टिप्पण विच्छेद होनेसे, अभी अपने अल्प बुद्धिवालोंसे फिरसे शुरू नहीं हो सकता । और कोई शुरू करें तो. भी सर्वमान्य युगप्रधान समर्थ आचार्य के अभावसे सबदेशोके सबगच्छोंके सब जैन समाजमें परंपरागत चल सकताभी नहीं। देखिये जैन शासनमें विशेष ज्ञानी समर्थ प्रभावक पूर्वीचार्योंके समय जो बात पहिलेसे विच्छद हो जावे उसको विशिष्टतर अवधिज्ञानादि रहित अल्पज्ञोसे इसकालमें फिरसे शुरू नहीं होस. के । इतने परभी शुरू करें तो पूर्वाचार्योंकी आशातनासे दोषके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] भागी होवे । इसी तरह जैन पंचांगभी पूर्वाचार्योंके समयसे वि. च्छेद होनेसे अभी शुरू नहीं होसकता. जिसपरभी शुरू करें, तो, २० वे दिन पर्युषणपर्व करनेकी व पांच पांच दिने अज्ञात पर्युषणा स्थापन करनेकी बाते जो विच्छेद हुई हैं, वे बातेभी जैन टिप्पणा शुरू होनेसे पीछी शुरू करनी पडेंगी और वे बातें अभी पडताकाल होनेसे शुरू होसकती नहीं हैं, इसलिये अभी जैन पंचांग शुरू हो सकता नहीं है। १९- अभी दो श्रावणादिकके दो आषाढ बना सके या नहीं? कितनेक कहते हैं, कि-लौकिक टिप्पणमें श्रावण, भाद्रपद बढे तब जैन हिसाबसे दो आषाढ बना लेवे तोपर्युषणका भेद मिट जावे. मगर ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि जब जैन पंचांगही अभी विच्छेद है, और तिथि, वार, पक्षादि पंचांग संबंधी व्यवहार लौकिक मुजब करते हैं, जिसपरभी १ महीनेका फेरफार करदेना योग्य नहीं है । देखो.- दो श्रावण होनेसे भरपूर वर्षाऋतुवाला प्रथ. म श्रावण शुदी १५ को प्रत्यक्ष प्रमाणसेभी विरुद्ध होकर उसको आषाढ पूर्णिमा बनाना जगत विरुद्ध होनेसे व्यवहारमे मिथ्याभाषणका दोष लगे। और पूर्वाचार्योंनेभी ऐसा नहीं किया, इसलिये अभी दो श्रावण या दो भाद्रपदके दो आषाढ बनाना नहीं बन सकता. किंतु लौकिक मुजब दो श्रावण भाद्रपदादि सबगछोके पूर्वाचार्य पहिलेसे मानते आये हैं, वैसेही वर्तमानमें अपने सबकोही मान्य करना योग्य है. बस ! धार्मिक व्यवहार पर्युषणपर्वादि जैन सिद्धांतानुसार ५० वें दिन करना. और तिथि, वार, मास, पक्षादि व्यवहार लौकिक टिप्पणानुसार करना. यही न्याय युक्ति. युक्त सर्व सम्मत होनेसे सर्व जैनीमात्रको मान्य करना योग्य है, इसलिये इसमें अन्य २ कल्पना करना व्यर्थ है। २०- पर्युषणा कितने प्रकारकी होती हैं ? निशीथचूर्णि और कल्पसूत्रकी नियुक्तिवृत्ति वगैरह शास्त्रों में पर्युषणाके ८ प्रकारसे अनेक भेद बतलाये हैं, मगर यहां तो मुख्यतासे वर्षास्थितिरूप और वार्षिक कार्यरूप ऐसे दो अर्थ वर्तमानमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] सब गछवाले ग्रहण करते हैं । इसलिये आषाढ चौमासीसे ठहरना सो वर्षास्थितिरूप अज्ञात पर्युषणा और मासवृद्धिके सद्भावमें २० दिने या उसके अभावमें ५० दिने ज्ञात (प्रकट) पर्युषणा करना सो वार्षिक कार्यरूप पर्युषणा समझना चाहिये । जब जैन पंचांगके अभावसे २० दिनकी पर्युषणा बंधहुई, तबसे लौकिक हरेक मास बढे तो भी ५० दिने वार्षिक कार्यरूप पर्युषणा करनेकी मर्यादा है. २१- वीश दिनकी पर्युषणा वर्षास्थितिरूप हैं या वार्षिकपर्वरूप हैं ? भो देवानुप्रिय ! जैसे चंद्रवर्ष ५० दिनकी शात पर्युषणा वार्षिक कार्यरूप हैं, तैसेही अभिवर्द्धित वर्षमें २० दिनकी बात पर्युष. णाभी वार्षिक कार्यरूप हैं । जिलपरभी श्रावणमें वीश दिनकी ज्ञात प. र्युषणा वर्षास्थितिरूप मानोगे तो भाद्रपद भी ५० दिनकी ज्ञात पर्युः षणाभी वर्षास्थितिरूप ठहर जावेगे और वार्षिककार्य करने सर्वथा उडजावेगे. और २०दिने वार्षिक कार्य नहीं करने मगर ५०दिने करने ऐसाभी कोई प्रमाण नहीं है, और २० दिने ज्ञात पर्युषणा किये बाद पीछे एक महीनेसे वार्षिक कार्य करने ऐसाभी कोई प्रमाण नहीं है। इसलिये- जैसे ५० दिने भाद्रपदमें वार्षिक कार्य होते है, वैसेही २० दिने श्रावणमेभी वार्षिक कार्य होते हैं । और वर्तमानमें श्रावण भाद्रपद बढे तो भी दूसरे श्रावणमे या प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने वार्षिक कार्यरूप पर्युषणा करना जिनाशानुसार है। २२- वार्षिक कार्य १२ महीने होवें या १३ महीने होवें? पहिलेभी जैसे २० दिने श्रावणमें वार्षिक कार्य करतेथे तब आवते वर्ष भाद्रपद तक १३ महीने होतेथे, तैसेही वर्तमानमेंभी ५० दिने दूसरे श्रावणमे या प्रथम भाद्रपदमें वार्षिक कार्य होनेसे आवते वर्ष १३ महीने होते हैं. इसमें कोई दोष नहीं है, देखिये-दो पौष, दो आषाढ, या दो आसोज होनेसेभी १३महीने प्रत्यक्षमें होते हैं। इस लिये महीना बढे तबतो पहिले या पीछे १३ महीनोंके २६ पाक्षिक प्रतिक्रमण सबकोही होते हैं । और जैनमें या लौकिको १२ महीनोंके या १३ महीनोंके दोनों वर्ष माने हैं, इसलिये १२ महीनेभी वार्षिक कार्य होवें. और १३ महीनेभी वार्षिक कार्य होवे, यह कोई नवीन बात नहीं है। किंतु अनादि प्रवाह ऐसाही है। जिसपरभी १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] महीने होनेका दोष बतलाकर, १२ महीने ठहरानेकेलिये महीनेको छोड देना सो सर्वथा अनुचित है, इसको विशेष तत्त्वक्ष जन स्वयं विचार सकते हैं। २३- पर्युषणासंबंधी कल्पसूत्रका पाठ वार्षिक कार्योंके लिये है, या वर्षास्थितिके लिये है ? । कल्पसूत्रका पर्युषणासंबंधी पाठ वर्षास्थितिके साथही वार्षिक कार्योंकेलिये है, जिसपरभी उसको सिर्फ वर्षास्थितिरूप ठहरा. कर वार्षिक कार्य निषेध करते है सो अनेकार्थ युक्त आगमपाठके अर्थ को उत्थापनेवाले बनते है. जैसे " णमो अरिहंता णं" पदके अर्थमे कर्मशत्रुको जितनेवाले अरिहंत भगवान्को नमस्कार करने का अर्थ अनादिसिद्ध है, जिसपरभी कर्मशत्रुके अर्थ नहीं माननेवालेको अज्ञानी समझाजाता है । तैसे ही कल्पसूत्रके ५० दिने पर्युषणाकरने संबंधी पाठमें वार्षिक कार्य तो अनादि सिद्ध है जिसपरभी वार्षिक कार्योको नहीं मानने वालोको अज्ञानी या हठवादी समझने चाहिये। २४- भगवान् किसीप्रकारकेभी पर्युषणा करतेथे या नहीं? जिनकल्पी मुनियोंके व स्थिविरकल्पी मुनियोंके आचारमें बहुत भेद है, और भगवान्तो अनंत शक्तियुक्त कल्पातित हैं, इसलिये भगवानके आचारमेतो विशेष भेद है. तो भी वर्षारुतमें वर्षास्थितिरूप पर्युषणा तो सबकोई करते हैं । और स्थिविर कल्पी मुनियोंके तो वर्षास्थितिके साथ चौमासी व वार्षिक पर्व करने वगैरहका अधिकार प्रसिद्धही है । जिसपरभी कल्पसूत्र में पर्युषणा शब्दमात्रको देखकर अतीव गहनाशयवाले सूत्रार्थके भावार्थको गुरुगम्यतासे समझे बिना भगवान्कोभी वार्षिक प्रतिक्रमणादिकरने वाले ठहराना, या ५० दिनकी पर्युषणाको वार्षिक कार्यरहित ठहराना सो अज्ञानता है. इसकोभी विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं। २५- पर्युषणासंबंधी सामान्य व विशेषशास्त्र कौनहै ? जिस शास्त्र में मुख्यतासे एक विषयको विशेष रूपसे खुला. साके साथ कथन किया होवे, उसको विशेष शास्त्र कहते हैं । और जिस शास्त्रमें बहुत बातोंका कथन होवे, उसको सामान्य शास्त्र कहते हैं । यद्यपि यथा अवसर दोनों मान्य हैं, मगर सामान्यशास्त्रसे विशेषशास्त्र ज्यादे बलवान होता है. इसलिये मुख्यतासे वि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] . शेष शास्त्रकी बात अंगीकार करनेके समय सामान्य शास्त्रकी बात गाण्यताभावमें रहती है. यह न्याय विद्वानों में प्रसिद्धही है । और. भी दोखिये-जैसे भगवतीसूत्र बडा कहा जाता है, तो भी उसमें बहुत बातोंका कथन होनेसे संयमकी क्रियासंबंधी सामान्यशास्त्र कहा जावे, और आचारांग, दशवकालिक छोटे सूत्र हैं, तो भी उस में मुख्यताले संयमविधान होनेसे संयमक्रियासंबंधी विशेष शास्त्र कहे जाते हैं । इसीतरह समवायांगसूत्र में अनेक बातोंका कथन होनेसे पर्युषणासंबंधी समवायांगसूत्र सामान्य शास्त्र है, और क. ल्पसूत्रमें तो खास पर्युषणासंबंधी सामान्य व विशेष दोनो प्रकारसे विस्तारपूर्वक खुलासाके साथ वर्षास्थितिरूप व वार्षिकपर्व रूप दोनों पर्युषणाका अधिकार है. इसलिये पर्युषणासंबंधी कल्पसूत्र विशेष शास्त्र है। यही कल्पसूत्ररूप विशेष शास्त्रको पर्युषणामें चतुर्विधसंघके मांगलिकके लिये वर्षोंवर्ष प्रत्येक गांव-नगरादिमें वांचनेमें आता है । उस विशेषशास्त्रके पर्युषणासंबंधी मूलमंत्ररूप पाठको छोडना और समवायांगके सामान्यपाठपर दृढ आग्रह करना विवेकीविद्वानोंको योग्यनहीं है। मगर अल्पक्ष बिना समझवाले अपना आग्रह न छोडें तो उनकी खुशीकी बात है, इसको विशेष तत्वक्ष जन स्वयं विचार लेंगे. २६-पर्युषणासंबंधी हमेशां नियत नियम ५० दिनका है . या ७० दिनका है ? सर्व शास्त्रोंमे ५० दिनको उल्लंघन करना निवारण किया है, इसलिये ५० दिनका नियत नियम है। और ७० दिनसे ज्यादे होवे उसका कोईभी दोष किसी शास्त्रमें नहीं कहा, इसलिये ७० दिनका हमेशां नियत नियम नहीं है। १. देखो-पहिले २० दिने पर्युषणा करतेथे, तबभी पि. छाडी १०० दिन रहतेथे, इसलिये ७० दिनका नियत नियम नहीं है। ... २. अबीभी श्रावण भाद्रपद या आसोज बढे तब तपग छके पूर्वाचार्योक पाक्यसेभी ५० दिने पर्युषणा होवें तब पिछाडी १०० दिन रहते हैं। इसलियेभी ७० दिन रहनेका नियत नियम नहीं है। ३. पचास दिन उलंघेतोप्रायश्चित्त कहा है, मगर ७०दिन उल्लंघे तो प्रायश्चित्त नहीं कहा, इसलियेभी. ७० दिनकी नियत नि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] यम की हमेशा मर्यादा नहीं ठहर सकती । ४- पचास दिने तो ग्रामादि न होवे तो जंगल में वृक्षनीचे भी अवश्यही पर्युषणा करनेकी आवश्कता बतलाई है और ७० दिनकी स्वाभाविक गिनती बतलायी परंतु वैसी ही ७० दिनकी आवश्यकता नहीं बतलायी, इसलिये भी ७० दिनका नियत नियम नहीं है । ५- ७० दिवलका पाठ मास वृद्धिके अभाव संबंधी है, इसलिये उसको मासवृद्धि होनेपर भी आगे करना शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय विरुद्ध होने से योग्य नहीं है । ६- इन्ही समवायांग सूत्रके टीकाकार महाराजने स्थानांग सूत्र. वृत्ति, मासवृद्धि होवें तब पर्युषणाके पिछाडी कार्तिकतक १०० दिन ठहरनेका कहा है । उसको उत्थापना और शास्त्रकर महाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर १०० दिनकी जगहभी ७० दिन ठहरने का बतलाना आत्मार्थियों को योग्य नहीं है । ७- निशीथचूर्णि - बृहत्कल्पचूर्णि कल्पानियुक्ति चूर्णि - वृत्तिगच्छाचारपयन्नवृत्ति-जीवानुशासन वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रों में, वर्षास्थितिकेलिये कालावग्रहमें, जघन्यसे ७० दिन, मध्यम से ७५८०-८५-९०-९५ यावत् १२० दिन, और उत्कृष्टसे १८० दिनका प्रमाण बतलाया है । उसके अंदर मैले १ दिनमात्र भी गिनती में नहीं छुट सकता. जिसपरभी शास्त्रविरुद्ध होकर वर्षस्थितिके अनियत व जघन्य ७० दिनों कों हमेशां नियत ठहराने का आग्रह करना विantrat योग्य नहीं है । ८- निशीथचूर्ण्यादिमें द्रव्य-क्षेत्र काल और भावसे पर्युषणाकी स्थापना करनी बतलायी है, उसमें कालस्थापना संबंधी समयआवलिका - मुहूर्त-दिन - पक्ष - मास से अधिकमहिनेके ३० दिनोंकी गिनति सहित प्रत्येक दिवसको पर्युषणासंबंधी कालस्थापनाके अधिकार में गिनती में लिये हैं । इसलिये पर्युषणाके व्यवहारमै १ दिन भी गिनती में निषेध नहीं होसकता. जिसपरभी जघन्य ७० दिनके अनियत नियमको मास बढनेपरभी आगे करते हैं और फिर १०० दिनके ७० दिन अपनी कल्पनासे बनाते हैं सो सर्वथा चूर्णि के विरुद्ध है, इसका विशेष विचार तत्व जन स्वयं कर लेवेंगे । ९- सीत्तर दिनका नियत नियम न होनेसे ७० दिनके ऊपर ज्यादेदिनभी होते हैं, और " वासावासाए अणावुद्दपि, आसोप क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] 1 चिए वा निग्गताणं, अट्ठ अतिरिता भवंति" इत्यादि निशीथ चूर्ण्यदिकमें लिखे मुजब वर्षाके अभावले आसोजमै विहार करतो ७० दिनसे कमती भी ४० दिन, या ४५-५० दिनभी होते हैं। देखो - पहिले ५० दिने वार्षिक कार्य जबलग नहीं करें तबतक विहार करनेमें आताथा. मगर अभी वर्तमान में तो आषाढचौमासीबाद विहार करकी रूढी नहीं हैं । तैसेही पहिले वर्ष के अभाव से आसोजमै भी विहार करते थे मगर अभीतो वर्षा नहीं होवे रस्तोंके कीचड सुककर साफ होगये होंवे तो भी कार्तिक पूर्णिमा पहिले आसोजमै विहार करनेकी रूढी नहीं हैं । इसलिये अभी वर्षा के अभाव से आसोजमे विहार नहीं कर सकते और दो आसोज हो तो भी कार्तिक तक १०० दिन ठहरते हैं. इसलियेभी ७० दिनका हमेशां नियत नियम नहीं हैं। इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेगें । २७ - महीना बढे तब होली, दिवाली वगैरह लौकिक पर्व पहिले महीने में होवें या दूसरे महीनेमे होवें ? कितनेक पर्व पहिले महीने में होते हैं, और कितनेक पर्व दूसरे महीने में भी होते हैं. देखो-दो भाद्रपद होवें तब जन्माष्टमीका पर्व पहिले भाद्रपद में करते हैं. और गणेश चौथका पर्व दूसरे भापदम करते हैं. व दो आसोज होवें तब श्राद्धपक्ष पहिले आसो जमे करते हैं, और दशहरा दूसरे आसोजमै करते हैं. तथा दो कार्तिकहोवे तब दीवालीपर्व पहिले कार्तिकमें करते हैं. इसतरहसे बारहमासी के सबी पर्व कृष्णपक्षसंबंधीपर्व पहिले महीने में और शुफ्लपक्ष संबंधीपर्व दूसरे महीने में समझलेना और " मलमासो द्वेधा अधिकमासः - क्षयमासश्चेति । तदुक्तं काठकगृह्ये, यस्मिन् मासे न संक्रांतिः, संक्रांति द्वयमेव वा मलमासोल विशेयो मासः स्यात् तु त्रयोदशः । तथा च उक्तं हेमाद्रि नागर खंडे-नभो वा नभस्यो वा मलमास यदा भवेत् सप्तमः पितृपक्षः स्यादन्यत्रेव तु पंचमः । इत्यादि " निर्णयासंधु, धर्मसिंधु, निर्णयदीपकादि लौकिक धर्मशास्त्रोंके प्रमाणानुसार आषाढ चौमास पांचवा पितृपक्ष ( श्राद्धपक्ष ) होता है, मगर श्रावण, भाद्रपद बढे तब उसकी गिनतीले सात [७] श्राद्धपक्ष होता है इसलिये लौकिकवालेभी अधिकमहिनेके ३० दिन गिनती में लेते हैं । जिसपरभी लौकिकवाले अधिक महीने के ३० दिन गिनती में नहीं लेते, या प्रथम महीने में दीवाली, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] व जन्माष्टमी वगैरह पर्व नहीं करते. ऐसा जान बुझकर माया मृषा कथन करना आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है। २८-गणेशचौथकी तरह पर्युषणाभी दूसरे भाद्रपदमें हो सके या नहीं? भो देवानुप्रिय ! गणेशचौथ मासप्रतिबद्ध होनेसे मासवृद्धि के अभावमें आषाढचौमासीसे, दूसरे महीनेके चौथेपक्षमे ५० दिने भाद्रपद में होती है, मगर श्रावण या भाद्रपद बढे तब तो तीसरेमहोनेके छठे पक्षमें ८० दिने दूसरे भाद्रपद होतीहै । इसीतरह मास बढनेके अभावमे २॥ महीनोंसे पांचवा श्राद्धपक्ष होता है। मगर मास बढे तब तो ३॥ महीनोंसे सातवा श्राद्धपक्ष होता है तथा दीवालीपर्वभी मासवृद्धि के अभाव में ३॥ महीनोसे ७ वे पक्षमें कातिकम होता है, मगर श्रावणादि बढे तबतो ४॥ महीनोंसे ९ में पक्षमें होता है. यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे जगत् प्रसिद्ध सर्व सम्मत ही है। और पर्युषणापर्व तो दिन प्रतिबद्ध होनेसे दूसरे महीनेके चौथेपलमें ५० दिने अवश्यही करने कहे हैं । इसलिये गणे शचौथकी तरह दूसरे भाद्रपदमें करे तो तीसरे महीनेके छठेपक्षम ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसलिये दूसरे भाद्रपद में नहीं होसकते। किंतु दूसरे महीनेके चौथेपक्षमें ५० दिने प्रथम भाद्रपदमें करना शास्त्रानुसार होनेसे आत्मार्थीयोंकों योग्य है । इसलिये मासप्रतिबद्ध लौकिक गणेशचौथ की तरह दिन प्रतिबद्ध लोकोत्तर पर्युषणापर्वतो दूसरे भाद्रपदमें नहीं हो सकते। इसको विशेष तत्वश पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे। २९- पौषादि मास बढतेथे तब कल्याणकादि तप कैसे करते थे? पौषादि मास बढनेसे दोनों महीनोंके च्यारों पक्षोमें,-पहिले पक्षमें, या दूसरेपक्षम, वा तीसरेपक्षमें अथवा चौथपक्षम, जिसप. क्षमें, जिसरोज, जिन जिन तीर्थकर भगवान के जो जो च्यवन-जन्मा. दि कल्याणक हुए होवें, उस उस पक्षमें दोनों महीनों में ज्ञानी. महाराजको पूछकर आराधन करतेथे. यह अनादि कालसे ऐसीही मर्यादा चली आती है। इसलिये अधिक महीने में कल्याणकादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] तप नहीं हो सकते, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मृषा है। देखो- अंनतकालसे अनंततीर्थकर महाराज हो गये हैं, उन महाराजोंके च्यवनजन्म-केवलज्ञानादि कल्याणक होने में, कोईभी पक्ष, कोईभी मास, कोईभी दिवस या कोईभी वर्ष बाधक नहीं होसकते। किंतु हरेक माल, हरेक पक्ष, हरेकऋतु, व हरेक दिवसमें होसकते हैं इसलिये पहिले महीनेके या दूसरे महीनेके प्रथम पक्षमें, या दूसरे पक्षमें जिसरोज च्यवनादि जो जो कल्याणकहुए होवे उसी महीनेके उसी पक्षमे उन्हीं कल्याणकोका आराधन करना शास्त्रानुसार ही है। इसलिये इसको कोई भी निषेध नहीं कर सकता। मगर अभी जैन पंचांगके अभावसे व ज्ञानी महाराजके अभावसे अधिक पौषमें या अधिक आषाढमे कौन २ भगवान के कौन २ कल्याणक हुए हैं, उस की मालूम नहीं होनेसे तथा लौकिक टिप्पणामें हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे, चैत्र-वैशाचादि महीने बढे, तब भी परंपरागत ८४ गच्छाके सभी पूर्वाचार्योंने लौकिक रूढीके अनुसार कितनेक पर्व प्रथम महीने में और कितनेक पर्व दूसरे महीनेमें करने की प्रवृत्ति र. ख्खी है । उसी मुजब वर्तमानमेभी करनेमेआतेहैं । देखो-जैसेकार्तिक महीने संबंधी श्री संभवनाथजीके केवलज्ञानकल्याणक, श्रीपद्मप्रभुजीके जन्म व दीक्षा कल्याणक, श्रीनेमिनाथजीके च्यवन कल्याणक और श्रीमहावीरस्वामी निर्वाणकल्याणक व दीवाली पर्वादि कार्य दो कार्तिकहोवे तब प्रथमकार्तिकमैकरनेमें आतेहैं. तथा दो पौषहोंवतब श्रीपार्श्वनाथजीका जन्मकल्याणक पौषदशमीकापर्व प्रथम पौषमें करनेमें आता है । और दो चैत्र होवे तब पार्श्वनाथजीके केवलज्ञान कल्याणकादि तपकार्य उष्ण काल के प्रथम महीनेके प्रथम पक्षमें अर्थात् पहिले चैत्रमें करनेमे आते हैं मगर श्रीमहावीर स्वामीके जन्मकल्याणक व ओलीपर्वतो उष्णकालके दूसरे महीनेके चोथेपक्षमें अर्थात् दूसरेचैत्रमें करनेमेंआते हैं, ऐसेही दो आषाढ होवे तब आदीश्वरभगवान्के च्यवनीद उष्णकालके चौथेमहीने सातवे पक्षमे प्रथमआषाढमें करने में आते हैं और श्रीमहावीरस्वामीके च्यव. नादि पांचवेमहीने के दशवपक्षमें दूसरेआषाढमें करनेमें आते हैं, इसी. तरह आधिकमहिनेके दोनोपक्षोंकी गिनतीसहित सबी महीनोंके का र्य यथायोग्य कल्याणकादि तप वगैरह करनेमेआतेहै । इसलिये क. ल्याणकादि, तपकार्यमें अधिकमहिना गिनती नही लेते ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] ३०- अधिक महीना होवे तब तेरह महीनोंके संवच्छरी क्षामणा संबंधी खुलासा. जैसे इन्हीं भूमिकाके पृष्ठ २२ वेके मध्यमे २२ वें नंबरके लेख मुजब वार्षिक कार्य १२ महीनेभी होवे, और महीना बढे तब तेरह महीनेभी होवें । तैसेही संवच्छरीक्षामणेभी१२ महीनेभी होवें और महीना बढे तब १३ महीनेभी होवें। देखो - चंद्रप्राप्ति सूत्रत्ति, सूर्यप्रज्ञाप्तमूत्रवृत्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रवचनसारोद्धार, ज्योति करंडपयन-निशीथचूणिवगैरह अनेक प्राचीन शास्त्रोंमेभी, महीना बढे तब उस वर्षके१३ महीनोंके२६पक्ष खुलासा पूर्वक लिखे हैं.इस लिये१३ महीने२६पक्षक संवच्छरीक्षामणे करने, ऊपर मुजब अनेक प्राचीन शास्त्रानुसार हैं । जिसपरभी कोई कहेगा, कि-उन शस्त्रोंमें तो १३ सहीने २६ पक्षके संवच्छरीमें क्षामणे करनेका नहीं लिखा मगर ऐसा कहनेवालोको अतीव गहनाशयवाले शास्त्रोके भावार्थको समझमें नहीं आया मालूम होता है, क्योकि- उन शास्त्रोमें पक्षका,चौमासेका ववर्षका गणितसे जो जो प्रमाण बतलाया है उन्हीं शास्त्रोके उसी प्रमाण मुजब, पाक्षिक, चौमासी व वार्षिक पर्वादि. कार्य करनेमें आते हैं, इसलिये जिस वर्षमे १२ महीनोंके २४ पक्ष होवे,उसी वर्ष १२महीनोंके २४पक्षोंके संवच्छरी प्रतिक्रमणमें क्षामणे करनेमें आते हैं । उसी मुजब जिस वर्षमें अधिक महीना होनेसे १३ महीनोंके २६ पक्ष होवें तब उस वर्ष में १३ महीनोंके २६ पक्षोके संवच्छरी प्रतिक्रमणमें क्षामणे करनेमें आते हैं । इसलिये उन शास्त्रमें १३ महीनोके क्षामणे नहीं लिखे ऐसा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या होनेसे अज्ञानताका कारण है। और आवश्यक बृहद्वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्र में जहां जहां वार्षिक प्रतिक्रमणका अधिकार आया है, वहां वहांभी 'संवच्छर' शब्द लिखा है. सो संवच्छर शब्दके १२ महीनोंके २४ पक्ष, व १३ महीनोंके २६ पक्ष, ऐसे दोनों अर्थ आगमोमें प्रसिद्धही है, इसलिये १२ महीनोंके २४ पक्षका अर्थ मान्य करके क्षामणोमें बोलना और १३ महीनोंके २६ पक्षका अर्थ मान्य नहीं करना व क्षामणेभी नहीं बोलना, यह तो प्रत्यक्षमही आगमार्थ के उत्थापनका आग्रह करना सर्वथा अनुचित है, इसलिये दोनों प्रकारके अर्थ मान्य करके उस मुजब प्रमाण करना आत्मार्थी सम्यक्त्व धारियोंको योग्यहै. इसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] विशेष तवा जन स्वयं विचार सकते हैं। और इसका विशेष खुलासा इसी ग्रंथके पृष्ठ ३६२ से ३८२ तक छप गया है, उसके देखनेसे सब निर्णय हो जावेगा। ३१- पांच महीनोंके चौमासी क्षामणो संबंधी खुलासा. पहिले पौष महीना बढताथा तबभी फाल्गुन चौमासा पांच महीनोंका होताथा, व आषाढ महीना बढताथा तबभी आषाढ चौमासा पांच महीनोंका होताथा, तैसेही अभी वर्तमानमें लौकिक श्रावणादि बढतेहैं तबभी कार्तिक चौमासा पांच महीनों का होता है। यद्यपि सामान्य व्यवहारसे चौमासा ४ महीनोका कहा जाता है मगर अधिक महीना होवे तब विशेष व्यवहारसे निश्चयमें पांच महीनोके १० पाक्षिक प्रतिक्रमण सबी गच्छवालोको प्रत्यक्षमे क. रनेमें आते हैं । और जितने मासपक्षोंका प्रायश्चित ( दोष )लगा होवे, उतनेही मासपक्षोंकी आलोचना क्षामणा करना स्वयंसिद्धही है । और मास बढनेसे पांच महीनों के दशपक्ष होनेपरभी उसमें ४ महीनोंके ८ पक्षोके क्षामणा करना और दो पक्ष छोड देना सर्वथा अनुचित है। इसलिये ऊपर मुजब ३०वे नंबरके १३ मासी संवच्छरीक्षामणा संबंधी लेख मुजबही यथा अवसर पांच महीनों के दशपक्षोंके क्षामणे करने शास्त्रानुसार युक्तियुक्त होनेसे कोई भी निषेध नहीं करसकता, इसका भी विशेष खुलासा इस ग्रंथके पृष्ठ ३६२ से ३८२ तकके क्षामणों संबंधी लेख में छप गया है वहांसे जान लेना। ३२- १५ दिनोंके पाक्षिक क्षामणो संबंधी खुलासा । जैन ज्योतिषके शास्त्रानुसार तो जिस पक्षमें तिथिका क्षय होवे, वो पक्ष १४ दिनोका होता है । और जिल पक्षमें तिथिका क्षय न होवे,वो पक्ष १५ दिनोंका होता है। मगर लौकिक. टिप्पणामें तो अभी हरेक तिथियोंकी हानी और वृद्धि होती है, इसलिये कभी १३ दिनोंकाभी पक्षहोताहै, कभी १४ दिनोंकाभी पक्ष होताहै, कभी १५ दिनोकाभी पक्ष होताहै और कभी १६ दि. नोंकाभी पक्ष होता है। मगर व्यवहारसे १५ दिनोका पक्ष कहा जाता है इसलिये व्यवहारसे पाक्षिक प्रतिक्रमण १५ दिनोके क्षामणे करनेमें आतेहैं. मगर निश्चयमै तो जितने रोजके कर्मबंधन हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] होगे, उतनेही रोजके मौकी निर्जरा होगी किंतु ज्यादे कम नहीं होगी, इसलिये निश्चय और व्यवहार के भावार्थको समझे बिना श ब्दमात्रको आगे करके विवाद करना विवेकी आत्मार्थियोंकों तो योग्य नहीं है । इसका भी विशेष खुलासा इसी ग्रंथ के क्षामणासंबंधी लेखसे जान लेना । ३३- अपेक्षा विरुद्ध होकर आग्रह करना योग्य नहीं है । मासवृद्धि के अभाव में महीनों के चौमासीक्षामणे, व १२ महीनोंके संवच्छरीक्षामणे करनेका कहा है, उसकी अपेक्षा समझेबिनाही मास बढने पर भी उसी पाठको आगे करना और ५ मास १० पक्ष, व १३मास २६पक्ष शास्त्रोंमें लिखे हैं, उन पाठोको छुपादेना. तत्त्वज्ञ आमार्थियो को योग्य नहीं है । इसीतरह पौष व चैत्रादि महीने बढे तब प्रत्येक महीने के हिसाब से विहार करनेवाले मुनिमहाराजोको एक कल्प चौमासेका और नवमहीनोंके नवकल्प मिलकर दशकल्पीविहार प्रत्यक्षमें होता है । जिसपरभी महीना बढनेके अभाव संबंधी एककल्प चौमासेका और महीनोंक ८ कल्पमिलकर ९ कल्पीविहार करनेका पाठ बतलाना और मास बढे तबभी दशकल्पी विहारको निषेध करनेके लिये भोलेजीवों को संशय में गेरना विवेकी सज्जनोंको योग्य नहीं है । इसीतरह मासबढनेके अभावकी अपेक्षासंबंधी हरेक बातोंको मास बढनेपर भी आगेलाकर उसका आग्रह करना सर्वथा अनुचित है इसको विशेष विवेकी तश्वश पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे | 1 ३४ - विषयांतर करना योग्य नहीं है । ५० दिनोंकी गिनती से दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषण पर्व करनेकी सत्यबात ग्रहण करसकतेनहीं और पचास दिनोंकी गिनती उडानेक्रेलिये ऐसा कोई दृढ बाधक प्रमाणभी दिखा सकते नहीं, इसलिये दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाका विषय छोडकर होली, दिवाली, ओली आदिक मास प्रतिबद्ध कार्योंका विषय बीच में लाते हैं, सो असत्य आग्रहका सूचनरूप विषयांतर करना योग्य नहीं है । क्योंकि ऐसे तो मासप्रतिबद्ध कार्यों में या मुहूर्त प्रतिबद्ध कार्यों में कितने ही महीने, कितनेही वर्षभी छूट जाते हैं. देखो - मास प्रतिबद्ध कार्य तो एक महीने से करनेके होंवें सो अ धिक महीना होवें तब एक महीने की जगह कितनेक पर्व दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] महीनेमेभी किये जाते हैं । और दूज-पंचमी-अष्टमी-चतुर्दशी वगैरहमें उपवास करनेका, ब्रह्मचर्य पालनेका, रात्रिभोजन त्याग करनेका इत्यादि, व्रत, नियम, पञ्चास्त्राण तो दोनों महीनों में दो दो वारकरनेमें आते हैं । और पर्युषणपर्व तो मास बढे तो भी ५० दिनकी जगह ५१ वें दिनभी कभी नहीं होसकते. इसलिये दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्वके साथ, मास प्रतिबद्ध होली, दीवाली वगैरहका विषय लाना सो सर्वथा अनुचित है। ___ और महीना बढनेके अभावमें ओलियोंका पर्व छठे महीने करनेका शास्त्रों में कहाहै, मगर महीना बढे तबतो प्रत्यक्ष प्रमाणसे और शास्त्रीय हिसाबसे भी सातवे (७) महीने ओलियोकापर्व होताहै, तो भी व्यवहारसे छठे महीने आंबीलकी ओलिये करनेका कहाजाताहैं । जैसे-श्रीआदीश्वरभ गवानने, चैत्र वदी ८ [गुजरातकी अपेक्षा फागण वदी ८ ] को दीक्षा अंगीकार की थी, और दीक्षाके दिनसे तपस्याका पारणा दूसरे वर्ष वैशाख शुदी ३ को हुआथा, तो भी व्यवहारसे सबी शास्त्रोंमें वर्षी तपका पारणा लिखा है. और ऐसेही वर्षांतपका पारणा सब कोई जैनीमात्र कहते हैं, मगर दिनोंकी गिनतीसे तो १३ महीनोंके ऊपर १० दिन होनेसे ४०० दिन पारणाके होते हैं, जिसमेभी कदाचित उस घर्षमें बीचमें अधिक महीना आजावे तो १४ महीनोंके ऊपर १० दिन होनेसे ४३० दिने पारणा होता है, तो भी व्ययहारसे वर्षी तपही कहा जाता है, और यह बात अभी वर्तमानमेंभी वर्षी तप करने बालोंके अनुभवमें प्रत्यक्षही आतीहै, इसलिये ४३० दिने पारणा करते हैं, तोभी व्यवहारसे वर्षांतप कहते हैं। और व्यवहारसे वर्षके ३६० दिन होते हैं मगर निश्चयमें तो ४३० दिने पारणा करने का बनताहै तो भी किसी तरहका विसंवाद या दोष नहीं आसकता. इसी तरहसे व्यवहारसे ओली ६ महीने, चौमासा ४ महीने व वा. र्षिक पर्व १२ महीने करनेका कहते हैं, मगर अधिक महीना भावे, तब निश्चयमें तो, ओली ७ महीने, चौमासा ५ महीने, व पा. र्षिक पर्व १३ महीने होता है तोभी तस्व दृष्ठिसे कोई तरका वि. संवाद या दोष नहीं है, मगर पर्युषण पर्वतो अधिक महीना होवे तब भी आषाढ चौमासीसे वर्षाऋतुके ५० वे दिनकी जगह ५१ वै दिनभी कभी नहीं होसकते. इसलिये मास प्रतिबद्ध होली, दीवा ली, भोली वगैरहका दृष्टांत दिन प्रतिबद्ध पर्युषणामें बतलाना वि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] षयांतर होनेसे सर्वथा अनुचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे । ३५- अधिक महीनाकी तरह क्षय महीनाभी मानना योग्य है या नही ! पर्युषणादि धार्मिक कार्योंका भेद समझे बिना अधिक महीनेके ३० दिनोंमें चौमासी व पर्युषणादि धर्मकार्य नहीं करनेका कितनेक लोग आग्रह करते हैं, मगर कभी कभी श्रावणादि अधिक महीनेवाला वर्ष में कार्त्तिकादि क्षयमासभी आते हैं, तबतो कार्त्तिक महीने संबंधी श्रीवरिप्रभुके निर्वाण कल्याणका तप, दीवाली पर्व, गौतम स्वामी केवलज्ञान उत्पन्न होनेका महोत्सव, ज्ञानपंचमीका आराधन, चौमासी प्रतिक्रमण व कार्तिक पूर्णिमाका उच्छव वगैरह सभी कार्य तो उसी क्षयमासमें करते हैं । और लौकिक में अ धिक महीना, या क्षय महाना दोनों बरोबर माने हैं । जिसपरभी क्षय मासमें दीवाली पर्वादि धर्मकार्य करते हैं । और अधिक महीने में पर्युपर्वादि धर्मकार्य नहीं करने का कहते हैं । यहतो प्रत्यक्षमेही पक्षपातका झूठा आग्रह है. सो आत्मार्थियोंकों तो करना योग्य नहीं है इसलिये अधिक महीने में और क्षय महीने में भी धर्मकार्य करने उचित । इस बातकोभी तत्त्वज्ञ विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे । ३६ - वार्षिक क्षामणे या प्राणिकोंके कर्मबंधन व 1 .. आयु प्रमाणकी स्थिति किस २ संवत्सरकी अपेक्षासे मानते हैं ? जैनशास्त्रों में पांच प्रकारके संवत्सर माने हैं, जिसमें नक्षत्रोंकी बालके प्रमाणसे ३२७ दिनोंका नक्षत्र संवत्सर मानते हैं। चंद्रकी बालके प्रमाण ३५४ दिनोंका चंद्रसंवत्सर मानते हैं । फलफूलादिक होनेमें कारणभूत ऋतु प्रतिबद्ध ३६० दिनोंका ऋतुसंवत्सर मा नते हैं । तथा अधिकमहीना होवे तब १३ महनोंके ३८३दिनोंका अभि. वर्द्धित संवत्सर मानते हैं, और सूर्य के दक्षिणायन उत्तरायनके प्रमाण ले ३६६ दिनोंका सूर्य संवत्सर मानते हैं । और पांच सूर्य संवत्स रोके प्रमाणसेही १८३० दिनोंका एक युग मानते हैं । इसी युगके १८३० दिनोंका प्रमाण पांचही प्रकार के संवत्सरोंके हिसाब से मिलन नेकेलिये, एक युगमें दो चंद्रमास बढते हैं, सात नक्षत्रमास बढ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] हैं और एकऋतुमास बढताहै, तब सब मिलकर १८३०दिनौका एक युग पूराहोताहै, और एक युगके सभी दिनोंको अभिवर्द्धित महीनेके हिसाबसे गिने तब तो कुल ५७ अभिवार्द्धत महिनोलेही १ युग पूरा होता है । इसलिये शास्त्रोके नियमसे तो अधिकचंद्रमासके या अधिक नक्षत्रमासके किसीभी महीनेके १ दिनकोभी गिनतीमें निषेध करनेवाले, तीर्थकर गणधरादि महाराजोंके कथनके प्रमाणका भंग करनेवाले होनेसे आशातनाके भागी बनते हैं। क्योंकी चंद्रादि अ. धिक महीनों के दिनोंकी गिनती सहितही पांच वर्षोंके १ युगके १८३० दिनोंकाप्रमाण पूरा होसकताहै, अन्यथा पूरा नहीं होसकता. ___ और तिथि, वार, मास, पक्षादि व्यवहार चंद्रमासके हिसाबसे चंद्रसंवत्सरको अपेक्षाले मानतेहैं । और प्राणियोंके कर्म बंधनकी स्थिति, व आयुप्रमाणकी स्थिति सूर्यमासके हिसाबसे सूर्य संवत्सरकी अपेक्षासे मानते हैं, इसलिये सूर्यसंवत्सरके हिसाबसेही मास, अयन, वर्ष, युग, पूर्व, पूर्वीग, पल्योपम, सागरोपमादिकके काल प्रमाणसे ४ गतियोंके सबीजीवोंके आयुकाप्रमाण, व आंठाही प्रका. रके कर्मों की जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टस्थितिके धंधका प्रमाण, और उ. सर्पिणी-अवसर्पिणीले कालचक्रका प्रमाण, यहसबबाते सूर्यसंवत्सरकी अपेक्षासे मानते हैं. इसका अधिकार लोकप्रकाशादि शास्त्र में प्रकटहीहै । और वार्षिकक्षामणे करनेका तो चंद्रमासके हिसाबले चंद्रसंवत्सरकी अपेक्षासेमानते हैं, मगर चंद्रसंवत्सरके ३५४ दिन होते हैं, तो भी व्यवहारिक रूढीसे ३६० दिन कहनेमें आते हैं। तैसेही महीना बढे तब १३ महीनोके ३९० दिन कहने में आते हैं, मगर कितनेक ऋतु संवत्सरकी अपेक्षासे ३६० दिनोंके वार्षिक क्षामणे करनेका कहते हैं, परंतु ऋतुसंवत्सर पूरे ३६० दिनोंका होता है, उसमें कोई भी तिथि क्षय होनेका अभाव हैं, व तीसरे वर्ष महीना बढनेकाभी अभाव है, और चंद्र संवत्सर ३५४ दिनोंका होनेसे संवत्सरीके रोज चंद्र संवत्सर पूरा होसकता है, मगर ऋतुसंवत्सर पूरा नहीं होसकता । और तिथि, वार, मास, पक्ष, व. र्षका व्यवहारमी ऋतुसंवत्सरकी अपेक्षाले नहीं चलता, किंतु चंद्र संवत्सर की अपेक्षासे चलता है, और ऋतु संवत्सरके ३६० दिनतो संवत्सरी पर्व हुए बाद ६ रोजसे दशमीको पूरे होते हैं, और संवस्सरीपर्वतो ४ या ५ को करने में आता है, इसलिये वार्षिक क्षामणे ऋतुसंवत्सरकी अपेक्षाले नहीं, किंतु चंद्रसंवत्सरकी अपेक्षासे कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] नेका समझना चाहिये. और ३५४ दिने, या ३८३ दिने संवत्सरी. पर्वहोताहै, तोभी ३६०दिन या ३९०दिन कहने में आतेहै. सो रुतुसंवसरसंबंधी नहीं. किंतु चद्रं या अभिवर्द्धित संवत्सरसंबंधी व्यवहा. से कहने में आते हैं. देखो-चंद्रमासकी अपेक्षासे एक पक्ष १४ दिन ऊपर कुछ भाग प्रमाणे होताहै, मगर पूरे १५ दिनोंका नहीं होता, तो भी व्यवहारमें लोकसुखसे उच्चारण कर सकें इसलिये १५दिनोंका एकपक्ष कहने में आताहै। यह अधिकार ज्योतिष्करंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रामें खुलासालिखाहै । इसीतरहसे महीनेके३०दिन व व. र्षके३६०दिनभी व्यवहारकी अपेक्षासे समझने चाहिये, मगर निश्चय. में तो जितने दिनोंसे संवत्सरीपर्वमें वार्षिक क्षामणे होवेंगे उतनेही दिनोंके कर्मोंकी निर्जरा होगी, किंतु ज्यादे कम नहीं हो सकेगी। और संजलनीय, प्रत्याख्यानीय, अप्रत्याख्यानीय कषाय की अ. नुक्रमसे, एक पक्षके १५दिन, ४ महीनोके १२०दिन, व १२महीनोंके३६० दिनोंके १ वर्षकी स्थितिकाप्रमाण बतलाया है, सो, व्यवहारसे बतलायाहै । मगर निश्चयमें तो रागद्वेषादि तीव्र परिणामोंके अनुसार न्यूनादिकभी बंध पडताहै । इसलिये उसकी स्थितीके प्रमाणकी गिनती सूर्य संवत्सरकी अपेक्षासे होती है । और क्षामणे तो चंद्र संवत्सरकी अपेक्षासे व्यवहारसे करनेमें आते हैं, सो उपरमें इसका खुलासा लिख चुके हैं । इसलिये ३५४ दिन वर्षके होने परभी व्यवहारिक दृष्टिसे ३६० दिनोंके क्षामणे करनेका, और कषायादि कर्मोंकीस्थिति परिपूर्ण ३६०दिनतक निश्चय भोगनेका, दोनों विषय भिन्न २ अपेक्षासे, अलग २ संवत्सरोसंबंधी हैं, इसलिये इन्होंके आ. पसमें कोई तरहका विरोध भाव नहीं आसकता। जिसपरभी चंद्र संवत्सरसंबंधी व्यवहारिक क्षामणे करनेका,और सूर्यसंवत्सरसंबंधी निश्चयमें कर्मोकीस्थिति पूरेपूरीभोगनेका, रहस्यको समझोबिनाही अ. धिकमहीनेके ३०दिनोंकोगिनतीमेलेनेका छोडदेने के लिये, अधिक महोनकॉगिनतीमें लेवे-तो कषायस्थितिका प्रमाण बढजानेसे मर्यादाउलंघन होनेकाकहतेहैं,सो शास्त्रोंके मर्मको नहीं जाननेके कारणसे अ. शानताजनकहोनेसे सर्वथामिथ्याहै. देखो-- एक युगके दोनों अधिक महीनों के दिनोंको गिनती नहीलेवेतो सूर्यसंवत्सरका प्रमाणभी पूरा नहीं हो सकता, इसलिये दोनों अधिक महीनोंके दिनोंको अवश्यमेव गिनती में लेनेसेही पांच सूर्यसंवत्सरोके एक युगमें १८३० दिन पुरे होते हैं । इसलिये अधिक महीना गिनतीमें नहीं छुट सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] और भी देखो - ३५४ दिने संवत्सरी प्रतिक्रमण करें तो भी व्यव हारमें ३६० दिनोंके क्षामणे करनेमें आते हैं, मगर अप्रत्याख्यानीय कषायके ३६० दिनोंके वर्षकी स्थितिका निश्चयमें बंध पडा होगा वह बंध, ३५४ दिनों में (३६० दिनोंका) कभी क्षय न हो सकेगा, किंतु वो तो समय २ के हिसाब से पूरे पूरे ३६० दिनही भोगने पडेंगे । इसीतरह से चौमासी, व पाक्षिककाभी समझलेना. इसलिये व्यवहा रिक क्षामणोंके साथ निश्चय कर्मस्थितिका दृष्टांतसे भोले जीवोंको मर्यादा उल्लंघन होने का भयबतलाते हुए अपनीविद्वत्ताके अभिमानले अधिक महीना निषेध करना चाहते हैं सो शास्त्रविरुद्ध होनेसे सarr अनुचित है | इसको भी विशेष तत्त्वज्ञजन स्वय विचारलेवेगे । ३७ - चूलिका संबंधी एक अज्ञानता ॥ कितने लोग शास्त्रोंके रहस्यको समझे बिनाही कहते हैं, कि जैसे- लाख योजनके मेरुपर्वत में उसकी चूलिका नहीं गिनी जाती, तैसेही १२ महीनों के वर्षमें अधिक महीनाभी नहीं गिना जाता । ऐसा कहकर अधिक महीनेकी गिनती उडाना चाहते हैं, सो उन्होंकी आज्ञानता है, क्योंकि एक लाख योजनके मेरुपर्वत उपर ४० योजनकी उंची चूलिका है, उसपर एक शाश्वत जिन चैत्य है, उसमें १२० शाश्वत जिन प्रतिमायें हैं, इसलिये ४० योजनकी चूलिकाके प्रमाणकी गिनती सहित एक लाख उपर ४०योजनके मेरुपर्वतका प्र माण क्षेत्र समासादि शास्त्रों में खुलासा लिखा है, तैसेही १२ महीनों के ३५४ दिनोंके एकवर्षके प्रमाणउपर अधिकमहीने के दिनों की गिनतीसहित ३८३ दिनाँको वर्षकी गिनती मेंलिये हैं, इसलिये चूलिका के दृष्ठांतसे अधिक महिना गिनती में निषेध नहीं हो सकता, मगर गिनती में विशेष पुष्ट होता है । औरभी देखो- पंचपरमेष्ठि मंत्र कहने से सामान्यता से पांचपदों के ३५ अक्षरोंका नवकार कहाजाताहै, मगर उसपरकी ४ चूलिकाओंके ४ पदके ३३ अक्षर साथमें मिलानेसे विशेषता से नवपद के ६८अक्षरोंका 'नवकार' चूलिका के प्रमाणकी गिनतीस हित कहने में आता है । इसतरह दशैवकालिक व आचारांग की दो दो चूलिकाओंका प्रमाणभी गिनती में आता है। तैसेही सामान्यतासे एक लाख योजनका मेरूपर्वत, व १२ महीनोंका एक वर्ष कहने में आता है । मगर विशेषतासे तो चूलिकाके प्रमाणकी गिनती सहित एकलाख चालीस योजनका मेरूपर्वत, व अधिक महीनेकी गिनती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७] सहित १३ महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहने में आता है । इसलिये अधिक महीना व मेरुचूलिका वगैरह सब विशेषतासे गिनती में आते हैं, जिसपर चूलिका के नामसे अधिक महीना गिनती में निषेध करते है सो अज्ञानता है, इसको विशेष विवेकी तत्त्वज्ञ पाठक गण स्वंय विचार लेवेंगे । ३८ - पर्युषण पर्व शाश्वत है, या अशाश्वत है ? यद्यपि भरतक्षेत्र में व ऐरवर्तक्षेत्र में चौवीस तीर्थंकर महा राजों में प्रथम और चौवीसवें तीर्थकर महाराजके साधुओंकों चौ माला ठहरने व पर्युषण पर्व करने संबंधी निज निज तीर्थकी अपेक्षासे तो पर्युषणापर्व अशाश्वत है, मगर अनादि कालकी अपेक्षासे तो शाश्वतही है. इसलिये तीनों चौमासीपर्व या पर्युषणापर्व वा आसो चैत्र की ओलियों की अठ्ठाई आनसे, भुवनपति - व्यंतर - ज्योतिषी और वैमानिक इंद्रादि असंख्य देव देवी, अपने समुदाय सहित देवलोक संबंधी अनंत सुखको छोडकर, आठवा नंदीश्वरद्वीपमें जाकर, asi शाश्वत चैत्योंमें जिनेश्वर भगवान् के शाश्वत जिन बिंबोकी जल - चंदन पुष्पादिसे द्रव्यपूजा व स्तवन-नाटक- वाजित्रादिसे भावपूजा करते हुए महोत्सव करके अपनी आत्माको निर्मल करते हैं । यह अधिकार श्री जीवाभिगमसूत्र व उसकी टीकामै खुलासा लिखा है. इसी प्रकार पर्युषणादि पर्व आराधन करनेके लिये श्रावकों को भी विशेष रूपले धर्मकार्य करने योग्य हैं इसका विशेष खुलासा 'पयुषणा अठ्ठाई व्याख्यान' में और कल्पसूत्रकी सबी टीकाओ में प्रकट ही है, इसलिये यहां विशेष लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है । ३९ - पर्युषणाके विवाद संबंधी सत्यकी परीक्षा करो. जिनाशानुसार सत्यग्रहण करनेवाले आत्महितेषी सज्जन को निवेदन किया जाता है, कि - आगम-- - निर्युक्ति-भाष्य - चूर्णि वृत्ति प्रकरणादि प्राचीन व आजकालके पर्युषणा संबंधी सबी शास्त्रोंके पाठका व सभी गच्छोंके पूर्वाचार्योंके वचनोंका इसग्रंथ में मैने संग्रह किया है । और इस भूमिका में भी वर्तमानिक सभी शंकाओं का नंबर वार क्रम से समाधानभी खुलासापूर्वक करके बतलाया है । औ. रसग्रंथ में अधिक महीनेके ३० दिनोंकों गिनती में निषेध करनेवाले प्रत्येक लेखकों के सबी लेखों को पूरेपूरे लिखकर पीछे सब लेखोकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] पंक्ति पंक्तिकी समिक्षा करके ( इसग्रंथ में) खुलासापूर्वक बतलाया है, मगर पर्युषणासंबंधी किसीभी लेखककी शंकाबाली एकभी बातको छोडी नहीं है । इसलिये इस ग्रंथ में वादी प्रतिवादी दोनोंके सब पूरे लेखको, और आगम पंचांगीके शास्त्र पाठकों; पक्षपात रहित होकर न्याय बुद्धि से संपूर्ण वांचने वाले सत्यके अभिलाषीयोको अवश्यही जिनाशानुसार सत्यकी परीक्षा स्वयंहीहे। जावेगी । ४० - जिनाज्ञाकी दुर्लभता । जैसे पूर्व दिशा तरफ कोई नगर होंवे उसमें जानेके लिये थोडा २ भी पूर्व दिशा तरफ चलने से अवश्यही उस नगरकी प्राप्ति होती है, । मगर पुर्वदिशा छोडकर पश्चिम दिशा में बहुत २ चलैतोभी वो नगर दूर दूरही जायगा, मगर नजदीक कभी नहीं आसकेगा इसीतरह जिनाशानुसार थोढा २ धर्मकार्य किया हुआभी मुक्ति रूपी नगरमै आत्माको पहुचाने वाला होता है, परंतु जिनाशा विरुद्ध बहुत २ तपश्चर्यादि धर्मध्यान व्यवहार में करें, तो भी तत्त्वदृष्टिले शून्य होने से मुक्तिनगर में पहुचानेवाला नहीं होता. किंतु संसार बढानेवाला होता है । और वर्तमानिक आग्रही जनकी भिन्न २ प्ररूपणा होने से भोले भव्य भद्रजीवकों जिनाशानुसार सत्यबातकी प्राप्ति होना बहुत मुश्किल है. यही दशा पर्युषणा संबंधी विवाद में भी हो गई है। इसलिये भव्यजीवोंकों जिनाशानुसार पर्युषणा जैसे उत्तमपर्व के आराधन होने की प्राप्ति होनेके लिये आगम पंचांगी सम्मत, व सब लेखकों की शंकाओंका समाधान पूर्वक मैने इसग्रंथ में इतना लिखा है । उसको अपने गच्छका आग्रह छोड़कर तत्त्वदृष्टिसे पढनेवालोंको अवश्यही जिनाशानुसार सत्यकी प्राप्ति होवेगी. 1 और मनुष्य भव में शुद्ध श्रद्धा पूर्वक जिनाशानुसार धर्म कार्य करनेकी सामग्री मिलना अनंतकाल से अनंत भवोंमेंभी महान् दुर्लभ है, वारंवार ऐसा सुअवसर नहीं मिल सकता। इसलिये गच्छका पक्षपात, दृष्टिराग, लोकलज्जाकी शर्म, विद्वत्ताका झूठा अभिमान, जिनाशा विरुद्ध अपने गच्छ परंपराकी रूढी, व बहुत समुदायकी देखादेखीकी प्रवृत्ति वगैरह बातोंको छोडकर जिनाशानुसार सत्यग्रहण करनेमेंही आत्मसाधन होनेसे, नरकादि ४ गतियोंके जन्म-मरण - गर्भावास वगैरह अनंत दुखोंसे छुटना होता है, इसलिये जिनाशानुसार सत्यको समझे बादभी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से भोलेजीवोंकों उन्मार्गमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [as] गेरनेके लिये विद्वत्ता के अभिमानसे शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर झूठी २ कुयुक्तियें लगाना संसार वृद्धि व दुर्लभबोधि का कारण होनेसे आत्मार्थीयोंकों सर्वथा योग्य नहीं है । ४१ - पर्युषणापर्व ईधरके उधर कभी नहीं होसकते. कितनेक लोग जिना ज्ञाका मर्म समझे बिनाही कहते हैं, कि-पर्युषण पर्व अधिक महीना होवे तब ५० दिने करो, या ८० दिने क रो, मगर आगे या पिछे कभी करने चाहिये. ऐसा कहनेवाले सोने और पितल दोनोंको समान बनानेकी तरह जिनाशानुसार सत्य बातको, और जिनाशा विरुद्ध झुठी बातको, एक समान ठहराते हैं । इसलिये उन्होंका कथन प्रमाणभूत नहीं होसकता. किंतु मोक्षका हैतुभूत जिनाशानुसार ५० दिनेही पर्युषणा पर्वका आराधना करना योग्य है, मगर ८० दिने करना जिनाशा विरुद्ध होनेसे कदापि यो - ग्य नहीं ठहर सकता. देखो - जमालि वगैरहोंने जप, तप, ध्यान, आगमेंाका अध्ययन, परोपदेश, क्रिया अनुष्ठानादि बहुत २ किये थे तो भी जिनाशा विरुद्ध होनेसे संसार बढाने वाले हुए, मगर यही कार्य अनुष्ठान जिनाशानुसार करते तो निश्चय उसी भवमें मोक्षप्राप्त करने वाले होते. इसलिये आत्मार्थी भव्यजीव को जिनाशानुसारही ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणापर्वका आराधन करना योग्य है, मगर जिनाशा विरुद्ध ८० दिने करना यो नहीं है । इसको विशेष तत्रज्ञ जन स्वंय विचार लेवेंगे । ४२ - पयुषणा पर्व की आराधना करनेके बदले विराधना करना योग्य नहीं है । पर्युषणा जैसे आनंद मंगलमय शांति के दिनोंमें जिनाशानुसार, धर्मकार्य करके पर्व की आराधना करते हुए, सब जीवोंसे मैत्रिभावपुर्वक शांतता से वर्ताव करनाचाहिये. और वर्ष भरके लगे हुए अति चारोकी आलोचना करके सब जीवोंके साथ भावपूर्वक क्षमत क्षाम णे करके अपनी आत्माको निर्मल करना चाहिये। जिसके बदले कि तनेही आग्रही जन पर्युषणाकेही व्याख्यानमें सुबोधिका - दीपिका की रणावलि आदि वांचने के समय श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याणक rantee उन्होंकों व अधिक महीनेके ३० दिन गिनती में लिये हैं उको निषेध करने के लिये, कितनीही जगहतो शास्त्रविरुद्ध व कित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] नीही जगह प्रत्यक्ष मिथ्या कथन करके, आपसमेही खंडनमंडनके झगडे चलातेहैं,और सब जीवोंकी जगह केवल जैनीमात्रसभी मित्रता नहीं रख सकते, उससे मैत्री भावनाका भंग, विरोधभावकी वृद्धि व खंडन मंडनसे रागद्वेष करके कर्म बंधनका कारण करते हैं । औ र शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करनेसे जिनाज्ञाकीभी विराधना करते हैउससे परिणामोंकी मलिनता होने से पर्व दिनों में वर्षभरके अतिचा. रोकी आलोचना करके आत्माको निर्मल करनेकेबदले विशेष मलीन करते हैं। और खंडन भंडनके झगडेके लिये सब जीवोसे क्षमत क्षामणे करनेकेबदले अपने सब जैनीभाईयोसेभी क्षमत क्षामणे नहीं करसकते. उससे अनंतानुबंधी कषायके उदय होनेका प्रसंग आनेसे सम्यक्त्वकी व संयमकी विरोधना होकर संसार भ्रमणका कारण करते हैं, इसलिये कर्मक्षय कारक महा मंगलमय शांतिके दिनों में व्याख्यानमें श्री महावीरस्वामीके छ कल्याणक आगमों में कहेहैं उ. न्होको व अधिक महिनेके ३० दिनोंको गिनती में लिये हैं उन्होंको निषेध करनेकेलिये खंडनमंडनके विवादके झगडे कितनेक तपगच्छ के मुनि महाराज जो चलातेहैं सो पर्वकी विराधना करनेवाले, शांतिके भंग करनेवाले, अमंगलरूप अशांतिको बढानेवाले, व उत्सू. प्रारूपणासे संसार बढानेवाले होनेसे, तत्त्वदर्शी,विवेकी,आत्मार्थीभव भिक, सज्जनोंको अवश्यही छोडना योग्य है। इसको विशेष निष्पक्षपाति पाठकगण स्वंय विचार सकते हैं। ४३- पर्युषणाके मंगलिक दिनोमें क्लेशकारक अमंग लिक करना योग्य नहीं है। यहबात व्यवहारसे प्रत्यक्ष अनुभवपूर्वक देखने में आती है, कि मांगलिकरूप वार्षिक पर्व दिन सुखशांतिसे हर्षपूर्वक व्यतीत होवे, तो,वो वर्ष संपूर्ण सुखशांतिसे व्यतीत होता है, मगर मांगलिकरूप पर्व दिनों में किसीके साथ विरोध भाव कलेश होकर अमंगलरूप भपशुकन होवे, तो, वर्षभर चिंतासे कलेशमेही जाता है। इसलिये पर्वके दिनों में तो अवश्यही शांति रखना योग्य है । इसप्रकार व्य. वहारिक बातकेभी विरुद्ध होकर तपगच्छके कितनेही मुनिमहारा. ज पर्युषणा जैसे परम मांगलिकके दिनोभी शांतिसे नहीं बैठते, और सुबोधिका-दीपिका-कारणावलि वगैरहके विवादवाले विषय हाथमे लेकर श्रीमहावीरस्वामिके छ कल्याणक आगमपंचांगी अने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] क शास्त्रोंमें कहे हैं उन्होंकों, व अधिकमहीने के ३० दिन गिनती में लिये हैं, उन्होकोनिषेध करनेकेलिये. अपने धर्मबंधुओंके सामने व्याख्यानमें अशांति हेतुभूत व अमंगलरूप आपसके खंडनमंडन से विरोध भा वके झगडे खडेकरते हैं, उससे 'जैसे राजा वैसी प्रजा' की तरह यही गुण भाव कभी प्रवेशकरता है, इसलिये वर्षभर के झगडे पर्युषणा में लाकर कलेशकरके विशेष कर्मबंधन करते है । इसलिये साधुओंके और aasti दोनोंके एक एककी निंदा करनेमें, झूठी बडाई करनेमें, दूसरे का बिगाडने में, या कोई शासन उन्नतिके कार्य करें तो उसकी साह्यता करनेके बदले उसमें कोई भी अवगुण बतलाकर उसका खंडन करने में इत्यादि अमंगलरूप कलेशके कार्यों में वर्ष चला जाता है । इसलिये दिनोंदिन शाशनकी यह दशा होती हुई चली जाती है । और इससे अपने आत्मके कल्याणमें व परोपकार के कार्योंमेंभी विघ्न आते हैं । इसलिये मंगलिकरूप पर्वके दिनोंमें अमंगलिकरूप खंडनमंडनसंबंधी विरोधभाव करना सर्वथा अनुचित है । और अपनी स चाई जमानेकेलिये खंडनमंडन वैरविरोधके झगडेही करने की इच्छा हो तो पर्व दिन छोडकर अन्यभी बहुत दिन मौजूद हैं, मगर पर्युपणा पर्व अराधन करनेके लिये सबगच्छवाले श्रावक मुनिराजों के पास उपाश्रय धर्मशाला में आवें, उस वखत अपने आपसके खंडनमंउनके विरोधभाववाली बात चलाना, यह कितनी बडी अनुचित बात है। और मंगलिकरूपपर्वादन किसी प्रकार सेभी कलेशकारक खंडनमंडनके विरोधभाव से अमंगलिक रूप नबनकर शास्त्रानुसार शांति से पर्वकाआराधन होवे तो आत्माभी निर्मल होवे, वर्ष भी हर्षपूर्वक सुखशांतिसे जावे, बुद्धिभी अच्छी होवे, और आत्मसाधन व परोपकार भी विशेषरूप से होवे, संपसे शासन उन्नति के कार्यों में भी वृद्धि होने से वर्तमानिक दशाकाभी सुधारा होवे । इसलिये वार्षिक पर्वरूप पर्युपण शांतिमय सब जीवोंके साथ मैत्रिभाषपूर्वक आराधन करके उसमें मांगलिक कार्य करने चाहिये । और विरोधभाव के कारण रूप खंडनमंडन के अनुचित वर्तयको छोडनाही अपनेको व दूसरे भग्यजीवोकोभी कल्याणकारक है । और शासनकी उन्नतिकाभी हेतुभूत है. इसको जो आत्मार्थी होगा सो दीर्घ दृष्टिसे खूब विचारेगा और उपर मुजब शास्त्रविरुद्ध अनुचित व्यवहरको छोडकर; शास्त्रानुसार उचित व्यवहारको अवश्यमेव ही ग्रहण करेगा, दुसरोकोभी ग्रहण करावेगा. व ६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] ४४-अभीके आग्रही जनोंकी मलीन बुद्धि व सम्यक्त्वी मिथ्यात्वीकी परीक्षा. कोईभी वाद विवादके विषयकी चर्चा करनेमे,पहिलेवाले सम्यक्त्वी आत्मार्थी होतेथे वो तो तत्वदृष्टि तरफ विचार करके सत्य बात ग्रहण करतेथे और अपनापक्ष छोडनेमें किसीप्रकारकीभी हानी नहीं समझतेथे. श्री गौमतस्वामि आदिगणधर महाराजोकी तरह तथा सिद्धसेनदिवाकर, हरिभद्रसूरिजीवगैरह उत्तमपुरुषोंकी तरह, और अभीके झूठे आभिमानी अंतर मिथ्यात्वी हठाग्रही होते हैं वो तो शास्त्रोकी बातको मनमे समझने परभी अभिमानसे सत्यबात प्रहणकरके अपना पक्ष छोड़नेमें बडीभारी हानी समझतेहैं, आनंदसागरजी शांतिविजयजीवगैरहोकीतरह (इसका खुलासा आगे लिखुं गा)औरशास्त्रोंके अभिप्रायविरुद्ध होकर व्यर्थही झूठी २कुयुक्तिये ल. गाते हैं, या विषयांतर करके सामनेवालेपर वा उसके समुदायपर विरोध भावको बढानेवाले आक्षेपकरने लगजाते हैं।और मुख्यमुद्देके विवादको छोड़कर निंदा ईर्षासें राग द्वेष करके विरोधभावसे अपने को और दूसरोंकोभी कर्मबंधन कराने हेतुभूत बनतेहैं. मगर झूठे .आग्रहसे उत्सूत्र प्रकपणा करके कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंको उन्मार्ग में गेरनेसे वा राग द्वेषसे विरोधभाव करनेसे संसार बढनेकामय नहीं रखते हैं, इसलिये अभीके आग्रहीजनोंकी मलीन बुद्धि कही . जाती है । इसीप्रकार पर्युषणासंबंधीभी यहग्रंथ वांचेबाद अब देख नेमे आवेगा, कि-५० दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाका विषयको छोडकर मास प्रतिबद्ध होली दिवाली आदिके विषयांतरमें या अंगतआक्षेप करने में कौन २ महाशय अपने अंतर आत्माके कैसे २ गुण प्रकाशित करेंगे, सो तत्त्व जन स्वयं देख लेवेगे, इसलिये यहांपर विशेष लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। .४५- इस ग्रंथ संबंधी लेखकोंकों सूचना. इसंग्रंथपर किसी तरहकाभी लेख लिखनेवाले महाशयोंको सू. चना करनेमें आती है, कि-जैसे मैंने इसग्रंथमें सुधोधिका-दीपिका. कीरणावली वगैरहके विवादवाले प्रत्येक लेखोंको पूरेपूरे लिखकर पीछे शास्त्रानुसार व युक्तिपूर्वक उसकी समीक्षा खुलासा करके बतलाया है. मगर विवादवाली एकभी बातको छोडी नहीं है. वैसे. ही इसग्रंथपर लेख लिखनेवाले आप लोगभी इसग्रंथके प्रत्येक बि. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३] षयको परेपूरा लिखकर पीछे उसपर अपना विचार सुखसे लिखें मगर शास्त्रोक पाठोवाली सत्यरवातोंके पृष्टकेपृष्ट छोडकर कहींकहीं की अधूरी २ बात लिखकर शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर संबंधबिनाके अधूरे २पाठ लिखकर या कुयुक्तियोंसे सत्यषा. तको झूठी ठहरनेका व भोलेंजीवोंको उन्मार्गमे गेरनका उद्यम न करें अन्यथा लेखकोंमें कितना न्याय व आत्मार्थीपना है और सम्य. क्त्वका अंशभी कितना है, उसकी परीक्षा विवेकी विद्वानों में अच्छी तरहसे हो जावेगा और उसको सभामें सिद्ध करनेको तैयार होना पडेगा फिर शास्त्रार्थ करने में मुह नहीं छिपाना विशेष क्या लिखें। ४६- उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाक. शास्त्रार्थ करनेको सभामें सामने आना मंजूर करना नहीं, व अपना झुठा आग्रह छोडकर सत्य बात ग्रहणभी करना नहीं और विषयांतर करके कुयुक्तियोंसे शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरने का उद्यम करते रहना. उससे दृष्टिरागी, अज्ञानी लोग चाहे जैसे पूजेंगे मानेगे मगर " उत्सूत्त भासगाणं बाहिणालो अणंत संसारो" इत्यादि तथा "सम्मतं उच्छि दिय, मिच्छत्तारोवणं कुणई निय कुलस्स ॥ तेण सयलो वि वंसो, कुर्गई मुह समुहो नीओ ॥१॥” इत्यादि देखो-उत्सूत्र प्ररूपणाकरनेवालेके बोधिबीज (सम्यक्त्व ) का नाश होकर अनंत सं सार बढताहै,और जिसने अपने कुलमें गणमें (गच्छमें ) समुदाय. में सम्यक्त्वका नाशकरनेवाली मिथ्यात्वकी प्ररूपणाकी हो वे, वो अपने सब वंशको, गच्छको, समुदायको, दुर्गतिमें गेरनेवाला होताहै । शिवभूति-लुंका-लवजी-भीखम वगैरह मतप्रवर्तकोंकी तरह इत्यादि भावको विचारो और संसारसे उदासीन भावधारण करने वाले आत्मार्थी भव्यजीवोंको मुक्तिमार्गका रस्ता बतलानेके भरोसे उन्मार्गका रस्ता बतलानेवाला 'शरणे आनेवालोंका विश्वास घातसे शिरच्छेदन करनेवालेसेमी अधिक दोषी ठहरताहै। और याद रखना दृष्टिराग, लोकपूजा मानता, व झूठा आग्रहका अभिमान परभवमें साथ न चलेगा. मगर उत्सूत्रप्ररूपक ८४ लाख जीवायोनीका घात करनेवाला होनेसे उसके विपाक अवश्यही भवांतर भोगबिना कभी नहीं छुटेंगे,इसबातपर खूब विचारकरना चाहिये । और जिनाशा. नुसार सत्यप्ररूपणा करके भव्य जीवोंको मुक्तिमार्गका रस्ता बतला नेवाले ८४लाख जीवायोनीके सर्वजीवोंकोअभयदान देनेसे महान्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] ज्यके भागी होते हैं, और अपने कुलको गच्छको समुदायकोभी स. द्वतिके भागी बनाते हैं व आपभी अपनी आत्माको निर्मल करके अल्पकालमें निर्वाण प्राप्त करनेवाले होते हैं, गणधरादि उपकारी महाराजोंकी तरह। इसलिये संसारसे डरनेवाले आत्मार्थियों को झू. ठा आग्रह छोडकर वगर बिलंबले सत्यग्रहण करना चाहिये, और अन्यभव्य जीवोकोभी सत्य ग्रहण करवाना चाहिये । इसको विशेष विवेकी निष्पक्षपाती पाठक गण स्वयं विचार लेवेगे। ४७-सुबोधिका-दीपिका-किरणावली वगैरहके पर्युषणा व छ कल्याणक संबंधी शास्त्रविरुद्ध ... . भूलोको सुधारनेकी खास आवश्यकताहै. १. जैनपंचांगके अभावसे अभी महीना बढे तो भी "जैन टिप्पणाकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगं ते चाषाढ एव वर्धते, नान्येमासा स्तट्टिप्पणकं तु अधुना सम्यग् न शायते,ततः पंचाश तैव दिनैः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" इस वाक्यसे सुबोधिका--दीपिका-कीरणवली इन तीनों टीकाकारोने अपने तपगच्छकेही पूर्वाचायोकी आज्ञासे ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपद में पर्युष. णापर्वकी आराधना करनेका लिखा, फीर उसीकोही उत्थापन करनेके लिये शास्त्रविरुद्ध होकर कुयुक्तियोंका संग्रह किया है, यह स. बसे बडी प्रथम भूलकीहै, उसको वगर विलंबसे खास सुधारनेकी आवश्यकता है। : २-निशीथ चूर्णिमें आधिक महीनेको कालचूला कहकर उसके ३०दिन पर्युषणासंबंधी गिनतीमें लियेहैं, उसकोभी कालचूलाके नामसे निषेध किये सो दूसरी भूलकी है। . ३-निशीथ चूर्णिके अधिकमासके अभाव संबंधी अधूरे २ पाठ भोलेजीवोंको बतलाकर अभी दो श्रावण होवे तबभी जिनालाविरुद्ध ८० दिने पर्युषणाहोनेका भय न करके भाद्रपद में पर्युषणा करनेका ठहराया सो तीसरी भूलकी है। ४- अधिक महीने के अभावसे सामान्यतासे पर्युषणाके पि. छाडी कार्तिकतक ७० दिन रहनेका कहा है, उसको समझे बिना अधिक महीना होवे तब विशेषतासे १०० दिन होते हैं उसकी जग. इभी ७० दिन रहनेका आग्रह कियासो चौथी भूलकी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] ५- पौष - आषाढ श्रावणादि बढे तब पांच महीनोंसे फाल्गुनआषाढ- कार्तिक चौमासी प्रतिक्रमण करनेमें आता है, जिसपर भी श्रावणादि बढ़ें तब आलोजमेकी महीनोंसे चौमासी प्रतिक्रमण करने का बतलाया सो भी पांचवी भूलकी है। ६- पहिले मास बढताथा तब भी २० दिने वार्षिक कार्यकरते थे, उसको सर्वथा उडादिये सो यह छठ्ठी भूलकी है । ७- मास बढे तब १३ महीनोंके क्षामणे वार्षिक प्रतिक्रमण में वा पांच महीनोंके क्षामणे चौमासी प्रतिक्रमणमें हम लोग करते हैं, जिसपर भी १२ महीनोंके वार्षिक क्षामणे वा ४ महीनों के चौमासी क्षा मणे करनेका प्रत्यक्ष झूठ लिखा लोभी यह सातवी भूलकी है । ८- पौष- चैत्रादि महीने बढे तब प्रत्यक्षमें १० कल्पी बिहार होता है, जिसपरभी मास वृद्धिके अभाव संबंधी ९कल्पी विहारकी बात बतलाकर १० कल्पीविहारका निषेध किया सोभी यह आठवी भूलकी है । ९- अधिक महीने में सूर्याचार होता है, जिसपर भी नहीं होनेका बतलाया सोभी यह नवमी भूलकी है । १० - श्रावणादि महीने बढे, तब उसकी गिनतीसहित पांचवें महीनेके नवमें पक्षमें ४ || महीनोंसे दिवाली पर्व करनेमें आता है, और कभी दो कार्तिक महीने होवे तब प्रथम कार्तिक महीने में दीवा ली पर्व करनेमें आता है. जिसपर भी दिवाली वगैरह पर्वो में अधिक महीना नहींगिननेका प्रत्यक्षही झूठ लिखा सोभी यह दशवी भूलकी है ११ - यज्ञोपवित, दीक्षा, प्रतिष्ठा, विवाह, सादी वगैरह मुहूर्तवाले कार्य तो अधिक महीने में, क्षय महीने में, चौमासेमें, और सिंहस्था दिमें भी नहीं करते. मगर चौमासी पर्व व पर्युषणापर्व तो अधिक महीने में, क्षयमहीने में, चौमासेमें, और सिंहस्थादिमभी करते हैं। जिसपर भी मुहुर्तवाले कार्यों की तरह अधिक महीने में पर्युषणा करनेकाभी निषेध किया तो यहभी जिनाशा विरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणारूप इग्यारहवी भूलकी है. - १२ - ५० दिने प्रथमभाद्रपद में पर्युषणा करना चाहिये जिसके बदले दूसरे भाद्रपद में करनेका लिखा सो ८० दिन होने से यहभी शास्त्र. विरुद्ध बारहवी भूल की है। १३- जैसे देवपुजा, मुनिदान आवश्यकादि कार्य दिन प्रतिबद्ध हैं, वैसेही पर्युषणापर्व भी ५० दिन प्रतिबद्ध हैं, इसलिये जैसे अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६] महीनेके ३० दिन देवपूजा मुनिदानादि कार्यो में गिनतीमें आते हैं, तैसेही पर्युषणामी अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें आते हैं, जिसपरभी पर्युषणामे अधिक महीनके ३० दिन नहीं मिननेका लिखा सोभी यह तेरहवी भूलकीहै । १४- अधिक महीनेके ३० दिनोंमें वनस्पति बढती है। व फूल. फलादि भी होते हैं, जिसपरभी आवश्यक नियुक्तिकी गाथाका भावार्थ समझे बिनाही अधिक महीनेमें वनस्पति पुष्पवाली नहीं होनेका लिखा सोभी यह चौदहवी भूलकी है। इत्यादि अनेक तरहसे शास्त्रविरुद्ध होकर अधिक महीनेके ३० दिनोंको गिनतीमें लेनेका निषद्ध करनेकेलिये उत्सूत्रप्ररूपणारूप ब. हुत भूलेकी हैं उन्होंको खास सुधारनेकी आवश्यकता है। अब श्रीमहावीरस्वामिके आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करने संबंधी भलाका थोडासा खुलासा लिखते हैं। १५- तीर्थंकर महराजाके च्यवन-जन्मादिकोंको कल्याणकपना आगमानुसार अनादि सिद्ध है, इसलिये उन्होंको च्यवनादि वस्तु कहो, चाहे च्यवनादि स्थान कहो, या च्यवनादि कल्याणक कहो यद्यपि वस्तु व स्थान शब्द अनेकार्थवालेहैं तोभी तीर्थकरमहाराजके चरित्र में प्रसंगसे च्यवन जन्मादिकम सब एकार्थवाले पर्यायसूचक शब्द अलग २ हैं, मगर सबका भावार्थ एकहीहै, किंतु भिन्न २ नहीं है। इसलिये श्रीपार्श्वनाथस्वामिके तथा श्री नेमिनाथ स्वामिके च्य. वनादि पांच पांच कल्याणकोकी तरहही श्री महावीर स्वामिकेभी च्यवनादि पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें और छठा निर्वा ण कल्याणक स्वातिनक्षत्र में होनेका कल्पसूत्रादि आगमोंमें खुलासा पूर्वककहाहै । जिसका मर्म समझे बिना कल्पसूत्रकेमूल पाठके अर्थमें च्यवनादि छकल्याणकोका निषेध करनेकेलिये छ वस्तु या स्थान कहकर अनादिसिद्धकल्याणक अर्थको उडादिया यह सूत्रार्थके उत्था पन करनेवाली उत्सूत्रप्ररूपणारूप सबसे बडी पंदरहवी भूलकी है। १६- श्रीमहावीर स्वामिके प्रथम व्यवन कल्याणकके दिनमें तो आषाढ सुदी ६ को इन्द्र महाराजका आसन चलायमानभी नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७] हुवा, तथा इन्द महाराजने अवधिज्ञानसे भगवानको देखे भी नहीं और नमुत्थुणं वगैरह कुछभी नहीं किया,तोभी उन्हीको कल्याणकपना मानते हैं और कल्पसूत्रमूल तथा उन्हीकी सबी टीकाओके अनु. सार तो यही सिद्ध होता है, कि- ८२ दिन गये बाद गर्भापहाररूप दूसरे च्यवन कल्याणकके दिनमें आसोज वदी १३ को इन्द्रमहाराजने अवधिज्ञानसे भगवानको देखे, तब हर्षसहित सिंहासनसे नीचे उत्तर कर विधिपूर्वक 'नमुत्थु णं' किया और हरिगणमेषिदेवको आज्ञा करके त्रिशलामाताकी कुक्षिमें स्थापित करवाये, तब त्रिशलामाताने आसोज वदी १३ की रात्रिको तीर्थकर भगवानके अव. तार लेनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न देखे हैं। और कलि. काल सर्व विरुद धारक श्रीहेमचन्द्रसूरिजी महाराजने तो 'श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र' के दशवेपर्वमें श्रीमहावीरस्वामिके चरि में लिखाहै, कि-गर्भापहारकेदिन आसोजवदी १३को इन्द्रमहाराजकाआसनचलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देखकर नमः स्काररूप ' नमुत्थु णं' किया और हरिणेगमोषिदेव द्वारा त्रिशलाके गर्भमें स्थापित करवाये, तब त्रिशलामाताने तीर्थकर भगवान के अ. वतार लेनेकी सूचना करानेवाले १४महा स्वप्न देखेहैं, उसके बाद खास इन्द्रमहाराजने त्रिशलामाताकेपासमें आकर १४ स्वप्न देखनेसे उसका फल तीर्थकर पुत्र होनेका कहाहै, तथा धनभंडारीको आशा करके देवताओं द्वारा धन धान्यादिकसे सिद्धार्थ राजाके राज्य ऋद्धिकी भंडारादिमें वृद्धि कराई है, इत्यादि अनेक बातें च्यवन कल्याणकपनकी सिद्धि करनेवाली प्रत्यक्षमें हुयी हैं । इसलिये इन्हको गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन कल्याणक मानते हैं । उसका भावार्थ समझे बिनाही कल्याणकपनेका निषेद्ध करनेकेलिये राज्याभिषेककी बात बीचमें लाते हैं, मगर श्रीऋषभदेव भगवानके राज्याभिषेकमें तो किसीभी कल्याणकपनेके कोई भी लक्षण नहीं हैं इसलिये राज्याभिषेकको कोईभी कल्याणक नहीं मानसकते. परंतु इस अघर्पिणीमें प्रथम राज्याभिषेक उत्तराषाढा नक्षत्रमें इन्द्रमहाराजने किया, भौर प्रथम राज्यप्रवृत्ति चलाया, उसकी यादगिरीके लिये केवल राज्याभिषेकका नक्षत्र मात्रही च्यवनादि कल्याणकोंके साथ बत. लाया है, उसका भावार्थ समझे बिना उसकोभी कल्याणकपना ठह. रानेका आग्रहकरना या राज्याभिषेकके समान गर्भापहारकोभी क. ल्याणकपने रहित ठहराना सोभी गर्भापहारके और राज्याभिषेकके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] भावार्थको समझे बिना व्यर्थ ही यह सोलहवी बडी भूलकीहै। .. १७-जैसे श्री मल्लीनाथस्वामि स्त्रीत्वपनमें तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं. सो विशेषतासे प्रसिद्धही है, तो भी चौवीश तीर्थकरमहाराजोकी अपेक्षासे सामान्यतासे श्री मल्लीनाथ स्वामीकोभी पुरुषत्वपनेमें क. हनेमें आते हैं. मगर उसमे सामान्य विशेष संबंधी अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे कोई तरहका विरोध भाव नहीं आ सकता। तैसेही श्रीमहावीर स्वामीकेभी विशेषताले छ कल्याणक आचारांग-स्थानांग- कल्पसूत्रादि आगमोंमें कहेहैं. तो भी अतित, अनागत, और घर्तमान कालसंबंधी भरतक्षत्रके तथा ऐरवर्त क्षेत्रके सबी तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यतासे श्रीमहावीर स्वामिके भी पांच कल्याणक 'पंचाशक सूत्रवृत्ति' में कहे हैं, मगर उसमें सामान्य विशेष अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे इनके आपसमें कोई तरहका विरो. धभाव नहीं आ सकता, जिसपरभी आचारांग, स्थानांगादि आगमोके छ कल्याणक संबंधी विशेषताके और 'पंचाशक'के पांच कल्याणक संबंधी सामान्यताके आभिप्रायको समझे बिनाही सामान्य पांच कल्याणक संबंधी पूर्वापार संबंध बिनाका अधूरापाठ भोले जीवोंको पतलाकर आगमों में विशेषतापूर्वक छ कल्याणक कहे हैं उन्होंका निषेध करनेके लिये आग्रह किया है,सो भी अज्ञानता जनक सर्वथा अनुचित यह सत्तरहवी बड़ी भूलकी है। १८- आचारांग, स्थानांगादि मूल आगोमें च्यवनादि अलग २ छ कल्याणक खुलासा पूर्वक बतलाये हैं, और उन्होंकी टीकामों मेंभी कल्याणक अर्थकी सूचना करनेवाले पर्यायवाचक च्यवनादि छ स्थान बतलाये हैं उसका भावार्थ समझे बिनाही च्यवनादि कोको वस्तु या स्थान कहकर कल्याणकपनेका सर्वथा निषेध किया सोभी अतीवगहनाशयवाले आगोके भावार्थका अजानपना हो. नेसे यहभी भठाहरवी बडी भूलकी है। १९- आषाढ शुदी ६ को भगवान देवानन्दामाताकी कुक्षिमे आ. थे, सो नीचगौत्रके कर्म विपाकका उदयरूप है,उसीकोही शाखकारोने आश्चर्यरूप अच्छरा कहा है तोभी उसको प्रथम च्यवनकल्या. णक मानते हैं । और नीच गौत्रका कर्मविपाक क्षय हुए बाद उंच. गौत्रके कर्मविपाकका उदय होनेसे आसोज वदी १३ को त्रिशलामाताकी कुक्षिमें उत्तम कुलमें भगवान् पधारे तब अनादि भया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९] दामुजब तीर्थकरमहाराजोंकी माताओंकेगर्भमै तीर्थकर उत्पन्न होने की सूचना करने वाले १४ महास्वप्न देखनेकी तरहही त्रिशलामातानेभी१४महास्वप्न आकाशसे उतरते हुएदेखे ,इसलिये यहतो दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपना प्रत्यक्षमेही सिद्ध है । उन्हीको नीचगौत्रका विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर कल्याणकपनेका निषेध किया सो यहभी एकोणवीशवीभी बडी भूलकी है। २०- जैसे देवलोकसे देवभवसंबंधी आयु पूर्ण होने पर वहांसे च्यवनरूप कारण होनेसे माताकेगर्भ में उत्पन्न होनेरूप (अवतार लेने रूप) कल्याणकपनेका कार्य होता है, तो भी कारण कार्य भावसे च्यवनकोही कल्याणकपना कहनेमे आता है । तैसेही गर्भापहाररूप कारणहोनेसे तीर्थकर पनेमें प्रकट होनेकेलिये गर्भसंक्रमणरूप (अध. तारलेनेरूप) दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनका कार्य हुआ है, तोभी कारण कार्यभावसे गर्भापहारको कल्याणकपना कहने में आताहै । इसलिये उनको गर्भपहार कहो ; गर्भसंक्रमण कहो, त्रिशलाकुक्षिमें अवतार लेनेका कहो,या दूसराच्यवनरूप कल्याणक कहो. सबका तात्पर्यार्थसे भावार्थ एकही है, इनमे किसी तरहका विरोध नहीं है. इसप्रकार तीर्थकरपनेमें प्रकट होनेके लिये त्रिशलाके गर्भमें अवतार लेनेरूप गर्भापहारके उत्तम कार्यके भावार्थको समझे बिनाही ग. र्भापहारको अतिनिंदनीक कहते हैं सो तीर्थकर भगवान के अवर्णवाद 'बोलनेरूप ( आशातनाकरनेरूप) दुर्लभ बोधिपनेकी हेतुभूत यहभी वीशवी बडी भूल की है। २१- जैसे श्रीआदीश्वर भगवान् १०८ मुनियों के साथ एक समयमें अष्टापदपर्वत ऊपर मोक्ष पधारे, उनको आश्चर्यरूप कहते हैं, तो भी मोक्ष कल्याणकभी मानतेहैं. तथा श्रीमल्लीनाथ स्वामिके ज. न्म, दीक्षा, व केवलज्ञानकी उत्पत्ति वगैरह सर्व कार्य स्त्रीत्वपने में हुए हैं, उन्होंको आश्चर्य कारक अच्छेरे कहते हैं. तोभी उन्होंकोही जन्म, दक्षिादिक कल्याणकभी मानते हैं । तैसे ही श्रीमहावीरस्वामिके गर्भपहारको आश्चर्य कारक अच्छेरा कहते हैं, तो भी उनको दूसरा च्यवनरूप कल्याणक माननेमें आता है. उसका आशय समझे. बिनाही गर्भापहारको आश्चर्य कहके कल्याणकपनेका निषेध किया सोभी अज्ञानताजनक यह एकशिवीभी बडी भूल की है। २२- जैसे श्रीसिद्धसेनदीवाकरसूरिजी महाराजने उजेनीनगरीमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] देबीहुई श्रीएवंतिपार्श्वनाथजीकी प्राचीनप्रतिमाकोफिरसेप्रकटकरी, तथा गुजरातम अणहिलपुर पाटणमें शिथिलाचारी चैत्यवासियोंने संयमधर्मको दबादियाथा,उसको श्रीजिनेश्वरसूरीजीमहाराजने वहां जाकर फिरसे प्रकटकिया और श्रीनवांगीवृत्तिकारक खरतरगच्छना. यक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने श्री स्थभनपार्श्वनाथजीकी प्रति. माको प्रकट करी. तैसेही कल्प-स्थानांग-दशा श्रुतस्कंध आचारांगादि आगोमें कहेहुए श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकों. को, मेवाडदेशमें चितोडनगरमें शिथिलाचारी, लिंगधारी, चैत्य. वासियोने दबा दिये थे, उन्होंकोही श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराजने वहां जाकर फिरसे प्रकट किये हैं, सो शास्त्रविरुद्ध नवीन नहीं किंतु आगमोक्त प्राचीनही हैं. जिसका भावार्थ समझे बिनाही न वीन प्रकट करनेका कहते हैं, सोभी अज्ञानता जनक प्रत्यक्षही मिथ्या भाषणरूप यह बावीशवीभी बडी भूल की है। २३- जैसे अभी वर्तमानिक गच्छेोके पक्षपाती जन अहमदाबाद वगैरह शहरों में अपने गच्छके उपाश्रय वा धर्मशाला वगैरह मकान खाली पडे होवे तोभी अन्य गच्छवाले शुद्ध संयमी मुनियोंको उसमें ठहरने नहीं देते. और यति लोकभी अपने गच्छके आश्रित भगवान्के मंदिरमे अन्य गच्छके यतिको स्नात्र महोत्सवादि पूजा पढाने नहीं देते, जिसपरभी अन्यगच्छवाला यति अपनेगच्छके आश्रितमंदिरमेस्नात्रमहोत्सवादि पूजापढामकोआवतो, घोलोग मरणे मारणे- . शिरफोडनेको तैयार होतेथे, और कहतेथे,कि-ऐसाकभी पहिले हुआ नहीं और अभी होनेदेगेभी नहीं. यह बात गच्छोंके विरोधभावसे मा. रवाड, गुजरात वगैरहदेशो पहिले प्रसिद्धहीथी और कोई शहरोंमें अबीभी देखने में आतीहै । इसीतरहसेही पहिले चैत्यवासीलोगभी आ. पसके द्वेषसे या लोभदशासे अपने गच्छके आश्रित मंदिरमें अन्यगच्छवालेको स्नात्रपूजामहोत्सव,प्रतिष्ठादि कार्य नहींकरेने देतेथ.उस अवसरमें श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज गुजरात देशसे विहार क. रके मेवाडदेशमें विशेष लाभ जानकर जिनामाविरुद्ध शिथिलाचारी चैत्यवासियोंका अविधिमार्गका खंडन करतेहुए,जिनाशानुसार शुद्ध विधिमार्गका उपदेशद्वारा स्थापन करते हुए, भव्यजीवोंके उपकार केलिये चितोडनगरपधोर । तब वहां वाले चैत्यवासियोने और उ. न्होंके पक्षपाती भक्तलोगोंने अपनी भूल प्रकटहोनेके भयसे महाराज को शहरमें ठहरनेके लिये कोईभी जगह नहीं दिया और द्वेषबुद्धिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१] चामुंडा देवी मंदीर में ठहरनेका बतलाया, तब महाराज तो दे' की आज्ञालेकर वहांही ठहरे. उनके संयमानुष्ठान, जप, तप, ध्यान, धैर्य, ज्ञानादिगुण देखकर देवीभी प्रश्न होकर जीवहिंसा छोडकर, जीवदया पालनेवाली व महाराजकी भक्ति करनेवाली होगई. और शहर वालेभी पुण्यवान भव्यजीव जिनाशानुसार सत्यधर्मकी परीक्षा कर नेको वहां महाराज के पास थोडे २ आने लगे. और अन्य दर्शनियों में भी महाराज के विद्वत्ताकी बडी भारी प्रसिद्धि होनेसे बहुत लोग अपना संशय निवारण करनेकेलिये महाराजकेपास आनेलगे, शहरभर में बहुत प्रसंशा होने लगी, तब कितनेक गुणग्राही श्रावक लोग भी महाराजको गीतार्थ, शुद्धसंयमी और शास्त्रानुसार विधिमार्ग की सत्यबाबतलानेवाले जानकर, चैत्यवासियोंकी शास्त्राविरुद्ध प्ररूपणाकी तथा चैत्यकी पैदास से अपनी आजीविका चलाने की स्वार्थीकल्पितबातोंको छोडकर महाराजकेपास शास्त्रानुसार सत्यबातें कों ग्रहण करने वाले होगये, पीछे महाराजका चौमासाभी वहां करवाया. तब तो महाराज चैत्यवासियों की शिथिलता और अविधिको खूब जोरशोरसे निषेध करने लगे और जिनाशानुसार विधिमार्गकी सत्यबाते विशेषरूपसे प्रकाशित करनेलगे, उसको देखकर बहुत भव्यजीव चेत्यवासियोंकी मायाजालसे छुटकर शास्त्रानुसार क्रिया अनुष्ठान करने लगे । तबतो चैत्यवासी लोग महाराजपर बहुत नाराज होगये और अपनी शास्त्रविरुद्ध भूलों को सुधारनेके वदले पांचसौ चैत्य वासी इकट्ठे होकर लकडीयें वगैरह हाथमें लेकर महाराजको मारकेलिये आये, इसबात की अच्छे २ आगेवान श्रावकोंद्वारा चितोड नगर के राजाको मालूम पडनेसे महाराज ऊपरका यह उपसर्ग रा. जाने दूर किया, चैत्यवासीलोग बहुत द्वेष करते थे और नगरभर के सबमंदिर चैत्यवासियोंके ताबेमैथे. इस अवसर में महाराज श्रावकों के साथ श्रीमहावीर स्वामीके दूसरच्यवन कल्याणक संबंधी आसोज वदी १३ को चैत्यवासियोंके मंदिर में देववंदनादि करने को जाने लगे, तब पहिलेके विरोधभाव के कारणसे राज्यमान आगवान् श्रावकलाग साथमेंथे इसलिये चैत्यवासीलोग तो कुछबोल सके नही, मगर एक चैत्यवासीनी बुढिया अपने तुच्छ स्वभाव से अपनेगच्छ के आश्रित मंदिरके दरवाजेपर आडी सोगई और क्रोध से बोलने लगी कि-' पहिले ऐसा कभी हुआ नहीं और यह अभी करते हैं सो मेरे जीवते तो मंदिर मैनहीं जाने दूंगी; मैरे को मारकर पीछेभले अंदर जावो' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] ऐसा उस चैत्यवासीनी बुढियाकाक्रोधसहित अनुचितवःवको दे. सकर यद्यपि श्रावक लोग उसको दरवाजेसे हटाकर मंदिर में दर्शन करनेको जा सकतेथे, तोभी स्त्रीकेसाथ वैसा करना योग्य न समझ कर महाराजकेसाथ पीछे अपने स्थानपर चले आये. इत्यादि 'गणधरसार्धशतक' बृहवृत्ति वगैरहमे श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजका चरित्रसंबंधी पूर्वापरके आगे पीछेके प्रसंगको, व चितोड निवासी चैत्यवासियों के विरोधभावको, विवेकीबुद्धिसे समझेबिनाही अथवा तो जानबुसकर आगे पीछेका संबंधको छुपाकरके कितनेकलोग कह. तेहैं, कि- ' श्रीजिनवल्लभसूरिजीने चितोडनगरमें छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणाकरी उसको बुढियाने मना किया तो भी माना न. ही. ' ऐसा कहनेवाले अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं, क्योंकि देखोवो चैत्यवासीनी बुढिया अज्ञानी आगमोके भावार्थको नहीं जाननेवालीथी, व शिथिलाचारी होकर अपनी आजीविकाके लिये चैत्य. में रहकरके चैत्यकी पैदाससे अपना गुजरानकरतीथी. और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्य में [ मंदिरमें ] रहनेका, व उसकी पैदाससे अपनी आजीविका चलानेका निषेध करनेवाले, तथा शास्त्रा. नुसार व्यवहार करनेवाले शुद्ध संयमी थे. इसलिये चितोडके सब चैत्यवासियोंकी तरह वह बुढियाभी महाराजसे द्वेष धारण करने वालीथी और बुढियाके जन्मभरमें भी उसके सामने कोई भी शुद्ध संयमी चैत्यवासका निषेद्ध करनेवाला चितोड नगरमे पहिले कभी नहीं आयाथा. उससेही शास्त्रानुसार विधि मार्गकी बातोंकी उसको मालूम नहींथी. इसलिये इनमहाराजका आगमानुसार छठे कल्याण. कका कथनभी उसबुढीयाको नवीन मालूम पडा. और अपने चैत्य. वासकी तथा उससे अपनी आजीविका चलानेकी बातकाखंडन कर. नेवाला तथा अपनी शिथिलाचारकी भूलोको प्रकटकरनेवाला,ऐसा अपना विरोधी अपने ताबेके मंदिर में अपने सामने चला आवे सो उस बुढियासे सहन नहीं होसका. इसलिये क्रोधसे मंदिरके दर. वाजे आडी पड गई, सो उस निर्विवेकी अज्ञानी क्रोधसे विरोध भाव धारण करने वाली बुढिया के कहनेसे प्रत्यक्ष आगम प्रमाण मौजूद होनेसे छठा कल्याणक नवीन नहीं ठहर सकता.जिस. परभी उस बुढियाके अज्ञानताजनक वचनोंका भावार्थ समझे बिनाही उस चैत्यवासीनी बुढियाकी परंपरावाले अभी वर्तमानमेंभी कितनेक आग्रही जन अज्ञानतासे बुढियाकी तरह द्वेष बुद्धिसे, छठे कल्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] णककी नवीन प्ररूपणा करनेका श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजपर झूठा दोष आरोपण करते हैं. मगर प्रत्यक्षपने आगमप्रमाणोंकों उत्थापन करके मिथ्याभाषणसे श्रेवीशवी यहभी बडीभूल करके विवेकीतत्त्वश विद्वानोंके सामने अपनी लघुताका कारण कराते हुए कुछभी विचार नहीं किया । यह कितनी बडी लज्जा [शर्म] की बात है, इसको विशेष तत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं । · और भी प्रत्यक्ष प्रमाण देखिये श्रीअंतरिक्ष पार्श्वनाथजीकी या त्रा करनेलिये मुंबई से संघ गयाथा, सो रस्तामें संघके दर्शनकरनेके लिये साथ में भगवान् के प्रतिमाजीथे, उनको वहां संघ ठहरे तबतक मंदिर में विराजमान करनेलगे, सो दिगंबरलोगोने मना किया, उन के सामने जबराई करने को गये. तब आपस में मारपीट हुई, शिर-फुटे कोर्टकचेरी में गये, दंडहोने का या कैद में जानेकामोका आया, हजारो रुपये संघ के खर्च हुए, तब छूटे और आपस में विरोधभाव तथा शासन हिलना बहुत हुई । इसपर अब विचार करना चाहिये, किउस समय संघवाले तथा संघकेसाथ आनंदसागरजी वगैरह साधु लोगभी विवेकवाले होते, तो व्यर्थ हठकरके तकरार खडी न करते, तो इतना नुकसान उठाना नहींपडता. इसीतरह से श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजभी व्यर्थ तकरार न होनेके लिये बुढियाका हठ देखकर वहांसे पीछे चले आये, सो तो दीर्घ दृष्टिसे विवेकतापूर्वक बहुत अच्छा काम किया । जिसके बदले उनको झूठे ठहरानेका दोष लगाना यह कीतनी बडी अज्ञानता है । और म्यान्यात में, गांवगांव में, देशदेशमें, अपने २ पाडोसीपाडोली - में, पंच पंचायत में, राजदरबार में या गच्छ गच्छ वा अंधपरारूढीकी खोटी प्रवृत्ति में, आपसके विरोध भाव संबंधी " ऐसे पहिले कभी हुआ नहीं, और अभी यह ऐसा करते हैं । सो कभी होने देगेंभी नह्रीं " इस तरहसे कहनेकी एक प्रकारकी रूढी है, उसमें सत्यासत्य की परीक्षाकि बिना किसीको झूठा ठहराना सर्वथा निर्विवेकता है. इसी तरहसेही उन चैत्यवासीनी बुढियानेभी अपने आग्रहसे वैसा कहाथा, उसका भावार्थ समझेबिना छठे कल्याणकको नवीन ठहराना, सोभी आगमोंके उत्थापन करने रूप तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजीम - हाराजपर झूठा दोष आरोपणकरनरूप व अज्ञानताजनक बडी भारी भूलकी है इसबात को विशेष विवेकीतत्त्वज्ञजनस्वयविचार सकते हैं । २४ - देवानंदामाता के गर्भ से ८२ दिनबाद त्रिशलामाता के गर्भ में आने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] को च्यवन कल्याणकपना प्रकट तथा सिद्धकरने के लियेही खासकरूप सूत्रमेही च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य देवानंदा मातासंबंधी वर्णन नहीं किये, किंतु त्रिशलामाता संबंधी वर्णन किये हैं, तथा समवायांग सूत्रवृत्ति भी देवानंदामाता के गर्भ से ८२दिन गयेबाद त्रिशलामाताके गर्भ में आने को अलगरभव गिनती में लियेहैं और कल्पसूत्र तथा उन्हीं की सबी टीकाओं में तथा श्रीवीरचरित्रादि अनेकशास्त्रों में भी देवानंदा माता के गर्भ से ८२ दिन गयेबाद, आसोजवदी १३को त्रिशला माता के ग भर्मे भगवान् आये हैं, यह अधिकार बहुत विस्तारपूर्वक खुलासा के साथ कथन किया है । इसलिये देवानंदामाताकी कुक्षिले जन्म होनेके बदले त्रिशलामाताकी कुक्षिसे जन्म होने संबंधी किसी तरहकीभी असंगतिरूप शंका नहीं हो सकती. जिसपर भी असंगतिरूप शंका निवारण करनेकेलिये गर्भापहारका नक्षत्रबतलाने का कहकर, उनमें अलग २ भव गिनने व १४ महास्वप्न देखने वगैरह बातोंकों सर्वथा उड़ाकर दूसराच्यवनरूप गर्भपहारको कल्याणकपने रहित ठहराते हैं और बहुततुच्छ समझकर बडीनिंदा करी है सोयहभी माया वृत्तिसे तीर्थकर भगवान्‌की आशातनारूप चौवीशवी बडीभूलकी है. २५- श्रीऋषभदेव आदि तीर्थकर महाराज पहिले होगये, तथा श्री सीमंधरस्वामि आदि वर्तमान में हैं. उन्हीं सबीने श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणक कथन किये हैं, उन्होंकेही अनुसार गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचा यौन भी आचारांग, स्थानांगादि आगमोंमैभी च्य वनादि छ कल्याणक कथन किये हैं, उसीकेही अनुसार तपगच्छके पूर्वज वडगच्छके श्रीविनय चंद्रसूरिजीने कल्पसूत्र के निरुक्तमें, तथा चंद्रगच्छके श्री पृथ्वीचंद्रसूरिजीने कल्पसूत्रके ट्टिप्पण में और श्री पार्श्वनाथस्वामिकी पट्टपरंपरामें उपकेशगच्छीय श्रीदेव गुप्तसूरिजीने कल्पसूत्रकी टीकामै इत्यादि अनेक प्राचीन शास्त्रों में भी खुलासा पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणक लिखे हैं । उसीकेही अनुसार तपगच्छकेभी पूर्वाचार्य श्रीकुलमंडनसूरिजी वगैरहोने भी श्रीकल्पावचूरि आदिमें च्यवनादि छ कल्याणक लिखे हैं । इसलिये श्रीतीर्थकर - गणधर - पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के प्राचीन समय सेही आगमानुसार आत्मार्थी सर्व गच्छवाले च्यवनादि छ कल्याणक मानने वाले थे, जिसपर भी आगमादि सबी प्राचीन शास्त्रोंके प्रमाणोकों जानबुझकर छुपा करके, या अज्ञानता से 'श्रीजिनवल्लभसूरिजीनें चितोड में छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करी, ऐसा कहकर जो लोग छठे क. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [44] ल्याणकका निषेध करते हैं. वो लोग तीर्थकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा चायौकी और खास अपने तपगच्छकेभी पूर्वाचार्योंकी आशातना करनेवाले ठहरते हैं । इसलिये आत्मार्थी भवभिरू विवेकी जनोंको तो छठे कल्याणकका निषेध करना सर्वथा योग्य नहीं है. मगर करनेवालोंने यह पचीशवीभी बडी भूलकी है। इसको भी वि शेष तस्वजन स्वय विचार सकते हैं । २६- सभा मंडल में जाहीर व्याख्यान करतेहुए परोपकारकेलिये, सत्य बात प्रकट करने में अपनी स्वभाविक प्रकृतिसे, सञ्चके जोशमें आकर कितनेक वक्तालोग चौकी, देवल, या पाटापर जोरसे अपनाहाथ पिछाडते हुए अपना मंतव्य प्रकटकरते हैं, तथा कितनेक छातीठोक ते हुए, या भुजा आस्फालन करते हुए, अपनी सत्यबात प्रकट करते हैं, और कोई विशेष प्रबल विद्वान् वादी तो हाथमें खूब उंचा झंडा लेकर नगारा पीटवाते हुए विवाद करनेलिये नगर में उद्घोषणा क करवाते हैं । मगर यहबात कोई प्रकारले अनुचित नहीं है, किंतु सत्य बात प्रकाशित करने में अपनीहिम्मत बहादुरीकी स्वाभाविक प्रकृति है । इसीतरह से श्रीजिनवल्लभ सूरिजी महाराजने भी सबशिथिलाचारी चैत्यवासियों के सामने चैत्यवासका निषेध व आगमनानुसार श्रीमहा वीरस्वामिके छ कल्याणक मानने वगैरह विषयों संबंधी सत्य बातें प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीसे भुजास्फालन पूर्वक क हाथा, कि - 'ऊपर की बातें जो न मानने वाले होंवें वो उन्होंकी शा स्त्रार्थकरने की ताकत हो तो मैंरेसामने आकर उनबातोंका शास्त्रार्थ से निर्णय करो' मगर उस समय किसीभी चैत्यवासीकी महाराज केला - थ शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं हुई। तब महाराजने सबलोगोंके सामने ऊपर मुजब सत्यबातें प्रकाशित की. इसतरह से 'गणधर सार्धशत क' वृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति वगैरहका भावार्थ समझेबिनाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीने 'स्कंधास्फालनपूर्वक ' छठा कल्याणक नवीन प्रकट किया ऐसा कहकर चैत्यवास वगैरह सब बातोंका संबंध छुपाकर छठे कल्याणकका निषेध करते हैं. सो मायावृत्तिसे या अज्ञानता से व्यर्थही भोलेजीवको उन्मार्ग में गेरनेके लिये मिथ्या भाषण करके यह भी छवीशबी बडी भूल की है। २७- श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराज चैत्यवासका खंडन करनेवाले थे, इसलिये चैत्यवासियोने महाराजको शहर में ठहरनेको जगह नहीं दिया और द्वेषबुद्धिले चामुंडिका देवीके मंदिरमें ठहरनेका बतला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६] था. तब महाराज तो वहांही ठहरकर अनेक प्रकारके कष्ट सहन क रतेहुएभी भव्यजीवोंके उपकारकेलिये जिनाशानुसार सत्यबातें लोगोको बतलाते रहे, और चैत्यमें ठहरने वगैरह चैत्यवसियोंकी कल्पित बातोका खंडन करते रहे। यहबात 'गणधर सार्धशतक' - थकी लघुवृत्ति तथा वृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रोमें खुलासा लिखी है। जिसपरभी ऊपरमुजब चैत्यवासियोंकी भूलोंके तथा जिनाशानुसार सत्य बातोके प्रसंगको मायावृत्तिसे छुपाकरके 'अपना नवीन मत स्थापन करनेकेलिये चामुंडिकादेवीके मंदिर में ठहरेथे' ऐसा प्रत्यक्ष मिथ्या लिखकर महाराजकी झूठी निंदाकी और दृष्टिरागी बाल जी. वोंकोभी परम उपकारी युग प्रधान आचार्य महाराजके झूठे अवर्णवाद बोलनेवाले बनाये यहभी सतावीशवी बडी भूल की है। २८- " यो न शेष सूरीणामक्षातसिद्धांतरहस्यानाम् " इत्यादि 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी १२२वी गाथाकी लघुवृत्ति तथा बृहत वृत्तिके यह वाक्य-सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले द्रव्यलि. गी चैत्यवासियों संबंधी है, मगर पहिले होगये हैं उन सबपूर्वाचा. यौसंबंधी नहीं है, जिसपरभी 'पहिले जितने आचार्य होगये हैं उन सबोंको सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले ठहराकर जिनवल्लभसूरिजीने छठा कल्याणकनवीन प्रकाशितकिया' ऐसा अर्थ कहतेहैं। सो अपनी विद्वत्ताकी लघुताकारक अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं । क्योंकि शेष ' कहनेसे सिद्धांतक रहस्यको जाननेवाले सब पूर्वाचार्योको छोड़कर बाकीके सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले भशानियोका ग्रहण होता है और 'अशेष' कहनेसे सबका प्रहण हो सकता है, मगर यहां तो 'अशेष' शब्द नहीं है, किंतु 'शेष' शब्द है। इसलिये सर्व पूर्वाचार्योंका ग्रहण नहीं हो सकता, जिसपरभी सबका ग्रहण करते हैं सो 'शेष ' शब्दके अर्थको भी नहीं जानने घाले, अपनी अज्ञानतासे, शास्त्रोंके खोटे २ अर्थकरके, यहभी अंठाबीशची बड़ी भूलकी हैं। इसबातको विशेष विधेकी तत्त्वश विद्वान् लोग स्वयं विचार सकते हैं। . दखिये-खरतर गच्छवालोंने अपने पूर्वाचार्योंके चरित्रों में, जै. से-श्री अभयदेवसूरिजी महाराज संबंधी 'स्थंभन पार्श्वनाथ प्रक टकर्ता' तथा 'नवांगी वृत्ति कर्ता' वगैरह बात उन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी यादगिरीकेलिये प्रसंशारूप लि. स्त्रीहैं । तैसे ही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज संबंधीभी 'दश सह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७] स नवीनश्रावक तथा चामुंडिका देवी प्रतिबोधक' 'चैत्यवास शिथिलाचार निषेधक' 'षष्ट कल्याणक प्रकट कर्ता' वगैरह बातेभी इन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी याद गिरिकलिये प्रसंशारूप लिखी हैं, सो नवीन कल्पित नहीं, किंतु शास्त्रानुसार प्राचीनहीहैं. इसलिये प्रसंशारूप लिखी हैं । जिसका मर्मभेद समझेबिना, 'गणधर सार्द्ध शतक' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा बृहत त्तिके 'यो न शेषसूरीणां' इत्यादि पाठोंके ऊपर मुजब सत्याको छपाकरके अपनी मतिकल्पना मुजब खोटे खोटे अर्थकरके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके उन्मार्गमे गेरनेकेलिये धर्मसागरजीकी अंध परंपरावाले उनकी देखा देखी वर्तमानिक न्यायांभोनिधिजी, शास्त्र विशारदजी, न्यायविशारदजी, विद्यासागर न्यायरत्नजी, जैनरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, आगमोद्धारक,गीतार्थ,वगैरह विशेषणोंको धारणकेरनवाल आचार्य,उपाध्याय, प्रवर्तक,गणि,पन्यास,प्रसिद्धवक्ता, विद्वान मुनिजनआदि सर्व ऐसेही अनर्थ करते हुए चले जाते हैं और सामान्यविशेष बातका भेदसमझे बिनाही सर्वतीर्थकर महाराजो संबंधी पंचाशक सूत्रवृत्ति'का पांच कल्याणको संबंधी सामान्यपाठको आगे करके कल्प,स्थानांग,आचारांगादिमें विशेषता पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणककहेहैं,उन्होंका निषेधकरनेकेलिये आगमोके अनादिसिद्ध च्यदनादि कल्याणक अर्थको उडा देते हैं तथा जैसे यति-मुनि-साधुअणगार शब्द एकार्थके भावार्थवालेहैं,तैसेही च्यवनादि वस्तु-स्थानकल्याणक शब्दभी एकार्थके भावार्थवालेहैं, उसकाभेद समझे बिना ही च्यवनादिकोंको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणकपने रहित ठहराते हैं। मगर दीर्घदृष्टिसे विवेकबुद्धिपूर्वक शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय तरफ उपयोग लगाकर सत्य तत्त्व बातका कोई भी विचार नहीं करतेहै,यह अंधपरंपराकी कितनी बडीभारी लज्जनीय अनुचित प्रवृ. त्तिहै. इसकोविशेष विवेकीतत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयविचार सकते हैं। औरभी देखिये-विवेक बुद्धिसे खूब विचारकरीये, यदि-नीचगोत्र कर्मविपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहनेसे कल्याणकपनेका निषेध हो सकता होवे, तबतो आषाढशुदी ६ को देवानंदामाताके गर्भमें भगवानआये,सोही नीचगौत्र कर्मविपाकरूप होनेसे कल्पसूत्रादि शास्त्रोंमें उनको आश्चर्यकहाहै,इसलिये तुम्हारे मंतव्य मुजबतो उनकोभी कल्याणकपनेका निषेध हो जावेगा. और विशेष अधिक आश्चर्यकारक दूसरे च्यवनकी तरह प्रथमच्यवनभी कल्याणकपने रहित होनेसे शे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८] षबाकीके कल्याणकही रहजावेंगे.और नीचगौत्रके विपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहते हुएभी प्रथम च्यवनको कल्याणकपना मानोगे,तो. नीचगौत्र विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर दूसरे च्यवनरूप गर्भा पहारको कल्याणकपने रहित ठहराया सो प्रत्यक्षमिथ्या व्यर्थही झूठा आग्रह सिद्ध होवेगा. इसलिये ऐसे झूठे आग्रहसे भोले जीवोंको सं. शयरूप मिथ्यात्वके भ्रममें गेरकर भगवानकी आशातनाका हेतुभूत अनर्थ करना सर्वथा योग्य नहीं है. किंतु प्रथम च्यवनमें कल्याणक पना माननेकी तरहही दूसरे च्यवनमेभी कल्याणकपना आगमादि शास्त्रप्रमाण तथा युक्तिसम्मत होनेसे आत्मार्थियोंको अवश्यही मान्यकरना उचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचारसकते हैं। औरभी प्रत्यक्ष शास्त्रप्रमाण देखिये-कल्पसूत्रकी सर्व टीकायें वगैरह बहुतशास्त्रों में श्रीजंबूस्वामिके निर्वाणगयेबाद दश(१०) वस्तु विच्छेद होनेका लिखाहै. उसमें केवलज्ञान,केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र,मुक्तिगमन वगैरह बातोंकोभी वस्तु कहाहै. और 'गुणस्थानक्रमारोह वगैरह शास्त्रोममी केवलज्ञान उत्पन्नहोनेको,तथा मुक्तिगम. नको १३-१४ वा गुणस्थान कहाहै. इसी तरहसे इन शास्त्रप्रमाण मु. जबभी तीर्थकर भगवानके केवलज्ञान उत्पन्न होनेको तथा मुक्तिगमन निर्वाणको वस्तु कहो या स्थान कहो और उन्होकोही केवलशान तथा निर्वाण कल्याणकभी मानो,तो भी इस बातमें कोई तरहका वि. रोधभाव नहीं है, इसलिये च्यवनादिकोको वस्तु कहो, या स्थान कहो, वा कल्याणककहो, सबका तात्पर्यार्थसे भावार्थ एकही है. जिस परभी वस्तु-स्थान कहकर कल्याणकपनेका निषेध करनेवाले अपनी अज्ञानतासे शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करके भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरते हैं, और अपनी आत्माकोभी उत्सूत्र प्ररूपणाके दोषसे मलीन करते हैं. इसबातकोभी विवेकी तत्त्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं। और तीर्थकरभगवानके च्यवनादिकोंको कल्याणकपना आगमानु. लार अनादिसिद्धहै, उन्हीं च्यवनादिकोंको शास्त्रोंमें एक जगह स्थान कहे,दूसरी जगह वस्तु कहे, तीसरी जगह कल्याणक कहे, इससेभी वस्तु-स्थान-कल्याणक यह तीनों शब्द पर्यायवाचक एकार्थवाले सिद्ध होतेहैं जिसपरभी वस्तु-स्थान शब्द देखकर अनादिसिद्ध व्य. वनादिमें कल्याणक अर्थको उडादेना सो अपने झूठे पक्षपातके आनहसे शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेरूप यह कितनी बड़ी भूल है इसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९] आत्मार्थी विवेकी तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार सकते हैं। छ कल्याणक संबंधी ऊपरके संक्षिप्त लेखसेभी जो आत्मार्थी सत्य ग्रहण करने वाले निकट भव्य होगे, वह तो थोडेसेमेही सार स. मझ लेवेंगे,कि गर्भापहारको अलग भव गिननेसे तथा त्रिशलामाताने सर्व तीर्थकर माताओंकी तरह आकाशसे उतरते हुए १४ महास्व. प्रदेखने वगैरह कार्योंसे दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनेकी उत्तमताको छुपाकरके व्यर्थही छठे कल्याणककी निंदाकरना सर्वथा योग्यनहीं है और शास्त्रोंकेअर्थ बदलकरके उत्सूत्रप्ररूपणासे व कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकोभी उत्तम कार्य के हेतुभूत गर्भापहारकी निंदा करवाने वाले बनवाकर तीर्थकर भगवानकी आशातनासे भवहार जानेका कारण कराना कदापि योग्य नहीं है । ऊपरकी इन सब बातोका विशेष नि. र्णय शास्त्रोंके संपूर्ण पाठोंके प्रमाणोसहित इस ग्रंथके पृष्ट ४५३ से. ८२६ तक छप चुका है, सो तीसरे भागमें प्रकट होगा.उसके बांच. नेसे सर्व शंकाओका खुलासा समाधान अच्छी तरहसे होजावेगा। - और शासन नायक श्रीमहावीरस्वामि आदि सर्व तीर्थकर म हाराजाके चरित्र भव्यजीवोंको कर्मोंकी निर्जरा करानेवाले कल्याणकारक मंगलरूपही हैं, इसलिये पर्युषणाके मंगलिक पर्व दिनों में आत्मकल्याणके लिये वांचने आतेहैं.और श्रीमहावीरस्वामिके गर्भापहाररूप दुसरा च्यवनका कार्य तो त्रिशलामाता, सिद्धार्थपिता, व इंद्रमहाराज वगैरह सर्व जीवोंको कल्याण मंगलरूप हर्षका देने वालाहुआहै। तथा उनका आराधन करनेवाले अल्पसंसारी आत्मार्थी भव्य जीवोंकोभी अभिमानरहित कौकी विचित्रताकी भावनासे कर्मोंकी निर्जरा करानेवाला कल्याणकारक मंगलरूपहोता है। मगर गर्भापहारके नाम सुननेमात्रसेही चमकउठनेवाले और उनको नीच गौत्रविपाकरूप,आश्चर्यरूप अतीवनिंदनीककहकरनिंदाकरनेवालोको तीर्थकरभगवानके अवर्णवाद बोलनेसेसंसारपरिभ्रमणके बहुतविशेप दुःख भोगनेबाकी होंगे,इसलिये उन्होंको वो कार्य अमंगलरूप अ. कल्याणरूप मालूमपडता होगा। इससे उनकार्यसे द्वेषरखकर वर्षोवर्ष पर्युषणाके मांगलिकरूप कल्याणकारक पर्वदिनोंके व्याख्यानमें उनकी निंदा करते हुए अकल्याणरूप अतिनिंदनीक ठहराकार तीर्थकर भगवानकी आशातना करनेसे अपनेको और दूसरे भव्य जीवोकेभी अकल्याणरूप दुर्लभबोधिका हेतुकरते हैं, ऐसी २ अनर्थभूत अनुचित बातोसेही 'सुबोधिका' नाम रख्खाहै । मगर वास्तविक में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो 'दुर्लभबोधिका' नाम सिद्ध होताहै । इसबातको विशेष मात्मा. थी तस्वर पाठकगण स्वंय विचार लेवेगे। एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बातें उत्थापन करनी पड़ती हैं। देखो-एक अधिकमहीना व छ कल्याणक उत्थापनकरनेसे उसकी पुष्टि के लिये, अनेक शास्त्रोके अर्थबदलनेपडे। अनेक जगह शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध आग्रह करना पडा। कितनीही जगह मिथ्या बातें भी लिखनी पडी। कितनीक जगह शास्त्रोंके आगे पीछे के संबंधवाले पाठोको छोडकर बिनासंबंधक अधूरे २ पाठभी भोले जीवोंको बतलाकर अपनापक्षकी सत्यता बतलानेका परिश्रम करना पंडा और कितनीही जगहतो शास्त्रोकी, पूर्वीचार्योंकी व भगवानकी भी आशातनाके हेतुमूत अनुचित शब्दभी लिखने पडे. उसकाअनु. भवतो सुबोधिक-किरणावलीआदिककी२८भूलोंवाले ऊपरकेलेखसे तथा इसभूमिकाके सबलेखपरसे और इस ग्रंथके अवलोकन करनेसे पाठकगणको अच्छी तरहसे होसकेगा, इसलिये एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बाते उत्थापन करनी पडतीहैं ' यह लोकरूढीकी कहावतकी बात ऊपरके विषयमें प्रत्यक्ष देखनमें आती है। । इसप्रकार पर्युषणासंबंधी, व छ कल्याणक संबंधी अपना झू. ठा पक्ष स्थापन करने केलिये और भोले जीवोंको उन्मार्गमे गेरनेके. लिये, शास्त्र विरुद्ध होकर विनयविजयजीने सुबोधिकामे, तथा जयविजयजीने दीपिकामे, और धर्मसागरजीने किरणावलीमे, ऊपर मुजब अनेक भूले की हैं, उन्हीं भूलोको तपगच्छके कितनक आग्रही जन पर्युषणाके व्याख्यानमें वर्षोवर्ष वांचते हैं. उससे जिनाशा. की विराधनाहोकर भवबढनेका व दुर्लभबोधिका हेतुभूत अनर्थ होताहै. इसलिये अल्पसंसारी भव्यजीवोंको जिनाशानुसारसत्यबातोकी प्राप्ति होनेरूप उपकारकेलिये उपरकी सब बातोका खुलासा निर्ण. य इसग्रंथ अच्छीतरहसे लिखने में आया है । उसको देखकर यदि शास्त्राविरुद्ध प्ररूपणासे संसार परिभ्रमणका भय लगता हो तो उन भूलोको सुधारो, व्याख्यानमें वांचेनका बंध करो, और सत्यबातोंकों ग्रहण करो या बडोदा वगैरह किसीभी राज्य दरबारमें इन भूलोसं. बंधी श्रीगौतमस्वामिआदि गणधरमहाराज व सिद्धसेनदीवाकर, ह. रिभद्रसूरिजी वगैरह महाराजोंकी तरह सत्य ग्रहण करनेकी प्रति. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१] शापूर्वक शास्त्रार्थ करनेको तैयारहो, हमने तो इनका सत्य निर्णय अच्छी तरहसे करलियाहै,तोभी इन शास्त्रार्थमें सत्यनिर्णय ठहरेगा सो मंजूर है, इसलिये जो महाशय ऊपरकी भूलोंसंबंधी शास्त्रार्थ करना चाहते होवे, वो अपनी सहीसे अपना प्रतिज्ञा पत्र जाहिर रूपसे ह. मको भेजें.समय, स्थान, नियम, साक्षि वगैरह की व्यवस्था तो सबके अनुकूल उसी राज्यके नियममुजब होसकेगी, विशेष क्या लिखें। पर्युषणा संबंधी मंतव्यके कथनका संक्षिप्त सार. १- जैनटिप्पणाके अभावसे लौकिक टिप्पणामुजब मास-पक्ष-तिथि-वर्ष वगैरह माननेका व्यवहार करना और पर्युषणादि धार्मिक कार्योंका व्यवहार जैन सिद्धांतोके अनुसार करना. तथा जैनसिद्धांतोके अनुसार या लौकिक टिप्पणाके अनुसारभी अधिक महीनेके ३० दिनोंको दान, पुण्य, परोपकार, जप, तप, धर्म ध्यानादि करनेमें व ब्रह्मचर्य पालनेमे या देशविरती-सर्वविरती संयम पालनेमें, तथा कर्मबंधनकी स्थितिके प्रमाणमें और कर्मोंकी निर्जरा करने वगैरह कार्यों में गिनतीमें लियेजातेहैं, तैसेही ५० दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्व का आराघन करने भी उसके३०दिन गिनतीमें लेकर खरतरगच्छ, तपगच्छादिकको कल्पसूत्रकी टीकाओके “ पंचाशैतव दिनैः पर्युः षणा संगतेति वृद्धाः" इसवाक्यमुजब अभी दूसरेश्रावणमें या प्रथम भाद्रपदमे५०दिने पर्युषणापर्वकरना, यही शास्त्रानुसार जिनाज्ञा है। २- मास प्रतिबद्ध कार्य तो एक महीनेकी जगह दूसरे महीनेमेभी करनेमें आवे, तो भी कोई शास्त्रमे उनका दोष नहीं बतलाया. मगर पर्युषणापर्व करने में तो ५०दिनकी जगह ५१दिनभी कभी नहींहोस. कते, इसलिये बिनामुहूर्तवाले ५० दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्वके साथ मास प्रतिबद्ध या मुहूर्त प्रतिबद्ध होली, ओली, दीवाली, दशहरा, अक्षयतृतीया,पौष-श्रावणादिक महिनोंके कल्याणकादितप,या यज्ञो. पवित, दीक्षा, प्रतिष्ठा, विवाह सादी वगैरह कोईभी कार्योंका संबंध नहीं है । जिसपरभी दिन प्रतिबद्ध पयुषणापर्व आराधन करनेकी चर्चा में मासप्रतिबद्ध या मुहूर्त प्रतिबद्ध कार्योंकी बात बीचमें लाते हैं. वो लोग पर्युषणापर्वकरने संबंधी शास्त्रकार महाराजोका आशय नहीं जानने वाले होनेसे, शास्त्रोंकी आक्षा विरुद्ध होकर व्यर्थही कुयुक्तियोंसे विषयांतर करके भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२] 1 ३- अधिक महीनेके अभाव संबंधी भाद्रपदमै पर्युषणा करनेके व उसके पीछे ७० दिन रहनेके और १२ मासी क्षामणे वगैरह के सामान्यपाठ को अधिक महीना होवे तबभी आगे लाते हैं । और अधिक महीनेसंबंधी " पचाशतैव दिनेः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः " कल्पसूत्रकी सर्व टीकाओं के इस विशेषपाठको, तथा स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पन्चूर्णि, वृत्ति, पर्युषणाकल्प चूर्णि वगैरह शास्त्रोंके १०० दिन रहने संबंधी आदि विशेषताके पाठोकी सत्य बातोंको छुपाकरके छोड देते हैं, सो यह सर्वथा अनुचित है । ४- धार्मिक कार्य करने में १२ महीनोंके सर्व दिन, या अधिक म हीना होवे तब १३ महीनों केभी सर्व दिन, वा क्षय महीनेकेभी सर्व दिन बरोबर समानही हैं, उनमें कर्मबंधन के संसारिक कार्य और कर्म निर्जराके धार्मिक कार्य हमेशा बराबर होते रहते हैं, इसलिये तत्वदृष्टि से तो उनसे एक समय मात्र भी गिनती में नहीं छुट सकता. जिसपर भी कार्तिकादि क्षयमहीनेके ३० दिनोंमें दीवाली, ज्ञानपंचमी, चामासी वगैरह धार्मिक कार्य करते हुए भी अधिक महीने के ३० दिनोंको तुच्छ समझकर बडी निंदा करते हैं, या कालचूलाके नामसे गिनती में छोड देनेका कहते हैं, सो सर्वथा जिनाशाका उत्थापन करते हैं । ५- - जैन ज्योतिषविषयसंबंधी प्ररूपणा आगमानुसार करनी और श्रद्धाभी उसी मुजबरखनी, परंतु अभी पडताकालमें जैनटिप्पणा बंध होने से उस मुजब व्यवहार नहींकरसकते. और लौकिक टिप्पण मुजब व्यवहार करने में आता है । इसलिये अभी जैन शास्त्रमुजब पौष- आषाढ अधिक होनेसंबंधी पाठ बतलाकर लौकिक टिप्पणासंबंधी चैत्र; श्रावणादि अधिकमहीनें मान्यकरनेका निषेध नहीं करस. कते । और जैसे जिनकल्पी व्यवहार अभी विच्छेद है तोभी उन्हकी प्ररूपणाकरनेमें आती है, तैसेही पौष--आषाढ बढने की प्ररूपणा तो शास्त्रानुसार करसकते हैं, मगर मास पक्ष तिथि वगैरहका वर्तव तो लौकिक टिप्पणा मुजबही करना योग्य है । I 1 इन सर्व बातें का विशेष निर्णय ऊपरके भूमिका के लेख में और इस ग्रंथ में अच्छी तरहसे हो चुका है । यहाँ तो उसका संक्षिप्तसार मात्रही बतलाया है. मगर विशेष निर्णय करनेकी अभिलाषावाले पाठकगण इसग्रंथको संपूरणतया वांचेंगे तो सबखुलासा हो जावेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३] छ कल्याणकों संबंधी मंतव्यके कथनका संक्षिप्त सार. १- कल्पसूत्र तथा आचारांग सूत्रादि आगमानुसार विशेषतासे श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकमान्य करने,और अतितअनागत-वर्तमानकालके सर्वतीर्थकर महाराजौकी अपेक्षासंबंधी सामान्यतासे पंचाशकादि शास्त्रानुसार पांचकल्याणकभी मान्य करने, इनमें कोई दोष नहीं है. मगर कितनेक लोग शास्त्रकार महाराजोके अभिप्रायको नहीं जाननेसे पंचाशकके पांच कल्याणको संबंधी सामान्य पाठकों भोले जीवोंको बतलाकर विशेषतासे कल्प-आचारांगादि आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करते हैं, सो अज्ञानतासे शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते हैं। २- श्रीऋषभदेवस्वामिके राज्याभिषेकके कार्यमें तो ध्यवन-जन्मदीक्षादि कोईभी कल्याणकके कुछभी लक्षण नहीं हैं, तथा उनके मास,पक्ष,तिथि वगैरहकाभीकहीं उल्लेखनहींहै और श्रीमहावीरस्वामिके दूसरे च्यवनरूप गर्भापहारके कार्य में तो सर्व तीर्थकर महाराजोकी माताओकी तरह त्रिशला मातानेभी १४ महास्वप्न आकाश से उतरते हुए देखेहैं, तथा उसी दिन इन्द्रमहाराजका त्रिशलामाता केपास आगमनहुआहै, तीर्थकर पुत्र होनेका स्वप्नफल कहाहै,व उनके मास-पक्ष-तिथि वगैरह च्यवन कल्याणकके सर्व कार्य प्रत्यक्षपने शास्त्रोंमें कथन किये हुए हैं. और समवायांगसूत्रवृत्ति, लोकप्रकाशादिशास्त्रोंमें उनको अलग भव गिनतीलियाहै,इसलिये गर्भापहाररूप दूसरे च्यवनके कार्यमें तो च्यवन कल्याणकपनेके सर्व लक्षण मौजूद हैं,जिसपरभी राज्याभिषेकके समान गर्भापहारकोभी ठहरते है, और उनको कल्याणकपने रहित कहतेहै सो सर्वथा अनुचित है। ३- श्रीमल्लीनाथस्वामिके स्त्रीत्वपनेमें तीर्थकरपनेके जन्म-दीक्षादि कार्य अच्छेरारूप हुए हैं, तो भी उन्होंकोही कल्याणकपना माननमें आताहै. तथा श्रीमहावीरस्वामि भगवानभी ब्राह्मण कुलमे देवानंदा माताके गर्भमे उत्पन्न हुए सो अच्छेरा रूपहै, तो भी उनको प्रथम च्यवनरूप कल्याणकपना मानते हैं । तैसेही गीपहाररूप आश्चर्य को भी दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपना मानने में आता है, इसलिये आश्चर्य कहनेसे कल्याणकपना निषेध नहीं हो सकता. जिसपरभी आश्चर्य कहकर कल्याणकपनेका जो निषेध करतेहैं, वो लोग अपनी अज्ञानतासे बडी भूल करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] ४- देवानंदामाताकी कुक्षिमें भगवान आये सो ही नीचगौत्र कर्म विपाकरूपहै, उनका क्षय हुए बाद उचगौत्रके कर्मका उदय होनेसेही गर्भपहार करना पडा है, तो भी शास्त्रकार महाराजोंने तो देवानंदाकी कुक्षिमे आनेको तथा त्रिशलामाताकी कुक्षिमें आनेको, इन दोनों कायौको तीर्थकर भगवानके चरित्रमें उत्तमतापूर्वक कल्याणकारक माने हैं। जिसपर भी त्रिशलामाताके गर्भ में आनेको नीचगौत्र कर्म - विपाकरूप अतिनिंदनीक कहकर जो लोग वर्षौंवर्ष पर्युषणा के मांग लिक पर्व दिनोंके व्याख्यानमें प्रत्यक्ष झूठ बोलकर भगवानकी निंदा करते हैं, सो तीर्थकर भगवान् के अवर्णवाद बोलनेवाले होने से आशातना दोषी ठहरते हैं । ५- जैसे श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने श्रीस्थंभनपार्श्वनाथजी की प्रतिमाको प्रकट किया, उनका आशय समझेबिना कितनेक ढूंढिये व तेरापंथी लोग जिनप्रतिमाकी नवीन प्ररूपणा कहे, तो उन्होंकी आज्ञानता समझी जावे. मगर तत्त्वदृष्टिवाले विवेकीलोग जिनप्रतिमाकी नवीन प्ररूपणा कभी नहीं कहेंगे, किंतु आगमोक्त प्राचीनही कहेंगे । तैसेही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजनेभी षष्ट कल्याणकको प्रकट किया, उनका आशय समझे बिना कितनेक लोग उनकी नवीन प्ररूपणा कहते हैं, वो उन्होंकी अज्ञानता समझनी चाहिये. मगर तत्त्व दृष्टिवाले विवेकीलोग उनकी नवीन प्ररूपणाकभी नहीं कहेंगें, किंतु आगमोक्त प्राचीन ही कहेंगे. ६ - भगवान के शरीर-इन्द्रीय पर्याप्तिके अवयव [ पुलपरमाणु ] देवानंदामाताके शरीर से बने हुए थे, और उसी शरीर से त्रिशला - माता के गर्भ में भगवान् आगयेथे, यहबात आश्चर्यकारक होनेले श - इन्द्रीय पर्याप्त बदले बिनाभी शास्त्रकार महाराजोंने उनको अलग भव गिना है। उनमें प्रत्यक्षपने व्यवन कल्याणकपना दिख लानेके लियेही खास कल्पसूत्रके मूलपाठ में त्रिशलामाताने १४ स्वcr देखे हैं उन संबंधी " ए ए चउदस सुमिणे, सव्वा पासेई तित्थयर माया । जं यणि वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरिहा ४७॥ " यह पाठ लिखा है, और इसपाठकी सुबोधिका टीकामें इस प्रकार व्याख्या किया है "अत्र प्रसंगेन एतेषां स्वप्नानां गर्भकाले सकलजिनराजजननीविलोकनीयत्वं दर्शयन्नाह एतान् चतुर्दश स्वप्नान् सर्वा: पश्यंति तीर्थकर मातरः । यस्यां रजन्यां उत्पद्यंते, कुक्षौ महायशसः अर्हन्तः ॥४७॥ इसी तरहसेही सर्व टीकाओंमेभी ऐसेही भावार्थका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] पाठजानलेना. देखो - जिलरात्रिको तर्थिंकरभगवान माता के गर्भ में भाक र उत्पन्न होवें, उसरात्रिको उन्होंकीमाता गर्भकाले अर्थात् च्यवन कल्याणक समय सर्व तीर्थकरों की मातायें यह१४महास्वप्न देखती है। ऐसेही श्री महावीरस्वामिभी त्रिशलामाता के गर्भमें आये, तब त्रिशलामाभी १४महास्वप्न देखें हैं। इस ऊपरके पाठपर अच्छी तर इसे तत्वदृष्टिसे विचार किया जावे. तो- अनादिकालकी मर्यादा मुजब सर्व तीर्थकर महाराजोके च्यवन कल्याणककी तरहही आश्विन वदी १३ की रात्रिको त्रिशलामाता के गर्भ में भगवान् आये; उनको खास सूत्र 'कारने और सुबोधिका, दीपिका, किरणावली वगैरह सर्व टीकाकारोनेभी च्यवन कल्याणक मान्य किया है । और तीर्थकर महाराओके च्यवन कल्याणक में इंद्रमहाराजाका आसन चलायमानहोने से विधिपूर्वक नमस्काररूप 'नमुत्थुणं' करना । तनिजगतमें उद्योत होना, तथा सर्व संसारी प्राणी मात्रको थोडीदेर सुखकी प्राप्ति होना, वगैरह कार्यहोते हैं । यह अनादि मयार्दा आगमानुसार प्रसिद्ध ही है। यही सर्व कार्य आसोज वदी १३को भगवान त्रिशलामाता के गर्भ में आये तब उसीराज होनेका ऊपर के कल्पसूत्र के मूलपाठसे तथा उन्होंकी सर्व टीकार्य वगैरह बहुत शास्त्रोंके प्रमाणोंसे भी प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि देखो - आषाढ शुद्ध ६ को भगवान देवानंदामाता के गर्भमें आये तब उसी समय तो सिर्फ देवानंदामाताने १४ महा स्वप्न देखे सो अपने पति ऋषभदत ब्राह्मणको कहे, उनने स्वप्नोंके अनुसार उत्तम लक्षण वाला गुणवान् पुत्र होनेका कहा, सो बात अंगीकार किया और उसके बाद दोनो दंपति संसारिक सुखभोगते हुए काल व्यतीत करने लगे. इसप्रकार कल्पसूत्रादि सर्व शास्त्रों में लिखा है, मगर भगवान् देवानंदा माता के गर्भ में आषाढशुदी ६को आये, तब उसी रोज १४ महास्वप्न देखने के सिवाय इन्द्रका आसन चलायमान होनेका मनमुत्थुणं वगैरह कोईभी च्यवन कल्याणकके कार्य होनेका उल्लेख कल्पसूत्र व भगवान के चरित्र संबंधी किसीभी शास्त्र में देखने में नहीं आता. और त्रिशिलामाताके गर्भ में आसोज वदी १३ को भगबान आये, उसीरोज तो 'महापुरुष चरित्र' व ' त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' तथा कल्पसूत्र और उन्होंकी सर्व टीकार्ये वगैरह बहुत शास्त्रों के पाठोले प्रत्यक्षमेही 'नमुत्थुणं' वगैरह च्यवन कल्याणक के सर्व कार्य होनेका देखने में आता है. इसलिये कल्पसूत्र में जो 'नमुत्थुणं' होनेका पाठ है, सो. भाषाढ शुद्दी ६ के दिन संबंधी नहीं है, किंतु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] आसोज वदी १३ के दिन संबंधी है, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि देखो-इन्द्रमहाराजने भगवानको नमुत्थुणं करके अपने सिंहासन पर बैठकर, प्राचीन कर्म उदयसे देवानदाके गर्भमें भगवानको उ. स्पन्न होना पड़ा, ऐसा अच्छेरारूप विचारके हरिणेगमेषिदेवको आभाकरके आसोज वदी १३को त्रिशलामाताके गर्भमें भगवानको सं. क्रमण करवाये, इसलिये यह सबबातें आसोज वदी १३को उसी समय हुईहैं, इसलिये ८२दिन तकतो इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान नहीं होनेसे भगवान देवानंदाके गर्भमें उत्पन्नहुए हैं,ऐसा मालूमभी नहीं पडा,मगर संपूर्ण ८२ दिन गये बाद अवधिज्ञानसे. मालूम पडा; तब हर्षसे विधिपूर्वक नमस्कार रूप नमुत्थुणं किया और त्रि. शलामाताके गर्भ में पधराये । इसलिये त्रिशलामाताके गर्भमें आनेके दिन आसोज वदी १३ को नमुत्थुणं करनेका कल्पसूत्रादि आग. मानुसार प्रत्यक्षही सिद्ध होताहै,और तीर्थकर भगवान माताके.ग. में आकर उत्पन्न होवे, तब इन्द्रमहाराजको अवधिज्ञानसे मालूम पडे, उसी समय ' नमुत्थु णं' रूप नमस्कार करनेकी आगमानुसार अनादि मर्यादा है, मगर उस समय वहां सामान्य नमस्कार करने की मर्यादा नहींहै । इसलिये 'महापुरुष चरित्र' में और 'श्रीत्रिषष्ठिशालाका पुरुषचरित्र' के १० वे पर्वमे श्रीमहावीरस्वामिके चरित्रमे आसोज वदी१३को इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देवानंदाके गर्भमे देखकर नमस्कार किया ऐसा आधिकारहै, सो नमुत्थुणं रूप नमस्कार करनेका समझना चाहिये मगर सामान्य नमस्कार करनेका नहीं समझना। और तीर्थकर भग. पानके च्यवन समये इन्द्रमहाराज नमुत्थुर्णरूप नमस्कार हमेशा करतेहैं,तथा उसीसमय तीनजगतमै उद्योत,और सर्व जीवोंको क्षण. मात्र सुखकी प्राप्ति होती है,उन्हीकोही व्यवन कल्याणक मानते हैं, यही सर्व कार्य आसोज वदी १३ के रोज होनेका ऊपरके लेखसे आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसार सिद्ध होताहै.और समवायांग सूत्र. वृत्ति वगैरह आगमादि शास्त्रोंमें त्रिशलामाताके गर्भमें आसोज घ. दी १३ को भगवान आये उन्हींकोही तीर्थकर पनेके भवमें गिना है, इसलिये त्रिशलामाताके गर्भ में आनको आसोज वदी १३ के रोज दूसरा च्यवनरूप कल्याणक पना मान्य करना आत्मार्थी निकट भ. व्य जीवोंको उचितहीहै. जिसपरभी उनको कल्याणकपनेका निषेध करनेके लिये देवानंदाके १४ महास्वप्न त्रिशलासे हरण हुए हैं, इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] लिये घो कल्याणक नहीं होसकता. ऐसा कहनेवालोंकी बडी अशानता है, क्योंकि देखो - जैसे देवानंदाने मेरे १४ महा स्वप्न त्रिशला ने हरण किये ऐसा स्वप्न देखा, वैसेही त्रिशला भी मैने देवानंदा के १४ महा स्वप्न हरण किये हैं, वैसा सिर्फ एकही स्वप्न देखती और - च्यवन कल्याणक की सिद्धि बतलानेवाले नमुत्थुणं वगैरह अन्य कोईभी कार्य उसीरोज न होते तथा कल्पसूत्रमें भी "एए चउदस सुमिणा, सव्वा पासेइ तित्थयरमाया । जं स्यणि वक्कमई कुच्छिसि महायसो अरिहा" यहपाठ अनादि मर्यादामुजब त्रिशला संबंधी न कहकर देस्वानंदा संबंधी कहते और पार्श्वनाथस्वामिके तथा नेमिनाथस्वामिके च्यवन कल्याणक संबंधी उन्हों की माताओंने १४ महास्वप्न देखे, उसी समय इन्द्रकाआसन चलायमान हुआ, तबविधिपूर्वक हर्षसे नमुत्थुणं किया और प्रभातमें राजाओंने स्वप्न पाठकको बुलाकर स्वप्नोंका फल पूछा, तब स्वप्न पाठकोंने १४ महास्वप्न देखनेसे रागद्वेषको जितनेवाले जिने; त्रैलोक्य पूज्यनीक तीर्थंकर पुत्र होनेका कहा. इत्यादि च्यवन कल्याणकके कार्योंकी भलामणभी त्रिशला संबंधी न द्रेकर देवानंदा संबंधी देते. और आषाढ शुदी६ को ही नमुत्थुणं होने वगैरह उपरके तमाम कार्योंका उल्लेख कल्पसूत्रादिमें शास्त्रकार करते, व समवायांगसूत्रवृत्ति में अलग भवभी न गिनते और आसोजवदी१३को नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणक के कोई भी कार्य नहीं होते, तबतो त्रिशलाके गर्भ में आनेको च्यवनकल्याणक नहीं मानते तो भी चल सकता, मगर ऐसा नहीं है, और आषाढ शुदी ६ को नमुत्थुणं व. गैरह च्यवन कल्याणकके कार्य नहीं हुए, किंतु आसोज वदी १३को हुए हैं. इसलिये आसोज वदी १३को ही च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होने से उनको अवश्यही कल्याणकपना मान्य करना योग्य है। और स्वप्न हरण वगैरह के बहाने से कल्याणकपना निषेध करना सो अज्ञानता से शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करना योग्यनहीं है. और जन्म त्रिशलामाता के गर्भ से हुआ है, तथा च्यवनकल्याणक के सर्व कार्य भी त्रिश लाके गर्भ में आये तब हुए हैं, इसलिये त्रिशला के गर्भ में आनेरूप च्यवन माननाही आगम प्रमाण अनुसार और युक्तियुक्त है, च्यवन के सिवाय जन्मभी नहीं मान सकते. यह जगत विख्यात प्रसिद्ध न्यायकां बात है. त्रिशलाके गर्भ में आये तब अनादि मर्यादामुजब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य खास सूत्रकार ने लिखे हैं, जिस परभी उन्हों को उत्थापन करके अकल्याणकरूप ठहरानेके लिये उसबातको निंदनीक कहकर बाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] 1 जीवों को मिथ्यात्व के भ्रममेगेरनेका अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है. और जैसे-देवलोक से च्यवन हुए बाद तथा माता के गर्भ में अवतार लेनेबाद नमुत्थुणं वगैरह व्यवन कल्याणकके कार्य होते हैं, तो भी 'कारणमै कार्यका उपचार' होता है, इसलिये च्यवनसमय नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहनेमें आता है । तैसेही यद्यपि देवानंदामाताके गर्भ में नमुत्थुणं हुआ तो भी आषाढशुदी६के दिननहीं, किंतु आसोज वदी १३ के दिन हुआहै, तथा उसी समय त्रिशला माताके गर्भ'में जानेका होने से उन्हीके निमित्त भूतही 'कारणमें कार्यका उपचार' • मानकर त्रिशला माता के गर्भ में आने संबंधी नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है. और इन्द्रमहाराज भगवान्के विनयवान भक्त थे; इसलिये अवधिज्ञान से भगवान्‌को देखतेही उससिमय न. मुत्थु किया और त्रिशला माता के गर्भ में पधराये. यदि भगवान्को अवधिज्ञान से देवानंदामाता के गर्भ में देखकर त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये बाद पीछे सेनमुत्थुणं करते तो विनयभक्तिरूप मर्यादाकाभंग होता, इसलिये विनय भक्तिरूप मर्यादा रखनेकेलिये पहिले नमुत्थुर्ण किया और पीछे त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये देखो, जैसे कोई राजा महाराजा भगवान्का आगमनसुनने मात्रसेही हर्षयुक्त होकर उसीसमय उसी दिशा तरफ पहिले वहांसेही भगवान्को नमस्कारकरते हैं, और बाद में भगवान के पास वहां जाकर उचित भक्ति करते हैं । तैसेही इन्द्रमहाराज ने भी अवधिज्ञानसे भगवान को देखतेही वहांसे नमुत्थुरूप नमस्कार किया और त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये, बाद त्रिशला माताके पासमें आकर तीन जगतके पूजनीक तीर्थंकर पुत्र होनेका कहा और देवताओंको आशा करके धनधान्यादिककी वृद्धि करवाने वगैरह कार्योंसे भगवानकी उचित भक्ती करी । यह सर्व कार्य आसोजवदी १३के दिन हुए हैं, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार माननेसे नमुत्थुणं वगैरह तमाम कार्य त्रिशलामाता के गर्भ में आनेसंबंधी समझने चाहिये. जिसपर भी देवानंदा के गर्भ में नमुत्थुणं होनेका कहकर त्रिशला के गर्भ में आने संबंधी आसोज वदी १३के दिनको च्यवन कल्याणकपने रहित कहते हैं उन्होंकी अज्ञानता है । और जो बात नहीं बननेवालीहोवे; असंगतीरूप या असंभवित होवे, वोही बात कभी कालांतर में बनजावे, उन्हीं बातको शास्त्रोंमें आश्चर्य कारक अच्छेरारूप कहते हैं । इसलिये जिलबातको अच्छेरा कह दिया, उस बातमें अन्य शास्त्र प्रमाणकी मर्यादा बाधक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६९] SHREET नहीं हो सकती इसी तरहसे भगवानकेभी देवानंदा माता तथा त्रिशलामाता दोनोंका गर्भकाल मिलकर ९ महीने और ऊपर ७॥ दिन मानतेहैं, मगर देवानंदाके गर्भ में आनेको शास्त्रकारोंने अच्छेरा कहा है. और ८२ दिन गये बाद त्रिशलाके गर्भ में आनेको तीर्थकर पनेके भवमे गिनाहै, इसलिये देवानंदाके गर्भमे आये तब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य नहीं हुए, परंतु त्रिशलाके गर्भमे आये तबही च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य हुए हैं. तो भी देवानंदाके गर्भमें भगवान आये तंब माताने १४ महास्वप्न देखे,तथा ८२ दिनतक वहां विश्रामलिया और शरीर-इन्द्रीय-पर्याप्ति देवानंदामाताके शरीरसे बने हैं. इसलिये देवानंदाके गर्भमें आनेकोभी भगवानके प्रथम च्यवनरूप कल्याणक पना मानते हैं । और जैसे-मारवाड,गुजरात,दक्षिण, पूर्व वगैरह दे. शो में पुत्रको दत्तक [गोद ] लेनेमें आताहै, उनके पहिलेके मातापिता अलगहोते हैं और पीछेपालने पोषनेवाले दूसरे मातापिता अलगहोते हैं, इसलिये उनके दो माता और दो पिता कहने में कोई दोष नहीं आता, मगर नाम पीछवालोका चलता है । तैसेही भगवानकेभी दे वानंदाके गर्भले ८२दिन गये बाद आश्चर्यरूप त्रिशलाके गर्भमें आना पडा, उससे दो माता तथा दो पिता और दो च्यवन कल्याणक मा. ननेमें आते हैं. इसलिये दोनों माताओंका गर्भकाल मिलकर ९महीने और ७॥ दिन हुए हैं, तो भी दो च्यवन कल्याणक मानने में कोई भी शास्त्र बाधा नहीं आ सकती और कोई कुयुक्ति व वितर्कभी बाधकन ही होसकती, इस बातको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचार सकते हैं। इन सर्वबातोका विशेषनिर्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इस ग्रंथमें अच्छीतरहसे सर्व शंकाओंका निवारणपूर्वक खुलासा होचकाहै, यहां तो उसका संक्षिप्तसार बतलायाहै,और विशेष निर्णय क. रनेकी अभिलाषावाले तत्त्वसारग्रहण करनेवाले पाठकगण इस ग्रंथ. को संपूण वांचेगे तो सर्वबातों का खुलासा अच्छी तरहसे होजावेगा विवादवाले विषयों संबंधी अभिप्राय. : तपगच्छके श्रीमान् विजयधर्मसूरिजोके शिष्य श्रीमान् रत्न. विजयजीने विवादवाले विषयों संबंधी पौषशुदी३बुधवार,श्रीवीरनि. ण संवत् २४४३ के जैन शाशन पत्रके पृष्ठ ५८८ में श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी परंपरासंबंधी उपकेशगच्छ (कवलागच्छ) की हकीकत छपवाया है, उसका थोडासा उतारा यहांपर बतलाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०] • "श्रीरत्नप्रभमूरिजीकृत सामाचारीमा लख्युंछे के.पुष्पवती थया. बाद स्त्रीने पूजा नहीं करवी. आंबिलमा २-३ द्रव्य कल्पे. तथा देवगुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रनी टीकामां ६ कल्याणिक लख्यां छे,पजोस. णा ५० दिवसे करवा इत्यादि " तथा " वीर प्रभुना २८ भव लख्या छ, सुधर्मा, जंबु, प्रभव, सिजंभव ए चारना ८४ शाखा, ४५ गण, ८ कुल थया. आ सामाचारी तथा कल्प टीका हालनां गच्छोथी घणी प्राचीन बनेली छे, प्राचीन समयी ६ कल्याणिक, स्त्री पूजा निषेध विगेरे प्रवृत्तिओ चाली आवीछे, जिनदत्तसूरिजी, जिनवल्लभसूरिजी विगेराने लोको खाली निंदे छे, नबुं कोईए कर्यु नथी. पजोषण जे. वा वतिराग पर्वमां कल्पसूत्रना मांगलिक व्याख्यानमां चतुर्विध श्रीसंघमां अकारण कलह करी जैनभाईयोनां अंतकरण दुभावी ध. मनी निंदा करावी वर्षावर्ष अनी ओ वातने ' अभूतभावच्चि' करीने किंतुना कलासमा दाखल करवी, ए कोई रीते इच्छवा योग्य नथी, शासन प्रेमी महाशयो आ बाबत बराबर समजी गया हशे, [अयं निजपरोवेत्ति, गणनालघु चेतसा । उदार चरितानां तु,वसुधैव कुटुंबकम्' ॥१॥] आमा 'वसुधैव कुटुंबकं' ए वाक्य अत्यंत श्रेष्ट छे पण अने बदले 'सर्व गच्छ कुटुंबकं एबुं बनो,एज प्रार्थना, याचना अने सलाह"यहीलेख उसीअरसेमे जैनपत्रमेभी प्रकाशित होगयाहै औरभीजेठवदिबुधवार वीर सं०२४४४ के जैनशासनपत्रकेपृष्ठ१६८ में श्रीरत्नविजयजीने पर्युषणामै समभावरखनेसंबंधी लेख छपवाया. था,उसमेसे थोडासाबतलातेहै."दरेकगच्छनीपट्टावलीजुओ,तेमांपर स्पर पठनपाठन साथे रहेता,वंदनादि व्यवहार करता,विनयमूल ध. मनी पुष्टि करनाराहता,आजे विरोधभाव करनारा बीकनथीराखता. खरतरगच्छना आचायोने सत्कारआपनारा तपगच्छना साधुओहता अने तपगच्छनाआचार्योने बहुमान आपनारा खरतरगच्छनासाधुओ हता, तपगच्छनां जेवा परम प्रभाविक पुरुषो थयाछे.तेवाज खरतर गच्छमां परम प्रभाविक पुरुषो थया छे.जिनदतमरिजी, जिनकुशल सूरिजी जेणे सवालाखनवा जैनो बनाव्या,हजारोराजा महाराजाओने जैन धर्म अंगीकार कराव्यो, हजारो क्षत्रीयोने ओसवाल बनाव्या, जिनचंद्रसूरि,जिनहर्षसूरि जिनप्रभसूरि आदि अनेक प्रभाविक पुरुषो थया. तेवा महा पुरुषोना अवर्णबाद बोलवा,आवते भवे जीभ पाम वी मुश्किल छे. उपकारी नो उपकार रदी करवो महा भयंकर पाप छे, एक खास मुद्दो तपाशोके आजे साधुओ वखाणमा टीकाओ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१] . वांचेछे तथा चरित्रोनां चरित्रो वांचेछे, ग्रंथो वांचेछे ते घणेभागे खरतर गच्छना बनावेला ग्रंथो छ, परस्पर गच्छवालाओ वांचे छे सर्व गच्छवालाओ श्रद्धाथी सांभले छे 'पुरुष विश्वासे वचन वि श्वास' जेना बनावेला पुस्तको हाथमां लई सन्मुख धरी वांचो छो, अने मोढेथी तेज आचार्योनी बद बोई कराय. आजे दादा साहेबने मानवा वाला चरण पादुकाना दर्शन करनारा तपगच्छवाला हजारो भाविक भक्तो छ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुखने माननारा स्व. रतरमच्छना हजारो भाविक भक्तोछे. आवा शंभु मेलामां खाली वि. क्षेप पेदा करवाथी कोईन कल्याण थवानुं नथी " इत्यादि. - देखो-ऊपर मुजब खास तपगच्छके श्रीरत्नविजयजीके लेखपर खूब दीर्घ हाष्टसे विवेकपूर्वक विचार किया जावे, तो श्रीपार्श्वमाथस्वामिकी परंपराके श्रीदेवगुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रकी प्राचीन टीका वगैरह शास्त्रानुसार पहिले पूर्वाचार्योंके समयसेही श्रीवीर प्रभुके २८ भव, तथा छ कल्याणक मानने वगैरह बाते प्रचलीतही थी. उन्हीके अनुसार श्रीजिनवल्लसूरिजी वगैरह महाराजोंने चैत्यपासियोंको हटाते हुए, भव्य जीवोंके सामने विशेषरूपसे प्रकटपने कथन की है। परंतु शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणा नहीं की, जिसपरभी आगमप्रमाणोंको उत्थापन करके शास्त्रकार महाराजोंके. अभिप्रायको समझे बिना अपनी मतिकल्पनासे शास्त्रपाठोंके खोटे खो टे अर्थ करके नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेका झूठा दोष लगाते हैं. सो प्रत्यक्षपणे मिथ्याभाषणकरके अपने दूसरे महावतका भंग करना और भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरना सर्वथा अनुचितहै। और श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्तभूरिजी महाराज जैसे शासन प्रभावक परम उपकारी पुरुषोंने, चैत्यवासियोंकी उत्सूत्रप्रकणाके तथा शिथिलाचारके मिथ्यात्वको हटाया, और क्षत्री-बारणादि लाखो अन्य दर्शनियोंको प्रतिबोधकर जैनी श्रावक बनाये, उ. म्होंकीही वंश परंपरा वाले अभी वर्तमानमेंभी गुजरात, कच्छ, मा. रवाड, पूर्व, पंजाब,दक्षिणादि देशोंमें लाखों जैनी विद्यमान मौजूद हैं। इसलिये उन महाराजोने परंपराके हिसाबले करोंडो जीवोंकों सम्यक्त्व प्राप्त कराने संबंधी बडाभारी महान् उपकार किया है। तथा विद्या मंत्र, देवसाह्य,व संयमानुष्ठान-आत्मशक्ति प्रकाशित कर. के बहुत बडीभारी जैनशासनकी प्रभावना करी. उन महाराजोंके प्रतिबोधे हुए श्रावकोकी वंश परंपरावाले भावकोसेही, वर्तमानिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२] सवगच्छवाले बहुतसाधुमोको आहार, पानी, तथा संयम उपकरणोंसे निर्वाह होता है। ऐसे महान् शासन प्रभावक परम उपकारी महाराजोने पूर्वाचार्योंकी प्रवृत्ति मुजब तथा आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसारही सत्य प्ररूपणाकरी है, मगर शास्त्राविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणानहींकरी . जिसपर भी कितनेक पक्षपातीजन उपकारी महाराजोके उपकारोंको छुपा देते हैं, और छठे कल्याणक प्रकटकरनेकी तथा स्त्रीपूजा निषेधकरने की नवीन प्ररूपणाकरने का झूठा दोषलगाकर अनेक तरहले निंदा करते हुए आक्षेप करते हैं। उन्होको परभवमे जीभ मिलना मुश्किल है यहबात तपगच्छवालेही गुणानुरागी मध्यस्थ भावसे लिखते हैं। अर्थात् ऐसे उपकारोंको भूलकर झूठा दोष लगाकर निंदा करनेवाले एकेन्द्रिय होवेंगें, फिर उन्होको जैनधर्म प्राप्त होना बहुत मुश्किल होवेगा, संसारमे बहुत काल परिभ्रमण करेंगे. इसलिये भवभिरु आत्मार्थी भव्य जीवोंको संसार परिभ्रमण के हेतुभूत उपकारी पुरुषोंकी झूठी निंदा करके भोले जीवोकों मियत्वमें गेरनेरूप अमर्थ करना सर्वथा अनुचित है । और ऊपरके लेखसे श्रीरत्न विजयजीके लेखमुजब तपगच्छके तथा खरतरगच्छके आपस में विशेषरूपसे संप की वृद्धि होना चाहि य और कुसंपके कारण भूत पर्युषणामें खंडनमंडनके विवाद वाले विषयोंकों सर्वथा त्याग करके संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में कटि बद्ध होना, यही अपने और दूसरे भव्यजीवों केभी आत्म कल्याणका हेतु है । ऐसी ही श्रद्धा तथा प्ररूपणा और प्रवृत्तिका शुद्ध हृदयसे व्यवहारकरके उपकारी पुरुषोंकी झूठीनिंदा छोडकर; प्राचीन पूर्वाचायकी परंपरामुजब शास्त्रानुसार आषाढ चौमाली से ५० दिने दूसरे श्रावण या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा पर्वका अराधन करके तथा श्री महावीर स्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकोंको आगमानुसार भावपूर्वक मान्य करके भगवान्की आज्ञानुसार धर्मकार्यों से निज और परका कल्याणकरो, संसार परिभ्रमण के दुःख से छुटो, और अक्षय सुख प्राप्त करो. यही आत्मिक हृदयकी विशुद्ध प्रेम भावसे आत्महितैषी पाठक गण भव्य जीबोंके प्रति प्रार्थना है. इति शुभम् . विक्रम संवत् १९७७, प्रथम श्रावण शुदी १३ बुधवार ० हस्ताक्षर - श्रीमान् उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके लघुशिष्य - मुनि - माणिसागर. जैन धर्मशाल, धुलिया - खानदेश. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः | दूसरे भागकी पीठिका इनको भी पहिले अवश्यही वांचिये. अब हम यहां पर दूसरे भागकी पीठिकामै न्यायरत्नजी शांतिविजयजी संबंधी थोडासा लिखते हैं, जिसमें ३ वर्ष पहिले दो भाद्रपद होने से पर्युषण पर्व प्रथम भाद्रपद में करने या दूसरे भाद्रपदमै, इस विषयकी मुंबई शहर में चर्चा खूब जोरशोर से दोनोतरफसे चली थी. उस समय मैने भी 'लघुपर्युषणा निर्णयका प्रथमअंक' नामा छोटासी पुस्तकमें मुख्य २ सर्व बातें की शंकाओं का समाधान अच्छीतरह से - लिख दिया था. वह पुस्तक एक श्रावकनेछपवाकर प्रसिद्ध करीथी. उस पर न्यायरत्न जीने उनपुस्तककी शास्त्रानुसार सत्य२ बातोंकों ग्रहण तो नहींकरी और मैरे सबलखाको अनुक्रमसे पूरेपूरे लिखकर पीछेउनसबका जबाब देने की भी ताकत न होनेसे जानबूझकर कुयुक्तियों से अनेक बातें शास्त्रविरुद्ध लिख कर 'पर्युषण पर्वनिर्णय' तथा 'अधिकमास निर्णय' में प्रकटकरीथी. उसपर मैने उन दोनों पुस्तको की शास्त्रविरुद्ध बातीसंबंधी शास्त्रार्थसे सभा में निर्णय करनेकेलिये न्यायरत्नजीको जाहिररूपसे छपवाकर सूचना दीथी. उसका लेख नीचे मुजब है. विज्ञापन, नं० ७ न्यायरत्नजी शांतिविजयजी सावधान ! शास्त्रार्थके लिये जलदी तैयार हो. मैंने आपको शहर पुणामें शास्त्रार्थ संबंधी विज्ञापन नंबर १-२-३-४ भेजे थे और वर्तमानिक पर्युषणाकी चर्चासंबंधी आपकीबनाई ' पर्युषण पर्वनिर्णय ' किताब " शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्ध, जिन आशा बाहिर और कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवाली है, " यह सूचना विज्ञापन नंबर पहिलेमें लिखकर इसका वि शेष खुलासा मुंबईकी सभा में शास्त्रार्थ द्वारा करनेके लिये आपको आमंत्रण किया था और श्रीकच्छी जैन मेसोसीयन सभानेभी सब मु. निमहाराजों की तरह आपको भी पर्युषणाका निर्णय करने संबंधी वि. मतीपत्र भेजाथा, जिसपर भी आपने मुंबई में शास्त्रार्थकरना मंजूर न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७४] किया और दूसरोपर गेरकर मौनही करबैठे, तथा दूरसेही फिर " अधिकमासनिर्णय" की छोटीसी किताब छपवाकर प्रगटकी उसके बाद थोडे रोज पीछे आप मुंबई दादर आये, तब मैंने आपको दोनों किताबों संबंधी शास्त्रार्थकरनेकी सूचना पत्रद्वारा दीथी उसकी नकल नीचे मुजब है :__"श्रीदादर मध्ये श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्री. मुंबईवालकेश्वरसे मुनि मणिसागरकी तरफसे सूचना. मैंने कलरात्रिको आपके दादर आनेकासुनाहै उससेआपको सूचनादेताहूं,कि-आप ने “ पर्युषणापर्व निर्णय" और " अधिकमासनिर्णय" दोनोंपुस्तकोमें बहुत जगह शास्त्रविरुद्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणारूप लिखाहै, आपने दोनोंपुस्तकों में सर्वथा शास्त्रविरुद्ध और कल्पित बातोंकाही संग्रहकियाहै, इसलिये हम सभामे शास्त्रार्थ से आपकी दोनो पुस्तके जिनाशाविरुद्ध सिद्ध करनेको तैयारहे, शास्त्रार्थ किये बिना आप चले जावोंगे तो झूठे समझे जावोंगे, विशेष क्यालि, शास्त्रार्थका विज्ञापन नं. १ आपको पहिलेभी भेज चुका हूं, कल दादर आढुंगा. आप जाना नहीं. इसका उत्तर अभाही लालबागमें आदमीके साथ पीछा भेजना में लालबाग जाताई, हस्ताक्षर मुनि-मणिसागर, पौष शुदी १ रविवार, सं० १९७४."इस मुजबपत्र पौषशुदी१ को आदमीभेजकर आपकोपहुंचाया,और दूजके दिन खास मैं और मुनि श्रील. ब्धिमुनिजी, तथा अंचलगच्छीय मुनि दानसागरजी और केवल. चंदजी चारोही ठाणे दादर आये, और शास्त्रार्थ करनेका आपसे. कहा, तब आपने भी अन्य मुनियोंकी तरह आनंदसागरजीकी आडलेकर दो महीनोबाद शास्त्रार्थकरनेका कहाथा,सो २महीनेकी जगह ४ महीने होगये, अब जलदी करो. आनंदसागरजी तो आडी आडी बातोसे दूसरेका नाम आगे करते हैं, अपना नामसे लिखतेभी डरते है, तो सभामे नियमानुसार क्या शास्त्रार्थ करेंगे, और आपने कि ताबे बनवानेमें किसी आगेवानोंकी व आनंदसागरजी वगैरह मुनि योकी आडन ली, तो फिर उसका खुलासा करनेमें दूसरोकी आड. लेते हो-यही आपका अन्याय समझा जाताहै. वालकेश्वर में जबहमारे गुरुजी महाराजकेसाथ आपकी मुलाकात हुईथी, तबभी झगडीया वगैरह तीर्थयात्राको जाकर आये बाद शास्त्रार्थ करने का मंजू. र कियाथा, सो आप यात्राकरके आगये, अब आमनेसामने या लेख. द्वारा वा सभामें आपकी इच्छाहो वैसे शास्त्रार्थ करना मंजूरकारये, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] और विशेष सूचनायें विज्ञापन, नंबर ६ से समझ लीजिये. और नि. यमभी जो आपकीइच्छा हो सो प्रतिज्ञापत्रके साथ १५ दिनके भीत. रप्रगट करीये, आनंदसागरजी, विजयधर्मसूरिजी, विद्याविजयजी वन्यायविजयजीकी तरह आडीआडी बाते निकालकर शास्त्रार्थ क. रना मजूर न करोगे,तो-आपकीभी हार समझीजावेगी. अथवा श्री. कच्छी जैनएसोसीयनकी विनतीके अनुसार व मेरे विज्ञापनोक अ. नुसार यदि आपको मुंबईमें ठहरकरसभामे शास्त्रार्थ करने में अनुकू. लतानहो तो लीजिये चलिये-लेख द्वाराही सही, मगर विज्ञापन नं. बरद मुजब प्रतिज्ञा वगैरह नियमोके साथ उत्तर दीजिये. देखो न्यायरत्नजी मैरे बनाये लघुपर्युषणानिर्यय के प्रथम अंक 'के सब लेखोंका न्यायसे पूरेपूरा उत्तर देनेकी आपमें ताकत नहीं है, य. दि होती तो उसके पृष्ठ३-४-५.६.७ और १०में अधिकमासमें सूर्यचा. र न होवे, वनस्पति न फूले, वैगरह सुबोधिकाकी ११बातोका खुलासा मैने लिखाथा. उनसबको लिखकर अनुक्रमसे पूरा उत्तर क्यों न दिया,यदि भूल गयेहो, तो अभीही देवो । और पृष्ठ १७ के अंतके पाठका खुलासाभी साथही करो ॥ और मैने 'लघुपर्युषणा निर्णय' में निशीथचूर्णि और दशवकालिक बृहदुवृत्तिके पाठसे अधिकमास. को कालचूला कहकरकेभी दिनोंकी गिनतीमेलेनेका सिद्धकर दिखा. याहै, इसलिये दिनोंकीगिनतीमें निषेधनहींहो सकता, देखो-लघुपयुषणानिर्णयके पृष्ठ २४-२५ ॥ और लौकिक शास्त्रानुसारभी अधिकभासको दिनोंमें गिनाहै, देखो-लघु पर्युषणानिर्णय के पृष्ट २८-२९ ॥ और अधिकमासमें मुहूर्तवाले शुभकार्य न होवें, उसीतरह चौमासे. में, सिंहस्थमें,गुरुशुक्रके अस्तमें, पौष चैत्र मलमासमें, क्षयमासमें, वदीपक्षकी १३.१४ और अमावास्या इन तीनक्षीणतिथीयोंमें,और वै. धृति-गंडांत-व्यतिपात-भद्रा वगैरह कुयोगोंमें, तिथी, वार, नक्षत्र चंद्रादि बहुत मास-पक्ष-वर्ष-दिन वगैरह योगों मेंभी मुहुर्तवाले शुभ. कार्य न होवे, देखो-ज्योतिःशास्त्रे “जभारिति पुरोहिते हरिगते,सुप्ते मुकुंदेविभौ । जातेधर्मघने धनशफटयोः क्षीणे कुवारस्तिथिः॥ अस्ते. भार्गव जीवयोः कुदिने, मासाधिके वैधृतौ । गंडांते व्यतिपात विष्टि. क शुभं, कार्य न कार्य बुधैः ॥१॥" मगर दान, शील, तप, भाव, सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रेषिघ वगैरह. धर्मकार्य अधिक मासमे भी होसकतेहै। उसी तरह पर्युषणापर्वभी दिन प्रतिबद्ध होनेसे अधिक मासमें करने में कोई बाधा नहीहै । देखो लघुपर्युषणा निर्णयके पृष्ठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] २७-२८ ॥ और मासवृद्धि होनेपर भी पर्युषणा के पिछाडी ७० दिन र• हनेका किसीभी शास्त्र में नहीं लिखा, समवायांगका पाठ तो मास बृद्धिके अभावका है, इसलिये अधिकमास होनेपरभी ७० दिन रहनेका - कहना शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्ध होनेसे मिथ्या है, देखो लघुपर्युपण निर्णय के पृष्ठ १८-१९-२० २१ ॥ इसीतरहसे दोनों आषाढ वगैरहका खुलासाभी लघुपर्युषणा के पृष्ठ २५-२६ में अच्छी तरहसे दिख. ला दिया था । जिसपर भी न्यायरत्नजी आपने मेरे लेखोंका आगे पीछेका संबंध तोडकर मैरे अभिप्रायके विरुद्ध होकर अधूरे अधूरे लेख, भोलेजीवोंको दिखलाकर अपनी दोनों किताबों में आप वारंवार अधिक महीने के दिनोंको गिनतीमेंसे उड़ा देनेकेलिये कोईभीशास्त्रकापाठ बतलाये बिनाही, और लघुपर्युषणा के पृष्ठ २७-२८ का लेखको पूरा विचारे बिनाही, ' अधिकमासनिर्णय' के दूसरे पृष्ठकी आदिमें आप लिखते होकि 'अधिकमहिने में विवाह सादी वगेरा कामनहीकि० जाते, दीक्षा प्रतिष्ठा वगैरा धार्मिक कामभी अधिकमहीने में नहींकिये जाते, फिर पर्युषणापर्व जैसा उमदापर्व अधिकमहिने में कैसेकियाजाय. ' तथा ' पर्युषणापर्व निर्णय ' के मुख्यपृष्ठ परभी 'दीक्षा प्रतिष्ठा और दुनियादारीके विवाह सादी वगेराकाम अधिकमहीने में नही किये जाते, तो फिर पर्युषणापर्व जैसा उमदापर्व कैसे किया जाय ' यह दोनों लेख आपके जिनाशाविरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपणारूपही हैं. यदि मुहुर्त्तवाले दीक्षा प्रतिष्ठा व संसारी विवाह सादीकी तरह पर्युषणा भी आप मानोंगे, तबतो चौमासेमें, तथा १३ महीनों तक सिंहस्थवाले वर्षमै भी पर्युषणा करनाही नहीं बनेगा, मगर शास्त्रों में तो चौ मासेमेही और सिंहस्थवाले वर्ष भी वर्षा ऋतुमेही दिनोंकी गिनती से५०वेदिन अवश्यही पर्युषणा करना कहा है, मुहूर्त्तवाले विवाहसादी वगैरह लौकिक कार्यों के साथ, बिना मुहूर्तवाले लोकोत्तर पर्युषणाप का कोईभीसंबध नही है. सिंहस्थ, अधिकमास, क्षयमास, गुरु शुक्रका अस्त, चौमासा, व्यतिपात, भद्रा, और चंद्र व सूर्य ग्रहण वगैरह कोई भी योग पर्युषणा करने में बाधक नही होसकते, इसलिये आपका उत्सू त्र प्ररूपणाका और प्रत्यक्ष अयुक्त व मिथ्यालेखको पीछा खींच लीजिये और मिच्छामिदुक्कडं प्रकट करिये, नहीं तो सभामें सिद्ध क रने को तैयार हो जाइये ॥ १ ॥ औरभी आपने ' मानव धर्म संहिता के पृष्ठ ८०० में लिखा है कि " अगर अधिकमास गिनती में लियाजाता हो तो पर्युषणापर्व दूसरे वर्ष श्रावणमें ओर इसतरह अधिकम 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७] हीनोके हिसाबसे हमेशां उक्त पर्व फिरते हुए चले जायेगे जैसे मु. सल्मानोके ताजिये- हर अधिकमासमें बदलतेहै" यह लेखभी उ. त्सुत्र प्ररूपणारूपहीहै, क्योंकि जिनेंद्रभगवान्ने अधिकमहीना आने परभी वर्षाऋतुमेही पर्युषणा करना फरमायाहै, मगर वर्षाऋतुविना माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाखमें शरदी व धूपकालमें पर्युषणा करना नहीं फरमाया, जिसपरभी आप अधिकमहीनाके ३० दिन उडा दे. नेकेलिये मुसल्मानाके ताजियोंके दृष्टांतसे हर अधिक महीनेके हि. साबसे बारोही महीनों में [ छही ऋतुओंमें ] पर्युषणा फिरते हुए च. ले जानेका बतलाते हो, सो किस शास्त्र प्रमाणसे उसकाभी पाठ ब. तलाइये, या अपनी भूलका मिच्छामि दुक्कडं दीजिये, अथवा सभामें सत्य ठहरनेको तैयार हो जाईये ॥२॥ और भी 'पर्युषणापर्व निर्णय' के मुख्यपृष्ठपर 'अधिकमहीना जिसवर्ष में आवे उसवर्षका नाम अभिवर्द्धित संवत्सर कहते हैं और वो अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह महीनोंका होता है, मगर अधिक महीना कालपुरुषकी चूला यानी चोटी समान कहा इसलिये उसको चातुर्मासिक- वार्षिक और क. ल्याणिकपर्वके व्रत नियमकी अपेक्षा गिनतीमे नही लियाजाता' तथा 'अधिकमास निर्णय' के प्रथम पृष्ठके अंतमें 'अधिक महीना काल. पुरुषकी चूला यानी चोटीसमानहै, आदमीके शरीरके मापमें चोटी. का माप नहीं गिनाजाता, इसतरह अधिक महीना अच्छे काममें न. ही लियाजाता' इस लेखसे अधिक मासको केशोंकी चोटी समानकहतेहो और गिनतीमें लेना निषेध करते हो सोभी सर्वथा जिनाशा विरुद्ध है, देखो-चोटी तो १०-२० अंगुल, अथवा १-२ हाथ लंबी. भी होसकतीहै,व नहीं भी होतीहै. और शरीरके मापने चोटीका कुछभी भाग नहीलियाजाता, इसीतरह यदि अधिकमासभी चोटी स. मान गिनतीमें नहीं लियाजाता तो फिर उसको गिनतीमें लेकर १३ महीनोंके, २६ पक्षोके,३८३दिनोंका अभिवति संवत्सर क्यों कहा? देखिये-जैसे पर्वतोकेशिखर और घास एकसमाननहीं है तथा मंदिरोकेशिखर और ध्वज एक समाननहींहै. तैसेही चूला याने शिखरऔर चोटीएकसमाननहींहै इसलियेचोटीकहोंगे तो गिनतीनहीं और गिनतीमे लेवोंगे तो चोटी समाननहीं. चोटीकहोंगे तो अभिवर्द्धित संवत्सर कैसे बना सकोगे? इसको बिचारो, अधिकमासको चोटो समान कहकर गिनतीमे छोडना किसीभी जैनशास्त्र में नहीं कहा, निशीथचूर्णि व दशवैकालिक वृत्तिमें कालचूला याने शिखरकहाहै, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] और गिनती भी लिया है, देखो लघुपर्युषणा के पृष्ठ २५ में. इसलिये शिखरको छोटी कहना और गिनती में छोड देना बडी भूल है ॥ ३ ॥ इसीतरहसे अधिक महीने में धर्म, ध्यान, व्रत, पञ्चख्खान, तप, जप, चौमासी, पर्युषणा, कल्याणकादि धर्म कार्य निषेध करना ॥ ४ ॥ वर्तमानिक आवण, भाद्रपद, आश्विन बढने पर भी समवायांग सूत्रवृत्ति कारका अभिप्राय को समझे बिनाही पीछे ७० दिन ठहरनेका आग्रह करना || ५ || श्रावण - पौष बढनेपर एक महीने में कल्याणिक मा नने से दूसरे महीनेको छुटने का कहकर अधिकमासके ३० दिन उडादेना ॥ ६ ॥ दो आषाढ होनेपर प्रथम आषाढको कालचूला ठहराना ॥ ७ ॥ दुसरे आषाढमें चौमासी करने से प्रथम छुट जाने का क हना ॥ ८ ॥ और नवतत्त्व - षव्य के स्वरूपकी तरह चंद्र और अभिवर्धित दोनो वर्षौंका समानही स्वरूपकहा है, तथा दोनोंसेही मा स पक्ष तिथि वर्ष वगैरहका व्यवहार चलता है, तिसपरभी दिनोंकी गिनती के विषय में दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाकी चर्चा में विषयांतर करके मास व ऋतु प्रतिबद्ध कार्योंको दिखलाकर अधिकमासके दिन गिनती में छोड़ देना || ९ || अधिकमास आनेसे ५० वें दिन पर्युषणा पर्व करनेको जैनशास्त्र खिलाफ ठहराना ||१०|| और पंचाशक के पूर्वा पर संबंधवाले संपूर्ण सामान्य पाठको छोडकर शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय को समझेबिना थोडासा अधूरा पाठ भोलेजीवोंको दि. खलाकर, वीरप्रभुके विशेषतासे आगमोक्त छ कल्याणकोका निषेध करना ॥ ११ ॥ और सुबोधिकाकी तरह समय सुंदरोपाध्यायजी कृतकल्पलतामे खंडन मंडनका विषय संबंधी कुछभी अधिकार नही है. तो भी झूठा दोष आरोप रखना ॥ १२ ॥ इत्यादि अनेक बातें आपकी दोनों कीताबों में शास्त्रविरुद्ध व प्रत्यक्ष मिथ्या और बालजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवाली भरी हुई हैं, उसका लेख द्वारा या सभा में निर्णय करने को तैयार हो जाईये, मगर झुंठेको क्या प्रायश्चित देना वगैरह नियम होने चाहिये. वीरानिर्वाण २४४४, विक्रमसंवत् १९७५, वैशाख वदी १२, हस्ताक्षर - मुनि - मणिसागर, लालबाग, मुंबई. उपर मुजब छपा हुआ विज्ञापन न्यायरत्नजीको पहुंचाया मगर उसमें लिखेप्रमाणे सभामें आकर शास्त्रार्थ करनेका मंजूर नहीं किया तथा इन विज्ञापन में बतलाई हुई उत्सूत्र प्ररुपणारूप अपनी भूलोंको सुधारनेकाभी प्रकट नहीं किया, और शास्त्रप्रमाणसे साबित करके भी बतला सकेनहीं. सर्वथा मौनकरबैठे तब हमने उनकीहारका विशापन छपवाकर प्रकाशित कियाथा सो नीचे मुजब है ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [08] विज्ञापन नं ०९ न्यायरत्नजी शांतिविजयजी हार गये ! सत्याग्राही पाठकगणसे निवेदन कियाजाताहै, कि - न्यायरत्नजी शांतिविजयजी को पर्युषणा बाबत सभा में शास्त्रार्थ करनेके लि ये मैंने विज्ञापन नं.७ वेंमें सूचना दीथी, उसमें १५ दिनके भीतर शास्वार्थ करना मंजूर न करोंगे, तो आपकी हार समझी जावेगी, यह बात खुलासा लिखीथी. और वैशाख शुदी १०को विज्ञापन नं. ७-८ के साथ १ पत्रभी उनको डाक मारफत रजिष्टरी द्वारा 'ठाणे' भेजाथा, उसमें १५ दिनकी जगह २० दिनका करार लिखाथा, उसको आज २२ दिन होगये, तो भी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करना मंजूर नहींकिया और वैशाख शुदी १३ को फिरभी दूसरा पत्र भेजाथा उसमें हमने ठाणेही शास्त्रार्थ करना मंजूर कियाथा. उसकाभी कुछभी उत्तर न मिला और लेखद्वारा शास्त्रार्थ शुरू करने के लिये प्रतिज्ञापत्र व साक्षी वगैरह नियमभीप्रगटनहीं किये. इससे मालूम होता है कि, न्यायरत्नजी में न्यायानुसार धर्मवादका शास्त्रार्थकरनेकी सत्यता नहीं है, इसलिये चुप लगाकर बैठे हैं, उससे वो हारगये समझे जाते हैं. पाठकगणको मालूम होनेके लिये दोनों पत्रोंकी नकल यहां बतलाते हैं. प्रथम पत्रकी नकल " श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी विज्ञापन नं० ७-८ भेजता हूं. लघुपर्युषणा निर्णयके सत्य सत्य लेख छोडदिये और मैंरे अभिप्रायविरुद्ध उलटा उलढाही लिखमारा, वैसा अब न करना. सबका पूरा उत्तर देना, आजसे १५-२० दिन तकमें वैशाख शुदी १० सोमवार. हस्ताक्षर मुनि - मणिसागर. " दूसरे पत्रकी नकल "श्रीठाणा मध्ये न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्रीमुंबई से मुनि-मणिसागरकी तरफ ले सूचना. १- आप ठाणेमें शास्त्रार्थं करना चाहते हो तो, हम ठाणे भा नेकोभी तैयार हैं. मगर विज्ञापन नं० ६ की ३-४-५ सूचना मुजब नियम मंजूरकरो और कल्पसूत्रकी कौन२ प्राचीनढीका आप मानते हो उत्तर दो, ठाणेकी कोटवाली में शास्त्रार्थ होगा. २ - शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघको व आगेवानोंको बीचमें लाने की कोई जरूरत नहीं है, आप संघको बीच में लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीच में पड़े और न हमारी पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] ताकत हो तो मुंबईकी पोलीस चौकी कोटवाली में शास्त्रार्थ कर नेको आवो, दूरसे कागज काले करके मनमानी आडी२ लंबी चौडी झूठी झूठी बातें लिखकर भोलेजीवको भरमानेका काम नहीं करना. ३- दोनों को सब लेख सिद्ध करके बतलाने पड़ेंगे. उसमें झूठेको क्या आलोयणा लेनी, सो लिखो. वैशाख शुदी १३. " न्यायरत्नजी आपकी धर्मवाद करने की ताकातहोती तो इतने दिन मानकरके क्यों बैठे, खैर ! ! ! जैसी आपकी इच्छा. मगर याद रखना सभामे योग्य नियमानुसार शास्त्रार्थ न करना, और अपने झूठे पक्षकी बात रखने के लिये वितंडावाद करना या सामने न आकर सा. क्षि व प्रतिज्ञा बिनाही दूरसे कागज काले करते रहना और विषयांतर व कुयुक्तियों से उत्सूत्रप्ररूपणाकी आपकी दोनों कीताबें सी बनाना चाहो सो कभी नहीं हो सकेगा, किंतु इसके विपाक भवांतर में अवश्य ही भोगने पडेगे. मरीचि ओर जमालिसे भी आपका उत्सूत्र बहुत ज्यादे है, आत्महित चाहते हो तो हृदयगम करके प्रायश्चित्त लेवो, उससे श्रेय हो. तथास्तु. सं० १९७५ ज्येष्ठ शुदी २ सोमवार. हस्ताक्षर मुनि मणिसागर. इसप्रकार उपरमुजब लेख प्रकट होने से न्यायरत्नजी 'झूठे हैं इस. लिये खुप लगाकर बैठे हैं' इत्यादि बहुत चर्चा होने लगी तब अपनी झूठी इज्जत रखनेकेलिये १ हैंडबलि छपवाया उसमें लिखाया कि, • सभा हुईनहीं शास्त्रार्थ हुआनहीं फिर हारजीत कैसे होसके ' इसके जवाब में हमनेभी विज्ञापन १०वा छपवाकर उनके लेखका अच्छीतर. इसे खुलासा कियाथा वो लेखभी नीचे मुजब है: :-- विज्ञापन, नंबर १०. श्री तपगच्छके न्यायरत्नजी शांतिविजयजीके हारका कारण, और उनकी अधिकमास से शास्त्रार्थकी जाहिर सूचनाका उत्तर. १-न्यायरश्नजी लिखते हैं कि, 'सभा हुईनहीं शास्त्रार्थहुवानहीं फिर हारजीत कैसे होसके' जवाब आपकी हारका कारण विज्ञापन ७वें में और ९ में लिख चुका हूं. उसको पूरेपूरा लिखकर सबका उत्तर क्यों न दिया ? फिरभी देखिये- मैरे विज्ञापन नं. ७ के सब लेखोंका पूरेपूरा उत्तर नियत समयपर आप देखकेनहीं १, विज्ञापन ६ मुजब सभा के नियमभी मंजूर किये नहीं २, आजकल वारंवार मुंबई में आ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] पे आना जाना करते हैं, मगर सभा करनेको खड़े होते नहीं ३, सभामै सत्यग्रहण करनेकी प्रतिज्ञाभी करते नहीं ४, झूठे पक्षवालेको क्या प्रायश्चित्त देना सो भी स्वीकार करते नहीं ५, और श्रीकच्छीजैन एसोसीयन सभाकी विनती से भी सभा करनेको आप आते नहीं ६, और लेखीत व्यहारसेभी शास्त्रार्थ शुरू किया नहीं, ७, इसलिये थापकी हार समजी गई, महाशयजी ! ९ महीनोंसे शास्त्रार्थ करने के लिये आपसे लिखता हुं, मगर आपतो आडी २ बातें बीचमें लाकर शास्त्रार्थ करनेसे दूरही भटकते हैं, फिर हारमें क्या कसररही. जबतक दूसरी आड छोडकर शास्त्रार्थकरनेको सामने न आवोगे तबतकही आपकी कमजोरी समझी जावेगी. अभी भी अपनी हार आपको स्वीकार न करना हो, तो, थाणा छोड़कर आगे पधारना नहीं, शास्त्रार्थ करनेको जलदी पधारो. कंठशोष सुक विवाद व वितंडवादसे कागजकाले करनेकी व कालक्षेप करनेकी और व्यर्थ श्रावकों के पैसे बरबाद करवाने की कोई जरूरत नहीं है । २-- “ शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघ को व आगेवानको बीचमें लाने की कोई जरूरत नहीं है, आप संघ. को बीचमें लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीचमें पडे और न हमारी [ न्यायरत्नजीकी ] पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो " इसतरहसे विज्ञापन नं० ९ वै के मैंरे पूरे सब लेख को आपने छोडदिया और भैरे अभिप्राय विरुद्ध होकर आप लिखतेहैं, कि " शास्त्रार्थ करना और फिर जैन संघकी जरूरत नहीं यह कैसे बन सकेगा " महाशयजी ! यह आपका लिखना सर्वथा अर्थ. का अनर्थ करना है, कौन कहता है जैन संघकी जरूरत नहीं है, मैरे ले. खका अभिप्राय तो सिर्फ इतनाही है, कि - मुंबई में सबगच्छों का, सब देशका, व सब न्यातोंका अलग २ संघ समुदाय होने से सब संघ आपके और हमारे शास्त्रार्थ के बीच में पंचरूपसे आगवान नहीं होसकता, मगर सत्यासत्यकी परीक्षाके इच्छावालोको सभामें आनेकी मनाई नहीं, सभामें आना व सत्य ग्रहण करना मुंबई के संघको तो क्या मगर अन्यंत्र केभी सब संघको अधिकार है, और इतनी बडी सभामें हजारों आदमियों के बीच में पक्षपाती व अल्प विचार वाले कोई भी किसी तरह का बखेडा खडाकरदेवे, या अपना निजका द्वेषसे आपस में गडबड करदे वे, तो मुंबईके संघको व आगेवानोंको सुरतके झगडे की तरह कर्मकथा, धनहानी, शासन हिलना व कुसुंप वगैरह ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८२ ] प्रपंच में फँसना पडे, इस अभिप्रायसे मैने मुंबई के सब संघको बीचमे न पडनेका लिखा था, जिसपर आप "संघकी जरूरत नहीं " ऐसा उलटा लिखते हो सो अनुचित है, मुंबईके, व अन्यत्र केभी सब संघको सभा में आना व शांतिपूर्वक सत्यग्रहण करना, यह खास जरू रत है, इसलिये सभामें अवश्य पधारना और पक्षपात रहित होकर सत्यग्राही होना चाहिये. - सभा. अब ३- और आपभी अपनी बनाई 'पर्युषणापर्वनिर्णय' के पृष्ट २२ वै की पंक्ति ४-५-६ में लिखते हैं, कि- " सभामै वादी प्रतिवादी - दक्ष-दंडनायक और साक्षी ये पांचवातें होना चाहिये. दोनों पक्षवा. लौकी राय से सभा करनेका स्थान और दिन मुकरर करना चाहिये" देखिये- न्याय रतनजी यह आपकेलेख मुजबही हममंजूर करते हैं, आपको भी अपना यह लेख मंजूर हो तो सभा करना मंजूर करो, आ. पका और हमारा शास्त्रार्थ कबहांवे, यह देखने को सारी दुनिया उत्सुक हो रही है. जब सभाका दिन मुकरर होगा तब मुंबईके य अन्य जगह केभी बहुत से आदमी स्वयं देखने को आजावेगें " सभाका २ महीने का समय होनेसे देशांतरकेभी श्रावक सभाका लाभ ले सकेंगें ” यहकथन दादर और वालकेश्वर में आपहीकाथा, अब आपकेलेख मुजबही साक्षीवगैरह के नाम व अन्य नियमभी मिलकर क रनेचाहिये, पहिले विज्ञापन में मैं भी लिख चुका हूं ४ आप लिखते हैं कि "संघका मेरेपर आमंत्रण आवे तो मैं स. भामें शास्त्रार्थकेलिये आनेकोतयार हूं" यह आपका लिखना शास्त्रा. से भगने का है, क्योंकि पहिले आपही लिखचुके हो कि स्थान और दिन दोनोंमिलकर मुकरर करें, अब संघपर गेरतेहो यहन्यायविरुद्ध है, और पहिले कभी राजा महाराजों की सभा में शास्त्रार्थ होताथा, तबभी वादी प्रतिवादीको संघ तरफसे आमंत्रण हो या न हो, मगर अपना पक्षकी सत्यता दिखलाने को स्वयं राजसभा में जातेथे.या अपनेपक्ष के संघ अपने विश्वासी गुरुको विनती करताथा, मगर सब संघ दो नों पक्षवाले विनती कभी नहीं करसकते, इसलिये आपको संघकीविन तीकी आवश्यकतानहींहै, स्वयं आनाचाहिये, या आपके तपगच्छके संघको आपपर पूरा भरोसा [विश्वास ] होगा तो वो विनती करेगें अन्य सब नहीं कर सकते. देखो - 'आनंदसागरजी वडौदेकी राजसभा में शा स्वार्थ करने को तैयार हुए थे, और मुंबई में भी शास्त्रार्थकरनेका मंजूरकियाथा तब भीसंघकी विनतीनहीं मांगी थी, स्वयं आने को तैयार हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३] थे.मगर अब शास्त्रार्थ क्यों नहींकरते,सो उनकी आत्मा जाने इतनेपरभी आप संघके आमंत्रणका लिखते हो सो भी 'श्रीकच्छीजैन ए. सोसीयन सभा' ने सर्व जैनश्वेतांबर मुनिमहाराजोको सभाकरनेकी विनती की थी, सो आमंत्रण हो ही चुका फिर वारंवार क्या? यदि आप मुनिमंडळमें हैं तबतो आपकोभी आमंत्रण होचुका, यदि आप अपनेको भिन्न समझतेहैं तो संघ आमंत्रणभी कैसे कर सकताहै, मैं पहिलेही लिखचुकाहूं कि 'न सब संघ बीच में पडे और न न्यायरलजीको शास्त्रार्थ करनापडे'ऐसी कपटता क्यों रखतेहो,आपके गच्छवालोको आपका भरोसा न होवे, तो वे आपको विनती न करें, अ. थवा आपकी बात सच्ची मालूम न होवे तो मौनकर जावे,इसमें हम क्याकरें. आप अपनापक्ष सच्चा समझतेहोतो शास्त्रार्थको पधारो. आप दूरदूरसे खंडनमंडनका विवाद चलाते हैं, किताबें छपवाते हैं, तबतो संघसे पूछनेकी दरकार रखतेनहींहैं, फिर उसबातका निर्णय करनेकी अपनेमे ताकत न होनेसे संघकी बात बीचमलाते हैं, यहभी एक तरहकी कमजोरी व अन्यायकीही बातहै और यह विवाद तो खास करके मुख्यतासे साधुओकाही है, श्रावकों का नहीं.श्रावक तो साधुओंके कहने मुजब पर्युषणापर्वका आराधन करनेवाले हैं,इस. लिये साधुओंकोही मिलकर इसका निर्णय करना चाहिये. ५-पहिले राजा महाराजाओंकी सभामें शास्त्रार्थ होताथा और अभीके भारतक्रमहाराज लंडनमें हजारों कोशबहुतदुरहैं,उनकी आज्ञाकारिणी और प्रजापालीनी कोर्ट व कोतवाली है, इसलिये वहां सभामें किसी तरहका बखेडा न होनेके लिये और शांतिसे पक्षपात रहित पूरा न्याय होनेके लिये विद्वानोंकी साक्षीपूर्वक शास्त्रार्थ होने में कोई तरहकाभी हरजा नहीं है.यह तो जगतप्रसिद्धही बातहै,कि अ दालतमें जो न्यायालय है,उसमें सुलह शांतिसे पूरा न्याय मिलताहै इसलिये न्यायाधीशके समक्ष इन्साफ मिलनेके लिये शास्त्रार्थ करने का हमने लिखा सो न्याय युक्तही है. देखो-पंजाबमें जैनियोंके औरआर्यसमाजियोंके अदालतमेही शास्त्रार्थ हुआथा उससेही जैनियोंको पूरा न्याय मिला, विजय हुईथी.उसीतरह न्यायसे धर्मवाद करनेको बहां हम बहुत खुशीसे तैयार हैं, अब आपभी जलदी पधारो, हम तो सिर्फन्यायसे इन्साफ चाहते हैं. वहां भी बहुत आदमी देखनेको आसकते हैं, सचेको भय नहीं रहता झूठेको भय रहता है.इस लिये वो बीच में आडी२ बातोसे झूठे २ बहामे बतलाकर किसी तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] सेभी अपनी इज्जतका बचावकरके शास्त्रार्थकरने से भगने चाहता है । ६- आपकी इच्छा धर्म स्थानमेंही सभा करनेकी हो तो भी हम तैयार हैं, देखो - आपकेही गच्छके आपके बडील आचार्य आनंद सागरजी जो अभी मुंबई में श्रीगौडीजी के उपाश्रय में हैं, उनके व्याख्यान में हजारों आदमियोंकी लभाभराती है, वहां आपका और हमारा शास्त्रा होतोभी हमें मंजूर है, मगर ऊपर लिखेमुजबनियमानुसार होनाचाहिये. अथवा मुंबई में अन्य स्थानभी बहुत हैं, जहां आप लिखे वहांही सही. वालकेश्वरमें हमारे गुरुजी महाराजके पास २-३ श्रावकों के समक्ष आपने कहा था, कि- आनंदसागरजी शास्त्रार्थ करेंगे, तो मै साक्षी रहूंगा और यदि मैं शास्त्रार्थ करूंगातो आनंदसागरजीको साक्षी बनाऊंगा सो यह योगभी आपके बन गया है, अब अपनी प्रतिशासे आपको बदलना उचित नहीं है, और सभादक्ष-दंडनायक वगैरह नियमभी मिलकर जलदी करीयेगा. ७- और आप लिखते हैं, कि " पर्युषणापर्व निर्णय, छपनेको नव महीने होगये दरेक बयानका पूरेपूरा उत्तर दीजिये" जबाब- म हाशयजी श्रावको विशेष पैसे खर्च न होनेके लिये व किताबें छपवानेसे बहुत वर्षोंतक खंडन मंडनका प्रपंच नहीं चलानेके लियेही आपकी किताबों का उत्तर सभामें देनेका विचार रख्खा है, सो प्रथम विज्ञापन में लिखभी चुका हूं. इसलिये ९ महीनेका लिखना आपका अनुचित है, और श्रीमान् पन्यासजी केशरमुनिजीके बनाये 'प्रश्नोत्त र विचार " और " हर्षहृदयदर्पण' का दूसरा भागके पर्युषणासंबंधी लेख, व 'प्रश्नोत्तर मंजूरी' के तीन (३) भागके ४००-५०० पृष्ट छपेको आज ४ वर्ष ऊपर हो चुका है, उनकी प्रत्येक बातका उत्तर आजतक आप कुछभी नहीं दे सकते, तो फिर ९ महीने किस हिसाबमें हैं, और मेरे लघुपर्युषणा निर्णय के सब लेखौकाभी पूरा उत्तर ११ महीनेहो गये तो भी आजतक आप न दे सके, बल्कि सत्य सत्य लेखों के पृष्टके पृष्ट और पंक्तियेकी पंक्तियें छोड़कर अधूरा लेख लिखकर उल टार ही जवाब देते हैं, यह जवाब नहीं कहा जा सकता, सत्यता तभी मानी जा सकेगा कि पूरे पूरा लेख लिखकर अभिप्राय मुजब बरोबर उत्तर दिया जावे, सो तो आपने अपनी दोनों किताबों में कहींभी नहीं किया, और उलट पुलट झूठाझूठाही लिख दिखलाया है, सो यह युक्तही है सत्यको कौन असत्य बना सकता है। मगर कुक्तियों से बात को अपनी तरफ खींचना अलग बात है । देखिये हमनें तो आपकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५] दोनों किताबोंकी उत्सूत्र प्ररूपणासंबंधी १२ भूलेतो विज्ञापन नं ७में दिखलादी हैं, और भी बहुत हैं सो सभामें विशेष खुलासा होगा. और वे विज्ञापन का तो पहिले कुछभी उत्तर आपने नहीं दिया.औ. र नवमेका देनेलगे, यह भी आपका अन्याय है, और सभा निर्णय होनेवाला है, जिसपरभी आप अभी किताब द्वारा जवाब मांगते हैं, इससे साबित होताहै, कि शास्त्रार्थ करनेकी आपकी इच्छा नहीं है, अन्यथा ऐसा क्यों लिखते, यदि हो तो कब विचार है, सो लिखो आपकी तीसरी पुस्तककाभी उत्तर उस समय सभामें मिलजावेगा मगर दोनों किताबों में जैसी उत्सूत्रता भरी है, वैसी तीसरीमेंभी होगा,तो सभामें सिद्धकरके बतलाना मुश्किलहोगा और उसकीआलो. यणा लेनीपडेगी.अधिकमहीनेके दिनोकी गिनती,व आषाढचौमासी. से ५० वें दिन दूसरे श्रावणमे या प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्व कर. ना.तथा श्रीवीरप्रभुके ६ कल्याणक मान्यकरने और श्रावकके सामायिक प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावहीकरना शास्त्रानुसार होनसे इनबातोंको कोईभी निषेद्धनहीं करसकता. विशेष सूचना-गये चौमासेमें हमने सब मुनिमहाराजोंको प. र्युषणापर्वका निर्णयकरनेकी सभा करनेकेलिये विनतीपत्रसे आमंत्रण भेजाथा.तथा श्रीकच्छीजैन एसोसियन सभा'नेभी सब मुनिमहाराजोको सभा भरकर वर्षावर्षके अधिकमाससंबंधी इस विवादके नि. र्णय करनेकी विनती कीथी, जिसपरभी कोई सभा करनेको न आये. सबने चुप लगादी. अब आप लोगभी चौमासा वगैरहके बहाने ब. तलाकर सभा न करोगा, तो फिर आपकीभी हार समझी जावेगी. तथा आपके पक्षके सब मुनियोंकीभी सत्यताकी परीक्षा दुनिया स्व. यंकर लेवेगी. और सभा करनेका मंजूर किये बिना व्यर्थ निष्प्रयोजनके विषयांतरकेवितंडावादवाले लंबे चौडे किसीकेभी लेखका उत्तर आजसे नहीं दिया जावेगा. संवत् १९७५ आषाढ वदी ३ गुरुवार, हस्ताक्षर-मुनि-मणिसागर, मुंबई. देखिये-ऊपर मुजब विज्ञापन छपवाकर जाहिर कियाथा,तोभी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करनेको सभामे आनेका मंजूर किया नहीं. विज्ञापन,७वेमें लिखेप्रमाणे,अपनी १२भूलोको सुघारकर उसका प्रा. यश्चित्तभीलियानहीं,तथा अनुक्रमसे उनभूलोकोशास्त्रप्रमाणोसेसाबि तकरके सत्य ठहरासकेभीनहीं और हमनेशास्त्रानुसारसस्यरबाते बतलायाथा उन्होंको अंगीकारभी किया नही और अपने पकडेहुए झूठे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] हठको छोडाभी नहीं. यह कितना बडा भारी अभिनिवेशिक मिथ्या. स्वका आग्रह कहाजावे सो दीर्घदर्शीतत्त्वा जनस्वयंविचार सकतेहैं. ..औरभी न्यायरत्नजीने एक हँडबील तथा 'अधिकमासदर्पण' नामा छोटीसी एक किताब छपवाया, उनमेभी विज्ञापन ७ वेमें जो हमने उनकी १२ भूले बतलायीथी, उन सब भूलोका अनुक्रमसे पूरे पूराखुलासाकरनेके बदले १भूलकाभी पूरेपुरा खुलासा करसके नहीं और मास वृद्धिके अभावसे पर्युषणाके बाद ७० दिन रहनेका व दु. सरेआषाढमें चौमासी कार्य करनेका तथा श्रावण- पौषसंबंधी कल्या. णक तप वगैरह सब बातोंका स्पष्ट खुलासापूर्वक निर्णय 'लघुपर्यु. षणा' में और सातवे विज्ञापनमें अच्छीतरहसे हमबतला चुकेहैं, तो. भी उन्ही बातोंको बालहठकी तरह वारंवार लिखे करना और स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि, कल्पसूत्रकी टीकार्य आदि बहुत शास्त्रोंमे मास बढे तब पर्युषणाके बाद १०० दिन ठहरनेका कहा है, तथा अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें लिये हैं, इसलिये अधिक महीना होवे तब ७० दिनकी जगह १०० दिन होवें उसमे कोई दोष नहीं है. मगर पर्युषणापर्व किये बिना ५०वे दिनको उल्लंघन करें तो जिनाशा भंगका दोष कहाहै,इसीलिये ५०दिनकी जगह ८०दिनतो क्या परंतु ५१ दिनभी कभी नहीं होसकते इत्यादि बहुत सत्य २ बातोको उडा. देनका उद्यम किया सो सर्वथाअनुचितहै, इनसब बातोका विशेषनि. र्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इन ग्रंथमें विस्तार पूर्वक शास्त्रों. के प्रमाणोसहित अच्छी तरहसे खुलासासे छपचुका है, इसलिये यहांपर फिरसे लिखनेकी कोई आवश्यकता नहींहै, पाठक गण ऊपरके लेखसे सब समझ लेंगे। अब हम यहां पर 'खरतरगच्छ समीक्षा' के विषयमें थोडासा लिखते हैं, न्यायरत्नजीः 'खरतरगच्छ समीक्षा' नामा किताब छपवाने संबंधी वारंवार जाहेर खबर लिखते हैं, यह किताब आज लगभग १२-१३ वर्षहुए उनाने बनायाहै, जब हम संवत् १९६५ को श्रीअंतरिक्ष पार्श्वनाथजी महाराजकीयात्रा करनेकेलिये बराड देशमें गये थे, तब बालापुरमें न्यायरत्नजी हमकोमिलेथे, उससमय उस किताबकी कॉपी उन्होंनेहीखास मेरेको वंचायाथा,तब मैने उस किताबपर महानिशीथ वगैरह कितनेही शास्त्रोंका प्रमाण मांगा, तब न्यायरत्न. जी बोले अभीमेरे पास महानिशीथसूत्र वगैरह शास्त्र यहांपर मौजूद नहींहै, फिर कभी आगेदेखाजावेगा,ऐसा कहकर उस समय बातको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टाल दिया.अब वोही किताब छपवानाचाहतेहैं, उस किताबमें सामा. यिक-कल्याणक-पर्युषणा-अभयदेवसूरिजी-तिथि वगैरह बातोसं. बंधी शास्त्रानुसार सत्य २ बातोंको झूठी ठहराने के लिये शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे २ पाठ लिखकर उन पाठोंके अपनी कल्पना मुजब जान बुझकर खोटे खोटे अर्थ करके कुयुक्तियोंसे उत्सूत्र प्ररूपणारूप और प्रत्यक्ष मिथ्या बहुतजगह लिखाहै, उसका थोडासा नमूना पाठकगणको यहांपर बतलाते हैं, जिसमें प्रथम सामायिक संबंधी लिखते हैं : १- श्रावकके सामायिक करनेकी विधि संबंधी सर्व शास्त्रों में पहिले करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियायही करनेका लिस्नाहै,देखो-श्रीजिनदासगणिमहत्तराचार्यजी कृत आवश्यक सूत्रकी चूर्णिमें १, श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत वृहद्वत्तिमें २, तिलकाचार्यजी कृत लघुवृत्तिमे ३,देवगुप्तसूरिजी कृत नवपदप्रकरण वृत्तिमें ४, लक्ष्मीतिलकसूरिजी कृत श्रावकधर्म प्रकरण वृत्तिमे ५,श्रीनवांगी. त्तिकार अभयदेवसूरिजी कृत पंचाशक मूत्रकी वृत्तिमे६, विजयसिंहा. चार्यजीकृत वंदीतासूत्रकीचूर्णिमें ७, हेमचंद्राचार्यजी कृत योगशाल वृत्ति, ८, तपगच्छीय देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्यसूत्रकी त्ति ९, कुलमंडनसूरिजी कृत विचारामृत संग्रहमें १०,मानविजयजी कृत धर्मसंग्रह वृत्तिमें ११, इत्यादि अनेक शास्त्रोंमें खास तपगच्छादि सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंने प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनेका बतलायाहै. २- श्रीमान् देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्य सूत्रवृत्तिका पा. उ यहां पर बतलाताहू. सो देखिये :___“श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौ साधुसमीपे गत्वा किं करोति इत्याह-साधुसाक्षिकं पुनः सामायिकंकरवा इर्याप्रतिकम्यागमनमालोचयेत् । तत आचार्यादीन बंदित्या स्वाध्यायं काले. चावश्यकं करोति " इत्यादि इस पाठमें गुरुपास जाकर करेमिभंतेका उचारण किये बाद पी. से हरियावहोकरके भाचार्यादिकोंको चंदनाकरके स्वाध्यायकरना बसलाथाहै और पीछे अवसर आवे तष छ आवश्यक रूप प्रतिक्रमण करनेकाभी बतलाया है। ३-श्रीहीरविजयसूरिजीके संतानीय श्रीमानविजयोपाध्याय• जीकत धर्मसंग्रह वृत्तिका पाडभी देखो-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tel " साध्वाश्रयंगत्वा साधूनमस्कृत्य सामायिकं करोति, तत्सूत्र यथा- 'करेमिभंते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जाव. साहू पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं,मणेणं वायाए काएणं,न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि, निंदामि,गरिहामि,अप्पाणं वो. सिरामि' त्ति, एवं कृतसामायिकं इर्यापथिक्याप्रतिक्रामति, पश्चादागमनमालोच्य यथा ज्येष्ठमाचार्यादीन्वंदते, पुनरपि गुरुं वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्टः शृणोति पठति पृच्छति वा" इत्यादि इनपाठमेभी उपाश्रयमें जाकर साधुमहाराजको वंदना करके पहिले करेमिभंतेका पाठउच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावहीकर के अनुक्रमसे वडील आचार्यादिकोंको वंदनाकर फिर शास्त्र सुने, वांचे या धर्म च की बातें गुरुसे पूछता रहे. ऐसा खुलासा लिखाहै. ४-श्री लक्ष्मीतिलकसरिजीकृत श्रावक धर्म प्रकरण वृत्तिका पाठभी यहांपर बतलाताहूं, सो देखो: "चैत्यालये विधि चैत्ये, स्वनिशांते स्वगृहे, साधुसमिपे, पौषो-शानादीनां धियते-अस्मिन्निति पौषधं पर्वानुष्ठानं, उपलक्षणत्वा सर्व धर्मानुष्ठानाथे शालागृहं; पौषधशाला तत्र वा, तत् समायिक कार्य श्राध्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । कथं तद्विधिना इत्याह'खमासमणं दाउं, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् सामाइय मुहप. त्तिं पडिलेहेमित्ति भणियं, बीयखमासणपुव्वं सामाइयं ठावित्ति,वुत्तुं. खमासमण दाणपुव्वं अध्धावणगत्तो पंच मंगलं कढ़िता 'करेमिभं तेसामाइयं'इश्चाइ सामाइय सुत्तंभणइ,पच्छा इरियंपडिकमइ,इत्यादि देखिये-इस प्राचीन पाठमेभी मंदिरमें, अपने गृहमें, साधुपा. स उपाश्रयमै, अथवा पौषधशालामें, जब संसारिक कार्यों से निवृति होवे तब किसीभी समयमे सामायिक करनेका बतलाया है, सो प. हिले खमामणसे आज्ञा लेकर सामायिक मुहपतिकापडिलेहण करके फिरभी दो खमासमणसे सामायिक संदिसाहणेका तथा सामायिक ठाणेका आदेशलेकर विनयसहित करेमिभंतेका पाठ उच्चारण करके पीछेसे इरियावही करनेका खूलालापूर्वक स्पष्ट बतलाया है। ५- इसीही तरहसे श्री हरिभद्रसूरिजीने आवश्यकबृहद्वत्तिमें, श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजीने पंचाशकवृत्तिम, श्रीहेमचंद्राचार्थजीने योगशास्त्रवृत्तिमें इत्यादि अनेक प्रभावक प्राचीन आचार्यों. ने अनेक शास्त्रों में प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे हार भावही करनेका खुलासा पूर्वक स्पष्ट बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८९] ६-“पयमख्खरंपि इकं, जो न रोएइ सुत्तनिद्दिष्ठं । सेसं रोअंतो विह, मिच्छाहिही जमालिव्व ॥१॥” इत्यादि शास्त्रीय प्रमाणके इस वाक्यसे सर्वशास्त्रोंकी बातोपर श्रद्धा रखनेवालाभी यदि शास्त्रोंके एक पद या अक्षरमात्रपरभी अश्रद्धाकरे, तो उसको जमालिकीतरह मिथ्या दृष्टि समझना चाहिये । अब इस जगह श्रीजिनाशाके आरा. धक आत्मार्थी सजनोंको विचार करना चाहिये, कि-श्रीहरिभद्र. सूरिजी, नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, हेमचंद्राचार्यजी, लक्ष्मीतिलकसरिजी,देवेंद्रसूरिजी,वगैरह महापुरुषोंके कथन मुजब आव. श्यक बृहद्वृत्ति वगैरह प्रामाणिक व प्राचीन शास्त्रोके पाठोंसे श्रावकके सामायिक प्रथम करोमिभंते पीछे इरियावही करने संबंधी जिनाशानुसार सत्य बातपर श्रद्धा नहीं रखने वाले, तथा इस सत्य बातकी प्ररूपणाभी नहीं करनेवाले,और उसमुजब श्रावकोकोभीनहीं करवानेवाले,व इससे सर्वथाविपरीत प्रथमइरियावही पीछे करेमिभंते करवानेका आग्रह करनेवालोको ऊपरके शास्त्रवाक्य मुजब जि. नाशाके आराधक आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि कैसे कहसकतेहैं, सो आपने गच्छके पक्षपातका दृष्टिरागको और परंपराके आग्रहको छोडकर तत्व दृष्टिसे सत्यशोधक पाठकगणको खूब विचार करना चाहिये। ७- ऊपर मुजप सत्यबातको न्यायरत्नजीने 'खरतर गच्छ समी. क्षा में सर्वथा उडादियाहै,और इनसत्य बातकेसर्वथा विरुद्ध होकर सामायिक करनेमें प्रथम इरियावही किये बाद पीछेसे करेमिभंतेका उच्चारणकरनेका ठहरानेके लिये शास्त्रोके आगे पीछके संबंधवाले पाठोंको छोडकर बिना संबंधवाले अधूरे २ (घोडे २) पाठ लिखकर अपनी मति कल्पना मुजब खोटे २ अर्थ करके व्यर्थही उत्सूत्रप्रहपणासे उन्मार्गको पुष्ट किया है, उसकाभी यहां पर पाठकगणको निसंदेह होनेकेलिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे थोडासा नमूना बतलाता हूं : ८- श्रीमहानिशीथसूत्रके तीसरे अध्ययनमें उपधान करने सं. बंधी चैत्यवंदन करनेकेलिये जो पाठहै, सो पहिले दिखलाताहूं, यथा "असुहकम्मक्खयठा, किंचि आयहियं चिइवंदणाई अणूटिप्रझा, तयात्तयढे चेव उवउत्ते से भवेजा, जयाणं से तयढे उक्उत्ते भवेजा, तया तस्लणं परममेगचित्त समाही हवेझ्झा, तयाचेव सब्ध जगजीवपाणभूयसत्ताणं जहिठ्ठफलसंपत्ती भवेज्भा, ता गोयमा णंअपडिताए इरियावहियाए नकण्पद चेवकाऊ किंचिइवंदणं स. जायझ्झाणाइयंकाउं, इफलासायमभिकखुगाणं, एएणं अटेणं गोय. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1801 मी एवं वुञ्चई, जहाणं ससुत्तत्थोभयं पंचमंगलं थिरपरिचिअ काउणं तओ इरियावहियं अझीए त्ति से भयवं कयराए विहिए तं इरिया वहीयाए अझीए गोयमा जहाणं पंचमंगलं महासुयसंधं. से भयवंइरियावहाय महि झित्ताणं, तओ किंमहिझे गोयमा सक्कत्थयाइयं चेइयवंद विहाणं, णवरं सक्कत्थयं एगट्टम बत्तीसाए आयंबिले हिं इत्यादि ܐܕ इस पाठ अशुभकमाँके क्षयके लिये तथा अपनी आत्माको हितकारी होवे वैसे चैत्यवंदनादि करने चाहिये, इसमें उपयोगयुक्त होनेले उत्कृष्टचित्तकी समाधी होती है, इसलिये गमनागमनकी आलो चनारूप इरियावही किये बिना चैत्यवंदन, स्वाध्याय, ध्यानादिकरना नहीं कल्पता है, अतएव चैत्यवंदनकरनेके लिये पहिले पंचपरमेष्ठि नवकार मंत्र के उपधान वहन करने चाहिये उसके बाद इरियावही, नमुत्थुणं, अरिहंत चेद्रयाणं वगैरह के आयंबिल उपवासादि पूर्वक उपधाम वहन करने चाहिये. देखिये ऊपर के पाठ में उपधान वहन करनेके अधिकार मैं विधिसहित उपयोगयुक्त चैत्यवंदन-स्वाध्याय- ध्यानादिकार्य करने संबंधी पहिले इरियावही करके पीछेले चैत्यवंदनादिकरें, ऐसा खुलास से बतलाया है. इसलिये ऊपरका पाठ पौषधग्राही उपधान वहन करनेवालों संबंधी है, और पौषध ( पौषह ) करनेवालों को तो हरियावही किये बिना चैत्यवंदन, स्वाध्याय- पढना गुणना, तथा ध्यानादि नोकरवालीफेरना वगैरह धर्मकार्यकरना नहीं कल्पता है, इसलि ये यहबात तो अभीवर्तमान में भी सर्वगच्छवाले उसी मुजब करते हैं. मगर इस पाठ में सामायिक के अधिकार में, प्रथम इरियाबही किये बाद पीछेसे करेमि भंतेका उच्चारणकरने संबंधी कुछभी अधिकारका गंधभी नहींहैं. जिसपर भी सूत्रकारमहाराजों के अभिप्रायविरुद्ध होकर आगे पीछे उपधानके संबंधवाले संपूर्णपाठको छोड़कर बीच मेसे थोडासा अधूरापाठ लिखकर उसकाभी अपना मनमाना अर्थकरके सामायिक करने संबंधी मथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहराना. सो ऊपर मुजब आवश्यक चूर्णि वगैरह अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे सर्वथा उत्सूत्रप्ररूपणारूपही है । १० - श्रीशवेकालिकसूत्रकी दूसरी चूलिकाकी ७ वी गाथाकी टीकामें साधुके गमनागमनादि कारणले इरियावही करनेका कहा है, सो पाठभी यहांपर बतलाता हूं. देखो : - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९१] . "अभीक्षणं, पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे, निर्विकृतिकश्व, निर्गत विकृतिपरिभोगश्च भवेत् । अनेनपरिभोगोचित्तविकृत्तिनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह. तथा अभीक्षणं, गमनागमनादिषु, विकृति परिभो. मेऽपि चान्ये किमित्याह-कायोत्सर्गकारीभवेत्, ईपिथिकीप्रतिक्रम. णमकृत्वान किंचिदन्यत् कुर्यादशुद्धतापत्तरितिभावः। तथा स्वाध्याययोगे,वाचनाद्यपचार व्यापार आचामाम्लादौ पयतोऽतिशय यत्नप. रोभवेत्तथैव तस्य फलवत्त्वाद्विपर्यय उन्मादादि दोष प्रसंगादिति" ऊपरके पाठमें साधुओंके उपदेशके अधिकारमें-दुध-दही-घोशकर पक्वान् वगैरह विगयोका त्याग करनेका बतलायाहै,तथा आहार पानी-देव दर्शन या ठले-मात्रे वगैरह गमनागमनादि कार्योसे इरियावही किये बिना कायोत्सर्गकरना,स्वाध्याय-सूत्रपाठपढना गुणना, ध्यानादि करना नहीं कल्पे, इस लिये पहिले इरियावही करके पीछे सूत्र वाचनादि कार्यों में प्रवृत्ति करें, इत्यादि. ११ - इस ऊपरके पाठमभी साधुओके गमनागमनादिकारणसे व स्वाध्यायादि करनेकेलिये इरियावहीकरनेका बतलाया है, मगर श्रावकके सामायिक करनेसंबंधी प्रथम इरियावहीकरके पीछे करेमि भंते उच्चारण करने का नहीं बतलायाहै,जिसपरभी पंचमहाव्रतधारीस. र्व विरति साधुओंके इरियावहीके पाठका आगे पीछेका संबंध छोड कर अधूरे पाठसे सामायिकका अर्थ करना बड़ी भूल है. १२- इसी तरहसे किसी जगह पौषधसंबंधी इरियावहीके, किसी जगह उपधानसंबंधी इरियावहीके, किसीजगह साधुओंके गम. नागमन संबंधी इरियावहीके,किसी जगह प्रतिक्रमण संबंधी इरिया वहीके, किसीजगह चैत्यवंदन-स्वाध्याय-ध्यानसंबंधी इरियावही. के अक्षरोंको देख कर, उन जगहके प्रसंगसंबंधी शास्त्रकारों के अभिप्रायकोसमझे बिनाही अथवा तो अपना झूठा आग्रह स्थापन करने के लिये आवश्यक चूर्णि-बृहवृत्ति-लघुवृत्ति-श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रपाठोंकेविरुद्धहोकर पौषधादिसंबंधी इरियावही. को सामायिक जोडकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेके पाठका उच्चारण करनेका ठहराना सो सर्वथा प्रकारसे अज्ञानतासे या जानबुझकरके उत्सूत्रप्ररूपणारूपही मालूम होता है. देखिये- सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवालोंको अनेक दोषोंकी प्राप्ति होतीहै, सोही दिखाताई: १३ - जैनाचार्योंकी शास्त्ररचना अविसंवादी पूर्वापर विरोध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] रहित होती है, तथा पूर्वापर विरोधी विसंवादीको शास्त्रों में मिथ्यावी कहा है, और श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यक बृहद्वृसिमें तथा श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्तिमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये. बाद पीछे इरियावही करनेका साफ खुलासा लिखा है, और महा. निशीथ सूत्रका उद्धारभी इन्ही महाराजने किया है, इसलिये महानिशीथ सूत्रके पाठसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन कर में आवें, तो श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजको विसंवादी कथनरूप मिथ्यात्व के दोष आनेकी आपत्ति आती है, इसलिये आवश्यक वृत्ति आ दिके विरुद्ध होकर इन्ही महाराजके नामसे महानिशीथसूत्र के पाठ से प्रथम हरिया वही पीछे करोमभंते स्थापन करनासो पूर्वापर विसंवादरूप मिथ्यात्वका कारण होनेसे सर्वथा अनुचित है । १४- महानिशीथसूत्र के पाठले 'इरियावही किये बिना कुछभी धर्म कार्य नहीं कल्पे, ' इसलिये सर्व धर्मकार्य इरियावही करके ही करने चाहिये, ऐसा एकांत आग्रह करोगे तो भी नहीं बन सकेगा, क्योंकि देखो-देव दर्शनको या गुरु वंदनको जाती वख्त १, जिनप्रति माको या गुरुको देखतेही नमस्काररूप वंदना करती वख्त २, तीर्थयात्राको जाती वख्त ३, नवकारसी, पोरशी, उपवासादि पच्चख्खा - ण करती वख्त ४, मंदिर में जघन्य चैत्यवंदन करती वख्त ५, गुरुम हाराजको आहारवस्त्रादि वहोराती वख्त ६, इत्यादि अनेक धर्मकार्य इ० रियावही किये बिनाभी प्रत्यक्षपने करनेमें आते हैं, इसलिये इरियावही किये बिना कुछभी धर्मकार्य नहीं करना, ऐसा एकांत आग्रह करना मो सर्वथा विवेक बिनाकाही मालूम होता है, इसलिये कोन२ कार्योंमैं पहिले इरियावही करना, कौन २ कार्यों में पीछेसे इरियावही क रना, व कौन २ कार्य इरियावही किये बिनाभी हो सकते हैं, इन बातो का गुरुगम्यता से भेद समझे बिना सामायिक में प्रथम इरियावही क रनेका एकांत आग्रह करना सो अज्ञानता से सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है. १५- औरभीदेखिये- स्वाध्याय, ध्यानादि में प्रथम इरिया वही करनाकहा है, उसमें आदि पदसे सामायिकमै भी प्रथम इरियावही करनेका आग्रह किया जावे, तो भी सर्वथा अनुचित है, क्योंकि, देखो - श्रीखरतर गच्छनायक श्री नवांगीवृत्तिकार अभय देवस रिजी, तथा कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचंद्राचार्यजी और खास तपगच्छनायक श्री देवेंद्रसूरिजी आदि पूर्वाचार्यांने महानिशीथसूत्र अवश्यही देखाथा तथा स्वाध्यायध्यान आदिपदका अर्थ भी अच्छतिरहसे जाननेवालेथे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९३] तोभी सामायिक प्रथम इरियावही करनेका नहीं कहते हुए अपने २ बनाये ग्रंथों में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कर. नेकाखुलासा लिखगयेहैं, उसका भावार्थ समझेविनाही उन महारा. कोंके विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करतेहैं, सो उन महाराजोंके वचन उत्थापनरूप और उन महाराजोंके विरुद्ध प्ररूपणा करनेरूप दोषके भागी होते हैं। १६- दशवैकालिकसूत्रकी टीकाके पाठसेभी इरियावही किये बि. ना कोई भी कार्यकरे तो अशुद्ध होताहै', इस बात परसे सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं सो भी बडीही भू. लहै, क्योंकि यह तो जैनसमाजमें प्रसिद्धही बात है, कि-दशवैका. लिकमूलसूत्र में और उसकी टीका सर्वजगह साधुओंके आचार-वि चार-कर्तव्य संबंधीही अधिकार है, उसमें किसी जगहभी श्रावकके सामायिक वगैरह कार्योसंबंधी कुछभी आधिकारनहींहै, इसलिये सा. धुआके गमनागमनसे जाने आनसे इरियावही करके पीछे स्वाध्याय, ध्यानादिधर्म कार्य करने बतलाये है, उसके आगे पीछके संबंध. वाले पाठको छोडकर अधूरे पाठसे सामायिकमे प्रथम इरियावही स्थापन करना सर्वथा अनुचित है. १७- श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यकसूत्र'की बडी टीका तथा श्री उमास्वातिवाचक विरचित 'श्रावकप्रशप्ति' की टीकामेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कहना खुलासा लिखा है, और इन्ही महाराजने श्रीदशवैकालिकसूत्रकी टीकाभी बनाया है, इसलिये इन्हीं महाराजके नामसे दशवैकालिकसूत्रकीटीकाके पाठसे प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे इन महाराजके कथनमें पूर्वापर विरोधभाव विसंवादरूप दोषकी प्राप्ति होतीहै,इसलिये इनमहाराज के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे पाठसे सामायिक संबंधी खोटा अर्थ करके विसंवादका झूठा दोष लगाना बडी भूल है. यह महारा. जतो विसंवादी नहीं थे. मगर संबंध विरुद्ध आग्रह करनेवालेहीप्र. त्यक्ष मिथ्या भाषणसे बालजीवोंको उन्मार्गमे गेरनेके दोषी ठहरतेहैं. १८ - श्रीदेवेंद्रसूरिजी महाराजने 'श्राद्धदिनकृत्य'सूत्रकीवृत्तिमें प्र थम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा लिखाहै, तथा धर्मरत्न प्र. करणकी वृत्तिमें तो-वाचना,पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा व धर्मक. थारूप पांचप्रकारकीस्वाध्यायकरने संबंधी अधिकारमें सिर्फ परावर्त नारूप (शाखपाठ पढे हुए फिरसे याद करने रूप)स्वाध्याय करनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९४] लिये इरियावही करनेका बतलायाहै,उसका आशय समझे बिनाही अपने गच्छके पूर्वज आचार्य महाराजकोभी विसंवादरूप मिथ्यात्व. का दोष लगानेका भय नहीं करते हुए सामायिक प्रथम इरियाव. ही स्थापन करते हैं, सो भी बडी भूल करते हैं. १९- औरभी देखो धर्मरत्नप्रकरण वृत्तिमें "इरियं सु पडिकंतो कड समयं " इरियावही पूर्वक स्वाध्याय करें; एसा पाठ है,उसमें 'समय' शब्दकीजगह 'सामाइय' शब्द बनाकर दो मात्राज्यादे अधिक पाठमें प्रक्षेपन करके स्वाध्यायकी जगह सामायिकका अर्थ बदलातेहै सो यहभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणारूप बडीभूलहै. २०-श्रीधर्मघोषसूरिजीने संघाचारभाष्यवृत्ति' में चैत्यवंदन संबं धी दशत्रिकके अधिकारमें सातवी त्रिकामे तीनवार भूमिप्रमार्जन करके इरियावहीपूर्वक-चैत्यवंदन करनेका बतलाया है, उसकेभी पू. परका संबंध छोडकर उसपाठका भावार्थ समझे बिना उसपाठसे भी सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरते हैं, और इन महाराजकेही गुरु महाराज श्रीदेवेंद्रसूरिजीने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही लिखा है, उस बातके विरुद्ध प्ररूपणाकरनेवाले ब. नाते हैं, सो भी बडी भूल है. २१-बंदीत्तासूत्रकीटोकाके पाठसेभीसामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेहैं,सोभी सर्वथाअनुचितहै,क्योकि देखो-वंदी. तासूत्रकी प्राचीन चूर्णि और श्रावकप्रशाप्तिवृत्ति वगैरह अनेकप्राचीन शास्त्रोंमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासा लिखा है और खास वंदीत्तासूत्रकी टीकाभी नवमा सामायिक व्रतकी विधिसंबंधी आवश्यकचूर्णि,पंचाशकचूर्णि,योग शास्त्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रानुसार सामायिककरनेकी विधि लिखाहै, उन्ही सर्व शास्त्रोंमें भी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखाहै, इसलिये प्राचीन चुर्णि आदिअनेक शास्त्रोके विरुद्ध होकर पूर्वापर विसंवादीरूप वि विरोधी कथन - एकही विषयमे ; एकही ग्रंथम ; कभी नहीं होसकताहै, जिसपरभी एकही विषयमें, एकही प्रथमें विसंवादी क. थन माननेवाले या कहनेवाले शास्त्रविरुद्ध श्रद्धा रखनेवाले सर्वथा अज्ञानी समझने चाहिये. २२-पंचाशकसूत्रकी चूर्णिके पाठसेभी नवमें सामायिक व्रतमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करते हैं,सो भी सर्वथा अनुचितहै,क्योंकि इन्हीं चूर्णिमें नवमै सामायिकव्रत संबंधी प्रथम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] करेमि भंते पीछे इरिया वहीकरने का खुलासा लिखा है, जिसपर भी चूर्णिके लिखे सत्य पाठको छुपा देना, और चूर्णिकारने रात्रिपौषध वालों के लिये ११ वा पौषधवत संबंधी इरियावही लिखी है, उसको चूर्णि कारके अभिप्राय विरुद्ध होकर ९ वे सामायिक व्रतमै भोले जीवोंको दिखलाना, खो मायावृत्तिरूपप्रपंच से प्रत्यक्षझूठ बोलकर शास्त्रवि रुद्ध प्ररूपणा करना संसारवृद्धिका कारण होनेसे आत्मार्थियोंको क दापि योग्य नहीं है. यहां पर लडकोंके खेल जैसी प्रपंचताकी बातें नहीं हैं, किंतु सर्वज्ञ शासनकी बातें हैं, इसलिये एकही ग्रंथ में, एकही वि. षय में, एकही पूर्वाचार्यको पूर्वापर विरोधी विसंवादी कथन करने वाले ठहराना, सो बडी अज्ञानता है. अथवा जान बुझकर पूर्वाचार्योंकी आशातनाका और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाका भय न रखकर इस लोककी पूजा मानताकेलिये अपना झूठा आग्रह स्थापन करनेकेलिये यही एसी शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते होंगे, सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने. हम इस बात में विशेष कुछभी नहीं कह सकते हैं । २३- इसी तरह से सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते कह मेका स्थापन करनेवाले न्यायरत्नजीआदिको पूर्वाचार्यको विसंवादोके झूठे दोषलगाने के हेतूभूत तथा अनेक शास्त्रोंके विरुद्धप्ररूपणा करनेरूप अनेक दोषोंके भागी होनापडता है, और पूर्वाचार्योंको झूठा दोष लगाने की आशातनासे तथा शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्ध प्ररू पणा करने से आपने व अपने पक्ष के आग्रहकरनेवाले बालजीवों केभी संसारवृद्धिका कारणरूप महान् अनर्थ होता है, यही सर्व बातें म्या यरत्नजीने ' खरतरगच्छ समीक्षा' में सामायिक में प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेकी आवश्यक चूर्णि, बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रामु सार सत्य बातको निषेध करनेके लिये और प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेके लिये महानिशीथ-वशवैकालिक सूत्रकी ठीकाकारवगैरह बहुतशास्त्रकारमहाराजों के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे२पाठोसे उलटा२संबंध लगाकर उत्सूत्रप्ररूपणासे बडा अमर्थ किया है, उसका नमूना रूप थोडासा सामायिक संबंधी पाठकगण को निसंदेह होनेकेलिये हमनें ऊपर में इतना लिखा है. मगर इस प्रकरणका विशेष खुलासा पूर्वक इसीही 'बृहत्पर्युषणा निर्णय ग्रंथके पृष्ठ ३०९ से ३२९तक अच्छी तरह से छप चुका है, वहांसे विशेष जान लेना और " आत्मभ्रमोच्छेदन भानुः" नामा ग्रंथ में भी विस्तारपूर्वक शास्त्रों के पाठसहित निर्णय हमारी तरफसे छप चुका है, इस लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९६) यहांपर फिरसे ज्यादे विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं हैं। २४-अब सत्यप्रिय पाठकगणसे हमारा इतनाही कहनाहै,कि-महानिशीथसूत्रके उपधान चैत्यवंदनसंबंधी इरियावहीके अधूरे पाठसे,तथा दशवैकालिककी टीकाके साधुओंके स्वाध्याय करनेसंबंधी इरि. यावहीके अधूरे पाठसे,श्रीहरिभद्रसूरिजीमहाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं,और इन्हीं महाराजने जिनाशानुसारही प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा पूर्वक आवश्यकसूत्रकी बडी टीकामें लिखा है, उसको निषेध करतेहैं,या उसपर अविश्वासलाकर कुयुक्तियोंसे भो. लेंजीवोंकोभी उस बातपर शंकाशील बनातेहैं, वो लोग जिनाज्ञा वि. रूद्धहोकर उत्सूत्रप्ररूपणाकरतेहुए अपने सम्यक्त्वकोमालिन करतेहैं. २५-और किसीभी प्राचीन पूर्वाचार्यमहाराजनेअपने बनाये किसी भी ग्रंथमें, किसी जगहभी ९ वे सामायिकवतसंबंधी प्रथम इरियावही पीछे करेमिभते नहींलिखा.मगर खास तपगच्छादि सर्व गच्छोके सर्वपूर्वीचार्याने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही स्पष्ट खुलासा पूर्वक लिखा है, इसलिये इस बात में पाठांतरसे पहिले इरियावहीभी नहीं कह सकते, जिसपरभी पाठांतरके नामले पहिले इरियावही स्थापन करे सो भी शास्त्रविरुद्ध होनेसे प्रत्यक्ष मिथ्या है. . २६- और कितनेक अज्ञानी लोग अपनी मति कल्पनासे कहा से हैं, कि-पहिले इरियावही करें तो क्या, और पीछे करें तो भी क्या, किसी तरहसे सामायिक तो करनाहै,ऐसा मिश्र भाषण करने वालेभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते हैं, उन लोगोंको सामायिक प्रथम करेमिभंते कहनेसंबंधी शास्त्रकारोंके गंभीर अभिप्राय. को समझमें नहीं आया मालूम होताहै, नहीं तो ऐसा शास्त्रविरुद्ध मिश्र भाषण कभी नहीं करते. क्योकि देखो-सर्व शास्त्रोमे स्वाध्याय, ध्यान,प्रतिक्रमण,पौषधादिधर्मकार्यों में पहिले इरियावही कहाहै,और सामायिकम करेमिभंते पहिले कहे बाद पीछे से इरियावही करनेका कहा है, सो इसमें गुरुगम्यताका अतीव गंभीरार्थवाला कुछभी रहस्य होना चाहिये, नहीं तो सर्व शास्त्रों में महान् शासन प्रभावक श्री हरिमद्रमूरिजी, नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, कलिकाल स. वंशविरुदधारक हेमचंद्राचार्यजीआदिगीतार्थमहाराज प्रथम करेमिः भंते पीछे इरियावही कभी नहीं लिखते. इसलिये इनमहाराजोंके गं. भीरआशयको समझेबिना इनसे विरुद्ध प्ररूपणा करना बडी भूलहै. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९७ २७-कितनेकलोग अपना अलस्य आग्रह छोडसकतेनहीं,व सत्य बात ग्रहणभी कर सकते नहीं, इसलिये भोले जीवोंको अपने पक्षमें लानेके लिये जान बुझकर कुतर्क करते हैं, कि, श्रीआवश्यक सूत्रकी चूर्णि-बृहद्वृत्ति- लघुवृत्ति-पंचाशकचूर्णि-वृत्ति-श्राद्धदिनकृत्यमूप्रवृत्ति-श्रावकधर्म प्रकरणवृत्ति-नवपद प्रकरणवृत्ति-योगशास्त्र वृ-- त्ति वगैरह शास्त्रोंमें सामायिक पहिले करेमिभंतेका उच्चारण करके पीछसे हरियावही करने का कहाहै, सो वह शास्त्र पाठ स्वाध्याय संबंधीहैं ? या चैत्यवंदन-गुरुवंदन संबंधी ? या आलोयणा संबंधी हैं? अथवा सामायिक संबंधीहै! इसकी हमको अच्छी तरहसे मालूम नहीं पडती, उससे वह शास्त्र पाठ सामायिक संबंधीहैं. ऐसा निश्च यनहींहोसकता.इसलिये उनशास्त्रपाठोके अनुसार सामायिक पहि ले करेमिभंते पीछे इरियावही कैसे किया जावे ? ऐसीर कुतर्क कर. तेहैं,सो सर्वथा झूठीहीहैं क्योंकि ऊपरके सर्व शास्त्रपाठोमे श्रावकके १२ ब्रतोंमें ९में सामायिकवतसंबंधी सामायिक करनेके लियेही सा. मायिककी विधिसंबंधी खुलासापूर्वक प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनेका लिखाहै,उसके विषयमें सत्य ग्रहण करनेवाले आत्मार्थी भव्यजीवोंको निस्संदेह होनेकेलिये थोरे. से शास्त्रोंके पाठभी यहां पर बतलाते हैं. २८-श्री यशोदेव सूरिजी महाराज कृत श्री पंचाशक सूत्रकी चर्णिका पाठ देखो - "तिविहेण साहुणो णमिऊण सामाइयं करेइ 'करेमिभते !सामाइअं' एवमा उच्चरिऊण, तउ पच्छा हरियावहीयाए पडिकमा, आलोएत्ता, वंदित्ता आयरियादि, जहा- रायणिए, पुणरवि गुरु वं. दित्ता, पडिलेहित्ता णिविठो पुच्छति पढति वा" इत्यादि. २९- श्रीचंद्रगच्छीय श्रीधिजयसिंहाचार्यजी कृत श्रावकातिक्रमण [ वंदिसासूत्र ] की चूर्णिका पाठ भी देखो ___ "वदिऊण स्थाभ वंदणेण गुरुं संदिसाविऊण सामाइय दंडकः मणु कड़िय, जहा- 'करेमिभंते ! सामाइयं, जाव-अप्पाणं वोसिरा: मि' तओइरि पडिकमिय आगमणं आलोएइ, पच्छा, जही-जेई साहुणो वंदिऊण, पढा सुणहवा" इत्यादि. ३०- श्रीलक्ष्मीतिलकसूरिजीकृत श्रावकधर्मप्रकरणवृत्तिका पाठ यहांपर दिखलाताहूं यथा- "अत्र क्रियमाणं श्राद्धानां सामायिक नि' अत्यहं निर्वहति तरस्थानमुपदिशति- . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९८] चैत्यालये स्वनिशांत, साधूनामतिकेऽपि वा ।। . कार्य पौषधशालायां, श्राद्धस्तद्विधिना सदा ॥१॥ व्याख्या- चैत्यालये विधिचैत्ये, स्वनिशांते स्वगृहेऽपि विजन. स्थान इत्यर्थः। साधुसमीपे, पौषो ज्ञानादीनां धीयतेऽनेनेति पौषधं पर्वानुष्ठानं उपलक्षणात् सर्वधर्माऽनुष्ठानार्थ शालागृहं पौषधशाला, तत्र वा तत् सामायिक कार्य श्राद्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । क. थंतद्विधिना इत्याह-खमासमणं दाउं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामाइयमुहपति पडिलेहेमि त्ति भणिय, बीय खमासमण पुव्वं मुहपत्ति पडिलहिय, पुणरवि पढम खमासमणेण सामाइयं संदिसाविय,बी. य खमासमणपुव्वं सामाइयं ठामि त्ति वुत्तं, खमासमणदाणपुव्वं अ. द्धाविणय गत्तो पंचमंगलं कादत्ता करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि नि. दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' त्ति सामाइय सुत्तं भणति, त. ओ पच्छा इरियपडिक्कमति, इत्यादिपूर्वमूरिनिर्दिष्टविधानेन । अत्र च ईयों प्रतिक्रम्यैव सामायिकोच्चारण यस्केचिदाचक्षते तात्सद्धांतादनु त्तीर्णम्,यत उक्तमावश्यक चूर्णि-बृहवृत्त्यादौ- यथा “ करेमिभंते ! सामाइयं सावज्ज जोगं पच्चखामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणमिति, काउण पच्छा हरिमं पडिक्कमह ति" इत्यादि __३१-श्रीपार्श्वनाथस्वामीके संतानीय परंपरामें श्रीउपकेशगच्छीय श्रीदेवगुप्तसूरिजी महाराजने श्री नवपदप्रकरणवृतिमेभी प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही सामायिक संबंधी कहा है, सो पाठभी यहां पर बतलाते हैं, यथा :-- ___“आवश्यक चूायुक्त समाचारी त्वियं-सामायिक श्रावकेण कथं कार्य ? तत्रोच्यते- श्रावको द्विविधोऽनृद्धिप्राप्तः ऋद्धिप्राप्तश्च, तत्राद्यश्चैत्यगृहे, साधुसमीपे,पौषधशालायां, स्वगृहे वा. यत्र वा वि. श्राम्यति तिष्ठति च निर्व्यापारस्तत्र करोति, चतुषु स्थानेषु नियमेन करोषि, चैत्यगृहे, साधुमूले पौषधशालायां स्वगृहे वा अवश्यं कुर्वा ण इति. एतेषु च यदि चैत्यगृहे साधुमूले वा करोति,तत्र यदि केनाs. पि सह विवादो नास्ति,यदि भयं कुतोऽपि न विद्यते, यस्य कस्यापि किंचिद् न धारयति,मा तत्कृताकर्षापकर्षों भूतां, यदि वाऽधम वर्ण्यमवर्यमवलोक्य न गृह्णीयात्, मा भांक्षीत् इति बुद्धया यदि वा गच्छन् न किमपि व्यापार व्यापारयेत् तदा गृहे एव सामायिकं गृही. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९९] त्वा चैत्यगृहं साधुमूलं वा यथा साधुः पंचसमितिसमितसिगुप्ति. गुप्तस्तथा याति, आगतश्च त्रिविधेन साधुन् नमस्कृत्य तत्साक्षिक पुनः सामायिकं करोति "करेमिभंते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं" इत्यादि सूत्रमु. चार्य, ततः, ई-पथिकी प्रतिक्राम्यति, आगमनं चालोचयति. ततः, आचार्यादीन् यथारत्नाधिकतयाभिवंद्य सर्वसाधून् , उपयुक्तोपविष्ठः पठति, पुस्तक वाचनादि वा करोति । चैत्यगृहे तु यदि वा साधवो न संति, तदा ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण पूर्वमागमनालोचनं च विधाय चैत्यवंदनां करोति,पठनादि विधत्ते,साधुसद्भावे तु पूर्व एष विधिः । एवं पौषधशालायामपि । केवलं यथा गृहे आवश्यकं कुर्वाणोगृहा ति-तथैव गमनविरहितं इत्यादि। तथा ऋद्धिप्राप्तस्तु चैत्यमूलं साधुमूलं वा महद्धथैव एति, येन लोकस्य आस्था जायते वैत्यानि साधवश्च सत्पुरुषपरिग्रहेण विशेष पूज्यानि भवंति. पूजित पूजक त्वात् लोकस्य । अतस्तेन गृह एव सामायिकमादाय नागतव्यमधि. करण भयेन हस्त्यश्वाद्यनानयनप्रसंगात् आगतश्च चैत्यालये विधिना प्रविश्य चैत्यानि च द्रव्य-भावस्तवेनाभिष्टुत्य, यथासंभवं साधुसमीपे मुखपोतिका प्रत्युपेक्षणपूर्व "करेमिभंते ! सामाइयं सावज्जं जो. गं पश्चख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणणं वा. याए कारणं न करोमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ” त्ति उच्चार्य ईर्थापथिक्यादि प्रति क्राम्य यथा रत्नाधिकतया सर्वसाधूंश्चाभिवंद्य प्रश्नादि करोति, सा. मायिकं च कुर्वाण एष मुकुटमुपनयति कुडलयुंगल नाम मुद्रेच पु. प-तांबूल-प्रावरणादिव्युत्सृजति। किंच यदि एष श्रावक एव तदाऽस्यागमनवेलायां न कश्चिदुत्तिष्ठति, अथ यथा भद्रकस्तदाऽस्यापि सन्मानो दर्शितो भवति इति बुद्ध्या आचार्याणां पूर्वरचितमासनंध्रि. यते अस्य च, आचार्यास्तु उत्थायवतस्ततश्चक्रमणं कुर्वाणा आसते तावद् यावदेष आयाति, ततः सममेवोपविशति । अन्यथा उत्थानानुत्थानदोषाविभाव्याः, एतचं प्रासंगिकमुक्तम् । प्रकृतं तु सामा. यिकस्थेन विकथादि न कार्य,स्वाध्यायादिपरेण आसितव्यं" इत्यादि. ३२-श्रीतपगच्छनायक श्रीदेवेद्रसूरिजी महाराज कृत श्राद्धादिन. कृत्यसूत्रकी वृत्तिका पाठभी देखोः "तओ वियाल वेलाए,अत्यमिए दिवायरे । पुव्वुत्तेण विहाणेण,पुणो वंदे जिणोत्तमे ॥२८॥ तओ पोसहसालं तु,गंतुण तु पमजए । ठाविचा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] 'तस्थसूरिं, तो सामाइयं करे ॥२९॥ काऊणय सामाइयं, इरियंपडि. कमियं,गमणमालोए । वंदित्तु सूरिमाइ, संझ्झायावस्सयं कुणइ ॥३०॥ - व्याख्या-सांप्रतमष्टदशं सत्कार द्वारमाह-ततो वैकालिकानंतर, विकालवेलायां अंतर्मुहूर्तरूपायां, तामेवव्यनक्ति अस्तमितेदि'वाकरे अर्द्धबिंबादवाक् इर्थः । पूर्वोक्तेन विधानेन पूजाकृत्वेतिशेषः । पुनवेदते जिनोत्तमान् प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधिना ॥ २८ ॥ अथैकोन विंशति वंदनकोपलक्षितमावश्यक द्वारमाह-ततस्तृतीय पूजा नंतरं श्रावकः पौषधशालांगत्वा यतनया प्रमार्टि, ततो नमस्कार पूर्वक व्यवहित तुशब्दस्यैवकारार्थ त्वात् स्थापयित्वैव तत्र सूर्ति स्थापना. चार्य, ततो विधिना सामायिकं करोति ॥ २९ ॥ अथ तत्र साधवोऽ. पिसंति श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौसाधुसमीपे गत्वाकिं करोति इत्याह-- साधुसाक्षिकं पुनः लामायिकं कृत्वा ईाप्रतिक्र. म्यागमनमालोचयेत् तत आचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले चावश्यकं करोति ॥ ३० ॥ इत्यादि" ३३-अब देखिये-ऊपरके सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठीमें श्रावकको सामायिक कैसे करना चाहिये? इस सवाल के जवाबमें सर्व शास्त्र कार महाराजोने इस प्रकार खुलासा पूर्वक लिखा है. १-सामायिक करनेवाले राजादि धनवान व व्यवहारिक धन रहित ऐसे दो प्रकारके श्रावक बतलाये. २- धन रहित श्रावकको भगवान् के मंदिरमें १, उपद्रवरहित एकांत जगहमें अपने घरमें २, साधु महाराजके पास ३, वा पौषध शालामे ४, ऐसे ४ स्थान सामायिक करनेके लिये बतलाये. ३ - जब श्रावकको संसारिक कार्योंसे निवृत्ति होवे [फुरसत मिले ] तब हरेक समय सामायिक करनेका बतलाया. ४-धर्म कार्यों में अनेक तरहके विघ्न आतेहैं, और उपयोगी वि. वेकवाले श्रावकको धर्मकार्यों के बिना समय मात्रभी खाली व्यर्थ ग. मामायोग्यनहीं है,इसलिये संसारिक कार्योंसे फुरसद मिलतही रस्ते चलने में यदि किसीके साथ लेने देने वगैरहसे कोईतरहका भयनहीं होवे तो अपने घरमें सामायिकलेकर पीछे गुरुपासजानेकाबतलाया. ५-जैसे उपवासादिकके पच्चख्खाण अपनेघरमें करलिये हो तो भी गुरुमहाराजकेपास जाकर फिर गुरु साक्षिसे उपवासादि पच्चक्याण करने आते हैं. तैसेही-श्रावकको अपने घरमे सामायिक ले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०१] करसावद्य योगका त्याग करके साधुकी तरह पंचसमिति और तीन गुप्तिसहित उपयोगसे गुरुमहाराजपास आकर फिर सामायिकका उ. च्चारणकरके पीछे हरियावहीपूर्वक स्वाध्यायादि करनेकावतलाया. ६-शामको छ आवश्यकरूप प्रतिक्रमण करनेकेलिये पहिले मं. दिरमें देवदर्शन,पूजा आरति वगैरहकरके पीछे उपाश्रय या पौषधशा लामें आकर गुरुके अभावमें भूमिका प्रमार्जनपूर्वक सामायिककरनेके लिये नवकार गुणकर स्थापनाचार्यकी स्थापनकरनेका बतलाया. ७- सामायिक करनेके लिये खमासमण पूर्वक गुरुसे आदेश .लेकर सामायिकलेनेसंबंधी मुहपत्तिका पडिलेहणकरनेका बतलाया. ८- मुहपत्तिका पडिलेहणकरके प्रथम खमासमण पूर्वक सामायिक संदिसाहणेका, तथा फिर दूसरा खमालमण पूर्वक सामायिक ठाणेका आदेश लेनेका बतलाया. ९- विनय सहित मस्तक नमाकर नवकारपूर्वक 'करेमिभंते! सामाइयं' इत्यादि सामायिकका पाठ उच्चारण करनेका बतलाया. १०-करेमिभंतेका पाठ उच्चारण कियेबाद पीछेसे इरियावही. करनेकाबतलाया सो 'इरियावही' कहनेसे इरियावही,तस्स उत्तरी, अन्नत्थ उससिए णं, कहकरके ४ नवकार या १लोगस्सका काउस. ग करनेका और ऊपर संपूर्ण लोगस्स कहनेका समझलेना चाहिये. ११- जैसे पौषधवाला देवदर्शनादिक कार्योंसे गमनकरके आ. या होवे वो इरियावही पूर्वक आगमनकी आलोचना करे, अर्थात्इरियासमिति इत्यादि अष्टप्रवचनमाताके विराधनाकी आलोचनाकरके मिच्छामि दुक्कडं देताहै, तैसेही-यदि श्रावक अपने घरसे सा. मायिक लेकर इरियासमिति आदि पांच समिति और तीन गुप्ति सहित उपयोगसे गुरुपास आया होवे तो फिर गुरु साक्षिसे करेमि भंते!' इत्यादि सामायिक लेकर पीछे इरियावहीपूर्वक इरियासमिति इत्या. दि आगमनकी आलोचना करनेका बतलाया. - १२-सामायिक लेकर पीछे इरियावही करके आगमनकी आलो. चना करे, बाद यथा योग्य आचार्यादिक वडीलोको अनुक्रमसे सर्व साधुओको वंदना करनेका बतलाया. १३ - 'पूर्वसूरिनिर्दिष्टविधानेन' तथा 'पडिलेहिता' अर्थात्-जगह आसनादिकका प्रमार्जन पडिलेहण पूर्वक बैठने स्वाध्यायाः दि करनेका आदेश लेकर अपना धर्मकार्य करनेका बतलाया. १४- सामायिकलिये बाद गुरुके साथ धर्म वार्ता करें या कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०२] शंका होवे तो गुरुसे पूछे या पुस्तकादि वांचे, अथवा दूसरा कोई पुस्तकादिवांचता होवे तो उपयोगयुक्त सुनता रहे. १५- अपने घरसे सामायिक लेकर भगवान् के मंदिरमें आया होवे,वहां पासमें साधु न होवे तो भी भगवान्के समक्ष फिरसे सा. मायिक लेकर इरियावही पूर्वक आगमनकी आलोचना करके पीछे चैत्यवंदन, शास्त्रपाठ पढना गुणनादि धर्म कार्य करनेका बतलाया. १६- उपाश्रयमें गुरु महाराज होवे,तो उपर मुजब सामायिक करनेकी विधि बतलायी है, ऐसेही पौषधशालामेभी सामायिक क. रनेकी विधि समझ लेना चाहिये. - १७-उपाश्रयमें गुरु महाराज न होवे, या समयके अभावसे कारणवश गुरु पास जाकर सामायिक करनेका अवसर न होवे और केवल अपने घरमेही छ आवश्यकरूप प्रतिक्रमण करनेकेलिये सामायिक ग्रहण करें,तो भी ऊपर मुजब खमालमणपूर्वक सामायिक मुहपत्तिके पडिलेहणका,सामायिक संदिसाहणेका व ठाणेका आदेश ले. कर नवकारपूर्वक करेमिभंतेका उच्चारणकरके . पीछेसे इरियावही पूर्वक अपना धर्मकार्य करें,मगर वहांसे गुरु पास जाने वगैरह कार्यों से गमनागमन नहीं होनेसे आगमनकी आलोचना न करें. परंतु शेष बाकीकी उपर मुजब सर्व विधि करनेका बतलाया. १८- यहांपर कोई पहिले इरियावही करके पीछे करेमिभंतेका उचारण करने का कहते हैं,वोलोग शास्त्रों के भावार्थको नहींजाननेवालेहैं, क्योंकि आवश्यकचूर्णि-बृहत्वृत्ति वगैरह प्राचीनशास्त्रों में प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही साफ खुलासा पूर्वक कहा है। १९- कभी गुरुके अभावमें अपनेघरमें या पौषधशालामें सामायिक करें,तब वहां "जाव नियम पज्जुवा सामि" ऐसा पाठ उच्चारणकरे और उपाश्रयमे गुरु समक्ष सामायिक करे, तब वहां “जाव साहू पज्जुवा सामि " ऐसा पाठ उच्चारण करें और इरियावही पू. वक अपने धर्मकार्यों में समय व्यतीत करनेका बतलाया. २०-राजा-महाराजादि महर्द्धिक होवे,उन्होंको शहरकेरस्तोमे नंगे पैर पैदल चलना योग्य न होनेसे वो अपने घरसे सामायिक लेकर गुरु पास उपाश्रयमे नहीं जावे, किंतु-हाथी, अश्व, पदातिक आदिक राज्यऋद्धिकी सौभा युक्त भेरी भंभादि वाजिंत्र सहित बडे आडंबर. से सामायिक करनेकेलिये गुरुपास आवे, उससे शासनकी प्रभाव. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०३] ना होवे, तथा भगवान् "उपर और गुरुमहाराज उपर लोगोंकी श्रद्धा बढे, बहुत जीवोंको धर्म प्राप्तिका महान् लाभ होवे, इसलिये घरसे सामायिक लेकर नंगे पैरसे पैदल इरियासमितियुक्त आनेके बदले बडे आडंबरसे गुरुपास आकर पीछे सामायिक करें. २१ - राज्यऋद्धिकी सोभा युक्त गुरुपास आकर जो नजदीक भगवान्का मंदिर होवे तो पहिले वहां मंदिरमें जाकर विधिसहित उपयोग युक्त भावसे- केशर चंदनादिसे पहिले द्रव्य पूजा करें बाद पीछे चैत्यवंदन स्तवनादिसे भाव पूजा करें उसके बादमें गुरु पास आकर “यथासंभवं साधु समीपे मुखपोतिका प्रत्युपेक्षणपूर्व" अर्थात्- स्त्रमासमणपूर्वक भुहपत्तिकापडिलेहणकरके सामायिक सं. दिसाहणे वगैरहके आदेश लेकर ऊपर मुजब विधिसे पहिले करे। मिभंतेका उच्चारणकरके पीछे इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि करे. २२- राजादिक सामायिक करें तब तक राज्यचिन्ह मुकुटादि. कको अलग रख्खे, त्याग करें. . २३-इसप्रकार सामायिक करनेवाले वहां विकथादि कर्मबंधन केहेतुभूत कोईभी कार्य न करें, किंतु स्वाध्याय ध्यानादि कोकीनिजर्जराके हेतुभूत धर्मकार्य करनेमें अपना समय व्यतीत करें, इत्यादि, ३४- अब देखिये-ऊपर मुजब सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठोपर विवेक बुद्धिसे तत्व दृष्टिपूर्वक विचार किया जावे तो सामायिक करनेके लिये प्रत्येकवार स्वमासमण सहित 'सामाइय मुहपत्ति पडिले. हेमि' 'सामाइयंसंदिसावेमि' 'सामाइयंठावेमि' इत्यादि वाक्योंसे सा. मायिक करनेका आदेश लेकर नवकारपूर्वक विनयसहित 'करेमिभं. ते ! सामाइयं' इत्यादि संपूर्ण सामायिकका पाठ उच्चारण कियेबाद पीछेसे इरियावही करनेका सुस्पष्टतासे साफ खुलासापूर्वक सब शा. त्रकार सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंने लिखा है, सो अल्प बुद्धिवालाभी ऊपरके शास्त्र पाठोपरसे सामायिकका अधिकारको अच्छी तरहसे समझ सकताहै. जिसपरभी ऊपरकी तमाम सर्व बातोको छोडकर "ऊपरके शास्त्रपाठ आलोयणा संबंधी है, या स्वाध्याय संबंधी हैं, वा वंदनासंबंधी हैं, अथवा सामायिक संबंधी हैं. इसकी हमको अ. च्छी तरहसे मालूम नहीं पडती, इसलिये ऊपरके शास्त्र प्रमाणोसे सामायिकमें प्रथम करेमि भंते और पीछे इरियावही कैसे किया जा घे?" ऐसी २ कुतर्क जान बुझकरके या उपरके शास्त्रपाठोको वांचे, विचारे, समझे बिनाही परंपराकी अज्ञानतासे करते हैं, सो तोश्री. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०४] शानीजीमहाराज जाने मगर ऐसी २ कुतर्क करके जिनामानुसार प्रत्यक्ष अनेक शास्त्र प्रमाण मुजब सत्य बात परसे भोले जीवोंकी भदा उडादेते हैं, और जिनाशाविरुद्ध कोईभी शास्त्रप्रमाण बिनाही अपने झूठे हठवादके आग्रहकी बातको स्थापन करनेकेलिये शारोंके सत्य२ पाठोपरभी झूठी२ शंका लांकर उत्सूत्र प्ररूपणासे उन्मार्ग को पुष्ट करते हैं, सो यह काम संसार बढानेवाला अनर्थ भूत होनेसे आत्मार्थी भवभिरुयोको तो करना योग्यनहींहै. इसविषयको विशेष तत्वज्ञ पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे. ३५-कितनेक कहते हैं, 'सामायिकमें प्रथम करोमिभंते और पीछे इ. रियावही करनेसंबंधी आवश्यक सूत्रकी चूर्णि-वृहवृत्ति वगैरह शात्रपाठोंमें सामायिकमुहपत्ति पडिलेहणके, सामायिक संदिसाहणेके, सामायिक ठाणेके आदेशलेनेवगैरह सबपी विधिनहींहै,ऐसा कहनेवालेभी प्रत्यक्षही मिथ्या भाषण करके जिनाशाका उत्थापन करतेहैं, क्योंकि देखो-भावकधर्म प्रकरणवृत्ति तथा वंदित्तासूत्रकी चूर्णि वगैरह शास्त्रपाठों में सामायिक मुहपत्ति पडिलेहणके,सामायिक संदिसाहणके, सामायिकठाणेवगैरहके आदेशलेकर नवकारपूर्वक विनयसहित 'करेमि भंते' इत्यादि पाठ उच्चारण करके पीछेसे इरियावही किये बाद स्वाध्यायादि करनेका संक्षेपमेंभी साफ बतलायाहै, उसके भावार्थमगुरुगम्यतासेसामायिक सब पूरीविधि समझना चाहिये. ३६-आवश्यक नियुक्ति, उत्तराध्ययनादि शास्त्रोमे सामान्यताले संक्षेपमें प्रतिक्रमणकी विधि बतलायाहै,परंतु उसका विस्तारपूर्वक विशेष अधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचार्योंके सामाचारियोंके ग्रंथोसे जानने में आताहै, और उसी मुजबही अभी प्रतिक्रमणकी सर्व. क्रियायें करनेमें आतीहैं मगर कोई अज्ञानी आवश्यकनियुक्ति-उत्तरा. ध्ययनादिशास्त्रोंकी प्रतिक्रमण विधिको अधूरी कहकर निषेधकरें और उसकेविरुद्ध ढूंढियोकी तरह अपनी मतिकल्पना मुजब प्रतिक्रमण की विधिको स्थापन करें, तो आवश्यकादि आगमार्थरूप पंचांगीके उस्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप मिथ्यात्वके दोषके भागी होनापडता. है, तैसेही- आवश्यक चूर्णि, बृहद्वृत्ति वगैरह ऊपरमुजब शासपा. ठोमें सामायिक संबंधीभी सूचनारूप संक्षेपमें सामान्यतासे शास्त्रका र महाराजाने सामायिककी विधि लिखीहै. उसका विस्तारसे विशे. ष भधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचायोंके सामाचारियोंके ग्रंथों. से जानना चाहिये और उसी मुजबही आत्मार्थी भव्य जीवोंको सा: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायिककी सबपूरी विधि करलेनाचाहिये. जिसके बदले उसको मधूरी विधि कहकर निषेध करने वालेोको व उसके सर्वथा विरुख अपनी कल्पनामुजब करवाने वालोंको श्रीआवश्यकसूत्रादि आगमार्थरूप पं. चांगीके उत्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप दोषके भागी होनापडता है, इसलिये आत्मार्थी भवभिरुयोको ऐसा करना योग्य नहीं है। ३७- औरभी देखिये जैसे-जिनमंदिर में विधियुक्त 'द्रव्य भाव पूजा कर निजधर गया' ऐसा किसी शास्त्रमें संक्षेपमें सूचनारूप अधिकार आया होथे, उसका विशेष भावार्थ तत्वदृष्टिसे समझे बिनाही उसमें स्नान करने, पवित्र वस्त्र पहिरने, मुख कोश बांधने, केशर चंदनादि सामग्री लेने वगैरहके अक्षर न देखकर उसको जिनपूजाकी अधू. री विधि कहकर सर्वथा जिनपूजाका निषेध करने वालोंको अज्ञानी समझनेमे आतेहैं, क्योकि उपयोगयुक्त भावसे हमेश जिनपूजा करने वाले वो जिनपूजाकी सब पूरी विधिको अच्छी तरहसे जाननेवाले होते हैं, उन्होंके लिये विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं है, किंतु 'द्रव्य भाव पूजा' कहनेसे उपयोग युक्त स्नान करने, पवित्र वसा धारन करने, मुखकोश बांधने, जिन मंदिरमें प्रवेश करने, मिसीही कहने, मंदिरकी सार संभाल लेने, ३ प्रदिक्षणा देने, केशर-खंदनधूप-दीप-अक्षतादि सामग्री लेने, और चैत्यवंदन-शकस्तष-जिनगु. म स्तुति आदिसे दश त्रिकसहित उपयोगसे पूजा करने वगैरहकी सप पाते तो अपने भापही समझलेतेहैं.इसलिये 'द्रव्य भाव पूजा' क. हनेले संक्षेपमें जिमपूजाकी सब पूरी विधि समझनी चाहिये, तैसेही. सामायिककी विधिको जानने वाले उपयोग युक्त हमेश सामायिक करनेवालोंके लिये तो- 'अपने घरसे सामायिकलेकर साधुकीतरह इरिया समिति पूर्वक उपयोगसे गुरुपास आवे' इस वाक्यसे, तथा 'गुरुको वंदनाकरके फिर सामायिकका उच्चारण करे बाद इरियावहीपूर्वक पढे सुने वा पूछे' इस वाक्यसे सामायिक करने के लिये प. चित्रवस्त्र धारणकरनेका तथा मुहपत्ति आदि सामग्री लेनेका और खमासमणपूर्वक सामायिक संबंधी मुहपत्ति पडिलेहणादिकके आदेशलेने धमैरहसे सामायिककी सब विधिपूरी समझ लेना चाहिये, जानकारों केलिये उसजगह इससे विशेष लिखें तो पुनशक्ति दोष माके, पिष्ठपेषण जैसे होबे, उससे वहां 'जागृतको जगाने ' की तरह विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं हैं, इसलिये गुरुगम्यतासे तत्व अधिपूर्वक विवेकबुद्धिसे शासकार महाराओके मंभीर भाशयको म. T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६ ] मझे बिना अधूरी विधिक नामसे सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही करमेकी सत्य बातको सर्वथा उडादेना सो उत्सूत्रप्र. रुपणारूप होनेसे आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है. • ३८-देखो विवेकबुद्धिसे खूब विचारकरो-श्रीजिनदासगणिमहतराचार्यजी पूर्वधर,श्रीहरिभद्रसूरिजी,अभयदेवसूरिजी,देवगुप्तसूरि जी,हेमचंद्राचार्यजी, देवेंद्रसूरिजी,आदिगीतार्थशासन प्रभाषक महाराजोंको तो सामायिक प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी बात तत्त्व शानसे जिनाशानुसार सत्यमालूमपडी, इसलिये अपने२बनाये ग्रंथों में निसंदेहपूर्वक लिखगये तथा आत्मार्थी भव्यजीवभी शंकारहित सत्य बात समझकर उस मुजब सामायिककी सब विधिभी करतेथे और अभी करतेभी हैं। जिसपरभी कितनेक लोग अपने तपगच्छ नायक श्री देवेद्रसूरिजी महाराज वगैरह पूर्वाचार्योकेभी विरुद्ध होकर इस. बातमें सर्वथा विपरीत रीतिसे प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते स्थापन करके जिनाज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं और प्रथम करेमिभंते पीछेइरियावहीको शास्त्रविरुद्ध ठहराकरनिषेधकरतेहैं.अब विचारकरना चाहिये, कि- प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही स्थापनकरनेवाले जिनाशाके आराधक ठहरतेहैं, या प्रथम इरियावही पीछे करेमि भंते स्थापन करनेवाले जिनाशाके आराधक ठहरतेहैं, यदि-प्रथम इरिया वही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाशाके आराधक बनेंगे, तो प्रथम करेमि भंते पीछे इरियावही स्थापन करने वाले प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य जिनाबाविरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरेगे. और यदि प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य प्रथम करोमि भते पीछे इ. रियावही स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक सत्यप्ररूपणा कर. ने वाले मानोंगे, तो, उन सर्व पूर्वाचार्यों के विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यास्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहर जावेगे. तथा इस बातमें पाठां. तरभी न होनेसे पूर्वीपर विरोधी दोनों बातेभी कभी सत्य ठहर सकतीनहीं. और प्राचीन सर्व गीतार्थ पूर्वीचार्योंकोभी खोटी प्ररूपणा करनेवालेभी कभी ठहरासकतेनहीं. मगर उन्हीं गातार्थ महाराजाक विरुद्ध आग्रह करनेवालेही खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरते हैं, इस. लिये सर्व गीतार्थ पूर्वाचार्योंको जिनाशाके आराधक सत्य प्ररूपणा करनेवाले समझ करके उन सर्व महाराजोकी आज्ञा मुजब सामाथिको प्रथम करेमि भंते पीछे इरीयावही मान्य करना और इनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०७ ] विरुद्ध प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते की शास्त्र विरुद्ध और पूर्वाचायकी आज्ञाबाहिर कल्पितबात को छोड देना यही जिनाशाके आराधकभवभिरु निकटभव्य आत्मार्थियों को उचित है. ज्यादे क्या लिखें.. ३९- कितने लोग शंका करते हैं, कि - पौषध, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यानादि कार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है, और सामायिकर्मे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पछिसे इरियावही कर नेका कहा है, उसका क्या कारण होना चाहिये ? इसका समाधान यह है कि - पौषध-प्रतिक्रमणादिक कार्य तो आत्माको निर्मलकरने के हेतुभूत क्रियारूप है सो मनकी स्थिरतासे होसकते हैं, इसलिये मनकी स्थिरता करनेकेलिये गमनागमनकी आलोचनारूप इरियावहीकर के पीछे इन कार्यों में प्रवृत्ति करें तो शांततापूर्वक उपयोग शुद्ध रहता है, इसलिये इन कार्यों में पहिले हरिया वही करनेका कहा है. मगर सामा. यिकको तो श्रीभगवती - आवश्यकादि आगमोंमें " आया खलु सामाइअं " इत्यादि पाठोंसे सामायिकको खास आत्मा कहा है, इसलिये आत्माकी स्थापना करने के लिये और आत्मा के साथ कर्मबंधन के हेतुरूप आते हुए आश्रवको रोकने के लिये प्रथम करेमिभंतेका पञ्चखाण क रमेका कहा है. पहिले आत्माकी स्थापनारूप और आश्रवनिरोधरूप सामायिकका उच्चारण होगया, तो, उसके बाद में पीछे आत्माको नि र्मल करने के लिये स्वाध्याय ध्यानादि कार्य करनेके लिये इरियावही करने की आवश्यकता हुई. इसलिये पीछेसे इरियावहीपूर्वक स्वाध्याय, ध्यानादिधर्मकार्य करने चाहिये, और आत्माकी स्थापनारूप व आभव निरोधरूप जबतक सामायिक के पच्चख्खाण न होंगे, तब तक एकवार तो क्या मगर हजारवार इरियावही करते ही रहेंगे तो भी आ भवनिरोध बिना निजआत्मगुण की प्राप्ति कभी नहीं होसकेगी, इसलिये सर्वशास्त्रोंकी आशामुजब पहिले आत्मा की स्थापनारूप सामायिकके पच्चरखाण करके पीछेसे आत्माकी शुद्धिके लिये इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि धर्मकार्य करने चाहिये. इस प्रकार सामायि कर्मे प्रथम करेमि भंते कहने संबंधी शास्त्रकारों के गंभीर आशयको स मझे बिना पौषधादि कार्यों की तरह सामायिक में भी प्रथम करोमिभंते का उच्चारण किये पहिलेसेही इरियावही स्थापन करने का आग्रह करना आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है । ४० - कितनेक महाशय कहते हैं, कि श्रीनवकार मंत्र के पीछे इरिया - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०८] व्हीके उपचानकहेहैं,मगर परियावहीके पहिले करेमिभंतके उपाय नहींकडे,इसलिये सामायिकभी पहिले इरियावही करना योग्य है। पेला कहनेवालोंको सामायिकके स्वरूप संबंधी शास्त्रकारमहाराजों के अभिप्रायको समझमें नहीं आया मालूम होताहै। क्योंकि देखियेशास्त्रों में सामायिकको आत्मा कहा है, और इरियावही वगैरह कि. यारूपसूत्र कहेहैं,और आत्माके उपधान तो कभी होसकतेनहीं, किंतु आत्माकीशुद्धिरूप क्रियाके उपधान होसकते हैं. आत्मा तो स्वयं उपधान करनेवालाहै, और उपधान क्रियारूपहैं, सामायिकरूप आरमाके उपधान तोइरियावहीकेपहिले या पीछेभी किसी शास्त्रमें नहींकहे हैं, इसलिये आत्माके निजगुणरूप सामायिक संबंधी और हरियावहीव. गैरह आत्माकी शुद्धिरूप क्रियासंबंधी शास्त्रकार महाराजोंके भावा. र्थकोसमझेषिनाही पहिले इरियावहीके उपधानकरनेका पाठ देखकर सामायिकभी पहिलेइरियावही स्थापनकरते हैं, उन्होंकी अज्ञानताहै. ४१-कितनेकआग्रहीलोग नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी के नामसे अथवा उन्होके शिष्य श्रीपरमानंदसूरिजीके नामसे सामा. यिक पहिलेइरियावही पीछेकरेमिभंते कहनेसंबंधी श्रीअभयदेवसू. रिजीकृत 'सामाचारी' ग्रंथका पाठ भोलेजीवोंको बतलातेहैं, सोभी प्र. त्यक्ष मिथ्याहै,क्योंकि-देखो श्रीनवांगीवृत्तिकार महाराजने खास 'पं. वाशक' सूत्रकोवृत्तिमें सामायिकमें प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही खुलासापूर्वक लिखीहै, सर्व प्राचीन पूर्वाचार्यभी ऐसेही लिखे गयेहैं, यही बात जिनाशानुसार है । इसलिये इन्हीं महाराजने सास 'सामाचारी' ग्रंथमेभी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखी धी, उसपाठको निकाल देना और प्रथम इरियावही पीछे करेभिभंते कहनेका पाठ अपनी मति कल्पना मुजब नवीन बनवाकर बडे प्रौढ प्रामाणिकपुरुषोंकेबनाये ग्रंथ प्रक्षेपकरके भोलेंजीवाकोषतलाकर उ. मार्ग चलाना यह बडाभारीदोषहै, देखिये-कोईभीपूर्वाचार्यमहाराजने सामायिकमें प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते नहीं लिखी, किंतु प्र. थम करेमिभंते पीछे इरियावही सर्व प्राचीन पूर्वाचार्याने सर्वशास्त्रोंमें लिखीहै. तो फिर श्रीनवांगीवृत्तिकारक जैसे प्रौढ प्रामाणिक सर्व सम्मत यह महाराज सर्व पूर्वाचार्योंके विरुद्ध होकर प्रथम इरियाथही पीछे करेमिभंते कैसे लिखेंगे, ऐसा कभी नहीं हो सकता.इसलिये इन महाराजके नामसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते करनेका ठहराने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] ४२- औरभी देखो खूप विचारकरो - शास्त्रोंमें विसंवादी कथन करनेवालोंकों मिथ्यात्वी कहेहैं, और जैनाचार्य तो अविसंवाद होते हैं. इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक यह महाराजभी विसंवादीनहींथे. किं. तु भविसंवादथे, इसलिये इन्हीं महाराजके बनाये वृत्ति-प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमेंसे एकही विषय में पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्य किसीभी ग्रंथ किसी जगह भी देखनेमें नहीं आते, इसलिये इन स हाराजकी बनाई सामाचारीमेंभी विसंवादी वाक्य नहीं हैं, किंतु 'पंचाकसूत्रवृत्तिके अनुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का पाठथा, उसको उड़ा करके इन महाराजके सत्य कथन के पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप प्रथमइरिया वही पीछे करेमि भंते कहने का पा उबनाकर भोलेजीवों को बतलाकर खोटी प्ररूपणा करनेवालोंकी बड़ी भारीभूलहै. यह महाराज तो विसंवादी कथन करनेवाले कभी नहींठहर सकते, मगर ऐसे महापुरुषोंके नामसे झूठापाठ बनानेवालेही मिथ्यारवी ठहरते हैं । अब पाठकगणसे मै इतनाही कहना है, कि - नवांनीवृत्तिकारकने या उन्होंकेशिष्योंने अथवा अन्य किसी भी जिनाशा के आराधक पूर्वाचार्य महाराजने किसी भी ग्रंथ में सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते किसी जगह भी नहीं लिखी, व्यर्थ भोले जीवोंको भरमानेका काम करना आत्मार्थियोंकों योग्य नहीं है । ४३ - कितनेक श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की बडी टीकाके नामसे लामायिकर्मे प्रथमद्दरियावही पछिकरेमिभंते करने का ठहराते हैं, सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है. क्योंकि देखो उत्तराध्ययन सूत्र में या इनकी बड़ी टीकाभ्रे सामायिक करने संबंधी प्रथमहरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कु छभी अधिकार नहीं है. किंतु- २९ वें अध्ययनमें “सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणेह ? सावज्जजोग विरहं जणयइ ॥ चउवीसत्थपणं भंते । जीवें किं जणेइ ? दंसण विसोहि जणइ ॥ वद्या: व्याख्या -' सामायिकेन ' उक्तरूपेण सहावद्येन वर्त्तत इति सा:- कर्मबंधन हेतवो योगा-व्यापारास्तेभ्यो विरतिः- उपरमः सावद्ययोगविरतिस्तां जनयति, तद्विरति सहितस्यैव सामायिक संभ वात्, न चैवं तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारण भावासंभव इति वाच्यं, केषुचित्तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत्कार्यकारण भावदर्शनाद्, एवं सर्वत्र भावनीयं ॥ सामायिकं च प्रतिपतुकामेन तत्प्रणेतारः स्तोतव्याः ते च तत्त्वतस्तीर्थकृत एवेति, तत्सूत्रमाह 'चतुर्विंशतिस्तवेन' एतदवसर्पिणी प्रभवतीर्थकर कीर्तनात्मकेन दर्शनं सम्यक्त्वं तस्यविशुद्धिः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११०] तदुपघातिक कर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धस्तां जनयति" ऐसा कहकर सामान्यतासे सामायिक, चउवीसत्थो,वंदन, प्र. तिक्रमण, काउसग्ग आदि कर्तव्योंका फलबतलायाहै.मगर वहां सामायिककरनेकी विधिमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते उच्चारण करनेका नहीं बतलाया. इसलिये उत्तराध्ययन सूत्रवृत्तिके नामसे प्र. थम इरियावही पीछे करेमिभते स्थापन करनेवालोकी बडीभूल है. ४४-अब आत्मार्थी तत्त्वग्राही पाठकगणसे मैरा यही करनाहै,किश्रीमहानिशीथसूत्रका उद्धार श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजनेकियाहै । श्रीदशवकालिकसूत्रचूलिकाकी बडीटीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है,तथा आवश्यक सूत्रकी बडी टीकाभो इन्हीं महाराजने बनाया है। श्रावक प्रज्ञप्तिकी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनायाहै, अब देखो-आव. श्यक बडीटीकामे व श्रावकप्रज्ञप्तिटीकामे सामायिक विधिमे प्रथम करोमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक पाठ है तथा महा. निशीथसूत्रके तीसरेअध्ययनमें उपधान चैत्यवंदनसंबंधी इरियावही करनेका पाठहै, और दशवैकालिक चूलिकाकीटीकामें साधुके गमनागमनसंबंधी इरियावही करके स्वाध्यायादि करनेकापाठहै, इसलिये भिन्नर अपेक्षावाले इन शास्त्रपाठोके आपसमें किसीतरहकाभी विसंवाद नहीं है, और विसंवादी शास्त्रोको व विसंवादी कथन करनेवालोको शास्त्रों में मिथ्यात्वी कहे हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंकों व पूर्वाचार्योंको अविसंवादी कहने में आतेहैं, इसी तरह श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजभी आविसंवादी होनेसे इन्हीं महाराजके बनाये ऊपरके सर्व शास्त्रोको अविसंवादी कहने आतेहैं, और श्रीआवश्यकसूत्रकी बड़ी टीका व श्रावकप्रशप्ति टीकामें सामायिक करने संबंधी प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका पाठ मौजूद होने परभी महानिशीथ, दशवकालिक चूलिकाको टीकाके भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठों. का उलटा २ अर्थकरके शास्त्रकारोके अभिप्रायविरुद्ध होकर सामा. यिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेसे ऊपरके शास्त्रपाठोमे और इन्हीं शास्त्रोंके करनेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजके वचनों में एकही विषय संबंधी आपसमें पूर्वापर विसंवादरूप दूषणआताह,मगर इन्हीं शास्त्रपाठोमे व इन्हींमहाराजके कथनमें किसी प्रकारसेभी कभी विसंवादका दूषण नहीं आ सकता. यह तो सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करनेके आग्रह करनेवालोकीही पूर्ण अज्ञानताहै, कि-ऐसे अविसंवादी आप्त www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१११] शास्त्रोको व ऐसे शासनप्रभावक गीतार्थ महापुरुषोंको विसंवादीका झूठा कलंक लगानकाभी भय न करके अपना आग्रहकी प्रत्यक्ष अ. सत्य बातको दृढकरनेके लिये ऐसे २ अनर्थ करते हैं । इसलिये आ. त्मार्थी भव भिरुयोंको ऐसा असत्य आग्रह छोडकर प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकरनेकी सत्यवातको श्रद्धापूर्वक अंगीकार करनाही जिनाशानुसार होनेसे श्रेयरूपहै. इसीतरहसे आवश्यक चूर्णि-वृहद् वृत्ति-लघुवृत्ति-पंचाशकचूर्णि-वृत्ति-श्रावकधर्म प्रकरणवृत्ति-योगशास्त्रवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रानुसार सामायिक प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी सत्य बातको निषेध करनेवाले और महानिशीथ-दशवै कालिक-पंचाशक चूर्णि-उत्तराध्ययन-संघाचार भाष्य वृत्ति धर्मरत्न प्रकरण वृत्ति वगैरह शास्त्रकारमहाराजोंके अपेक्षा विरुद्ध और अधूरे २ पाठोके नामसे या किसीप्रकारकीभी कुयुक्तिसे सामायिक प्रथम इरियावही और पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले आगमपंचागीके अनेक शास्त्रपाठोके उत्थापनकरनेके दोषी बनतेहैं. और खास अपने तपगच्छादिक सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंकीभी आज्ञालोपने वाले बनते हैं [इसका विशेष खुलासा निर्णय उपरमें देखो और तपगच्छमें पहि. ले तो प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही करतेथे, इसलिये श्रीदेवेंद्रसूरिजी,श्रीकुलमंडनसूरिजी वगैरहोंने अपने२बनाये ग्रंथोमे प्रथमकरेमिभंते और पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक लिखाहै, मगर थोडे समयसे अपने प्राचीन पूर्वाचार्योंके कथन विरुद्ध प्रथम इरियावहीकरनेका आग्रह चल पडा है, मगर जिनाशाके आराधक आत्मार्थियोको ऐसा आग्रहकरना योग्यनहींहै। देखो-सेनप्रश्न' में श्रीविजयसे मसूरिजीने सर्व पूर्वाचार्योंके और अपने गच्छकेभी पूर्वाचार्योंके वि. रुद्धहोकर सामायिकमें प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कहा है,मगर तोभी उन्हीकेही संतानीय अंतेवासी श्रीमानविजयजी और सु. प्रसिद्धन्यायावशारदश्रीयशोविजयजीने 'धर्मसंग्रह'वृत्ति में आवश्यक चूर्णि-पंचाशकचूर्णि-योगशास्त्रवृत्ति आदि अनेक शास्त्रानुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासा लिस्बा हैं, इसी तरहसे भात्मार्थियोंको अपने गच्छका या गुरुकाभी झूठ पक्षपातकोत्याग करके प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकी जिनाशानुसार सत्य बात. को आवश्यमेवही ग्रहण करना उचित है न्यायरत्नजी शांतिविजयजीने महानिशीथ, दशवकालिकादिक. शास्रोके भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठोसे शास्त्रकारमहाराजोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [[११२ ] अभिप्रायविरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथमइरियावही पीछेकरेंमितेका स्थापन करनेके लिये 'खरतरगच्छ समीक्षा' में अनेक तरहले शास्त्रविरुड व कुयुक्तियों से अनर्थ किये हैं, उसका खुलासा ऊपर के लेख पाठकगण स्वयं विचार लेंगे. इसी तरहसे आनंदसागरजीने ' धर्म संग्रह ' की प्रस्तावना में, चतुरविजयजीनें ' संबोधसत्तरकरण वृत्ति' की टिप्पणिकामे, श्रीकांतिविजयजी अमरविजयजीने 'जैनसिद्धांत सामाचारी' में, धर्मसागरजीने इरियावही षत्रिंशिका प्रवचन परीक्षादिकमें और भी कोई भी महाशय कोई भी ग्रंथ में सामायिकमें प्रथम करेमिमंते पीछे इरियावही करनेका निषेधकरके, प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले सब शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करनेवाले उपरके लेखसे समझ लेने चाहिये. और पर्युषणासंबंधी, तथा छ कल्याणक संबंधी भी न्यायरत्नजीने अनेक शास्त्रविरुद्ध और कुयुक्तियोंके संग्रहसे ऐसे ही अनर्थकिये हैं, उन सबका खुलासा समाधान पूर्वक निर्णय इसी ग्रंथमें और इस ग्रंथके प्रथम भागकी भूमिकाके ४७ प्रकरणोंमें और सुबोधिकादिककी २८ भूलोवाले लेखमें अच्छी तरहसे खुलासा सहित छप चुका है । इसलिये यहां पर फिरसे विशेष लिखने की कोई जरूरत नहींहै, सत्य तत्त्वाभिलाषी पाठक गण वहांसे समझ लेंगे । औरभी न्यायर जीने श्री अभयदेवसूरिजी संबंधी व तिथि संबंधी जो जो शास्त्रविरुद्ध बातें लिखी हैं, उन सबका खुलासा श्रीमान् पन्यासजी श्री केशर मुनिजीनें 'प्रश्नोत्तरमंजरी' के तीनों भागो में अच्छी तरहसे छपवाकर प्रसिद्ध किया है, उनके वांचनेसे सब खुलासा हो जावेगा. और मैं भी तीसरे भागकी उद्घोषणा में थोडासा नमूनारूप लिखूंगा तब वहां जैन मुनियोंको रेल विहार निषेध, व व्याख्यान के समय मुह पत्तिका बांधना और देशकालानुसार विशेष लाभ जानकर स्त्रीपुरुषों की सभा में साध्वियोंको धर्म शास्त्रका व्याख्यान करना [ धर्म का उपदेश देना ] वगैरह बातों संबंधीभी खुलासा लिखने में आवे गा. पाठक गण वहांले सर्व निर्णय समझ लेना. इति शुभम्. विक्रम संवत् १९७८ वैशाख वदी पंचमी बुधवार. हस्ताक्षर श्रीमान् - उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके लघु शिष्य मुनि -- मणिसागर, जैन धर्मशाला, खानदेश-धूलिया. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भोम् ॥ ॥ श्रीपञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः ॥ श्रीपर्यषणा निर्णय नामाग्रंथः प्रारभ्यते मत्वा श्रीशासनाधीशं, विघ्न व्यूह विदारणं, पर्युषणादि कार्याणां. निर्णयः क्रियते खलु ॥१॥ पात्मार्थिनाञ्च लाभाय, पाखण्ड पथ शान्तये वाणी गुरु प्रसादेन, शास्त्रयुक्त्यनुसारतः॥२॥ युगमम् , विघ्नोंके समूहकोनाश करने वाले शासन नायक श्रीवर्द्धमानखामीको नमस्कार करके श्रीसरस्वती देवी तथा श्रीगुरु महाराजके प्रसादसे, शाखोंके प्रमाण पूर्वक तथा युक्तियों के अनुसार, आत्मार्थि अध्यजीवोंको श्रीजिनाजाकोप्राप्ति रूप डाभके वास्ते और उत्सूत्रपरूपणा रूप पाखण्डमार्गकी शा. न्तिके लिये श्रीपर्युषणपर्वादि सम्बन्धी कार्योंका निश्चय के साथ निर्णय करता हूं। सो इस ग्रन्थमें सम्बन्ध तो मुख्य करके अधिक मासके ३० दिनोंकी गिनतीके प्रमाण करनेका है। और दो श्रावण अपवा दो भाद्र पद होनेसे आषाढ़ चौमासी से ५० दिने दूसरे प्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें श्रीपयु. षणपर्वका आराधम करने सम्बन्धी निर्णयरूप कथन कर. नेका इस ग्रन्थमें मुख्य विषय है और वर्तमानकालमें गच्छोंके पक्षपातसे आपसमें जूदी जूदी प्ररूपणाके होनेसे भोलेजीवोंको श्रीजिनामाको शुद्ध श्रद्धा मिथ्यात्वरूप भ्रम पड़ता है, उसीको निवारण करने के लिये पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक मुक्ति अनुसार इस ग्रन्यकी रचना करता हूं, सो इसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अवलोकन करनेसे असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके . मोक्षाभिलाषी जन अपने आत्म कल्याण में उद्यम करें, एही इस ग्रन्थकारका तथा इस ग्रन्थका मुख्य प्रयोजन है । और इस ग्रन्थका अधिकारी तो वही होगा जो कि अपने गच्छ संबंधी परंपरा के पक्षपातका कदाग्रह रहित तथा जिनाज्ञा इच्छक और शास्त्रोक्त शुद्ध व्यवहारको अङ्गीकार करनेवाला सम्य. क्त्वधारी मोक्षाभिलाषी, नतु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी बहुलसंसारी गड्डरोह प्रवाही । मङ्गलाचरण और सम्बन्ध चतुष्टय कहे बाद सर्व सज्जन पुरुषोंको निवेदन करनेमें आता है कि- वर्त्तमानकाल में संवत् १९६६ के लौकिक पञ्चाङ्गमें दो श्रावण होने से श्रीखरंतर गच्छादिवाले पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक तथा श्री पूर्वाerrint आज्ञामुजब आषाढ़ चौमासी से ५० दिने दूसरे श्रावगर्मे श्रीपर्युषण पर्वका आराधन करते हैं जिन्हें को प्रथम श्रीवल्लभविजयजीने अपनी मति कल्पना से कोई भी शास्त्र के प्रमाण विना जैनपत्रद्वारा आज्ञा भङ्गका दूषण लगाकर के 'संपके वृक्षका बीज लगाया तथा प्रत्यक्ष श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध दो श्रावण होते भी भाद्रपद में यावत् ८० दिने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन करके भी मायावृत्तिसे आप आज्ञाके आराधक बनना चाहा, तथा उन्हींकाही अनुकरण करके दूसरे काशी से श्रीधर्म विजयजीने अपने शिष्य विद्याविजयजी के नामसे 'पर्युषणा विचार' का लेख प्रगट कराया जिसमें भी उत्सूत्र भाषणका तथा कुयुक्तियोंका संग्रह करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से शास्त्रों के आगे पीछे के पाठोंकों छोड़करके बिना सम्बन्धके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर शास्त्रकार महाराजांके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्रायसे विरुद्धहोकरके दूसरे श्रावणमें ५० दिने श्रीपर्यषण पर्वका आराधन करने वालोंपर खूबही आक्षेपेकी बड़े जोरसे वर्षा करी और पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणेांको उत्था. पन किये और जो संपसे धर्मकार्य होते थे जिन्होंमें विघ्नकारक छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तक प्रगट कराके कुसंपके वृक्षको उत्पन्न कराया और तीसरे जैन पत्रवालेने भी इन्होकेही अनुसार चल करके दूराग्रहके हठसे पर्युषणा विचारके लेखका गुजराती भाषान्तर जेनपत्रके २३ वें अङ्ककी आदिमें प्रगट करके उत्सत्र भाषणांके फल विपाक प्राप्त करने के लिये और गच्छकदाग्रहके झगड़ेको बढ़ाने के लिये श्रीजिनाजाके आरा. धक पुरुषोंको अनेक तरहसे आक्षेपरुप कटुक वचन लिसके कुसंपके वृक्षको बढ़ानेका कारण किया। इनतीनोंमहाशयोंके इसतरहकेलेखांको मैंने अवलोकन किये तो जिनाजा विरुद्ध एकान्त अपने गच्छ संबन्धी आग्रहके पक्षपातसे दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेवाले और आत्मार्थि भव्य जीवोंको श्रोजिनाज्ञाकाआराधन करने में विघ्न रूप मालूम हुए तब इस विघ्नको दूर करनेकी इच्छाहुई इसलिये मोक्षाभिलाषी जिनाज्ञा इच्छुक भव्य जोवोंको श्रीजिनाजाको शुद्ध श्रद्धा में दृढ़ करनेके वास्ते और उत्साभाषक गच्छकदाग्रहियोंको हितशिक्षाके लिये शास्त्रानुसार तपा शास्त्र युक्ति पूर्वक श्रीपर्युषणपर्वका आराधन सम्बन्धी वर्तमानिक विवादका निर्णय करना उचित समझा सो करके तत्वान्दोषि पुरुषों को दिखाता हूं:- श्रीगणधर महाराज कृत श्रीनिशीथ सूत्रमें १, श्रीपूर्वा. चार्यनी कृत श्रीनिशीपसूत्रके लघु भाथमें २, तपा बाबा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यी ३, और श्रीमिनदासगणि महत्तराचार्यजी पूर्वधर कत श्रीनिशीथसूत्रकी चर्णिमें ४, श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत श्रीदशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें ५, श्रीपूर्वाचार्यजी कृत तत्सूत्रकीचूर्णिमे६, श्रीपाश्चंद्रगच्छके श्रीब्रह्मर्षिजीकृत तत्सूत्रकीकृत्तिमें,श्रीपूर्वा चार्यजी कृत श्रीवहत्कल्पसूत्र के लघभाष्यमद,शहदायमें, तथा चूर्णिमें १०, और श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्तिसूरिणी कत श्री. हत्कल्पसूत्रको वृत्तिमें ११, श्रीसुधर्मस्वामीजी कृत श्रीसमवा. यांगजी सूत्र में १२,तथा श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रसिद्ध श्रीनवांगीकृत्तिकार श्रीअभयदेव सूरिजी कृत तत्सूत्रकी वृत्तिम १३, और उक्त महाराज कृत श्रीस्थानांगनीसुत्रकी पत्तिमें १४, श्रीभद्रबाहुस्वामी जी कृत श्रीकल्पसूत्र में १५, तथा नियुक्ति में १६, और श्रीखरतरगच्छके श्रीचिनप्रभसूरिजी कत श्रीकल्पसूत्रकी श्रीसंदेहविषौषधि वृत्तिम २७, तथा नियुक्तिकीकृत्ति १८, और विधिप्रपा नाम श्री समाचारी गन्थमैं १९, और श्रीखरतरगच्छ के श्रीलक्ष्मीवामभगणिजी कृत श्रीकल्पसत्रकी कल्पद्रमकलिकावृत्तिमें २० तथा श्रीखरतरगच्छके श्रीसमयसुन्दरजी कृत श्रीकल्पकल्पलतावृत्तिमें २१ और उक्त महाराज कृत श्रीसमाचारीशतकनाम ग्रन्थमें २२, श्रीतपगच्छके प्रोकुलमराठनसूरिजी कृत श्रीकल्पावचरिमें २३, तथा श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागरजी कृत श्रीकल्पकिरणावली वृत्तिमें २४, और श्रीनयविजयजी कृत श्रीकल्पदीपिकावृत्तिमें २५, और श्रीविनयविजयजी कृत श्रीमुबोधिकात्तिमें २६, श्रीसंघधिनयनी कृत श्रीकल्पप्रदीपिकावृत्ति २७, श्री विजयविमल गणिजी कृत श्रीगच्छाचारपयन्साकीकृत्तिमें २८ श्री अचलगच्छके बीउदयसागरजी कृत श्री कल्पावचूरिरूपत्तिौ २९,श्रीखरता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छके श्रीजिनपतिसूरिजी कृत श्रीसमाचारीग्रन्थमें ३० तथा श्रीसंघपट्टकरहवत्ति में ३१ और श्रीहर्षराजजी कृत श्रीसंघपटककी लघुवृत्तिमें ३२, और श्री पूर्वाचार्योंके बनाये तीन श्रीकल्पान्तरवाच्यों में ३५. इत्यादि पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे ५० दिन जानेसे अवश्यमेव पर्युषणा करना कहा है उसीकेही अनुसार तथा श्रीपूर्वाचार्यों की आज्ञा. मुजब वर्तमानकालमें दो श्रावण होनेसे दूसरे प्रावणमें अथवा दो भाद्रपद होनेसे प्रथम भाद्रपद में ५० दिने पर्यु। षणा करने में आती है इसी विषयकी पुष्टिके लिये पाठकवर्गको निःसन्देह होनेके वास्ते शास्त्रोंके थोडेसे पाठ श्री लिख दिखाता हूं। १ श्रीकल्पसूत्रके पृष्ठ ५३ से ५४ तकका पर्युषणा संबंधी पाठ नीचे लिखे मुजब जानो, यथा तेणंकालेणं तेणंसमएणं समगवंमहावीरे वासाणं सवी सहराएमासे विक्कते वासावासं पज्जोसवेइ ॥१॥ सेकेण?णं भंते एवं वच्चइ समणेभगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राए मासे विइक्वते वासावासं पज्जोसवेइ । जउणं पाएणं, अगारीणं अगाराई,कडियाई, उक्कंपियाई, छन्नाई, लित्ताई, पढाई मट्ठाई, संधूपियाई. खाउ दगाई, खायनिदुमणाई. अप्पणी अढाए कहा, परिभुत्ताई, परिणामियाई भवंति। सेते?णं एवं वुच्चर समणे भगवं महावीरे वासाणं सबीसीए मासे विक्ते वासावासं पज्जोसवेह ॥२॥ जहाणं समजगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राए मासे विरतते वासाar पन्नोसवेद । तहाणं गणहराधि वासाणं सवीसह राए से. कावते वासावासं पज्जोसर्विति ॥३॥ जहाणं गहरावि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) वासाणं संवीसहराएमासे जाव पज़्जोसविंति । तहाणं गणहर सीसावि वासाणं जाव पज्जोसविंति ॥४॥ जहाणं गणहरसीसा वासाणं जाव पज्जोसविंति । तहाणं थेरावि वासावा संजाव पज्नोसविंति ॥५॥ जहाणं थेरा वासाणं जाव पज्जोसविंति । तहाणं जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंधा विहरति एवि - अणं वासाणं जाव पज्जोसविंति | ६ || जहाण जे इमे अज्ज - साए समया निग्गंथावि वासाणं सबोसहराए मासे विहकुन्ते वासवासं पज्जोसविंति । तहाणं अम्हंपि आयरिया तवाया वासाण जाब पज्जोमविंति ||१|| जहाणं अम्हंपि आयरिया उवज्झाया वासाण जाव पज्जोसविंति । तहाण अम्हेवि वासाण सबसहराए मासे विक्कन्ते वसावासं पज्जेत्सवेमो । अंतरावियसे कप्पर मोसे कप्यइ तं रयणि वायणा वित्तए |॥८॥ इत्यादि · 9 भावार्थ:- तिसकाल तिससमयके विषे श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी वर्षा संबंधी आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन सहित एक मास याने ५० दिन जाने से वर्षावासमें पर्युष षणा करते भये ॥१॥ यहां पर शिष्य पूछता है कि भगवान् किस कारण से ऐसा कहते हो तब गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि प्राय करके गृहस्थ लोग भगवान्का महातम् जान करके इस समय वर्षा बहुत होगी ऐसा विचार करके अपने घरोंको चटाइयोंसे आच्छादित करेंगे चूनादि से सपेदी करेंगे, घास तृणादिसे उपरमें बंदोवस्त करेंगे, गोबर से लिंपन करेंगे आसपास में वाड वगैरह से जाबता करेंगे, संची नीची भूमीको तोड़कर बराबर करेंगे, पाषाणादिसे घस करके श्रीकणी करेंगे, मकानोंको धूपादिले सुगंधयुक्त करेंगे और , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने घरोंके ऊपरका वर्षा संबंधी पाणी निकलने के लिये प्रणा लिका करेंगे, और सब घर का पानी निकलनेके वास्ते नवीन खाल बनावेंगे अथवा पहिलेका खाल होवे उसीका सुधारा करेंगे, और उपयोगी सचित वस्तुओंको अचितकरके रखेंगे, इत्यादि अनेक तरह के आरम्भादि कार्य पहिलेसेही अपने लिये करलेवेंगे इसलिये उपरोक्त दोषोंका निमित्त कारण न होने के वास्ते आषाढ़ चौमासीसे १ मास और २० दिन गये बाद भगवान् पर्युषणा करते थे, ॥२॥ जैसे १ मास और २० दिन गयेबाद भगवान् पर्युषणा करते थे तैसेहीगणधरमहा राजभी १ मास और २० दिन गयेबाद पर्युषणा करते थे॥३॥ जैसे गणधर महाराज पर्युषणा करतेथे, तैसेही गणधरमहा. राजके शिष्य प्रशिष्यादि भी पर्युषणा करते थे ॥१॥ जैसे गणधर महाराजके शिष्यादि पर्युषणा करते थे तैसेहीस्थविर भी करते थे ॥५॥ जैसे स्थविर करते थे तैसेही बर्तमानमें श्रमण निर्ग्रन्थ विचरने वाले हैं सो भी उपरोक्त विधिके अनुसार पर्युषणाकरते हैं॥६॥ जैसे वर्तमानमें प्रमण निग्रन्ध पर्युषणा करते हैं तैसेही हमारे आचार्य उपाध्याय ५० दिने पर्युषणा करते हैं ॥७॥ जैसे हमारे आचार्यउपाध्याय ५२ दिने पर्युषणा करते हैं तैसेही हमभी आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने पर्युषणा करते हैं जिसमें भी कारण योगे ५२ दिन के भीतर पर्युषणा करना कल्पता है परन्तु कारण योगसे ५० वे दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है, याने ५० वें दिनकी रात्रिको उल्लंघन करनेवाले को जिनाज्ञा विरुद्ध दूषणकी प्राप्ति होवे। ... अब देखिये उपरोक्त सुप्रसिद्ध श्रीकल्पसूत्रानुसार दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( - ) माबणमें पर्युषणा करनेवालोंको वृथा द्वेषबुद्धिसे आशाअङ्गका दूषण लगाना और दो श्रावण होते भी आषाढ़ चीनासीसे दो मास उपर बीस दिन याने ८० दिने ( प्रत्यक्ष पंचाड़ी विरुद्ध अपनी मति कल्पनासे) पर्यवणा करके भी आज्ञा के आराधक बनना सेा गच्छकदाग्रहि उत्सूत्र भाषण करनेवालोंके सिवाय और कौन होगा सो विवेकी सज्ज - मोंको विचार करना चाहिये । और दो श्रावण होतेभी भाद्रपद में तथा दो भाद्रपद होनेसे भी दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा करनेवाले महाशयों को हर वर्ष पर्युषणा में प्राय करके सब जगह पर बंचाता हुआ मूलमन्त्ररूप उपरोक्त सत्रपाठको विवेक बुद्धिसे विचार के असत्यको छोड़ कर सत्यको ग्रहण करना चाहिये । और अब ऊपर के सब पाठकी सब व्याख्याओंके सबपाठ बहोत विस्तार हो जाने के कारणसे नहीं लिखता हूं परंतु ( अन्तरा विपसे कप्पड़ नेासे कप्पड़ तं रयणि उवायणा वितए) इस अन्तके पाठकी थोड़ीमी व्याख्याओंके पाठ लिखके पाठक वर्गको विशेष निःसन्देह होनेके लिये लिख दिखलाता हूं । • २ श्रीखरतरगच्छ के श्रोसमय सुन्दरजी कृत श्री कल्पकल्पता वृत्तिके पृष्ठ १९९ से १९२ तकका तत्पाठः- अन्तरावियसेकप्पइ पज़्जोसवित्तए । अन्तरापि च अर्वापिकल्प पर्युषितुं, "मोसेकप्पर तं रयणि" परं न करूपते तां रजनीं भाद्रपद शुक्लपञ्चमीं, "वाइणावित्तएत्ति, अतिक्रमितुं । उषनिवासे इत्यागमिकोधातुः, इह पर्युषणाद्विधागृहिज्ञाता गृह्यज्ञाताच, तत्र गृहिणामज्ञातायां वर्षा योग्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठफल कादी प्राप्त कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते, सा स्थापना आषाढ़पूर्णिमायां, योग्यक्षेत्रासावेतु पाच पञ्च दिनववधा यावद्भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी एकादशपर्वतिपिष क्रियते, गृहि ज्ञातायां तु यस्यां साम्पत्सरिकातिचारालोचनं १, लुच्चनं २, पर्युषणायां कल्पसूत्राकर्णनं वा कपनं ३, चैत्यपरिपाटी ४, अष्टमंतपः ५, साम्वत्सरिकंचप्रतिक्रमण क्रियते, ययाचव्रत पर्यायवर्षाणि गण्यते सा भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां, युगप्रधान कालक सूर्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटा कार्या यत्तु अभिवर्द्धितवर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यं, तत्सिद्वान्तटिप्पनानुसारेण तत्रहि युगमध्येपोषो युगान्तेच आषाढ एव वद्धते, तान्येतानि च अधुना न सम्यग जायंते अतो दिनपञ्चाशतेव पर्युषितव्यम् ॥ ३ और श्रीखरतरगच्छके श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिनी कत श्रीकल्पद्रुमकलिकावृत्ति के पृष्ठ २४२से२४३ तकका तत्पाठः (सत्रम्) अन्तरावियसै कप्पा-इत्यादि, अर्थ अन्तरापिच अर्वागपि महा कार्यविशेषात् भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीतःइतःकल्पते पर्युषणापर्वकर्तु, परं न कल्पते तां रजनी भाद्रपद शुक्लपञ्चमों अतिक्रमितु। पूर्व उत्सर्गनयः प्रोक्तः अन्तरावियसे इत्यादिना अपवादनयः प्रोक्तः । एकादशसु पञ्चकेषु कुर्वत्सु आषाढ़ पूर्णिमादिवसे प्रथमं पर्व, एवमग्रे पञ्चभिः पञ्चभि. दिवसैः एकैकं पर्व, एवं कुर्वतां साधूनां पञ्चाशदिनैः एकादश पर्वाणि भवन्ति, एतेषु एकादशपर्व दिवसेषु पर्युषणापर्व कर्तव्यं । पर्वसु एकस्मिन्दिने न्यूनेपि कारण विशेषेण पर्युषणा कत्तव्या, परं एकादशभ्यः पर्वभ्यः उपरि अधिके एकस्मिन्नपि दिने गते पर्युषणा पर्व न कर्तव्यमुपरिदिनं नोल्लङ्घनीय मित्यर्थः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গরিলাবালি ললীয় জঘিলাই লভ লগसया भाषाढाचतुर्मासात् पञ्चाशदिन भाद्रपद शुलपल्खुमी दिने पर्युषणा पर्व भवति, श्रीकालिकाचार्याणामादेशात् भाद्रपदशक्तपंचमीतः इतः चतुयाक्रियते, भाद्रपद शुक्लपञ्चम्या रात्रिमुखवय अग्रेपर्युषणा न कल्पते अनादि सिद्धानां तीर्थकराणां आया। इदानीमपि चतुया पर्युषणां कुर्वतः साधवो गीतार्यास्तीर्थंकराज्ञाराधका शेया ॥ ४ और श्रीतपगच्छके श्रीकुलमंडन सूरिजीकृत श्रीकल्पावचूरिके पृष्ठ १९२ में तत्पाठः-- अन्तरा वियसै कप्पइ, अंतरापि च अर्वागपि कल्पते, “पज्जोसवेय" पर्युषितुं परं "नोसैक प्याइ" न कल्पते "तं रयणि उवायणा वित्तए" तारजनी भाद्रपद शुक्लपञ्चमी अतिक्रमितुं । उपनिवासे इत्यागनिकोधातुः ॥ इहहि पर्युषणा द्विधा गृहिजाताजातभेदात् तत्र गृहिणाम ज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठ फलकादौ प्राप्त यत्नेन कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, कालभाव, स्थापना क्रियते सा आषाढपूर्णिमायां, योग्य. क्षेत्रासावेतु पंच पंच दिन बुद्धया यावद्धाद्रपदसित पंचमी, साचेकादशसु पर्वतिषिषु, क्रियते, हिज्ञाता यस्यां तु सांव. त्सरिकातिचारालोचनं, खुश्चनं, पर्युषणायां कल्पसूत्रकथनं, चैत्यपरिपाटी, अष्टमं, सांवत्सरिकंप्रतिक्रमणंचक्रियते ययाच व्रतपर्याय वर्षाणि गरयन्ते, सा नसस्य शुक्लपञ्चम्यां कालकसूर्योदेशाचतुर्थ्यामपि बनप्रकटाकार्या, यत्पुनरनिवर्द्धित वर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते, तत्सिद्धांत टिप्पनानुमारेण तत्रहि युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्द्धते नान्येमासास्तानिचअधुना न सम्यग जायन्तेऽतो दिन पञ्चा. शतव पर्युषणा सङ्गतेतिबद्धाः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ और श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागरजी कृत श्रीकल्पकिरणावलीवत्तिके पष्ठ २५७ से २५८ तकका तत्पाठः-- तत्र अन्तरापिच अगपि कल्पते पर्युषितु परं न कल्पते तां रजनी भाद्रपद शुक्ल पंचमी, "उवायणा वित्तएत्ति" अतिक्रमितु, उपनिवासे इत्यागमिकाधातुः। बस निवास इति गणतंबन्धीवाधातुः । इहहि पर्युषणा द्विविधा गृहि जाताज्ञातभेदात् तत्र गृहिणामाता यस्यां, वर्षायोग्य पीठफल कादौ प्राप्त यत्नेन करपाक्तद्रव्य, क्षेत्रकालाव,स्थापनाक्रियते सा चाषाढ़पूर्णिमायां योग्यक्षेत्रासावेतु, पंच पंच दिन बद्धपा दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्रपदसितपंचमीमेवेति गहिज्ञाता तु द्विधा माम्वत्सरिक कृत्यविशिष्टा गहिज्ञातमात्राध तत्र साम्वत्सरिक कृत्यानि, “सांवत्सरप्रतिमान्ति १च्चनं २ चाष्टमन्तपः ३ सर्वाक्तिपूजाच ४ सस्य क्षामणं मियः ५" एतकृत्य विशिष्ट भाद्रपदसितपंचम्यां कालकाचार्यादेशाचतुमिपि जनप्रकटाकार्या, द्वितीयातु अभिवर्द्धितवर्षे चातुर्मासिक दिनादारभ्य विंशत्यादिनः वयमत्रस्थितास्म इति पच्छनां गृहस्थानां पुर। बदन्ति सातु गृहिज्ञात मात्रैव, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते वाषाढ़ एव वर्तुते नान्येमासाः तच्चाधुना सम्यगन ज्ञायतेन्तः पंचाशतवादिनः पर्युषणासङ्गतेति बहाः ॥ ६और श्रीतपगच्छके श्रीजयविजयजी कृत श्रीकल्पदीपि का वृत्तिके पृष्ठ १३० में तत्पाठ:--- अन्तरावियसेकम्पत्ति, अन्तरापि च अर्वागपि कस्पते पर्युषितं, परंन कल्पते तां रखनी भाद्रपदातपंचमी "डवायजा वित्तएति" अतिकमित, उपनिवासे त्यागनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधातुः, वस निवास इति गणसंबंधीवाधातुःहहि पर्युषणा द्विविधा गृहिताताज्ञानभेदात् तत्रगृहिणामज्ञाता यस्या वर्षायोग्य पीठ फलकादौ प्राप्त कल्पेक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते, साव आषापूर्णिमायो. योग्यक्षेत्राभावे तु पंच पंच दिन वृद्धया दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्र पदसित पंच मोमेवेति । गृहि जाता तु द्विधा सांवत्सरिककृत्य. विशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा च तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि, “सांवत्सरिकप्रतिक्रमण १,लुचनं २, अष्टमं तपः ३, चैत्यपरिपाटी, संघक्षामणं" एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रपदसित पंचम्यां कालकाचार्यादेशाच्चतु या जनप्रकट कार्या, द्वितीयातु अनिवर्द्धितवर्षे चातुर्मासिदिनादारभ्य विंशत्यादिनैः वयमत्रस्थितास्म पति पृच्छता गृहस्थानां पुरो वदन्ति सातु गृहिजातमात्रय तदपि जैनटिप्पन कानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांत च भाषाढ़ एव वर्द्धते मान्येमासाः तच्चाधुना सम्यग म ज्ञायते अतः पंचाशतेवदिनैः पर्युषणासङ्गतेति वृद्धाः ॥ __9 और श्रीतपगच्छके श्रीविनयविजयजी कृत श्रीसुख. बेाधिकावृत्तिके पृष्ठ १४६ में तथाच तत्पाठः____ अंतरावियसेकप्पह, अंतरापिचअर्वागपि कल्पते पर्युषितुं परं न कल्पते तां रात्रिं भाद्रपदशुक्ल पंचमी, "उवायणा वित्त एत्ति" अतिक्रमितं, तत्र परिसामस्त्येन उषण वमनं पर्युषणा, साद्विधा गृहस्थाता गृहस्थैर जाताच, तत्र गृहस्थैरजाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त कल्पाकद्रष्य क्षेत्र काल भाव स्थापना क्रिपते साचाषाढ़पूर्णिमायां, योग्य क्षेत्रासावेतु पंच पंच दिन वृद्धघा दशपर्व तिथि क्रमेण यावत् भाद्र पद सितपंचभ्याम्, एवं गहिचाता तु द्विधा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) साम्वत्सरिककृत्याविशिष्टा गृहिज्ञातमात्राच, तत्र साम्ब. सरिककृत्यानि “सांवत्सर प्रतिक्रांति १ लुञ्चनं २ चाष्टमंतपः ३ सहिद्भक्तिपूनाच ४ संघस्यक्षामणमिथः ५ ॥१॥" एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रपदसित पंचम्यामेव कालिका चायादेशाच्चतुर्थ्यामपिकार्या, केवलं गृहितातातु सा यद् अभिवर्द्धितवर्षे चातुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैर्वयमत्रस्थितास्माति पृच्छता गृहस्थानी पुरोवदंति तदपि जैनटिप्पनका. नुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांतेचाषाढएव व ते नान्येमासास्तहिप्पन कन्तु अधनासम्यग न ज्ञायते अतः पंचाशतै वदिनेः पर्युषणायुक्ततिवृद्धाः ॥ - उपरोक्त श्रीखरतरगच्छ तथा श्रीतपगच्छ उन दोनों गच्छवालोंके छ पाठोंका संक्षिप्त भावार्थ:-अंतरा वियसे कप्या। अन्तरापिच अर्वागपि कल्पते पर्युषितं. इत्यादि कहने से-जो आषाढ़ चौमामीसे ५० दिने पर्युषणा करने में आती है जिसमें कारण योगे ५० दिनके अंदर ४ वे दिन पर्युषणा करना कल्पता है पन्तु ५२ वे दिनकी जो भाद्रपद शुक्लपंचमीकी रात्रि है उसीको उल्लंघन करना नहीं कल्पता है और उषधातुमे उषणा बनता है तथा परिउपसर्ग लगनेसे पर्युषण बन जाता है मो उषधातु निवास अर्थ में वर्तती है अथवा गण संबंधी वस धातु भी निवासार्थ में वर्तती है और ग्रामानुग्राम विहार करनेका निवारण करके सर्वथा प्रकारसे वर्षाकाले एकस्यानमें निवास करना सो पर्युषणा कही जाती है वो पर्युषणा इहां दो प्रकारकी है गहस्पी लोगोंकी जानी हुई तथा गृहस्यो लोगोंकी नहीं जानीदुई तिसमें गृहस्थोडोगों की नहीं जानी हुई पर्युषणा जिसमें बांकाल सषित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) पाट पाटलादि द्रव्योंका योग बननेसे यत्र करके शास्त्रोक्त विधिसे द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की स्थापना करनी जिसमें उपयोगी वस्तुओंका संग्रहसो द्रव्य स्थापना, और विहारका निषेध परन्तु आहारादि कारणसे मर्यादा पूर्वक जानेका नियम सो क्षेत्र स्थापना, और वर्षाकालमें जघन्यसे 90 दिन तक तथा मध्यमसे १२० दिन तक और उत्कृष्ट से १८० दिन तक एक स्थानमें निवास करना सो कालस्थापना, और रागादि कर्मबन्धके हेतु ओंका निवारण करके इरियासमिति आदिका उपयोग पूर्वक वर्ताव करना सो भावस्थापना, इस तरहसे वो द्रव्यादि चतुर्विध स्थापना आषाढ़ पूर्णिमामें करनी परन्तु याग्य क्षेत्र के अभावमें तो आषाढ़ पूर्णिमासे पांच पांच दिनकी वृद्धि करके दशपंचक तिथियों में क्रममें यावत् भाद्रपद सुदी पंचमी तक, आषाढ़ पूर्णिमासे दशपंचकमें परन्तु भाषाढ़ सुदी १० मी के निवासकी गिनतीसे एकादशपंच कोंमें जहां द्रव्यादिका योग मिले वहां पूर्वोक्त कहे वैसे दोषोंका निमित्त कारण न होने के लिये अज्ञात पर्युषणा स्थापन क. रनी और आषाढ़ चौमासीसे ५०दिने गृहस्थी लोगोंकीजानी हुई पर्युषणा जिसमें वार्षिकातिचारोंकी आलोचना करनी, केशोंकालुचन करना,श्रीकल्पसूत्रकासुनना वा पठनकरना, अष्टमतप करना, चैत्यपरिपाटी (जिन मन्दिरों में दर्शनकरने) और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना, और सर्व संघकोक्षामणे करना और दीक्षापर्यायके वर्षों की गिनती करना सोशातपर्युषणा भाद्रपदशुक्ल पंचमी में होती थी, परन्तु युग प्रधान श्रीकालका चार्यजीमहाराजके आदेशसे भाद्रशुक्ल चतुर्थी के दिन करने में भाती है। सो गीतार्थों की आचरणा होनेसे श्रीजिनामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सुजबही जाननी हो भाद्र पदकी पर्युषणा मासष्टद्विके अभाव से चन्द्रसंवत्सर संबंधिनी जानती । और मासवृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर में तो आषाढ़चोमासीसे बीस दिन करके याने श्रावण शुक्ल पंचमी को गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई पर्यषणा करनेमें आती थी सो तो जैन सिद्धान्त का टिप्पणानुसार युगके मध्य में पौषमास और युगके अन्तमें आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी परन्तु और किसी भी मासको वृद्धिका अभाव था। वोटिप्पणा तो अभी इस काल में अच्छी तरह से देखने में नहीं आता है इसलिये मासवृद्धि हो तो भी ५० दिनों पर्युषणा करनी योग्य है इस तरहसे वृद्धाचार्य कहते हैं अर्थात् मासवृद्धि होने से जैनपंचांगानुसार बीस दिने श्रावणमे पर्युषणा करमेमें आती थी परन्तु जैमपंचांगके अभाव से लौकिक पंचांगानुसार नासवृद्धि दो श्रावण अथवा दो भाद्रपद होतो भी उसीकी गिनती पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में पर्यु - षणा करनेकी प्राचीनाचायों की आज्ञा है इसी ही कारणसे श्रीलक्ष्मीवल्लभ गणिजीने अधिमासको गिनती पूर्वक ५० दिन पर्युषणा करने का खुलासा लिखा है । उसी मुजब अतामार्थियोंको पक्षपात छोड़कर वर्तना चाहिये । और श्रीधर्मसागरजी श्रीजय विजयजी श्री विनय विजयजी इन तीनों महाशयोंके बनाये (श्रीकल्पकिरणावली श्रीकल्प दीपिका श्रीसुखबोधिका इन तीनों वृत्तियांके) पर्युषणा 'सम्बन्धी पाठ ऊपर में लिखे हैं उमीमें इन तीनों महाशयेांने, ज्ञात याने गृहस्थी लोगों की जानी हुई पर्युषणा दो प्रकारकी लिखी है और अभिवर्द्धित संवत्सर में आषाढ चीमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौसे बीस दिने पर्युषणा करने में आती थी उसीको वार्षिक हत्यारहित केवल गृहस्थीलेागांके कहने मात्रही ठहराई सा कदापि नहीं बन सकता है क्योंकि अधिक मास होनेसे बीस दिनकी पर्युषणाकाही जैन पंचाङ्गके अभावसे अधिक मास होतो भी ५० दिने पर्युषणा पूर्वाधार्याने ठहराई है इस लिये वीस दिनकी पर्युषणा कहनेमात्रही ठहरानेसे ५१ दिनकी पयुषणा भी कहनेमात्रही ठहर जगी और वार्षिक कृत्य उसी दिन करने का नहीं बनेगा इसलिये जैसे मासवृद्धि के अभा. वसै ५० दिने ज्ञात पर्युषण में वार्षिक व त्य होते हैं तैसेही मासद्धि होनेसे वीस दिनकी ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य मानने चाहिये क्योंकि जात पर्युषणा एकही प्रकारको शामें लिखी है परन्तु वीस दिने ज्ञात पर्युषणा करके फिर मागे वार्षिक कृत्य करे ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है इसलिये जहां ज्ञात पर्युषणा वहांही वार्षिक कत्य शाखोक्त युक्ति पूर्वक सिद्ध होते हैं इसका विशेष विस्तार इनही तीनों महाशयोंके लिखे ( अधिक मासकी गिमती निषेध सम्बन्धी पूर्वापरविरोधि ) लेखांकी आगे समीक्षा होगी वहां लिखने में आवेंगा। ___ अब देखिये बड़े ही आश्चर्यकीवातहै कि श्रीतपगच्छके इतने विद्वान मुनीमंडली वगैरह महाशय उपरोक्त व्याख्याओंकों हर वर्ष पर्युषणाके व्याख्यानमे बांचते हैं इसलिये उपरोक पाठार्थीको भी जानते हैं तथापि मिथ्या हठवादसे भाले जीवोंको कदाग्रहमें गेरने के लिये पौष अथवा आषाढके अधिक होने से उसीकी गिनती पूर्वक जैन पंचांगानुसार प्राचीनकालमें आषाढ चौमासीसे बास दिने प्रावण सुदीमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) पर्युषणा होती थी परन्तु जैन पंचांगके अभावसे वर्तमानकालमेंझी लौकिक पंचाङ्गानुसार अधिक मास होनेसे उसीकी गितनी पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रम पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्योंकी मर्यादा है ऐसा उपरोक्त पाठासे खुलासा दिखता है तथापि उपरोक्त पाठायाँका भावार्थ बदला करके मासवृद्धिके अभावसे ५० दिने भाद्र. पदमें पर्युषणा कही है उसीकोही वर्तमानमें मासवृद्धि दो प्रावण होते भी ८० दिने जिनाज्ञा विरुद्धका भय न करते हुए भाद्रपदमें ठहरानेका वृथा आग्रह करते हैं सो क्या लाभ प्राप्त करेंगे। तथा उपरोक्त व्याख्याओंमें "अभिवर्द्धित वर्षे" इस शब्दसे श्रीखरतरगच्छके श्रीसमय सुंदरजी तथा श्रीसपगच्छके श्रीकुलमंडनसूरिजी श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी इन सबी महाशयोंके लिखे वाक्यसे अधिक मासकी गिनती प्रत्यक्षपने सिद्ध है इसलिये अधिकमासकी गिनती निषेध भी नहीं हो सकती है तथापि कोई निषेध करेगा तो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे श्रीअनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचायोंकी और अपनेही गच्छके पूर्वजोंकी आज्ञा उल्लंघनका दूषण उगेगा क्योंकि श्रीअनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा चायने तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वजाने अधिकमासके दिनोंकी गिनती पूर्वक तेरह मासोंका अभिवर्द्धितसंवत्सर कहाहै इसका विस्तार आगे शास्त्रों के पाठायों सहित तथा युक्ति पूर्वक लिखने में आवेगा और भी प्रोपाश्चंद्रगच्छ के श्रीबलर्षिजी कृत श्रीदशात स्कन्ध सूत्रको बत्तिके पष्ठ ९१२ से १९५ तकका पर्युषणा सबन्दी पाठ यहां दिखाता हूं तपाच पाठ : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणं कालेणं तेणं समएणमित्यादि। व्याख्यातार्थः वासा. जन्ति आषाढ़चातुर्मासिक दिनादारभ्य सविंधति रामासे व्यतिक्रान्ते भगवान् “पज्जोसवे इति" पर्युषणामकार्षीत् । परिसामस्त्येन उषणं निवासः । इत्युक्तशिष्यःप्रश्नयितुमाह सेकेणठेणमित्यादि प्रश्नवाक्यं सुबोधं गुरुराह । जउणमित्यादि निर्वद्ववाक्यं यतः णं प्राग्वत्. पएणमित्यादि अगारिणां गृहस्थानां, अगाराणि गृहाणिः, कडियाइंति कठयुक्तानि, उक्कं. पियाई-धवलितानि. छन्नाइं तृणादिभिः, लित्ताई-लिप्तानि छगणाद्यःक्वचित् गुत्ताईत्ति पाठ स्तत्र गुप्तानि वृत्तिकरण द्वारपिधानादिभिः, घटाई विषमभूमिभंजनात्,महाइंश्लक्षणीकृतानि कचित्मम टाइंतिपाठ स्तत्र समन्तात् मृष्टानि मसुणीकृतानि, संधूपियाइंति सौगन्ध्यापादनार्थं धूपनैर्वासितानि, सातो. दगाई कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि, खायनिढुमणाई निद्रुमणं साडं गृहात्सलिलं येन निर्गच्छति, अप्पणीअढाए आत्मा स्वार्थ गृहस्यैः कृतानि परिकर्मितानि करोति, काण्डं करो. तीत्यादि विविधपरिकर्मार्थत्वात्, परिभुतानि तैः स्वय परिभुज्यमानत्वात्, अतएव परिणामितानि अचित्तीकृतानि भवन्ति, ततः सविंशतिरात्रे मासे गते अमी अधिकरणदोषा न भवन्ति। यदि पुनः प्रथममेव साधवः स्थितास्म इति ब्रयुस्तदा ते प्रव्रजितानामवस्थानेन सुभिक्षं सम्भाव्यं गृहिणस्तप्तायो गोलकल्पा दंताल क्षेत्रकर्षण, गृहच्छादनादीनि कुर्युः, तथा चाधिकरणदोषा अतः पञ्चाशदिनैः स्थिता स्म इति वाच्यं, गणहरावित्ति गणधरापि एवमेवाकार्ष, अज्जत्ताए पति अद्यकालीना आर्य्यतया प्रतस्थविरा इत्येके,अम्हंपित्ति अस्माक. मपि भाचार्योपाध्याया, अम्हेवित्ति वयमपीत्यर्थः॥ अन्तरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बियसे कप्पा इत्यादि अन्तरापि च अर्धागपि कल्पते युज्यते पर्यु षितं पर न कल्पते तां रजनी भाद्रपदभुक्तपञ्चमी उवायणा वित्तएति अतिक्रमितुतिष निवासे इत्यामिको धातुः पर्युषितुं वस्तुमिति सूत्रार्थः ॥ अत्र अन्तरा वियसे कप्पा इति कथ. नात् पर्युषणा द्विधा सूचिता, गृहिजाताजातभेदात् । तत्र गृहिणामजाता यस्यां, वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त योन कल्पोक्त-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव स्थापना क्रियते, सा आषाढ़ शुक्लपौर्णमास्यां, योग्यक्षेत्रासावेतु पञ्च पञ्च दिन वृद्धया यावद्वाद्रपदसितपञ्चम्यां साचैकादशसु पर्वतिथिषु क्रियते। गृहिजाता तु यस्यां सांवत्सरिकातिचारालोचनं, लुचनं, पर्युषणा कल्पसूत्राकर्णनं, चैत्यपरिपाटी, अष्टम, सांवत्सरिकप्रतिक्रमण च क्रियते, यया च व्रतपर्याय वर्षाणि गण्यन्ते सा नास शुक्लपञ्चम्यां, एतावता यदा भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां सांवत्सरिकप्रतिक्रमण कृतं ततः जद्धन्तु म कल्पते विहाँ, ततस्तदवधि वित्तव्यं । अन्तरापिचैकादशसु पर्वतिथिष क्रियते निवासी नतु प्रतिक्रमणं । कश्चिदुध्यते यत्र वासस्तत्रैव प्रतिक्रमणमपि छ,यदियौव वासस्तत्रैव प्रतिक्रमणंघेत्ताषाढशुक्ल पक्षदश्यामपि तत्कत्तव्यं न चैवं दृष्टमिष्टं वा, ततो नियत निवासएक वासायुक्त इति परमार्थः । अममेवा) श्रीधर्मस्वामिव्यासः प्रतिपादयति। श्रीसमवायांगे यथा समये भगवं महावीरे वासाणं सोसा राए मासे विक्वन्ते सत्तरिएहिराइदिएहिंसेसेहिं वासावासं पज्जोसवेत्ति । व्याख्यात समणे इत्यादि वर्षाणां चातुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशतिदिनेष्वतीते. वित्यर्थः । सप्तत्यां च रात्रि दिवसेषु शेषेषु संवत्सरप्रतिक्रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) पसप चा दिवसे भाद्रपद शुरूपञ्चम्यामित्यर्थः । वर्षाखावासी वर्षावासः वर्षावस्यान 'पज्जोसवेइत्ति' परिवसति सर्वथा करोति पञ्चाशदिनेषु व्यतिक्रान्तेष तपाविध वसत्यभावादि कारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, परं भाद्रपदशुक्लपञ्चमयां तु हक्षमूलादावपि निवसतोति हयं । चन्द्रसंवत्सरस्यैवायं नियमः नामिवर्द्वितस्येत्यादि । तथाहि नियुक्तिकारः-एत्पत पणगं पणगंकारणीयं जाव सवीसइमास ॥ सुद्धदसमी ठियाणमासाढीपुस्लिमो सरणं ॥१॥ इयसत्तरी जहमा असीह गई दहत्तर सयंच॥जह वास मग्गसिरे दसरायातिणि उक्कोसा ॥२॥ कारण मासकप्पं तत्थेव ठियाण जवास मग्गसिरे सालंबणाणं छम्मासिता जेठोग्गहाहो ॥३॥ सुगमाश्चमा मवरमाद्यगाथा द्वयस्य चूर्णिः ॥ मासाढ़पुतिमाए ठियाण जति तण डगलादीणि गहियाणि पज्जोसवणाकप्पो ण कहितो तो सावणबहुल पञ्चमीए पज्जोसवेंति। असति खेत्ते सोवणबालदसमीए। असति खेते सावणबहुलपसरसोए एवं पञ्च पञ्च उस्सारं तेणं जाव असतिखेते अवयसुद्धपञ्चमीए। अतापरेण णबहति अतिकमितुं आसाढ़पुलिमा तो आढ़त्तं मग्गंताणं जाव भद्दवय जोरहस्स पञ्चमीए एत्यन्तरे जतिवासखेतं ण लड़े ताहे रुख्ससहेडठिता तावि पज्जोसवेयवं एतेसु पवेस जहालंभे पज्जोसवेयवमिति अपव्वे ण वहति अत्र पूर्वोक्तानि एकादशपर्वाणि अन्यानि तु वसतिमाश्रित्य अपर्वाणि यानि संवत्सरप्रतिक्रमणं तु भाद्रपदशक्तपञ्चम्यामेवेति द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्थापना तु सम्प्रत्यध्ययने दर्शितैवेति न पुनरुच्यते ततएवावसेया। नवरं कल्पमाश्रित्य जघन्यता नभस्य सितषसम्यारारभ्य कार्तिकचातुर्मासंयावत् सप्ततिदिनमानं एतावता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) यदा सप्तत्या अहोरात्रेण चातुर्मासिकंप्रतिक्रमणं विहितं तद मन्तरं प्रत्यूष विहर्त्तव्यं कारणान्तराभावे । तत्सद्भावे तु मार्गशीर्षेणापि सह आषाढ़ मासेनापि च सह वरमासा इति : यत् पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिन विंशत्या पर्युषितव्यमिति, उच्यते तत्सिद्धान्त टिप्पनानुसारेण तत्र हि प्रायो युगमध्ये पावो युगान्ते चाषाएववर्द्धते तानि च माधुना सम्यग् ज्ञायन्ते अता ठोकिक टिप्पनानुसारेण यो मासो यत्र वर्द्धते स तत्रैव गणयितव्यः नान्याकल्पनाकार्य्या दृष्टं परित्यज्याऽदृष्टकल्पनानसङ्गता आन्नाया उपरिज्ञानात्तु कल्पनापि न निश्चयतव्येति सांप्रतं तु कालकाचार्थ्याचरणाच्चतुर्थ्यामपि पर्युषणां विदधति इत्यादि । देखिये ऊपर के पाठ में श्रीसमवायाङ्गजी यथा तद्वृत्ति मौर श्रीदशाश्रुतस्कन्ध सूत्रकी नियुक्ति तथा उसीकी वर्णिके पाठी के प्रमाण पूर्वक दिनोंकी गिनती आषाढ़ चौमासी ५० वें दिन मासवृद्धिके अभाव से चन्द्रसंवत्सर में निश्चय निवास पूर्वक ज्ञात पर्युषणा में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेका प्रगटपने खुलासे दिखाया है और योग्य क्षेत्रके अभाव से ५० वें दिनकी रात्रिको भी उल्लंघन न करते हुए जंगल में वृक्ष मीचे पर्युषणा कर लेने का भी खुलासा हिडाई और चन्द्रसंवत्सर में ५० दिने पर्युषणा करने से कार्त्तिक तक स्वभावसेही 90 दिन रहते हैं सो जघन्यकालावग्रह कहा जाता है और प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पौष वा आषाढकी वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धितसंवत्सर में आषाढ़ चौनासीसे बीस दिने श्रावण सुदीमें ज्ञात पर्युषणा करने में आती थी तब भी पर्युषण के पिछाड़ी कार्त्तिक तक स्वभावसेही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दिन रहते थे इसलिये वर्तमानमें मास इद्धि दोश्राव. णादि होते भी पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन रखनेका मा. यह करना सो अज्ञानतासे प्रत्यक्ष अनुचित है और जैन पंचाङ्ग इस कालमें अच्छी तरहसे नहीं जाना जाता है इसलिये उसीके अभावसे लौकिक पंचाङ्गानुसार जिस महीनेकी जिस जगह वृद्धि होवे उसीकोही उसी जगह गिनना चाहिये परन्तु अन्य कल्पना नहीं करनी,अर्थात् जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार पौष, आषाढ़ के सिवाय चैत्र, श्रावणादि मासों के वृद्धिकी गिनती निषेध करने के लिये गच्छाग्रहसे अपनी मति कल्पना करके अन्यान्य कल्पनायें भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि लौकिक पंचाङ्गानुसार चैत्र, श्रावणादि मासेांकी वृद्धि होने का प्रत्यक्ष प्रमाणको छोड़ करके पौष आषाढ़ की वृद्धि होनेवाला जैन पंचार वर्तमान में प्रचलित नहीं होते भी उसी सम्बन्धी मास वृद्धिका अप्रत्यक्ष प्रमाणको ग्रहण करनेका आग्रह करना मो भी योग्य नहीं है क्योंकि जैन पचाङ्गके अभावसे लौकिक पंचाङ्गानुसार वर्ताव करते भी उसी मुजब मास वृद्धिकी गिनती नहीं करना एसा कोई भी शास्त्रका प्रमाण नहीं होनेसे गच्छाग्रहकी युक्ति रहित कल्पना भी मान्य नहीं हो सकती है और आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो शास्त्रोक्त प्रमाण पूर्वक तथा युक्ति सहित प्रसिद्ध न्यायकी बात है। - और अब प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पर्युषणा की मर्यादावाला एक पाठ वांचक वर्गको ज्ञात होनेके लिये दिखाताहूं श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चंद्र सूरिजीको परंपरामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) श्रीपगच्छ के श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजी कृत श्रीबृहत् कल्पसूत्र की वृत्तिका तीसरा खण्डका तीसरा उद्दे शाके पृष्ठ ५८ से ५० तकका पाठ नीचे मुजब जानो, यथा अथ यस्मिन् काले वर्षावास स्थातव्यं यावन्तं वा कालं येन विधिना तदेतदुपदर्शयति । आसाढ़ पुलिमाए वासावाससु होति अतिगमणं मग्गसिरबहुल दसमीट जावएक नि खेतंनि ॥ आषाढ़ पूर्णिमायां वर्षावास प्रयोग्य क्षेत्रे गमनं प्रवेशः कर्त्तव्यं भवति तत्र चापवादता मार्गशीर्ष बहुल दशमी यावदेकत्र क्षेत्रे वस्तव्यं एतच्च चिखिल्ल वर्षादिकं वक्ष्यमाणं कारण मङ्गीकृत्योक्तं, उत्सर्गतस्तु कार्त्तिक पूर्सि मायां निर्गन्तव्यं इदमेव भावयति ॥ बाहिद्विया वसभेहिं खेत्तंगाहितु वास पा गं कप कटुवा सावण बहुलस पञ्चाहे ॥ यत्राषाढमासकल्पं कृतस्तत्रान्यत्र वा प्रत्यासन्नग्रामेस्थिता वर्षावासयोग्यक्षेत्रेवृषमा साधुसामाचारी ग्राहयन्ति, तेच वृषभा वर्षा प्रयोग संस्तारकं तृण इगल क्षार मल्लकादिकमुपधिं गृह्णन्ति तत आ. बाढ़ पूर्णिमायां प्रविष्टाः प्रतिपदमारभ्य पञ्चभिरहोभिः पर्युaar कल्पं कथयित्वा श्रावण बहुल पञ्चम्यां वर्षाकाले सामाचार्याःस्थापनां कुर्वन्ति पर्युषयन्तीत्यर्थं ॥ इत्थय अणभिग्गहिय वीसतिरायं सवोसह मासं तेण परमभिग्गहियं गाहिणायं कतिओजाव ॥ अत्रेत्ति श्रावण बहुल पञ्चम्यादौ आत्मना पर्यषितेऽपि अनभिग्रहीतममवचारितं गृहस्थानां पुरतः कर्त्तव्यं किमुक्कं भवति यदि गृहस्थाः पृच्छेयुरार्यायूयमत्र वर्षाकाले स्थितावा न वेति एवं पृष्ट े सति स्थितावयमत्रेति सावधारणं म. कर्त्तव्यं, किन्तु तत्संदिग्धं यथा माद्यापि निश्चितः स्थिता अस्थिता चेति, इत्थमन भिगृहीतं कियन्तं कालं वक्तव्यं उप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) द्यनिर्द्धितो सौ संवत्सरस्ततो विंशतिरात्रि दिनानि, अथ सन्द्रोसो ततः स विंशतिरात्रं मासं यावदनभिगृहीतं कव्यं, तेण विभक्ति व्यत्यया ततः परं विंशति रात्र मासा चोद्धमभिगृहीतं निञ्चितं कर्त्तव्यं गृहिचातच गृहस्थानां पुच्छतां ज्ञापना कर्त्तव्या यथा वयमत्र वर्षाकाले स्थिता एतच्च गृहिज्ञातं कार्त्तिकमासं यावत् कर्तव्यं किं पुनः कारणम् कियति काले व्यतीत एव गृहिज्ञातं क्रियते नावगित्यत्रोच्यते ॥ असिवाइ कारणेहिं अहवा वासं ण सुट्टु आरढुं अभिवडियंमि बोसा हयरेड सवीसह मासो ॥ कदाचित्तत्क्षेत्रे अशिवं भवेत् आदिशब्दात् राजदुष्टादिकं वा भयमुपआग्रेत एवमादिभिः कारणे अथवा तत्र क्षेत्रे न वर्ष वर्षितुमारधं येन धाम्यनिष्पत्तिरुपजायते ततश्च प्रथममेव स्थिता वयमित्युक्ते पश्चादशिवादि कारणे समुपस्थिते यदि गच्छन्ति ततो लोको ब्रूयात् अहे। एते आत्मानं सर्वज्ञ पुत्र तयाख्यापयन्ति परं न किमपि जानन्ति सृषावाद वा भाषन्ते स्थिता. स्म इति भणित्वा सम्प्रति गच्छन्तीति । अथाशिवादि कारणेषु सञ्जातेषु अपि न गच्छति तत आज्ञाऽतिक्रमणादि दोषा अपिच स्थिता स्म इत्युक्ते गृहस्था चिन्तयेयुरवश्यं वर्ष भविष्यति येनेति वर्षा रात्रमत्र स्थिताः ततो धान्यंविक्रीणीयुः गृहं वाच्छादयेयुः इलादीनि वा स्थापयेयुः यतएव मता अभिवर्द्धितवर्षे विंशतिरात्रे गते इतरेषु च त्रिषु चन्द्रसम्वत्सरेषु सविंशतिरात्रे मासे गले गृहिज्ञानं कुर्वन्ति ॥ gree पणगं पणगं कारणीयं, जाव सवीसह नासो, इड दसमी ठियाण, आसाडीपुसिमोसरणं ॥ अत्रेति आषाढ़ पूर्णि मायां स्थिताः पञ्चाहं याबदेव संस्त रकं इनडादिति • 1 , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) रात्री च पर्यवणाकल्पं कथयन्ति ततः श्रावण बहुल पर्युषां कुर्वन्ति, अथावा पूर्णिमायां क्षेत्रं न प्राप्तास्तत एबमेव पचरा वर्षांare प्रयोग्यमुपधिं गृहीत्वा पर्युषणा करपं च कथयित्वा श्रावणबहुलदशम्यां पर्युषणयन्ति एवं कारणेम रात्रि दिवानां पंचकं पंचकं वर्द्धयता तावत्स्येयं यावत् सविंशतिरात्रो मासः पूर्णः । अथवा ते आषाढ शुद्ध दशम्यामेव वर्षाक्षेत्रे स्थितास्ततस्तेषां पंचरात्रेण डगलादी गृहीते पशुषणा कल्पे च कथिते आषाढ़ पूर्णिमायां समवसरणं पर्युषणं भवति एष उत्सर्गः ॥ अत दद्ध कालं पर्युषणमनुतिष्ठतां सर्वोstruवादः । अपवादेापि सविंशतिरात्रात् मासात् परतो नातिक्रमयितुं कल्पते यद्येतावत्कालेऽपि गते वर्षायोग्यक्षेत्रं न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषितव्यं ॥ अथ पंचक परिहा'णिमधिरुत्य ज्येष्टकल्पावग्रह प्रमाणमाह । इयसत्तरी जसा मसीह उई दसुत्तरस्यंच जहवास मग्गसिरे दसहराया तिथि उक्कोसा ॥ इयइति उपदर्शने ये किलाबाढ़ पूर्णिमायाः सविंशतिरात्रे मासे गते पर्युषयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्ये वर्षा वासावग्रहो भवति, भाद्रपद शुद्ध पंचम्या नम्तरं कार्तिक पूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात् । एवं भाद्रपदबहुलदशम्यां पर्युपयन्ति तेषामशीतिदिवसा मध्यमो वर्षाकालाग्रहः। श्रावणपूर्णिमायां नवतिदिवसाः । श्रावण बहुउदशम्याँ दशोत्तरशतं दिवसा मध्यमएवकालायग्रहो - वन्ति ॥ समवायांगेमुक्तमपि इत्थं वक्तव्यं । भाद्रपदामावास्यायां पर्युषणे क्रियमाणे पंचसप्ततिदिवसाः । भाद्रपदबहुलपंच यां पंचाशीति । श्रावण शुद्धदशम्यां पंचनवतिः । श्रावणामावस्यां प्रपोत्तरशतं । श्रावण बहुरूपंचस्थां पंचदशोत्तरशतं । आषाढ़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तर दिवसशत प्रवति । एव मेतेषां प्रकाराणां वर्षावासानामेकवे स्थित्वाकात्तिक चातुर्मासिक प्रतिपदि निर्गन्तव्यं । अप मार्गशीर्ष वर्षा भवति कई मजलाकुलाः पन्थामः ततोअपवादेनेक दशरात्रं भवतीति । अथ तथापि वर्षी नोपरते ततो द्वितीय दशरात्रं तथा सति अथैव मपि वर्षा न तिष्ठति ततस्तृतीयमपि दशरात्रमासेवेत एव त्रीणि दशरात्राणि उत्कर्षतस्तत्र क्षेत्रे आमितव्यं मार्गशिर पौर्णमासी यावदित्यर्थः ॥ तत उद्ध यद्यपि कमाकुला पंथानो वर्ष वा गोढ़मनुपरतं वर्षति यद्यपि च पानीयैः पूर्यमाणैस्तदानी गम्यते तथापि अवश्यं मिर्गन्तव्यं एवं पञ्चमासिको ज्येष्टकल्पावग्रहः सम्पनः ॥ अप तमेव पारमासिकमाह । कारण मासकप्पं तस्येव ठियाण जइवास मगसिरे सालंबणाणं छम्मासिओजेद्वो गहोहोति। यस्मिन् क्षेत्रे आषाढमास कल्पकृतः तदन्यद्वर्षावासयोग्य तथाविधं क्षत्रं न प्राप्तं ततो मासकल्पं कृत्वा तव वर्षा. वासं स्थितानां ततश्चातुर्मासानन्तरं कई मवर्षादिभिः कारणै. रतीते मार्गशीर्ष मासे निर्गतानां पारमासिको ज्येष्टकल्पावनहो भवति एकक्षेत्र अवस्थानमित्यर्थः॥ देखिये ऊपरके पाठमें अधिकरण दोषोंका निमित्तकारण । और कारण योगे गमन करना पड़े तो साधुधर्मकी अवहे. लमान होने के लिये वर्षायोग्य उपधिकी प्राप्ति होनेसे योग्यक्षेत्रमें अज्ञात याने गृहस्थी लोगोंकी नहीं जानी हुई अनिश्चित पर्युषणा स्थापन करे वहां उसो रात्रिको पर्युषणा कल्प कहे (श्री कल्पसूत्रका पठन करे) और योग्यक्षेत्रके अभावसे पांच पांच दिनकी वृद्धि करते चन्द्रसंवत्सर, ५० दिन तक तथा अभिवति संवत्सर में २० दिनतक अज्ञात पर्युषणा करे परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दिने तथा ५० दिने जात याने गृहस्थी लोगोंकी जानी दुई प्रसिद्ध पर्युषणा करे से यावत् कार्तिकतक सो क्षेत्रमें ठहरे और जघन्यसे 90 दिन, तपा मध्यमसे १२० दिन और उत्कृष्ट १८० दिनका कालावग्रह होता है। .. और भी पर्युषणा सम्बन्धी-भाष्य, चूर्णि, कृत्ति, समाचारी, तथा प्रकरणादि ग्रन्थों के अनेक पाठ मौजूद हैं परन्तु विस्तारके कारणसे यहां नहीं लिखता हूं। तथापि श्रीदशाश्रुत स्कन्ध सत्रको पूर्णि, श्रीनिशीषपूर्णि,श्रीवहत्कल्पचूर्णि वगैरह कितनहीं शास्त्रों के पाठ आगेप्रशांगापात लिखने में भी आवेंगे। अब मेरा सत्यग्रहणाभिलाषी श्रीजिनाजा इच्छुक सज्जन पुरुषोंको इतमाही कहना है कि वर्तमानकालमें जैन पञ्चाङ्गके अमावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुमार जिस भासकी वृद्धि होवे उसीके ३० दिनमें प्रत्यक्ष पने सांसारिक तथा धार्मिक व्यवहार सब दुनियां में करने में आता है तथा समय, आवलिका, मुहुतादि शास्त्रोक्त काल के व्यतीतकी व्याख्यानुसार और सूर्योदयसे तिथि वारों के परावर्तन करके दिनोंकी गिनती निश्चयके साथ प्रत्यक्ष सिद्ध है तथापि उसीकी गिनती निषेध करते हैं सा निष्केवल हठवादसे संसार एद्धिकारक सत्सूत्र भाषणरूप बाट जीवोंको मिथ्यात्वमें गेरमेके लिये वृथा प्रयास करते हैं इसलिये अधिक मास के दिनांकी गिनती पूर्वक उपरोक्त व्याख्याओं के अनुसार आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे प्रावण वा प्रथम प्राद्रपद में पर्युषणा करना सो श्रीजिनापाका आराधनपना है। इसलिये-मैं-प्रतिज्ञा पूर्वक आत्मार्थियोंको कहता हूं कि-वर्तमानिक श्रीतपगच्छके मुनिम. पडली वगैरह विद्वान् महाशय पक्षपात रहित हो करके विवेक बुद्धिसे उपरोक्त श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्याओंका तात्पयार्थको विचारेंगे तो मासवृद्धि होनेसे अपने पूर्वजांकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) मर्यादाके प्रतिकूल तथा पञ्चाङ्गीके प्रनाक भी विरह होकरके गयाग्रहके पक्षपातर दोश्रावण होते भी प्रत्यक्षपणे ८० दिने भाद्रपद में पर्युषणा करनेका वृथा आग्रह कदापि नहीं करेंगे। और उपरोक्त शास्त्रानुसार तथा युक्ति पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें वा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करनेवाले श्रीजिनाजाके आराधक पुरुषों पर द्वेष बुद्धिसे वृथा उत्सत्र सप मिथ्यानाषणसे आज्ञा का दूषण लगाकर बालजीवोंको भ्रममें गेरनेका साहस भी कदापि नहीं करेंगे। और फिर अपनी चातुराईसे आप निर्दूषण बननेके लिये जैन शास्त्रोंमें अधिक मासको गिनतीमें नहीं गिना है ऐसा उत्सूत्र भाषणरूप कहके अज्ञजीवोंके आगे मिथ्यात्व फैलाते हैं उसीका निवारण करने के लिये और भव्य जीवों निःसन्देह होनेके लिये इसजगह अधिक मासकी गिनतीके प्र. माण करने सम्बन्धी पहाडीके अनेक प्रमाण यहां दिखाता। __ श्रीजुधर्मस्वामीजी कृत श्रीचन्द्रप्राप्तिसूत्र में १, तथा श्रीसूर्य प्रज्ञप्तिसूत्रमें २, औरसंवत् १३० के अनुमान श्रीमलय गिरिजी कृत उपरोक्त दोनों सूत्रोंकी दोनों वृत्तियोंमें ४, श्रीभद्रबाहुस्वामिजी कृत श्रीदशवकालिकसूत्रके चूलिकाकी नियुक्ति में ५, तथा श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत तत् नियुक्तिकी यत्तिमें ६, श्रीनिशीथसूत्रके लघुभाष्यमै, पहदायमें 9, चूर्णिमें ८ श्रीसहकल्पके लघु भाष्य में, सहदाव्यमे, चूर्णिमें १० और कृत्तिमै ११ श्रीसमवायांगजी में १२, तथा सदवृत्तिमें १३ मौरीस्थानांगजीसत्रकी वृत्तिमें १४, श्रीनेमीचन्द्रसरिजी कृत श्रीप्रवचनसारोद्वार में १५, श्रीसिद्धसेनसरिजी कृत तत्सूत्रकी वृत्तिमें १६, श्रीउदयसागरजी कृत तत्सत्रको लघुत्तिमें १७, श्रीजिमपतिमरि जीकृत श्रीसमाचारी ग्रन्थ में १८,श्रीसंघपटक लघवृत्तिमें, यत्ति में १९ श्रीजि मप्रससरिजी कृत श्रीविधिप्रपासमाचारीमें २० और श्रीसमय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ PM ] सुन्दरजी कृत श्रीसमाचारी शतकमें २१ और श्रीपाश्चन्द्र गच्छके श्रीब्रह्मर्षिजी कृत श्रीदशाश्रुतम्कन्ध सूत्रको वृत्तिमें २२ इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिकमासको गिनती में प्रमाण किया हैं. इसलिये जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुष अधिकमासकी गिनती कदापि निषेध नहीं कर सकते हैं इस जगह भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेके वास्ते थोड़ेसे अधिकमास की गिनतीके विषयवाले पाठ लिख दिखाता हु - श्री तपगच्छके पूर्वज कहलाते श्रीनेमिचन्द्र सूरिजी महाराज कृत श्रीप्रवचनसारोद्वार मूलसूत्र गुजराती भाषा सहित मुंबईवाले श्रावक भीमसिंह माणककी तरफ से श्रीप्रकरण रत्नाकरके तीसरे भाग में छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ ३६४ सें ३६५ तक नीचे मुजब भाषा सहित पाठ जानो--- अवतरणः: -- मासाण पञ्चभेयत्ति एटले मासना पांचभेदोन एकसोने एकतालीसमुंद्वार कहे छे । पंचसुत्ते, नरकत्ते चंदीओय रिउमासो ॥ भिवढिओ तहय पंचमओ ॥९०४॥ मूल:- मासाय इच्बोविये अवरो, अर्थः- सूत्र जे श्रीअरिहंत परमात्मानं प्रवचन तेने विषे मास पांच कह्या छे । तेमा प्रथमजे नक्षत्रनी गणनाये थाय तेनी रीतकहे छे:- चंद्रमा चारके० संचरतो जेटले काले अभिजितादिकथी विचरतो उतराषाढ़ा नक्षत्र सुधी जाय तेने प्रथम नक्षत्र मास कहिये । बीजो चंदिओयके० चंद्रथकीथाय ते अंधारा पड़वाथकी आरंभीने अजवाली पूर्णिमा सुधी चंद्रमास केहेवाये । त्रीजोरिओके० ऋतु ते लोक रूढ़िये साठ अहोरात्रीये ऋतु कहिये । तेनो अर्द्धमास एटले त्रीस अहो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] रात्री प्रमाणनो ते ऋतुमास जाणवी। चोथो, आदित्य जे सूर्य तेहy अयन एकोने ज्यासी दिवसनु होय । तेनो छट्ठोभाग ते आदित्य मास कहिये। पांचमो अभिवर्द्धित ते तेर चंद्रमासे थाय । बार चंद्रमासे संवत्सर जांणवो परन्तु जेवारे एक वधे तेवारे तेने अभिवद्धित मास कहिये एनज प्रमाण विशेष देखाड़े छे । मूल..-अहरत्तसित्तवीस तिरुत्त सत्तद्वि भाग नस्कतो॥ चंदोअ उणत्तीस बसद्विभागाय बत्तीसं ॥ ९०५॥ __अर्थः-प्ततावीत अहोरात्री अने एक अहोरात्रीना शड़सठ भाग करिये तेवा एकवीस भागे अधिक एक नक्षत्र मासथाय। अने मासना उगणत्रीस अहोरात्री तेना उपर एक अहोरात्रिना बासठभाग करिये एवा बत्रीस भागे अधिक एक चंद्रमास थाय। मूलः-उउमासो तीसदियो, आइच्योवि तीस होइ अच। अभिवडिओअ मासो धउवीस सरण छेएण ॥९०६॥ अर्थः-ऋतुमास ते संपूर्ण त्रीरूदिवस प्रमाण नो जाणवी तथा आदित्यमास ते त्रीसदिवस अने उपर एक दिवसना साठिया सीसभाग करिये तेटला प्रमाणनो जांणवो। अने अभिवर्जितमास ते चउवीसे अधिक एकशतछेद एटले भाग तेज देखाड़े छे ॥ ९०६ ॥ मूलः–भागाणिगवीससयं, तीसाऐगाहिया दिणाणंव। एएजह निप्पत्ति, लहंति समयाऊतहनेयं ॥ ९ ॥ अर्थः-ते पूर्वोक्त एकसोने चोवीसभाग एक अहोरात्रना करिये तेवा एकसो एकवीसभाग अने एकदिवटे अधिक ग्रीस एटले एकत्रीस दिवप्त अर्थात् एकत्रीस दिवतने एक अहोरात्रीना एकसो चोवीसभाग मांहेला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] एक सोने एकवीसभाग उपर एटेलुं अभिवहित मासन प्रमाण जागव एरीतेए पांचमासनी जेन निःप्पति एटले प्राप्तिथाय छे तेसमयके सिद्धान्त थकी जांणवी इति गाथा चतुष्टयार्थ ॥ ४० ॥ अवतरणः-वरिसाणपंचशेयत्ति एटले वर्षना पांचभे हुनु एक होने बेतालीसमु द्वार कहे छे ।। मूलः-संवछराउ पंवउ “चंदे चंदे भिवढिए चेव । चंदे भिवड्ढएतह बासहिनासे हि जुगमाणं ॥१०॥ अर्थः-वंद्रादिक संवत्सर पांचकह्याछे तेमा पूर्वोक्त चंद्रमासे जे नीपन्योते चंद्र. संवत्तर जाणवो। तेनु प्रमाण त्रणसे चोपनदिवस अने एक दिव तना बासठभाग करिये तेवा बारभाग उपर जाणवा तेमज बीजा चंद्र संवत्सरनु पण मानजाणवं । हवे चंद्रसवत्तर थी एक अधिकमास थाय ऐटले तेने अभिवति संवत्सरजांणवो तेनु प्रमाण त्रण व्यासीदिवत अने एक दिवतना बासठभाग करी तेमांना चुमालीसभाग एवो एक अभिवति संवत्सर जाणवो एकत्रीश अहोरात्र अने एकदिवतना एकहो चोवीसभाग करिये तेमाहिला एकप्तो एकवीसभाग उपर ए अभिवर्द्धित मासन मान जाणवं। हवे पूर्वोक्त माने अभिवहित संवत्तर बे अने चंद्रसंवत्सर त्रण एवा पांच संवत्तरे एक युगमान थाय छे ते बासठचंद्रमाप्त प्रमाणक छ । सारांश एकयुगमांत्रण चांद्रसंवत्सर ते चांद्रसंवत्सरना प्रत्येक बारमास मली छत्रीस चांद्रमास अने बे अभिवति संवत्सर तेमां एक अभिवद्धित संवत्सरना तेरे चांद्रमास ए प्रमाणे बीजा वना पण तेरे मलो एकंदर छवीसमास अने पूर्वोक्त चांद्रमास छत्रीस मलीने बासठ चांद्रमासे एक युगनुं मानथाय ॥ ॥ इति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] देखिये उपरमें श्रीतपगच्छ के पूर्वज श्रीनेमिचंद्र सूरिजीनें अधिक सासकी गिनती मंजूर करके तेरह चंद्र नास से अभिवर्द्धित संवत्तर कहा और एकयु के बासठ (६२) मासकी गिनती दिखाइ अधिक मासके दिनोंकी भी गिनती खुलासे लिखी हैं इस लिये वर्तमान में श्रीतपगच्छवाले महाशयों को अपने पूर्वज के प्रतिकुल होकर अधिकमासकी गिनती निषेध करनी नही चाहिये किन्तु अधिकमासकी गिनती अवश्यमेव मंजूर करनी योग्य हैं । और सुनिये — श्रीमलयगिरिजी कृत श्रीचंद्र प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्तिके पृष्ठ ९ से १०० तक तत्पाठ- । युगसंवत् युगपूरक: संवत्सरः पंचविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा । द्रव द्रोऽभिवर्द्धित व उक्त व चंदो चंदो अभिवड्ढितोय, चंदो अभिवद्धितो चेव । पंबसहियं जुगभिणं, दि ते लोक्कसीहिं ॥ १ ॥ पढन विश्याड चंदातइयं अभिवढियं वियाणाहिं चंदे चेव चढत्य पंचनमभिवद्वियं जाण ॥ २ ॥ तत्र द्वादशपूर्णमासी परावर्त्ता यावता कालेन परिसमाप्ति मुपयाति तावत्काल विशेषश्च द्रस' वत्सरः । उक्तंव । पुत्रिम परियट्टा पुण बारस मासे हवह चंदो | एकश्च पूर्णमासी परावर्त्त एकश्च द्रोमासस्तस्मिंश्च चंद्रे मासेऽहोरात्र परिमाण चिंताया मे कोन त्रिंशदहोरात्रा द्वाविंशच्च द्वाषष्टि भाग अहोरात्रस्य एतत् द्वादशभिर्गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि रात्रिदिवानां द्वादशच द्वाषष्टिभागा रात्रिदिवसस्य एवं परिमाणश्चद्रः संवत्तरः तथा यस्मिन् संवत्तरे अधिकमास सम्भवेन त्रयोदश चंद्रस्य मासा भवंति सोऽभिवर्द्धित संवत्सरः ॥ उक्तंव ॥ तेरसय चंद्रमासा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] वासो अभिवढिओय नायबो। एकस्मिन् चंद्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिंशद् भवन्ति द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागस्य अहोरात्रस्य एतच्चानन्तरं चोक्तं तत एष राशिस्त्रयोदशभिर्गुणितो जातानि त्रीणि अहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावदहोरात्रप्रमाणोभिवहितसंवत्सर उपजायते कथमधिकमाससम्भवो येनाभिवहित संवत्सर उपजायते कियता वा कालेन सम्भवतीति उच्यते इह युगं चंद्राभिवद्धितरूप पञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमान मन्य नातिरिक्तानि पञ्चवर्षाणि भवन्ति सूर्यमासश्च साईनिंशदहोराणि प्रमाण चंद्रमास एकोनविंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य ततो गणितपरिभावनया सूर्य संवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चांद्रमासोऽधिको लभ्यते तथाच पूर्वाचार्य्यप्रदर्शितेयं करण गाथा ॥ चंदस्स जो विसेसो आइच्चस्स य हविज्ज मासस्स तीसह गुणिओ संतो हवाइ हु अहिमासओ एक्को ॥१॥ अस्याक्षरगमनिका आदित्यस्य आदित्य संवत्सरः सम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चंद्रस्य चंद्रमासस्य यो भवति विश्लेष इह विश्लेष कते सति यदवशिष्यते तदुपचारात् विश्लेषः स त्रिंशता गुण्यते गणितः सन् भवत्येकोरधिकमासः तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्द्ध त्रिंशदहोरात्ररूपात् । चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्येवं रूप शोध्यते तत स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनं तच्च दिनं त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशद्दिनानि एकश्च द्वाषष्टिभाग शिंशता गुणितो जातास्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः ते शिंशट्टिनेभ्यः शोध्यन्ते ततस्थितानि शेषाणि एकोनशिदिनानि द्वाशिं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] शश्च द्वाषष्टिभागादिनस्य एतावत्परिमाणञ्चन्द्रमास इति भवति सूर्य्यसंवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो युगे च सूर्य्यमासाः षष्टिस्तो भूयोऽपि सूर्य्य सम्वत्सरः सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । उक्तंच सट्टीये अइयाए हव हु अहिमासग्गो जुग मि बावीसे पger हवइ हु बीओ जुगंतंमि ॥१॥ अस्याऽपि अक्षरगमनिका एकस्मिन् युगे अनन्तरोदित स्वरूपे पर्वणां पक्षाणां षष्टौ अतीताया षष्टिसंख्यषु पक्षेषु अतिक्रान्तेषु इत्यर्थः । एतस्मिन्नवसरे युगाई युगाई प्रमाणे एकोऽधिकोमा सो भवति द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वात्रिंशत्यधिके पर्वशते अतिकान्त युगस्यान्त युगपर्य्यवसाने भवति तेन युगमध्ये तृतीय संवत्सरे अधिकमासः पञ्चमे चेति द्वौ युगे अभिवर्द्धितसंवत्सरौ संप्रति युगे सर्वसंख्यया यावन्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निद्दिक्षुः प्रतिवर्ष पर्वसंख्यामाह । ता पढमस्सण मित्यादि ता इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्यालंकृतौ चन्द्रस्य संवत्सरस्य चतुर्विंशतिपर्वाणि प्रज्ञप्तानि द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः एकैकस्मिंश्च मासे द्वे द्वे पर्वणि ततः सर्व संख्या चन्द्रसंवत्सरे चतुर्विंशतिः पर्वाणि द्वितीयस्य चान्द्रस ंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति अभिवर्द्धितसं वत्तरस्य षडविंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् चतुर्थस्य चान्द्र संवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि पञ्चमस्याभिवर्द्धित संवत्सरस्य षडूविंशतिः पर्वाणि । कारणमनन्तरमेवोक्तं तत एवमेवोक्तेनैव प्रकारेण सपुवा वरेणंति पूर्वापर गणित मिलनेन पचसांवत्सरिके युगे चतुर्विंशत्यधिकं पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृद्भिर्मया चेति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ३५ ] · और भी इन महाराज कृत श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रा वृत्तिके पृष्ठ १९१ से १९२ तक तत्पाठ युगसंवत्सरेणमित्यादि। ता युगसंवत्सरो युगपूरकः संवत्सरपंवविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा। चंद्रश्चांद्रोऽभिवर्द्धितश्चांद्रोऽभिवर्द्धितश्चैव ॥ उक्तं व ॥ चंदो चंदो अभिवढिओय चंदोभिवडिओ चेव पंचतहियं युगमिणं दिढते लोक दंसीहि ॥१॥ पढम बिडयाउ चंदा तइयं अभिवढि वियाणा हि चंदेचेव चउत्यं पंचममभिवढिय जाण ॥२॥ तत्र द्वादशपौर्णमासी परावर्तीया यावता कालेन परिसनाप्तिमुपयांति तावत् कालविशेषश्चन्द्र संवत्सरः ॥ उक्तंच ॥ पुस्लिम परियहा पुण बारसमासे हवइ चंदो ॥ एकश्च पौर्णमासी परावर्त एकश्चंद्रमास स्तस्मिं चांद्रमासे रात्रि दिवसपरिमाणचिन्तायां एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशव द्वाषष्टिभागा रात्रि दिवसस्य एतद्द्वादशभिर्गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि चतुःपञ्चा. शदधिकानि रात्रि दिवानां द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रि दिवसस्य एवं परिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः। तथा यस्मिन् संव. तसरे अधिकमास सम्भवेत् त्रयोदशचन्द्रमासा भवन्ति सोभिवद्धि तसंवत्सरः ॥ उक्तंव ॥ तेरसय चंदमासा वासो अभिवढिओय नायबो॥ एकस्मिं चंद्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिशद्भवन्ति द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतच्चानन्तरमेवोक्तं। तत एष राशिस्त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि त्रीणि . अहोरालाशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावदहोरात्र प्रमाणोभिवद्धि तसंवत्सर उपजायते कथमधिकमाससम्भवो येनाभिवद्धि तसंवत्सर उपजायते कियता वा कालेन सम्भवतीति उच्यते । इह युगं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] चन्द्राभिवद्धितरूप पञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परि भाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पंचवर्षाणि भवन्ति सूर्यमासश्च सार्दुत्रिंशदहोरात्रिप्रमाण चन्द्रमास एकोनविंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य ततो गणितसंभावनया सूर्यसंवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चन्द्रमासोधिको लभ्यते। सच यथा लभ्यते तथा पूर्वाचार्य्यप्रदर्शितेयं करणं गाथा ॥ चंदस्स जो विसो आइच्चस्सइ हविज्ज मासस्स तीसह गुणिओ संतो हवइ हु अहि मासगो एक्को॥१॥अस्याक्षरगमनिका आदित्यस्य आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चंद्रस्य चंद्रमासस्य यो भवति विश्लेष इह विश्लेष कृते सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः स त्रिंशता गुण्यते गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्द्ध त्रिंशदहोरात्ररूपं चंद्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा दिनस्येत्येवं रूप शोध्यते ततः स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनं तच्च दिनं शिशता गुण्यते जातानि शिद्दिनानि एकश्च द्वाषष्टिभाग त्रिंशता गुणितो जातास्त्रिंशद्वाषष्टिभागास्त त्रिंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते तत स्थितानि शेषाणि एकोनशिदिनानि द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमाणश्चान्द्रोमास इति भवति सूर्य संवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो युगे च सूर्यमासाः षष्टिस्तो भूयोऽपि सूर्यसम्वत्सर सत्क त्रिंशम्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । उक्तंच सट्ठीए अश्याए हवइ हु अहिमासगो जुगर्बुमि बावीसे पवसए हवइहु बीओ जुगतमि ॥१॥ अस्यापि अक्षरगमनिका एकस्मिन् युगे अनंतरोदित स्वरूपे पर्वणां पक्षाणां षष्टौ अतीतायां षष्टिसंख्येषु पक्षेष्वति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ३७ ] क्रान्तेषु इत्यर्थः एतस्मिन्नवसरे युगाई युगाईप्रमाणे एकोधिको मासो भवति द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वात्रिंशत्यधिके पर्वशते (पक्षशते) अतिक्रान्ते युगस्यान्त युगस्य पर्यवसाने भवति तेन युगमध्ये तृतीयसम्वत्सरे अधिकमासः पञ्चमे चेति द्वौ युग अभिवर्द्धितसम्वत्सरौ सम्प्रति युगे सर्वसंख्यया यावन्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निर्दिक्षः प्रतिवर्ष पर्वसंख्या माह ॥ तापढमस्सण मित्यादि ता इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्यालंकृतौ चान्द्रस्य सम्वत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि प्रजातानिद्वादशमासात्मको हि चांद्रः सम्वत्सरः एककस्मिंश्च मासे द्वे द्वे पर्वणि ततः सर्वसंख्यया चान्द्रसंवत्सरे चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति द्वितीयस्यापि चांद्रसम्वत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति अभिवर्द्धित सम्वत्सरस्य षडू. विंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् चतुर्थस्य चांद्र सम्वत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि पञ्चमस्थाभिवर्द्धितसम्बत्सरस्य षड्विंशतिः पर्वाणि कारणमनन्तरमेवोक्तं तत एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण सपुवावरेणंति पूर्वापरिगणितमिलनेन पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विशत्यधिकं पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकदिर्मया चेति । देखिये उपरके दोनुं पाठमें खुलासा पूर्वक प्रथम चन्द्र संवत्सर दूसरा चन्द्र संवत्सर तीसरा अभिवहित संवत्सर चौथा फिर चन्द्रसंवत्सर और पांचमा फिर अभिवर्तित संवत्सर इन पांच संवत्सरों से एक युगकी संपूर्णता लोकदर्शी केवली भगवान् ने देखी हैं कही हैं जिसमें एक चन्द्र मासका प्रमाण एकोनतीस संपूर्ण अहोरात्रि और एक अहो रात्रिके बासठ भाग करके बतीस भाग ग्रहण करनेसे २० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ]. ३२।६२ अर्थात् २० दिन ३० घटीका और ५८ पल प्रमाणे एक चन्द्रमास होता हैं इसको बारह चांद्र नासों से बारह गुणा करने से एक चन्द्रवत् वरमें तीनसे चौपन संपूर्ण अहोरात्रि और एक अहोरात्रिके बालठ भाग करके बारह भाग ग्रहण करनेसे ३५४।१२।६२ अर्थात् ३५४ दिन ११ घटीका और ३६ पल प्रमाणे एक चन्द्र संवत्तर होता हैं और जिप्स संवत्सरमें अधिकमास होता हैं उसी में तेरह चन्द्रमास होने में अभिवहित नाम संवत्सर कहते हैं जिसका प्रमाण तीनसे तैयाशी अहोरात्रि और एक अहोरात्रिके बासठ भाग करके चौमालीस भाग ग्रहण करनेसे ३-३। ४४।६२ अर्थात् ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे एक अभिवति संवत्सर तेरह चन्द्र मासोंकी गिनतीका प्रमाण में होता हैं इस तरह के तीन चंद्र संवत्सर और दोय अभिवद्धित संवत्सर एसे पांच संवत्सरों में एक युग होता हैं अब एक युगके सर्वपर्वो की गिनती कहते हैं प्रथम चन्द्र संवत्सरके बारहमास जिसमें एक एक मामकी दोय दोय पर्वणि होनेसे बारहमासों की चौवीश ( २४ ) पर्वणि प्रथम चन्द्र संवत्सरमें होती हैं तैसे ही दूसरा चन्द्र संवत्सरमें भी २४ पर्वणि होती हैं और तीसरा अभिवर्द्धित संवत्सरमें छवोश ( २६ ) पर्वणि मासवृद्धि होने से तेरहमाप्तोंकी होती हैं तथा चौथा चन्द्र संवत्सरमें २४ पर्वणि होती हैं और पांचमा अभिवद्धि तसंवत्सरमें २६ पर्वणि होती हैं सो कारण उपरके दोनू पाठमें कहा हैं इन सर्व पर्वो की गिनती मिलने पांच संवत्सरोंके एक युगकी एकसो चौवीश ( १२४ ) पर्वणि अर्थात् पाक्षिक होती हैं यह १२४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] पर्वकी व्याख्या सर्वतीर्थङ्कर महाराजों ने अर्थात् अनन्त तीर्थङ्करों ने कही हैं तैसे ही वृत्तिकार मलयगिरिजीने चन्द्र प्रज्ञप्तिकी तथा सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तिमें खुलासे लिखी हैं और श्रीचंद्रप्रज्ञप्ति वृत्तिमें पृष्ठ ११९ से १९३ में तथा १३४ में और श्रीसूर्य प्रज्ञप्तिवृत्तिमें पृष्ठ १२४ से १२८ तक नक्षत्र संवत्सर १ चन्द्र संवत्सर २ ऋतु संवत्सर ३ आदित्य ( सूर्य ) सम्वत्सर ४ और अभिवद्धित संवत्सर ५ इन पांच संवत्सरों का प्रसाण विस्तार पूर्वक वर्णन किया हैं जिसकी इच्छा होवें सो देखके निःसन्देह होना इस जगह विस्तार के कारण से सब पाठ नही लिखते हैं। ___ और भी श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेव सूरिजी कत वृत्ति और श्रीपार्षचन्द्रजी कृत भाषा सहित ( श्रीमकसूदाबाद निवासी राय बहादुर धनपतसिंहजीका जैनागम संग्रह के भाग चौथेमें ) छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके ६१ मा और ६२ मा समवायाङ्गमें मासोंकी गिनती के सम्बन्ध वाला पृष्ठ ११९ और १२० का पाठ नीचे मुजब जानो यथा पंचसंवच्छरियस्सणं जुगस्सरिक मातेणं मिऊमाणस्स इगसठिं उऊ मासापन्नता। ___ अथैकषष्टिस्थानकं तत्र पञ्चत्यादि . पञ्चभिः संवत्सरेनिवृतमिति पञ्चसांवत्सरिकं तस्यणमित्यलङ्कारे युगस्य कालमानविशेषस्थ अतुमासेन चन्द्रादिमासैन मीयमानस्य एकषष्ठिः ऋतुमासाः प्राप्ताः इह चायं भावार्थः युग हि पञ्चसंवत्सरा निष्पादयन्ति तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्चन्द्रोऽभिवद्धित ति. तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्विषष्ठिभागा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] अहोरात्रस्येत्येवं प्रमाणेन २९ । ३२ । ६२ । कृष्णप्रतिपदारभ्य पौर्णमासी निष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादशमास परिमाणश्चन्द्रसवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदम् त्रीणि शतान्यहां चतुःपञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्ठिभागा दिवसस्य ३५४ । १२ । ६२। तथा एकत्रिंशदहां एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुविंशतीत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवं प्रमाणोऽभिवर्द्धितमास इति एतेन ३१ । १२१ । १२४ । च मासेन द्वादशमास प्रमोणोभिवति संवत्सरो भवति स च प्रमाणेन त्रीणि शताम्यहां ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३ । ४४ । ६२। तदेवं त्रयाणां चन्द्रसवत्सराणां द्वयोरभिवति संवत्सरयोरेकी करणे जातानि दिनानां त्रिंशदुत्तराणि अष्टादशशतानि अहोरात्राणां १८३० ऋतुमासश्च त्रिंशताहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशताभागहारे लब्धा एकषष्ठिः ऋतुमासा इति। हिवे ६१ मो लिखे छे। चन्द्र १ चन्द्र २ अभिवति ३ चन्द्र ४ अभिवहित ५ एम पांचवर्षनो १ युगथाय ते ऋतुमासे करी मीयमानछे चन्द्रमासनोमान २९ अहोरात्रि अनेर अहोरात्रिना ३२ भाग ६२ ठिया ते कृष्णपक्षनी पडिवाथी पौर्णमासीये पूरोथाय एहमासमान १२ गुणोकीजे तिवारे वर्षनो मान ३५४ अहोरात्रि अने १ अहोराशिना १२ भाग ६२ ठियाथाय तेहने त्रिगुणो कीजे तिवार १०६२ अहोराशि अने १ अहोरात्रिना ६२ ठिया ३६ भागथाय एम अभिवद्धित मासनो मान ३१ अहोरात्रि अनें १ अहोराशिमा १२४ भाग हाइव १२१ भाग प्रमाणे थाय तेहने १२ गुणो कीजे तिवारे अभिवद्धित वर्षनो मान ३८३ अहोरात्रि अने १ अहोरात्रिना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] ४४ भाग ६२ ठिया तेहने बेगुणा कीजे १६७ सातसो सहसठ अहोरात्रि अनें १ अहोरात्रिमा २६ भाग ६२ ठिया थाय तेहने पहिले ३ चन्द्रवर्षना मानमांहि घातिये तिवारे १८३० अहोरात्रिथाय ऋतु मासनो मान ३० अहोरात्रिनु तेमाटे १८३० ने भागें हरिये तो १ युगने विर्षे ६१ ऋतुमास थाय । ivideoरिए जुगे बावठिं पुलिमाल बावठिं अमा बसाउ पन्नता अथ द्विषष्ठिस्थानकं पंचेत्यादि तत्र युगे श्रयञ्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति तेषु षट्त्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति द्वौचाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतस्तत्र चाभिवर्द्धितसंवत्सरस्त्र योदशभिश्चंद्रमासैर्भवतीति तयो षडू विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्ठिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्यापीति । हिवे ६२ मो लिखे छे । पांचसंवत्सरानो युगहोय तेह मांहि ६२ पुनिम अने ६२ अमावस्या कही १ युगमाही ३ चन्द्रवर्ष होय तेह मांहि मास ३६ बारेत्रिक ३६ पूर्णिमा अनें ३६ अमावस्या होय अनें युगमाहि २ अभिवर्द्धित वर्ष होय तेहना माम २६ होय तेमाटे पूनिम २६ अमावस्या २६ सर्व पांच वर्षनामिलि ६२ पूर्णिमा अनें ६२ अमावस्या होय ॥ देखिये पञ्चमगणधर श्रीसुधर्मस्वामिजीनें भी उपरके श्रीसमवायाङ्गजीके मूलसूत्र पाठमें और श्रीअभयदेवसूरिजी वृत्तिकारने भी अधिक मासकी गिनती बरोबर किवी और चंद्रमासोंसे चंद्रसंवत्सरका प्रमाण तथा अभिवद्धि तमासोंसें अभिवर्द्धितसंवत्सरका प्रमाण दिनोंकी गिनतीसें खुलासा करके एक युगके बासठ चंद्रमासके हिसाब से ६२ पूर्णिमासी तथा ६२ अमावस्या और चंद्रमासकी गिनतीके प्रमाणसे ६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] ६२ चन्द मासके १८३० दिन एक युगकी पूर्ति करनेवाले दिखाये हैं तथापि वर्तमानिक श्रीतपगच्छादि वाले मेरे धर्मबन्धु अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं जिनोंको विचार करना चाहिये ॥ और भी श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यजी श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजी कृत श्रीवृहत्कल्पवृत्ति खंभायतके भंडारवालीके दूसरे उद्देशे दूसरे खण्डमें-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से ६ प्रकारके मासोंकी व्याख्या किवी हैं जिसमें सें इस जगह एक काल मासकी व्याख्या वर्तमानिक श्रीतपगच्छवालोंको अपने पूर्वजका वचन याद करानेके वास्ते और भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेके लिये पृष्ठ १९८ वे का पाठ दिखाते हैं तथाच तत्पाठ कालमासः श्रावणादिः यद्वा कालमासो नक्षत्रादिकः पञ्चविधस्तद्यथा नक्षत्रमासः चंद्रमासः ऋतुमास आदित्यमास अभिवद्धि तमास अमीषामेव परिमाणमाह गाथाः नरकत्तो खलु मासो, सत्तावीसं हवंति अहोरत्ता ॥ भागाय एकवीसं, सत्तहि कएण बेएणं ॥१॥ अउण त्तीस चंदो, विसट्ठि भागाय हुंति बत्तीता॥ कम्मो तोसइ दिवतो, वीसा अध्धंच आइच्चो ॥२॥ अभिवढि इक्वतीसा चउवीसं भाग सयंवड़तिगहीणं भावे मूलाइझ उपगयं पुण कम्म मासेणं ॥३॥ नक्षत्रेषु भवो नक्षत्रः स खलु मासः सप्तविंशत्यहोरात्राणि सप्तषष्ठी कृतेन छेदेन छिन्नस्याम्होरात्रस्यैकविंशति सप्तषष्टीभागाः तथाहि चंद्रस्य भरण्याश्लेिषा स्वाति ज्येष्टा शतभिषम् नामानि षट्नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तमोग्यानि तिस्त्र उत्तराः पुनर्वसु रोहिणी विशाखा चेति षट् पञ्चचत्वारिशन्मुहूर्त भोग्यानि शेषाणि तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ] पञ्चदशनक्षत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानीति जातानि सर्वसंख्यया मुहूर्तानामष्टाशतानि दशोत्तराणि एतेषां च त्रिंशन्मुहूतैरहोरात्रमिति कृत्वा त्रिंशता भागो हियते लब्धानि सप्तविंशति रहोरात्राणि अभिजिद्भोगश्चैकविंशति सप्तषष्टीभागा इति तैरप्यधिकानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि सकल नक्षत्रमण्डलोपभोगकालो नक्षत्रमासो उच्यते १ चंद्र अवश्चांद्रः कृष्णपक्षप्रतिपदारभ्य यावत् पौसमासी परिसमाप्तिस्तावत् कालमानः स च एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य २ कर्ममास ऋतुमास इत्येकोऽर्थः स त्रिंशदिवसप्रमाणः ३ आदित्यमासस्त्रिंशदहोरात्राणि रात्रि दिवसस्य चाई दक्षिणायनस्यो उत्तरायणस्य वा षष्टभागमान इत्यर्थः ४ अभिवद्धि तो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचंद्रमास प्रमाणः संवत्सरः परं तत् द्वादशभागप्रमाणो मासोऽपि अवयवे समुदायोपचारादभिवद्धितः स चैकत्रिंशदहोरात्राणि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागी कृतस्य चाहोरात्रस्स त्रिकहीनं चतुर्विंशतिभागानां भवति एकविंशमिति भावः एतेषां चानयनाय इयं करण गाथा॥ जुगमासेहिं उभइए, जगंमिलद्वं हविज्ज नायव मासाणं पंचन्ह, विषयं राइदियपमाणं॥१॥ इह सूर्य्यस्य दक्षिण मुत्तरं वा अयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकं द्वि अयने वर्षमिति कृत्वा वर्षे षट्पट्यधिकानि त्रिणि शतानि भवन्ति पञ्चसंत्सरायुगमिति कृत्वा तानि पञ्चभिर्गुण्यन्त जातानि अष्टादशशतानि त्रिंशदिवसानां एतेषां नक्षत्रमासदिवसानेनाय सप्तषष्टिर्युगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्टया भागा ह्रियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तषष्टीभागाः १ तथा चंद्र नास दिवसानयनाय द्वाषष्टिर्युगे चंद्रमाला इति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] द्वापट्या तस्यैव युगदिन रात्रेर्भागा ह्रियते लब्धाहि एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः एवं युगंदिवसानामेवैषष्टियुगे कर्म्ममासा इत्येकषष्ट्या भाग हियते लब्धानि कर्म्म मासस्य त्रिंशत् दिनानि ३ तथा युगे षष्टि सूर्य्यमासा इति षष्ट्या युगदिनानां भाग हियते लब्धाः सूर्य्यमासदिवसास्त्रिंशदहोरात्रस्याद्धं च ४ तथा युगदिवसा एव अभिवर्द्धितमासा दिवसानयनाय त्रयोदशगुणाः क्रियन्ते जातानि त्रयोविंशतिसहस्राणि सप्तशतानि नवत्यधिकानि तेषां चतुश्चत्वारिंशते सप्तभि शतैर्भागो ह्रियते लब्धा एकत्रिंशदिवसा शेषावयवतिष्ठन्त षट्विंशत्यधिकानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशत्सप्तशतभागानां ततः उभयेषामप्यङ्कानां षड्भिरपवर्तना क्रियते जातामेकविंशशतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामिति उक्ताः पञ्चापि कालमासाः ॥ १ " देखिये उपरके पाठ में श्रीतपगच्छके मुख्याचार्य्यजी श्रीक्षेमकीर्त्तिसूरिजी अपने (स्वयं) नक्षत्रमास १ चंद्रमास २ ऋतुमास ३ आदित्यमास ४ और अभिवर्द्धितमास ५ इन पांचमासोंकी व्याख्या करते पांचमा अभिवर्धित मासकी और अभिवति संवत्सरको विशेष व्याख्या खुलासे कर दिखाई हैं कि अभिवर्द्धितनाम संवत्सर मुख्य तेरह चंद्रमासोंसें होता हैं एक चंद्रमासका प्रमाण गुनतीस दिन वत्रीस बासटीया भाग · अर्थात् २० दिन ३० घटीका और ५८ पल प्रमाणे होता हैं जिसकों तेरह चंद्रमासोंसें तेरह गुना करने से दिन- ३८३ । ४४ । ६२ भाग अर्थात् ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे एक अभिवति संवत्सर होता हैं चंद्रमासकी व्यख्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लिखी सोही तेरह चंद्रमास के अति बर्द्धितसंबत्सर का प्रमाणको बारह भाग में करनेसे एक भाग में ३१।१५४।१२१ होता है सेही प्रमाण एक अभिवति मासका जानना, याने ३१ अहोरात्रि और एक अहोरात्रि के १२४ भाग करके उपरके तीन माग छोड़कर बाकी के १२९ भाग पाण करमा अर्थात ३१ दिन तथा ५८ घटीका और ३३ पलसे दश अपर उच्चार न्यून इतने प्रमाणका एक अभिवर्द्धित 'मास होताहै सो मवयवों के उच्चारणसे अभिवर्द्धित मास कहते हैं अर्थात् जिस संवत्सर में जब अधिक मास होताहै तब तेरह चंद्रमास प्रमाणे अनिवर्द्धित संवत्सर कहते है उसी के तेरहवा चंद्रमासके प्रमाणको बारह भागामें करके बारह चंद्रमासके साथ मिलामेसे बारह चंद्रमास में तेरहवा भधिकमासके प्रमाणेी (अवय ) की वृद्धिहुई इसलिये भवया उच्चारणसे मासका नाम अभिवद्धित कहाजाता है एसे बारह अनिवर्द्धित मासासे जो हुवा संवत्सरका प्रमाण उसीको अनिवर्द्धित संवत्सर कहतेहै परंतु अधिक • मासके कारणसे तेरी चंद्रमासाँसे अभिवर्द्धित संवत्सर होताह से गिमतीके प्रमाण मेंतो तेरहाही मास गिनेजावेंगे सोता श्रीप्रवचनसारोद्धार, श्रीचंद्रप्रज्ञप्तित्ति, श्रीसूर्यप्राप्ति वृत्ति श्रीसमवायांगजीसमक्षत्ति के जो पाठ उपरम उपगये है नपाठासे खुलासा दिखता है।। और पांचाही प्रकारके मासके निज निज मास प्रमाण से मिज निज संवत्सरका प्रमाण तथा निज निज मासके और निज निज संवत्सरके प्रमाणसे पांच वर्षों से एक युगके १८३० दिनांकी गिनती का हिसाब संबंधी आगे यंत्र (कोष्टक) जिसनेमें मावेगें जिससे पाठक वर्गको सरलता पर्वक सदी बच्ची बरहले समसमें मासकेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) और भी अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने सम्बन्धी सूत्र, निर्युक्ति, साध्य, चूर्णि वृत्ति और प्रकरणादि शास्त्र के पाठ मौजूद हैं परंतु विस्तार के कारण से यहां नहीं बिताहू तथापि बिवेकी जनता उपरोक्त पाठार्थोंसे भी स्वयं समझ जायेंगे । अब इस जगह जिमाज्ञा विरुद्ध प्ररूपणा से तथा वर्तने बर्तानेसे संसार वृद्धिका भय रखनेवाले और जिनाशाके आराधक आत्मार्थी निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषों को में निवेदन करता है कि देखो उपर में श्रीचन्द्रमष्टित्तिमें तथा श्रीसूर्य मसिह सिमें सर्व ( अनन्त ) श्रीतीर्थङ्कर महाराजी के कथ मानुसार श्रीमलयगिरिजीने। तथा श्रीसमवायाङ्गनी सूत्र में श्रीगणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामीजीने और श्रीसमवायाङ्ग जी सूत्रको वृत्ति में श्रीखरतरगच्छ के श्री अभयदेवस रिजीने और श्रीप्रवचनसारोद्वार में श्रीतपगच्छ के पर्वच श्रीनेमिचन्द्र सूरिजीने । तथा श्रीवृहत्कल्पवृत्ति में श्री तपगच्छके श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजीने इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिकमासको प्रमाण करके गिनती में मंजूर किया हैं जैसे बारे मासोकी गिनती में कोई न्यन्याधिक नहीं हैं जैसे ही अधिकमास होनेसे तेरहमालांकी गिनती में भी कोई न्यन्याधिक नही हैं किन्तु सबी ही बरोबर हैं से। उपरोक्त पाठार्थोंसे प्रत्यक्ष दिखता है सेा विशेष करके अधिक मासको भी मुहूलॉमें, दिनोंमें, पक्षों में, मासों में वर्षोंमें, गिनकर पांचसंवत्सरे के एक युगकी गिनती के दिनांका, पक्षांका, मासोंका, वर्षौंका प्रमाण श्री अनन्ततीर्थङ्कर बणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों ने और श्री खरतरगच्छ के तथा श्रीतपगच्छादिके पूर्वजोंने कहा है से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat · www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] आत्मार्थी जिनाज्ञाके आराधक पुरषोंको प्रमाण करने योग्य हैं। . इस संसारको अनन्त काल हो गये हैं जिसमें अनन्त चौवीशी व्यतित हो गइ चन्द्र सूर्यादिके विनान भी अनन्त कालसें सरू हैं इस लिये जैनज्योतिष भी अनन्ते कालसें प्रचलित हैं जिसमें अधिक मास भी अनन्त कालसें चला आता हैं-मास सृद्धिके अभावसे बारह मासके संवत्सरका नाम चन्द्र संवत्सर हैं और मासवृद्धि होनेसें तेरहमासकी गिनतीके कारणसें संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित संवत्सर हैं तीन चन्द्रसंवत्सर और दोय अभिवति संवत्सर इन पांच संवत्सरोंसें एकयुग होता हैं एकयुगमें पांच संवत्सरोंके बासठ (६२) मासोंकी बासठ (६२) पूर्णिमासी और बासठ (६२) अमावस्याके एकसो चौवीश (१२४) पर्वणि अर्थात् पाक्षिक अनन्त तीर्थङ्करादिकोंनें, कही हैं जितसै अनन्तकाल हुए अधिकमासकी गिनती दिन, पक्ष, मात, वर्षादिमें चली आती हैं किसीने भी अधिकमासकी गिनती का एकदिन मात्र भी निषेध नही किया हैं तथपि बड़े आफसोस की बात हैं कि, वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमास की गिनती बड़े जोरके साथ वारंवार निषेध करके एकमासके ३० दिनोंकी गिनती एकदम छोड़ देते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर महाराजोंकी श्रीगणधर महाराजोंकी श्रीपूर्वधर पूर्वाधार्योजी की तथा इनलोगोंके खास पूज्य श्रीतपगच्छके ही प्रभाविकाचार्योजी की आज्ञा भङ्गका भय नही करते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाधार्योजी की आज्ञा मुजब वर्तमान में श्रीखरतरगच्छादिवाले अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] मासकों प्रमाण करके गिनती में मंजूर करते हैं जिन्होंकों आज्ञा भङ्गका मिथ्या दूषण लगाके उलटा निषेध करते हैं फिर आप आज्ञाके आराधक बनते हैं यह कितनी बड़ी आश्चर्य्यकी बात हैं। श्रीअनन्त तीर्थङ्करादिकोंने अधिकमासको गिनतीमें प्रमाण किया हैं इसलिये जिनाजाके आराधक आत्मार्थी पुरुष कदापि निषेध नही कर सकते हैं तथापि वर्तमानमें जो अधिक मामको गिमतीमें निषेध करते है जिन्होंकों श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वावार्योंकी और अपने पूर्वजोंकी आज्ञाभङ्गके सिवाय और क्या लाभ होगा सो निपक्षाती आत्मार्थी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगें। . प्रश्न:----अजी तुम तो श्रीअनन्ततीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योजी की शाक्षिसें अधिकमासको दिनोंमें पक्षोंमें, मासोंमें, वर्षों में, गिनती करनेका प्रत्यक्षप्रमाण उपरोक्त शास्त्रों के प्रमाणसें दिखाया हैं परन्तु वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमास तो एककाल चूलारूप हैं इसलिये गिनतीमें नही लेना एसा कहते हैं सो कैसें । ___ उत्तरः-भो देवानुप्रिये वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमासको कालचूला कहके गिनतीमें निषेध करते हैं सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि अधिकमासको कालचूला किस कारणसें कही हैं जिसका अभिप्राय और कालचूला कहनेसें भी विशेष करके गिनती करने योग्य हैं तथा कालचूलाकी ओपमा बहुत उत्तम श्रेष्ठ शास्त्रकारोंने दिवी हैं सो हमतो क्या कुल जैन श्वेतांबर जिनाज्ञाके आराधन करनेवाले आत्मार्थी सबी पुरुषोकों मान्य करने योग्य हैं " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] और गिनती भी करने योग्य है जिसका कारण शास्त्रोंके प्रमाण सहित दिखाते हैं श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्वधर महाराज कृत श्रीनिशीथ सूत्रकी चूर्णि श्रीमोहनलालजी महाराजके सुरतका ज्ञानभंडार से आई थी जिसके प्रथम उद्देशेके पृष्ठ २१ में तत्पाठ इयाणिं चूलेति दारं ॥ णाम ठवणा गाहा णिरकेव गाहा ॥ कंठा ॥ णाम ठवणाउयाउ दवचूला दुविहा आगमतो णो आगमतोय आगमउ जाणए अणुवउते गो आगमतो जाणय भव सरीरं जाणयभवसरीरवइरित्ता तिधा य दवचूला गाहा पुवइ ॥ कंठं ॥ पढमो वसो वधारणे वितिउरु मुवये पुछदे जहा संखंनि ॥ उदाहरणा ॥ सचित्तचूड़ा कुक्कटला सा मंसपेसी चेव केवला लोकप्रतिता मीसाचूडा मोरसिहा तस्स मंसपेसीए रोमाणि भवंति अचित्ता चूला मणीकुंता वा आदिसद्दाउ सीहकस पासाद धूभअग्गाणि ॥ दवचूलागता || इदाणि खेत्तचूला सा तिविहा ॥ अह तिरिय उढ्ढ । गाहा। अह इति अधोलोकः तिरिय इति तिरियलोकः उद् । इति ऊङ्घ लोकः लोगस्स सद्दो पत्तेगं चूला इति सिहाहोंति । भवति । इमाइति प्रत्यक्षो तु शब्दो क्षेत्रावधारणे अहोलोगा दीण पच्छद्ध ेण जहा संखं उदाहरणा सीमंतग इति सीमंतगो णरगो रयणप्पनाय पुढवीउ पढमो सो अह लोगस्त चूला । मंदरोमेरु सो तिरियलोगस्सचूलातिक्रान्तत्वात् अहवा तिरिय लोगपति ठियस्स मेरोवरि चत्तालीसं जोयणा. चूला सो तिरिय लोगचूला वसद्दो समुच्चये पाय पूरणे वा इसित्ति अप्पभावे पइति प्रायो वृत्याभार इति भारक्क ं तस्स पुरिसस्त गायं पाय सो इसिणयं भवति जाव एवं ठितासा पुढवी ७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat w . www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] इसिपभाराणान इति एतमभिहाणं तस्स साथ सङ्घद्व सिद्धि विमाणात उवरिं वारसेहि जोयणेहिं भवति तेण सा उट्टलोए भवति । गता खेत्तचूला । इयाणि काल भावचूलाउ दोविएग गाहाए भस्मति । अहिमासनकाले । गाहा । बारसमास वरिसाउ अहितमासो अहिमासउ अहिवद्दिय वरिसे भवति सोय अधिकत्वात् कालचूला भवति तु सद्दोप्प दरिसणेण केवलं अधिको कालो कालचूला भवति अंतो विवढमाणो काली कालचूलाए भवति एवं जहाउ तप्पिणीए अंते अंति दूस समाए सा उस्तप्पिणीए अंते कालस्सचूला भवति । कालचूला गता । इयाणिं भावचूला । भवणं भावः पर्याय इत्यर्थः॥ तस्स धूला भावचूला सोय दुविहा आगमउय णो आगमउय आगमउजाणए उवउत्तेण णो आगमउय इमाचेव तुसद्दो | खडवसम भावविसेसेण दवो इमाइति । पकप्प झयण चूला एग सद्दोवधारणे चूलेगठिता चूलात्तिवा विभूसणंति वा सीहरंति वा एते एगठो ॥ चूलेति दारंगयं ॥ इति श्रीनिशीथसूत्रके पहिले उद्देशे की चूर्णिके पृष्ठ २२ तक और भी १४४४ ग्रन्थकार सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत श्रीदशवैकालिकसूत्रके प्रथम चूलिकाकी बृहत् वृत्तिका पाठ सुनिये श्रीदशवेकालिकमूलसूत्र, अवचूरि, भाषार्थ, दीपिका और वृहत्वृत्ति सहित मुम्बई से छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ ६४० और ६४१का चूला विषयका नीचे मुजब पाठ जानो - यथा --- अधुनौघतश्चड़े आरभ्यते अनयोश्चायमभिसम्बन्धः । इहा नन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः सचैवं भूतोऽपि कदाचित् कर्म्मपरतन्त्रत्वात् कर्म्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेदत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] एतत् स्थिरीकरणं कर्तव्यमिति तदर्थाधिकारवच्चाद्वयमभिधीयते तत्र चूड़ा शब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह॥ दव्वे खेलेकाले, भावम्मिअ चूलिआय निस्केको॥ तं पुण उत्तरतंतं, सुअ गहिअत्य ं तु संग्रहणी ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ नाम स्थापनेक्षु सात्वादनादूत्याह द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्रव्यादिविषयश्चूड़ाया निक्षेपो न्यास इति । तत्पुनश्चड़ाद्वयमुत्तरतन्त्रमुत्तरसूत्रम् दशवेकालिकस्या वारपञ्च बड़ावत् एतच्योत्तरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव दशवेकालिकाख्य श्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः यद्येवमपार्थमिदम् । नेत्याह संग्रहणी तदुक्का नुक्तार्थसंक्षेप इति गाथार्थः द्रव्य बूड़ा दिव्याचिख्या सयाह ॥ दव्वे ताई, कुक्कुट चूडामणी मकराइ ॥ खेत्तमि लोगनिक्कड़ मंदरचूड़ा अ कूड़ाइ ॥ २१ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्य इति द्रव्यचड़ा आगम नोआगम सशरीरेतरादिव्यतिरिक्ता त्रिविधा स चित्ताद्या । सवित्ता अचित्ता मिश्राच । यथा संख्यमाह-कुक्कट चड़ा सविता मणिबूड़ा अचित्ता मयूरशिखा मिश्रा । क्षेत्र इति क्षेत्र वड़ा लोकनिष्कुटा उपरिवर्तिनः मन्दरच डा च पाण्डुकम्बला । चूड़ादयश्च तदन्यपर्वतानां क्षेत्रप्राधान्यात् आदिशब्दादधोलोकस्य सीमंतक: तिर्य्यग् लोकस्य मन्दर ऊङ्ख लोकस्येषत्प्राग्भार इति गाथार्थः ॥ अइरिश अहिगमासा, अहिगा संवत्सराअकालंमि ॥ भावे खउ वसभिए, इमाउ चड़ामुणे अव्वा ॥ २८ ॥ व्याख्या ॥ अतिरिक्ता उचित कालात् समधिका अधिकमासका प्रतीताः अधिकाः संवत्सराच षष्टादाद्यपेक्षया काल इति कालच ड़ा भाव इति भावड़ा क्षायोपशमिके भावे इयमेव द्विप्रकारा चूड़ा. मन्तव्या विज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाच्छ्रुतस्येति गाथार्थः तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यच ड़ा इत्यादि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ ] और भी श्रीजिनभद्र गणिक्षमाश्रमणजी महाराज युगप्रधान महाप्रभाविक प्रसिद्ध है जिन्होंके शिष्य श्रीशीलाङ्गाचार्यजी भी महाविद्वान् श्रीआचाराङ्गादि १९ अङ्गरूप सूत्रों की टीका करनेवाले प्रसिद्ध है जिसमें श्रीआचाराङ्गजी तथा श्रीसूयगडाङ्गजी सूत्रकी टीका तो सुप्रसिद्धिसे वर्त रही हैं और बाकी श्रीस्थानाङ्गजी आदि नवसूत्रों की टीका विच्छेद होगई थी जिससे श्रीअभयदेवसूरिजीनें दूसरी वार बनाई है सो प्रसिद्ध है श्रीशीलाङ्गाचार्य्यजी विक्रम संवत् ६५० के लगभग हुवे हैं सो श्रीआवाराङ्गजी सूत्रकी व्याख्या रूप टीका करते दूसरे श्रुतस्कन्धकी व्याख्याके आदिमें ही चलाका विस्तार किया है परन्तु यहाँ थोड़ासा लिखता हु श्री मकसूदाबाद निवासी धनपतिसिंह बहादुरकी तरफ से श्रीआ वाराङ्गजी मूलसूत्र, भाषार्थ, दीपिका और वृहत् वृत्ति सहित छपके प्रसिद्ध हुवा है जिसके दूसरा श्रुतस्कन्धके पृष्ठ ४ में सें चला विषयका थोड़ासा पाठ नीचे मुजब जानो यथा- चड़ाया निक्षेपः नामादिः षड् विधः नामस्थापने मु द्रव्यचड़ा डा व्यतिरिक्ता सचित्ता कुक्कुटस्य अचित्ता मुकुटस्य च डामिश्रा मयूरस्य, क्ष ेत्रचचूड़ा लोकनिःकुटरूपा कालचूड़ा अधिकमासक स्वभावा भावात्वियमेव क्षयोपशमिकभाववर्तित्वात् तथा (इसके पहले तीसरे पृष्ठ में) कालाग्रमधिकमासकः यदिवाग्र शब्दः परिमाणवाचक इत्यादिदेखो ऊपरोक्तशास्त्रों के कर्ता में श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्वधरगीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध है तथा श्रीहरिभद्र सूरिजी भी पूर्वधर गत गीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध हैं और श्रीजिनभद्रगणि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] क्षमाश्रमणजी महाराजके पट्टधरशिष्य श्रीशीलांगाचार्यजी महाराज भी महाप्रभाविक गीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध है। इस लिये उपरके पाठ सर्व जैनश्वेतांवर आत्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य हैं ऊपरके पाठमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षोत्र, काल, भाव सें, छ ( ६ ) प्रकारकी चूला कही हैं जिसमें नाम, स्थापना, तो प्रसिद्ध हैं और द्रव्य चूलादि की व्याख्या खुलासा किवी हैं कि,-द्रव्यचूला दो प्रकारकी प्रथम आगमरूप शास्त्रों में कही हुइ और दूसरी नो आगम सो मति, अवधि, मनपर्यव, तथा केवल ज्ञानसे जानी हुइ द्रव्य चूला सो भव्य शरीर अर्थात् ज्ञानीजी महाराज अपने ज्ञानसें पहले से ही देखके जानलेवें कि यह मनुष्य आगामी काले साधु आदि धर्मी पुरुष होने वाला हैं ऐसा जो मनुष्य का शरीर जिसको द्रव्य चूला कहते हैं, कारण कि, इस संसारमें अनन्तीवार शरीर पाया परन्तु उत्तम पदवी पाने योग्य शरीर पाना बहुत मुश्किल हैं तथापि अब पाया जिससें धर्मप्राप्तिका योग्य होवे एसें शरीर को ज्ञानी महाराजने भव्यशरीर कहा हैं सो उस शरीरको अनन्ते सब शरीरोंसें उत्तम कहो तथा श्रेष्ट कहो अथवा चूलारूप कहो सबीका तात्पर्य एकार्थका हैं और भी प्रसिद्ध द्रव्य चूला तीनप्रकारकी कही है जिसमें प्रथम कुक्कुट ( मुरगा) के मस्तक उपर शिखररूप मांसपेसी सहित होनेसे उसीकों सचित्तचूला कही जाती हैं तथा दूसरी मोर ( मयूर ) के मस्तक उपर शिखररूप मांसपेसी ओर रोम सहित होनेसे उसीको मिश्र चूला कही जाती हैं और तीसरी मणि तथा कुन्त और मुकुटादिकके उपर शिखररूप होवे उसीकों अधित्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] धूला कही जाती हैं इन्होंकों चूलाकी ओपना देनेका यही कारण है कि सब भवअवयोंसें विशेष सोभाकारी सुन्दर उत्तम होनेसें शिखरकी अर्थात् चूलाकी ओपना शास्त्रकारोंने दिवी हैं, द्रव्यचूलारूप भव्यशरीरकों गिनती में करके प्रमाण करने योग्य हैं, द्रव्यनिक्षेपावत् अर्थात् रावण कृष्ण श्रेणिकादि अबी द्रव्य निक्षेपेमें गिने जाते हैं परन्तु जब केवल ज्ञान पावेंगें तब भाव निक्षेपेमें गिने जावेंगे तैसेही भव्यशरीर जो द्रव्यचलामें हैं सो जब साधु आदि धर्म की प्राप्ति होगा तब भावलामें गिना जावेगा । द्रव्यचूला की गिनती नही करोगे तो आगे भाव वूला में कैसे गिना जावेगा इस लिये द्रव्यचूलाकी गिनती प्रमाण करने योग्य हैं । और क्षेत्रचूला भी तीन प्रकार की कही हैं जिसमें प्रथम अधोलोकमें रत्नप्रभा पृथ्वीके सीमन्तनामा नरकावासा अधोलोकके उपर जो शिखररूप है उसीकों अधोलोक चूला कही जाती हैं तथा दूसरी तिर्यग् (तीरछा) लोकमें सुप्रसिद्ध जो मेरुपर्वत हैं उसीको तिर्यग् लोकचूला कहते हैं कारण कि तिर्यग लोकका प्रमाण जंवा १८०० सो योजनका हैं परन्तु मेरुपर्वत तो एक लक्ष योजनका होनेसे तिर्यगलोककों भी अतिक्रान्त ( उल्लङ्घन ) करके उंचा चला गया इस लिये तिर्यगलोकके उपर शिखररूप होनेसे मेरुपर्वतकों चला में गिना जाता हैं तथा मेरुके उपर जो ४० योजनकी चूलीका हैं सो भी मेरुके शिखररूप होनेसें चूला में गिनी जाती हैं और मेरुके चार वनोंमें १६ तथा १ चूलीकाका मिलके ११ मन्दिरोंमें २०४० श्रीजिनेश्वर भगवान् की शाश्वती प्रतिमाजी हैं इसलिये क्षेत्रचूलाका प्रमाण एक अंशमात्र भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] गिनती में नही छुटसकता हैं और तीसरी ऊङ्घ (उंचा) लोकमें सर्वार्थ सिद्धि विमानसें बारह योजन पर ईषत्प्राग्भारा नाम पृथ्वी जो सिद्धसिला ४५००००० लक्ष योजन प्रमाणे लंबी और चौड़ी हैं तथा बीचमें आठ योजन की जाड़ी हैं जिसके उपर श्री अनन्त सि भगवान् विराजमान हैं एसी जो सिह सिला सो ऊर्द्ध लोकके शिखररूप होनेसे चूलामें गिनी जाती हैं यह क्षेत्रचूला भी प्रमाण करके गिनती में करने योग्य हैं । और कालचूला उसीको कहते हैं कि जो बारह चन्द्र मासोंसें चन्द्रसंवत्सर एकवर्ष होता हैं जिसका उचितकाल हैं उसमें भी एक अधिक मासकी वृद्धि हो कर बारह मासों के उपर पड़ता हैं सो लोकोंमें प्रसिद्ध भी हैं और अनादि कालसे अधिकमासका एसाही स्वभाव है सो प्रमाण करने योग्य हैं और अधिकमास ज्यादा पड़नेसें संवत्सरका नाम भी अभिवर्द्धित होजाता हैं बारहमासोंका कालके शिखररूप अधिकमास ज्यादा होनेसें उसको कालचूला कही जाती है तथा जैन ज्योतिषके शास्त्रों से साठ (६०) वर्षों की अपेक्षा से एक वर्ष की भी वृद्धि होती थी जिसकों भी कालचूला कहते हैं और उत्सर्पिणिके अन्त में भी जो काल व सोभी कालचूलामें गिना जाता हैं तथा कालचूलारूप जो अधिकमास है उसीको प्रमाण करके गिनती में मंजूर करना चाहिये क्योंकि अधिकमासको कालचूलाकी जो ओपमा है सो निषेधकवाची नहीं है किन्तु विशेष शोभाकारी उत्तम होनेसें अवश्य ही गिनती करनेके योग्य है । तथापि वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले जो महाशय अधिकमास को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] कालचला कहके गिनती में नही लेते हैं और निषेध भी करते है। जिन्होंको मेरा इतना ही पूछना है कि आप लोग अधिक मासको कालचला जानके गिनती नही करते हो तो अभिवति नाम संवत्सर कैसे कहते हो और अभिवर्द्धित नाम सवत्सर तो कालचूलारूप अधिकमास ज्यादा होनेसै तेरह चन्द्रमासोंकी गिनती करनेसे ही होता है तथाहि-- अभिवर्तीत्यभिवतिः अभिवड़ितश्चाप्तौ संवत्प्तरोगभिवहितसंवत्तरः अभिवर्द्ध तश्चात्राभिवृद्धिरूपः अभिवृद्धिस्तु अधिकमासे नैव बोधव्य अनयारीत्या अयं संवत्सर अन्वर्थसंज्ञां लब्धवान् अग्वर्थसंज्ञायाः कारणतातु अधिकमासनिष्ठेव कारणत्वावच्छिन्नस्तु शिरोमौलिमुकुटहीरायमाणोऽधिकमास एव अधिकमासनिरुक्तिश्चेत्थं यतोत्र संवत्सरे द्वादशमासेभ्योऽधिकः पतति अतोऽधिकमासः एतद्गणनामन्तरेण तु अन्वर्थसंज्ञायारसङ्गत्यापत्तिरेवेति ध्येयम् । . . ___ अर्थः जो और संवत्सरोंकी अपेक्षासें ज्यादा हो याने अधिक महिनावालो होय सो अभिवति संवत्सर इस वत्सरमें वृद्धि जो है सो अधिकमास ही करके है इस कारणसे इस संवत्सरका अर्थानुसार अभिवहित नाम हुवा अर्थानुसार अभिवर्द्धित नाम रखने में अधिकमास कारण हुवा और अभियर्द्धितनाम कार्य हुवा इनोंका कार्य कारण भाव सिद्ध हुवा कारणताधर्मयुक्त होनेसें यह अधिकमास सब मासोंके मस्तकके शोभा करने वाला जो मुकुट जिसकी शोभा करने वाला जो हीरारत्न उसकी तुल्य हुवा और जिस कारण से इस महिने का नाम अधिकमास हुवा सो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] कारण यह है कि यह मास इस संवत्सर में वारहमासों से अधिक पड़ा इसलिये इसका नाम भी अर्थानुसार है इसकी गणनाके बिना अर्थानुसार नाम अभिवर्द्धित संवत्सरका न होगा न होनेसे असङ्गति दोष रहता है यह चिन्तन करना चाहिये । अब अधिक मासकी गिनती नही करने वाले महाशय तेरह चन्द्रमासोंके बिना अभिवर्द्धित संवत्सर कैसे बनायेंगे क्योंकि तेरह चन्द्रमासोंके बिना अभिवर्द्धितसंवत्सर नही हो सकता हैं तथा अभिवर्द्धित संवत्सर के बिना एकयुगके ६२ चन्द्रमासोंकी ६२ अमावस्या और ६‍ पूर्णिमासी १२४ पाक्षिकोंकी गिनती नही बन सकेगा इस लिये कालचूलारूप अधिक मासकी गिनती करनेसें अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह चन्द्रनातोंकी गिनतीसें होता है सोही श्रीअनन्ततीर्थङ्कर गणधर पूर्वाधरादि पूर्वाचार्य तथा खरतरगच्छके और तपगच्छादिके पूर्वाचाय्यने अधिकमासकों दिनोंमें पक्षों में माहोंमें वर्षों में गिनती में प्रमाण करके एकपुगके ६२ चन्द्रमासोंके १८३० दिनोंकी गिनती कही है सो उपरोक्त शास्त्रोंके पाठोंसे लिख आये हैं जिससे जनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषोंको अधिक मासकी गिनती मंजूर करनी चाहिये इसके लिये आगे युक्ति भी दिखायेंगे इति कालचूला सम्बन्धी किञ्चित् अधिकार- और चौथी भावचूला भी आगमसें तथा को आगमसें क्षयोपशमादिकी व्याख्या प्रसिद्ध हैं और श्रीदशवेका लिकजी सूत्रकी दो चूला तथा श्रीआवाराङ्गजी सूत्रकी दो चूला और मन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टिमन्त्रकी चार चूला इत्यादि सब भावचूला कही जाती हैं ८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ५८ ] सो विभूषणा कहो, शोभारूप कहो, शिखररूप कहो, विशेष सुन्दरता मुगटरूप कहो अथवा चूलारूप कहो, सब मतलबका तात्पर्य एकार्थका हैं इसलिये गिनती करने योग्य है और जैसे द्रव्य, भाव, नाम, स्थापनासें चार निक्षेपे कहे हैं सो मान्य करने योग्य है तथापि द्रव्य, स्थापनादि का निषेध करने वालोंकों (श्रीखरतरगच्छवाले तथा श्रीतपगच्छादि वाले सर्व धर्मवन्धु ) मिथ्यात्वी कहते हैं तैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे जो चूला कही है सो अनादिकालसें प्रवर्त्तना सरू हैं श्रीतीर्थङ्करादि महाराजोंने प्रमाण किवी है सो आत्मार्थियोंकों प्रमाण करके मान्य करने योग्य है तथापि क्षेत्रकालादि दूलायोंकों गिनतीमें मान्य नही करते उलटा निषेध करते हैं और जो मान्य करते हैं जिन्होंको दूषण लगाते हैं ऐसे श्रीतीर्थङ्करादि महाराजां के विरुद्ध वर्तने वाले विद्वान् नामधारक वर्तमानिक महाशयोंको आत्मार्थी पुरुष क्या कहेंगे जिसका निष्पक्षपाती श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके पाठक वर्ग स्वयं विवार लेवेंगे___ और अधिक मासको कालचूला कहनेसे भी गिनतीमें निषेध कदापि नही हो सकता है किन्तु अनेक शास्त्रोंके प्रमाणांसें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी आज्ञानुसार अवश्यमेव गिनती में प्रमाण करणा योग्य है तथापि जैन सिद्धान्त समाचारीकारने कालचूलाके नाममें अधिकमासकी गिनती उत्सूत्रभाषणरूप निषेध किवी है जिसका उतारा प्रथम इसजगह लिख दिखाते हैं और पीछे इसकी समालोचनारूप समीक्षा कर दिखावेंगे, जैनसिद्धान्त समाचारीके पृष्ठ ९०की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति १६॥ से पृष्ठ ९५ की पंक्ति १३ वीं तक चूला सम्बन्धी लेखका उतारा नीचे मुजब जानो [हम अधिक मासको कालचूला मानते हैं सो अब दिखाते हैं, चूला चार प्रकारकी शास्त्रों में कथन करी है, यथा-निशीथे दशवकालिक वृत्तौ च ॥. तथाहि-'चला चातुर्विध्यं । द्रव्यादिभेदात् तत्र द्रव्य चूला ताम्र चू लादि १ क्षेत्रचूला मेरोश्चत्वारिंशद्योजन प्रमाण चूलिका २ कालचला युगे तृतीयपञ्चमयोर्वर्षयोरधिकमासकः ३ भावच ला तु दशबैकालिकस्य धूलिकादयं ४ इति॥ (भावार्थः) जैसें निशीथसूत्र विषे और दशवैकालिक वृत्ति विषे है तैसें दिखाते हैं, चूला चार प्रकारकी है, द्रव्यादि भेद करके. तिसमें द्रव्य चूला उसको कहते है कि. जो मुरगादिके शिरपर होती है. १ क्षेत्रच ला यह है किमेरुपर्वतकी चालीश योजन प्रमाण जो चला है. २ काल चला उसको कहते है कि-जो तीसरे वर्ष और पाँचमें वर्षमें अधिक मास होता है.३ भावच ला उसको कहते है कि-जो दशवकालिक की चूलिका है ॥४॥ (पूर्वपक्ष ) कालघूला कहने से आपकी क्या सिद्धि (उत्तर) हे परीक्षक ! कालचूला कहने से यह सिद्ध होता है कि-चूलावाले पदार्थके साथ प्रमाणका विचार करना होवे तो उस पदार्थ से चला न्यारी नही गिनी जाती है. जैसें मेरुका लक्ष योजन प्रमाण कहेंगे तब च लिकाका प्रमाण भिन्न नही गिणेंगे। तैसें चतुर्मासके विचारमें और वर्षके विचार करने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] अवसरमें अधिक मासका विचार न्यारा नही करेंगे इस वास्ते अधिक मासकों कालचला कहते है । उपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि-प्रथमतो जैन सिद्धान्त समाचारीकारने निशीथ सूत्रके नामसे चूलाका पाठ लिखा है सो सूत्रमें बिलकुल नहीं है किन्तु निशीथ सूत्रकी चूर्णिमें जिनदास महत्तराचार्यजीने चूलासम्बन्धी व्याख्या किवी है और दशवकालिक सूत्रकी वृत्तिके पाठका नाम लिखा लोभी नहीं है किन्तु दशवैकालिक सूत्रकी प्रथम चूलिका की वृहत् वृत्तिमें पाठ हैं और उपरमें जो चूला चातुर्विध्य इत्यादि पाठ लिखा है सो न तो चूर्णिकारका है और न वृत्तिकारका है क्योंकि चूर्णिकारने और वृत्तिकारने द्रव्यनूला, आगम नो आगमसे भव्यशरीर और सचित्त, अचित्त, मिश्र, तथा क्षेत्रचूला भी सिद्धपिला और मेरुपर्वत अथवा मेरुचूलिका इत्यादि कालचूला भाव चूलाको विस्तारसे व्याख्या किवी हैं सो हम उपरमें सम्पूर्ण पाठ लिख आये हैं। जिप्तको और जैन सिद्धान्त समाचारी कारका लिखा पाठको वांचकवर्ग आपस में मिलावेंगे तो स्वयं मालुम हो सकेगा कि जैनसिद्धान्त समाचारीकारने जो पाठ लिखा है सोनिकेवल बनावटी है क्योंकि हमने उपरमें सम्पूर्ण पाठ लिखा है जिसके साथ इस पाउका अक्षर अक्षर और पंक्ति पंक्ति नहीं मिलती है तथा चूर्णिकार की प्राकृत संस्कत मिली हुवी भाषा है और वृत्तिकारकी नियुक्ति सहित व्याख्या किवी हुई है। जिनसे उपरका पाठ बिलकुल भाषा वर्गणादिमें बरोबर नही है इस लिये उपरका पाठ बनावटी हैं सो प्रत्यक्ष दिखता है तथापि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] जैन सिद्धान्त सनाचारी कारने ( यथा निशीथे दशवैकालिक वृत्तौच-इस वाक्यसें जैसे निशीथ सूत्र विषे और दशवैकालिक वृत्तिविषे है तैसे दिखाते हैं ) एसा लिखके भोले जीवोंको शास्त्रके नाम लिख दिखाये परन्तु शास्त्रकारका बनाया पाठ नही लिखा एसा करना आत्मार्थी उत्तम पुरुषको योग्य नही है और पाठका भावार्थ लिखे बाद पूर्वपक्ष उठायके उत्तर लिखा है जिसमें भी शास्त्रों के विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणरूप बिलकुल सर्वथा अनुचित लिख दिया है क्योंकि (चूलावाले पदार्थ के साथ प्रमाण का विचार करना होवे तो उस पदार्थसे चूला न्यारी नही गिनी जाती है ) इन अक्षरो करके चूलाकी गिनती भिन्न नही करनी करते है सो भी मिथ्या है, क्योंकि शास्त्रकारों ने चूला की गिनती भिन्न करके मूलके साथ मिलाइ है सोही दिखाते है कि-देखो जैसे श्रीमन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टि मन्त्रमें मूल पांचपदके ३५ अक्षर है तथा चार चूलिका के ३३ अक्षर हैं सो मूलके साथ मिलने से नवपदोसें चलिकायों सहित ६८ अक्षरका श्रीनवकार परमेष्टि मन्त्र कहा जाता है और श्रीदशवैकालिकजी मूलसूत्रके दश अध्ययन है तथा दो चलिका है जिसको भी शास्त्र कारोने अध्ययन रूप ही मान्य किवी है और नियुक्ति, चर्णि, अवचरि, वृहद्कृत्ति, लघुवृत्ति, शब्दार्थवृत्ति वगैरह सबी व्याख्याकारोंने जैसे दश अध्ययनोंका अनुक्रमे सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है तैसें ही दो चलिकारूप अध्ययनकी भी अनुक्रमणिका सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है और व्याख्यायों के श्लोकोंकी संख्या भी चलिकाके साथ सामिल करनेमें आती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है एसे ही श्रीआचारांगजीकी चूलिका, श्रीव्यवहार सूत्रजी की चूलिका, श्रीमहानिशीथसूत्रकी चूलिका वगैरह सबी चलिकायोंकी गिनती शास्त्रोंके साथ श्लोकोंकी संख्या में आती है तथा व्याख्यानावप्तरमें भी चूलिका साथ सूत्र वांचने में आता है। परन्तु चूलिकाकी गिनती नही करनी एसे तो किसी भी जैन शास्त्र में नही लिखा हैं इस लिये जो जो चलावाले पदार्थ है उसीके प्रमाणका विचार और गिनतीका व्यवहारमें चलाका प्रमाण सहित गिना जाता हैं और क्षेत्र चलाके विषय में जैन सिद्धान्त समावारीकारने लिखा है कि ( जैसे मेरुका लक्षयोजनका प्रमाण कहेंगें तब चलिकाका प्रमाण भिन्न नही गिनेंगे ) इन अक्षरोंको लिखके मेरुपर्वतके उपर जो चालीस योजनके प्रमाणवाली चलिका है। जिसके प्रमाणकी गिणती मेरुसे भिन्न नही कहते हैं सोभी अनुचित है क्योंकि शास्त्रोंमें मेरुके लक्षयोजनका प्रमाण तथा चूलिकाका चालीस योजनका प्रमाण खुलासा पूर्वक भिन्न कहा हैं सोही दिखाते हैं कि-खास जैन सिद्धान्त समाचारीकारके ही परम पूज्य श्रीरत्नशेखर सूरिजीनें लघुक्षेत्र समास नामा ग्रन्थ बनाया हैं सो गुजराती भाषा सहित श्रीमुंबईवाला श्रावक भीमसिंहमाणक की तरफसे श्रीप्रकरण रत्नाकरका चौथाभागमें छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ २३४ में मेरुकी चूलिकाके सम्बन्धवाली ११३ भी गाथा भाषा सहित नीचे मुजब जानो यथा-- ___ तदुवरि चालीसुच्चा, वडामूलुवरि बारचउपिहुला वेरुलिया वरचूला, सिरिभवण प्रमाण चेइहरा ॥ ११३ ॥ अर्थः-तदुपरि के, ते लाखयोजन प्रमाणना उंचा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुपर्वत उपरे, चालीसुच्चा के०, चालीस योजननी उंची, अने, वट्ट के०, वर्तुल तथा, मूलुवरि बारचउपिहुला के, मूलने विष बार योजन पहोली अने उपर चारयोजन पहोली, तथा, वेरुलिया के०, वैडूर्यनामे जे नीलारत्न तेनी, वर के०, प्रधान, चूला के०, चूलिका छे तेवली चूलिका केहवी छे, सिरिभवण पमाण चेहरा के०, श्रीदेवीना . भवन सरखा चैत्यग्रह एटले जिन भवण तेणे करि महाशोभित छे इति गाथार्थ ॥ ११३ ॥ उपरकी श्रीरत्नशेखर सूरिजी कृत गाथासे पाठकवर्ग स्वयं विचार लेगे कि, प्रगट पनेसे लक्षयोजनका मेरुके उपरकी चूलिकाके चालीस योजन का प्रमाण भिन्न गिना हैं तथापि जैनसिद्धान्त समाचारीकार भिन्न नही गिनना कहते हैं सो कैसे बनेगा तथा और भी सुनिये जो चूलिकाके प्रमाणको भिन्न नही गिनोंगे तो फिर धूलिकाके उपर एक चैत्य है जिसमें १२० शाश्वती श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजी है उन्होंकी गिनती कैसे करोगे क्योंकि मेरुमें तो १६ चैत्य कहे है जिसमें १९२० प्रतिमाजी है। तथा एक चूलिकाके चैत्यकी १२० प्रतिमाजीकी गिनती शास्त्रकारोंने भिन्न किवी है सो, जैनमें प्रसिद्ध है । इस लिये चूलिकाकी गिनती अवश्यमेव करनी योग्य है तथापि जो मेरुके चूलिकाकी गिनती भिन्न नही करते हैं जिन्होंको एक चैत्यकी १२० शाश्वती जिन प्रतिमाजीकी गिनतीका निषेधके दूषणकी प्राप्ति होनेका प्रत्यक्ष दिखता है। ___ और भी आगे कालचूलाके विषयमें जैन सिद्धान्तसमाचारीके कर्त्ताने ऐसे लिखा है कि ( तैसे चतुर्मासके विचारमें और वर्ष के विचार करनेके अवसरमें अधिक मासका विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] न्यारा नही करेंगे इस वास्ते अधिकमासको कालचूला कहते हैं ) इन अक्षरोंको लिखके अधिक मासको काल चूला कहनेसें चतुर्मासकी और वर्षकी गिनती में नही लेना ऐसा कहते हैं सो भी अयुक्त है क्योंकि अधिक मासको कालचूला कहनेसें भी अवश्यमेव गिनती में लेना योग्य है सो उपर में विस्तारसे लिख आये है, इसलिये अधिक मासकी गिनती कदापि निषेध नही हो सकती है श्रीतीर्थङ्क रादि महाराजांने प्रमाण किवी है और अधिकमासको काल धूलाकी ओपना देनेवाले श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्वधर महाराज भी अधिक मासकी गिनती निश्चयके साथ करते हैं सोही दिखाते हैं श्रीनिशीथसूत्रकी चूर्णिके दशवें उद्देशे में पर्युषण की व्याख्या के अधिकारमें पृष्ठ ३२२का तथाच तत्पाठः अविढिय वरिसे बीसती राते गते गिहिणा तं करंति तिसुचन्दवरिसे मवीसति राते गते गिहिणा तं करंति जत्य अधिमासगो पड़ति वरिसे तं अभिवयि वरिसं भस्मति जत्य ण पड़ति तं चन्द वरिसं— सोय अधिमासगो जुगस्सगंते मज्जे वा भवंति जतितो णियमा दो आसाढ़ा भवंति अहमज्जे दो पोसा - सीसी पुछति जम्हा अभिवदिय वरिसे वोरुति रातं, चन्द वरिसे सवीसति मासो उच्यते, जम्हा अभिवढिय वरिसे गिम्हे चेव सो मासो अतिकृंतो तम्हा वीस दिना अणभिग्गहियं करंति, इयरेसु तिसु चन्द वरिसेसु सवीसति मासो इत्यर्थः ॥ ܘ देखिये उपरके पाठमें अधिक मास जिस वर्ष में पड़ता हैं उसीको अभिवर्धित संवत्सर कहते हैं जहाँ अधिक मास जिस वर्ष में नही पड़ता है उसीको चन्द्र संवत्सर कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो अधिक मास नियम करके होने से युगके मध्य में दो पौष तथा युगके अन्तमें दो आषाढ़ होते हैं जब दो आषाढ़ होते हैं तब ग्रीष्म ऋतु में चेव निश्चय वो अधिकमास अतिक्रान्त (व्यतित) होगया इस लिये अभिवर्द्धित संवत्सरमें आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन तक अनियत वास, परन्तु वीशमें दिन जो श्रावण शुक्लपञ्चमी उसी दिनसें नियत वास निश्चय पर्युषणा होवे और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिन तक अनियत वास, परन्तु पचासमें दिन जो भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उसी दिनसे नियत वास निश्चय पर्युषणा होवे अब उपरके पाठसे पाठकवर्ग पक्षपात रहित होकर स्वयं विचार करेंगे तो प्रत्यक्ष निर्णय हो सकेगा कि खास चूर्णिकार महाराजनें मास वृद्धिको गिनतीमें चेव (निश्चय) अवश्यमेव कहा है और प्रथम उद्देशेका जो पहिले पाठ लिखचुके हैं जिसमें कालचूलाकी भी उत्तम ओपमा दिवी है सो अधिक मासकी गिनती करनेसेही अभिवर्द्धित नाम संवत्सर बनता है सो विशेष उपर लिख आये है तथापि जैन सिद्धान्त समाचारीके कर्त्ताने चूर्णिकार महाराजके विरुद्वार्थमें कालचूला कहनेसे अधिक मासकी गिनती नही करना ऐसा लिखने में क्या लाभ उठाया होगा सो पाठकवर्ग विचार लेना-दति ॥ __तथा और इसके अगाड़ी श्रीतपगच्छके अर्वाचीन (थोड़े कालके) तथा वर्तमानिक त्यागी, बैरागी, संयमी, उत्क्रष्टि क्रिया करनेवाले जिनाज्ञा मुजब शास्त्रानुसार चलने वाले शुद्धपरूपक सत्यवादी और सुप्रसिद्ध विद्वान् नाम धराते भी प्रथम श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्पकिरणावली में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिकामें तीसरे श्रीविनय विजयजीने श्रीसुखबोधिकामें चौथे न्यायांभोनिधिजी श्री. आत्मारामजीने जैन सिद्धान्तसमाचारी नामा पुस्तकमें पांचवें। न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्म संहिता पुस्तकमें छठे श्रीवल्लभविजयजीने वर्तमानिक जैन पत्र द्वारा सातवें श्रीधर्मविजयजीने पर्युषणा विचारनामकी छोटीसी २० पृष्ठकी पुस्तकमें और आठवा श्रावक भगुभाई फतेचंदने भी पर्युषणा विचार नामका लेख खास जैन पत्रके २३ में अङ्कके आदिमें । इन सबीमहाशयोंने जैन शास्त्रों के अति गम्भिरार्थका तात्पर्य गुरुगमसे समझे विना श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके तथा खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्यों के भी विरुद्ध होकर शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप अधूरे अधूरे पाठ लिखके (परभवका भय न रख्खते मिथ्या) अपनी अपनी इच्छानुसार अधिक मास की गिनती निषेध सम्बन्धी अनेक तरहके विकल्प श्रीखरतरगच्छादिवालोंके ऊपर आक्षेपरूप किये है। जितको पढ़ने से भोले जीवोंकी श्रद्धा भङ्ग होनेका कारण जानके निर्पक्षपाती आत्मार्थी जिनाज्ञाके आराधक सत्यग्राही भव्य जीवोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखानेके लिये उपरोक्त महाशयोंके लिखे हुए लेखोंकी समालोचनारूप समीक्षा शास्त्रानुप्तार तथा ग्रन्थकार महाराजके अभिप्राय सहित और युक्तिपूर्वक लिख दिखाता हूं--- प्रश्नः-तुम उपरोक्त महाशयोंके लिखे हुए लेखोंकी समीक्षा करोगें जिसमें जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तक श्रीआत्मारामजी की बनाई हुई नहीं है किन्तु उनके शिष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] श्रीकान्तिविजयजी तथाने श्रीअमरविजयजीने बनाई है ऐसा उत्त पुस्तकमें छपा है फिर श्रीआत्मारामजीका नाम उपरमें क्यों लिखा है और पर्युषणा विवार नामकी छोटी पुस्तकके लेखक भी श्रीधर्मविजयजी नहीं है किन्तु उनके शिष्य विद्याविजयजी हैं फिर श्रीधर्मविजयजीका नाम उपरमें क्यों लिखा है। ___उत्तरः-मो देवानुप्रिय ! मैंने उपरमें श्रीआत्माराम जीका और श्रोधर्मविजयजीका नाम लिखा है जिसका कारण यह हैं कि जैन शास्त्रानुसार गुरु महाराजकी आज्ञा विना शिष्य कोई कार्य नही कर सकता हैं इप्त लिये शिष्यके जो जो कार्य करने की जरूरत होवे सो सो गुरु महाराजर्स निवेदन करे जब गुरु महराज योग्यता पूर्वक कार्य करने की आज्ञा दें। तब शिष्य गुरु महाराजकी आज्ञानुसार जो कार्य करना होवे सो कर सकता हैं उन कार्य के लाभालाभके अधिकारी गुरु महाराज होते हैं परन्तु शिष्य गुरु महाराजकी आज्ञानुप्तार कार्यकारक होता है इस लिये उप्त कार्यकों कराने के मुख्य अधिकारी गुरु महाराज हैं इस न्यायके अनुतार प्रथम श्रीकान्तिविजयजीने तथा श्री. अमरविजयजीनें, जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तक वनानेके लिये श्रीआत्मारामजीसे आज्ञा मांगी होगी और बनाये पीछे भी अवश्यमेव दिखाई होगी जिसको श्रीआत्माराम जीने पढ़के छपानेकी आज्ञा दिवी होगी तब छपके प्रसिद्ध हुई है जो श्रीआत्मारामजी बनानेकी तथा छपाके प्रसिद्ध करनेकी आज्ञा न देते तो कदापि प्रसिह नही हो सकती इस लिये जैन सिद्वान्त समाचारीकी पुस्तकके प्रगटकारक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मारामजी ठहरे, आप कोई कार्य करना अथवा आप आज्ञा देकर कोई कार्य कराना सो भी बरोबर है जिससे मैंने श्रीआत्मारामजीका नाम लिखा है इसी न्यायसै श्रीधमविजयजीका भी नाम जानो-कदाचित् कोई ऐसा कहेगा कि गुरु महाराजकी आज्ञाविनाही प्रसिध कर दिवी होगी तो इसपर मेरा इतनाही कहना है कि गुरु महाराजकी आज्ञा विना जो कोई भी कार्य शिष्य करे तो उसको गुरु आज्ञा विराधक अविनित तथा अनन्त संसारी शास्त्र कारोंने कहा हैं ऐसेको हितशिक्षारूप प्रायश्चित्त दिया जाता हैं तथापि अविनित पमेसें नही माने तो अपने गच्छसे अलग करनेमें आता है सो बात प्रसिद्ध है इसलिये जो श्रीआत्मारामजीकी आज्ञासे जैन सिद्धान्तसमाचारीकी पुस्तक तथा श्रीधर्मविजयजीकी आज्ञासै पर्युषणा विचारकी पुस्तक प्रसिद्ध हुई होवे तब तो उस दोनो पुस्तकमें शास्त्रकारों के विरुडार्थमें अधूरे अधूरे पाठ लिखके उत्सूत्रभाषणरूप अनुचित बाते लिखी है जिसके मुख्य लाभार्थी दोनो गुरुजन है इसी अभिप्रायसे मेंने भी दोनो गुरुजनके नाम लिखे हैं और अब उपरोक्त महाशयोंके लिखे लिखोंकी समीक्षा करते हैं जिप्तमें प्रथम इस जगह श्रीविनयविजयजी कृत श्रीकल्पसूत्रकी सुबोधिका ( सुखबोधिका ) वृत्तिविशेष करके श्रीतपगच्छमें प्रसिद्ध हैं तथा वर्तमानिक श्रीतपगच्छके साधु आदि प्रायः सब कोई शुद्ध अदापूर्वक सरल जानके उसीको हर वर्षे गांव गांवके विषे श्रीपर्युषणापर्वमें वांचते हैं जिसमें अधिक मासकी गिनती निषेध करनेके लिये लिखा हैं जिसको यहाँ लिखकर पीछे उसी में जो अनुचित्त है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] जिसकी समीक्षा करके दिखाबुंगा जिससे आत्मार्थी प्राणियोंको सत्यासत्यकी स्वयंमालुम हो सकेगा श्रीसुखबोधिका वृत्ति मेरे पास हैं जिसके पृष्ठ १४६ की दूसरी पुठीकी आदि से लेकर पृष्ठ १४७ की दूसरी पुठीकी आदि तकका नीचे मुजब पाठ जानो यथा जाता अन्तरावियत्ति अर्वागपि कल्पते परं न कल्पते तां रात्रिं भाद्रशुक्लपञ्चमी वायणा वित्तएत्ति अतिक्रमयितुं तत्र परिसामस्त्येन उषणं वसनं पर्युषणा सा द्वेधा गृहस्थज्ञाता गृहस्थै अज्ञाताव तत्र गृहस्थै अज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते साधाषाढ़ पूर्णिमायां योग्यक्षेत्राभावे तु पञ्च पञ्चदिन वृद्धघा दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्रपद सितपचम्यां एवं गृहिद्वेधा सांवत्सरिक कृत्यविशिष्टा गृहिज्ञातमात्राच तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि ॥ संवत्सरप्रतिक्रान्ति १ लुञ्चनं २ चाष्टमं तपः ३ सर्वाद्भक्तिपूजा च ४ संघस्य क्षामणं मिथः ५ ॥ १ ॥ एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रसितपञ्चम्यामेव कालिकाचार्यादेशाचतुर्थ्यामपि केवलगृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मासकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैः वयमत्र स्थितास्म इति पृच्छतां गृहस्थानां पुरो वदन्ति । तदपि जैनटिप्पन कानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ो वर्द्धते नान्ये मासास्तहिप्पनकंतु अधुना सम्यग् न ज्ञायते ततः पञ्चाशतैश्च दिनैः पर्युषणायुक्तेति वृद्धाः अत्र कश्चिदाह ननु श्रावणमृद्धौ श्रावणसित चतुर्थ्यामेव पर्युषणायुक्ता नतु भासितचतुर्थ्यां दिनानामशीत्यापत्तेः । वासाणं सवीसइराए मासेवइक्क ते इति बचनबाधा स्यादिति चेन्मैवं अहो देवानां प्रिय एवमाश्विन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] वृद्धौ चतुर्मासककृत्य माश्विनसितचतुर्दश्यां कर्तव्यं स्यात् कार्तिकसितचतुर्दश्यां करणे तु दिनानां शतापत्या ॥ समणे भगवं महावीरे वासाणसवीसइराए मासे वइक्वते सत्तरिराइंदिएहिं॥ इति समवायांगवचमबाधा स्यात् । नच वाच्यं चतुासकानां ही आषाढ़ादिमासप्रतिबद्धानि तस्मात्कार्तिकचतुर्मासिकं कार्तिकसितचतुर्दश्यामेव युक्तं दिनगणनायां त्वाधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां सप्ततिरेवेति कुतः समवायांगवचनबाधा इति यतो यथा चतुर्मासकानि आषाढ़ादिमास प्रतिबद्धानि तथा पर्युषणापि भाद्रपदमात प्रतिबद्धा तत्रैव कर्तव्या दिनगणनायां त्वधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव कुतोऽशीतिवार्तापि नच भाद्र पदप्रतिबद्ध तु पर्युषणा अयुक्तं बहुष्वागमेषु तथा प्रतिपादनात् ॥ तथाहि ॥ "अन्नया पज्जोसवणादिवस आगए अज्जकालगेण सालवाहणो भणिओ, भद्दवयजुरह पंवमीए पज्जोसवणा" ॥ इत्यादि। पर्युषणाकल्पचूणा तथा “तत्य य सालवाहणो राया, सो अ सावगो, सो अ कालगज्ज इंतं सोऊण निग्गओ, अभिमूहो समणसंघो अ, महाविभूईए पविट्ठो कालगज्जो, पविट्ठोहिं अ भणिअं, भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ, समणसंघेण पडिवम, ताहे रमा अणिअं, तद्दिवसं मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणुजाणेयवो होहित्ति साहू चेइए अणुपज्जुवासिस्सं, तो छट्ठीए पज्जोसवणा किताइ, आयरिएहिं भणिअं, न वढ्ढति अतिक्कमितुं, ताहे रमा अणिअं, ता असा गए चउत्थीए पज्जोसविज्जति, आयरिएहिं भणिअं, एवं भवउ, ताहे चउत्थीए पज्जोसवितं एवं जुगप्प. हाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिआ, सा चेवाणुमतासवसाहू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] णमित्यादि ॥ श्रीनिशीथ चूर्णो दशमोद्द शके एवं यत्र कुत्रापि पर्यूषणानिरूपणम् तत्र भाद्रपदविशेषितमेव नतु काप्यागमे भवयपंचमी पज्नोसविज्ज इति पाठवत् अभिवद्विअ वरिसे सावणसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइति पाठ उपलभ्यते ततः कार्तिकमासप्रतिबध चतुर्मासिकः कृत्य करणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं तथा भाद्रमासप्रतिबद्ध पर्युषण करणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति त्यजकदाग्रहम् । श्रीविनयविजयजी कृत उपरके पाठका संक्षिप्त भावार्थ:अन्तरा वियसेत्ति इत्यादि कहने से आषाढ़ पूर्णिमासे पचास में दिन भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी जिसके अन्तरमे कारण योगे पर्युबणा करना कल्पे परन्तु पञ्चमीको उल्लङ्घन करना नही कल्पे वर्षाकालमें सर्वथा एकस्थान में निवास करना सो पर्युषणाजिसमें योग्यक्षेत्र के अभाव से पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दशपर्वतिथि में यावत् पचासमें दिन भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीको परन्तु श्रीकालकाचार्य्यजी से चतुर्थी को गृहस्थी लोगोंकों साधुके वर्षाकालका निबास अर्थात् पर्युषणाकी मालुम होती थी सो चन्द्रसंवत्सरको अपेक्षा परन्तु मास वृद्धि होनेसें अभिवर्द्धितनाम संवत्सर में वीशदिने गृहस्थीलोगोंको साधुके निवास (पर्युषणा) की मालुम होती थी सो जैन टिप्पनाके अनुसारे एकयुगके मध्य में पोषकी तथा अन्त में आषाढ़की वृद्दि होती थी इसके सिवाय और मासोंके वृद्धिका अभावथा तब चन्द्रमें पचास दिनका तथा अभिवर्द्धितमें वो दिनका नियम था, परन्तु अब वर्त्तमानकाले जैन टिप्पना नही वर्तता है तथा लौकिक टिप्पनामें हरेकमासोंकी वृद्धि होती है इस लिये पंचाशतैश्च दिनैः पर्युषणायुक्तेति वृधः - अर्थात् इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] कालमें मास वृद्धि हो अथवा न हो परन्तु पचासदिने पर्युषणा करना योग्य है ऐसे वृद्धाचार्य कहते हैं यहाँ कोई कहते हैं कि इस न्यायानुसार वर्तमान कालमें जब दो श्रावण होते हैं तब तो पचास दिनकी गिनतीसै दूजा श्रावण सुदी चौथके दिन पर्युषणा करना योग्य है परन्तु दो श्रावण होते भी माद्रव सुदी चौथके दिन पर्युषणा करना योग्य नही है क्योंकि ८० दिन होजावेंगे, और श्रीकल्पसूत्रमें-वासाण सवोसइराए मासे वीइक्कते-अर्थात् आषाढ़ चौमासीसें एक मास और वीशदिन उपर, कुल पचाशदिन जानेसे पर्युषणा कहा है तथापि ८० दिने करनेसे सूत्रका इस वाक्यको बाधा आती हैं इस लिये ८० दिने पर्युषणा करना योग्य नहीं है,ऐसा प्रश्नरूप वाक्य सुनके इसका उत्तर रूप वाक्य श्रीविनय विजयजी अपनी विद्वत्ताके जोरसे कहते हैं कि अहो देवानां प्रिय-अहो इति आश्चर्य हेमूर्ख-अधिकमासकी गिनती करके दो श्रावण होनेसे दूजा श्रावणमें ५० दिने पर्युषणा करना कहता है तो दो आश्विन ( आसोज ) मास होनेसे १० दिन की गिनती से दूजा आश्विन मासमें तेरेको चतुर्मासिक कृत्य करना पड़ेगा तथापि कार्तिक मासमें चतुर्मासिक कृत्य करेगा तो १०० दिन हो जावेगें, क्योंकि समणे भगवं महावीरे वासाण सवीसहराए मासेवक्तंते सत्तरिएराईदिएहिं इति। श्रीसमवायांगजीमें पीछाडीके 90 दिन रहना कहा है इसवास्ते दूजा आसोजमें चौमासिक रुत्य करना पड़ेगा तथापि कार्तिकमें करेगा तो १०० दिन होजावेंगें तो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाधा आवेगी इस लिये अधिक मासकी गिनती करनेसे दूजा श्रावणमें पर्युषणा करना योग्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३ ] है। ऐसा नहीं कहना क्योंकि चतुर्नासिक कृत्य आषाढ़ादिमासोंमें करने का नियम हैं तिस कारणसें दो आश्विनमास होवे तोभी कार्तिक चौमासी कार्तिक शुदी चतुर्दशीके दिन करना योग्य है जिसमें अधिकमास कालचूला होनेसे दिनों की गिनतीमें नही आता है इसलिये दो आश्विन होवे तो भी कार्तिक १०० दिने चौमासी किया ऐसा नही समझना किन्तु ७० दिने ही किया गया ऐसा कहनेसे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके व वनमें बाधा नहीं आती हैं इस कारण से जैसें चतुर्मासिक आषाढ़ादि मासोंमें करने का नियम हैं तैसे ही पर्युषणा भी भाद्रपद मासमें करने का नियम हैं जिससे उसी ( भाद्रवे ) में करना चाहिये जिसमें भी अधिकमास आवे तो दिनोंकी गिनती में नही लेनेसे दो श्रावण होते भी भाद्रवेमें पर्युषणा करनेसे ५० दिने ही किया ऐसा गिना जाता है इस लिये ८० दिनोंकी वार्ता भी नही समझना तथा पर्युषणा भाद्रवेमें करनेका नियम है सो ही बहुत आगामें कहा है तैसा ही श्रीविनयविजयजीने यहाँ श्रीपर्युषणा कल्पचूर्णिका तथा श्रीनिशीथ चूर्णिका पाठ लिख दिखाया जिसमें भी श्रीकालका वार्यजी महाराज आषाढ़ चतुर्मासीके पीछे कारणयोगे विहार करके सालिवाहनराजा की प्रतिष्ठानपुर नगरीमें आने लगे तब राजा और श्रमण सङ्क आवार्यजी महाराजके सामने आये, और महा महोत्सवपूर्वक नगरीमें प्रवेश कराया और पर्युषणा पर्व नजिक आये थे जब आचार्यजी महाराजके कहनेसे भाद्रव शुदी पञ्चमीके दिन पर्युषणा करने के लिये सर्व सङ्घने मंजूर किया तब राजाने कहा कि महाराज उसी ( पञ्चमी ) के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ४ ] दिन मेरे नगरीके लोगोंकी सम्मतीसे इन्द्रध्वजका महोत्सव होता है जिससे एक दिनमें दो कार्य के महोत्सव बनने में तकलीफ होगा इस लिये पर्युषणा छठकी करो तब आचार्यजी महाराजने कहा कि छठकी पर्युषणा करना नही कल्पे जब फिर राजाने कहा कि चौथकी करो तब आचार्य जीने कहा यह बन सकता है, युगप्रधान महाराजकी इस बातको सर्व सङ्कने भी प्रमाण किवी है इत्यादि श्रीनिशीथ चूर्णिके दशवे उद्देशे में इसी प्रकारसे पर्युषणाकी व्याख्या है सो भाद्रव मासमें करने की हैं जैसे ही मासवृद्धि होनेसे अभिवति संवत्तर (वर्ष)में श्रावण शुदी पञ्चमीकी पर्युषणा करनी ऐसा पाठ कोई भी आगममें नही मिलता है तिस कारणसे कार्तिकमास बद्ध ( आश्री ) चतुर्मासिक कृत्य करने में जैसे अधिक मास प्रमाण नही है तैसे ही भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा करने में भी अधिकमास प्रमाण नही है इति अधिकमासकी गिनती करनेका कदाग्रहको छोड़ोउपरका लेख अधिकमासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये श्रीविनयविजयजीकृत श्रीसुखबोधिकात्तिके उपरोक्त पाठसे हुवा है इसी ही तरह के मतलबका लेख श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्पकिरणावली वृत्तिमे तथा श्रीजयविजयजीने श्रीकल्प दीपिका वृत्तिमें अपने स्वहस्ये लिखा है सो यहाँ गौरवता ग्रन्थ बढ़ जानेके भयसे नही लिखते है जिसकी इच्छा होवे सो किरणावलीके तथा दीपिकाके नवमा व्याख्यानाधिकार देख लेना इस तीनों महाशयों के लेख प्रायः एक सदृश ( तुल्य ) है जिसमें भी विशेष प्रसिद्ध सुखबोधिका होनेसे मेंने उपर लिखा है सोही भावार्थः तथा पाठ तीनो महा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] शयोंके जान लेना-अब तीनो महाशयोंके लेखकी शास्त्रानु सार और युक्तिपूर्वक समीक्षा करता हु-इन तीनो महाशयों का मुख्य तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि अधिकमासको गिनतीमें नही लेना इस बातको पुष्ट करनेके लिये अनेक तरहके विकल्प लिखे हैं जिसको और अबमें समीक्षा करता हुँ उसीको मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही पुरुष निष्पक्षपातसे पढ़के सत्यासत्यका स्वयं विचारके गच्छका पक्षपातके दृष्टि रागका फंदको न रखते असत्यको छोड़ना और सत्यको ग्रहण करना येही सज्जन पुरुषोंकी मुख्य प्रतिज्ञाका काम है अब मेरी समीक्षा को सुनिये-श्रीधर्मसागरजी तथा श्रीजय विजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों श्रीतपगच्छके विद्वान् महाशयोंको प्रथमतो अधिक मासको कालचूला जानके गिनती में निषेध करना ही सर्वथा अनुचित है क्यों कि श्रीअनन्ततीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंने तथा श्रीतपगच्छके पूर्वज और प्रभाविकाचाोंने अधिक मासकी दिनोंमें, पक्षों में, मासीमें, वर्षों में, गिनती खुलासा पूर्वक किवी है तथा कालचूलाको उत्तम ओपमा भी शास्त्रकारोंने गिनती करने योग्य दिवी है और कालचूलाकी ओपमा देनेवाले श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर भी अधिक मासको निश्चयके साथ गिनते हैं जिसका और श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांने अधिक मासको गिनतीमें लिया है जिसके अनेक शास्त्रोंके प्रमाणों सहित विस्तार पूर्वक उपरमें लिख आया हुं जिन शास्त्रोंके पाठोंसें जैनश्वेताम्बर सामान्य पुरुष आस्मार्थी होगा और शास्त्रोंके विरुद्ध परूपनासे संसारवृद्धिका भय रखनेवाला सम्यकवी नामधारी होगा सो भी कदापि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -[ ७६ ] अधिक मासकी गिनती निषेध नही करेगा तथापि श्रीतपगच्छके तीनो महाशय विद्वान् नाम धराते भी अपने बनाये ग्रन्थोंमें अपने स्वहस्ते श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांके विरुद्ध होकर अधिक मास की गिनती निषेध करते हैं सो कैसे बनेगा अपितु कदापि नहीं इस लिये इन तीनो महाशयोंका कालचूलाके नामसे अधिक मासको गिनतीमें निषेध करना सर्वथा जैन शास्त्रों के विरुद्ध है तथा और भी सुनिये जैन शास्त्रों में पांच प्रकारके मासोंसे और पांच प्रकारके संवत्सरोंसे एक युगके दिनोंका प्रमाण श्रीतीर्थङ्करादि महाराजोंने कहा है सो सर्वही निश्चयके साथ प्रमाण करके गिनती करने योग्य है जिसके कोष्टक नीचे मुजब जानो यथा दिनांका और उपर एक अहोरात्रिके मासोंके नाम प्रमाण भाग करके | ग्रहण करना नक्षत्र मास चन्द्रमास R०० ऋतु मास सूर्य मास | अभिवद्धित मास ३१ । १२४ १२१ संवत्सरों के नाम दिनांका | और उपर एक अहोरात्रिके प्रमाण | भाग करके । ग्रहण करना नक्षत्र संवत्सर ३२७ चन्द्र संवत्तर ऋतु संवत्सर सूर्य्य संवत्सर अभिवर्द्धित सं० ३३ ।। 200000 - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] मासकी गिनती संवत्सरोके तथा मासके एक युगकेदिने तथा मासोके नाम प्रमाणसे का प्रमाण पाँच नक्षत्र संवत्सर ६७ नक्षत्र मासके और उपर सात नक्षत्र एक युगके १८३० दिन मास जानेसे पाँच संवत्सर जिसमें बारह बारह मासके तीन चन्द्र संवत्सर और | एक युगके ६२ चन्द्र मासके तेरह तेरह मासके दो | १८३० दिन अभिवर्द्धित संवत्सर एसे पाँच संवत्सर जानेसे पाँच ऋतु संवत्सर और एक युगके | उपर एक ऋतुमास जानेसे १८३० दिन पाँच सूर्य संवत्सर | ६० सूर्य मासके । जानेसे एक युगके १८३० दिन ५७ अभिवर्द्धित चार अभिवर्द्धित संव. मास तथा उपर सरके उपर नव (९) ७ दिन और एक अभिवति मास और | एक युगके अहोरात्रिके १२४ ७ दिनके उपर एक अहो| १८३० रिन भाग करके ४७ | रात्रिके १२४ भाग करके भाग ग्रहण करनेसे ४७ भाग ग्रहण करे जि तना काल जानेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] उपरोक्त कोष्टकों में पाँच प्रकारके मासेंाका प्रमाण से पाँच प्रकारके संवत्सरोंका प्रमाण, और एक युगके १८३० दिन का प्रमाण श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने कहा है जिसके अनुसार श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजीने भी श्रीहतकल्पवृत्ति में लिखा है सो पाठ भी उपर लिख आया हु जैन शास्त्रों में सूर्य्य मासको गिनतीकी अपेक्षासे एकयुगके ६० सूर्य्य मासेंाके पाँच सूर्य्य संवत्सरों में एक युगके १८३० दिन होते हैं जिसमें सूर्य्यमासको अपेक्षा लेकर गिनती करने से मासवृद्धिका ही अभाव है परन्तु एकयुगके १८३० दिनकी गिनती बरोबर सामिल होनेके लिये खास ऋतुमारों की अपेक्षासे पाँच ऋतु संवत्सरों में सिर्फ एकही ऋतुमास बढ़ता है और चन्द्रमासों की अपेक्षासे पाँच चन्द्रसंवत्सरोंमें दो चन्द्रमास बढ़ते हैं तथा नक्षत्रमासों की गिनतीको अपेक्षासे पाँच नक्षत्र संवत्सरोंमें सात नक्षत्रमास बढ़ते है और अभिवर्द्धित मासोंकी गिनतीकी अपेक्षासे तो चार अभिवर्द्धित संवत्सर उपर अभिवर्द्धित महस और सात (9) दिन तथा एक अहो रात्रिके १२४ भाग करके ४७ भाग ग्रहण करे जितना काल जानसे ( नक्षत्रमास, चन्द्रमास ऋतुमास, सूर्य्यमास, और अभिवर्द्धित, मास इन सबके हिसाब के प्रमाण से ) एक युगके १८३० दिन होजाते है सो उपरके कोष्टों में खुलासा है उपरका प्रमाण श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि पूर्वाचार्यों का तथा श्रीखरतरच्छके और श्रीतपगच्छ के पूर्वज पुरुषोंका कहा हुवा होने से इन महाराजोंकी आशातना से डरनेवाला प्राणी १८३० दिनोंकी गिनती मेंका एक दिन तथा घड़ी अथवा पल मात्र भी गिनतीमें निषेध नही कर सकता है तथापि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] श्रीतपगच्छके अर्वाचीन तथा वर्तमानिक त्यागी, वैरागी संयमी, उत्क्रष्टिक्रिया करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक शुद्ध परूपक श्रद्धाधारी सम्यकत्वी विद्वान् नाम धराते भी महान् उत्तम श्रीतीर्थङ्कर गणधर और पूर्वधरादि पूर्वाचार्य तथा खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वजपूज्य पुरुषोंकी आशातनाका अय न रखते चन्द्रमासकी अपेक्षासै जो अधिक मास होता है जिसकी गिनती निषेध करके उत्तम पुरुषों के कहे हुवे पाँच प्रकारके मासोका तथा संवत्सरोका प्रमाणकों भङ्ग करके एकयुगके दिनोंकी गिनतीमें भी भङ्ग डालते है जिन्होंकी विद्वत्ताको में कैसी ओपमा लिखु इसका विचार करता था जिसमें श्रीआत्मारामजीकाही बनाया अज्ञानतिमिर भास्कर ग्रन्थका लेख मुजे उसी वख्तयाद आया सो लिख दिखाता हुं अज्ञानतिमिर भास्कर ग्रन्थके पृष्ठ २९४ के अन्तसे पृष्ठ २९६ के आदि तक का लेख नीचे मुजब जानो____ संविज्ञ गीतार्थ मोक्षाभिलाषी तिस तिसकाल सम्बन्धी बहुत आगमेांके जानकार और विधिमार्गके रसीये बहुमान देनेवाले संविज्ञ होनेसें पूर्वसूरि चिरन्तन मुनियों के नायक जो होगये हैं तिनोनें निषेध नही करा है ; जो आचरित आवरण सर्वधर्मी लोक जिस व्यवहारको मानते हैं तिसकों विशिष्ट श्रुत अवधि ज्ञानादि रहित कौन निषेध करे ? पूर्व पूर्वतर उत्तमा वायोंकी आशातनासे डरनेवाला अपितु कोई नही करे बहुल कर्मीकों वर्जके ते पूर्वोक्तगीतार्थो ऐसे विचारते हैं जाज्वल्यमान अग्निमें प्रवेश करनेवालेसे भी अधिक साहत यह है उत्सूत्र प्ररूपणा, सूत्र निरपेक्ष देशना, कटुक विपाक, दारुण, खोटे फलकी देनेवाली, ऐसे जानते हुए भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८० ] देते हैं, मरीचिवत्, मरीचि एक दुर्भाषित वचनसे दुःखरूप समुद्रकों प्राप्ता हुआ; एक कोटा कोटी सागर प्रमाण संसार में भ्रमण करता हुआ जो उत्सूत्र आचरण करे सो जीव श्रीकणे कर्मका बन्ध करते हैं । संसारकी बुद्धि और माया मृषा करते हैं तथा जो जीव उन्मार्गका उपदेश करें, और सन्मार्गका नाश करे सो गूढ़ हृदयवाला कपटी होवे, धूर्ताचारी होवे शल्य संयुक्त होवे सो जीव तिर्यंच गतिका आयुबन्ध करता है । उन्मार्गका उपदेश देनेसे भगवन्तके कथन करे चारित्रका नाश करता है, ऐसे सम्यग् दर्शनसें भ्रष्टको देखना भी योग्य नही है, इत्यादि आगम वचन सुनके भी स्व अपने आग्रहरूप ग्रहकरी ग्रस्त चित्तवाला जो उत्सूत्र कहता है क्योंकि जिसका उरला परला कांठा नही है ऐसे संसार समुद्र में महादुःख अंगीकार करनें सें । प्रश्न - क्या शास्त्रकों जानके भी कोई अन्यथा प्ररूपणा करता है । उत्तर- - करता है सोई दिखाते हैं देखनेमें आते हैंदुषमकाल में वक्रजड़ बहुत साहसिक जीव भवरूप भयानक संसार पिशाचसे न डरने वाले निजमतिकल्पित कुयुक्तियों करके विधिमार्गकों निषेध करने में प्रवर्त्तते है कितनीक क्रियांकों जे आगममें नही कथन करी है तिनको करते हैं और जे आगमने निषेध नही करी है चिरंतन जनोंने आवरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते हैं और कहते हैं— यह क्रियाओ धर्मीजनोंकों करने योग्य नही है । उपर में श्री आत्मारामजीके लेखमें जो पूर्वाचाय्याने आवरीत ( प्रमाण ) करी हुई बातको निषेध करनेवालाकों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८१ ] यावत् सम्यग् दर्शन ते भ्रष्टको देखना भी योग्य नही है इत्यादि कहा तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विचार रों कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंनें चंद्रमासकी अपेक्षा से जो अधिकमासको वृद्धि होती है जिसको गिनती में प्रमाण किया है, तथापि श्रीतपगच्छके तीनो महाशय तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धराते भी निषेध करते हैं जिन्होंका त्याग, वैराग्य, संयम और जिनाशाके शुद्ध श्रद्धाका ' आराधकपना कैसे बनेगा और शुद्ध परूपनाके बदले प्रत्यक्ष अनेक शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध, उत्सूत्र भाषणका क्या फल प्राप्त करेंगे सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना और श्रीधर्म्मसागरजी श्रीजय विजयजी और श्रीविनयविजय जी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् हो करके भी गच्छ कदाग्रहका पक्षपातसे श्रीतीथंङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध परूपनाके फल विपाकका बिलकुल भय म करते सर्वथा प्रकार से अधिक मासकी गिनती निषेध कर दिवी तथा औरभी अपने लिखे वाक्यका भी क्या अर्थ भूल गये सो अधिक arसकी गिनती निषेध करते अटके नहीं क्योंकि इन तीनो महाशयों के लिखे वाक्य से भी अधिक मास गिनती में सिद्ध होता है सोही दिखाते हैं (अभिवर्द्धित वर्षे चतुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्या दिनेर्वयमत्र स्थिताः स्म) यह वाक्य तीनो महाशयोंने लिखा है इस वाक्यमें अनिवर्द्धित वर्ष ( संवतप्तर) लिखा है सो अभिवर्द्धित वर्ष मास वृद्धि होनेसे तेरह चन्द्रमासोंकी गिनती से होता है इसमें अधिक मासकी गिनती खुलासा पूर्वक प्रमाण होती है और अधिकमासको freats बिना अभिवर्द्धित नाम संवत्सर नहीं बनता है ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८२ ] बाकि अधिक मासको गिनती नही करनेसे बारह चन्द्रभासोंसे चन्द्र संवत्सर होता है. परन्तु अभिवहित नाम नही बनेगा जब अधिक मासकी गिनती होगा तब ही तेरह चन्द्रमासांसे अभिवति नाम संवत्सर बनेगा जिसका विस्तार उपर लिख आये हैं इस लिये अधिक मासकी गिनती तीनो महाशयोंके वाक्यसै सिद्ध प्रत्यक्ष पने होती है और फिरभी इन तीनो महाशयोंने ( जैन टिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्त च आषाढ़ो एव वईते नान्येमासाः तच्चाधुना सम्यग न ज्ञायते ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा सङ्गतेति सुद्धाः ) यह भी अक्षर लिखे हैं सो इन अक्षरोंसे भी सूर्यवत् · प्रकाशकी तरह प्रगट दिखाव होता है कि जैन टिप्पनामें पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी सो टिप्पना इस कालमें नही हैं इस लिये पचास दिने पर्युषणा करना योग्य है यह श्रीतपगच्छके पूर्वज शुजाचार्यों का कहना है सो बातभी सत्य है क्योंकि इन तीनो महाशयोंके परमपूज्य श्रीतपगच्छके प्रभाविक श्रीकुलमराहन सूरिजीने भी लिखी है जिसका पाठ इसी पुस्तकके नवौ (९) पृष्ठमें छप गया हैं. अधिक मासकी गिनती अनेक जैन शास्त्रोंसे तथा उपरके वाक्यसे भी सिद्ध होती है और पचास दिने पर्यं. षणा करना अपने पूर्वजोंकी आज्ञासे तीनो महाशय लिखते हैं जिससे पाठकवर्ग विचार करे तो शीघ्र ही प्रत्यक्ष मालुम हो सकता है कि वर्तमानमें दो श्रावण होतो दूजा श्रावणमें अथवा दो भाद्रव होतो भी प्रथम भाद्रवमें पचास दिनांकी गिनतीसे ही पर्युषणा करना चाहिये यह न्याय स्वयं सिद्ध है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन तीनो महाशयांने प्रथम अभिवति वर्षे इत्यादि वाक्य लिखे जितसे अधिक मासकी गिनती 'सिब हुई और (पञ्चाशतैश्च दिनैः पर्युषणा युक्तति वृद्धाः ) यह वाक्य लिखके इस कालमें पचास दिने पर्युषणा करना ऐसे सिद्ध किया जिसमें जैन टिप्पनाके अभावसे भी पचास दिनका तो निश्चय रक्खा इस लिये वर्तमान कालमें पर्युषणा सर्वथा भाद्रव पदमें ही करनेका नियम नही रहा क्योंकि श्रावण मासकी वृहि होने से दूजा श्रावणमें और दो भाद्रव होनेसे प्रथम भाद्रवमें पचास दिनकी गिनती पूरी होती है यह मतलब तीनो महाशयोंके लिखे हुवे वाक्यसैभी सिद्ध होता है तथापि उपर का मतलबको ये तीनो महाशय जानते मी गच्छके पक्षपात के जोरसे अपनी विद्वत्ताकी लघुता कारक और अप्रमाण रूप विसंवादी (पूर्वापर विरोधि ) वाक्य अपने स्वहस्ते लिखते बिलकुल विचार न किया और आषाढ़ चौमासीसे दो श्रावण होनेके कारणसे भाद्रव शुदी तक ८० दिन प्रत्यक्ष होते हैं जिसको भी निषेध करनेके लिये (पर्युषणापि भाद्रपदमास प्रति बद्धा तत्रैव कर्तव्या दिनगणनायांत्वधिक मासः कालचूलेत्य विवक्षणादिनानां पञ्चाशतैव कुतोशीति वार्तापि ) इन अक्षरोंको तीनो महाशयोंने लिखे है जिस में मास वृष्टि होनेसे भी भाद्रपदमें पर्युषणा करना और दो श्रावण होवे तोमी भाद्रवे में पर्युषणा करनेसे ८० दिन होते हैं ऐसी वार्तापि नही करना क्योंकि अधिक मास कालचूला होने से दिनांकी गिनती में नही आता है इस लिये ५० दिने पर्युपणा किया समझना ऐसे मतलबके वाक्य लिखना तीनो महाशयोंके पूर्वापर विरोधी तथा पूर्वाचार्योंकी आमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८४ ] खण्डनरूप सर्वथा जैन शास्त्रोंसे और युक्तिसे भी प्रतिकुल हैं क्योंकि प्रथमतो अधिक मासको गिनती में लेनेसेही अभि वर्षित नाम संवत्सर बनता हैं सो अभिवर्द्धित संवत्सर तोनो महाशयोंने उपरमें लिखा हैं जो अभिवर्धित संवत्सर का नाम श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांकी आज्ञानुसार कायम तीनो महाशय रक्खेंगें तो अधिकमास कालबूला है सो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसे मतलबका लिखना तीनो महाशयोंका सर्वथा मिथ्या हो जायगा -- और अधिकमास कालचूला है सो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसे मतलबको कायम रखेंगे तो जो अधिकमास की गिनती से अभिवर्द्धित नाम संवत्सर होता है सो नही बनेगा यह दोनो बात पूर्वापर विरोधी होनेसे नही बनेगे इस लिये अबजो ये तीनो महाशय अधिकमासको दिनोकी गिनती में नही लेवेंगें तब तो श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि तथा श्रीतपगच्छके नायक पूर्वाचार्येने अधिक मासको दिनो की गिनती में लिया है जिन महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप तीनो महाशयोंका वचन होगया सो आत्मार्थियोको सर्वथा त्यागने योग्य हैं इस लिये तीनो महाशयोंको जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होता तो अधिकमासको गिनती निषेध किवो जिसका निथ्या दुष्कत्यादिसे अपनी आत्मा को उत्सूत्र भाषणके कृत्योंसे बचानी थी सो तो वर्तमान काल में रहे नही है परलोक गयेको अनेक वर्ष होगये हैं परन्तु वर्तमान काल में श्रीतपगच्छके अनेक साधुजी विद्वान् नाम धराते हैं और उन्ही तीनो महाशयों के लिखे वाक्यको सत्य मानते है तथा हर वर्षे उसीको पर्युषणा में वांचते है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] जिसमें प्रायः करके गांव गांव में श्रीतपगच्छ के सब साधुजी अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्द करते है जिससे श्रीतीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वावा तथा श्री तपगच्छके पूर्वज पुरुषोंकी आज्ञाभङ्गका कारण होता है सो आत्मार्थी पुरुषको करना उचित नही हैं इसलिये जो श्रीतपगच्छके वर्तमानिक मुनिमहाशयोंको जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होवे तो अधिकमासकी गिनती निषेध करनेका छोड़ देना ही उचित है और आजतक निषेध किया जिसका मिथ्या दुष्कृत्य देकर अपनी आत्माको उत्सूत्र भाषणके पापकृत्योंसे बवानी चाहिये, तथापि विद्वत्ताके अभिमानसे और गच्छके कदाग्रहका पक्षपातके जोरसे उपर की बातको अङ्गीकार नही करते हुए अधिकमास की गिनती निषेध करते रहेगे तो आत्मार्थीपना नही रहेगा तथा अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे कोई आत्मार्थी प्रमाण नही कर सकता है इस लिये जैन शास्त्रानुसार श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाचाय्यैकी आज्ञा मुजब अधिकमास की गिनती सर्वथा प्रकार से अवश्यमेव प्रमाण करनी सोही सम्यक्त्व धारी पुरुषोंका काम है जैनटिप्यनानुसार पौष तथा आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी जब भी गिनतीमें लेते थे इस कारणसे तेरह चन्द्रमासोंसे संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित होता था, सो वर्तमान कालमें भी अनेक जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है तथा श्रीधम्मं तारंजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी, ये तीनो महाशय भी अभिवर्द्धित संवत्सर लिखते हैं जिसमें अधिकमासको गिनती आजाती है इस मतलबका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] विचार न करते उलटा विरुद्धार्थ में तीनो महाशयोंने अपने स्वयं विसंवादी (पूर्वापरविरोधि ) वाक्यरूप अधिक मास कालचूला है सो दिनोंकी गिनतीमें नही आता है ऐसा लिख दिया, और विसंवादी वाक्यका विचार भी न किया । विसंवादी पुरुषका दुनियां में भी कोई भरोसा नही करता है तथा राजदरबार में भी विसंवादी पुरुष झूठा अप्रमाणिक होता है और जैनशास्त्रोंमें तो श्रावकको भी धर्म व्यवहार में विसंवादी वचन बोलनेका निषेध किया है। सोही दिखाते हैं श्रीआत्मारामजीने अज्ञानतिमिरभास्कर ग्रन्थके पृष्ठ २५६ में श्रावककों यथार्थ कहना अविसंवादी वचन धर्म व्यवहार में ॥ तथा श्रीधम्मसंग्रह वृत्तिके ग्रन्थ में भी यही बात लिखी है और श्रीधर्म्मरत्नप्रकरण वृत्ति में भी यही बात लिखी है सोही दिखाते हैं । श्रीधर्म रत्नप्रकरण वृत्ति गुजराती भाषा सहित श्रीपालीताणा में श्रीविद्याप्रसा रकवर्ग है जिसकी तरफसे छपके प्रसिद्ध हुवी है जिसके दूसरे भागमें पृष्ठ २१४ विषे यथा— ऋजुप्रगुणं व्यवहरणमृजुव्यवहारो भावश्रावक लक्षणश्चतुर्द्धा चतुःप्रकारो भवति तद्यथा - यथार्थभणनमविसंवादि वचनं धर्मव्यवहारे । अर्थ-ऋजु एटले सरल चालवं ते ऋजुव्यवहार ते चार प्रकारनो छे जेमके एकतो यथार्थ भणन एटले अविसंवादी बोलवं ते धर्मनीबाबतमां । देखिये अब उपरमें श्रावककों भी धर्म व्यवहार में विसंवादीरूप मिथ्याभाषण बोलनेका जैन शास्त्रों में नही कहा है । तो फिर विद्वान् साधुजी होकर विसंवादी वाक्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८७ ] अपने बनाये ग्रन्थ में लिखना क्या उचित है। कदापि नही और इसी ही श्रीधर्मरत्नप्रकरणके दूसरे भागमें पृष्ठ २४६ की आदिसे पृष्ठ २४७ की आदि तकका लेखमें विसंवादी आदि वाक्य बोलने वालेको जो फलकी प्राप्ति होती है सो दिखाते है यथा अन्यथा भणनमयथार्थजल्पनमादिशब्दाबंधक क्रिया दोषोपेक्षासद्भावमैत्री परिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्येति भावः-अबोधैर्धर्माप्राप्त /जं मूलकारणं परस्य मिथ्या द्रष्ट - नियमेन निश्चयेन भवतीति शेषः । तथाहि-श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः सम्भवन्ति ॥ धिगस्तु जैनं शासनं ? यत्र श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकभाषणादौ कुकर्मणि नितिर्नोपदिश्यते ॥ इति निन्दाकरणादमी प्राणिनो जन्मकोटिष्वपि बोधि न प्राप्नुवन्तीत्यबोधि बीजमिदमुच्यते ततश्चाबोधिबीजाद् भव. परिवद्धिर्भवति तन्निन्दाकारिणस्तनिमित्तभूतस्य श्रावकस्यापि यदवाधि-शासनस्योपघातेयो-नाभोगेनापि वर्त्तते सतन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनामिति ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणं विपाकदारुण घोरं सर्वानर्थ विवर्द्धन ( मिति ) ॥२॥ टीकानो अर्थः-अन्यथा भणन एटले अयथार्थ भाषण आदि शब्द थी वंचक क्रिया दोषोनी उपेक्षा तथा कपट मैत्री लेवी अदोषो होय तो श्रावक बीजा मिथ्या दृष्टि जीवने नक्कीपणे अबोधिनुं बीजथइ पड़ेछे एटले के तेथी बीजा धर्मपामी शक्ता नथी। कारणके जे दोषोमां वर्तता श्रावकने जोह तेओ येवबोलेके "जिन शासनने धिक्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८८ ] थाओ" के ज्यां श्रावकोने आवा शिष्टजनने निन्दनीय सृषा भाषण वगेरा कुकर्म थी अटकाववानो उपदेश करवामां नथी आवतो ओवो रोते निन्दा करवाथी ते प्राणिओ क्रोड़जन्मो लगी पण बोधिने पानी शकता नथी तेथी ते अबोधिबीज कहवायें छे अने ते अबोधिबीजथी तेवी निन्दा करनारनो संसारवधे छे एटलुंज नहीं पण तेना निमित्त भूत श्रावकनो संसार बधे छे, जे माटे कहेलु छे के-जे पुरुष अजाणतां पण शासननी लघुता करावे ते बीजा प्राणिओंने तेवी रोते मिथ्यात्वनो हेतु थई तेना जेटलाज, संसारनु कारण कर्म बांधवा समर्थ थई पड़े छे के जे कर्मविपाक दारुण घोर अने. सर्व अनर्थनुं वधारनार थइ पड़ेळे ॥ १-२ ॥ उपर में अन्यथा अयथार्थ भाषण अर्थात् विसंवादी वाक्यरूप मिथ्याभाषणादि करने वाला श्रावक निश्चय करके मिथ्या दृष्टि जीवोंको विशेष मिथ्यात बढ़ानेवाला होता है और उससे दूसरे जीव धर्म प्राप्त नही कर सकते हैं किन्तु ऐसे श्रावकको देखके जैन शासनकी निन्दा करने वालोंको संसारकी वृद्धि होती है । और विसंवादरूप मिथ्याभाषण करनेवाला श्रावक भी निन्दा करानेका कारणरूप होने से अनन्त संसारी होता है तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुषको विचार करना चाहिये कि श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् होते भी अनेक जैनशास्त्रों के विरुद्ध और अपने स्वहस्ते अभिवति संवत्सर उपर में लिखा है जिसका भी भङ्ग कारक अधिकमास की गिनती निषेधरूप विसंवादी मिथ्या वाक्य भी अपने स्वहस्ते लिखते अनन्त संसार वृद्धिका भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय नही करते हैं तो अब ऐसे विद्वानोंको आत्मार्थी कैसे कहे जावे और अधिक मासकी गिनती निषेधरूप विसंवादी मिथ्या वाक्य इन विद्वानोंका आत्मार्थी पुरुष कैसे ग्रहण करेगें अपितु कदापि नहीं तथापिजो अधिक मासकी गिनती निषेध श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा विरुध होते भी वर्तमानिक पक्षपाती जन करते हैं जिन्होंको सम्यक्त्वरूप रत कैसे प्राप्त होगा इस बातको पाठकवर्ग स्वयं विचार शकते हैं___ और जैनशास्त्रानुसार अधिकमासके दिनोकी गिनती करनाही युक्त है इस लिये अधिकमास कालचूला है सो दिनोंकी गिनतीमें नही आता है ऐसा मतलब तीनो महाशयांका शास्त्रों के विरुद्ध है सो उपरोक्त लेखसे प्रत्यक्ष दिखता है इन शास्त्रों के न्यायानुसार वर्तमानकालमें दो प्रावण होनेसे भी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेसे ८०दिन प्रत्यक्ष होते हैं सो बात जगत् भी मान्य करता हैं तथापि ये तीनो महाशय और वर्तमानिक श्रीतपगच्छके महाशय भी मंजूर नही करते हैं तो इस जगह एक युक्ति भी दिखलाने के लिये श्रीतपगच्छके विद्वान् महाशयोंसें मेरा इतना ही पूछना है कि आषाढ़ चतुर्मासीसे किसी पुरुष वा स्त्रीने उपवास करना सरू किया तथा उसी वर्षमें दो श्रावण हुवे तो उस पुरुष वा स्त्रीको पचास (५०) उपवास कब पूरे होवेंगे और अशी (८०) उपवास कब पूरे होवेंगें इसका उत्तरमें श्रीतपगच्छके सर्व विद्वान् महाशयोंको अवश्यमेव निश्चय कहना ही पड़ेगा किदो प्रावण होनेसे पचास उपवास दूजा प्रावण शुदी में मोर ० उपवास दो प्रावण होने के कारणसे भाद्रपदमें पूरे होवेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [C] इस युक्ति से अधिक नासकी गिनती निश्चय के साथ श्रीतपगच्छके विद्वान् महाशयोंके कहने से भी सिद्ध होगई तथा अनेक शास्त्रानुसार ५० दिने दूजा श्रावण शुदीमें श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन करनेवाले जिनाचा के आराधक सिद्ध हो गये और दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करने वाले, शास्त्रोंकी मर्यादाके विरुद्ध होनेमें कोई शंसय भी करेगा अपितु नही, तथापि इन तीनो महाशयांने (दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक ८० दिनकी वार्त्ता भी नही समझाना ) ऐसे मतलबको लिखा है सो कैसे सत्य बनेगा तथापि वर्तमानिक श्रीपगच्छके मुनिमहाशय विद्वान् होते भी उपरकी इस मिथ्या बातको सत्य मानके वारंवार कहते हैं जिन्हों को मृषावादका त्यागरूप दूजा महाव्रत कैसे रहेगा सो भी विधारने की बात है, इस उपरोक्त न्यायानुसार भी अधिक मासको गिनती निषेध कदापि नही हो सकती हैं तथापि तीनो महाशय करते हैं सो सर्वथा महा मिथ्या है इसलिये दो श्रावण होनेसें भाद्रव शुदी तक ८०दिन अवश्यमेव निश्चय होते हैं जिससे गिनती निषेध करना ही नही बनता है और मासवृद्धि होने से भी पर्युषणा भाद्रपद मास प्रतिबद्ध है ऐसा लिखना भी तीनो महाशयोंका सर्वथा जैनशास्त्रों से प्रतिकुल है क्योंकि प्राचीनकालमें भी मासवृद्धि होती थी जब भी वीश दिने श्रावण शुक्लपञ्चमी के दिन पर्युTer करने में आते थे जैसे चन्द्र संवत्सरमें पचास दिनके उपरान्त सर्वथा विहार करना नही कल्पे तैसे ही अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिनके उपरान्त सर्वथा विहार करना नही कल्पे और वोश दिन तक अज्ञात पर्युषणा परन्तु बीशमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनसे बात पर्युषणा करे सो १००दिन यावत् कार्तिकपूर्णिमा तक उसी क्षेत्रमें ठहरे ऐसा श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजी रूत श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठमें विस्तारपूर्वक कहा है ऐसे ही अनेक शास्त्रोंमें कहा है जिसके पाठ भी श्रीवहत्कल्प वृत्यादिकके कितने ही पहिले लिख आया हुं और आगे भी लिख दिखावंगा और खास तीनो महाशयोंके लिखे पाठसे भी अभिवद्धितमें वीश दिने प्रावणशुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करने में आतेथे इसका विशेष खुलासाके साथ आगे विस्तार पूर्वक लिखुंगा जिससे वहाँ प्राचीनकालका तथा वर्तमानिक कालका भच्छी तरहसे निर्णय हो जावेगा-. और आगे इन तीनो महाशयोंने श्रीपर्युषणा कल्पपूर्णिका तथा श्रीनिशीथचूर्णिका पाठ लिखके मासवृद्धि वर्तमानिक दो श्रावण होते भी माद्रव मासमें ही पर्युषणा करने का दिखाया है इस पर मेरा इतना ही कहना है कि इन तीनो महाशयोंने (श्रीपर्युषणा कल्पपूर्णिमें और श्रीनिशीथपूर्णिमें प्रन्यकार महाराजने पर्युषणा सम्बन्धी विस्तारपूर्वक पाठ लिखाया जिसके) आगे और पीछे का संपूर्ण सम्बन्धका पाठको कोड़के ग्रन्थकार महाराजके विरुद्धार्थ में उत्सूत्रभाषणरूप माया इत्तिसे अधूरा घोड़ासा पाठ लिखके भोले जीवोंको शास्त्र के पाठ लिख दिखाये और अपनी विद्वत्ताकी बात दृष्टिरागियों में बनाई हैं इस लिये इस जगह भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेसे सत्य बातपर शुद्धश्रद्धा हो करके सत्यबात ग्रहण करे इस लिये दोनो चूर्णिकार पूर्वधर महाराज कत संपूर्ण पर्युषणा सम्बन्धी पाठ यहाँ लिख दिखाता हुं भीपूर्वधर पूर्वाचार्यजी फत श्रीपर्युषणा कल्प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] विशामुतस्कन्ध सूत्रका अष्टम अध्ययनके ) चर्णिके पृष्ठ ३१ से २.तक तत्पाठः.... आसाढ़चातम्मासियं पडिक्कमंति, पंचहिं दिवसेहिं पज्जो सवणा कप्पं कढ्ढेति, सावण बहुल पंचमीए पज्जोसवेति णच वाहिद्वितेहिं ण गहिता णित्थरादीणि, ताहे कथं कहता चेव गिरहंति मलयादीणि एवं आसाढ़पुस्लिमाए ठिता, जाव मग्गसिरबहुलस्स दसमी, तावएगंमि खेत्ते अच्छज्जा, तिनिवा दस्सराता, एवंतिनिपुण दस राता, धिस्कलादीहि कारणेहिं॥ एत्यठ गाथा पत्थंति पज्जोसविते, सवीसति राय मासस्स आरात्तो जति गिहत्या पुच्छंति, तुभ्भे अज्जो बाता रत्तं ठिता, अहवा ण ठिता एवं, पुच्छितेहिं, जति अहिवढ्ढिय संवच्छरे, जत्थ अहिमासतो पडिति तो, आसाटपुसिमाओ वीसति राते गते अमति, ठितामोति आरतो ण कथयति वोत्थं ठिता मोति, अथ इतरे तिन्निचंद संवच्छरा तेसु सवीसति राते मासे गते नमति, ठितामोति आरतो ण कथयति वोतुंठिता मोति, किं कारणं असिवादि, गाथा कयाइ, असिवादीणि उप्प उजेज्जा जेहिं. निग्गमण होज्जा ताहेति, गिहत्था मज्ज, ण किंचि एते जाणंति, मुसावात वाउलावेंति, जेण ठितामोति भणित्ता, निग्गत्ता, अहवा वासं ण सुट्ठ आरद्ध, तेण लोगो भीता धणंजंपितुं,ठितो साहू हिं अणितो ठियामोति जाणति, एते वरिसास्सति तो सुयामो धम विक्किणामो, अधि करणं घराणियस्थप्पंति, हलादीणय संवप्पं करेंति, जम्हा एते दोसा, तम्हा वीसती राते आगते, सवीसति राते वा मासे आगते, ण कथंति वोतु ठितामोति॥ एत्थउ गाथा॥ आसाढ़पुसिमाए ठिताणं जतितणडगलादीणि गहियाणि,पज्जोसवणा कप्पोय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व कहितो, तो सावण बहुलपञ्चमीएपज्जो सर्वेति असति खेते सावण बहुलदसमीए, असति खेते सावणबहुलस्स परमरसीए, एवं पंचपंच उसारं तेण जाव,असति भद्दव सुद्ध पंचमीए, अतो परेण ण वहति अतिकमितु, आसाढ़पुस्लिमातो अढत मग्गंताण', जाव भद्दवय जोरहस पञ्चमीए एत्यन्तरे जति ण लं ताहे रुस्कस्स हेठेठितो तोविपज्जोसवेयवं, एतेसु पसु जहा लंभे पज्जोसवेयवं, अपये ण वहति, कारिणिया चउत्थीवि अज्ज कालएहिं पवित्तिता कहं पुण उज्जेणीए णगरीए, बलमित्त भाणुमित्तो रायाणो, तेसिं भाणेज्जो अज्ज कालए पवाविता,तेहिराईहं पट्ठोहिं, अज्ज कालतो निविसत्तोकत्तो सोपतिद्वाणं आगतो, तत्थय सालवाहणो राया सावगो तेण समणपुयणत्यणो पवित्तितो ॥ अंते पुरंच भणितं अमावसाए उववासं काउइअहमिमाईसु उवासं काउ ॥ इति पाठांतरं । पारणए साहूण भिरकं दातुं पारिज्जव॥ अनाय पज्जो सवणादिवसे आससे आगते अज्ज कालएण सालवाहणो भणितो, भट्टवय जोरहस्त पंचमीए पज्जोसवणा, रमा भणितो तदिवसं मम इंदो अणुजातहो होहित्ति तो निप्पज्ज वासिताणि चेतियाणि साहूणोय अविस्संतित्ति को तो कट्ठीए पज्जोसवणा भवतु, आयरिएण भणितं न बहति अतिकामेसु, रमा भणिय तो चउत्पीए भवतु . आयरिएण भणितं एवं होउत्ति ॥ चमत्थीए कतो पज्जोसवणा एवं चउत्थीविजाता कारणिता, सुद्ध दसमी ठिताण आसाढ़ी पुस्लिमो सरगति जत्य आसाढ़मासकप्पो कतो तत्थ खेत वासावासं पाउग्गं अमच णत्यि खेतं वासावासं पाउग्गं अथवा अज्जासे चेव अखी खेतं वासावास पाउग्गं सवंच पडिपुरम संथारग हुग्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] लगाइ कययभूमीय बद्ध वासंच गाद भणोरयं आढ़त, ताहे आसाढ़पुमिमाए घेव पज्जोसविज्जति, एवं पंचाहं परिहाणि मविकृत्योच्यते, इय सत्तरी गाथा, इय प्रदर्शने आसाढचात मासिया तो सवीसति राते मासे गते पज्जोसति, तेसि सत्तरी दिवसा जहमतो जेट्ठोग्गही मति, कहं पुण सत्तरी, चरगह मासाणं सवीसं दिवस सतं भवति, ततो सवीसत्ति रातो मासो, पसास दिवसा सो वितो सैसा सत्तरी, दिवसा ने भदवय बहुलस्स दसमीए पज्जोसवेंति, तेसिं असीति दिवसा जेटोग्गहो, जे सावण पुसिमाए पज्जासति तेसिं णउतिदिवसा जेट्ठोग्गहो, जे सावण बहुल दसमी ठिता तेसिं दसुत्तरं दिवससतं जेटोग्गहो, एवमादीहिं पग्गारेहिं परिसारत्तं एग खेत्ते अत्थिता कत्तिय चाउमासिए णिग्गंतवं, अह वासण तवरमति, तो मग्गसिरे मासे जं दिवस पक्क मद्वियं जात तदिवस चेव निग्गंतवं, उक्कोसेण तिमि दसराया न निग्गच्छज्जा मग्गसिर पुसिमाएत्ति भणिय होइर मग्गसिर पुसिमाए परेण, जइविप्लवंतेहिं तहवि णिग्गंतवं, अथ न निग्गच्छंति तो धउलहुग्ग, एवं पंचमासिकं जेटोग्गहो जाओ, काउण गाहा॥ आसाढ़मासकप्पं काउं जत्य अन्न वासा वासे पाउपगं जत्य आसाढमासकप्यो को तत्य व पज्जोसविते आसाढ पुलिमाए वा सालंबणाणं मग्गसिर पिसछ, वासा णतो विरमति तेण पा निग्गता भसीवादीणिवा वाहिपवं सालंवणाणं छमासि तो जेट्ठोग्गहो॥ इत्यादि ॥ और श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराज कत श्रीनिशीथ सूत्रकी चूर्णिके दशमे उद्देशेके पृष्ठ ३२९ सै पृष्ठ ३२४ तक का पर्युषणा सम्बन्धीका पाठ नीचे मुजब जानो, यथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] वासावा सैकंमि खेत्तकंमि काले पवेसियम, अतो भाति, आसापुसिमा ॥ गाहा ॥ वायबंति तस्सग्गेण पज्जोसवेयव', अहवा प्रवेष्टव्यं, तंमि पविठा उस्सग्गेण कत्तिय पुस्सिमं जाव अच्छति, अववादेण मग्गसिर बहुल दसमी जाव तंनि एग खेत्ते अच्छ ंति, दुसरायगाहणातो अववातो दंसितो अणे वि दो दसराता अज्जा, अवबातेण मार्गसिरमासं तत्रैवास्त्येत्यर्थः ॥ कहं पुण वासा पाठग्गं खेत्तं पविसंति, इमेण विहिणा वाहिठिता ॥ गाहा ॥ वाहिठियत्ति जत्य, आसाढ मास कप्पो कतो अणत्या आसा ठिता वा समायारी खेत, वतभेहिं गार्हति चावतीत्यर्थः ॥ आसपसमाए पविठा, परिवयात आरम्भ पंचदिणा, संथारंग तय इलगकार मल्लादीयं गिरहति, तंमिचेवपणगेरातिए पज्जा सबणा कप्प कहेंति, ताहे सावण बहुल पञ्चमीए वासकाल सामायारिं ठवेति, एत्यउअ ॥ गाहा॥ एत्यंतिएत्य, आसाढपुसिमाए, सावण बहुलपञ्चमीए, वासावासं पज्जोसविएवि, अप्पणी अणभिग्गहिय', अहवा जति गिहत्या पुच्छंति अज्जो तुम्भे, अत्थेव वारिसाकालं ठिया, अहवा ण ठिया, एवं पुच्छिएहिं अग्रभिग्गहियति संदिग्धं वक्तव्य, अह अन्यठवाह्यपि निश्चयो भवतीत्यर्थः ॥ एवं सन्दिग्धं कियत्कालं वक्तव्यं ॥ उच्यते ॥ वीसतिराय', बीसतीमासं, जति अभिवद्वियवरिसं तो, वीसतिराम, जाव अभिग्गहिय, अह चंदवरिस तो सवीसतिराय, नाव अणभिग्गहियं भवति तेयां तत्कालात्परतः अप्पणी अभिरामुख्य ेन गृहीतं, अभिगृहीतं इदं व्यवस्थिता इति, इहद्वियामो बरिसाकालंति किं पुण कारणंति, वीसति राते, सवीसतिराते वा मासे गते, अप्पयो अभिग्गहियं गिरिणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवा कहेंति ॥ आरतो न कहेंति उच्यते ॥ असिवादि गाहा कयाइ ॥ असिवं भवे मादिगाहणतो रायदुठाइ वा वासं स मुट्ठ आरढ़ वासितुं, एवमादिहिं कारणेहिं, जइ अच्छंति तो आणा तीता दोसा, अहगच्छंति ततो गिहत्या भणंति एते, सवणुपुत्तगा ण किञ्चिजाति, मुसावाय भासंति, ठितामोत्ति भणित्ता जेण णिग्गता लोगो वा भणिज्ज साहूएत्य वरिसारतं ठिता, अवस्सवास भविस्सति, ततो धम विकणति, लोगो घरादीनिच्छादेति, अह हलादिकं माणिवाम ठवेति, अणिगाहिते गिहिणा तेय आरतो कतो, जम्हा एवमादिया अधिकरणदोसा, तम्हा अभिवदिढयवरिसे,वीसतीराते गते गिहिणा तं करेंति, तिसु चंदवरिसे सवीसति राते मासे गते गिहिणा तं करेंति, जत्य अधिमासगो पडति बरिसे,तं अभिवढियवरिसं भमति, जत्य ण पडति, तं चंदवरिसं सोय अधिमासगो गँगस्सगते मज्जे वा भवन्ति, जइ तो नियमा दो आसाढा भवंति, अहमजजे दो पोसा, सीसो, पुच्छति जम्हा अभिवढियवरिसे वीसतिरात, चन्दवरिसे सवीसतिमासो ॥ उच्यते ॥ जम्हा अभिवढियवरिसे, गिम्हे चेव सो मासो अतिक्वतो, तम्हा वीस दिना अगमिगाहियं करेंति, इयरेसु तिमु चंदवरिसेसु सवीसतिमासा इत्यर्थः॥ एत्य पणगं गाहा ॥ एत्थत आसाढपुस्लि माए, ठिया डगलादीय गिगहंति,पज्जोसवणाकप्पंच कति, पंचदिणा ततो सावण बहुल पञ्चमीए, पज्जोसर्वेति, खेत्ता भावे कारणेन पणगेसु वुढ्ढे दसमीए, पजजोसति, एवं पण रसीए, एवं पणग्गवढ्ढी,ताबकजजति, जाव सबीसति मासो, पुणो सोय सवीसति मासो भद्दवयसुद्ध पचनी पयुज्जति, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୧୨ ] [ अहवा आसाढ़ सुद्ध दसमीए वासा खेत पविठा, अहवा, जत्थ आसाढ मासकप्पोकओ तं बासप्पा उग्गं खेत, अम्म' चणस्थि वास पाठग्गं ताहे तत्थेव पजोसवेंति, वासंच गाढं अणु वरयं आषाढसमाहिं तत्थेव पओसवेंति, एक्कारसीओ भडवेट डगलादी तं गेरहंति पज्जोसघणा कप्प कर्हेति, ताहे आसाढ पुसिमाए पज्जो सवेंति, एस उस्सग्गो, सैस काल पड़जोसवेताणं सवो अववातो, अववातेवि सवीसति रातमासा तो परेण अतिकामेड ण वहति, सवीसति राते नासे पुणे जतिवासखेत्तं लम्भति तो रुरक हेट्ठ ेवि पज्जोसवेयश तं पुस्सिमाए पचमीए दसमीए एवमादि पधेसु पज्नो सवेयव, णोअप ॥ सीसो पुच्छति इयाणि कहं चटस्थिए अपव े पज्जोसविजजति, आयरिओ भणति, कारणिया चठत्पी, अज्जकाल गायरियाहिं पवतिया, कहं भमते कारणं, कालगायरिओ विहरतो, उज्जेणि गतो तत्य वासावासो वासातरंठितो तत्य ॥ णगरीए बलमिचो राया, तस्स कणिट्ठो भाया भाणुमितो जुवराया, तेसिं भगणी भाणुसिरी णामं तस्स पुतो बलभाणू णाम, सोय पगितिभविणीययाए साहू तो पज्ज वासति आयरिहिं से धम्मो कहिंतो पडिवुद्धोपधावितोय, तेहि य बलमित्त भाणुमितहिं कालग्गज्जा पज्जो सवितेणि विसतो कतो, आयरिया भणति जहा, वलमित्त भाणुमित्ता कालगायरियाणं भागिणेज्जा भवंति, माडलोत्ति, काठ महंत आयर करेंति, अभ्भुठाण दियंतं च पुरोहियस्स अप्पत्तिय भणातिय, एतमुद्द पास होवे तादितादिरोहणाअ अतो पुणो पुणे उल्लावेंतो, आयरिएण णिप्पठप्पक्षिण वागरणो कतो, बाहे. सो पुरोहितो आयरियस्त पट्टो, रायाणं आणुलोमेहिं १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 विष्परिणामेति एते रिसितो महाणुभावा एते जेण गच्छन्ति ते पण जति रणो गागच्छति पताणि वा असमिती असिवं भवति, तम्हा विसज्जाहं ताहे विसज्जिता अणे भणंति, रमा उवाएण विसज्जिता कहूं सङ्घ मिणगारकिल रस्मा अम्म सल्ला कराविता, ताहे णिग्गता एवमादियाण कारणाण अणुक्कमेण णिग्गता विहरंता पतिठाणं णयर, सेण पविठा पतिट्ठाण समणसंघस्सय अज्जका लगे हिंसदिठं, नावाहं आगच्छामि ताव तुम्भेहिं णो पज्जोसवियत्रं, तत्य. सालवाहणोराया सो सावगी सोयकालगज्जं एवं सोउंणणिग्गतो अभिमुद्दो समणसंघोय महसा विभूतीए पविठो, कालगज्जो पविठेहिं भणियं भद्द्वय सुदु पञ्चमीए पज्नो सविज्जति, समणसंघेण पड़िवस, ताहे रसा भणियं तद्दिवसं मम लोगाणुवत्तीए इन्दो अणुजायव्हो होहेत्ति, साहूचेतितेण पज्जवा से सती तो बट्टीए पज्जोसवणा किज्जड, आयरिएहिं भणिय, ण वहति, अतिकामेउ ताहे रसा भणियं, तो अणागए, चठ पोसविज्जति, आयरिएहिं भणियं एवं भवत, ताई चटत्थी पज्जोसवियं, एवं जुगप्पहाणेंहिं चउत्थी कारणे पवर्त्तिता, साचेवाणुमत्ता सव साधूणं, रसा अंते पुरियाउ भणिता तुम्मे अमावनाएं उवावासंकाउं पडिवाए सव खज्जभोज विहीहिं साधू उत्तरपारणए पड़िलाभेत्ता पारे जाहा, पज्जोसवणाए अठ्ठमतिकाठ पडीवयाए उत्तरपारण्य भवति तंच सभोगेण विकयंततोपमिति मरहठविसपसवण पूर्वउत्तिवणोपवले ॥ इयाणि पंचगपरिहाणिमधिकत्य कालावग्राहोच्यते ॥ इय सत्तरी गाहा ॥ इति उपप्रदर्शने जे आसार बातम्यासिया तो मवीसति राते इय ୯. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ल्ल ] मासे गते पज्जो सर्वेति, तेसिं सप्तरी दिवसा जहसो वासा कालोगाहो भवति, कहं सत्तरी उच्यते, चउरहं मासाण विसुत्तरं दिवससतं भवति, सवीसति मासो पस्मासं दिवसा, ते वीसुत्तरमज्जतो साधितो, सेसा सप्तरी, जे भद्द्वय बहुलदस मीए पज्जोसवेंति, तेसिं असति दिवसा मझिमो वासा कालो गाहो भवति, सावण पुसिमाए पज्जो सवेंति तेसिं णिउति दिवसा मज्झिमो चेव वासकालो गाहो भवति, जे सावण बहुलदसमी पज्जोसवेंति तेसिं दसुत्तरं सतंमज्झिमो चेव वासा कालोगाहो भवति, जे आसाढ़पुसिमाए पज्जोसवेंति, तेसिं वीसुत्तर' दिवससय जेठो वासोग्गहोभवद सेसन्तरेषु दिवस माण वत्त, पमातिप्पगारेहिं वरिसारत्तं एग्गखेत्ते, कत्तिय चम्मासिय, पडिवयाए अवस्स णिग्गंतव्वं, अह मग्गसिर मासे वासति चिरकल्ला जलाउलापंथा तो अववातेण एक उक्कोण तिमि वा दसराया जावतम्मि खेत्ते अच्छंति, मार्गसिर पौर्णमासीयावेत्यर्थः ॥ मग्गसिर पुसिमाए जं परतो जति चिरकल्ला पंथा वास वा गाढ़ अणावर वासति, जति विप्लवंतेहिं तहावि अवस्स ग्गिंतवं, अह ण णिग्गच्छति, तो चउगुरुगा, एवं पञ्चमासि तो जेठो गाहो जातो, काउण मास गाहा, जंमि खेत्त े कतो आसाढ़मासकप्पो तंच वासावास पाउग्गं खेत्ते अगं मिअलद्ध वास पाउग्गे खेत्त े जत्य आसाढ़ मासकप्पो कतो तत्थेव वासावास ठिता तीसे वासा वासे चिस्कल्लादिएहिं कारणेहिं तत्थेव मग्गसिर ठिता एवं सालंवणाण कारणे अववातेण छ मासितो जेठो गहो भवतीत्यर्थः ॥ उपरोक्त दोनुं पाठ मेरे देखने में भायेथे वैसेही छपा दिये हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०० ] इसलिये कुछ बिशेष अशुद्धता होवे तो दूसरी शुद्ध पुस्तक से उपरोक्त दोनों पाठका मिलान करके वाँचमा अब उपरोक्त दोनुं पाठका संक्षिप्त भावार्थ: सुनो- वर्षाकालके लिये एक क्षेत्र में प्रवेश करना ठहरना सो कितना काल तक सोही कहते हैं आषाढ़ पूर्णिमासे लेकर उत्सर्गसे पर्युषणा करे अथवा प्रवेश करे सो यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक रहे और अपवादसै मार्गशीर्ष कृष्णण दशमी तक यावत् रहे तथा फिर भी कारणयोगे दो दशरात्रि ( वीशदिन ) याने मार्गशीर्ष पूर्णिमा तक भी रहना कल्प सो प्रथम किस विधिसे प्रवेश करके पर्युषणा करे वह दिखाते हैं-जहां आषाढमासकल्प रहा होवे वहाँ अथवा अन्य क्षेत्रमें आषाढ़ पूर्णिमा के दिन चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद प्रतिपदा ( एकम ) से लेकर पाँच दिनमें उपयोगी वस्तु ग्रहण करके पञ्चमी रात्रि याने श्रावण कृष्ण पञ्चमीको रात्रिको पर्युषणा कल्प कहके वर्षा - कालकी समाचारी को स्थापन करे, याने पर्युषणा करे, सो अधिकरण दोष न होने के कारणसे और उपद्रवादि कारणसे दूसरे स्थानमें जावेतो अवहेलना न होवे इसलिये अनिश्चय पर्युषणा करे, अधिकरण दोषोंका वर्णन संक्षेपसे पहिलेही लिखा गया है इसलिये पुनः नही लिखता हु और निश्चय पर्युषणा कब करे सो कहते हैं कि अभिव वर्ष में वोशदिने और चन्द्रवर्ष में पचाशदिने निश्चय पर्यु-. षणा करे, क्योंकि जैसे युगान्त में जब दो आषाढ़ होते हैं तब ग्रीष्म ऋतु में चेव निश्चय अधिक मास व्यतीत होजाता है इसलिये अभिवर्द्धित वर्षमें आषाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद प्रतिपदा वीशदिन तक अनिश्चय पर्युषणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ ] परन्तु वीशमें दिन श्रावण शुक्लपञ्चमीसे निश्चय प्रसिद्ध पर्युपणा होवे, भौर चन्द्रवर्षमें पचाश दिन तक अनिश्चय पर्युषणा परन्तु पचाशमै दिन भाद्रपद शुक्लपञ्चमीसे निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा होवे, सो जब आषाढ़पूर्णिमासेही योग्यक्षेत्र मिले और उपयोगी वस्तुका योग्य होवे तो ग्रहण करके चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद उसी रात्रिको पर्युषणा कल्प को याने जो अकेला साधु होवे तब तो उस रात्रिको श्रीकल्पसूत्रका पठन करके अनिश्चय पर्युषणा स्थापन करे भौर साधुओंका समुदाय होवे तो सर्व साधु कायोत्सर्गमें सुने और वृद्धसाधुजी मधुर स्वरसे श्रीपर्युषणा कल्पका उच्चारण करके अनिश्चय पर्युषणा स्थापन करे तथा योग्यक्षेत्र न मिले तो फिर पाँच दिन तक दूसरे स्थान ( गांव ) में जाके उपयोगी वस्तु ग्रहण करके प्रावण कृष्ण पञ्चमीको पर्युषणा करे इसी तरहसे योग्यक्षेत्राभावादि कारणे अपवादसे पांच पांच दिनकी सद्धि करते यावत् भाद्रपदशुक्लपञ्चमीको अवश्यही पर्युषणा निचय करे तथापि भाद्रपदशुक्लपञ्चमी तक योग्यक्षेत्र नही मिलेतो जङ्गलमें रक्ष नीचे भी अवश्यही पर्युषणा करे परन्तु पञ्चमीकी रात्रिको उबलन करना मही कल्पे और भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीके पहले भाषाढ़ पूर्णिमासे योग्यता मिलनेसे अनिश्चय पर्युषणा स्थापन करने में आते है जिसमें स्थापन करे उसी रात्रिको श्रीपर्युषणा कल्प कहके पर्युषणा स्थापे जिसको गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई पर्युषणा कहते हैं और पचासमें दिन भाद्रपद शुक्लपञ्चमी की निश्चय प्रसिद्धसे पर्युषणा उसी में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करे जिसको गृहस्थी लोगोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०२ ] जानी हुई पर्युषणा कहते हैं और भाद्रपद शुक्लपञ्चमी के उपरान्त विहार करना सर्वथा नही कल्पे इस लिये योग्यक्षेत्रके अभावसे वक्ष नीचे भी अवश्य ही निवास ( पर्युषणा ) करना कहा है जैसे चन्द्रवर्ष में पचास दिनका निश्चय है तैसे ही अभिवद्धि तवर्ष में वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमीकी निश्चय पर्युषणा करने का नियम था परन्तु वीशदिनमें श्रावण शुक्ल पञ्चमीकी रात्रिको उल्लङ्घन करना सर्वथा प्रकारसे नही कल्पे इस तरह पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमादि पर्वतिथिमें पर्युषणा करे, परन्तु अपर्वमें नही, जब शिष्य पूछता है कि आप अपर्वमें पर्युषणा करना नही कहते हो फिर चतुर्थीका अपर्वमें कैसे पर्युषणा करते हो तब आचार्यजी महाराज कहते है कि कारस्म से चतुर्थी को पर्युषणा करने में आते हैं सोही कारण उपरोक्त पाठानुसार जैन इतिहासों में तथा श्रीकल्पसूत्र की व्याख्याओंमें प्रसिद्ध है और इसीपुस्तकमें पहिले संक्षेप से लिखागया है इस लिये यहां भाषार्थमें विस्तारके कारण से नहीं लिखता हुं, अब जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट से पर्युषणाके कालावग्रहका प्रमाण कहते है कि चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल होता है तब आषाढ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद पचासदिने पर्युषणा करे तो सत्तर (७०) दिवस जघन्य से कार्तिक चौमासी तक रहते हैं परन्तु योग्यक्षेत्र मिलनेसे भाद्रव कृष्ण दशमी को ही पर्युषणा कर लेवे उसीको ८० दिन मध्य मसे रहते हैं तथा श्रावण पूर्णिमा को पर्युषणा करे तो ९० दिन मध्य मसे रहते हैं। इसी तरह यावत् श्रावण कृष्ण पञ्चमी को पर्युषणा किवी हो तो १९५ दिन मध्यम से रहते हैं भौर आषाढ पूर्णिमासे ही . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ ] पर्युषणा किवी होवे तो उत्कष्ट से १२० दिन रहते हैं पीछे कार्तिक पूर्णिमाको अवश्य विहार करे, परन्तु वर्षादि कारणसे चिख्खल कर्दमादि कारण योगे अपवाद से मार्गशीर्ष पूर्णिमा तक भी रहना कल्पे पीछे तो अपवाद से भी अवश्य निकले विहार करे, नही करे तो प्रायश्चित आवे जहां आषाढमास कल्प किया होवे वहां ही चौमासी ठहरे तथा मार्गशीर्ष पूर्णिमाको बिहार करे तो उत्कृष्ट छ मासका कालावग्रह होता है इत्यादि 1 अब पाठकवर्ग देखिये उपरका दोनु पाठ प्राचीनकाल में पूर्वधरों के समयका उग्रविहारी महानुभाव पुरुषोंको जैन ज्योतिषानुसार बर्तने का है जिसमें उत्तर्ग से आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमातक पर्युषणा करे और अपवादसे श्रावण कृष्ण । ५ । १० । ३० । श्रावण शुक्ल ५ । १० । १५ । भाद्र कृष्णा । ५ । १० । ३० । और भाद्र शुक्ल ५ । इन दिनोंमें जहां योग्यक्षेत्र मिले वहां हो पर्युषणा करे । परन्तु पञ्चमीको उल्लङ्घन नही करे, जिससे जघन्य में 90 दिनकी पर्युषणा होती है तथा मध्यम से । ७५। ८० । ८५ । ९० । ९५ । १०० । १०५ । ११० । १९५ । ऐसे नव प्रकार की पर्युषणा होती है और उत्कृष्टसे १२० दिन की पर्युषणा होती है । 1 जिसमें चन्द्र संवत्सर में अपवादसे भी पचास दिन की भाद्र शुक्ल पञ्चमीको उल्लङ्घन नही करे जिससे पोछाड़ीके 90 दिन रहते हैं तैसेही अभिवर्द्धित संवत्सर में अपवाद से भी वीशमें दिनकी श्रावण शुक्ल पञ्चमी को उल्झन नही करे जिससे पीछाड़ीके कार्तिक पूर्णिमा तक १०० दिन रहते हैं और श्रावण शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] प्रतिक्रमणादि भी पूर्वधरोंके समयमें जैन ज्योतिषानुसार करने में आतेथे सो उपरमें लिख आया हु और आगे भी खुलासापूर्वक लिखुंगा वहां विशेष निर्णय होजावेगा और आषाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद योग्यतापूर्वक पांच पांच दिने पर्युषणा करे सो सिर्फ एक श्रीकल्पसूत्रका रात्रिको पठण करके पर्युषणा स्थापन करे परन्तु अधिकरण दोष उत्पन्न होने के कारणसे गृहस्थी लोगों को कहे नही और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने तथा चन्दसंवत्सरमें पचासदिने वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से गृहस्थी लोगों को पर्युषणाकी मालुम होती है सो यावत् कार्तिकपूर्णिमा तक उसी क्षेत्रमें साधु ठहरे सर्वपा प्रकारसे एक स्थानमें निवास करना सो पर्युषणा कही जाती है इस लिये आषाढ़ चौमासी पीछे योग्यतापूर्वक जहां निवास करे उसीको पर्युषणा कहते हैं सो अज्ञात पर्युषणा कही जाती है और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिने तथा अनिवर्द्धितमें वीशदिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से ज्ञात पर्युषणा कही जाती है इसका विशेष विस्तार आगे भी करने में आवेंगा और श्रीदशाश्रुतस्कन्धपूर्णिके तीस (३०)के पष्ठमें (पडमंकाल ठवणा भणामि किंकारमण एवं सुत्त काल ठवणाएसुत्ता देसैण परवेय कालो समयादिओ,गाथा-असंखेज्जसमया आवलिया एवं सुत्तालावएमजावसंबच्छरं एत्यपुणउदूवढे वासारतेणपयगंतं अधिकारेत्यर्थः ) इत्यादि व्याख्या प्रथम किवी हैं सो इस पाठमें कालकी व्याख्यासूत्रानुसार करनी कही है। समयादि काल करके असंख्याते समय जाने से एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०५ ] आवलिका होती हैं १,६१,१७,२१६ आवलिका जाने सें एक मुहूर्त होता है त्री मुहूर्त्त से एक अहोरात्रिरूप दिवस होता है ऐसे पन्दरह दिवसोंसे एकपक्ष होता हैं दो पक्षसे एकनास होता है इसी तरह में अनुक्रमे वर्ष, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपम, सागरादि कालकी व्याख्या अनेक जैन शास्त्रों में विस्तारपूर्वक प्रसिद्ध है । अब इस जगह पाठकवर्ग सज्जन पुरुषोंसे मेरेको इतना ही कहना है कि श्रीदशाश्र तस्कन्धचूर्णि में और श्रीनिशीथ चूर्णिमें खुलासा पूर्वक अधिकमासको निश्चयके साथ प्रमाण करके गिनती में भी लिया है और अभिवर्द्धित संवत्सर में वीशदिने तथा चन्द्रसंवत्सर में पचास दिने निश्चय पर्युषणा कही हैं और मासवृद्धिके अभावसेही भाद्रपद शुक्लचतुर्थीको पचास दिनके अन्तर में कारणयोगे श्रीकालकाचार्य्यजीने पर्यart fear सो दिखाया है और पचास दिने योग्यक्षेत्र के अभावसे जंगलमें वृक्ष नीचे भी पर्युषणा करनी कही है परन्तु पचास दिनको रात्रिको उल्लङ्घन करना भी नही कल्पे इत्यादि विस्तारपूर्वक संपूर्ण सम्बन्धके दोनो पूर्वघर महाराज कृत पाठ उपरोक्त छपगये है जिसको विचारो और श्रीधर्मसागरजी तथा श्रीजयविजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों महाशयोंने दोनों चूर्णिकार पूर्वधर महाराजके विरु द्वार्थनें वर्तमान में मासवृद्धि दो श्रावण होने से भी आषाढ़ चौमासीसे यावत् ८० दिने भाद्रपद में पर्युषणा सिद्ध करनेके लिये आगे और पीछेके सम्बन्धके पाठको और अधिकमासके प्रमाण करनेके पाठको छोड़कर अधूरा बिना सम्बन्धका थोडासा पाठ लिखके भोले जीवोंको शास्त्रोंके नामसे पाठ १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०६ । लिख दिखाया जिसमें भाद्रपदका ही नाममात्र लिखा परन्तु मासवृद्धिके अभावसे भाद्रपद है किंवा मासवृद्धि होते भी भाद्र पद है जिसका कुछ भी लिखा नही और चूर्णिकार महाराजने समयादिसे कालका प्रमाण दिखाया है जिसमें अधिक भास भी गिनती में सर्वथा आता है तथापि तीनो महा शयोंने निषेध करदिया और मासद्धिके अभावसे भाद्रपदकी व्याख्या चूर्णिकारने किवी थी जिसको भी मासवृद्धि होते लिख दिया इस तरहका तीनो महाशयोंको विरुद्धार्थका अधूरा थोडासा पाठको विवारी और निष्पक्षपातसे सत्यासत्यका निर्णय करो जिसमें अमत्यको छोड़ो और सत्यको ग्रहण करो जिससे आत्म कल्याणका रस्ता पायो यही सज्जन पुरुषोंको मेरा कहना है। . और बुद्धिजन सर्व सज्जन पुरुष प्रायः जानते भी होवेगे कि-जैन शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें एक मात्रा, बिंदु तथा अक्षर वा पद की उलटी जो परूपना करे तथा उत्थापन करे और उलटा वतै वह प्राणी मिथ्या दृष्टि संसारगामी कहा जाता है, जमालीवत् अनेक दृष्टान्त जैनमें प्रसिद्ध है तथापि इन तीनों महाशयोंने तो संसार वृद्धिका किञ्चित् भी भय न किया और चूर्णिकार महाराजने अधिक मासकी गिनती विस्तार पूर्वक प्रमाण किवी थी जिसको निषेध कर दिवी और अभिवद्धित संवत्सरमें वीशदिने प्रसिद्ध पर्युषणा कही थी जिसके सब पाठको उत्यापन करके यावत् ८० दिने पर्युषणा चूर्णिकार महाराजके विरुद्वार्थमें स्थापन करके भोले जीवोंको कदाग्रहमें मेरे हैं, हा, हा, अति खेदः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) और इसके अगाड़ी फिर भी तीनों महाशयांने प्रत्यक्ष मायावृत्तिसे उत्सूत्र भाषयरूप अनेक शास्त्रों के विरुद्ध लिखके अपनी बात बनाई है कि ( एवं यत्र कुत्रापि पर्युषणा मिलपर्णम् तत्र भाद्रपदविशेषितमेव नतु काप्यागमे भवबसुद्ध पञ्चमीए पज्जोसविज्जइति पाठवत् अभिवद्द्वियवारिसे सावण बुद्धपञ्चमीए पज्जोसविज्जइति पाठ उपलभ्यते ) इन वाक्योंको तीनो महाशयांने लिखके इसका मतलब ऐसे हाये है कि श्रीया कल्प चूर्णि तथा श्रीनिशीपचूर्णि में भाद्रपद में पर्युषणा करनी कहीं है इसी प्रकार से जिस किसी शास्त्र में पर्युषणाकी व्याख्या है तहां भाद्रपदके नामसे है परन्तु कोई भी शास्त्र में भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी का पर्युषणा करनी ऐसा पाठकी तरह मारुवृद्धि होनेसे अभिवर्द्धत सम्बत्सर में श्रावण शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करनी ऐसा पाठ नही दिखता है, इस तरहके तीमा महाशयों के लेख पर मेरा इतनाही कहना है कि इन तीनों महाशयांने ( अभिवद्वित सम्बत्सर में श्रावण शुक्ल पञ्चमीका पर्युषणा करनेका कोई भी शास्त्रों में पाठ नहीं दिखता है ) इस मतलबको डिला है सो सर्वथा मिथ्या है क्योंकि जिन जिन शास्त्रों में इन्द्रसंवत्सर में पचास दिने, ज्ञात, याने गृहस्थी लोगों की जामी हुई पर्युषणा करनेका निमय दिखाया है उसी शास्त्रों में अभिवर्द्धित संवत्सर में वोश दिने ज्ञात पर्युषणा कर मेका मियम दिखाया है तो यह बात अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक प्रगटपने लिखी है तथापि इन तीनों महाशयांमे मोठे जीवों का मिथ्या भ्रम में गेरनेके लिये अभिवर्द्धित संवत्सर में श्रावण शुक्लपचमीको पर्युषणा करनेका कोई भी शाम में पाठ नहीं दिखाता है ऐसा लिख दिया है तो अब ऐसे : मिथ्या श्रमको दूर करने के लिये इस जगह शास्त्रोंके प्रसाण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) भी दिखाते हैं कि-श्रीनिशीषसत्रके लघुताध्यमें १ तपा रहदायमें ३, और चूर्णिमें ३, श्रीदशाश्रुतस्कन्ध पूर्णिमें ४, और कृत्तिमें ५, श्रीसत्कल्पसूत्रके लघमाध्यमें ६, वहदाध्यमें , तथा चूर्णिमें, और वृत्तिमें , श्रीस्थानाङ्गणी सूत्रको शु. त्तिमै १०, श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्ति ११ तथा नियुकिको एत्तिमें १२ और श्रीकल्पसूत्रकी चार वृत्तिमोंमें १६, श्रीगच्छाचारपयकाकी पत्तिमें १७, श्रोविधिप्रपासमाचारोमै १८, श्रीसमाधारीशतक १९, इत्यादि अनेक शाखा खुलासा पूर्वक लिखा है कि-अभिवर्द्धित संवत्सरमैं भाषाढ़ चौमासीसे लेकरके २० दिने, याने प्रावण सुदी पञ्चनीको पर्युषणा करने में आती थी। सो इसीही विषय सम्बन्धी सी ग्रन्थकी आदिमेंही श्रीकल्पसत्रकी व्याख्या. भोंके पाठ भावार्थ सहित तथा श्रीशरत्कल्पवत्तिका पाठ पष्ठ २३।२४ में, श्रीपर्युषणाकल्पपूर्णिका पाठ पृष्ठ ९२ में तपा श्रीनिशीषचर्णिका पाठ पष्ठ ५।६ में छप गया है और भागे भी कितनेही शाखोंके पाठ कृपेगे जितको और अब इसीही वातका विशेष खुलासा करता हूं जिसको विवेक बुद्विसे पक्षपात रहित होकर पढ़ेोगे तो प्रत्यक्ष नि. जय हो जावेगा कि अनिवर्द्धितम वीशदिने पर्युषणा होती थी इसके विषय में उपरोक्त अनेक शास्त्रोंके पाठोंके साथ श्रीतपगच्छके श्री क्षेमकीर्तिसरिजी कृत श्रीरकरुपपत्तिण पाठ भी पष्ठ २३ तथा २४ में विस्तार पूर्वक छपगया है तपापि इस जगह थोडासा फिर भी डिस दिखाता हूं तपाच तत्पाठ यथा इस्थमनभिगृहीतं वियन्तं कालंवक्तव्यं, उच्यते। यद्यसि बर्द्धितो सौ सवत्सरस्तता विंशतिरात्रिदिवानि अप चंद्रोसी ततः सविंशतिरात्रं मास यावदन मिगृहीतं कर्तव्यं । तेसन्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...[ १०० ] विभक्तिव्यत्यया ततःपरं विंशतिरात्र नासा चोर्द्ध मनभिहीतं निश्चितं कर्त्तव्यं गृहीज्ञातंच गृहिस्थानां पृच्छतां ज्ञापना कर्तव्या यथा वयमत्र वर्षाकालस्थिताः एतच्च गृहि ज्ञात कार्तिकमासं यावत् कर्तव्यं इत्यादि• इसका भावार्थः ऐसा है कि वर्षाकालमें साधु एक स्थानमें ठहरने रूप निवासकी पर्युषणा करे सो प्रथम गृहस्थों लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है और दूसरी जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है इस प्रकारको न जानी हुई पर्युषणा कितने काल तक और जानी हुई पर्युषणा किसने काल तक होती है सो कहते है कि-एक युगमें पाँच संवत्सर होते हैं जिप्तमें दो अभिवर्द्धित और तीन चन्द्रसंवत्सर होते हैं जब अभिवर्द्धित संवत्सर होता है तब आषाढ़चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद वीश अहोरात्रि अर्थात् श्रावण शुक्ल पञ्चमी तक और चन्द्र संवत्सर होता है. तब पचास अहोरात्रि अर्थात् भाद्रपद शुक्लपञ्चमी तक गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है परन्तु पीछे जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है और कोई गृहस्थों लोग साधुजीको आषाढ चौमासी बाद पूछे कि आप यहाँ वर्षाकालमें ठहरे अथवा नही तब उसीको साधुजी अभिवर्द्धितमें वीशदिन और चंद्रमें पचास दिनतक, हम यहाँ ठहरे हैं ऐसा अधिकरण दोषोंकी उत्पत्तिके कारणसे न कहे और पीछे याने अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमी के बाद और चंद्रमें पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके बाद गृहस्थी लोगोंको कह देवें कि-हम यहाँ वर्षाकालमें ठहरे हैं ऐसा कहनेसै गृहस्थी लोगोंको जानी हुई पर्युषणा कही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११० ] जाती हैं ऐसी गृहस्थी लोगोंके जानी हुई पर्युषणा यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक याने जो अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्रपञ्चनीको जानी हुई पर्यषणा करे सो कार्तिक पूर्णिमा तक १०० दिन उसी क्षेत्र में ठहरे और चन्द्रमें पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको जानी हुई पर्युषणा करे सो कार्तिक पूर्णिमा तक 90 दिन उसी क्षेत्रमें ठहरे । उपरोक्त श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्त्तिसूरिजी कृत पाठके भावार्थ: मुजबही अनेक जैन शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक व्याख्या हैं सो उपरमें श्रीनिशीथचूर्णि श्रीदशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यों वगैरहके पाठ भी छपगये हैं और कितनेही शास्त्रोंके पाठ इस ग्रन्थ में विस्तारके भय से नही छपाये हैं सो अबी मेरे पास मोजूद है जिसमें भी उपर मुजब ही चतुर्मासी में पर्युषणा संबन्धी अज्ञात और ज्ञातकी खुलासा पूर्वक व्याख्या हैं । उपरके पाठसें श्रावण तथा भाद्रव मासका नाम नही हैं परन्तु वीश तथा पचास दिनका नाम लिखा है जिससे वीश दिनकी गिनती आषाढ़पूर्णिमासे श्रावण शुक्ल पञ्चमीको और पचास दिनकी गिनती भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको पूरी होती हैं इस लिये भावार्थ में श्रावण तथा भाद्रपदका नाम तिथि सहित लिखा जाता है -- उपरोक्त पाठ में आषाढ़ चौमासीसे कार्तिक चौमासी arat व्याख्या दिनांकी गिनती सहित खुलासा पूर्वक पर्युषण सम्बन्धी करी है परन्तु आषाढ़ चौमासीसे इतने दिन गये बाद पर्युषणामें वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि अमुक दिने करे ऐसा नही लिखा हैं परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १११ ] आषाढ़ चौमासीसे अभिवर्द्धितमें वीशदिन तथा चन्द्रमें पचास दिन तक गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय और वीश तथा पचासके उपर जानी हुई निश्चय यावत् कार्तिक तकका लिखा है और श्रीकल्पसूत्रकी अनेक टीका में पाँच पाँच दिनकी वृद्धिसै पंचासदिन तक न जानी हुई पर्युषणा परन्तु पचाश दिने वार्षिक कृत्यों करके प्रसिद्ध जानी हुई पर्युषणा चंद्र संवस्तरमें खुलासा लिखी है तैसेही अभिवर्द्धितमें वीशदिने पर्युषणा जानी हुई लिखी है इस लिये अभिवर्द्धितमें वीशदिने प्रावण शुक्लपञ्चमीको वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से गृहस्थी लोगों को पर्युषणाकी मालुम होती थी और चंद्रमें पचासदिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेसे गृहस्थी लोगोंको पर्युषणाकी मालुम होती थी क्योंकि जैसे न जानी हुई पर्युषणा वीश तथा पचास दिन सक शास्त्रकारोंने खुलासा कही है तैसेही जानी हुई पर्युषणा अभिवर्द्धितमें १०० दिन और चंद्रमें 90 दिन तक ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा हैं सो पाठ भी सब उपरमें छप गया है। . और पर्युषणा अज्ञात तथा ज्ञात दो प्रकारकी कही है परन्तु अमुकदिने जात पर्युषणा करे तथा अमुक दिने वार्षिक करय सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करे ऐसा कोई भी प्राचीन शास्त्रों में नही दिखता है इसलिये भात पर्युषणा होवे उसी दिन वार्षिकरुत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण केशलंच नादि समझने क्योंकि सबी शास्त्रकारोंने गृहस्थी लोगोंको जात पर्युषणा यावत् कार्तिकमास तक खुलासा लिख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२ ] . दिया है जिससे ज्ञात पर्युषणा आषाढ़ चौमासीसे वीशे तथा पचाशे करे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि अन्य अमुकदिने करे ऐसा कदापि नही बनता है किन्तु जहाँ ज्ञात पर्युषणा वहाँ ही वार्षिक कृत्य बनते हैं इसलिये अभिवर्द्धित संवत्सरमे आषाढ़ चौमासीसे लेकर वीशदिने श्रावण शुक्लपञ्चमीको और चंद्र संवत्सरमें पचासदिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि वार्षिक कृत्य अवश्यमेव निश्चय करने में आते थे यह निःसन्देहकी बात हैं तथा और भी जो पहिले तीनो महाशयोंने लिखा है ( अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मास्किदिनादारभ्यः विंशत्यादिनैः वयमत्र स्थिताः स्म इति पृच्छतां गृहस्थानां पुरो वदन्ति) और, इसका मतलब ऐसे लाये है. कि—अभिवर्द्धित. संवत्सरमें आषाढ़चतुर्मासीसे लेकर वीशदिने याने श्रावण शुक्लपञ्चमी सेही कोई गृहस्थी लोग पूछे तो कह देवे कि वर्षाकालमें हम यहाँ ठहरे हैं। वर्षाकालमें एक स्थानमें सर्वथा निवास करना सो पर्युषणा हैं इस मतलबसे भी आषाढ़ चौमासीसे वीशदिने गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई पर्युषणा करे सो यावत् १०० दिन कार्तिक पूर्णिमा तक उसी क्षेत्रमें ठहरे॥ ___ उपरोक्त तीनो महाशयोंके लिखे वाक्यार्थको भी विवेकी बुद्धिजन पुरुष निष्पक्षपातसे विचारेंगे तो प्रत्यक्ष मालुम हो जावेंगा कि प्राचीन कालमें अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीश दिने श्रावण शुक्लपञ्चमीसे गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई पयु. षणा करनेमें आती थी क्योंकि जिस जिस शास्त्रानुसार चंद्र संवत्सरमें पचासदिने जो जो कार्य करने में आते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९३ ] सोही कार्य्य प्राचीन कालमें अभिवर्द्धित संवत्सर में वीथ दिने करमेमे आतेथे यह बात उपरोक्त अनेक शास्त्रीके न्यायानुसार सिद्ध होगई तथा और आगे भी लिखने में आवेगा इसलिये इन तीनो महाशयोंका ( अभिवर्द्धित संवत्सर में श्रावण शुक्ल पञ्चमीका पर्युषणा करनेका कोई भी शास्त्र में नहीं दिखता है ) ऐसा लिखना सर्वथा अप्रमाण हो गया सो आत्मार्थी निष्पक्षपाती पाठकवर्ग विचार लेना और अभिवर्द्धित संवत्सरमें आषाढ़ चौमासीसे वीश दिने निश्चय पर्युषणा वार्षिक कृत्योंसे भी करनेमें आती थो तथापि इन तीनो महाशयोंने पक्षपातके जोरसे उसको निषेध करनेके लिये गृहस्थी लोगों के जानी हुई पर्युषणा दो प्रकारकी ठहराकर अभिवर्द्धितमें बोशदिनकी पर्युषणाको केवल गृहस्थी लोगोंके जानी हुई कहने मात्रही ठहराते है सो भी मिथ्या है क्योंकि अभिवर्द्धित संवत्सर में वीशदिने गृहस्थी लोगोंको कह देवे कि हम यहाँ वर्षाकालमें ठहरे हैं ऐसा कहकर फिर एक मासके बाद भाद्रपद में वार्षिक कृत्य करे इस तरहका कोई भी शास्त्र में नही लिखा है इसलिये इन तीनों महाशयों का कहना शास्त्रोंके प्रमाण बिनाका होनेसे प्रत्यक्ष उत्सूत्रभाषणरूप है और आषाढ़ पूर्णिमासे योग्यक्षेत्राभावादि कारणे पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते दशवे पंचकमें याने पचासदिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करे इस वाक्यको देखकेजो तीनो महाशय अभिवर्द्धित संवत्सर में वोशदिनकी पर्युषणाको गृहस्थी लोगोंके जानी हुई सिर्फ़ कहने १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११४ ] मानही ठहरा कर फिर वार्षिक कृत्य अभिवर्द्धित संवत्सरमें मी दशपञ्चके पचासदिने ठहराते होयेंगे तो भी तीनों महाशयोंको जैन शास्त्रोंका अति गम्भिरार्थका तात्पर्य समझमें नही आया मालुम होता है क्योंकि जिस जिस शास्त्रमें दशपञ्चके पचासदिने अवश्य पर्युषणा करनी कही है सो निकेवल चंद्रसंवत्सरमें ही करनी कही है भतु अभिवर्द्धित संवत्सरमें क्योंकि दशपञ्चक तकका विहार चंद्रसंवत्सरमेंही होता है और अभिवर्द्धित संवत्सरमें तो निकेवल चारपञ्चकमें वोशदिने निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा किवी जाती थी सो उपरमें भी विस्तार पूर्वक लिख आया हुं-जिससे चारपञ्चकके उपर सर्वथा प्रकारसे विहार करनाही नही कल्पे तथापि अभिवर्द्धितमें वीशदिनके उपरान्त विहार करे तो छकायके जीवोंको विराधना करने वाला और आत्मघाति आज्ञा विराधक कहा जाता है सो श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी वृत्ति वगैरह शास्त्रो में प्रसिद्ध है इसलिये अभिवर्द्धित संवत्सरमें दशपञ्चक कदापि नही बनते हैं जहाँ जहाँ दशपञ्चके पचासदिने पर्युषणा करनेकी व्याख्या लिखी है सो सब चंद्रसंवत्सरमें करनेकी समझनी__ और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहां वर्षाकालमें ठहरे हैं इस वाक्यको देखके तीनों महाशय वीशदिनको पर्युषणाको कहने मात्रही ठहराते होवेंगे तब तो इन तीनों महाशयोंकी गुरुगम रहित तथा विवेक बिनाकी अपूर्व विद्वत्ताको देखकर मेरे को बड़ा आश्चर्य आता है क्योंकि जैसे अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९५ ] वर्षाकाल में ठहरे हैं तै तेही चंद्र संवत्सर में भी पचासदिने कह देखें कि हम वर्षाकाल में यहाँ ठहरे हैं ऐसे अक्षर खुलासा पूर्वक चन्द्रके तथा अभिवर्द्धितके लिये अनेक शास्त्रकारोंने लिखे है सो इन शास्त्रकारोंके लिखे वाक्य पर से तो इन तीनों विद्वान् महाशयोंकी विद्वत्ता के अनुसार चन्द्र संवत्सर में पवास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीकी पर्युषणा भी गृहस्थी लोगोंके कहने मात्रही ठहर जायेंगे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि वार्षिक कृत्य करनाही नहीं बनेगा क्योंकि ज्ञात पर्युषणा चन्द्रमें पचासदिने तथा अभिवर्द्धित संवत्सरमें वोशदिने करे सो यावत् कार्त्तिकपूर्णिमा तक खुलासा पूर्वक शास्त्र - कारोंने लिख दिया है और अमुक दिने ज्ञात पर्युषणा करे और अमुक दिने वार्षिक कृत्य करे ऐसा कोई भी जगह नही लिखा है इसलिये तीनों महाशय जो ज्ञात पर्युषणा के दिन वार्षिक कृत्य मानेंगे तब तो अभिवर्द्धित संवत्सर में वो दिने वार्षिक कृत्य भी माननें पड़ेंगे और वोश दिनकी पर्युषणा कहने मात्रही है ऐसा लिखना भी मिथ्या होने में कुछ बाकी नही रहा और चन्द्रसंवत्सरमें पचासदिने ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कत्य मानोगें और अभिवर्द्धित. संवत्सर में वीशदिने ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य नही मानोगे ऐसा मन कल्पनाका अन्याय तीनों महाशयोंका आत्मार्थी बुद्धिजन पुरुष कदापि नही जान सकते हैं किन्तु वीशे तथा पचासे ज्ञात पर्युषणा वहाँ ही वार्षिक कृत्य यह न्यायशास्त्रानुसार होनेसे सर्व आत्मार्थियोंको अवश्यही प्रमाण करने योग्य है इसलिये अभिवर्द्धित संवत्तर में वीश दिने श्रावण शुक्लपञ्चमीको ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९६ ] सहित होती थी सो निश्चय निःसन्देहकी बात है और पर्युषणा अज्ञात तथा ज्ञात दो प्रकारकी सबी शास्त्रकारोंने कही है इसलिये इन तीनों महाशयोंने ज्ञात पर्युषणाका भी दो भेद लिखके वीशदिनकी कहने मात्र ठहराई तथा पचास दिनकी वार्षिक कृत्योंसे ठहराई सो सर्वथा शास्त्र विरुद्ध हैं क्योंकि जैसी ज्ञात पर्युषणा चंद्रसंवत्सर में पचास दिने होती थी तैसीही अभिवर्द्धित संवत्सरमे वीशदिने होती थी सो ज्ञात पर्युषणाका एकही भेद सर्व शास्त्रकारों लिखा है परन्तु ज्ञात पर्युषणाका दो भेद कोई भी प्राचीन शास्त्रोंमें नही है इसलिये तीनों महाशयोंका ज्ञात पर्युषणा दो प्रकारकी लिखना प्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्ध हैं और आषाढ़ पूर्णिमाको योग्यक्षेत्राभावादि कारणे श्रावण कृष्ण पञ्चमी, दशमी वगैरह पाँच पाँचदिने जो पर्युषणा कही है सो गृहस्थी लोगों की न जानी हुई और अनिश्चय होती हैं इसलिये अज्ञात और अनिश्चय पर्युषणामें वार्षिक नही बनते हैं किन्तु वीशे तथा पचासे ज्ञात और निश्चय पर्युषणा में वार्षिक कृत्य बनते हैं । कृत्य और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रके अष्टमाध्ययन (पर्युषणाकल्प ) की चूर्णिका और श्रीनिशीथसूत्र के दशवें उद्देशे की चूर्णिका पाठमें श्रीकालकाचार्य्यजीने कारणयोगे चतुर्थीकी पर्युषणा किवी है सो भी चंद्रसंवत्सरमें किवी थी नतु अभिवर्द्धितमें क्योंकि खास चूर्णिकार महाराजने अभिवर्द्धितमें बीशे तथा चंद्र में पचासे ज्ञात निश्चय पर्युषणा करनी कही है जिसका सब पाठ उपरोक्त छपगया हैं इसलिये मासवृद्धि होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापते हैं सो मिथ्यावादी है क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७ ] प्राचीनकाल में जैन ज्योतिषके पञ्चाङ्गकी रीतिसे चंद्रमें पचासदिने भाद्रपद शुक्रपञ्चमीको और अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावणशुक्रपञ्चमीको प्रसिद्ध निश्चय पर्युषणा वार्षिक कृत्यों ते करने में आती थी जब जैन पञ्चाङ्गमें सिर्फ पौष तथा आषाढ़ मासको वृद्धि होती थी और मातोंकी वृद्धिका अभाव था जिसे वर्षाकाल के चारमा समें प्रावणादि कोई भी मासकी वृद्धि नही होती थी परन्तु अब वर्तमानकाल में जैनज्योतिषके पञ्चाङ्गका अभाव होनेसे लौकिक पञ्चाङ्ग में हरेक मामोंकी वृद्धि होती है जिससे वर्षाकालमें प्रावण भाद्रपदादि माप भी बढ़ने लगे [और अभिवर्द्धित संवत्सरमें योग्यक्षेत्राभावादिकारणे पाँव पाँच दिनको वृद्धि करते यावत् चारपञ्चके वीशदिने पर्युषणा करनेका तथा चंद्रसंवत्सरमें भी योग्यक्षेत्राभावादि कारणे पाँच पाँच दिनकी वृद्धि करते यावत् दशपञ्चके पर्युषणा करनेका कल्प कालानुसार श्रीसङ्घकी आज्ञासे विच्छेद हुआ है इसका विशेष विस्तार आगे करने में आवेगा] इसलिये वर्तमानकालमें मासवृद्धि होवे तो भी आषाढ़ चौमासीसे पचास दिनकी गिनतीसे पर्युषणा करनेकी श्रीखर तरगच्छुके तथा श्रीतपगच्छादिके पूर्वज पूर्वाचार्योकी आज्ञा है जिप्तसे दो प्रावण हो तो दूजा श्रावणमें तथा दो भाद्रपद हो तो प्रथम भाद्रपदमें प्रसिद्ध पर्युषणा श्रीजिनेश्वर भग. वान्की तथा श्रीपूर्वाचार्योंकी आशाके आराधन करनेवाले मोक्षार्थी प्राणी अवश्य करते हैं इसलिये दो प्रावण तथा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनमास होनेसे पांचमासके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होता है जिसमें पचासदिने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९= ] महाराज पर्युषणा करने से कार्त्तिक चैामासी तक पीछाड़ीके १०० दिन रहते हैं तो भी कोई दूषण नहीं कहा है परन्तु मासमृद्धि की गिनती निषेध करनेसे श्रीअनन्त नीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घनरूप महान् मिथ्यात्वके दूषतकी अवश्यही प्राप्ति होती है तथापि इन तीनों महाशयोंने उपरके दूषणका जरा भी विवार न किया और श्रीगणधर श्रीसुधर्मस्वानिज कृत श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका उत्थापनका भी बिलकुल विवार न करते सूत्रकार महाराज के विरुद्धार्थमें पाठ लिखके भोले जीत्रोंको सत्य बात परसे श्रद्धा उतारेके जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यात्वरूप झगड़े की डोर हाथ में देकर कदाग्रहमें गेरदिये हैं और अधिक मासको गिनती में लेने वालेको उलटा मिथ्या दूषण दिखाते हैं और अधिक मासको गिनती नहीं करते भी आप निदूषण बनके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठसे सत्यवादी तथा आज्ञा के आराधक बनते हैं जिसका पाठ इसी पुस्तकमें पृष्ठ ६९ 90 में और भावार्थ: पृष्ठ १२ । १३ में छपगया है इसलिये इस जगह पुनः पाठ न लिखते थोड़ासा मतलब लिखके पीछे उसमें जो जो शास्त्र विरुद्ध है सो दिखावेंगें — तीनों महाशयोंका खास अभिप्रायः यह है कि अधिक मातको गिनती में करनेवालोंको दो आश्विन मास होनेसे दूजा आश्विन में चमाती कृत्य करना पड़ेगा और दूजा आश्विन में चौमासी कृत्य न करते कार्त्तिकमें करेगे तो पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन हो जावेगे तो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाधा आवेगा क्योंकि समणे भगवं महावीरे वासाणं स्वीस इराइ मासे विकते सत्तरिए हिंराइदिएहिं . इत्यादि श्रीसम - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] वायाङ्गजी में पीकाड़ी के 90 दिन रखना कहा है ऐसा लिखके तीनों महाशयोंने पर्युषणाके पीछे अवश्य ही 90 दिन रखनेका दिखाकर अधिक मा की गिनती करके पर्युषणा करनेवालों को कार्त्तिक तक १०० दिन होनेसे श्रीसम - वायाङ्गजी सूत्रका पाठके बाधक ठहराये [ इस न्यायानुसार तो तीनों महाशय तथा तीनों महाशयों के पक्षवाले सबी महाशय भी श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके बाधक ठहर जाते हैं क्योंकि दो आश्विन होनेसे भी चौठासी कृत्य कार्त्तिक मास में करने ते पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन होते हैं तथापि अब आप निदूषण बननेके लिये फिर लिखते हैं कि कार्त्तिक मास कार्त्तिक शुदीमें करना चाहिये जिसमें दो आश्विनमात होवे तो भी १०० दिन हुआ ऐसा नही समझना किन्तु अधिकमासको गिनती में नही लेनेसे 90 दिनही हुआ समझना और दो श्रावण होवे तो भी भाद्र पदमें पर्युषणा करनेसे ८० दिन हुआ ऐसा नही समझना किन्तु अधिकमासको गिनती में नही लेनेसे ५० दिनही हुआ समझना, दो श्रावण हो तथा दो आश्विन हो तो भी गिनती में नही लेनेसे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाधा भी नही आवेगी और शास्त्रोंके कहे पर्युषणा के पहिले ५० दिन तथा पोछाड़ी 90 दिन यह दोनुं बात रह जाती है ] इस तरहका तीनों महाशयों का मुख्य अभिप्राय है ॥ इस पर मेरेको बड़ा खेद उत्पन्न होता है कि तीनों महाशयोंने कदाग्रहके जोरसे अपनी हठवादकी मिथ्या बातको स्थापनेके लिये सूत्रकार महाराज के विरुद्धार्थमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२० ] उत्सूत्र भाषणरूप था क्यों परिश्रम करके भोले जीवोंको अमजालमें गेरते संसाररद्धिका भय कुछ भी नही रक्खा है इसलिये अब लाचार होकर भव्यजीवोंकी शुद्धश्रद्धा होनेके कारणरूप उपकारके लिये और तीनों महाशयोंका सूत्रकारके विरुद्ध उत्सूत्रभाषणके कदाग्रहको दूर करने के वास्ते सूत्रकार और वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय को ईस जगह लिख दिखता हुं__ श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायाङ्गजीमूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेवसूरिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित छपके प्रसिद्ध हुआ है जिसके पृष्ठ १२७ में तथाच तत्पाठः समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइ मासे वक्तते सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सैसेहिं वासावासंपज्जोसवेइ ॥ - अघ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते समणेत्यादिवर्षाणां चातुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिदिवाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशतिदिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः सप्तत्याञ्च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपदशुक्ल पञ्चम्यामित्यर्थः, वर्षास्वावासो वर्षावासः वर्षावस्थानं पज्जोसवेइत्ति परिवसति सर्वथा करोति पञ्चाशतिप्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति अतिभाद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूला. दावपि निवसतीति हृदयमिति ॥ . भावार्थ:-श्रमण भगवन् श्रीमहावीरस्वामिजीने वर्षाकाल के चारमास कहे है जिसके १२० दिन होते हैं जिसमें एकमास अधिक वीशदिन याने ५० दिन जानेसे और ७०. दिन पीछाड़ी बाकी रहनेसे भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२१ ] दिन वर्षाकालमें रहनेका सर्वथा प्रकार से अवश्यही निश्चय करना सो 'पज्जोसवणा' अर्थात् पर्युषणा है जिसमें भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीके पहिले ५० दिनके अन्दर में योग्य क्षेत्राभावादि कारणे दूसरे स्थानमें भी विहार करके जाना बन सकता है परन्तु पचासमें दिन योग्य क्षेत्रके अभावसै जङ्गलमें वृक्ष नीचे भी अवश्यही पर्युषणा करे यह मुख्य तात्पर्य है । और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिने पर्युषणा करनेसे पीखाडी 90 दिन रहते हैं तैसे ही मास वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर में बीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी १०० दिन रहते हैं सो उपरमें अनेक जगह खुलासा पूर्वक छप गया है तैसेही इन्हीं वृत्तिकार महाराजने श्रीस्थानांगजी सत्रको वृत्ति कहा है जिसका यहाँ पाठ दिखाता हुँ । छपी हुई श्रीस्थानांगजी सूत्र वृत्तिके पृष्ठ ३६५ का तथाच तत्पाठःपढमपाउ संसित्ति ॥ इहाषाढ श्रावणौ प्रावृट् आषाढस्तु प्रथम प्रावृट् ऋतुनां वा प्रथम इति प्रथमप्रावृट् अथवा चतुर्मासप्रमाण वर्षाकालः प्रावृडिति विवक्षित स्तत्र सप्ततिदिनप्रमाणे प्रावृषे द्वितीये भागे तावन्नकल्पत एव गन्तु प्रथम भागेऽपि पञ्चाशद्दिनप्रमाणे विंशति दिनप्रमाणे वा म कल्पते जीवव्याकुलभूतत्वा दुक्तंच एत्थय अणभिग्गहियं, बीसरा इसवी सईमासं । तेणपरमभिग्गहियं गिहिनायंकत्तियंजावति ॥ ९ ॥ अनभिगृहीत, मनिश्चित मशिवादिनि निर्गमभावात् आइच असिवादिकारणेहिं, अडवाबासंगठु- आर ं ॥ अभिवढियंनिवीसा, इहरेसु सवीसईनासो ॥१॥ यत्र संवत्सरेऽधिकमासको भवति तत्राषाढ्याः विंशतिदिनानि याब दनभिग्रहिक आवासो ऽन्यत्र " १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२२ ] सविंशतिरानं मासं पंचाशतं दिनानीति अत्र चैते दोषाः छक्कायविराहणया,आवडणं विसमखाणकंटेसु॥ वुझणअभिहणरुक्खो, लसावणतेण उवचरए ॥१॥ अक्खुम्नेसु पहेसु, पुरवी उदगंधहोइदुविहंतु ॥ उल्लपयावणअगणि, इहरापण ओहरियकुंथुत्ति ॥२॥ तत स्तत्र प्रावृषि किमत आह एकस्माद् ग्रामा दवधिभूता दुत्तरग्रामाणा मनतिकलो ग्रामानुग्रामं तेन ग्रामपरम्परयेत्यर्थः अथवा एक ग्रामालघ. पश्चाद्ग्रामाभ्यां ग्रामोऽनुग्रामो गामोय अणुगामोय गामाणुगामं तत्र दूइज्जित्त एत्ति द्रोतुं विहर्तुमित्युत्सर्गों पधादमाह पंचेत्यादि तथैव नवर मिह प्रत्यथेत ग्रामाघालये निष्काशयेत् कश्चित् उदकौघेवा आगच्छति ततो नश्येदिति उक्तंच आवाहे दुम्भिख्खे, भएदओघंसिधामहंतंसि ॥ परिभवणं तालणवा, जया परोवाकरेज्जासित्ति ॥१॥ तथा वर्षासु वर्षाकाले वर्षोवृष्टिः वर्षावर्षावर्षासु वा आषासोऽवस्थानं वर्षावास स्तं स च जघन्यत आफार्तिक्या दिन सप्ततिप्रमाणो मध्यमवृत्याच चतुर्मासप्रमाण उत्कृष्टतः षण्मासमाम स्तदुक्तं इयसत्तरीजहन्ना, असिईनउई विसुत्तरसयंच ॥ जइवासमग्गसिर, दसरायातिनिउकोसा ॥१॥ [मासमित्यर्थः] .काऊणमासकप्प, तथेवठियाणतीत मग्गसिरे ॥ सालं वणाणछम्मा, सिओउ जिट्ठोगहोहोइत्ति ॥ २॥ पज्जोसवियाणति परीति सामस्त्येनो षितामां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तु मारब्धानामित्यर्थः पर्युषणा कल्पश्च न्यूनोदरताकरणं विकृतिनवकपरित्यागः पीठफलकादि संस्तारकादान मुच्चारादि मात्रकसंग्रहणं लोचकरणं शैक्षाप्रब्राजनं प्रागृहीतानां भस्मइगलकादीना परित्यजन मितरेनां ग्रहणं द्विगुणवर्षावग्रहो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] पकरणधरण मभिनवोपकरणग्रहणं स क्रोशयोजनात्परतो गमनवर्जन मित्यादि। देखिये उपरोक्त पाठमें श्रीवत्तिकार महाराजनें चार मासके वर्षाकालमें अभिवद्धित संवत्सरमें वीस दिन और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिन के उपरान्त विहार करने वालोंको छ कायके जीवोंकी विराधना करने वाला कहा अर्थात् वीसे और पचासे अवश्यही पर्युषणा करनी कही सो यावत् कार्तिक तक याने अभिवद्धितमें वीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाही १०० दिन और चन्द्रमें पचास दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी ७० दिन उसी क्षेत्रमें ठहरे ॥ इत्यादि ॥ .. अब श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधन करने वाले मोक्षाभिलाषि निर्पक्षपाती सज्जन पुरुषों को इस जगह विचार करना चाहिये कि श्रीगणधर महाराज, श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र और श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजमें वत्तिमें मास वृद्धिके अभावसें चन्द्रसंवत्सरमें जैन ज्योतिषके पंचाङ्गकी रीतिमुजब वर्तने के अभिप्रायसे चार मासके वर्षाकालमें प्रथम पचास दिन जानेसे और पीलाही ७० दिन रहने से पर्युषणा करनी कही है तथा विशेष खलासा करते वृत्तिकार महाराजने योग्यक्षत्रके अभावसे वृक्ष नीचे भी पचास दिने अवश्यही पर्युषणा करनी कही और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वत्तिकार महाराजने और पूर्वधरादि महाराजोंने वीस दिने अवश्यही पर्युषणा करनी कही है जिससे पीछाही एकसी दिन रहते हैं; तथापि ये तीनों महाशय अपनी कल्पनासें वृत्तिकार और पूर्वधारादि महाराजों का ( अभिवर्द्धितमें वीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी एकसो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२४ ] दिन रहते हैं) इस अभिप्राय के व्यवहारको जड़मूलसे ही उड़ा करके अभिवर्द्धितमें भी पचास दिने पर्युषणा और पीछाडी १० दिन रखनेका शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें वृथा आग्रहसे हठ करते हैं क्योंकि श्रीगणधर महाराजने श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र में और श्रीअभयदेवसूरिजीनें वृत्तिमें प्रथम पचास दिन जानेसे और पीछाडी 90 दिन रहनेसे जो पर्युषणा करनी कही है सो चन्द्रसंवत्सर में नतु अभिवर्द्धितमें तथापि तीनों महाशय श्रीसमवायांगजीका पाठको अभिवर्द्धत स्थापन करते हैं सो निःकेवल श्रीगणधर महाराजके और वृत्तिकार महाराजके अभिप्रायके विरु द्वार्थमें उत्सूत्र भाषण करते हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी पीछाडी 90 दिन रखनेका पाठको दिखाकर संशय रूप भ्रमजाल में भोले जीवोंको गेरना सर्वथा शास्त्रकारोंके विरुद्वार्थमें है इसलिये मास वृद्धि होते भी बीस दिने पर्युषणा करने से पर्युषणा के पीछाडी एकसो दिन प्राचीन कालमें भी रहते थे उसमें कोई दूषण नहीं - और अब जैन पंचाङ्ग के अभाव से वर्तमानिक लौकिक पंचाङ्गमें श्रावणादि हरेक मासों की वृद्धि होनेसे शास्त्रानुसार तथा पूर्वाचार्यकी आज्ञा मुजब पचास दिने दूजा श्रावण शुदीमें पर्युषणा श्रीखरतरगच्छादि वालोंके करनेमें आती है जिन्होंको पर्युषणाके पीछाडी कार्त्तिक तक एकसो दिन स्वाभावसेही रहते हैं सो शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक * क्योंकि दो श्रावणादि होनें से पाँच मासके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होता है जिसमें पचास दिने पर्युषणा होवे तब पीछाडीके एकसो दिन नियमित्त रीतिसे रहते हैं यह बात जगत्प्रसिद्ध है इसमें कोई भी दूषण नहीं है इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ ] अधिक मासकी गिनती करने वाले श्रीखरतरगच्छादि वालोंको पर्युषणा पीछाडी एकसो दिन होते हैं परन्तु कोई शास्त्र के वचनको बाधाका कारण नहीं है और श्री समवायांगजीमें पीवाडी 90 दिन रहने का कहा है सो मास वृद्धिके अभा बसे है इसका खुलासा उपरोक्त देखो इसलिये मास वृद्धि होनेसे १०० दिन होवे तो भी श्रीसमवायांगजी सूत्रके वचनको कोई भी बाधाका कारण नहीं है । तथापि तीनों महाशय श्रीसमवायांगजी सूत्र के नामसे पीछाड़ीके 30 दिन रखनेका हठ करते है । और श्रीखरतरगच्छादि वालोंके उपर आक्षेपरूप पर्युषणाके पोछाड़ी 90 दिन रखने के लिये दो आश्विन मास होनें से दूजा आश्विन में चौमासी कृत्य करनेका दिखाते है । और कार्त्तिक में करनेसें १०० दिन होते है जिससे श्रीसमवायांगजी सूत्रका पाठकै बाधक ठहराते हैं सो मिथ्या हैं क्योंकि श्रीखरतरगच्छवाले श्रीसमघायांगजी सूत्रका पाठके बाधक कदापि नही ठहरते हैं किन्तु तीनों महाशय और तीनों महाशयोंके पक्षधारी सब ही श्रीसमवायांगली सूत्रके पाठके उत्थापक बनते हैं सो ही दिखाता हुँ । तीनों महाशय ( समणे भगवं महावीरे arerणं सवीस राइमासे वीइते इत्यादि ) पाठको तो खास करके मंजूर करते हैं । इस पाठमें पचास दिन कहे हैं, वर्तमानिक कालानुसार पचास दिने पर्युषणा इस पाठसे करनी मानों तो श्रावणमासको वृद्धि होते दूजा श्रावण शुदीमें पचासदिने पर्युषणा तीनों महाशयोंको और इन्हों के पक्षधारिओंको मंजूर करनी चाहिये । सो नही करते हैं और दो श्रावण होते भी ८० दिने पर्युषणा करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२६ ] हैं इसलिये श्रीसमवायांगजी सत्रका इसी ही पाठको न माननेवाले तथा उत्थापक तीनों महाशय और इन्होंके पक्षधारी प्रत्यक्ष बनते है । तथापि निर्दूषण बनने के लिये अधिक मासकी गिमती निषेध करके, ८० दिनके बदले ५० दिन मानकर निर्दूषण बनते है। और पर्युषणाके पीछाड़ी दो आश्विनमास होनेसे कार्तिक तक १०० दिन होते हैं। तथापि इसको निषेध करने के लिये अधिकमासकी गिनती निषेध करके १०० दिनके बदले १० दिन मानकर अपनी मनो. कल्पनासै निर्दूषण बनते है और श्रीसमवायांगजी सूत्रका पाठके आराधक बनते है । परन्तु शास्त्रार्थको आस्मार्थी पुरुष निर्पक्षपातसे देखके विचार करते हैं तबतो दोनों अधिक मासका गिनतीमें निषेध करनेका तीनों महाशयोंका और इन्होंके पक्षधारिओंका महान् अनर्थ देखके बड़े आश्चर्य सहित खेदको प्राप्त होते हैं क्योंकि तीनो महाशय और इन्होंके पक्षधारीअधिकमासकी गिनती निषेध करके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठके आराधक बनते है परन्तु खास इसीही श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र में अनेक जगह खुलसा पूर्वक अधिकमासको प्रमाणकिया हैं जिसमें का ६१ और ६२ वा श्रीसमवायांगका पाठ भी वृत्ति भाषा सहित इसी ही पुस्तक ३९ । ४० । ४९ पृष्ठ में छप गया है जिसमें पांच संवत्सरोंका एक युगमें दोनु अधिकमास को दिनोमें पक्षोमें मासोमें वर्षो में खुलासा पूर्वक गिनके प्रमाण दिखायाहै इस लिये अधिकमासकी गिनतीका निषेध कदापि नही हो शकता है तथापि अधिकमासकी गिनती निषेध करके जो श्रीसमवायांगनी सूत्रका पाठके आराधक बनते है सो आराधकके बदले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२७ ] उलटे विराधक बनते हैं और मासवृद्धि दो श्रावणादि होते भी भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करणी और वर्तमानिक पाँचमास के १५०. दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होते भी पर्युषणाके पीलाही ७० दिन रखनेका आग्रहसे हठकरना, और पर्युषणाके पीछाड़ी मास वृद्धि होनेसे १०० दिन मानने वालोंको दूषित ठहराना। और अधिक मासकी गिनती निषेध करके भी आप निर्दूषण बनना। ऐसा जो जो महाशय वर्तमानकालमें मानते है श्रद्धारखते है तथा परूपते भी है-सो निःकेवल अनेक शास्त्रों के विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषण करते दृष्टिरागी भोलेजीवों को जिनाज्ञा विरुद्ध कदाग्रहकी भ्रमजालमें गेरके अपनी आत्माको 'संसारगामी करते है इसलिये अधिकमासके निषेध करने वाले कदापि निर्दूषण नही बनशकते है, और अधिकमासका निषेध करनेकी ऐसी बाललीला मिथ्यात्व रूप मन कल्पना की गपोल खीचड़ी, क्या, अनन्तगुणी अविसंवादी सर्वज्ञ महाराज अतिउत्तमोत्तम श्रीतीर्थङ्कर केवल ज्ञानी भगवान् उपदेशित शास्त्रों में कदापि चल शकती है अपितु सर्वथा प्रकारसे नही, नही, नही, क्योंकि अधिकमास को श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराज खुलासा पूर्वक गिनती में प्रमाण करते हैं। इसलिये तीनों महाशय तथा इन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक महाशयोंकी अधिक मासके निषेध करनेकी सर्व कल्पना संसार वृद्धि कारक मिथ्यास्वकी हेतु हैं इसलिये वर्तमानिक श्रीतपगच्छादि वाले आत्मार्थी मोक्षाभिलाषि निर्पक्षपाती सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि-हे धर्म बन्धवों तुमको संसार वृद्धिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२८ ] भय होवे और श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधन करने की इच्छा होवे तो अधिक मासकी गिनतीको प्रमाण करो और दो श्रावण हो तो दूजा श्रावणमें तथा दो भाद्र पद हो तो प्रथम भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करनी मंजर करो करावो श्रद्धो परूपो और मास वृद्धि होनेसे पर्युषणा के पीबाड़ी १०० दिन स्वभाविक होते है जिसको मान्य करो इस तरहका जब प्रमाण करोगे तब ही जिनानाके आराधक निदूषण बनोंगे । नहीं तो कदापि नहीं, आगे, इच्छा तुम्हारी इतने परभी श्रीसमवायांगजी सूत्रका पर्युबणा के पहिले ५० और पीछाड़ी 90 दिनका पाठको दिखाकर मास वृद्धि होते भी दोनुं बात रखने के लिये जितनी जितनी कल्पना जोजो महाशय करते रहेंगे सोसो सूत्र - कारके विरुद्धार्थमें वृथा परिश्रम करके उत्सूत्र भाषक बनेंगेक्योंकि ५० और 90 दिन चारमासके १२० दिनका वर्षाकाल संबंधी पाठ है इसलिये दो श्रावणादि होनेसे पाँचमासके १५० दिनका वर्षाकालमें श्रीसमवायांगजीका पाठको लिखना सो प्रत्यक्ष सूत्रकारके वृत्तिकार के और न्याय युक्तिसे भी सर्वथा विरुद्धार्थमें हैं इसका विशेष खुलसा उपरोक्त देखो । और एक युगके पांच संवत्सरो में दोनु अधिकमासकों खास श्रीसमवायाङ्गजी मूलसूत्रमें तथा वृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक प्रमाण किये है जिसके विषय में २२ शास्त्रोंके प्रमाण तो इसी ही पुस्तक के पृष्ठ २७ तथा २८ और २७ मे छपगये है और भी सूत्र, वृत्ति, प्रकरण, वगैरह अनेक शास्त्रोंके प्रमाण अधिक मासको गिनतीमें करने के लिये हमको मिले है सो आगे लिखने में आवेंगे, अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२९ ] मासको दिनोमें यावत् मुहूत्ता में भी खुलासा से प्रमाण किया है इसलिये अधिकमासकी गिनती निषेध करने वाले तीनों महाशय और इन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक महाशय भी श्री अनन्ततीर्थङ्कर, गणधर, पूर्वधर पूर्वाचार्य्यो के और अपने ही पूर्वजों के वचनों का खण्डन करते, सूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, निर्युक्ति, और प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके पाठोंके न मानने वाले तथा उत्थापक प्रत्यक्ष बनते है और भोले जीवों को भी उसी रस्ते पहोचाते मिथ्यात्वकी वृद्धिकारक संसार बढ़ाते है । इस लिये गच्छके पक्षपातका कदाग्रहको छोड़के शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक अधिक मासको प्रमाण करनेकी सत्यबातको ग्रहण करना और सब जनसमाजको ग्रहण कराना यही सम्यक्त्व धारीसज्जन पुरुषों का काम हैं ; और भी तीनों महाशयं चौमासी कृत्य आषाढ़ादिमास प्रतिबद्धा की तरह मास वृद्धि होने से पर्युषणा भी भाद्रपदमास प्रतिबद्धा ठहराते है को भी शास्त्रों के विरुद्ध है क्योंकि प्राचीन काल में भी मास वृद्धि होनेसे श्रावणमास प्रतिवद्धा पर्युषणाथी और वर्तमान कालमें भी दो श्रावण होनेसे कालानुसार दूजा श्रावण में पर्युषणा करने की शास्त्रकारों की आज्ञा हैं सोही श्रीखरतरगच्छादिमे करने में आती हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी प्राचीन कालमें भाद्रपद प्रतिवद्धा और वर्तमान में दो श्रावण होते भी भाद्रपदप्रतिबद्धा पर्युषणा ठहराना शास्त्रोंके विरुद्ध है इस बातका उपर में विशेष खुलासा देखके सत्यासत्यका निर्णय पाठकवर्ग स्वयं कर सकते हैं । और जैसे चौमासी कृत्य में अधिक मासको गिना जाता है तैसे ही पर्युषणा में भी अधिक मास को १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९३० ] अवश्यही गिना जाता हैं इस लिये धर्मकायों में और गिनती का प्रमाण में अधिक मासका शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक प्रमाण करना ही उचित होनेसे आत्मार्थियों को अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये । अधिक मास को प्रमाण करना इसमें कोई भी तरहका हठवाद नहीं हैं किन्तु अधिक मास की गिनती निषेध करना सो निःकेवल शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें हैं. – तथापि इन तीनों महाशयोंने बड़े जोरसे अधिक मासकी गिनती निषेध किवी तब उपरोक्त समीक्षा मुजेभी अधिक मासकी गिनती करने के सम्बन्ध की करनी पड़ी और आगे फिर भी इन तीनों महाशयोंने अपनी चातुराई अधिक मास को निषेध करने के लिये प्रगट किवी है जिसमें के एक तीसरे महाशय श्री विनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिका वृत्तिका पाठ इसही पुस्तक के पृष्ठ ६९ 9019९ मे छपा था जिसमेका पीछाडीका शेष पाठ रहा था जिसको यहाँ लिखके पीछे इसीको समीक्षा भी करके दिखाता हु श्रीसुखबोधिकावृत्ति के पृष्ठ १४७ की दूसरी पुढी की आदि से पृष्ठ १४८ के प्रथम पुठी की मध्य तक का पाठ नीचे मुजब जानो यथा:-- किं काकेन भक्षितः किं वा तस्मिन्मासे पापं न लगति उत बुभुक्षा न लगति इत्याद्युपहस न्मास्वकीयं ग्रहिलत्वं प्रकटयत स्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेवपि सम्वत्सरिक क्षामणे, बारसरहं माषाणमित्यादिकं दधिक मारु मंगी करोषि एवं चतुर्मास क्षामणे ऽधिकमास सद्भावेपि, चउरहंमासाणमित्यादि पक्षिक क्षामणकेऽधिक तिथि संभवेपि, पन्नरसरहं दिवाणमिति च षे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३१ ] तथा नवकल्पिविहारोहि लोकोत्तरकार्येषु, आसाढेमासे दुष्पया, इत्यादि सूर्य्यचारे, लोकेपि दीपालिका अक्षय तृतीयादि पर्वसु धन कलत्रादिषु च अधिकमासो न गण्यते तदपि त्वं जानासि अन्यच्च सर्वाणि शुभकार्य्याणि अभिवर्द्धिते मासे नपुंसक इति कृत्वा ज्योतिः शास्त्रे निषिद्धानि अतएव आस्ता मन्योऽभिवर्द्धितो भाद्रपदवृद्धौ प्रथनो भाद्रप दोषि अप्रमाणमेव यथा चतुर्दशी वृद्धौ प्रथमां चतुर्दशीनवगण्य द्वितीयायां चतुद्दश्यां पाक्षिक कृत्यं क्रियतेतथात्रापि एवं तर्हि अप्रमाणे मासे देवपूजा मुनि दानावश्यकादि कार्य्यमपि न कार्य्यमित्यपि वक्तुमाधरौष्टं चंपलय यतो यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजा मुनि दानादि कृत्यादि तानि तु प्रतिदिन कर्त्तव्यान्येवं यानि च सन्ध्यादि समय प्रतिबद्धानि आवश्यकादीनि तान्यपि य कञ्चन सन्ध्यादि समयं प्राप्य कर्त्तव्यान्येव यानि तु भद्रपदादि मास प्रतिबद्धानि तानि तु तद्द्द्वयसम्भवे कस्मिन् क्रियते इति विचारे प्रथम मवगण्य द्वितीये क्रियते इति सम्यग् विचारय तथाच पश्य अचेतना वनस्पतयोपि अधिकमास नांगी कुर्वते येनाधिकमासे प्रथमं परितज्य द्वितीय एव मासे पुष्पति - यदुक्तम् आवश्यकनिर्युक्तौ, जइफुल्लाकस्सि आरडा, चूअग अहिमा सयंमिघुटु भि ॥ तुहनखमं फुल्लडं, जइपच्चताकरिति डमराई ॥ १ ॥ तथा च कश्चित् ॥ अभिवदढियंमिवीसा, इयरेसु सवीसह मासो, । इति वचन बलेन मासाभिवृद्धौ विंशत्यादि तैरेव लोवादि कृत्य विशिष्टां पर्युषणां करोति तदप्ययुक्तं येन अभिवद्द्द्वियंमिवोसा इति वचनं गृहिज्ञातमात्रापेक्षया अन्यथा आसाढ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३२ ] पुलिमाए पज्जोसर्वेति एसउस्सग्गो सेसकाल पनोसविताणं अववादत्ति, श्रीनिशीथचूर्णिदशमोद्देशक वचनादाषाढ पूर्णिमायामेव लोधादि कृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् इत्यलं प्रसंगेन उपरोक्तपाठ जैसा मैंने देखा वैसा ही यहाँ छपा दिया है और जैसे श्रीविनयविजयजीने उपरोक्त पाठ लिखा हैं वैसा ही अभिप्रायः का श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्प करणावली वृत्ति में और श्रीजय विजयजीनें श्रीकल्पदीपिका वृत्ति में अपनी अपनी विद्वत्ताको चातुराई से अनेक तरहके उटपटांग, पूर्वापर विरोधी विसंवादी और उत्सूत्र भाषण रूप शास्त्र कारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मनकल्पना सैं लिखके गच्छकदाग्रही दृष्टि रागी श्रावकों के दिल में जिनाना विरुद्ध मिथ्यात्वका भ्रमगेरा हैं। जिसका सबपाठ यहाँ लिखने से ग्रन्थ बढ़जावे, और वाचकवर्गको विस्तार के कारण से विशेष वरुतलगे इसे नहीं लिखा और तीनों महाशयोंका अभिप्राय उपरके पाठ मुजब ही खास एक समान है, इसलिये तीनों महाशयोंके पाठको न लिखते एकही श्रीसुखबोधिका वृत्तिका पाठ उपरमें लिखा है उसीकी समीक्षा करता हु सो तीनों महाशयोंके अभिप्रायका लेखकी समझ लेना - अब समीक्षासुनो तीनों महाशय अधिकमास की गिनती निषेध करके फिर उसीकों ही पुष्टी करने के लिये प्रश्नोत्तर रूपमें लिखते है कि अधिकमासको गिनती में नही करते होतो ( किं काकेनः अक्षित; - इत्यादि) क्या अधिकमासको काकने भक्षण करलिया किं वा तिस अधिक मास में पाप नही लगता हैं और उम अधिकमास में क्षुधा भी नही लगती है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३३ ] सो अधिकमासको गिनती में नहीं लेते हो अर्थात् जो अधिक मास में पाप लगता होवे और क्षुधा भी लगती होवे तो अधिकमासको गिनतीमें भी प्रमाण करके मंजर करणा चाहिये—इत्यादि मतलबसे उपहास करता प्रश्नकार वादीको ठहराकर फिर श्रीविनयविजयजी अपनी विद्वत्ता के जोरसे प्रतिवादी बनके उपरके प्रश्नका उत्तर देने मे लिखते है किमास्वकीय अहिलत्वं प्रगटयत स्त्वमपि अधिक मासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि-इत्यादि अर्थात् अधिकमासको क्या काकने भक्षण करलिया तथा क्या तिस अधिकमासमें पापनही लगता है और क्षुधा भी नही लगती है सो गिनतीमे नही लेते हो इत्यादि उपहास करता हुवा तेरा पागलपना प्रगट मत कर क्योंकि-त्वमपि अर्थात् हमारी तरह जिस संवत्सरमें अधिकमास होता है उसी संवत्सरमें तेरहमास होते भी साम्वत्सरिक क्षामणे 'बारसरहमासाणं' इत्यादि बोलके अधिकमासको गिनती में अङ्गीकार तुभी नही करता है और तैसे ही चौमासी क्षामणेमें भी अधिकमास होनेसे पांच मासका सद्भाव होते भी 'घउण्हंमासाणंइत्यादि बोलके भधिकमासकी गिनती नहीं करता हैं :____ अब हम उपरके मतलब की समीक्षा करते हैं कि हे पाठकवर्ग ! भव्यजीवों तुम इन तीनों विद्वान् महाशयों की विद्वत्ताका नमुना तो देखो-प्रथम किस रीतिसै प्रश्न उठाते हैं और फिर उसीका उत्तरमें क्या लिखते हैं प्रश्नके समाधानका गन्ध भी उत्तरमें नही लाते और और बाते लिख दिखाते हैं क्योंकि उपरोक्त प्रश्नमें अधिक मासको गिनतीमें नहीं लेते हो तो क्या काकने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३४ ] अक्षण करलिया इत्यादि प्रश्न उठाकर इसका संबंध छोड़के-तुं भी साम्वत्सरिक क्षामणामें तेरहमास होते भी बारहमासके क्षामणे करता है इत्यादि लिख कर क्षामणाका संबंध लिख दिखाया और प्रश्न कारके उपर ही गेरके अपनी विद्वत्ता दिखाई परन्तु सम्पूर्ण प्रश्न के संबंधका समाधान उत्तरमें शास्त्रोंके प्रमाणसे तो दूर रहा परन्तु युक्ति पूर्वक भी कुछ नहीं कर शके क्या अलौकिक अपूर्व विद्वत्ता प्रश्नके उत्तर देने में तीनों विद्वानोंने खर्च किवी हैं सो पाठक वर्ग बुद्धि जन पुरुष स्वयं विचार लेना, और तुभी अधिकमास होनेसे तेरह मासके क्षामणा न करते बारह मासका करके अधिक मासको अङ्गीकार नहीं करता हैं इत्यादि तीनों महाशयोंने लिखा हैं सो मिथ्या हैं क्योंकि अधिक मासकी गिनती करने वाले मुख्य श्रीखरतर गच्छवाले जब अधिकमास होता है तब अभिवर्द्धित संवत्सराश्रय सांवत्सरिक क्षामणे में तेरह मास तथा छवीशं पक्षादि और अभिवर्द्धित चौमासेमें भी पांचमास तथा दशपक्षादि खुलासा कहकर सांवत्सरिक और चौमासी क्षामणेमें अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करते हैं इसलिये अधिक मासको क्षामणामें अङ्गीकार नही करता है ऐसा तीनो महाशयों का लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या हो गया और इस जगह किसीको यह संशय उत्पन्न होगा कि तेरह मास छवीश पक्षादि किस शास्त्रमें लिखे है तो इस बातका सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामसे पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की आगे में समीक्षा करूंगा वहाँ विशेष खुलासा शास्त्रोंके प्रमाणसे लिखा जायगा सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९३५ ] , और पाठकवर्ग तथा विशेष करके श्रीतपगच्छके मुनि महाशय और श्रावकादि महाशयों को मेरा इस जगह इतना हो कहना है कि आप लोग निष्पक्षपात से विवेक बुद्धि हृदय में लाकर तीनों महाशयोंके लेखको टुक नजरसे थोड़ासा भी तो विचार करके देखो इस जगह क्षामणा के सम्बन्ध में दूसरों को कहने के लिये तीनों महाशयोंने 'अधिकमासेसति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि इत्यादि । तथा 'एवं चतुर्मासकक्षामणेऽधिकमास सद्भावेऽपि, यह वाक्य लिखके अधिकमास को गिनती में लेकर तेरह मास अभिवर्द्धित सम्वत्सर में और चौमासा में भी अधिक मासका सद्भाव मान्यकर अभिवर्द्धित चौमासा पाँचमास का दिखाया । इस जगह उपरोक्त इस वाक्य से अधिकमासको तीनों महाशयोंने प्रमाण करके मंजूर करलिया और पहिले पर्युषणा के सम्बन्ध में अधिक श्रावणकी और अधिक आश्विनको गिनती निषेध कर दिवी, जब क्षामणा के सम्बन्ध में अधिक मासको गिनती में खुलासा मंजूर करलिया तो फिर विसम्वादी वाक्यरूप संसार वृद्धिकारक अधिक मासकी गिनतीका निषेध वृथा क्यों किया इसका विशेष विचार पाठकवर्ग स्वयं करलेना, और अब श्रीतपगच्छंके वर्त्तमानिक महाशयोंको मेरा इतनाही कहना है कि आप - लोग तीनों महाशयोंके वचनोंको प्रमाण करते हो तो इन्होंके लिखे शब्दानुसार अधिक मासकी गिनती मंजूर करोगे किम्वा विसंवादी पूर्वापर विरोधी वाक्यरूप निषेधको मंजूर करोगे जो गिनती मंजूरकरोगे ततो वर्त्तमानिक लौकिक पञ्चागमें दो श्रावण वा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनादि मासोंकी वृद्धि होनेसे अधिक मारुका गिनती में - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३६ ] निषेध करनाही नही बनेगा,और जो निषेध को मंजर करोगे तब तो अनेक सूत्र, वृत्ति भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके न मानने वाले उत्थापक बनोंगे इसलिये जैसा तुम्हारी आत्माको हितकारी होवें वैसा पक्षपात छोड़कर ग्रहण करमा सोही सम्यक्त्वधारी सज्जन पुरुषों को उचित है मेरा तो धर्मबन्धुओंकी प्रीति में हितशिक्षारूप लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना किंवा न करना सो तो आपलोगों की खुसी की बात है ; और आगे भी सुनो, तीनों महाशयोंने पाक्षिक क्षामणे अधिक तिथि होते भी “पन्नरसरहंदिवप्ताण", ऐसा कहके अधिक तिथि को नहीं गिनता है यह वाक्य लिखा है. इससे मालुम होता है कि तिथिओंकी हाणी वृद्धि की और पाक्षिक क्षामशा संबंधी जैन शास्त्रकारों का रहस्यके तात्पर्य्यको तीनों महाशयोंके समजमें नही आया दिखता है नही तो यह वाक्य कदापि नही लिखते इसका विशेष खुलामा श्रीधर्मविजयजीके नामसें पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की में समीक्षा आगे करूंगा वहाँ अच्छी तरह में तिथियों की हाणी वृद्धि संबंधी और पाक्षिक क्षामणा सम्बधी निर्णय लिखने में आवेगा-और नवकल्पि विहारका लिखा सो मासवद्धिके अभाव नतु पोषादिमास वृद्धि होते भी क्योंकि मासवृद्धि पौष तथा आषाढकी प्राचीन कालमें होती थी जब और वर्तमानमें भी वर्षाऋतुके सिवाय मास वृद्धि में अधिक मासकी गिनती करके अवश्यही दशकल्पि विहार होता है यह बात शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इस का भी विशेष निर्णय वहाँ ही करने में आवेगा-और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३० ] ( आसाढ़े मासे दुष्पया इत्यादि सूर्य्यचारे ) इस वाक्यको लिखके तीनों महाशय अधिक मासमें सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो भी मिथ्या हैं क्योंकि अधिक मासमें अवश्यही निश्चय करके सूर्यचार आनादिकाल से होता आया है और आगे भी होता रहेगा तथा वर्तमान काल में भी होता है सो देखिये शास्त्रोंके प्रमाण श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र में १ तथा वृतिमें २ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र में ३ तथा वृत्ति में ४ श्रीवृहत्कल्प वृत्तिमें ५ श्रीभगवतीजी मूलसूत्र के पञ्चम शतक के प्रथम उद्देशेमें ६ तत्वृतिमें 9 श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में ८ तथा इन्हीं सूत्रकी पांच वृत्तियों मे १३ श्रीज्योतिष. करंडपयन की वृत्ति में १४ श्रीव्यवहारसूत्र वृत्ति में १५ और लघु तथा बृहत दोनुं संग्रहणीसूत्र में ११ तथा तिस की चार वृत्तियों में २१ और क्षेत्रसमास के तीन मूल ग्रन्थों में २४ तथा तीन क्षेत्रसमासों की सात वृत्तिओं में ३१ इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिक मासमें सूर्यचार होनेका कहा है अर्थात् सूर्यचारके १८४ मांडलेके १८३ अन्तरे खुलासा पूर्वक कहे है जिसमें दिन प्रते सूर्य अपनी मर्यादा पूर्वक हमेसां गति करके १८३ दिने दक्षिणायनसे उत्तरायण और फिर १८३ दिने उत्तरायण से दक्षिणायन इसीही तरहसे एक युगके पांच सूर्य संवत्सरोंके १८३० दिनों में सूर्यचारके १० आयन होते हैं जिसमें चन्द्रमासकी अपेक्षासे दो मासकी वृद्धि होने से ६२ चन्द्रमासके १८३० दिन होते हैं इसलिये अधिक मासके दिनोंकी गलती करनेसेही सूर्यचारके गतिका प्रमाण मिल शकेगा, अन्यथा नहीं ? और लौकिक पञ्चांगमें भी अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित सूर्यचार होता है सोही वर्त्तमानिक संवत्सर १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९३८ ] को दिखाता हु, - सम्वत् १९६६ का जोधपुरी चंडु पञ्चांग आषाढ़ शुक्ल ५ के दिन सूर्य उत्तरायनसे दक्षिणायन में हुवा था जिसमें मास वृद्धिसे दो श्रावण मास हुवे तब अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित चन्द्रमासको अपेक्षासे तिथियोंकी हाणी वृद्धि हो करके भी १८३ वें दिन मार्गशीर्ष शुक्ल ९ के दिन फिर भी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन में हुवा है सो पाठकवर्गके सामनेकी ही बात हैं, इसी तरहसे लौकिक पञ्चाग में हरेक अधिक मासोंकी गिनती सूर्यerent गिनती समझ लेना और सम्बत् १९६९में खास दो आपढ़ मास होवेगें तबभी सूर्यचारको गतिको देखके पाठकवर्ग प्रत्यक्ष निर्णय करलेना - और मेरेपास विक्रम सम्वत् १९०१ से लेकर सम्वत् १९९वें तकके अधिक मासोंका प्रमाण मौजूद है परन्तु ग्रन्थगौरव के कारणसे नहीं लिखता हु, इसलिये तीनों महाशय अधिक मास में सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो जैनशास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक और लौकिक पञ्चाङ्गकी रीति से भी प्रत्यक्ष मिथ्या हैं तथापि तीनों महाशयोंने भोले जीवोंकों अपने पक्ष में लानेके लिये ( आसाढ़ेमासे दुप्पया ) इस वाक्यको लिखके सूत्रकार गणधर महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध हो करके और फिरभी अधूरालिख दिया क्योंकि गणधर महाराज श्री - धर्मस्वामिजीनें श्रीउत्तराध्ययनजी सत्र के छवीश ( २६ ) वें अध्ययन में साधुसमाचारी सम्बन्धी पौरस्याधिकारे - असाढ़ मासे दुप्पया, पोसेमा से चठप्पया ॥ चित्तासोए मासु, तिपया हवइपोरसी ११ इत्यादि १२ १३ १४ १५ १६ गाथाओं से खुलासा पूर्वक व्याख्या मास वृद्धिके अभाव से स्वभाविक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३९ ] रीति किवी थी और इन्हीं गाथाओंकी अनेक पूर्वाचायौने विस्तार करके अच्छी तरहसे टीका बनाई हैं उन सब व्याख्यायों को और सूत्रकारके सम्बधकी सब गाथायों को छोड़करके सिर्फ एक पद लिखा सोभी मास वृद्धिके अभावका था जिसको भी मास वृद्धि होते भी लिखके दिखाना सो आत्मार्थी भवभीरु पुरुषोंका काम नहीं हैं और में इस जगह श्रीउत्तराध्ययनजीस्त्र के २६ वा अध्ययनकी गाथा ११ वीं, से १६ वी तक तथा व्याख्यायों के भावार्थ सहित विस्तार के कारण से नहीं लिख सक्ता हुं परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो रायबहादुर धनपतसिंहजी की तरफ से जैनागम संग्रहका ४१ वा भाग में श्रीउत्तराध्ययनजी मूलसूत्र तथा श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित रूपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके २६ वा अध्ययन में साधुसमा वारी संम्बधी पौरषीका अधिकार पृष्ठ १६६ सें १६९ तक गाथा ११वी से १६वी तथा वृत्ति और भाषा देखके निर्णय करलेना और जिसके पास हस्तलिखित पुस्तक मूल की तथा वृत्ति कीहोवे सोभी उपरोक्त अध्ययनकी गाथा और वृत्ति देखलेना और श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रकार श्रीगणधर महाराज अधिक मासको अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक यावत् मुहूर्त में भी गिनती करके मान्य करने वाले थे तथा अधिक मासके भी दिनोंकी गिनती सहित सूर्यचार को मान्यने वाले थे इसलिये सूत्रकार गणधर महाराजके अभिप्रायः के सम्बन्धका सब पाठको छोड़के एकपद लिखनेसें अधिक मान में सूर्य चार नहीं होता है ऐसा तीनों महाशयों का लिखना कदापि सत्य नहीं होशक्ता हैं अर्थात् सर्वथा मिथ्या हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४० ] - और भी तीनों महाशय दो भाद्रपद होने से प्रथम भाद्रपको अप्रमाण ठहरा कर छोड़ देना और दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा करना कहते है इसपर मेरेकों वड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है क्योंकि जैसे अन्य मतवाले जिस देवकी अनेक तरहसे अज्ञान दशाके कारणसें विटंबना बहोतसी करते है फिर उन्हीं देवकों अपने परमेश्वर मानकर पूजते भी है तैसेही इन तीनों महाशयोंने भी अज्ञानी मिथ्यात्वियोंका अनुकरण किया अर्थात् जिस अधिक मास को कालचूला मान्यकरके गिनतीमें नही लेना ऐसा सिद्धकरके फिर अनेक तरहके विकल्पोंसें अधिक मासको दूषण लगाके निंदते हुवे निषेध करते है फिर उन्हीं अधिक मासमें धर्मकार्य पर्युषणापर्व करना मंजूर कर लिया, क्योंकि तीनों महाशय अधिक मासको कालचूला कहनेसें गिनतीमें नहीं आता है ऐसा तो पर्युषणाके सम्बधमें प्रथम लिखते हैं इसपर पाठकवर्ग बुद्धिजनपुरुष निष्पक्षपातसे विचार करो कि, कालचूला उसको कहते हैं जो एक वर्षका कालके उपरमे बढ़े एक वर्ष के बारह मास स्वाभाविक होतेही हैं परन्तु जब तेरहवा मास बढ़ेगा तब उसीको कालचूलाकी ओपमा होगा नत बारहवा मासको जब तेरहवा मास को कालचूलाकी ओपमा हुई उसीकों गिनतीमें निषेधभी करदेना, और प्रमाणभी करलेना यह कैसी विद्वत्ताका न्याय हुवा जो कालचूलाको निषेध करेंगे तब तो दूसरा भाद्रपदको कालचूलाकी ओपमा होती है उसी में पर्युषणापर्व स्थापना नहीं बनेगा, और जो दूसरे भाद्रपदमे कालचूला जानके भी पर्युषणा स्थापेंगे तबतो दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४९ ] निषेध करना नहीं बनेगा, और अधिक मासको निषेध करनेके लिये जो जो कल्पना उपरके पाठ में लिखी है सो सबही वृथा होजावेगी सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना; और जैसे श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजीके निंदक जैनाभास ढूंढिये और तेरहापन्थी हठग्राही कदाग्रही लोग अपने पक्षकी भ्रमजाल में भोले जीवोंको फसानेके लिये जिस सूत्रका पाठ लोगोंको दिखाते हैं उन्हीं सूत्रके पाठको जड़ मूलसेही उत्थापन करते है तैसेही इन तीनों महाशयोंने भी किया अर्थात् श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्र के अष्टमाध्ययनंरूप पर्युषणा कल्पचूर्णिका और श्रीनिशीथसूत्रको चूर्णिके दशवे उद्देशेका पाठ लिखके भोले जीवोंको दिखाया था उन्हीं चूर्णिके पाठको जड़मूल से उत्थापन भी कर दिया, क्योंकि प्रथम पर्युषणा भाद्रपदमें ठहराने के लिये दोनु चूर्णिके पाठ लिखे थे जिसमें स्वभाविक रीतिसे आषाढ़ चौमा सीसें पचास दिनके अन्तरमें कारण योगसे श्रीकालकाचार्यजीने पर्युषणा किवी थी सोभी प्राचीनकालाश्रय गुनपचास (४९) वें दिन मास वृद्धि के अभावसै परन्तु शास्त्रोंके प्रमाण उपरान्त एकावन दिने पर्युषणा नहीं किवी थी, तथापि इस जगह उन्हीं पाठको तीनों महाशयोंने जड़भूलसेही उत्थापन करके स्वभाविक रीति से प्रथम भाद्रपद था उसीको छोड़कर दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा करनी लिख दिया, फिर निर्दोषण बनने के लिये उन्हीं दोनु चूर्णि में अधिक मासको प्रमाण किया था उन्हीं चूर्णिके पाठको उत्थापनरूप अधिक मासको निषेध भी कर दिया, हा, आफसोस ; अब सज्जन पुरुषोंसे मेरा इतनाही कहना हैं कि दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४५ ] भाद्रपद होनेसे प्रथम भाद्रपद में ही पर्युषणा करनी जिनाज्ञामुजब शास्त्रानुसार है नतु दूसरेमें, इतनेपर भी हठवादीजन शास्त्रोंके विरुद्ध होकर के भी दूसरे भाद्रपदमें पर्युषणा करेंगे तो उन्होंके इच्छाकी बात ही न्यारी है ; और तीनों महाशय दो चतुर्दशी होनेसे प्रथम चतुर्दशी को छोड़कर दूसरी चतुर्दशी में पाक्षिक कृत्य करनेका कहते है सभी शास्त्रविरुद्ध है इसका विशेष खुलासा तिथिनिर्णयका अधिकार में आगे विस्तार पूर्वक शास्त्रों के प्रमाण सहित करनेमें आवेगा --- " और अधिक मासमें देवपूजा, मुनिदान, पापकृत्यों की आलोचनारूप प्रतिक्रमणादि कार्य दिन दिन प्रति करनेका कहकर अधिक मासके तीस ३० दिनोंमें धर्मकर्मके कार्य करनेका तीनों महाशय कहते है परन्तु अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करते हैं, इसपर मेरेकों तो क्या परन्तु हरेक बुद्धिजन पुरुषोंकों तीनों महाशयों की अपूर्व बालबुद्धिकी चातुराईको देखकर बड़ाही आश्चर्यको उत्पन्न हुये बिना नही रहेगा क्योंकि जैसे कोई पुरुष एक रुपैये को अप्रमाण मानता है परन्तु १६ आने, तथा ३२ आधाने और ६४ पाव आने, आदिको मान्य करता हैं और एक रुपैये को मानने वालोंका निषेध करता है, तैसेही इन तीनों महाशयोंका लेखभी हुवा अर्थात् अधिक मासके ३० दिनों में धर्मकर्म तो मान्य किये, परन्तु अधिक मासको मान्य नहीं किया और मान्य करनेवालों का निषेध किया सो क्या अपूर्व विद्वत्ता प्रगट तीनों महाशयांने किवी है, जैसे उस पुरुषने जब १६ आने तथा ३२ आध आने चौसठ पाव आने को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४३ ] . मान्य करलिये तब एक रुपैया तो स्वयं मान्य होगया, तथापि निषेध करना, सो बे समझ पुरुषका काम है तैसेही तीनों महाशयों ने भी जब देवपूजा, मुनिदानावश्यक (प्रतिक्रमण) वगैरह धर्मकर्म ३० दिनों में मान्य लिये तब तो ३० दिनका एक अधिक मास तो स्वयं मान्य होगया, तथापि फिर अधिक मासको गिनती करने में निषेध करना सो हठवादसे निःकेवल हास्यका हेतु लज्जाका घर और तीनों महाशयोंकी विद्वत्ताको लघुताका कारण है , तथा और भी सुनिये जब इस जगह तीनों महाशय ३० दिनों में धर्मकर्म मान्य करते है जिससे अधिक मास भी गिनती में सिद्ध होता हैं फिर पर्युषणाके संबंधमें दो श्रावण के कारण भाद्रपद तक प्रत्यक्ष ८० दिन होते है जिसको निषेध करके ८० दिनके ५० दिन बनाते है और अधिक मासको निषेध करते है सो कैसे बनेगा अपितु कदापि नही, इस लिये जो ८० दिन के ५० दिन मान्य करेंगे तब तो अधिक मासके ३० दिनेमि देवपूजा मुनिदानावश्यकादि कुछ भी धर्मकर्म करनाही नहीं बनेगा और अधिक मासके ३० दिनों में धर्मकर्म करना तीनों महाशय मंजूर करेंगे तो अधिक मासके ३० दिनका धर्मकर्म गिनती में आजावेगा तब तो दो प्रावण हनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते है जिसका निषेध करना ही नहीं बनेगा और ८० दिने पर्युषणा करनी सो भी शास्त्रोंके प्रमाण बिना होनेसे जिनाज्ञा विरुद्ध तीनों महाशयोंके वचनसे भी सिद्ध होगई—-इस बातको पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विशेष स्वयं विचार लेना ,. और आगे फिरभी तीनों महाशयोंने अभिवर्द्धित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४४ ] संवत्सरमें वीश दिने पर्युषणा होतीथी उसीको गृहस्थी लोगोंके करने मात्रही ठहरानेके लिये श्रीनिशीथ चूर्णिका दशवा उद्देशाके पर्युषणा विषयका आगे पीछेका संबंध को छोड़कर चूर्णिकार महाराजके विरुद्धार्थ में सिर्फ दो पद, लिखके स्था परिश्रम करके वड़ी भूल किवी हैं क्योंकि जो आषाढ़पूर्णिमाको पर्युषणा कही हैं सो गृहस्थी लोगके न जानी हुई, अप्रसिद्ध तथा अनिश्चयसे होती हैं उसमें लोचादिकत्य करनेका कोई नियम नहीं हैं परन्तु वीशे, और पचासे, गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई प्रसिद्ध निश्चय पर्युषणा होती है उसीमें लोचादिकृत्योंका नियम है इस लिये वीश दिनकी भी पर्युषणा वार्षिक कृत्योंसे होती थी इसका विशेष विस्तार उपरमें पहिले अनेक जगह छपगया है और श्रीनिशीथचूर्णिके १० वे उद्देशेका पर्युषणा संबंधी संपूर्ण पाठ भी उपरमे पृष्ठ १५ से C तक और भावार्य १०० से १०४ तक छपगया है और आगे पृष्ठ १०६ से यावत् ११७ तक उसी बातके लिये अनेक शास्त्रोंके प्रमाणसे और युक्तिपूर्वक विस्तारसे छपगया है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय होजावेगा और आगे लौकिकमें दीवाली, अक्षयतृतीयादि पर्व वगैरह तथा अन्यभी सर्व शुभकार्य अधिक मासको नपुंशक कहके ज्योतिषशास्त्र में वर्जन किये हैं और अधिक मास में वनस्पति प्रफुल्लित नही होती हैं, इत्यादि बाते जो जो तीनों महाशयोंने लिखी हैं सो निःकेवल शास्त्रकारोंके अभिप्रायःकों जाने बिना विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणरूप भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसानेके लिये लिखके मिथ्यात्वके कारणमें वृथा परिश्रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४५ ] करके समय खोया है और आपका तथा आपके लेखको सत्य माननेवालोंका संसार वृद्धिका कारणभी खुबं किया है सो इन सब बातोंका जवाब शास्त्रोंके प्रमाणसे शास्त्रकार महाराज के अभिप्रायः समेत तथा न्यायपूर्वक युक्ति सहित अच्छी तरहसें खुलासाके साथ आगे चौथे महाशय श्रीन्यायांभोनिधिजी और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम में लिखने में आवेगा, परन्तु इस जगह निष्पक्षपाती सत्यग्राही श्रीजिनेश्वर भगवन् की आज्ञाके आराधक सज्जन पुरुषोंसें थोड़ीसी वार्ता दिखाकर पीछे तीनों महाशयोंकी समीक्षाको पूर्ण करूंगा सो वार्ता अब सुनो ; तीनों महाशयोंने श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठकी [अंतरा वियसे कप्पइ नोसे कप्पइ तं रयणिं उवायणा वित्तएति] इस पदकी व्याख्या [अर्वागपि कल्पे परं न कल्पेतां रात्रिं (रजनीं) भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उवायणा वित्तएति अतिक्रमीतु इत्यादि व्याख्या खुलासा पूर्वक किंवी हैं जिसमें। प्रथम । आषाढ़चौमासीसें पचास दिनके अंदर में कारणयोगे पर्युषणा करना कल्पे परन्तु पचासवें दिनकी भाद्रपदशुक्ल पञ्चमीकी रात्रिको उल्लङ्घन करना नही कल्पे। तथा दूसरी। पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते दशवे पञ्चकमें पचास दिने पर्युषणा जैन पञ्चाङ्गानुसार मासवृद्धिके अभावसें लिखी । और तीसरी। जैन पञ्चाङ्गानुसार एक युगमें पौष और आषाढ़ दो मासकी वृद्धि होनेसे वीशदिने पर्युषणा लिखी। और चौथी। अबी वर्तमानकालमें जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक. पञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी वृद्धि होती है इसलिये आषाढ़ १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४६ ] चैमासीसे पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्योंकी आज्ञा है । इस तरहसें तीनों महाशयोंनें चार प्रकार से खुलासा लिखा है इस पर बुद्धिजन पुरुष तस्वग्राही होके विचार करो कि प्राचीनकालमें पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते दशवें पञ्चकमें पचास दिने मासवृद्धिके अभाव से जैन पञ्चाङ्गानुसार भाद्रपद शुक्लपञ्चमी परन्तु श्रीकालकाचार्य्यजी से चतुर्थीको पर्युषणा होती है परन्तु अब लौकिकपञ्चाङ्गमें हरेक मासकी वृद्धि होने से श्रावण भाद्रपदादि मास भी बढ़ने लगे इसलिये मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्यों की आज्ञा हुई तब मासवृद्धि होते भी भाद्रपद में ही पर्युषणा करनेका निश्चय नही रहा किन्तु दो श्रावण होनेसें दूजा श्रावण में और दो भाद्रपद होनेसें प्रथम भाद्रपद में पचास दिने पर्युषणा करनेका नियम इस वर्त्तमानिक कालमें रहा जिससे दो श्रावण तथा दो भाद्रपद और दो आश्विन मास होनेसें पर्युषणाके पीछाड़ी 90 दिनका भी नियम नही रहा अर्थात् मासवृद्धि होनेसें पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन श्रीतपगच्छकेही पूर्वजोंकी आज्ञानुसार रहते हैं यह तात्पर्य तीनों महाशयोंके लिखे वाक्य परसें सूर्य्यकी तरह प्रकाश कारक निकलता हैं सो न्यायकीही बात है इस बात को अपने पूर्वजोंकी आशातनासे डरनेवाला कोई भी प्राणी निषेध नही कर सकता है तथापि इन तीनों महाशयोंने अपनी विद्वत्ताकी बात जमानेके लिये खास अपनेही पूर्वजोंका उपरोक्त वाक्यको जड़ मूलसेही उठाकर अपने पूर्वजों की आज्ञा लोपते हुवे दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेका और मासवृद्धि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४७ । होते भी पर्युषणाके पीछाड़ी ७० दिन रखनेका झगड़ा उठाया___ और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि पूर्वधर पूर्वाचार्य और प्राचीन सब गच्छोंके पूर्वाचार्य जिसमें श्रीतपगच्छकेही पूर्वज पूर्वाचार्यादि महाराजोंने अधिक मासको प्रमाण किया था सो इन तीनों महाशयोंने उपरोक्त महाराजोंकी आशातनाका भय न रखते हुए अधिकमासको निषेध कर दिया और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने जैसे सुमेरु पर्वतके उपर चालीशयोजनके शिखरको तथा अन्य भी हरेक पर्वतोंके शिखरोंको और देव मन्दिरादिकके शिखरोंको क्षेत्रचूलाको उत्तम ओपमा कही है तैसेही चंद्र संवत्सरके बारह मासोंके उपर शिखररूप तेरह वा अधिकमासको भी कालचूलाकी उत्तम ओपमा देकर गिनतीमें लिया था जिप्तको इन तीनों महाशयोंने धर्मकार्योकी गिनतीमें निषेध करने के लिये अधिकमास को नपुंशकादि हलकी ओपमा देकर श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी विशेष बड़ी भारी आशातना किवी हैं और अपनी बात जमाने के लिये श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्र की पूर्णि तथा श्रीनिशीथचूर्णि और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठ लिखके दृष्टि रागियोंको दिखाये थे सोभी शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थ में तथा उन्ही तीनों शास्त्रोंमें अधिकमास को अच्छी तरहसे प्रमाण कियाथा तथापि इन तीनों महाशयोंने उन्ही तीनों शास्त्रोंके पाठोंको जड़ मूलसें ही उत्थापन करके अधिकमासको निषेध कर दिया और मासद्धिके अभावसे पचास दिने भाद्रपद में पर्युषणा कही थी तब पर्युषणाके पीछाड़ी 90 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४८ ] दिन भी स्वभाविक रहते थे तथापि इन तीनों महाशयोंने उत्सूत्र भाषणरूप मासवृद्धि होनेसे वर्तमानिक दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा और पीछाड़ी के 90 दिन शास्त्रोंके प्रमाण विरुद्ध हो करके स्थापन किये और तीनों महाशय खास आप भी स्वयं एक जगह अधिकमास को कालचूला की उत्तम ओपमासे लिखते हैं दूसरी जगह नपंशककी तुच्छ ओपमासे लिखते हैं आगे और भी एक जगह अधिकमाके ३० दिनोंका धर्मकर्मको गिनती में लेते हैं दूसरी जगह ३० दिनोंको ही सर्वथा निषेध करते है इसी तरहसे कितनी ही जगहपूर्वापरविरोधी (विसम्वादी) उटपटांगरूप वाक्य लिखके गच्छपक्षी जनोंको शास्त्रानुसार की सत्य बात परसें श्रद्धा छोड़ा कर शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थमें मिथ्यात्वरूप कदाग्रहमें गेर दिये तथा आगे अनेक जीवोंको गेरनेका कार्य कर गये हैं इसलिये खास तीनों महाशयोंकी और इन्होंके शास्त्र विरुद्ध लेखको सत्य मान्यकर उसी तरह में अधिक मासकी निषेधरूप मिथ्यात्वके पीष्ट पेषणको पीसते रहेंगे जिससे भोले जीव भी उसी में फसते रहेंगे उन्होंकी आत्माका कैसे सुधारा होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने तथा और भी थोडासा सुन लिजिये श्रीभगवतीजी सूत्रमें १ और तत् वृत्तिमें २ श्रीउत्तराध्ययनजी सत्रमें ३ और तीनकी छ व्याख्यायों में ए श्रीदशवैकालिक सत्रमें १० और तीनकी चार व्याख्यायोंमें १४ श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्तिमें १५ श्रीसङ्घपटक वृहत् वृत्तिमें १६ श्रीश्राद्धविधिवृत्तिमें १९ इत्यादि अनेक शास्त्रों में उत्सूत्रभाषक श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वाचार्यादि परम गुरुजन महा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४९ ] राजोंकी आशातना करने वाला और उन्हीं महाराजोंका वाक्यको न मानता हुवा उत्थापन करने वाला प्राणीको यावत् दुलभ बोधि मिथ्यात्वी अनन्त संसारी कहा है तैसे ही न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीने भी अज्ञान तिमिरभास्कर ग्रन्थके पृष्ठ ३२०में लिखा है-छठ दशम द्वादसे हिं, मासटुमासखमणे हिं। अकरन्तो गुरुवयणं, अनन्त संसारिओ भणिओ ॥१॥ तथा और भी पृष्ठ २९५ का लेख इसी ही पुस्तकके पृष्ठ 6 और ८०, में छपगया है इससे भी पाठकवर्ग विचार करो कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचायौंको और अपने ही गच्छके पूर्वाचार्योंकी इन तीनों महाशयोंने अधिकमासको निषेध करने के लिये कितनी बड़ी आशातना करके कितने शास्त्रोंके पाठोंको उत्यापन किये है तो फिर इन तीनों महाशयोंमें अनन्त संसारका हेतु रूप मिथ्यात्वके सिवाय सम्यक्त्वका लेश मात्र भी कैसे सम्भव होगा क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी आशातना करने वाला तथा आज्ञा न मानने वाला और उलटा उन्ही महात्माओंके वचनोंका उत्यापन करने वालाको जैन शास्त्रोंके जानकार बुद्धिजन पुरुष सम्यक्त्वी नही समझ सकते हैं इसलिये अब पाठक वर्ग पक्षपातका दृष्टिरागको छोड़कर और श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञानुसार सत्य बातके ग्रहण करनेकी इच्छा रखकर उपरकी वार्ताको अच्छी तरहसें पढ़के सत्यासत्यका निर्णय करके असत्यको छोड़ो और सत्यको ग्रहण करो यही मोक्षाभिलाषि भवनिरु पुरुषोंसे मेरा कहना है और प्रथम श्रीधर्मसगरजीने श्रीकल्पकिरणावलीवृत्तिमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५० ] तथा दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिका वत्तिमें और तीसरे श्रीविनयविजयजीने श्रीसुखबोधिकावृत्ति में इन तीनों महाशयोंने श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठके विरुद्धार्थ में उत्सूत्रभाषणरूप अपने हठवादके कदाग्रहको जमानेके लिये जो जो बाते लिखी है उन बातोंको श्रीतपगच्छके वर्तमानिक मुनिजनादि गांम गांममें हर वर्ष पर्युषणामें भोले जीवोंको सुनाते हैं जिससे आत्मसाधनका धर्मके बदले जिनाजा विरुद्ध मिथ्यात्व की श्रद्धा गिरके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घन करके वड़ी आशातना करते हुए दुलभ बोधिका साधन करनेके कारणमें पड़ते हैं इस विषयके सम्बन्धी प्रथम श्रीधर्मसागरजीने वही धूर्ताई करके श्रीतपगच्छमें पर्युषणा संबन्धी अधिकमासको निषेध करने के लिये श्रीकल्पकिरणावली वत्तिमें प्रथमही मिथ्यात्वको निव लगाई है इस बातका खुलासा [ आठो ही महाशयोंके उत्सूत्र भाषणके लेखोंकी समीक्षा हुवे बाद ] अन्तमें विस्तारपूर्वक लिखुगा और इन तीनों महाशयोंने इस तरहसें मायावृत्तिका लेख लिखा है कि जिसमें भोले जीव तो फसे उसमें कोई आश्चर्य नही है परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् होते भी फस गये और उन्होंकी तरह श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातनाका कारणरूप और पूर्वापर विरोधि अधिक मासका निषेध आपभी आगेवान होकर कराया है इसलिये अब इन्होंके लेखकी भी समीक्षा आगे करता हूं॥ इति तीनों महाशयों के नामकी संक्षिप्त समीक्षा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५१ ] अब आगे चौथे महाशय न्यायांभोनिषिजी श्रीआत्मारामजीनें, जैन सिद्धांतसमाचारी, नामा पुस्तक मेamera न्धी लेख लिखाया है जिसकी समीक्षा करके दिखाता हुं ;जिसमें प्रथम श्रीखरतरगच्छके श्रावक रायबहादुर मायसिंहजी मेघराजजी कोठारी श्रीमुर्शिदाबाद अजीमगञ्ज निवासीकी तरफसे, शुद्धसमाचारी, नामा पुस्तक छपके प्रसिद्ध हुई थी, जिसमें श्रीतीर्थकर गणधर,चौदहपूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके अनेक शास्त्रोंके पाठों करके सहित और युक्ति पूर्वक देश कालानुसार श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञा मुजब अनेक सत्य बातों को प्रगट किवी थी, जिसको पढने से श्रीन्यायांभोनिधिजी तथा उन्होंके सम्प्रदायवाले मुनिजन और उन्होंके दृष्टिरागी श्रावकजन समुदाय सत्यबातको ग्रहण तो न कर सके परन्तु अंतर मिथ्यात्व और द्वेषबुद्धि के कारणसे उसका खण्डन करने के लिये अनेक शाखोंके आगे पीछे के पाठोंको छोड़कर शास्त्रकार महाराज विरुद्धार्थ में उलटा संबंध लाकर अधरे अधूरे पाठ लिखके शुद्धसमाचारी कारकी सत्य बातोंका खण्डन किया और अपनी मिथ्या वातोंको उत्सूत्र भाषणरूप स्थापन किवी जिसके सब बातोंकी समालोचनारूप समीक्षा करके उसमें शास्त्रोंके सम्पूर्ण सम्बन्धके सब पाठ तथा शास्त्रकार महाराजके अभिप्रायः सहित और युत्ति पूर्वक भव्य जीवोंके उपगारके लिये इस जगह लिखके न्यायांभोनिघिजीके न्यायान्यायका विचारको प्रगट करना चाहुं तो जसर करके अनुमान ६०० अथवा ७०० पृष्ठका वहा भारीएक ग्रन्थ बन जावे परन्तु इस जगह विस्तारके कारणसें और हमारे विहारका समय नजिक आनेके सबबसें सबन www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५ । लिखते थोडासा नमुनारूप पर्युषणाके सम्बन्धी लेखकी समीक्षा करके लिख दिखाता हुं-जिप्तमें पहिले जो किशुद्ध समाचारी पुस्तकके बनाने वालेने पर्युषणा सम्बन्धी लेख लिखा है उसीको इस जगह लिखके फिर उसीका खण्डन जैनसिद्धान्तसमाचारी में न्यायांभोनिधिजीने कराया है उसीको लिख दिखाकर उसपर मेरी समीक्षा को लिखुङ्गा सो आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको दृष्टिरागका पक्षको न रखते न्याय दृष्टि से पढ़कर सत्य बातको ग्रहण करना सोही उचित हैं ;-अब शुद्धसमाचारी कारके पर्युषणा सन्बन्धी लेखका पृष्ठ १५४ पंक्ति १५ वी से पृष्ठ १६० की पंक्ति ७ वी तकका (भाषाका सुधारा सहित ) उतारा नीचे मुजब जानो ; शिष्य प्रश्नः करता है कि अपने गच्छमें जो श्रावणमास बड़े तो दूसरे श्रावण शुदीमें और भाद्रपद बढ़े तो प्रथम भाद्रव शुदीमें, आषाढ़ चौमासीसें, ५० में दिनही पयुषणा करना, परन्तु ८० अशीमें दिन नहीं करना ऐसा कोई सिद्धान्तोंमें प्रमाण हैं। उत्तर-श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजने अपनी १९ मी समाचारीके बिषे कहा है ( तथाहि ) सावणे भवए वा, अहिग मासे चाउम्मासीओ॥ पसासइमेदिणे, पज्जोसवणा कायवा न असीमे इति ॥ भावार्थः श्रावण और भाद्रपद मास, अधिक हो तो आषाढ़ चौमासीकी चतुर्दशीसें पचाश दिने पर्युषणा करना परन्तु अशीमें दिन न करना । प्रश्नः-जो अधिकमास होनेसे अशीमे दिन पर्युषणा सांवत्सरिक पर्व करते हैं तिसका पक्षको किसीने कोई ग्रन्थमें दूषित भी किया है वा नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ ] उत्तर-श्रीजिनवल्लभसूरिजी कृत संघपट्टे की श्रीजिनपतिसूरीजी कृत वृहदत्तिमें ८० दिने पर्युषणा करने वालोंके पक्षको जिन वचन बाधाकारी कहा है सोई काव्य लिखते हैं यथा-वृद्धौ लोक दिशा नभस्य नक्षसोः, सत्यां श्रुतोक्तं दिन। पञ्चासं परिहत्य ही शुचिभयात्, पश्चाच्चतुर्मासकात् ॥ तत्राशीतितमे कथं विदधते, मूढामहं वार्षिकं ॥ कुग्रहाधिगणथ्य जैन वचसो, बाधा मुनि व्यंसकाः ॥१॥ भावार्थ:--लौकिक रीतिसें श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होता है जब शास्त्रोंमें आषाढ़ चतुर्मासीसें पचास दिने पर्युषणापर्व करने का कहा है जिप्तको छोड़कर मूढ़ लोग अपना कदाग्रह से ८० दिने क्यों करते हैं क्योंकि ८० दिने पर्युषणा करने से जिन वचनको बाधा आती है याने शास्त्र विरुद्ध होता है जिसको नही गिनते हैं इस लिये ८० दिने पर्युषणा करनेवाले लिङ्गपारी चैत्यवासी हठग्राही मुनिजन मध्ये ठग धूतारे हैं। प्रश्न:-कैसे तिसका पक्ष जिन वचन बाधाकारी है। उत्तर-श्रवण करो, प्रथम तो श्रावण और भाद्रव मासकी जैन सिद्धान्त की अपेक्षायें वृद्धिका ही अभाव है केवल पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी और इस समयमें लौकिक टिप्पणाके अनुसारे हरेक मास वृद्धि होने से श्रावण और भाद्रपद मासकी भी वृद्धि होती है तब उनोकी वृद्धि होनेसे भी दशपञ्चके अर्थात् आषाढ़ चौमासीसें पचास दिने ही पर्युषणा करना सिद्ध होता है। सोई श्रीमान् चौदह पूर्वधारी श्रीभद्रबाहुस्वामीजी श्रीकल्प सूत्रके विषे कहते हैं। यथा-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५४ ] महावीर वासाणं सवीसइ राइमासे वइकन्ते वासावास पज्जोसवेद। भावार्थ:-आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन अधिक, एक मास अर्थात् ५० दिन जानेसे, श्रीमहावीर स्वामी पर्युषणा करे। इसी तरहसे वृहत् कल्पचूर्णिके विषे, दशपञ्चके पर्युषणा करना कहा है। यथा-आसाढ चउमासे पडिकन्ते, पंचेहिं पंचेहिं दिवसेहिं गएहिं, जत्य २ वासजोग्गं खेत पडिपुन्न । तत्य २ पज्जोसवेयव । जाव सवीसह राइमासो इत्यादि। ____ भावार्थ:--आषाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद पांच पांच दिन व्यतीत करते जहां जहां वर्षापास योग्य स्थान प्राप्त होय । वहां वहां पर्युषणा करें, यावत् दशपञ्चक एक मास और वीश दिन तक पर्युषणा करें। और दशमा पंचकमें अर्थात् पचासमें दिन तो योग्यक्षेत्र नहीं मिले तो वृक्षके नीचे भी रहकर पर्युषणा करें, इसी तरह श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र तथा कृत्तिके विषे ७०वे समवायाङ्गमें कहा है। तथाहि । समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राइमासे बहकन्ते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सैसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ । भावार्थ:-श्रमण भगवन् श्रीमहावीर स्वामीजी वर्षाकालके एकमास और वीश दिन गए बाद पर्युषणा करें। इसलिये पचास दिने करके ही पर्युषणा करना अवश्य है और पीछाडी 90 दिन कहे सो मास वृद्धि के अभावसे न कि मासवृद्धि होते भी। और ऐसा भी न कहना कि मासवद्धि होने से अधिक मास गिनतीमें न आता है क्योंकि वहत् कल्पभाष्य तथा चर्णिके विषे, अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५५ ] मासकी गिनती प्रमाण किवी है। और ऐसा भी न कहना कि ज्योतिषादिक ग्रन्थों में प्रतिष्ठादिक शुभकार्य निषेध किया है तो पर्युषणा पर्व कैसे हुवें सो तो नार चन्द्रादिक ज्योतिष ग्रन्थों में, लम, दीक्षा, स्थापना, प्रतिष्ठादिकार्य कितनेही कारणों से निषेध किये हैं नार चन्द्र द्वितीय प्रकरणे यथा ॥ रविक्षेत्र गतेजीवे, जीवक्षेत्र गते रवौ । दिक्षा स्थापनांचापि, प्रतिष्ठां च न कारयेत् ॥१॥ इसवास्ते अधिक मासमें पर्युषणा करनेका निषेध किसी जगह भी देखने में नही आता है। इसी कारण से पूर्वोक्त प्रमाणोंसें श्रावण मासकी वृद्धि होनेसे दूसरे श्रावण शुदी ४ कों और भाद्रव मासकी वृद्धि होने से पहिले भाद्रव शुदी ४ चौथकों पर्युषणापर्व ५० पचास दिने करना सिद्ध होता है परन्तु अशीमें दिने नहीं। एस्थल अति गम्भीरार्थका है मैंने तो पूर्वगीतार्थ प्रतिपादित सिद्धान्ताक्षरों करके और युक्ति करके लिखा है इस उपरान्त विशेष तत्व केवली महाराज जानें, जो ज्ञानी भाव देखा है, सो सच्चा है और सर्व असत्य है। मेरे इसमें कोई तरहका हठवाद नहीं, इति श्रावण और भाद्रपद वढ़ते पचास दिने पर्युषणा कर. णाधिकारः ॥-- अब पाठकवर्ग उपरका लेख शुद्धसमाचारी प्रकाशनामा प्रन्थका पढके विचार करोकी लेखक पुरुषनें कैसी सरलरीतिसे लिखा है और अन्तमें किसी गच्छवालेकों दूषित न ठहराते, (विशेष तत्त्व केवली महाराज जानें जो ज्ञानी भाव देखा है सो सच्चा है और सर्व असत्य है मेरे इसमें कोई तरहका हठवाद नही है) ऐसा लिखने से लेखक पुरुष पं० प्र० यतिजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [ १५६ । श्रीरामचन्द्रजी न्याययुक्त निष्पक्षपाती भवभिरू थे सो तो पाठकवर्ग भी विशेष विचार शकते हैं और उपरके लेखमें श्रीसङ्घपटक वृहत् वृत्तिका जो श्लोक लिखा हैं सो श्रीतपगच्छवालोंके लिये वृत्तिकार महाराजने नहीं लिखा था, तथापि श्रीतपगच्छवालोंके लिये उपरोक्त लोक समझते है उन्होंके समझ में फेर है क्योंकि श्रीसङ्घपट्टक की वृहद्वृत्ति सम्वत् १२५० के लगभग बनी थी उसी वख्त तपगच्छही नहीं हुवा था क्योंकि श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी महाराजसें सम्वत् १२८५ वर्षे तपगच्छ हुवा है और श्रीतप. गच्छके पूर्वाचार्य जितने हुवे है सो सबीही अधिक मासको गिनतीमें मान्य करनेवाले तथा ५० दिने पर्युषणा करनेवाले थे इसलिये उपरका लोक श्रीतपगच्छवालोंके लिये नहीं हैं किन्तु उस समयमें कदाग्रहीशिथिलाचारी उत्सत्रभाषक चैत्यवाशी बहुत थे वे लोग शास्त्रोंके प्रमाण बिनाभी ८० दिने पर्युषणा करते थे और भी श्रीचन्द्रपन्नति श्रीसूर्यपन्नति श्री जम्बूद्वीपपन्नति श्रीसमवायाङ्गजी वगैरह अनेक सूत्रवृत्ति धूरादि शास्त्रानुसार और अन्यमतके भी ज्योतिष मुजब वे चैत्यवाशीजन प्रायःकरके ज्योतिषशास्त्रोंके विशेष जान कार थे, इसलिये अधिक मासकी उत्पत्तिका कारण कार्यादिकको जानते हुये अधिक मासको अङ्गीकार करनेवाले थे तथापि मिथ्यात्वरूप अज्ञानदशाके हठवादसे लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण होतेभी भाद्रपदमें पर्युषणा चैत्यवाशी लोग करते थे जिससे ८० दिन होते थे उन्होंके लिये उपरका लोक लिखा गया है नतु कि श्रीतपगच्छवालोंके लिये। . अब उपरोक्त शुद्ध समाचारीप्रकाशका लेखपर जो न्यायां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५७ ] भोनिधिजीनें जैनसिद्धान्त समाचारीमें उसीका खण्डन कराया है उसीको लिखके दिखाकर उसी के साथसाथमें मेंभी समीक्षा न्यायांभोनिधिजीके नामसे करता हूं जिसका कारण पृष्ठ ६६६६८ में इसी ही पुस्तक में छपा हैं इसलिये न्यायां भोनिधिजीके नामसे ही समीक्षा करना मूजे उचित है सो करता हु - जैनसिद्धांत समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ८७ की पंक्ति २२ वीसें पृष्ठ की पंक्ति १० वी तक का लेख नीचे मुजब जानो -- शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५४ पंक्ति १४ में लिखा हैं कि [श्रावण मास बढ़े तो दूसरे श्रावणशुदी में और भाद्रव मास वढ़े तो प्रथम भाद्रव शुदी में अषाढ चौमासी में ५० में दिन ही पर्युषणा करनी परन्तु अशीमें दिन नही करनी, ऐसा लिखके पृष्ठ १५५ में अपनेही गच्छके श्रीजिनप्रति सूरिजी की रचित समाचारीका प्रमाण दिया है आगे इसी एडके पंक्ति११ में लिखा है कि तिसका पक्षको कोई ने कोई पन्थ में दूषित भी किया है वा नहीं, इसके उत्तर में श्रीजिनवल्लभ सूरिजी के पह की बडी टीकाकी शाक्षी दिवी हैं-- ( इस तरहका लेख शुद्ध समाचारी प्रकाशकी पुस्तक सम्बन्धी लिखके न्यायाम्भोनिधिजी अब उपरके लेखका लिखते हैं ) उत्तर-- हे मित्र ! इस लेख से आपकी सिद्धि कभी न होगी क्योंकि तुमने अपने गच्छका मनन दिखाके अपनेही गच्छका प्रमाण पाठ दिखाया हैं यह तो ऐसा हुवा कि किसी लड़ केने कहा कि मेरी माता सति है शाक्षी कौन कि मेरा भाई इस बास्त ग्रह आपका लेख प्रमाणिक नही हो सकता है ।] अब हम उपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि हे सज्जन पुरुषों जैसे शुद्ध समाचारी कारमें अपना कार्य्यसिद्ध करनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५८ ] लिये अपने ही गच्छके पूर्वाचार्यजी श्रीजिनपति सरिजी कत ग्रन्थका पाठ दिखाया है उसको श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अप्रमाण ठहराते हैं इस न्यायानुसार तो श्रीन्यायाम्भो निधिजीने अपना कार्यसिद्ध करने के लिये अपनेही गच्छके पूर्वाचार्यों के पाठ दिये हैं वह सर्व पाठ अप्रमाण ठहरने से श्रीन्यायाम्भोनिधिजीको अपने पूर्वाचार्योंका पाठ लिख दिखाना भी सर्व प्रथा होगया तो फिर जैनसिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ३१ वा में श्रीधर्मघोष सूरिजी कृत श्रीसङ्घा चार भाष्यत्तिका पाठ, पृष्ठ ३३ में श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत श्रीधर्मरत्न प्रकरण वृत्तिका पाठ, पृष्ठ ३३॥ ४६ । ५२ । ५९ । ६३, में श्रीरत्नशेखरसूरिजीकृत श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र कृत्तिका पाठ, पृष्ठ ३५ में श्रीजयचन्द्रसूरिजी कृत श्रीप्रतिक्रमणगर्भहेतु नामा ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ४१ में श्रीविजयसेन सरिजीका प्रश्नोत्तर ग्रन्थका पाठ, और पृष्ठ ५१ । ६१ में श्री कुलमण्डन सूरिजी कृत विचारामृतसंग्रहका पाठ, इत्यादि अनेक जगह ठाम ठाम अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योका प्रमाण श्रीन्यायाम्भोनिधिजीने लिखके वृथा क्यों अन्याय किया होगा सो पाठकवर्ग भी विचार लेना ॥ अब दूसरा सुनो-श्रीन्यायाम्भोनिधिजी जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ १२ में श्रीखरतरगच्छके श्रीउपाध्यायजी श्रीक्षमाकल्याणजी गणिजी कृत श्रीगणधरसार्द्धशतक प्रश्नोत्तर ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ३॥ ३६ में श्रीखरतरगच्छके श्रीअभयदेव सूरिजीकृत श्रीभगवतीजी वृत्तिका और समाचारी ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ७२ । ८९में श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनदत्त मूरिजीका पाठ, पृष्ठ ७२ में श्रीखास श्रीजिनपति सूरिजीके शिष्य श्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ १५९ ] सुमतिगणिजीका पाठ, पृष्ठ ८१ में श्रीउपाध्यायजी श्रीजय सागरजीका पाठ, पृष्ठ ८२।८६ । ९१में श्रीजिनप्रभ सूरिजीका पाठ, और पृष्ठ ८४ में श्रीजिनवम्लभ सूरिजीका पाठ इसी तरहसे शुद्ध समाचारी कारके पूर्वाचार्य श्रीखरतरगच्छ के प्रभाविक पुरुषोंका पाठ श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये तो खास मान्य करके दिखाते हैं और शुद्ध समाचारी कारने अपना कार्यसिद्ध करनेके लिये अपनेही पूर्वजोंका ( शास्त्रानुसार युक्ति सहित न्यायपूर्वक सत्य ) पाठ लिख दिखाये उसीको श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अप्रमाणिक ठहराते हैं यह तो प्रत्यक्ष बड़े अन्यायका रस्ता श्री. न्यायाम्भोनिधिजीने ग्रहण किया है सो विशेष पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना। ___ अब तीसरा और भी सुनो श्रीआत्मारामजीने खास ( चतुर्थ स्तुतिनिर्णयः) नामा अन्य तीन स्तुति वालोंका खण्डन करनेके लिये बनाया है सो छपा हुवा प्रसिद्ध है उसीके पृष्ठ ८३८८५ में श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनप्रभसूरीजी कृत श्रीविधिप्रपाग्रन्यका पाठ और उसीकी भाषा पृष्ठ ८५८६ ८७८८ के आदि तक लिखके पुनः पृष्ट ८८ के मध्य में लिखते हैं कि-(इस विधिमें पडिक्कमणेकी आदिमें चारथुइसे चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुत देवता अरु क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग अरु इन दोनोकी थुइ करनी कही है-इस लेखको सम्यक्त्वधारी मानते हैं और मानतेथे फेर मानेंगे भी परन्तु मिथ्या दृष्टि तो कभी नही मानेगा इस वास्ते सम्यक् दृष्टि जीवको तीन थुइका कदाग्रह अवश्य छोड़ देना योग्य है ) इस तरहसे श्रीआत्मारामजी श्रीखरतरगच्छके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिमा सरिजीके लेखको न मानने वालेको मिथ्या दृष्टि ठहराते हैं तो इस जगह पाठकवर्ग विचार करो कि श्रीजिनप्रभसरिजीके ही खास परमपूज्य और पूर्वाचार्य श्रीजिनपति सरिजीके सत्य लेखको न मानने वाले तो स्वयं मिथ्या दृष्टि सिद्ध होगये फिर श्रीआत्मारामजी न्यायांभो. निधिजी न्यायके समुद्र हो करके अपने स्वहस्थे जिन्हीं के सन्तानिये श्रीजिनप्रभसरिजीके लेखको न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि लिखते है और श्रीजिनप्रभसरिजीके ही पूर्वाचार्यजी श्रीजिनपति सूरिजीके सत्य लेखको अप्रमाण मान्यके खास आपही मिथ्या दृष्टि बनते है । हा अतिखेद ! इस बातको पाठकवर्ग निष्पक्षपातसें सत्य बातके ग्राही होकर अच्छी तरहसे विचार लेना ;___ अब चौथा और भी सुनो श्रीआत्मारामजी इन्ही चतुर्थस्तुतिनिर्णयः पुस्तकके पृष्ठ १०१ । १०२ । १०३ में श्री वृहत्खरतरगच्छके श्रीजिनपतिसूरिजी कृत समाचारीका पाठ लिखके उसीको श्रीजिनप्रभसूरिजी कृतं पाठकी तरह प्रमाणिक मानते हैं और श्रीजिनपतिसरिजी कृत पाठकी श्रीजिनप्रभसरिजी कृत पाठके साथ भलामण देते है जिसमें श्रीजिनपतिसूरिजीका पाठको भी न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि सिद्ध करते है। और फिर आपही श्रीजिनपतिसूरिजीकृत सत्य पाठको जैन सिद्धान्त समाचारीमें अप्रमाण ठहराकर नही मानते है जिससे (उपरोक्त न्यायानुसार करके ) मिथ्या दूष्टि बननेका कुछ भी भय न करते कितने अन्यायके रस्ते चलते है सो भी आत्मार्थी सज्जन पुरुष विचार लेना ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६१ ] .. अब पांचमा और भी सुन लिजिये मोआत्मारामतीने तत्वनिर्णय प्रासादग्रन्य बनाया है सो छपा हुवा प्रसिद्ध हैं जिसके पृष्ठ १४५ में लिखा है कि[अब पक्षपात न होने में हेतु कहते हैपक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥३८॥ व्याख्या-मेरा कुछ श्रीमहावीरजीके विषे पक्षपात नही है कि जो कुछ महावीरजीने कहा है सोइ मैंने मानना है अन्यका कहा नही ; और कपिलादि मताधिपोंसे द्वेष नही है कि कपिलादिकोंका नही मानना किन्तु जिसका बचन शास्त्र युक्तिमत् अर्थात् युक्तिसें विरुद्ध नहीं है तिसका पचन ग्रहण करनेका मेरा निश्चय है ॥ ३८ ॥] और इन्ही तत्वनिर्णय प्रासादकी उपोद्घात श्रीवल्लभ विजयजीने बनाई है जिसके पृष्ठ ३१ वे में लिखा है कि ( पक्षपात करना यह बुद्धिका फल नही है परन्तु तत्त्वका विचार करना यह बुद्धिका फल है “बुद्धः फलं तत्त्व विधारणं चेति वचनात् और तत्वावधार करके भी पक्षपातको छोड़ कर जो यथार्थ तत्वका भान होवे उसको अङ्गीकार करना चाहिये किन्तु यक्षपात करके अतत्त्वकाही आग्रह नही करना चाहिये यतः-आगमेन च युक्त्या च, योऽर्थः सममिगम्यते । परिव हेमवद्ग्राह्यः, पक्षपाताग्रहेण किम्. भावार्थः आगम (शास्त्र) और युक्ति के द्वारा जो अर्थ प्राप्त होवे उसको सोमेकं समान परीक्षा करके ग्रहण करना चाहि पक्षमालके आग्रह (8) क्या है )- ...... ... अब पाठकवर्ग श्रीभारमारामजीके और श्रीवनमः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयजीके उपरोक्त लेखसे पक्षपात रहित विचारो किजिस पुरुषका वचन शास्त्र और युक्ति सहित होवे उसको सोनेके समान जानके सज्जन पुरुषोंको ग्रहण करना ही उचित है, और शास्त्र तथा युक्ति रहित वचनको हठवादसे ग्रहण करना सो निर्बुद्धि पुरुषोंका लक्षण है ऐसा दोनोंका कहना है तो इस पर मेरेको बड़ेही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि श्रीआत्मारामजी न्यायांभोनिधि नाम धारण करते न्याय और बुद्धिके समुद्र होते भी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञामुजब शास्त्रानुसार युक्ति करके सहित और सत्यवचन शुद्ध समाचारी कारने श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजका लिखा था सो ग्रहण करने योग्य था तथापि उनको गच्छके पक्षपातसें वृथा क्यों निषेध किया होगा क्योंकि श्रीजिनपतिमूरिजीका (श्रावण और भाद्रव मास अधिक होवे तो भी पचासदिने पर्युषणा करना परन्तु ८० में दिन नही करना इतने पर भी ८० दिने पर्युषणा करते है सो शास्त्रविरुद्ध है) यह वाक्य श्रीशुद्धसमाचारी ग्रन्थका और श्रीसंघपट्टक वृहद्वृत्तिका लिखा है सो शास्त्रानुसार सत्य है इसी ही बातका खुलासा इन्ही पुस्तकमें अनेक जगह ठामठाम शास्त्रोंके प्रमाण सहित युक्तिपूर्वक विस्तारसे छप गया है इसलिये उपरकी बातका निषेध करनाही नही बनता है शुद्ध समाचारीकारने श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज कृत ग्रन्यानुसार ५० दिने पर्युषणा ठहराई और ८० दिन करने वालोंको जिनाज्ञाके बाधक कहे है इसको श्रीआत्मारामजीने अप्रमाण ठहराया तब इसका तात्पर्य यह निकला कि ५० दिने पर्युपसा करनेवालोंकों दूषित ठहराये और ८० दिने पर्युषणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६३ ] करनेवालों को मि षण ठहराये (हा अति खेदः) इससे विशेष अन्याय दूसरा श्री न्यायाम्भोनिधिजीका कौनसा होगा, किंसूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, निर्युक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्य्य सबी उत्तम पुरुष ठामठाम कहते हैं कि पर्युषणा पचास दिने करना कल्पे परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको भी उल्लङ्घन करके एकावनमें दिनकी करना न कल्पे इसलिये योग्यक्षेत्र न मिले तो जङ्गल में वृक्षनीचे भी पर्युषणा करलेना इतने पर भी कोई पचास दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन करके एकावनमें दिन पर्युषणा करे तो श्री जिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका लोपी होवें यह बात तो प्रायः जैन में प्रसिद्ध भी है सो भी मासवृद्धिके अभावकी जैनपञ्चाङ्ग की रीति वर्त्तनेकी थी परन्तु अब लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनी सोभी जिनाज्ञा मुजब है इसीही कारणसें श्रीजिनपतिसरिजीनें मासवृद्धि हो तोभी पचास दिने पर्युषणा कर लेनेका लिखा है सो सत्य है । और एकावन दिने भी पर्युषणा करने वाला जिनाज्ञाका लोपी होता है तो फिर ८० दिने पर्युषणा करने वाले क्या जिनाज्ञाके आराधक बन सकते हैं सो तो कदापि नही अर्थात् ८० दिने पर्युषणा करने वाले सर्वथा निश्चय करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञाके लोपी है इसलिये ८० दिने पर्युषणा करने वालों को श्रीजनपतिसूरिजीनें जिनाज्ञा के विराधक ठहराए सो भी सत्य है इसलिये श्रीजिनपतिसूरीजी महाराजका दोनु वाक्य निषेध नही हो सकते हैं इतने परक्षी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६४ ] भोनिधिजी निषेध करते हैं सो निःकेवल शास्त्र - विरुद्ध उत्सूत्र भाषण करके भोले जीवोंको कदाग्रहका रस्ता दिखाया हैं । आगे छठा और भी सुनिये शुद्धसमाचारी कारके सत्य वाक्यको निषेध करनेके लिये अपना पक्षपातके जोरसें श्री आत्मारामजीनें (तुमने अपने गच्छका मनन दिखाके अपनेही गच्छका प्रमाण पाठ दिखाया है यह तो ऐसा “हुवा कि किसी लड़केनें कहा कि मेरी माता सती है साक्षी कौन कि मेरा भाई इसवास्ते यह आपका लेख प्रमाणिक नही हो सकता है ) यह वाक्य लिखे हैं इसकी पांच तरहसें तो समीक्षा उपरमें होगई है और भी छठी तरहसें अब सुनाता हुं, कि - उपरोक्त लेखमें श्रीआत्मारामजीनें शुद्ध समाचारीकारका उपहास करनेके लिये विद्वत्ताके अभिमानसें एक लड़केका दृष्टान्त दिखाया है परन्तु शुद्ध समाचारी कारके पूर्वाचार्य श्रीजिनपतिम रिजीनें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार शास्त्रोंकी मर्यादा पूर्वक सत्य वाक्य लिखा हैं इसलिये लड़केका दृष्टान्त शुद्ध समाचारी कारके उपर किञ्चिन्मात्र भी नही घट सकता है तथापि श्रीआत्मारामजीनें लिखा है सो निःकेवल वर्त्तमानिक गच्छके पक्षपातसें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी अवज्ञा कारक है, और जैसे ग्रीष्म ऋतुमें मध्याह्नका समयके सूर्य्यको किसीने पत्थर फेंका तो भी सूर्य्य पर न गिरते पीछा लोट - कर फेंकने वाले शिर परही आनके गिर सकता है तैसेही श्रीआत्मारामजीका न्याय हुवा अर्थात् श्रीआत्मारामजीनें लड़केका दृष्टान्त शुद्ध समाचारीकार पर दिया था परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६५ ] शुद्धसमाचारी कारके वचन जिनामा मुजब सत्य होनेसें । गिर सका परन्तु वह लड़केका दृष्टान्त पीछाही फिरके श्री आत्मारामजी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपरही भाकर गिरता है क्योंकि खास श्रीआत्मारामजीनेही जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें अपनाही कार्यसिद्ध करने के लिये अपनाही मनन दिखाकर और अपनेही गच्छके अर्वाचीन (घोड़े कालके) पाठ दिखाये हैं सो भी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आनाके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण रूप हैं और खास श्री. तपगच्छकेही पूर्वाचार्योंके विरुद्धार्थ में अन्यकार महाराजका अभिप्रायःके विरुद्ध होकरके आगे पीछेका सम्बन्धको छोड़ कर अधूरे अधूरे पाठ लिखके फिर अर्थ भी उलटे उलटे किये है (इसका नमुना मात्र खुलासा संक्षिप्तसें आगे करनेमें आवेगा) इसलिये उपरोक्त लड़केका दृष्टान्त श्री आत्मारामनी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपर अवश्य ही बरोबर घटता है रसधास्त श्रीआत्मारामजीने शास्त्रकारोंके विरुद्धार्धमें जो जो बाते लिखी है सो तो सर्वही आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य होनेसे प्रमाणिक नही हो सकती है ;-और सातमी तरहसे आगे (श्रीवविजय जीके नामसे समीक्षा होगा उसमें विस्तारतें लिखने में आवेगा) वहांसे समझ लेना ;-अब आनेकी भी समीक्षा फरते हैं बैन सिद्वान्त समाधारीक पृष्ठ २८ पंक्ति११ वी से पृष्ठ ८६ की पंक्ति १९ बी तकका लेख नीचे मुजब जानो [और पष्ठ १५६-१५७ में लिखा है, कि-"श्रावण और भाद्रव भासकी जैन सिद्धान्तको अपेक्षायें वृद्धिकाही अभाव है। केवल पौष आषाढ़ की रद्धि होती थी, और इस समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६६ ] में लौकिक टिप्पणाके अनुसार हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसें श्रावण और भाद्रवकी भी वृद्धि होती है ॥ तिसमें उनकी वृद्धि होने से भी दशपञ्चक व्यवस्थाके विषे, आषाढ़ चौमासी से पचाश दिनेही पर्युषणा करना सिद्ध होता है" ॥ आगे इसीकी सिद्धिके वास्ते कल्प सूत्रका ओर विशेष कल्प भाष्य चूर्णिका पाठ दिखाया है, कि-"जाव सवीसह राइमासो" इत्यादि (इतना लेख शुद्धसमाचारी प्रकाशकी पुस्तक सम्बन्धी अधूरा लिखके इसका न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं उत्तर ) हे मित्र! मासवृद्धिका जो जैन टिप्पणादिकका विशेष दिखाया है, यह तो अज्ञजनोंको केवल अरमानेके वास्ते है क्योंकि यद्यपि जैन टिप्पणाके अनुसार श्रावण और भाद्रव मासकी वृद्धिका अभाव है तो भी पौष और आषाढ़मास की तो वृद्धि होती थी, अब हम आपको पूछते है कि-जैन टिप्पणाके अनुसार जब पौष अथवा आषाढमासकी वृद्धि हुई तब संवछरीको अप्भुडिओ सूत्रके पाठमें क्या 'तराणं मासाणं छवीसपखाणं' वैसा पाठ कहोगें ? क्योंकि तिस वर्ष में तेरह मासतो अवश्य होजायगें। और जैनसिद्धान्तो में तो किसी भी स्थानमें वैसा नही लिखा है कि अधिक मास होवे तब तेरहमास और छवीस परुख संवछरीकों कहना। तो अब आपका प्रयास क्या काम आया परन्तु यह तो निःशङ्कित मालम होता है कि-जैनटिप्पणाके अनुसारसे भी अधिक मासकों कालचूलामें ही गिनना पड़ेगा । पूर्वपक्ष-कालचूला क्या होती है ? उत्तर हे परीक्षक! आगे दिखावेंगे और दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो। सो तो कल्पव्यवच्छेद हुवा है, यह सर्वजन प्रसिद्ध है। और लौकिक टिप्पणाके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६७ ] अनुसारसें हरेक वर्ष में आषाढ़ शुदि चतुर्दशीसें लेके भाद्रव शुदि ४ और तुमारे कहनेसें दूसरे श्रावण शुदि ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगें । क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४० दिन आजायगें और किसी वर्ष में ४८ दिन भी आजायगे तब क्या आपकों जिन आज्ञा भङ्गका दूषण नही होगा ? ] अब उपरके न्यायांभोनिधिजीके लेखकी समीक्षा करके आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसें दिखता हुं, कि - हे भव्यजीवों न्यायांभोनिधिजी के उपरका लेखकोमें देखता हुं तो मेरेको aड़ाही खेदके साथ बहुत आश्चर्य उत्पन्न होता है : क्योंकि श्री न्यायान्भोनिधिजीनें तो शुद्धसमाचारी कारके ववनको खण्डन करना विचारके उपरका लेख लिखा था परन्तु शुद्ध समाचारी कारके सत्यवचन होनेसें खण्डन न हो सके, परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी के लिखे वाक्य में अवश्यही श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी और अपने ही गच्छके पूर्वाचा की अवज्ञा (आशातना ) का कारण होनेसें न्यायाम्भोनिधिजी को लिखना सर्वथा उचित नही था क्योंकि देखो शुद्धसमाचारी की पुस्तक के पृष्ठ १५६ के अन्तमें और पृष्ठ १५७ के आदि में ऐसा लिखा था कि ( श्रावण और भाद्रपदमास की जैन सिद्धान्त की अपेक्षायें बृद्धिका ही अभाव हे केवल पौष और आषाढमासकी ही वृद्धि होती थी और इस समय में तो लौकिक टीप्पणाके अनुसार हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे श्रावण और भाद्रपद की वृद्धि होती है ) इस शुद्ध समाचारी का लेखको खण्डन करने के लिये म्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं कि ( हे मित्र मासवृद्धिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६८ ] जो जैन टिप्पणादिकका विशेष दिखाया है यह तो अन जनकों केवल भ्रमाने के वास्ते है) अब हे पाठकवर्ग सज्जन पुरुषों उपरके न्यायाम्भोनिधिजी के वाक्यको पढ़के अच्छी तरहसें विचार करो कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर केवली भगवान् और पूर्वधरादि महान् धुरन्धर प्रभाषिक पूर्वाचार्य तथा खास न्यायाम्भोनिधिजीके ही पूज्य पूर्वाचार्य सबी महाराज जैनसिद्धान्त ( शास्त्रों ) की अपेक्षायें जैम पञ्चाङ्गमें युगके मध्यमें पौष और अन्तमें आषाढ़ मासकी मर्यादा पूर्व वद्धि होती है ऐसा कहते हैं सो अनेक शास्त्रों में प्रसिद्ध है जिसमें अनुमान पचाश शास्त्रोंके पाठों की तो मुझे भी मालुम है कि जैन शास्त्रोंमें पौष और आषाढ़ की वृद्धि श्रीतीर्थङ्करादिकोने कही है इसी ही अनुसार शुद्धसमाचारी कारने भी पौष और आषाढ़ की जैन सिद्धान्तों की अपेक्षायें वृद्धि लिखी हैं जिसको न्यायाम्भोनिधिजी अज जनोंको भ्रमानेका ठहराते है सो यह तो ऐसा न्याय हुवा कि जैसे श्रीअनन्त तीर्थङ्करादि महाराज अनादिकाल हुवा उपदेश करते आये है कि । हे भव्यजीवों तुम्हारी आत्माको सुख चाहो तो द्रव्य भावतें जीवदया पालो इस वाक्यानुसार वर्तमानमें भी उपगारी पुरुष उपदेश करते है जिस उपदेशकों कोई भी जैनामास द्वेषबुद्धिवाला अजजनोंको केवल भ्रमानेका ठहरावें तो उस पुरुषने श्रीअनन्त तीर्थङ्करादि महाराजोंकी आशातना करके अनन्त संसार वृद्धिका कारण किया यह बात सर्वसज्जन पुरुष जैनशास्त्रोंके जानकार मंजूर करते है तैसे ही श्रीअनन्त तीर्थङ्करादि महाराज अनादि काल हुवा जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें पौष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६९ ] और आषाढ़ की वृद्धि कहते है सोही बात शुद्धसमाचारी कारने भी जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें लिखी है सो सत्य है इसलिये निषेध नही हो सकती है। तथापि न्यायाम्भोनिधिजी उपरकी सत्य बातकों अज्ञ जनोंको केवल भ्रमानेका ठहराते हैं हा ! हा! अतिव खेदः। उपरोक्त न्यायानुसार न्यायांभोनिधिजीने श्रीअनन्त तीर्थङ्करादिमहाराजोंकी और अपने ही पूर्वजोंकी आशातना कारक अनन्त संसार वृद्धिका कारणरूप वृथा क्योंकिया होगा इसको विशेष पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना ; तथा थोडासा और भी सुन लिजीये-शुद्ध समाचारी कारने जैन सिद्धान्तों की अपेक्षायें पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि दिखाई और लौकिक टिप्पणा की अपेक्षायें हरेक मासकी द्धि दिखाई सो सत्य है तथापि न्यायाम्भीनिधिजी.(.अजजनोंको केवल भ्रमानेका) ठहराते है तो इस लेख तो न्यायाम्भोनिधिजीने खास अपने ही पूज्य गुरुजन पूर्वाचार्यों को भी अजजनोंको भ्रमाने वाले ठहरा दिये क्योंकि जैसे उपरोक्त शुद्ध समाचारी कारमें अधिक मास सम्बन्धी लिखा है तैसे ही श्रीतपगच्छके पूर्वाचाने भी लिखा है। जब शुद्ध समाचारी कारके लेखको न्यायाम्भोनिधिजी अज्ञजनोंको भ्रमानेका ठहराते है तब तो न्याया मोनिधिजीके पूर्वाचायौंका लेख भी अशजनोंको भ्रमानेबाला दहर गया जब न्यायानिधिजीने अपने पूर्वाचाव्योंकी : आशातनाका कुछ भी भय न रख्खा तो फिर न्यायाम्भोनिधिजीको न्याययुक्त आत्मार्थी कैसें मान सकते है अपितु मही इस बातको भी पाठकवर्ग विचार लो, २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५० ] और आगे लिखा है कि ( यद्यपि जैन टिप्पणाके अनु सार श्रावण और भादव मासकी वृद्धिका अभाव है तो भी पौष और आषाढमास की तो वृद्धि होती थी अब हम आपको पूछते है कि जैन टिप्पणाके अनुसार जब पौष अथवा आषाढ़मासकी वृद्धि हुई तब संवच्छरीको अभ्भुठिओ सूत्रके पाठमें तेराणं मासाणं वीसं पखाणं वैसा पाठ कहोगें क्योंकि तिस वर्षमें तेरह मास तो अवश्य हो जायगें और जैन सिद्धान्तोंमें तो किसी भी स्थानमें वैसा नही लिखा है कि अधिक मास होवे तब तेरह मास और छवीश पक्ष संवच्छरीको कहना तो अब आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखको देखता हु तो न्यायाम्भीनिधिजीके बुद्धिकी चातुराईका वर्णन में नही कर सकता हूं क्योंकि जब शुद्ध समाचारी कारने जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें पौष और आषाढ़मासकी वृद्धि लिखी जिसको तो न्यायांभोनिधिजी ( अन जनोंको केवल भ्रमानेका ) ठहराते हैं और फिर आप भी शुद्ध समाचारीके मुजब उसी तरहसे पौष और आषाढ़मासकी वृद्धि इस जगह मंजूर करते हैं यह न्यायांभोनिधिजीके अपूर्व विद्वत्ताका नमुना है क्योंकि दूसरेकी बातका खण्डन करना और उसी बातको आप मंजूर भी करलेना ऐसा अन्याय करना आत्मार्थियों को उचित नही हैं और क्षामणाके सम्बन्धमें लिखा है सो भी जैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना प्रत्यक्ष मिथ्या लिखके भोले जीवोंको संशयमें गेरे हैं क्योंकि जब जिस संवत्सर में अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्ष होगये तथा धर्मकर्म और संसारिक सावध कार्य्य तेरह मासके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११९ ] किये जाते हैं जिससे पुण्य और पाप तेरह मासके लगते हैं तो फिर बारह मासको आलोचना करके एक मासके पुण्यकायको अनुमोदना और पापकाय्योंकी आलोचना नही करना यह तो प्रत्यक्ष अन्याय अल्पबुद्धिवाला भी कोई मंजूर नही कर सकता है और जिन्होंके ज्ञानमें एक समय मात्र भी धर्म अथवा कर्म बंधके सिवाय वृथा नही जाता है ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान्‌के शास्त्रोंमें एक मासके धर्म और कर्मका न गिनना यह तो कभी नही हो सकता है इस लिये अधिक मास होनेसें अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्षादिकी आलोचना साम्बत्सरिमें करनी जैन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक है इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी आगे समीक्षा होगा उसमें शास्त्रोंके प्रमाण सहित अच्छीतरहसे करनेमें आवेगा सो पढ़के विशेष निर्णय कर लेना और आगे लिखा है कि-अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे किसी भी स्थानमें नही लिखा हैं यह वाक्य भी मिथ्या है क्योंकि अनेक जगह अधिकमास होनेसें तेरह मास कवीश पक्षके क्षामणे लिखे हैं जिसका भी वहांही आगे निर्णय होगा ॥- और ( आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखपर तो मेरेकों इतना ही कहना उचित है कि शुद्धसमाचारी कारने तो सिर्फ अधिकमासको गिनती में सिद्ध करके पचास दिने पर्युषणा दिखानेका प्रयास किया था सो शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित होनेसें उन्हका प्रयास सफल हैं परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी हो करके अन्याय और शास्त्रोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२ } विरुद्ध ही करके अधिकमासको गिनती निषेध करनेका प्रयास करते हैं सो वड़ी हो शर्मकी बात- हे और काललासम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीनें आगे लिखा हैं उसकी समीक्षा में भी आगे करूंगा --- और ( दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो सो तो कल्पष्यवच्छेद हुवा है यह सर्वजन प्रसिद्ध है ) इन अक्षरों कोभी में देखता हूं तो न्यायांभोनिधिजीका अन्याय देखकर मूके बड़ाही आफसोस आता है क्योंकि शुद्ध समाचारी कारने जिस अभिप्रायसे लिखा था उसीको समझे बिना अन्याय मार्ग खण्डन करना न्यायांभोनिधिजीको उचित नही हैं क्योंकि शुद्धसमाचारी कारने तो इस कालमें पचास दिनेही पर्युषणा करनी चाहिये इस बातकी पुष्टिके लिये शुद्ध समाचारीके पृष्ठ १५७ । १५८ में श्रीकल्पसूत्रजीका मूलपाठ, श्रीवृइस्कल्पचूर्णिका पाठ, और श्रीसमवायाङ्गजीका पाठ, लिखके पचास दिनेही पर्युषणा दिखाई थी परन्तु दशपञ्चक लिखके कुछ पाँच पाँच दिने प्राचीन कालकी रीतिसे पर्युषणा नही लिखी थी तथापि न्यायांभोनिधिजी शुद्धसमाधारी कारके अभिप्रायके विरुतार्थमें दशपञ्चकका कल्पविच्छेदकी बात लिखके पचास दिनकी पर्युषणाको निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकेगा और आगे फिर भी लिखा है कि - ( लौकिक टिप्पणाके अनुसारसें हरेक वर्ष में आषाढ़ शुदी चतुर्दशीसें लेके भाद्रवा शुदी ४ और तुम्हारे कहने में दूसरे श्रावण शुदी ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगें क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४९ दिन आजायगें और किसी वर्ष में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HHHHHHI । १३ ] ४८ दिन भी आनायगे तब क्या आपको जिनामा भङ्गका दूषण नही होगा) इस उपरके लेखसे तो न्यायांभी निधिजीने प्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी और अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योंकी आशातना करके और सबी उत्तम पुरुषोंको दूषित ठहरानेका कार्य करके नय गर्भित व्यवहारको और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको उत्यापन करके बाही अनर्थ कर दिया है क्योंकि जैसे सूत्र, पूर्णि, भाष्य, वृत्ति, प्रकरण, चरित्रादि अनेक शास्त्रों में एक नही किन्तु सैकड़ों बाते व्यवहार नयकी अपेक्षासें श्रीतीर्थ रादि महाराज कहते हैं तैसेही शुद्ध समाचारी कारने भी व्यवहार नयसें पचास दिने पर्युषणा कही है और श्रीकल्प सूत्रजीके मूल पाठका (अन्तरा वियसै कप्पई) इस वाक्यसे पचास दिनके अन्दरमें पर्युषणा होवे तो कोई दूषण भी नही कहा है तथापि न्यायांभोनिधिजी न्यायके समुद्र होते श्री व्यवहार नयगर्भित प्रीजिनेश्वर भगवान्की व्याख्याका और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठका सत्यापनके भयका जरा भी विचार न करते विद्वत्ताके अभिमानसें और पक्षपातके जोर से ४।४ दिन होनेका दिखाकर मिथ्या दूषण लगाते हैं सो कदापि नही बनता है,-याने सर्वथा उत्सूत्र भाषणरूप है ___और भी दूसरा सुनिये-जो तिथियोंके हानी वृद्धिको गिनतीसें कोई वर्षमैं भाद्रपद शुक्ल चौथ तक ४८ दिन होनेका लिखकर न्यायाम्भोनिधिजी शुद्धसमाचारी कारको दूषित ठहराते हैं इससे मालुम होता है कि तिथियोंके हानी सद्धिकी गिनतीसें भाद्रपद शुक्ल छठ (६) के दिन पूरे पचास दिन मान्य करके न्यावाम्भोनिधिजी पर्युषणा करते होवेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७४ ] तब तो अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध है और आप चौथकाही पर्युषणा करते होवेंगे तब तो शुद्धसमाचारी कारको दूषण लगामा कृथा है इसको भी पाठकवर्ग विचार लो; और पर्युषणाके पीछाड़ी जो 90 दिन न्यायाम्भोनिधि जी रख्खना कहते हैं सो किस हिसाबसें गिनती करके रखते हैं इसका विवेक बुद्धिसे हृदयमें विचार किया होता तो शुद्ध समाचारी कारको दूषण लगानेका लिखनाही भूल जाते क्योंकि तिथियोंकी हानी वृद्धिसें किसी वर्षमें ६९ और किसी वर्षमें ६८ दिन भी होजाते हैं सो पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष न्याय दृष्टिसें विचार कर लेना और भी आगे जैन सिद्धान्तसमाचारी पुस्तकके पृष्ठ पर की पंक्ति २० वीं से पृष्ठ ८० की पंक्ति १७ वीं तक ऐसे लिखा है कि [पूर्वपक्ष, आप तो मुख सेंही बाता बनाई जाते हो परन्तु कोई सिद्धान्तके पाठसे भी उत्तर है वा मही-उत्तरहे समीक्षक दृढ़तर उत्तर देते हैं देखो कि श्रावणमास बढ़ने से दूसरे श्रावणमें और भाद्रव बढ़नेसें प्रथम भाद्रव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने ८० (अशी) दिनकी प्राप्तिके भय, अङ्गीकार किया परन्तु श्रीसमवायाङ्गजी सत्र में ऐसा पाठ है, यथा-सवीसइ राइमासे वइकते सत्तरिराइदिएहिं सैसेहिं वासावासं पज्जोसवेत्ति, भावार्थ:-जैसे आषाढ़ चौमासेके प्रतिक्रमण किये बाद एकमास और वीश दिनमें पर्युषणा करें तैसे पर्युषणाके बाद ७० सत्तर दिन क्षेत्रमें ठहरे-हे परीक्षक-अब इस पाठके विचारणेसें तुमको मास की वृद्धि हुये कार्तिक सम्बन्धी कृत्य आश्विनमासमें करना पड़ेगा और कार्तिक मासमें करोंगे तो १०० रात दिनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७५ ] प्राप्ति होनेसे सिद्धान्त विरुद्ध होगा, फिर तो ऐसा हुवा कि एक अङ्गको आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया तात्पर्य्य कि तुमने आज्ञाभङ्ग न हुवे इस वास्ते यह पक्ष अङ्गीकार किया तोभी आज्ञाभङ्गरूप दूषण तो आपके शिर परही रहा-पूर्वपक्ष-इस दूषणरूप यन्त्रमें तो आपको भी यन्त्रित होना पड़ेगा-उत्तर-हे समीक्षक यह आज्ञाभरूप दूषणका लेश भी हमको न समझना क्योंकि हम अधिक मासको कालचूला मानते हैं-] अब उपरके लेखकी समीक्षा करते है कि हे सत्यग्राही सज्जन पुरुषों उपरके लेख में न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी चतुराई प्रगट कारक और प्रत्यक्षउत्सूत्र भाषणरूप भोले जीवोंको श्रीजिनामा विरुद्ध रस्ता दिखानेके लिये अनुचित क्यों लिखा है क्योंकि प्रथमतो पूर्वपक्षमें ही [ आप तो मुलसें ही बाता बनाए जाते हो] यह अक्षर लिखे है इससे मालुम होता है कि पहिले जो जो लेख न्यायांभोनिधिजीने लिखा है सो सो शास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कल्पनासें लिखा है इसलिये न्यायांभोनिधिजीके जैसी दिलमें थी वैसीही पूर्वपक्षके अक्षरों में लिख दिखाई है सो, हास्यके हेतुरूप है सो तो बुद्धिजन विद्वान् पुरुष समझ सक्त है और इसके उत्तरका लेखमें भी सूत्रकार महाराजके अभिप्राय को जानेबिना उलटा विरुद्धार्थ में तीनों महाशयोंकी तरह चौथे न्यायाम्भोनिधिजीनें भी कर दिया क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ मासवृद्धिके अभावका है। और पर्युषणा के पीछाड़ी १०० दिन होनेसें कोई भी दूषण नही है याने मास वृद्धि होनेसें पर्युषणाके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७६ ] पीछाड़ी १०० दिन शास्त्रानुसार रहते है इसलिये मासवृद्धि होते भी पर्युषणाके पीबाड़ी ७० दिन रहने का और १०० होनेसे दूषण लगाने का न्यायाम्भोनिधिजीका लिखना सर्वथा वृथा है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयोंकी समीक्षामें सूत्रकार वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय सहित संपूर्ण पाठसमेत युक्तिपूर्वक विस्तारसें पृष्ठ ११८से पृष्ठ २२९ तक छपगया है और आगे भी कितनीही जगह छप चुका है सो पढ़नेसें अच्छी तरहसें निर्णय होजावेगा तथापि उपरोक्त लेखमें न्यायाम्भोनिधिजीने उटपटाङ्ग लिखा है जिसकी समीक्षा करके दिखाता हुं-[ श्रावणमास बढ़ने से दूसरे प्रावणमें और भाद्रव बढ़नेसें प्रथम भाद्रव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने अशीदिनका प्राप्तिके भयसे अङ्गीकार किया ] इस लेखको लिसके आगे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका (सवीसह राइमासे वाकुन्ते) इस पाठसे पचासदिने पर्युषणा दिखाई॥ इन अक्षरोंसे तो जैसे शुद्ध समाचारी कारने ५० दिने पर्युषणा ठहराई थी तैसेही न्यायाम्भोनिधिजीने भी ठहराई इसमें तो शुद्ध समाचारी कारका लेखको विशेष पुष्टिमिली और न्यायांभोनिधिजीको अपना स्वयं लेख भी बाधक होगया तो फिर दो श्रावण होनेसे भी भाद्रपद, और दो भाद्रपद होनेसे दूसरे भाद्रपदमें न्यायांभोनिधिजी पर्युषणा करते हैं तब तो प्रत्यक्ष ८० दिन होते है और श्रीसमवायाङ्गजी आदि अनेक शास्त्रोंमें ५० दिने पर्युषणा करनी कही है और अधिकमास भी अनेक शास्त्रों में प्रमाण किया है तैसे ही खास न्यायांभोनिधिजी भी शामणा के सम्बन्धमें अधिकमास होनेसे [ तिसवर्षमें तेरांमास तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] अवश्य होजायगें] यह अक्षर पृष्ठ ८९ की पंक्ति ३।४ में लिखें हैं अब पाठकवर्ग विचार करो कि अधिकमास होनेसें तेरह मास अवश्य करके न्यायांभोनिधिजीने मान्य करलिये जब अधिकमास गिनतीमें मंजूर हो चुका तब दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन न्यायांभोनिधिजीके वाक्यसें भी सिद्ध होगये तो फिर पचास दिने पर्युषणा करनेका पाठ दिखाना और ८० दिने अपनी कल्पनासें पर्युषणा करना यह कोई बुद्धिवाले विवेकी श्रीजिनाज्ञाके आराधक पुरुष का काम नही है सो पाठकवर्ग भी विचार लेना;___ और भी दूसरा सुनो (श्रावणमास बढ़नेसे दूसरे श्रावण में और भाद्रव बढ़नेसें प्रथम भादव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने ८० ( अशी ) दिनकी प्राप्तिके भयसै अङ्गीकार किया ) इन अक्षरों का तात्पर्य ऐसे निकलता है कि शुद्ध समाचारीकारकों तो ८० दिने पर्युषणा करनेसे शास्त्रविरुद्धका भय लगा तब पचास दिने पर्युषणा करनेका अङ्गीकार किया परन्तु न्यायाम्भोनिधिजीको ८० दिने पर्युषणा करने में शास्त्र विरुद्धका भय नही लगता है इस लिये दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें और दो भाद्रपद होनेसे दूसरे भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा शास्त्र विरुद्धताको न गिनके करते हैं यह बात सिद्ध होगह इस बातको पाठकवर्ग भी विशेष करके विचार लो; और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठको दिखाकर दो श्रावणादि होते भी 90 दिन पर्युषणाके पिछाड़ी रखने का जो न्यायांभोनिधिजी कहते है सो भी सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके और युक्ति के भी विरुद्ध है क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७८ ] आषाढ़ चौमासीसें प्रथम पचासदिन जानेसें और पिछाड़ी ७० दिन रहनेसें एवं चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी श्रीसमवायाङ्गजी का पाठ है सो तो अल्पबुद्धिवाला भी समझ सकता है तो फिर न्यायांसोनिधिजी न्यायके और बुद्धिके समुद्र इतने विद्वान् होते भी दो श्रावणादि होनेसे पांचमास के १५० दिन का वर्षाकाल में पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन रखने का आग्रह करते कुछ भी विचार नही किया बड़ीही शरमकी बातहै और दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी के ७० दिन रखने का न्यायांभोनिधिजी चाहते होवे तोभी अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि व्यवहारिक गिनतीसें पचास दिने अवश्य ही निश्चय करके पर्युषणा करनी कही है, और दिनोंकी गिनती में अधिकमास छुट नही सकता है इस लिये ८० दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी ७० दिन रखेंगे तो भी शास्त्रविरुद्ध है और अधिक मासको गिनती में छोड़ कर पर्युषणा के पिछाड़ी 90 दिन रख्खेंगे तो भी अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि अधिक मासको अनेक शास्त्रों में और खास श्रीसमवायांगजी सूत्र में प्रमाण किया है इस लिये अधिकमास को गिनतीमें निषेध करना भी न्यायांभोनिधिजीका नहीं बन सकता है और चारमासके सम्बन्धी पाठको पांचमासके सम्बन्धमें न्यायांभोनिधीजी को सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में लिखना भी उचित नही है इस लिये श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र का पाठ पर अपनी कल्पनासें न्यायांओनिधिजी अथवा उन्होंके परिवारवाले और उन्होंके पक्षधारी वर्त्तमानिक श्रीतपगच्छके महाशय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७९ ] जो जो कल्पना मासवृद्धि होते भी पर्युषणाके पिछाड़ी 90 दिन रखने के लिये करेंगे सो सो सबीही उत्सूत्र भाषण रूप भोले जीवोंको मिथ्यात्वमें गेरने वाले होवेंगें इसलिये श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधके सत्यग्राही सर्व. सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें मासवृद्धिके अभावसे ७० दिनके अक्षर देखके मास वृधि होते भी आग्रह मत करो और भासवृद्धिको मंजूर करके दूजा श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी १०० दिन मान्यकरो जिससे उत्सूत्र भाषक न बनके श्रीजिनाज्ञाके आराधक बनोंगे मेरा तो येही कहना है। मान्य करेंगे जिन्होंकी आत्माका सुधारा है इतने पर भी जो हठग्राही नही मानेगे जिन्होंकी सम्यक्त्व रत्न बिना आत्माका सुधारा कैसे होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने ;-.. और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठपर न्यायाम्भोनिधि जीने अपनी चातुराई प्रगट किवी है कि--( हे परीक्षक अब इस पाठके. विचारणेसें तुमको मास वृद्धि हुये कार्तिक सम्बन्धी कृत्य आश्विन मासमें करना पड़ेगा और कार्तिक मासमें करोंगे तो १०० रात दिनकी प्राप्ति होनेसे सिद्धान्तसे विरुद्ध होगा फिर तो ऐसा हुवा कि एक अङ्गको आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया तात्पर्य कि-तुमने आधाभन म हुवे इस वास्ते यह पक्ष अङ्गीकार किया तो भी आज्ञा भङ्गरूप दूषण तो आपके शिरपर ही रहा ) इस लेखकी समीक्षा अब सुन लीजियें-हे पाठकवर्ग देखो न्यायांभोनिधिजीने तो शुद्धसमाचारी कारको दूषित ठह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] राने के लिये उपरका लेख लिखाथा परन्तु खास शुद्धसमाचारीकारने ही श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका इस ही पाठको अपनी शुद्धसमाचारीकी पुस्तकमें लिखा है। और इन्ही श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रकी वृत्तिकारक ( शुद्धसमाचारी कारके परमपूज्य श्रीखरतरगच्छ नायक ) श्रीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेव सूरीजी प्रसिद्ध है जिन्होंने इन्ही पाठकी वृत्ति में चारमासके एकसो वीश ( १२० ) दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी अच्छी तरहका खुलासाके साथ व्याख्या किवी है। सो प्रसिद्ध है और मैंने भी मूलपाठ तथा वृत्ति और भावार्थ सहित इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १२० । १२१ में छपा दिया है इस लिये धारमास सम्बन्धी पाठको पांच मासके अधिकारमें लिखना भी न्यायाम्भोनिधिजी को अन्याय कारक है और दो श्रावण होनेसें पांचमासके वर्षाकालके १५० दिन होते है यह तो जगत प्रसिद्ध है जिसकों अल्पबुद्धि वाले भी समझ सकते है जिसमें जैन शास्त्रोंकी आज्ञानुसार वर्तमान काले पचास दिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाढ़ी १०० दिन तो स्वाभाविक रहते ही है यह बात भी शास्त्रानुसार तथा प्रसिद्ध है तथापि न्यायाम्भोनिधिजी होकरके अन्याय के रस्तेमें वर्तके पांचमासके वर्षाकालमें पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन स्वभाविक रहते हैं जिसको शास्त्र विरुद्ध कहकर धारमास सम्वन्धी पाठ लिखके दूषित ठहराते है। यह तो प्रत्यक्ष उत्सूत्र भाषणरूप वृथा है और वर्तमानमें दो श्रावणादि होनेसे पचास दिमे पर्युषणा और पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन रहनेका श्रीतपगच्छके ही पूर्वाचार्योंने कहा है जिसका खुलासा इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १४६ में छप गया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८१ ] जिसको भी शास्त्र विरुद्ध ठहराकर न्यायाम्भोनिधिजी अपने ही पूर्वाचाय्योंकी आशातनाके फलविपाकका भय नही करते है सो बड़ीही अफसोसकी बात है और मासवृद्धि होनेसें कार्त्तिक सम्बन्धीकृत्य आश्विन मास में करने का न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं सो भी उन्हकी समझ में फेर है क्योंकि शुद्ध समाचारीकार तथा श्रीखरतरगच्छ वाले मासवृद्धि होनेसें शास्त्रानुसार पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन मान्य करते हैं इस लिये उन्होंको तो कार्त्तिक सम्बन्धीत्य आश्विन मासमें करने की कोई जरूरत नही है, और आगे ( एक अङ्गका आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया) इन अक्षरोंको लिखके न्यायाम्भोनिधिजीने अङ्ग याने शरीरका दृष्टान्त दिखाया परन्तु यह दृष्टान्त शुद्धसमाचारीकार तथा श्रीखरतरगच्छवालोंके उपर किञ्चित् भी नही घट सकता है क्योंकि मासवृद्धिके अभाव श्रीमनवायाङ्गजीमें कहे हुवे पर्युषणाके पिछाड़ीका 90 दिन मान्य करके उसी मुजब वर्त्तते हैं और मासवृद्धि दो श्रावणादि होनेसे अनेक शास्त्रोंके प्रमाणसे पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिनको भी मान्य करके उसी मुजब वर्त्तते हैं इसलिये उन्होंका तो शास्त्रानुसार वर्त्तनेका होने से श्रीजिनाज्ञारूपी बस्त्रों करके सर्व अङ्ग परिपूर्णता से ( आच्छादन ) याने ढका हुवा है इसलिये एक अङ्ग खुल्ला रहनेका दूषण लगाना न्यायां भोनिधिजीका प्रत्यक्ष मिथ्या है परन्तु इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १६४ और १६५ में जो न्याय छपा है इसी न्यायानुसार उपरोक्त खुल्ला अङ्गका दुष्टान्त खास करके दोनों तरहसें न्यायांभोनिधिजीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] तथा उन्होंके परिवारवालोंके उपर बरोबर न्याय युक्त अच्छी तरहसे घटता है सोही दिखाता हुं कि-देखो न्यायांशोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और उन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक श्रीतपगच्छके सबी महाशय-विशेष करके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठको पर्युषणा सम्बन्धी सब कोई लिखते हैं मुखमैं कहते हैं और उन्ही पर पूर्ण श्रद्धा रखके बड़ाही आग्रह करते हैं उस पाठमें वर्षाकालके पचास दिन जानेसैं और पिछाड़ी ७० दिन रहनेसें पर्युषणा करणा कहा है यह पाठ भावार्थः सहित आगे बहुत जगह छप गया हैं इस पर बुद्धिजन सज्जन पुरुष विचार करों कि-वर्तमानमें दो श्रावण होनेसे भाद्रपदमें पर्युषणा करने वालोंको ८० दिन होते हैं जिससे पूर्वभागका एक अङ्ग सर्वथा खुल्ला हो जाता है और दो आश्विन मास होनेसे कार्तिक तक १०० दिन होते हैं जिससे उत्तर भागका एक अङ्ग भी सर्वथा खुम्ला हो जाता है इस तरहसें न्यायांभो निधिजी आदि जो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रक पाठसे दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक ५० दिने पर्युषणा और दो आश्विन होते भी कार्तिक तक पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन रखना चाहनेवाले महाशयोंको श्रावण और आश्विन मास बढ़नेसे दोनों अङ्ग श्रीजिनानारूपी वल करके रहित प्रत्यक्ष बनते हैं यह तो ऐसा हुवा कि-दोनों खोईरे जोगटा मुद्रा और आदेश-किं वा-कोई एक संसारिक गृहस्थाश्रम छोड़के साधु हुवा परन्तु साधुकी क्रिया न करसका और पीछा गृहस्थ भी न हो सका उसीको उभय भ्रष्ट याने न साधु और न गृहस्थ ऐसे को 'यतो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८३ ] भ्रष्टा ततो भ्रष्टा' कहने में आता है । अथवा । कोई एकस्त्री थी जिसने डाहीने हाथमें विधवाका चिह्न लम्बी काँचली और वाम हाथमें सधवाका चिह्न चुड़ा धारण किया था उसीनेही थोड़ी देर बाद फिर उससे विपरीत, याने, वाम हाथमें विधवाका चिह्न लम्बी काँचली और डाहीने हाथमें सधवाका चिह्न चुड़ा धारण किर लिया ऐसी पागल स्त्री न तो विधवाकी और न सधवाकी गिनती में आसकती है तैसेही दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक पचास दिनका और दो आश्विन होते भी कार्त्तिक तक 90 दिन का आग्रह करने वालोंको श्रावण और आश्विन बढ़नेंसे एक तरफ भी श्रीजिनाज्ञाके आराधक नही हो सकते हैं क्योंकि दोनों अङ्ग खुल्ले रहते हैं इसलिये उपरोक्त दृष्टान्तका न्याय उपरके महाशयोंको बरोबर घटता है इसलिये अब उपरकी बातको न्यायांभोनिधिजीके परिवारवालोंको और उन्होंके पक्षधारियोंको अवश्य करके विचारनी चाहिये और पक्षपातको छोड़के सत्य बातको ग्रहण करना सोही उचित है । और शुद्धसमाचारकार दो श्रावणादि होने से ५० दिने पर्युषणा करके पर्युषणा के पिछाड़ी १०० दिन अनेक शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित मान्य करता है इस लिये एक अंग खुलेका दृष्टान्त न्यायाम्भोनिधिजी कों लिखके आज्ञा भङ्ग रूप दूषण शुद्धसमाचारीकार को दिखाना सर्वथा करके उत्सूत्र भाषणरूप वृथा है ! और आगे लिखा है कि- ( पूर्वपक्ष इस दूषणरूप यन्त्र में तो आपको भी यन्त्रित होना पड़ेगा उत्तर—हे समीक्षक ? यह आज्ञाभङ्गरूप दूषणका लेशभी हमको न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८४ ] समझना क्योंकि हम अधिक मासको कालचूला मानते है ) इन अक्षरोंको लिखके न्यायाम्भोनिधिजी दो श्रावण होने से भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसमें अधिक मासको गिनती में छोड़कर ८० दिनके ५० दिन और दो आश्विन मास होने से पर्युषणाके पिछाड़ी कार्त्तिक तक १०० दिन होते है जिसको भी 90 दिन अपनी कल्पनासे मान्य करके निदूषण बनना चाहते है सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि अधिक मासको कालचूला की उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य शास्त्रकारोनें दिवी है जिसका विशेष निर्णय तीनों महाशयों के नामकी समीक्षामें अच्छी तरहसें छपगया है और आगे फिर भी कालचूला सम्बन्धी श्रीनिशीथ चूर्णिकां अधूरा पाठ और श्रीदशवेकालिक सूत्रके प्रथम चूलिकाकी वृहद्वृत्तिका अधूरा पाठ लिखके भावार्थ लिखे बाद फिर भी अपनी कल्पनायें पूर्वपक्ष उठा कर उसीका उत्तर में भी पृष्ठ ९१ की पंक्ति १३ तक उत्सूत्र भाषणरूप लिखा है जिसका उतारा इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ५० और ६० की आदि तक छपाके उसीकी समीक्षा पृष्ठ ६० सें ६५ तक इन्ही पुस्तक में अच्छी तरहसें खुलासा पूर्व क छपगई है और श्रीनिशीथ चूर्णिके प्रथमोद्देशेका कालचूलासम्बन्धी सम्पूर्ण पाठ और श्रीदशवेकालिककी प्रथम चूलिकाके वृहद्वृत्तिका सम्पूर्ण पाठ भावार्थ के साथ खुलासा पूर्वक इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ४० से पृष्ठ ५८ तक विस्तार से छपगया है और तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षा में भी इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ७५ से ७८ तक और आगे भी कितनी ही जगह छप गया है, उसीको पड़ने से पाठक.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८५ ] वर्गको अवश्यही निर्णय हो जायेगा कि अधिक मासको कालचूला की उत्तम ओपमा अवश्य ही गिमती करने योग्य शास्त्रकारोंने दिवी है इस लिये अधिकमासकी निश्चय करके मिनती करना ही सम्यक्त्वधारियोंको उचित है तथापि भ्यायाम्भोनिधिजी अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं सो कदापि नही हो सकती है इतने पर भी आगे फिर भी पृष्ट ९९ के पंक्ति १४ वीं में पंक्ति १८ वो तक लिखते है कि (इस अधिकमासकों कालचूलामें तुमको भी अवश्य ही मानना पड़ेगा और नही मानोंगे तो किसी तरहसें भी आज्ञा भग रूप दूषणको गठडीका भार दूर नही होगा क्योंकि पर्युषणाके बाद ७० ( सत्तर) दिन रहने का कहा है काल. चूला न मानोंगे तो १०० दिन हो जायगें ) इन अक्षरोंको लिसके शुद्धरामाचारी कारको पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन होनेसे दूषण लगाते हैं सो म्यायाम्भोनिधिजीका सर्वथा मिथ्या है क्योंकि मासवृद्धि होते पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन होने में कोई दूषण नही है इसका विस्तार उपरमें तथा तीनों महाशयों के नामकी समीक्षा और भी कितनी ही जगह छप गया है उसीकों पढ़ के पाठकवर्ग सत्यासत्यका निर्णय कर लेना ;___ और शुद्धसमाचारीकार तथा श्रीखरतरगच्छवाले अधिक मासको कालचूलाकी उत्तम ओपमा जानके विशेष करके गिनती बरोबर लेते हैं और न्यायांनिधिनी अधिक मामको कालचूला कह करके भी शास्त्रकारोंका तात्पर्य समझे बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके तथा श्रीमियोपचूर्णिकार और प्रोदशवकालिकके चूलिकाको वृहद् २४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ] वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थमें अधिकमासकी गिनती निषेध करते पर भवका भय कुछ भी नही किया यह बड़ाही अफसोस है । और आगे जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तक के पृष्ठ ९१ की पंक्ति १ल वो में पृष्ठ ९२ वें की प्रथम पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि ( पर्युषण पर्व केवल भाद्रव मासके साथ प्रतिबन्धवाला है क्योंकि जिस किसी शास्त्र में पर्युषणापर्व का निरूपण किया है तिसमें भाद्रवमासका विशेषण के साथ ही कथन किया है परन्तु अधिक मास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छवाले भी नही कह गये है देखो, सन्देहविषौषधी ग्रन्थमें भी भाद्रव मास ही के विशेषण करके कहा है परन्तु ऐसा नही कहा कि अधिक मात होवे तो श्रावणमास में करना ऐसा पर्युषणा पर्वके साथ विशेषण नही दिया है ) उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गकों दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषो न्यायाभोनिधिजीके उपर का लेखको में, देखता हुं तो मेरेकों न्यायम्भोनिधिजी में मिथ्या भाषणका त्यागरूप दूजा महात्रतही नही दिखता है क्योंकि उपरके लेखमें तीन जगह प्रत्यक्ष मिथ्या भोले जीवोंको भ्रमाने के लिये उत्सूत्र भाषणरूप लिखा है सोही दिखाता हूं कि प्रथमतो (पर्यु - erred केवल भाद्रव मासके साथ प्रतिबन्धवाला है क्योंकि जिस किसी शास्त्र में पर्युषण पर्वका निरूपण किया है तिसमें भाद्रमासका विशेषणके साथही कथन किया है) यह अक्षर लिखके मासवृद्धि होते भी भाद्रपद मासप्रतिबन्ध पर्युषणा न्यायां भोनिधिजी ठहराते है सो मिथ्या है क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ ] भाष्य, चूर्णि, वृत्यादि अनेक शास्त्रों में मासवद्धि होनेसे प्रावणमासमें पर्युषणा करना लिखा है इसका विशेष निर्णय लीनों महाशयोंकी समीक्षामें शास्त्रोंके प्रमाण सहित न्याययुक्तिके साथ अच्छी तरह से इन्ही पुस्तकके पृष्ठ २०७ सें पृष्ठ ११७ तक छप गया है उसीकों पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा और दूसरा ( अधिक मास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छ वाले भी नही कहगये है ) यह लिखा है सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योकि श्रीखरतरगच्छके अनेक पूर्वाचार्योंने अनेक ग्रन्थो में दो श्रावण होनेसे दूसरा श्रावणमें पर्युषणा करनी कही है सोही देखो श्रीजिनपतिसूरिजी कृत श्रीसङ्घपट्टक वृहद्वृत्तिमें १। तथा श्रीसमाचारी ग्रन्थ में । २। श्रीजिनप्रा सूरिजी कृत श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिमें । ३ । तथा श्रीविधिप्रपा ग्रन्थमें । ४ । श्रीउपाध्यायजी श्रीसमयसुन्दरजीकृत श्रीकल्पकल्पलता वृत्तिमें । ५। तथा श्रीसमाचारी शतकमें। ६ । और श्रीलक्ष्मीबल्लभगणिजी कृत श्रीकल्पद्रुमकलिका रत्तिमें।७। और श्रीतप गच्छ तथा श्रीखरतरगच्छसम्बन्धी (तपा खरतर प्रश्नोत्तर)नाम ग्रन्थ है उसीमें। ८। और श्रीपर्युषणा सम्बन्धी चर्चापत्रमें । । इत्यादि अनेक जगह खुलासापूर्वक दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करनेका श्रीखरतरगच्छके पूर्वाचार्योनें कहा है तैसे ही श्रीतपगच्छके पूर्वाचाय्याने भी अनेक ग्रन्थों में दूसरे श्रावणमें ही पर्युषणा करना कहा है और खास न्यायाम्भोनिधिजी भी शुद्धसमाचारी पुस्तक सम्बन्धी अपनी जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तकके पृष्ट ८७ को पाक २२ वी में पृष्ठ ८८ प्रथम पंक्ति तक लिखते हैं कि ( श्रावण मास बढ़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] तो दूसरे श्रावण शुदीमें और भाद्रव बड़े तो प्रथम भाद्रव शुदीमें आषाढ़ मासे ५० में दिनही पर्युषणा करना परन्तु ८० अशीमें दिन नही करना ऐसा लिखके पृष्ठ १५५ में अपनेही गच्छ के श्रीजिनपति सूरिजी रचित समाचारीका प्रमाण दिया है ) इन अक्षरोंको न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं और उपरोक्त श्री खरतरगच्छ के पूर्वाचारोंके ग्रन्थोंका दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने सम्बन्धी पाठोंको भी जानते हैं तथापि ( अधिक मास होवे तो श्रावण मास में पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छवाले भी नही कह गये हैं ) इतना प्रत्यक्ष मिथ्या लिखके अपना महाव्रत भङ्गके सिवाय और क्या लाभ उठाया होगा सो पाठकवर्ग विचार लेना और तीसरा ( देखो सन्देहविषौषधी ग्रन्थ में श्री भाद्रव मासहीके विशेषण करके कहा है परन्तु ऐसा नही कहा है कि अधिक मास होवे तो श्रावण मास पर्युषणा करना ऐसा पर्युषण पर्व के साथ विशेषण नही दिया है) यह लिखा - है सो भी मायावृत्तिसें प्रत्यक्ष मिथ्या लिखा है क्योंकि श्री जिनप्रभरिजीने श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिमें खुलासा पूर्वक दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमे पर्युषणा करनी कही है जिसका पाठ भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इस जगह लिख दिखाता हुं श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिके पृष्ठ और ३१ का तथाच तत्पाठः ३० साम्प्रतं पर्युषणा समाचारी विवक्षरादौ पर्युषणा कदा विधेयेति श्रीमहावीरस्तद्गणधर शिष्यादीन् दृष्टान्तेनाह तेणं काले नित्यादि । वासाणंति । आषाढ़चतुर्मासकदिनादारभ्य सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्ते भगवान् पज्जोसवे ܬ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] इति । पर्युषणामकार्षीत् सेकेणढणमित्यादि । प्रश्नवाकर्ष जउणं इत्यादि । मिवंचनवाक्यं । प्रायेणागारिणां। यहस्थानामागाराणि गृहाणि । कडिया कटयुक्तानि उक्पियाई धवलितानि। बनाई तृणादिभिः लित्ताई छगणा दिभिः क्वचित् गुत्ताइंति पाठस्तत्र गुप्तानि वृत्तिकरद्वारपिधामादिभिः घट्ठाई विषमभूमिभञ्जनात् । महाई अक्षणीकतानि कचित् संमढाइत्ति पाठस्तत्र समंतात् मृष्टानि मसणीकृतानि संपधूमियाई सौगन्ध्यापादनार्थ धूपनैर्वासितानि । खातोदगाई कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि खायनिद्रुमणाई निर्द्धमणं खालं गृहात् सलिलं येन निर्गच्छति अप्पणो अढाए. आ. . स्मार्थ स्वार्थ गृहस्थैः कृतानि परिकर्मितानि करोति कापड करोतीत्यादाविय परिकार्थत्वात् परिभुक्तानि तैः स्वयं परिभुज्यमानत्वात् अतएव परिणामितानि भवन्ति । ततः सविंशतिरात्रे मासे गते अमी अधिकरणदोषा न भवन्ति । यदि पुनः प्रथममेव साधवः स्थिता स्म। इति व्युः तदा ते गृहस्था मुनीनां स्थित्या सुभिक्षं संभाव्य ततायोगोलकल्पाः दन्तालक्षेत्रकं कुर्यः तथा चाधिकरणदोषाः अतस्तत्परिहाराय. पञ्चशतादिनैः स्थिता स्म इति वाच्य पूर्णिकारस्तु कडियाई पासेहितो कंवियाणि सवरिं इत्याह । स्थविरा स्थविरकल्पिकाः अद्यत्ताएत्ति अद्यकालीनाः आर्य्यतया व्रत स्थविरत्वेन इत्येके अंतरावियसे इत्यादि अंतरापि च अर्वागपि कल्पते, पर्युषितुं न कल्पते तां रजनी भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उवायणावित्तएत्ति अतिक्रमितुं । उसनिवासे इत्या गमिको धातु। इह हि पर्युषणाद्विधा गृहिज्ञाताज्ञात.. भेदात् । तत्र गृहिणामाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९० ] मि कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते । साषाढ पौर्णमास्यां पञ्चपञ्चदिनवृया यावद्भाद्रपदशितपञ्चम्यां चैकादशसु पर्व तिथिषु क्रियते । गृहिज्ञाता तु यस्यां साम्यत्सरिकातिचारालोचनं लुञ्चनं पर्युषणाकल्पसूत्रकर्षणं चैत्य परिपाटी अष्टमं साम्वत्सरिकप्रतिक्रमणं च क्रियते ययाच व्रतपर्य्यrय वर्षाणि गण्यन्ते सा नभस्य शुक्लपञ्चम्यां कालिक - सूपदेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटं कार्य्या । यत्पुनरभिवर्द्धितवर्षे निविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते । तत्सिद्धान्तटिप्पखानामनुसारेण तत्र हि युगमध्ये पौषो युगान्ते वाषाढ़ एव वर्द्धते नान्येमासा स्तानि चाधुना सम्यक् न ज्ञायन्ते ततो दिनपञ्चाशतैव पर्युषणासङ्गतेति वृद्धाः ततश्च कालावग्रहश्चात्र जघन्यतो नभस्य शितपञ्चम्या आरभ्य कार्त्तिकचतुर्मासतः सप्ततिदिनमानः उत्कर्षतो वर्षायोग्य क्षेत्रान्तराभावादाबाढ़मासकल्पेन सह वष्टिसद्भावात् मार्गशीर्षेणापि सह षण्मासा इति । देखिये उपर के पाठ में एकमास और वीश दिने पर्यु - वणा श्रीतीर्थङ्कर गणधर स्थिविराचार्य्यादि करते थे तैसेही वर्त्तमानमें भी एकमास वोश दिने याने पचास दिने पयुषणा करने में आती है और मासवृद्धि होनेसें वोश दिने पर्युषणा जैन टिप्पणानुसार दिखाई और बर्त्तमानमें जैन टिप्पण के अभाव से पचास दिनेही पर्युषणा करनी कही इससे दो श्रावण हो तो दूसरे श्रावणमें अथवा दो भाद्रपद हो तो प्रथम भाद्रपदमें पचास दिनेही पर्युषणा सम्यक्त्वधारियों को करनी योग्य है, तैसेही श्रीखरतरगच्छवाले करते हैं परन्तु हठवादियोंकी बातही जूदी है— Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ perp ] और इन्ही महाराज श्रीजिनप्रभसूरिजीने श्रीसन्देहfastest वृत्ति में श्री कल्पसूत्रजीके मूलपाठकी व्याख्या किये बाद इन्ही श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्ति जो कि सुप्रसिद्ध श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत है उसकी व्याख्या किवी है उसीमें काल ठवणाधिकारे समयादि कालसे आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, सम्वत्सर, युगादिकी व्याख्या करके आगे अधिक मासको अच्छी तरहसे प्रमाण किया है और प्राचीनकालाश्रय जैसे चन्द्रसंवत्सर में पचास दिने पर्युषणा तैसेंही अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने पर्युषणा खुलासा पूर्वक कही है और श्रीनिशीथ चूर्णिके दशवे उद्देशेमें जैसे पर्युषण सम्बन्धी व्याख्या है तैसेही उन्ही महाराजने भी प्रायः उसीके सदृश अच्छी तरहसे व्याख्या किवी हैं और इन्ही महाराज श्रीजिनप्रभ सूरिजीनें श्रीविधिप्रपा नाम ग्रन्थ बनाया है उसीके पृष्ठ ५३ में जैसा पाठ है बैसाही नीचे मुजब जानो ; आसाढ चउम्मा सियाओ नियमा पसासहमे दिणे पज्जो tart area न इक्कपंचासहमे जयावि लोइय टिप्पणयाणुसारेण दो सावणा दो भद्दवया वा भवंति तथावि पसा सहमे दिने नउण कालचूलाविकाए असीहमे सवीसह राइनासे वकते पज्जोसवणंतित्ति वयणा जंच अभिबढियंभि वीसत्तवृत्तं तं जुगमज्जे दो पोसा जुगअंते दोषी आसाढत्ति सिद्धतटिप्पणयाणुरोहेणं चैव घट ते संपयं नवह तित्ति जहुत्तमेव पज्जोसवणादिणति ॥ अब सत्यग्राही सज्जन पुरुषोंसे मेरा इतनाही कहना है कि उपरमें श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनप्रभसूरिजीने श्रीसन्देह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपीनधी वृत्ति में और श्रीविधिप्रपामें खुलासा, मासद्धिकी गिनतीसें वर्तमानमें पचास दिने पर्युषणा की, है सो दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करतो यह प्रसिद्ध बात है और न्यायाम्भोनिधिजो खास करके. श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिका और श्रीविधिप्रपा प्रत्यका उपरोक्त पर्युषणा सम्बन्धी पाठको अच्छी तरहसे जानते थे क्योंकि श्रीविधिप्रपा ग्रन्थका पाठ खास आपने चतुर्थ स्तुति निर्णयः पुस्तकके पृष्ठ ८३ । ८४ । ८५ में लिखा है। . - और मैंने जो उपरमें श्रीविधिप्रपा ग्रन्थका पाठ पर्यु. षणा सम्बन्धी लिखा हैं उसी पाठके पहलो पंक्तिका पाठ दोनु जगहसे काटकरके अधूरा ग्रन्थकार महाराज विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप और श्रीखरतरगच्छके तथा दूसरे भोले श्रावकोंको भ्रममें गेरनेके लिये न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ८२ के अन्तमें लिखा है (जिसका खुलासा आगे करनेमें आवेगा) इससे पर्युषणा सम्बन्धी उपरका पाठ न्यायाम्भोनिधिजी जानते थे तथापि अपनी मिथ्या बात रखनेके लिये ( अधिकमास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छवाले भी नही कह गये है ) यह वाक्य और सम्देहविषौषधी ग्रन्थमें भी ( ऐसा नही कहा कि अधिक मास होवे तो प्रावणमासमें पर्युषणा करना ) यह वाक्य ग्यायाम्मोनिधिजी माया वृत्ति से प्रत्यक्ष मिथ्या कैसे लिख गये होंगे सो मेरेकों बड़ाही अफसोम है ;-इस लिये मेरे कों इस जगह लिखना पड़ता है कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीने श्रीसन्देह विषौषधी वृत्तिमें तो कदाग्रही और सन्देहकारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोंका अच्छी बरहने सन्देहका (पर्युषमा सम्बन्धी भने कल्याणक सम्बन्धी सी) निवारण किया है जो स्थिरचितसे बाँचके सत्यवाही होगा उसीका तो अवश्य करके मिथ्यात्व रूप सन्देह निकलके सम्यक्त्वरूप सत्यबातकी प्राप्ति हो जागा इसमें कोई शक नही- .. ___ और श्रीहरतरगच्छके तो क्या परन्तु श्रीतपगच्छ के ही पूर्वाधारयोंने मासवृद्धिके अभाव भाद्रपदमें पर्युषणा करनी कही है और दो श्रावण होने में पचासदिने दूजा श्रावण में भी पर्युषणा करनी कही है इसका विस्तार उपरमें अनेक जगह उपगया है। इसलिये श्रीखरतरगच्छ के पूर्वाचार्यजी कृत मन्यका मा सद्धि सम्बन्धी पाठको छुपाकर मासवृद्धि के अभाबका पाठ मासवृद्धि होते भी भोले जीवोंको दिखा कर सत्य बात परसें श्रद्धाभङ्ग करके अपनी कल्पित बातमें गेरनेका कार्य करना न्यायांसोनिधिजीको उचित नही था;-. ___ और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीनें अपनी जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ९२ की दूसरी पंक्ति में सोलवी पंक्ति तक जो लिखा है सो नीचे मुजब जामो, - [पष्ट १५ पंक्ति ६ में मारचंद्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है। क्योंकि इसी द्वितीय प्रकरण में ऐसा श्लोक है। पथा-हरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्नलममन्वेष। लमेशांशाधिपयो,र्मीवास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥ १॥ ... • भावार्यः अधिक मासादिक जितने स्थान बताये उसमें शुभ कार्य नही होते है। तो अब बारामासिक पर्युषणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९४ ] पर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ? और रनकोषाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है। यथा-'यात्राविवाहमराहन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि ॥ परिहर्तव्यानि बुधैः, सर्वाणि नपुंसके मासि ॥१॥ ___भावार्थः यात्रामण्डन, विवाहमण्डन, और भी शुभकार्य है सो भी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहनेसे अधिक मासमें त्यागने चाहीये । अब देखीये । इस लेखसे भी अधिक मासमें अति उत्तम पर्युषणापर्व करने की सङ्गति नही होसकती है।] ऊपरके न्यायाम्भोनिधिजीका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं कि ( पृष्ठ १५५ में नारचन्द्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है ) इन अक्षरोंको लिखके जो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५९ में नारचन्द्र ज्योतिषका श्लोक है उसी को न्यायांनोनिधिजी निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि उसी श्लोकका मतलब सत्य है देखो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५९ में नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका ऐसा लोक है यथा--रविक्षेत्रगते जीवे, जीव क्षेत्रगते रयौ। दीक्षां स्थापनां चापि, प्रतिष्ठा च न कारयेत् ॥१॥ इस श्लोक लिखनेका तात्पर्य ऐसा है कि वादी शङ्का करता है कि अधिकमासमें शुभकार्य नही होते हैं तो फिर पर्युषणापर्व भी शुभकार्य अधिकमासमें कैसे होवे इस शङ्काका समाधान शुद्धसमाचारीकार पं० प्र० यतिजी श्री. रायचन्द्रजी ऐसे करते हैं कि अधिक मासके सिवाय भी 'रविक्षेत्रगते जीवे, याने सूर्यका क्षेत्रमें गुरुका जाना होवे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९५ ] अर्थात् सिंहराशि पर गुरुका आना होवे तब सिंह गुरु सिंहस्थ तेरह मास तक कहा जाता है उसीमें और 'जीवक्षेत्र गते रवी, याने गुरुका क्षेत्रमें सूर्यका जाना होवे अर्थात् गुरुका क्षेत्रमें सूर्य धन और मीन राशिपर पौष और चैत्र मासमें आता है तब उसीको मलमास कहे जाते हैं उसीमें अर्थात् सिंहस्थ का और मलमासका ऐसा योग बने तब गृहस्थको दीक्षा देना तथा साधुको सूरि वगैरह पदमें स्थापन करना और प्रतिष्ठा करनी ऐसे कार्य नही करना चाहिये क्योंकि एसे योगमें दीक्षादि कार्य करनेसे इच्छित फलप्राप्त नही हो सकता है इसलिये उपरोक्तादि अनेक कारणयोगे मुहूर्तके निमित्त कारणसे जो जो कार्य करने में आते हैं सो निषेध किये हैं परन्तु आत्मसाधनका धर्मरूपी महान् कार्य तो बिना मुहूर्त्तका होनेसें किसी जगह कोई भी कारणयोगे निषेध करने में नही आया है और अधिक मासमें धर्मकार्य पर्युषणादि करनेका कोई शास्त्रमें निषेध भी नही किया है इसलिये अधिक मासादिमे धर्मकार्य अवश्यही करना चाहिये यह तात्पर्य शुद्धसमाचारी कारका जैनशास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक न्यायसम्मत होनेसे मान्य करने योग्य सत्य है इसलिये निषेध नही हो सकता है तथापि म्यायांभोनिधिजी अपनी कल्पित बातको स्थापनेके लिये शुद्धसमाचारीकारकी सत्य बातका निषेध करते हैं सोभी इस पंचमें कालके न्यायके समुद्रका नमुना है और शुद्धसमाचारीकार पं० प्र० यतिजी श्रीरायधन्द्रजी थे, इसलिये (हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है) यह अक्षर न्यायांभोनिधिजीको बिना विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९६] किये ऐसे मिथ्या लिखना उचित नही था, इसका विशेष विचार पाठकवर्ग अपनी बुद्धिसें स्वयं कर लेना ; — और ( इसी द्वितीय प्रकरण में ऐसा श्लोक है यथाहरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्ते न लग्नमन्वेष्यं ॥ लग्न शांशाधिपयो, नचास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥१॥ भावार्थ: अधिक मासादिक जितने स्थान बतायें उसमें शुभकार्य नही होते हैं तो अब बारा मासिक पर्युषणापर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ) इस उपरके लेखसे न्यायांभोनिधिजीनें अधिक मासमे पर्युषणा करनेका निषेध किया इस पर मेरेकों प्रथमतो इतनाही लिखना पड़ता है कि उपरके लोकका अधूरा भावार्थ लिखके न्यायाम्भोनिधिजीनें भोले जीवोंकों भ्रममें गेरे हैं इसलिये इस जगह उपरके लोकका पूरा भावार्थ लिखने की जरूरत हुई सो लिखके दिखाता हूंहरिशयने, याने, जो श्रीकृष्णाजीका शयन (सोना) लौकिक में आषाढ शुक्ल एकादशी (११) के दिन कार्त्तिकशुक्ल एकादशी के दिन तक चार मासका ( परन्तु मासवृद्धि दो श्रावजादि होनेसें पांच मासका ) कहा जाता हैं उसीमें ९, और वैशाखादि अधिक मास में २, गुरुका अस्तमें ३, शुक्रका 'अस्त में ४, और ज्योतिष शास्त्र मुजब लग्नके नवांशांका अधिपति नीचा हो ५, अथवा अस्त हो ६, इतने योगों में पण्डित पुरुषको लग्न नही देखना चाहिये क्योंकि उपरके 'योगों में लग्न देखे तो शुभ फल नही हो सकता है इसलिये ज्योतिषशास्त्रों में उपरके योगों में लग्न देखनेकी मनाई किवी हैं इस तरह उपरोक्त श्लोकका भावार्थ होता है ॥ १ ॥ अब न्यायाम्भोनिधिजीने नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९७ ] जो ऊपरमें श्लोक लिखके पर्यषणा पर्वका निषेध किया है उस सम्बन्धी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं, जिसमें प्रथमतो शुद्धसमाचारीकारने इसीही नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका जो रोक लिखाथा उसीको भावार्थ सहित में अपरमें लिस आया हुं-जिसमें खुलासे लिखा है कि तेरहमास तक सिंहस्यमें और पौष तथा चैत्र ऐसे मलमासमें मुहूर्त के निमित्तिक शुभकार्य नही होते हैं परन्तु बिना मुहूर्त का धर्म कार्य करने में हरजा नही क्योंकि तेरहमासका सिंहस्थ में पर्युषणादि धर्मकार्य तो अवश्य ही करने में आते है और पौषमासमें श्रीपार्श्वनाथस्वामिजीका जन्म और दीक्षा कस्वाणकके धर्मकार्य और चैत्रमासमें श्रीआदिजिनेश्वर भगवान्का जन्म और दीक्षा कल्याणकके धर्मकार्य करने में आते हैं और चैत्रमासमें. ओलियांकी भी तपश्चर्या वगैरह करने में आती है और खास अधिकमासमें भी पाक्षिकादि धर्मकार्य करने में आता है इस लिये मुहूर्त के निमित्तिक कार्य अधिकमासमें नही हो सकते है परन्तु धर्मकार्य तो बिवा मुहूर्तका होनेसें अवश्यही करने में आता है यह. तात्पर्य शुद्ध समाचारी कारका सत्यथा तथापि न्यायाम्भोनिधिजीने (पष्ठ १५९ पंक्ति में नारचन्द्र ज्योतिष ग्रन्यका प्रमाल दिया है सो तो हीरीके स्थानमें बीरीका विवाह कर दिया है ) ऐसा उपहासका बाक्य लिखके उपरोक्त सत्यबातका विषेध. करदिया और फिर उसी स्थानका 'हरिशयने, इत्यादि श्लोक लिखके हरिशयने श्रीकृष्णजीका शयन ( सोना ) जो चौमासामें और अधिक मासमें शुभकार्य का न. होना दिखाकर पर्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९८ ] या पर्वका भी नही होनेका उत्सूत्र भावणरूप दिखाते कुछ भी विचार न किया क्योंकि चौमासेमें मुहूर्त निमित्तिक शुभकार्थ्य नही होते है परन्तु बिना मुहूर्तका श्रीपर्युषणा पर्वतो खासकरके श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने वर्षा ऋतु में करनेका कहा है जिसका किञ्चिन्मात्र भी न्यायाम्भोनिधिजी विचार न करते श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थमें और विद्वान् पुरुषोंके आगे अपने नामकी हासी करानेका कारणरूप हरिशयन का चौमासमें और अधिक मासमें शुभकार्य का न होने का दिखाकर पर्युषणापर्व न होनेका भोले जीवोंको दिखाया । हा अतीव खेदः इस उपरकी बातको पाठकवर्गको तथा न्यायाम्भोनिधिजीके परिवारवालोंकों और उन्होंके पक्षधारियोकों (सत्यग्राही हो कर ) दीर्घदृष्टिसें बिचारनी चाहिये; दूसरा और भी सुनो-जो न्यायांभोनिधिजीके तथा उन्होंके परिवारवालोंके दिलमें ऐसाही होगा कि मुहूर्त्त के निमित्तका शुभकार्य्य न होवे वहां बिना मुहूर्त्तका धर्मकार्य्यं भी नही होना चाहिये तब तो उन्होंके आत्माका सुधारा धर्मकायोंके बिना होनाही मुश्किल होगा क्योंकि ज्योतिषशास्त्रोंके आरम्भसिद्धि ग्रन्थ में १, तथा लघु वृत्ति में २, और वृहद्वृत्ति में ३, जन्मपत्री पद्धति में ४, नारचन्द्रप्रकरण में ५, तथा तहिष्षण में ६, लग्नशुद्धिग्रन्थ में 9, तत् वृत्ति में ८, मुहूर्तचिन्तामणिमें ९, बृहत् मुहूर्त्तसिन्धु में १० दूसरी मुहूर्त्त चिन्तामणिमें १९, तथा पीयूषधारा वृत्तिमें १२, मुहूर्त माडमे १३, विवाह वृन्दावन में १४, प्रथम और दूसरा विवाहपडल ग्रन्थ में १५-१६, चार प्रकरणका नारचन्द्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] में ११, रत्नकोष में १८, लग्नचन्द्रिका में १९, ज्योतिषसार में २०, और ज्योतिर्विदाभरण वृत्ति में २९, इत्यादि अनेक ज्योतिष शास्त्रों में कितनेही मास १, कितनीही संक्रान्ति २, कितनेही वार ३, कितमीही तिथियां ४, कितनेही योग ५, कितनेही नक्षत्र ६, और जन्मका नक्षत्र 9, जन्मका मास ८, अधिक मास ९, क्षयमास १०. अधिक तिथि १९ क्षय तिथि १२, व्यतीपात १३, और कृष्णपक्षको तेरस चौदश अमावस्या इन क्षीण तिथियों में १४, पापग्रहयुक्त चन्द्र में १५, पापग्रह लग्न १६, गुरुका अस्तमें ११, शुक्रका अस्तमें १८, गुरु शुक्रकी बाल और वृद्धावस्थामें १९, ग्रहण के सात दिनोंमें २०, लग्नका स्वामी नीचा में २१, और अस्त में २२, सन्मुख योगिनी में २३, चन्द्रदग्ध तिथिमें २४, सन्मुख राहुमें २५, सिंहस्व में २६, मलमासमें २१, हरिशयनका चौमासामें २८, भद्रामें २९, और तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न, दिशा वगैरह आपस में अशुभ योगोंमें ३०, इत्यादि अनेक निमित्त कारणों में मुहूर्त्त निमित्तिक शुभकार्य्यं वर्जन किये हैं इस लिये न्यायां भोनिधिजी तथा उन्होंके परिवारवाले जो ज्योतिषशास्त्रों के अशुभ योगोंसे शुभकायोंका वर्जन देखके धर्मकायोंका भी वर्जन करेंगे तब तो उन्होंको धर्मकार्य कब करनेका वस्त मिलेगा अथवा शुभयोग बिना धर्मकार्य्य न करते किसीका आयुष्य पूर्ण हो जाये तो उन्हकी आत्माका सुधारा कब होगा सो पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष बिचार लेना - और मेरा इसपर आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको इतनाही कहना है कि न्यायांभोनिधिजी उपरोक्त ज्योतिष शास्त्रों के शुभाशुभयोगोंको न देखते सिंहस्थ में तथा हरिशयन का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०० ] aterers और अधिक मासादिमें धर्मकार्य करते होवेंगे तब तो 'हरिशयनेऽधिके मासे इत्यादि उपरका लोक नारचन्द्रके दूसरे प्रकरणका लिखके अधिक मासादि जितने स्थान बताये उसमें शुभकार्य नही होता है, ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा पर्व करनेका निषेध भोले जीवोंको वृथा क्यों उत्सूत्र भाषणरूप दिखाया और उत्सूत्र भाषणका भय होता तो उपरकी मिथ्या बातों लिखी जिसका मिथ्या दुष्कृत्य देकरके अपनी आत्माको शुद्धि करनी उचित थी और न्यायांभोनिधिजीके परिवारवालों को ऐसा उत्सूत्र भाषणरूप मिथ्या बातोंका अब हठ भी करना उचित नहीं हैइसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि ज्योतिषके शुभाशुभ योगोंका और सिंहत्यका, चौमासाका, अधिक मासादिक का विचार न करते, निःशङ्कित होकर श्रीजिनोक्ल मुजब धर्मकायों में उद्यम करके अपनी आत्माका कल्याण करो आगे इच्छा तुम्हारी ; और आगे फिर भी न्यायां भोनिधिजीनें लिखा है कि [ रत्नकोषाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है यथा यात्रा विवाहमण्डन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि, परिहर्त्तव्यानि बुद्धैः सर्वाणि नपुंसके मासि ॥ १ ॥ " भावार्थ:- यात्रा मण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभ का है सो भी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने में अधिक मासमें त्यागने चाहिये अब देखिये इस लेख से भी अधिक मासमें अत्युत्तमः पर्युषणापर्क करनेकी संगति नहीं हो सकती है ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्ग को दिखाता - जिसमें प्रथमतो. न्यायांनोनिधिजीकों ज्योतिषग्रन्यका विवाहादि कार्योंका दृष्टान्त दिखा करके पर्युषणा पर्वका निषेधः करमाही. उचित नहीं है. इसका उपरमें अच्छी तरहसें खुलासा हो गया है और दूसरा यह है कि श्री तीर्थकर गणधरादि. महाराजोंने... मासद्धिको कालचूलाकी उत्तम ओपमा दिवी है तथापि न्यायांभोनिधिजीने तीनों महाशयोंका अनुकरण करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थमें तथा इन महाराजोंकी आशातना का भय न करते मासऋद्धिको नपुंसककी तुच्छ ओपमा लिख करके भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसाये हैं सो बड़ाही अफसोस है और तीसरा यह है कि रत्नकोषाख्य (रत्नकोष) ज्योतिष शास्त्र में तो मुहूर्त के निमित्तसें जो जो कार्य होते हैं उसी में अनेक. कारण योग वर्जन किये हैं उसीकों सब को छोड़करके सिर्फ एक अधिक मास सम्बन्धी लिखते हैं सो भी न्यायांभोनिधिजीको अन्याय कारक है. इसलिये मुहूर्त के कायौँको दिखाकर बिना मुहूर्तका पर्युषणापर्व करनेका निषेध करना योग्य नही हैं। . ... .. और भी चौथा सुनो-(यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभकार्य है सोझी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक. मासमें त्यागने चाहिये) इसपर मेरा इतना ही कहना है कि पूर्वोक्त तीनों महाशय और चौथे न्यायाभोनिधिजी यह चारों महाशय अधिकमासको नपुंसक कहके जो सर्व.शुभकार्य त्यागने का ठहराते है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि पौषध, प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान, पुण्य, परोपगार, सात क्षेत्रमें द्रव्यखर्चना, जीव दया, देवपूजा, गुरुवन्दनादि देवगुरुभक्ति, साधर्मिकवात्सल्य, विनय, वैयावच्च, आत्मसाधनरूप स्वाध्याय, ध्यानादि, श्रावकके और धर्मोपदेशका व्याख्यानादि साधुके उचित जो जो शुभकार्य है उन्ही शुभकार्योंकों अधिक मासको नपुंसक कहके त्याग देनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा। भक्तजनोंको त्यागनेका नियम भी दिलाया होगा, आपने भी त्यागे होवेंगे और अधिक मासको नपुंसक कहके शुभकार्य चारों महाशय त्यागनेका ठहराते है इससे अशुभ कार्यों का ग्रहण होता है इसलिये उपरोक्त कार्योसे विरुद्ध याने अधिक मासको नपंसक जानके सर्व शुभकार्य त्यागते हुए--निन्दा, ईर्षा, झगड़ादि अशुभकार्य करनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा । दृष्टि रागियोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी ऐसे ही किया होगा। तब तो ( अधिक मासमें सर्वशुभकार्य त्यागनेका ) ज्योतिषशास्त्रका नामसें चारों महाशयोंका लिखके ठहराना उचित ठीक होसके परन्तु जो अधिक मासमें निन्दा ईर्षादि अशुभकार्य त्यागके देवगुरुभक्ति वगैरह शुभकार्य चारों महाशयोंने करनेका उपदेश दिया होगा भक्तजनोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी उपरके अशुभ कार्योंका त्यागकरके शुभकार्योंको किये होवेंगे तबतो अधिक मासमें ज्योतिष शास्त्रका नाम लेकरके सर्व शुभकार्य त्यागनेका ठहराना चारों महाशयोंका भोले जीवोंको भ्रममें गेरके मिथ्यात्व बढ़ानेके सिवाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०३ ] और क्या होगा सो बुद्धिजन सज्जनपुरुष खयं विचार लेना। ___अब पांचमा और भी सुनो कि जो न्यायाम्भोनिधिजी अधिक मासको नपुंसक कहके यात्रा मण्डनका शुभकार्य त्यागनेका ठहराते है परन्तु जैनके और वैष्णवके अनेक तीर्थ स्थान है उसी में अमुक अधिकमासमें अमुक तीर्थयात्रा बन्ध हुई कोई देशी परदेशी यात्री यात्रा करने को न आया ऐसा देखनेमें तो दूर रहा किन्तु पाठकवर्गके सुननेमें भी नही आया होगा तो फिर न्यायाम्भोनिधिजीने कैसे लिखा होगा सो पाठक वर्ग विचार लेना। .. ____ और छठा यह है कि न्यायाम्भोनिधिजी किसी भी अधिक मासमें कोई भी श्रीशत्रुजय वगैरह तीर्थस्थानमें ठहरे होवे उस अधिक मासमें तीर्थयात्रा खास आपने किवी होगी तो फिर अधिक मासमें यात्राका निषेध भोले जीवोंको था क्यों दिखाया होगा सो निष्पक्षपाती सज्जन पुरुष स्वयं विचार लो;__ और सातमी वारकी समीक्षामें कदाग्रहियोंका मिथ्यात्व रूप भ्रमको दूर करनेके लिये मेरेको लिखना पड़ता है कि न्यायाम्भोनिधिजी इतने विद्वान् न्यायक समुद्र होते भी गच्छका मिथ्या हठवादसें संसार व्यवहारमें विवाहादि बड़े ही आरम्भके कराने वाले और अधो. गतिका रस्तारूप लौकिक कार्य न होनेका दृष्टान्त दिखांकर महान् उत्तमोत्तम निरारम्भी ऊर्द्ध गतिका रस्तारूप लोकोत्तर कार्यका निषेध करती वख्त न्याया- . म्भोनिधिजीके विद्वत्ताकी चातुराई किस जगह चली गईथी सो प्रत्यक्ष असङ्गत और उत्सूत्र भाषणरूप लिखते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०४ } जरा भी विचार न आया क्योंकि विवाहादि कार्य्य तो चौमासा में और रिक्तातिथि में तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथि वगैरह कु वार कु नक्षत्र कु योगादि अनेक कारण योगों में निषेध किये हैं और श्रीपर्युषणादि धर्मकार्य्य तो विशेष करके चौमासामें रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथियोंमें कु वार कु नक्षत्र कु योगादि होते भी तिथि नियत पर्व करनेमें आते हैं इस बातका विवेक बुद्धिसे हृदयमें विचार किया होता तो विवाहादि काय्यका दृष्टान्तसे महान् उत्तम पर्युषणा पर्व करनेका निषेध के लिये कदापि लेखनी नही चलाते यह बातपाठकवर्गको अच्छी तरहसे विचारनी चाहिये ; -- और भी आठमी तरहसे सुन लीजिये कि पूर्वोक्क तीनों महाशयोंने और चौथे न्यायांभोनिधिजीनें भोले जीवों के आत्मसाधनका धर्म कायोंमें विघ्नकारक, अधिक मासको तुच्छ नपुंसकादिसें लिखा है सो निःकेवल श्रीतीर्थ- . डूर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि धर्मकाय्यौमें अधिक मास उत्तम श्रेष्ठ महान् पुरुषरूप है ( इसलिये अधिक मासमें धर्मकारar निषेध नही हो सकता है) इस बातका विशेष विस्तार दृष्टान्त सहित युक्ति के साथ अच्छी तरहसें सात में महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा में करनेमें आवेगा सो पढ़ने से सर्व निःसन्देह हो जावेगा ; और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीनें अधिक मास को निषेध करनेके लिये जैन सिद्धान्तसमाचारीको पुस्तकके पृष्ठ ९२ की पंक्ति ११ से पृष्ठ ९३ की आदिमें अर्द्ध पंक्ति तक · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०५ ] लेख लिखके अपनी चातुराई प्रगट किवी हैं उसीका उतारा नीचे मुजब जानो- | [ अधिक मासको अचेतन रूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना देखो आवश्यक निर्युक्ति विषे कहा है यथाजर फुल्ला कणिआरडा, चूअग अहिमासयंमिघुटंमि । तुहनखमं फुल्लेड, जइ पच्चंता करिति डमराई ॥ १ ॥ भावार्थ: हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरे को फुलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं अब देखिये हे मित्र यह अच्छी जातिकी वनपति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है ] ऊपर के लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गकों दिखाता हुं-कि हे सज्जन पुरुषों न्यायाम्भोनिधिजीनें प्रथमतो ( अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है ) यह अक्षर लिखे हैं सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि दशलक्ष प्रत्येक वनस्पति तथा चौदह लक्ष साधारण वनस्पति यह चौata लक्ष योनीको सब वनस्पति अवश्यमेव अधिक मासमें हवा पाणीके संयोग यथोचित नवीन पैदाश होती है औरवृद्धि पानती है प्रफुल्लित होती है और निमित्त कारणसे नष्ट भी होजाती है जैसे बारह मासोंमें हानी वृद्धयादि वनस्पतिका स्वभाव हैं तैसे ही अधिक मास होने से तेरह मासों में भी बरोबर है यह बात अनादि कालसे चली आती है दिखती है क्योंकि इस संवत् १९६६ का लौकिक और प्रत्यक्ष भी पञ्चाङ्गमें दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०६ ] श्रावण मास हुवे है तब भी दोनु श्रावण मासमें वर्षा भी खूब ( गहरी ) हुई है तथा वनस्पति को भी नवीन पैदा होते वृद्धि होते और हानी होते पाठकवर्गने भी प्रत्यक्ष देखा है और देश परदेशके सब वगीचोंमें भी दोन मासोंमें फलों करके तथा फूलों करके वृक्ष प्रफुल्लित पाठकवर्गके देखने में आये होंगें और हरेक शहरों में वनमालि लोग अधिक मास, शाक, भाजी, फल, फूल, वेचते हुवे सब पाठकवर्गके देखने में आते हैं यह बात तो हरेक अधिक मासमें प्रत्यक्ष देखनेमें आती है. परन्तु कोई भी अधिक मासमें कोई भी देशमें कोई भी शहरमें शाक, भाजी, फल, फूलादि नवीन पैदा नहीं होते हैं तथा शहरमें भी वनमालि लोग वेचनेको नही आये हैं वैसा तो कोई भी पाठकवर्गके सुनने में भी कभी नही आया होगा। यह दुनिया परकी जगत् प्रसिद्ध बात है इस लिये अधिक मासको वनस्पति अवश्य ही अङ्गीकार करती है तथापि न्यायाम्भोनिधिजीने (अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है) यह प्रत्यक्ष मिथ्या भोले जीवोंको अपना पक्षमें लानेके लिये लिख दिया-यह बड़ा ही अफसोस है। .... और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजी ( अधिक मासको अचेतनरूप वनस्पति भी मही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना) इस लेखको लिखके मनुष्यादिकोंको अधिक मास अङ्गीकार मही करनेका ठहराते है इस पर तो मेरेको इतनाही कहना है कि न्यायाम्भोनिधिजीके कहनेसें तो सब दुनियाके सब लोगोंकों अधिक मासमें खाना, पीना, सोना, बैठना, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०१ ] लेना, देना, स्त्रियोंकों गर्भका होना और वृद्धि पामना, जन्मना, मरणा, और संसारिक व्यवहारमें व्यापारादि कृत्य करना, दुनीयामें रोगी, तथा निरोगी होना, और दान पुण्यादि भी करना, इत्यादि पाप और पुण्यके कार्य्य करना ही नही होता होगा तब तो मनुष्यादिकों कों अधिक मास अङ्गीकार नही करनेका ठहराना न्यायाम्भोनिधिजीका बन सके परन्तु जो ऊपरके कहे, पाप, पुण्यके, कार्य्यं दुनिया के लोग अधिक मासमें करते है इस लिये न्यायाम्भोनिधिजी का उपरका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या होनेसें पक्षपाती हठग्राहीके सिवाय आत्मार्थी बुद्धिजन कोई भी पुरुष मान्य नही कर सकते है इसको विशेष पाठकवर्ग विचारलेमा ; और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीनें श्री आवश्यक निर्युक्लिकी गाथा लिखी है सो भी निर्युक्तिकार श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामिजी के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप और इस गाथा का सम्बन्ध तथा तात्पर्य्य समझे बिना भोले जीवोंकों संशयमें गेरे हैं इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम की समीक्षा में अच्छी तरहसे किया जावेगा सो पढ़के सर्वनिर्णय करलेना —— और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक निर्युक्तिकी गाथाका भावार्थ लिखा है कि ( हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुलित देखके तेरेको फूलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं ) इस लेख से अधिक मासमें कणियरको फूलना ठहराते अंबको नही फूलना ठहराकर कणियरको तुच्छ जातिकी और अंबको उत्तम जातिका ठहराते हैं सोभी इन्होंकी समझमें फेर है क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०८ ] कप्रियर तो सबीही मासोंमें फूलती है और आंबे श्री सखीही मासों में फूलके फलते है सो कलकत्ता, मुंबई वगैरह शहरोंके अनेक पुरुष जानते है। और कणियर तो उत्तम जातिकी और अंब तुच्छ जातिका कारण अपेक्षासे ठहरता है इसका विशेष खुलासा सातवे महाशयको समीक्षामें करने में आवेंगा और आगे फिर भी श्रीआवश्यक नियुक्ति की गाथा पर न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी चातुराई को प्रगट किवीहै कि (अब देखीये हे मित्र यह अच्छी जातिकी वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है) इस उपरके लेखकी समीक्षा पाठकवर्गकों सुनाता हूं कि न्यायांभोनिधिजी अच्छी जातीकी वनस्पतिको अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होनेका ठहराते हैं इस न्यायानुसार तो न्यायांभोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले भी जो अच्छी जातिको बनस्पतिका अनुकरण करते होवेंगे तब तो अधिक मासको तुच्छही जानके खाना, पीना, देव दर्शन, गुरु वन्दन, विनय, भक्ति, ववादिकको वैयावच्च, धर्मोपदेशका व्याख्यान, व्रत, प्रत्याख्यान, देवसी, राई, पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कार्य करके अपनी आत्माकों पापकृत्योंसें आलोचित देखकरके हर्षसें प्रफुल्लित चित्तवाले मही होते होवेंगे तब तो उपरका लेख वनस्पति सम्बन्धीका लिखना ठीक हैं और उपर कहे सो कृत्योंसे आप हर्षित होते होवेंगे तब तो वनस्पतिकी बातको लिखके भोले जोवोंको श्रीजिनानारूपी रत्नसे गेरनेका कार्य करना तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका कारण है, और विद्वान् पुरुषोंके आगे हास्यका हेतु है सो बुद्धिजन पुरुष विचार लेना ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] और भी दूसरा सुनो अचेताकप, पारपतिको पा अ. बक मास उत्तम है किंवा तुच्छ है रीतिका कोई भी प्रकारका ज्ञान नही है इसलिये ( अच्छी नातिकी वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रपमित नही होती है ) यह अक्षर न्यायांसोनिधिजीके प्रत्यक्ष मिथ्या है। ___और भी मेरेकों बड़े ही अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि न्यायाम्भोनिधिजीने उपरमें वनस्पति सम्बन्धी उटपटाङ्ग लेख लिखते कुछ भी पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसे नही किया मालुम होता है क्योंकि-प्रथम । ( अधिकमास को अचेतनरूप वनस्पति भी नहीं अङ्गीकार करती है) यह अक्षर लिखे फिर आगे श्रीआवश्यक नियुक्ति की गाथा ( शास्त्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में ) लिखके भी भावार्थमें दूसरा। (हे अम्ब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फुलना उचित नहीं है) यह लिख दिया है इससे सिद्ध हुवा कि अधिकमासको वनस्पति जो कणियरकी जाति उसीने अङ्गीकार किया और प्रफुल्लित हुई और वनस्पतिकी जाति अंबा भी अधिक मासको अङ्गीकार करके प्रफुल्लित होताथा तब उसकों कहा कि - तेरेकों फलना उचित नही है। - अब पाठकवर्ग विवार करो कि प्रथर्मका ने अधिक मासको वनस्पति अङ्गीकार नहीं करने लिखा और दूसरे लेखमें अधिक मास, वनस्पतिको फूलना अङ्गीकार करनेका लिखदिया इसलिये जो न्यायाम्भोनिधिनी प्रपन का अपना लेस सत्य ठहराइँगे तो दूसरा लेख मिया हो जायेगा और दूसरा लेखको सत्य ठहराणे तो मतका. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१० नियां हो जावेगा इसलिये पूर्वापर विरोधी (विसम्बादी) वास लिखनेका जो विपाक श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी वृत्ति कहा है (सो पाठ इसी ही पुस्तकके पृष्ठ ८६ : ८७ ६८८ में छप गया है) उसीके अधिकारी न्यायाम्भोनिधिजी हर गये सो पाठकवर्ग विचार लेना ; और अधिकमासको तुच्छ न्यायाम्भोनिधिजी ठहराते हैं सो तो निःकेवल श्रीतीपंङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातनाका कारण करते है क्योंकि श्रीतीर्थरादि महाराजोंने अधिकमासको उत्तम माना है (इसका अधिकार इसी ही पुस्तक में अनेक जगह वारम्वार छपगया है और आगे भी छपेगा) इस लिये अधिकमासको तुच्छ न्यायाभोनिधिजो को लिखना उचित नही था सो भी पाठकवर्ग विचार लो;___ और आगे फिर भी जैन सिद्धान्त समाचारीको पुस्तकके पष्ठ ९३ की प्रथम पंक्ति में १२ वी पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि (हे परीक्षक और भी युक्तियां आपको दिखाते है कि यह जगत्के लोक भी बारामासमें जिस जिस मासके साथ प्रतिबद्धकार्य होते है सो तिस तिस मासमें अधिक मासको छोड़के अवश्य ही करते है जैसे कि आसोज मास प्रतिबद्ध दीवालीपर्व अधिक मासको छोड़के आसोज मासमें ही करते है और आम्बलकी ओली छमासके अन्तरम करनेकी भी अधिक मासको छोड़के आसोज मासमें और चैत्रमासमें करते है ऐसे अनेक लौकिक कार्य भी अपने माने मासमें ही करते है परन्तु आगे पीछे कोई भी नही करते है तो हे मित्र भावनास प्रतिबद्ध ऐसा परम पर्युषणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९९ ] पर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तयें भी और लौकिक रीति भी विरुद्ध है) यह न्यायान्शोनिधिजी का उपरोक अपनी पुस्तके पृष्ठ ९३ की पंक्ति१२ वी तकका लेख है ; इस उपरके लेखकी विशेष समीक्षा खुलासा के साथ लौकिक और लोकोत्तर दृष्टान्त सहित युक्ति पूर्वक पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रोशान्ति विजयजीके नामसे और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामसें करनेमें आवेगा तथापि संक्षिप्त इस जगह भी करके दिखाता हूं जिसमें प्रथमतो अधिक मासको निषेध करने के लिये न्यायाम्भोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और इन्होंके पक्षधारी एक दो छोड़के हजारों कुयुक्तियां करके बालदृष्टि रागियों को दिखाकर अपने दिल में खुसी मामे परन्तु जैन शास्त्रोंकी स्याद्वादशैली के जानकार आत्मार्थी विद्वान् पुरुषोंके आगे एक भी कुयुक्ति नही चल सकती है किन्तु कुयुक्तियांके करने वाले उत्सूत्र भाषणका दूषण के अधिकारी तो अवश्य ही होते हैं इस लिये उपरके लेख में न्यायांभोनिधिजीनें युक्क्रियां के नामसे वास्तविक में कुयुक्लियां दिखा करके अधिक मासको गिनती में निषेध करना चाहा सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि दीवाली ( दीपोत्सव ) और ओलियां यह दोन कार्य जैन शास्त्रों में लोकोत्तर पर्वमे माने हैं सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायांभोनिधिजी ओलियांकों लौकिक पर्व लिखते कुछ भी मिथ्या भाषणका भय न किया मालुम होता है, और दीवाली शास्त्रकारोंने कार्त्तिक मास प्रतिबद्ध कही है सो जगत् प्रसिद्ध है और मारवाड़ पूर्व पञ्जाबादि देशोंके जैनी अच्छी तरह जानते हैं और वास न्यायांभोनिधिजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१२ ] पजाब देशके होते भी और अनेक शास्त्रों में कार्तिकमासका दुलासासें लिखा होते भी भोले जीवोंके आगे अपनी बात . । नमानेके लिये अपने देशकी और शास्त्र की बातको छोड़कर अनेक शास्त्रोंका पाट भी छोड़ते हुए, गुजराती भाषाका प्रमाण लेकरके आसोज मास प्रतिबद्धा दीवाली लिखते हैं सो भी विचारने योग्य बात है और अधिक मास होनेसे अवश्य करके सातमें मासे ओलियां करने में आती हैं तथापि म्यायांभोनिधिजीने अधिक मास होते भी छ मासके अन्तर में लिखा हैं सो मिथ्या है और जैन शाखोंमें तथा लौकिक में जो जो मास तिथि नियत पर्व है सो अधिक मास होने में प्रथम मासका प्रथम पक्ष में और दूसरे मासका दूसरा पक्ष में करनेमें आते हैं इस बातका विशेष निर्णय शहर समाधान सहित उपरोक्त पांच और सातमें महाशयक नामकी समीक्षा आगे देखके सत्यासत्यका पाठक वर्ग स्वयं विचार करलेना ;___ और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने लिखा है कि ( हे मित्र भाद्रव मास प्रतिबद्ध ऐसा परम पर्युषणापर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तसें भी और लौकिक रीतिसे भी विरुद्ध है ) इस लेख में न्यायांसोनिधिजी दो श्रावण होते भी भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा ठहरा करके दो मावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंकों सिद्धान्त से और लौकिक रीतिसें भी विरुद्ध ठहराते हैं सो निःकेवल आपही उत्सूत्र भाषण करते हैं क्योंकि दो मावण होनेसे श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके अनेक पूर्वाचायोने दूसरे माधणमें पर्युषणापर्व करनेका अनेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१३ ] शास्त्रोंमें कहा है और प्राचीन कालमें भी मासवृद्धि होने सें श्रावण मास प्रतिबद्ध पर्युषणा भी इसलिये मासवृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा ठहराना शास्त्रविरुद्ध है और दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंको सिद्धान्तसें और लौकिक रीतिसे विरुद्ध ठहराना सो भी प्रत्यक्ष मिथ्या भाषण कारक हैं इसका उपर में अनेक जगह विस्तारसें छपगया है और आगे विशेष विस्तार सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षामें करनेमें आवेगा ; और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने पर्युषणा सम्बन्धी अपना लेख पूर्ण करते अन्त में पृष्ठ ९३ पंक्ति१३ से पंक्ति १९ तक ऐसे लिखा है कि [ पूर्वपक्ष पृष्ठ १५७ में लिखे हुए पाठका कुछ भी समाधान न किया— उत्तर - हे परीक्षक अधिक मासको जब कालचूला मान लिया तो शास्त्रके लिखे हुए ५० दिन भी सिद्ध होगये और ७० दिन भी सिद्ध होगये तो फिर काहे को अपने अपने मासमें नियत धर्मकार्य्य छोड़के और और कल्पना करके आग्रह करना चाहिये ] यह उपरका लेख न्यायांभोनिधि जीका शास्त्रोंके विरुद्ध और मायावृत्तिका भोले जीवोंकों भ्रमानेके वास्ते है क्योंकि प्रथम तो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५७ में श्री कल्पसूत्रका मूल (सबीसह राइमासे इत्यादि ) पाठ लिखा है और दूसरा श्रीबृहत्कल्प चूर्णिका पाठसें प्राचीनकालकी अपेक्षायें पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दशवें पञ्चक में पचास दिने पर्युषणा दिखाई है और उसी श्रीह Perest पूर्णिमें अधिक मासको मिश्चयके साथ अवश्य विनतीमें लेना कहा है जिसका पाठ आगे उठे महाशब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९४ ] श्रीवाभाविजयजीके नामकी समीक्षामें लिखनेमें आवेगा, इसलिये एड समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ १५७ का पाठ सम्बन्धी पूर्वपक्ष उठाकर उप्तीका उत्तरमें अधिक मासकी गिनती निषेध करना सो तो प्रत्यक्ष न्यायाम्भोनिधिजीका शास्त्र विरुद्ध उत्सूत्र भाषण रूप है ;___और दूसरा यह भी सुन लीजीये कि-श्रीनिशीथ चूर्णि कार श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराजने और श्रीदशवैकालिक सूत्रके प्रथम चूलिकाकी वृहद्वृत्तिकार सुप्रसिद्ध श्रीमान् हरिभद्र सूरिजी महाराजने अधिकमासको कालचूलाको उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य लिखी है तथापि इन महाराजके विरुद्धार्थ में न्यायाम्भोनिधिजी इतने विद्वान् होते भी अधिक मासको कालचूला मानते भी निषेध करते है सो बड़ी ही विचारने योग्य आश्चर्य की बात है; और दो श्रावण होनेसे भाद्रपदतक ८० दिन होते है तथा दो आश्विन होनेसे कार्तिक तक १०० दिन होते है तथापि ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके 90 दिन न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी कल्पनासे कालचूलाके बहाने बनाये सो कदापि नही बन सकते है इसका विस्तार तीनों महाशयों की और खास न्यायाम्भोनिधिजीकी भी समीक्षा में अच्छी तरहसे उपरमें छप गया है सो पढ़के सर्वनिर्णय कर लेना:-और दो श्रावण मास होनेसें दूसरे श्रावण मांस प्रतिबद्ध पर्युषणा पर्व है इसलिये दो श्रावण होते भी भाद्रव मासकी भ्रान्ति करना शास्त्र विरुद्ध है और अब न्यायाम्भोनिधिजीके नाम की पर्युषणा सम्बन्धी समीक्षाके अन्त में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ । श्रीजिनामा आराधक सत्यपाही सज्जन पुरुषों से मेरा यही कहना है कि जैसे पूर्वोक्त तीनों महाशयोंने अपने विद्वत्ताकी कल्पित बात जमानेके लिये पूर्वापर विरोधी तथा उटपटाङ्ग और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको उत्यापन करके अपना अनन्त संसार वृद्धिका भय नही किया तैसें ही चौथे महाशय न्यायाम्भोनिधिजीनें भी तीनों महाशयोंका अनुकरण करके पूर्वापर विरोधी तथा उटपटाङ्ग और नीतीर्थकरगणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण करने में कुछ भी भय नही किया परन्तु मैंने भी भव्यजीवोंके शुद्ध श्रद्धा होनेके उपगारकी बुद्धिसें शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बातोंका देखाव करके कल्पित बातोंकी समीक्षाकर दिखाह है उसीको पढ़के सत्य बातका ग्रहण और असत्य बातका त्याग करके अपनी आत्माका कल्याण करने में उद्यम करेंगे और दृष्टिरागका पक्षपातकों न रखेंगे यही मेरा पाठक वर्गको कहना है ;___ और न्यायाम्भोनिधिजीके लेख पर अनेक पुरुष संपूर्ण रीतिसें पूरा भरोसा रखतेथे कि न्यायाम्भोनिधिजी जो लिखेंगे सो शास्त्रानुसार सत्यही लिखेंगे ऐसा मान्यकरके उन्होंसे पूज्यभाव बहोत पुरुषोंका है। और मेरा भी था परन्तु शास्त्रोंका तात्पर्य देखनेसे जो जो न्यायांभोनिधि जीने महान् उत्सूत्र भाषणरूप अनर्थ किया सो सो सब प्रगट होगया जिसका नमुनारूप पर्युषणा सम्बन्धी न्यायाम्भो. निधिजीने कितनी जगह प्रत्यक्ष मिथ्या और उत्सूत्र भाषण किया है सो तो उपरकी मेरी लिखी हुई समीक्षा पढ़ने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकवर्गको प्रत्यक्ष दिख जावेंगा तथा और भी न्यापा. भोनिधिजीने जनसिद्धान्तसमाचारी नामको पुस्तकमें अनु. मान १५० अथवा९६० शास्त्रोंके विरुद्धार्थ में अनेक जगह प्रत्यक्ष मिथ्या तथा अनेक जगह मायावृत्तिरूप और अनेक जगह शास्त्रों के आगे पीछेके पाठ छोड़के अधूरे अधूरे तथा शाता कारके अभिप्रायके विरुद्ध अनेक जगह अन्याय कारक और अनेक सत्य बातोंका निषेध करके अपनी कल्पित बातोंका उत्सत्र भाषणरूप स्थापन इत्यादि महान् अनर्थ करके भोले दूष्टिरागी गच्छ कदाग्रही बालजीवोंकों श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाका मोक्षरूपी रस्तापरसें गेरके संसाररूपी मिथ्यात्व का रस्तामें फसानेके लिये जैन सिद्धान्त समाचारी, पुस्तक का नाम रखके वास्तविकमें अनन्त संसारकी इद्धिकारक मिथ्यात्वरूप पाखण्डकी समाचारी न्यायाम्भोनिधिजीने प्रगट करके अपनी आत्माकों इस संसाररूपी समुद्र में क्या पा इनामके योग्य ठहराई होगी तथा अब इन्होंके परिवार वाले और इन्होंके पक्षधारी भी उसी मुजब वर्तते है जिन्होंकों इस संसार में क्या इनाम प्राप्त होगा सो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें ;-इम लिये श्रीसङ्घकों और न्यायाम्भोनिधि जीके पक्षधारी तथा इन्होंके परिवार वालोंको उपर की पुस्तक सम्बन्धी बातोंके लिये मेरा अभिप्राय इस पस्तकके अन्तमें विनती पूर्वक जाहिर करने में आवेगा और पांचवें महाशय न्यायरबजी श्रीशान्तिविजयजी तथा छठे महाशय श्रीवमभविजयजी और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा में प्रसङ्गोपात थोड़ी थोड़ी बातोंका उपर की पस्तक सम्बन्धी दर्शाव भी करनेमें आवेगा ;पति चौर्षे महाशय न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजीके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समासः॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१७ ] अब आगे पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्मसंहिता नामा पुस्तक में जो पर्युषणा सम्बन्धी लेख अधिक मासको निषेध करनेके लिये लिखा है उसकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हु जिसमें प्रथमतो मानवधर्मसंहिता पुस्तकके पृष्ठ ८०० की पंक्ति १७ वीं से पृष्ठ ८०९ की पंक्ति २१॥ तक जैसा न्यायरत्नजीका लेख है वैसाही नीचे मुजब जानो ;- दो श्रावण होतो भी भादवेमें ही पर्युषणापर्व करना चाहिये, अगर कहा जाय कि-आषाढ़सुदी १४ चतुर्दशीसे ५० रोज लेना कहा यह कैसे सबुत रहेगा ? जबाब-कल्प. सूत्रकी टीकामें पाठ है कि-अधिकमास कालपुरुषकी चूलिका यानी चोटी है, जैसे किसी पुरुषका शरीर उचाईमें नापा जाय तो चोटीकी लंबाई नापी नही जाती, इसी तरह कालपुरुषकी चोटी जो अधिकमास कहा सो गिनतीमें नहीं लिया जाता, कल्पसूत्र की टीकाका पाठ कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव,-अगर लिया जाता हो तो पयुषणा पर्व-दूसरे वर्ष श्रावणमें और इस तरह अधिक महिनोंक हिसाबसैं हमेशां उक्त पर्व फिरते हुवे चले जायगें, जैसे मुसल्मानोंके ताजिये-हर अधिक मासमें बदलते रहते हैं, दूसरा यह भी दूषण आयगा कि-वर्षभरमें जो तीन चातुमासिक प्रतिक्रमण किये जाते हैं उनमें पञ्चमासिक प्रतिक्रमणपाठ बोलना पड़ेगा, शीतकालमें और उष्णकालमें तो अधिक महिना गिनतीमें नही लाना और चौमासेमें गिनतीमें लाकर श्रावणमें पर्युषणा करना किस न्यायकी बात हुई ? अगर कहा जाय कि-पचास दिनकी गिनती २८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९८ ] लिइ जाती है तो पिछले 90 दिनकी जगह १०० दिन हो जायगें, उधर दोष आयगा, संवत्सरीके पीछे 90 दिन शेष रखना - यह बात समवायाङ्गसूत्रमें लिखी है - उसका पाठ- वासाणं सवीसहराए मासे वइक ते सत्तरिराइदिएहिं सेसेहिं, इसलिये वही प्रमाण वाक्य रहेगा कि -- अधिकमास कालपुरुषकी चोटी होनेसें गिनती में नही लेना, अधिक महिनेकों गिनती में लेनेसें तीसरा यह भी दोष आयगा कि - चोईस तीर्थङ्करों के कल्याणिक जो जिस जिस महिनेकी तिथिमें आते हैं गिनतीमें वे भी बढ़ जायगें, फिर क्या ! तीर्थङ्करोंके कल्याणिक १२० से भी ज्यादे गिनना होगा ? कभी नही, इस हेतु से भी अधिकमास नही गिना जाता अधिक महिनेके कारणसे कभी दो भादवे हो तो दूसरे भादवेमें पर्युषणा करना चाहिये जैसे दो आषाढमहिने होते हैं तब भी दूसरे आषाढ़ में चातुर्मासिककृत्य किये जाते हैं वैसे पर्युषणा भी दूसरे भादवेमें करना न्याययुक्त है ।] अब न्यायरत्नजीके उपरका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हु जिसमें प्रथमतो ( दो श्रावण हो तो भी भाद्रवें में ही पर्युषणापर्व करना चाहिये) यह लिखना न्यायरत्नजीका शास्त्रों में बिरुद्ध है क्योंकि खास न्यायरत्नजीकेही परमपूज्य श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्थ्यांने दो श्रावण होने से दूसरे श्रावण में पर्युषणापर्व करनेका कहा है जिसका अधिकार उपर में अनेक जगह और खास करके चारों महाशयों के नामको समीक्षा में अच्छी तरहसें छपगया है इसलिये दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें अपने पूर्वजोंके विरुद्धार्थमें पर्युबणापर्व स्थापन करना न्यायरत्नजीको उचित नही है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१९ ] और दूसरा यह है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् उत्तम पुरुषोंने सूत्र, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति, नियुक्ति प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में मासवृद्धिके अभावसें भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करनी कही है परन्तु एकावन ५१ में दिने श्रीजिनाज्ञाके आराधक पुरुषोंकों पर्युषणा करमा नही कल्पे और एकावन दिने पर्युषणा करने वालोंकों श्री जिनाजाके लोपी कहे है सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायरबजी. इतने विद्वान् हो करके भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके वधनको प्रमाण न करते हुए अनेक सूत्र, चूण्यादि शास्त्रों के पाठोंको उत्थापते हुए मासवृद्धि दो श्रावण होते भी ८० दिने भाद्रपदमें पर्युषणापर्व करनेका लिखते कुछ भी उत्सूत्र भाषणका भय नही करते हैं यह वहाही अफसोस है; और दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेसे प्रत्यक्ष ५० दिन होते हैं तथा अधिकमास भी शास्त्रानुसार और न्याययुक्ति सहित अवश्य निश्चय करके गिनतीमें सर्वथा सिद्ध है सो उपरमें भनेक जगह छपगया है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध करना भी उत्सत्र भाषणरूप अन्याय कारक है तथापि न्यायरत्नजीने उत्सत्र भाषणका विचार न करते अधिक मासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये जो जो विकल्प करके शास्त्रोंके विरुद्धार्थमें भोले जीवोंकी श्रद्धाभङ्ग होनेके लिये लिखा है उसीकी समीक्षा करता हुँ-जिसमें प्रथमतो दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसका अपनी कल्प. मासे ५० दिन बनानेके लिये न्यायरत्नजी लिखते है कि[कल्पसूत्रकी टीकामें पाठ है कि अधिकमास काल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२० ] पुरुषकी चूलिका यानी चोटी है जैसे किसी पुरुषका शरीर उचाईमें नापा जाय तो चोटीकी लंबाई नापी नही जाती है इसी तरह कालपुरुषकी चोटी जो अधिकमास कहा सो गिनती में नहीं लिया जाता कल्प पत्रकी टीकाका पाठकालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव ] । इस उपरके लेख में न्यायरत्नजीने अधिकमासको कालपुरुषकी चोटी लिखकर गिनतीमें नही लेनेका ठहराया है सो निःकेवल श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्वार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको दिनों में पक्षोंमें मासोंमें वर्षों में अनादिकाल हुवा निश्चय करके गिनतीमें लिया है आगे लेवेंगे और वर्तमान काल में भी श्रीसीमंधर स्वामीजी आदि तीर्थङ्कर गणधरादि महाराज महाविदेह क्षेत्रमें अधिक मासको गिनतीमें लेते हैं तैसेही इस पञ्चमें कालमें भरत क्षेत्रमें भी अनेक आत्मार्थी पुरुष अनेक शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक देशकालानुसार अधिक मासको अवश्यही गिनतीमें लेते हैं इस बातका अनेक जगह उपरमें अधिकार छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये अधिकमासकों गिनती में नही लेनेका ठहराना न्यायरत्नजीका उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे प्रमाणिक नही हो सकता है। और न्यायरत्नजी अधिक मासको कालपुरुषको चलिका कहकर चोटी अर्थात् घासकी तरह केशांकी चोटीवत् लिखते हैं सो भी शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने चूलिका याने शिखरकी ओपमा गिनती करने योग्य दिवी है । जैसे। लक्ष योजनका सुमेरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२१ ] पर्वतके चालीश योजनका शिखरको तथा अन्य भी हरेक पर्वतोंके शिखरों कों और देव मन्दिरोंके शिखरों को शास्त्रकारोंने क्षेत्रचूलाकी ओपमा दिवी है नतु केशांकी चोटीवत् घासकी, और श्रीपञ्चपरमेष्टि मन्त्रके शिखररूप चार पदों को तथा श्रीआवागङ्गकी सूत्रके शिखररूप दो अध्ययनकों और श्रीदशवकालिकजी सूत्रके शिखररूप दो अध्ययनकों शास्त्रकारोंने भावचूलाकी ओपमा दिवी है जिसकी अवश्यही गिनती करनेमें आती हैं। तैसेही। चन्द्र संवत्सररूप कालपुरुषके शिखररूप अधिक मासकों कालचूलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग शास्त्रकारोंने दिवी है और अधिक मास होनेसें तेरह मासोंका अभिवर्द्धितसंवत्सर श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने कहा है सो अनेक शास्त्रों में प्रसिद्ध है और खास करके अधिक मासको कालचूलाको उत्तम ओपमा लिखने वाले श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराज भी निश्चय करके गिनतीमें लेने का लिखते हैं,और भी दूप्तरा सुनों कि-जैसे। श्रीतीर्थङ्कर महाराजांके निज निज अंगुलियोंके प्रमाणसें मस्तक तक शरीरकी लंबाई १०८ अंगुलीकी होती है और मस्तक पर बारह अंगुलीकी उशिका (शिखा ) कों शिखररूप चूलाको ओपमा है जिसको सामिल लेकर १२० अंगुलीका श्रीतीर्थङ्कर महाराजांके शरीरके गिनतीका प्रमाण सबी शास्त्रकारोंने कहा है। तैसेही । संवत्सररुप कालपुरुष का निज स्वभाविक प्रमाण ३५४ दिन, १९ घटीका और ३६ पलका है तथा संवत्सररूप कालपुरुषका शिखररूप अधिक मासको कालचूलाकी ओपमा है जिसका प्रमाण २० दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२२ ] ३० घटीका और ५८ पलका है जिसको सामिल लेकर ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे तेरह मासोंकी गिनती का हिसाबसे अभिवर्द्धित संवत्सर सबी शास्त्रकारों में और खास श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यों ने भी कहा है। और अधिक मासको कालचूला कहनेसें भी गिनतीमें अवश्यही लेना शास्त्रकारोंने कहा है उस सम्बन्धी इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४८ से ६५ तक तथा और भी अनेक जगह पगया है सो पढ़नेसे सर्व निःसन्देह हो जावेगा इसलिये न्यायरबजी अधिक मासको कालपुरुषकी चोटी लिखकरके गिनतीमें नही लेनेका ठहराते हैं सो पृथा अपनी कल्पनासें भोले जीवोंकी शाखानुसार सत्य बात परसें श्रद्धाभङ्ग कारक उत्सूत्र भाषण करते हैं सो उपरके लेखसें पाठकवर्ग विशेष अपनी बुद्धिसे भी विचार सकते हैं ;. और श्रीकल्पसूत्रको टीकाका प्रमाण न्यायरबजीने दिखाया सो तो ( अंधेचुये थोथेधाम, जैसेगुरु तेसयजमान) की तरह करके अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप अन्ध परम्पराका मिथ्यात्वको पुष्ट किया है क्योंकि प्रथम श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्पकिरणावलीमें श्रीअमन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांके विरुद्धार्थ में अपनी कल्पनासे जैन शास्त्रोंके अतीव गम्भीरार्थके तात्पर्य्यको समझे बिना उत्सत्र भाषगरूप जैसे तैसे लिखा है उसीकों देखके दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिकामें तथा तीसरे श्रीविनयविजय जीने श्रीसुषयोधिका भी उसी तरहके उत्सूत्र भाषणके गप्पोंको लिखे हैं और उसीका शरणा लेकरके चौथे न्यायांभो निधिजीने भी जैन मिद्धान्त समाचारीकी पुस्तक में अपनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२३ ] चातुराईके साथ उत्सत्र भाषणकी बाते प्रगट किवी है और ऐसेही गाडरीया प्रवाहवत् उसी बातोंकों वर्तमानमें म्यायरत्नजी जैसे भी लिखते हैं परन्तु तत्त्वार्थको जरा भी नही विचारते हैं क्योंकि श्रीविनयविजयजी वगैरह चारो महाशयोंमें कालचूलाके नामसे अधिक मासकों गिनतीमें नही लेनेका शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में ठहराया है जिसकी समीक्षा अच्छी तरहसें इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ५८सें यावत् पृष्ठ २९६ तक उपरमें छप चुकी है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा तथापि श्रीविनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिकाके अनुसार अपनी अपनी चातुराइसें विशेष कुयुक्तियांके विकल्प उठा करके भोले जीवोंको भ्रममें गेरनेके लिये न्यायरत्नजी वगैरहने वृथा परिश्रम किया है उन कुयुक्तियांका समाधान युक्तिपूर्वक लिखना यहां सरू है जिसमें न्यायरत्नजीने श्रीकल्पसूत्रकी टीकाका पाठ श्री. विनयविजयजी कत दिखाया सो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसें मैंने उसीकी समीक्षा तो पहिलेही कर दिखाई है इसलिये श्रीविनयविजयजीकृत उत्सत्र भाषण सूप उपरके पाठकों म्यायरबजीको लिखना भी उचित नही है और पक्षपाहियोंके सिवाय आत्मार्थी पुरुषों को मान्य करना भी उचित नही है याने सर्वथा त्यागने योग्य है सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग भी अच्छी तरहसें विचार लेना ; और आगे फिर भी अधिक मासको गिनती नही लेनेके लिये न्यायरत्नजीने अपनी चातुराईको प्रगट करके लिख दिखाई है कि ( अगर लिया जाता हो तो पर्युषणा पर्व दूसरे वर्ष प्रावणमें और इस तरह अधिक महिनोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२४ ] हिसाब से हमेशां उक्त पर्व फिरते हुवे चले जायगे जैसे मुसलमानोंके ताजिये हर अधिकमास में बदलते रहते हैं ) न्यायरत्नजीका इस लेखपर मेरेको बड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है और न्यायरत्नजीकी वड़ीही अक्षता प्रगट दिखती है सोही दिखाता हूं जिसमें प्रथम तो आश्चर्य उत्पन्न होनेका तो यह कारण है कि स्याद्वाद, अनेकांत, अविसंवादी, अनन्तगुणी, परमोत्तम ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान् श्रीजिनेन्द्र महाराजों के कथन करे हुवे अत्युत्तम अहिंसा धर्मके वृद्धिकारक ऊर्द्धगतिका रस्तारूप धर्मध्यान दानपुण्य परोपकारादि उत्तमोत्तम शुभकायका निधि शान्त चित्तको करने वाले और पापपङ्क ( कर्मरूप मेल) को नष्ट करने वाले श्रीपर्युषण पर्व के साथ उपरोक्त गुणो से प्रतिकुल मिथ्यात्वी और वितविटंबक पाखंडरूप अधर्मकी वृद्धिकारक तथा छ (६) कायके जीवोंका विनाश कारक नरकादि अधोगतिका रस्तारूप आर्त्तरौद्रादि युक्त ताजियांका दृष्टान्त न्यायरत्न जीनें दिखाया इसलिये मेरेकों आश्चर्य उत्पन्न हुवा कि जो न्यायरत्नजीके अन्तःकरण में सम्यक्त्व होता तो चिन्तामणिरत्नरूप श्रीपर्युषण पर्व के साथ काचका टुकड़ारूप ताजियांका दृष्टान्त लिखके अपनी कल्पित बातको जमानेके लिये अधिक मासका निषेध कदापि नही दिखाते इस बातकों पाठकवर्ग भी विचार लेना ; और वड़ा खेद उत्पन्न होनेका तो कारण यह है कि श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्थ्यांने और खास न्यायरत्नजीके पूज्य अपने श्रीतपगच्छके ही पूर्वा · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२५ ] चाय्याने अनेक शास्त्रों में अधिकमासको सर्वथा करके परिपूर्ण रीतिसें विस्तारपूर्वक खुलासाके साथ निश्चय करके अवश्यही गिनतीमें लिया है. जिसमें श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति १ तथा एत्ति २ श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति ३ तथा वृत्ति ४ श्रीज्योतिषकरण्ठ पयन्ना ५ तथा ऐत्ति ६ श्रीप्रवचनसारोद्धार ७ तथा वृत्ति श्रीसमवायाङ्गजीसूत्र तथा वृत्ति १० श्रीजम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति ११ तथा तीनकी दो (२) वृत्ति १३ इत्यादि अनेक शास्त्रोंके पाठ न्यायरत्नजीने देखे है जिसमें अधिक मासको गिमतीमें लिया है जिसमें भी श्रीज्योतिषकरण्पयन्नाकी वृत्ति तो न्यायरत्नजीने एकवार नही किन्तु अनेकवार देखी है उसी में तो विशेष करके समयादि कालकी व्याख्या किवी है कि असंख्याता समय जानेसे एक आवलिका, १, ६७, ७, २१६, आवलिका जानेसे एकमुहूर्त होता है श्रीश मुहूर्तसें एक अहोरात्रि रूप दिवस होता है ऐसे पन्दरह दिवस जानेसे एकपक्ष होता है दो पक्षसें एकमास होता है दो माससे एक ऋतु होता है छ ऋतुयोंसें एक सम्वत्सर होता है इसी ही तरहसे नक्षत्र सम्वत्सरके, चन्द्रसम्वत्सरके, ऋतु सम्वत्सर के, सूर्यसम्वत्सरके, और अभिवर्द्धितसम्वत्सरके, मुहूौंका जूदा जूरा हिसाब विस्तारपूर्वक दिखाकर पांच सम्वत्सरोंका एक युगके ५४९०० मुहूर्त दिखाये हैं जिसमें एक युगके पांच संवत्सरोमें दो अधिक नासके भी मुहूतोंकी गिनती साथमें लेनेसेंही ५४९०० मुहूर्तका हिसाब मिलता है अन्यथा नहीं इस तरहसें कालकी व्याख्या समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपम, सागरोपम और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी कालसें अनन्तकालकी २८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२६ ] माल्याकी गिनती में अधिक मासको प्रमाण किया है और अधिक मासकी उत्पत्तिका कारण कार्यादि गिणित पूर्वक श्रीमलयगिरिजी महाराजने श्रीज्योतिषकरण्डपयन्नाकी वृत्तिमें विस्तार किया है इस ग्रन्थको न्यायरत्नजीने अनेक चार देखा है और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ महाराजोंने अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण किया है सो भनेक शास्त्रोंके पाठ प्रसिद्ध है और खास न्यायरत्नजीने मानवधर्मसंहिता पुस्तकके पृष्ठ २४ की पंक्ति २० वी से २२॥ पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि ( उत्सूत्र भाषण समान कोई बड़ा पाप नही सब क्रियाधरी रहेगी उक्त पाप दुर्गतिको ले जायगा जमालिजीने गौतमगणधर जैसी क्रिया कि लेकिन देख लो किस गतिको जाना पड़ा ) और पृष्ठ ५८८ की पंक्ति १४-१५ में फिर भी लिखते हैं कि ( सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रके पाठको उत्थापन करेगा उसका निर्वाण होना मुश्किल है) इस लेखपरसें सज्जन पुरुषोंकों विचार करना चाहिये कि-श्रीअमन्त तीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ महाराजोंने अधिकमास को गिनतीमें प्रमाण किया हुवा है सो अनेक शास्त्रोंके पाठ प्रसिद्ध है तथापि पक्षपातके जोरसें न्यायरत्नजीने अनन्ततीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ भगवानोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषण करनेके लिये सर्वज्ञ प्रणीत अनेक शास्त्रोंके पाठोंकों उत्यापन करके उत्सूत्र भाषणका बड़ा भारी पाप दुर्गतिको देनेवाला तथा संसारमें रुलानेवाला अपना लिखा हुवा उपरका लेखको भी सर्वथा भूल गये इसलिये मेरेकों बड़ा खेद उत्पन्न हुवा कि न्यायरत्नजी जानते हुए भी उत्सूत्र भाषणरूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२७ ] संसारकी खाड़में गिरे और अपनी आत्माका बचाव तो करना दूर रहा परन्तु भोले जीवों को भी उसी रस्ते पाहु. चाये सो उपरके लेखसै पाठकवर्ग विशेष विचार लेना; और अधिक मासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये न्यायरत्नजीने मुसल्मानोंके ताजिये हरेक अधिक मासके हिसाबसे फिरनेका दृष्टान्त दिखाके सर्वज्ञ कथित पर्युषणा पर्व भी अधिक मासके हिसाबसे फिरते रहनेका न्यायरता जीने लिखा सो बड़ी अज्ञता प्रगट किवी है जिसका कारण यह है कि श्रीसर्वज्ञ भगवानोंने मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी खास करके विशेष जीवदयादिककेही कारणे वर्षा ऋतुमें आषाढ़ चौमासीसे उपरके लिखे दिनोंके गिनतीकी मर्यादा [प्रमाण से निश्चय करके श्रावण अथवा भाद्रपद मेंही-कारण, कार्य, ऋतु, मास, तिथिका नियमसें ही श्रीपर्युषणापर्वका आराधन करना कहा है तथापि न्यायरत्नजी अधिक मासके हिसाबसें पर्युषणापर्व फिरते हुए चले जानेका लिखकर जैन शास्त्रों के विरुद्धार्थमें आषाढ़, ज्येष्ठ, वैशाखादिमें पर्युषणा होनेका दिखाते हैं इसलिये न्यायः राजीकी असतामें कुछ कम हो तो पाठकवर्ग तत्वार्थकी बुद्धिसें स्वयं विचार लेना ;. तथा और भी न्यायरत्नजीके विद्वत्ताकी चातुराईका नमुना सुनिये-कि श्रीजैन शास्त्रों में पांच प्रकारके संवत्सरों से एक युगका प्रमाण कहा हैं जिसमें सूर्यको गतिका हिसाबसें सर्य संवत्सरकी अपेक्षासें जैनमें मासवृद्धिका अभाव हैं परन्तु चन्द्र की गतिका हिसाबसें चन्द्रसंवत्सरकी अपेक्षासें एक युगकी पूरतीकेही लिये खास दो अधिकमास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२८ ] होते हैं जब अधिकमास जिस संवत्सरमें होता है तब उस संवत्सरमें तेरह मास होनेसे संवत्सरका नाम भी अभिवर्द्धित कहा जाता है-अधिक मासको गिनतीमें लिया जिससे संवत्सरका भी प्रमाण वढ़ गया और युगकी पूरतीका भी बरोबर हिसाब मिलगया-अधिक मास अनादिकाल हुए होता रहता है तथा मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने श्रीपर्युषणापर्वका आराधन वर्षा ऋतुमें ही करना कहा है यह बात आत्मार्थी विवेकी विद्वानोंसे छुपी हुई नही है याने प्रसिद्ध है इसलिये श्रीपर्युषणापर्व अधिक मास हो तो भी वर्षा ऋतुके सिवाय और ऋतुयोंमें कदापि नही हो सकते हैं और मुसल्मान लोग तो सिर्फ एक चन्द्र दर्शनकी अपेक्षासे २९ । ३० दिनका महिना मान्यकरके बारह महिनोंके ३५४ दिनका एक वर्ष मानते है और अधिक मासका भिन्न व्यवहारको नही मानते हैं याने चन्द्रके हिसाबसें बारह बारह महिनोंका एक एक वर्ष मानते चले जाते हैं परन्तु अपने माने मास तारीख नियत ताजियें भी करते रहते हैं और जैन तथा दूसरे हिन्दू अधिक मासको मान्य करके तेरह मासोंका वर्ष मानते हैं तथा अपने माने मास, तिथि नियत पर्व भी करते है इसलिये जैन तथा दूसरे हिन्दूयांके तो ऋतु, मास, तिथि नियत पर्व अधिक मास होतो भी फिरते हुए नही चले जाते है परन्तु मुसल्मान लोग अधिक मासको नही मानते हुए अनुक्रमे सीधा हिसाब से ही वर्त्तते है इस लिये लौकिकमें अधिक मास होनेसें मुसलमानोंके ताजिये अमुक ऋतुमें तथा अमुक लौकिक मासमें होते हैं यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] मियम नही रहता है याने हर अधिक मासके हिसाबसें पश्चादानुपूर्वी अर्थात् आषाढ़, ज्येष्ठ, वैशाख,चैत्र, फाल्गुन, माघ, पौषादि हरेक मासोंमें होते है इसलिये मुसल्मानोंके ताजिये फिरनेका दृष्टान्त लिखके श्रीपर्युषणापर्व फिरनेका दिखाना सो पूरी अन्तताका कारण है इसलिये श्रीसर्वज्ञ कथित श्रीपर्युषणापर्व फिरनेका और अधिक मासको गिनती में निषेध करने के संबन्धी मुसल्मानोंके ताजियांका दृष्टान्त उत्सत्र भाषणरूप होनेसें न्यायरत्नजीको लिखना उचित नही है इस बातको सज्जन पुरुष उपरके लेखसें स्वयं विचार सकते है;___और आगे फिर भी न्यायरत्नजीने अपनी कल्पनासे लिखा है कि (दूसरा यह भी दूषण अयगा कि वर्षभरमैं जो तीन चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किये जाते है उसमें पचमासिक प्रतिक्रमणका पाठ बोलना पड़ेमा शीतकालमें और उष्णकालमें तो अधिक महिना गिनतीमें नहीं लाना और चौमासेमें गिनती में लाकर प्रावणमें पर्युषणा करना किस न्याय की बात हुई ) इस लेखसे न्यायरत्नजीने जैनशास्तों का तथा अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने वालोंका तात्पर्य्यको समझे बिना दूसरा दूषण लगाया सो मिथ्याभाषण करके वड़ी भूल करी है क्योंकि जिस चौमासेमें अधिक मास होता है उसीको अभिवर्द्धित चौमासा कहा जाता है संवत्सरवत् अर्थात् जिस संवत्सरमें अधिक मास होता है उसीको अभिवर्द्धित संवत्सर कहते है इसी ही न्यायानुसार अधिक मास होथे तब उस चौमासेमें पञ्चमास तथा संवत्सरमें तेरह मासका पाठ सर्वत्र प्रतिक्रमणमें अवश्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३० ] ही बोला जाता है इसका विशेष निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षामें करने में आवेगा. ;-- और शीतकाल हो तथा उष्णकाल हो अथवा वर्षाकाल हो परन्तु लौकिक पञ्चाङ्गमें जो अधिकमास होगा ret कालमें अवश्य ही गिनती में करके प्रमाण करना यह तो स्वयं सिद्ध न्याययुक्ति की बात है जैसे वर्षाकाल में श्रावण भाद्रपदादि मास बढ़नेसें गिनती में लिये जाते है तैसे ही शीतकाल में तथा उष्णकालमें भी जो मास वढ़े सो ही गिनाजाता है इस लिये न्यायरत्नजीनें उपरका लेखमें शीतकालमें और उष्णकालमें अधिक मासको गिनती में नही लानेका लिखती वख़्त विवेक बुद्धिसे विचार किया होता तो मिथ्या भाषणका दूषण नही लगता सो पाठकवर्ग विचार लेना, • और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीनें अपनी विद्वत्ताकी चतुराई को प्रगट करनेके लिये लिखा है कि [ अगर कहा जाय कि पचाशदिनकी गिनती लिइजाती है तो पिछले 90 दिनकी जगह १०० दिन होजायेगे उधर दोष अध्यगा संवत्सरीके बाद 90 दिन शेष रखना यह बात समवायाङ्ग सूत्रमें लिखी हैं उसका पाठ - वासाणं सवीसइराइ मासे व कुन्ते सत्तरिराइदिएहिं सेसेहिं, इस लिये वही प्रमाणवाक्य रहेगा कि अधिक मास कालपुरुषकी चोटी होने से गिनती में नही लेना ] इस लेखपर मेरेको बड़े अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि न्यायरत्नजीकों विद्वत्ताकी चातुराई किस जगह में चली गई होगी सो अपने नामके विद्यासागरादि विशेषणेको अनुचितरूप कार्य्यकर के उपरके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३१ । लेखमें दो प्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसके ५० दिन बनालिये और दो आश्विन होनेसें कार्तिक । तक १०० दिन होते हैं जिसके 90 दिन अपनी कल्पनासे बना लिये परन्तु श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके कषित सूत्र सिद्धान्तोंके पाठोंका उत्थापनरूप मिथ्यात्वका कुछ भी भय नही किया क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अनेक सूत्र सिद्धान्तोंमें समयादि सूक्ष्मकालकी गिमतीसे एकयुगके दोनुं ही अधिक मासको गिनतीमें लिये है इसका विस्तार उपरमें अनेक जगह छप गया हैं और पद्यरूप वस्तुयोंमें एककाल द्रव्यरूप वस्तु भी शाश्वती है जिसके अनन्त कालचक्र व्यतीत होगय है और आगे भी अनन्ते कालचक्र व्यतीत होवेंगे जिसमें चन्द्र, सूर्यके, शाश्वते विमान होनेसें चन्द्रके गतिका हिसाब से अनन्ते अधिक मास भी श्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजों के सामने व्यतीत होगये और आगे भी होवेंगे इस लिये सम्यक्त्वधारी मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी प्राणी होगा सो तो कालद्रव्यकी गिनतीके दो अधिक मास तो क्या परन्तु एक समय मात्र भी गिमती में कदापि निषेध नही कर सकता है तथापि न्यायरत्नजी जैनश्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा तथा विद्यासागरका विशेषण धारण करते भी श्रीसर्वज्ञ कथित सिद्धान्तोंमें कालद्रव्य रूप शाखती वस्तुका एक समयमात्र भी निषेध नही हो सके जिसके बदले एक दम दो मासकी गिनती निषेध करके श्रीजैनश्वेताम्बरमें उत्सत्र भाषणरूप मिथ्यात्वके उपदेष्टा होनेका कुछ भी भय नहीं करते है, हा अतीव खेदः, इस लेखका तात्पर्य यह है कि जैन शास्त्रानुसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३२ ] एक समय मात्र भी जो काल व्यतीत हो जावे उसकी अव. श्यही गिनती करने में आती है तो फिर दो अधिक मासको गिनतीमें लेने इसमें तो क्याही कहना याने दो अधिक मासकी निश्चय करके भवश्यही गिनती करमा सोही सम्य. कत्व धारियों को उचित है इसलिये दो अधिक मासकी गिनती निषेध करके ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन न्यायरत्नजीने उत्सूत्र भाषणरूप अपनी कल्पनासे 'बनाये सो कदापि नही बन सकते है इसलिये दो श्रावण होनेसे अनेक शास्त्रानुसार पचास दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करना और पर्युषणाके पिहाड़ी १०० दिन भी अनेक शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक रहते है जिसको सान्य करने में कोई दूषण नही हैं तथापि न्यायरबजीने दूषण लगाया सो मिथ्या है इस उपरके लेखका विशेष विस्तार तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पष्ठ १९७ में पृष्ठ १२८ तक तथा चौथे महाशयके नामकी समीक्षामें भी पृष्ठ १७४ - पृष्ठ १८५ तक भी अच्छी तरहसे सूत्रकार श्री गाधर महाराजके तथा वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय सहित युक्तिपूर्वक छप चुका है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा ; तथा थोडासा और भी सुन लिजीयें कि, श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें श्रीगणधर महाराजने तथा कृत्तिकार महाराजमें अनेक जगह खुलासापूर्वक अधिक मासको 'गिनती प्रमाण किया है तथापि न्यायरत्नजी हो करके सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में अधिक मासकी गिनती निषेध करके मूलसूत्रके पाठोंको तथा वृत्तिके पाठोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३३ ] उत्यापन करते है और चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी उपरका पाठ भीगलवर महाराजने कहा है तथापि इसका तात्पर्य समझे बिना दो प्रावख होनेसे पांच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें उपरका पाठ सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में न्यायरत्नजी लिखते हैं इसलिये न्यायरत्नजीको श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठोंका तात्पर्य्य समझ में नही आया मालुम होता है तो फिर न्यायरत्न का और विद्यासागरका जो विशेषण श्रीशान्तिविजयजी ने धारण किया है सो कैसे सार्थक हो सकेगा सो पाठक वर्ग सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिसें स्वयं विचार लेना ;. और न्यायरत्नजी कालपुरुषकी चोटीकी भ्रान्ति में अधिक मासको गिनतीमें निषेध करते हैं सो भी जैन शास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना उत्सूत्र भाषण करते हैं इसका निर्णय इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४८ से ६५ तक तथा चारों महाशयोंके नामकी समीक्षामें और खास न्यायरत्न जीकेही नामकी समीक्षामें उपरमें पृष्ठ २२० । २२९ । २२२ तक अच्छी तरहसें खुलासाके साथ छप गया है सो 'पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा कि शिखररूप चूलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य दिनी है इसलिये चोटी कहके निषेध करनेवाले मिथ्यावादी है सो उपरोक्त लेख में पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना ;- और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीने लिखा है कि ( अधिक महिनेको गिनती में लेमेसें तीसरा यह भी दोष आयगा कि चौइस तीर्घरोंके कल्याणिक जो जिस जिस महिनेकी तिधिमें आते हैं गिनती में वे भी बढ़ जायगें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३४ ] फिर तीर्थङ्करोंके कल्याणिक १२० से भी ज्यादे गिनना होगा कभी नही इस हेतु से भी अधिक मास नही गिना जाता ) इस लेख की समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुँ जिसमें प्रथमतो उपरके लेखमें न्यायरत्नजीनें अधिकमासको गिनती में लेने वालों को तीसरा दूषण लगाया इस पर तो मेरे को इतनाही कहना उचित है कि न्यायरत्नजीनें श्री अनन्ततीर्थङ्कर गगधरादि महाराजोंकी आशातना करके खूब मिथ्यात्व बढ़ाया है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराज अधिक मासको गिनतीमें मान्य करते हैं सो अनेक सिद्धान्तों में प्रसिद्ध है और न्यायरत्नजी अधिक मासको गिनती में मान्य करने वालोंको दूषण लगाते हैं जिससे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी प्रत्यक्ष आशातना होती है इसलिये जो न्यायरत्नजीको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातनायें अनन्त संसार वृद्धिका भय लगता हो तो अधिक मासको गिनती में लेने वालोंकों दूषण लगाया जिसकी आलोचना लेकर अपनी आत्माको दुर्गति से बचाना चाहिये आगे न्यायरत्नजीकी जैसी इच्छा मेरा तो धर्मबन्धुकी प्रीतिसें लिखना उचित है सो लिख दिखाया है और अधिक मासको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने गिनती में मान्य किया है उसीके अनुसार कालानुसार युक्तिपूर्वक वर्त्तमानमें भी अधिक मासको आत्मार्थी पुरुष मान्य करते हैं जिन्होंको एक भी दूषण नही लग सकता है परन्तु कल्पित दूषणोंकों लगाने वालों को तो उत्सूत्र भाषणरूप अनेक दूषणोंके अधिकारी होना पड़ता है सो आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुष इन्ही पुस्तक के पढ़नेसे स्वयं विचार सकते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३५ ] और अनन्त कालचक्र हुए अधिक मास भी होता रहता है तैसेही अनन्त चौवीशी होगई जिसमें श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणक भी होते रहते हैं परन्तु किसीने भी कल्याणक बढ़ जानेके भयसे अधिक मासकी गिनती निषेध नही करी है तथापि इस पञ्चमें कालके विद्यासागर न्यायरत्नका विशेषण धरानेवाले श्रीशान्तिविजयजी इतने बड़े विद्वान् कहलाते भी जैन शाखोंके गम्भीरार्थको समके बिना कल्याणक बढ़ जानेके भयसे अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं यह भी एक अलौकिक आश्चर्यकी बात है क्योंकि जैन ज्योतिषशास्त्रानुसार मासवृद्धिके कारणसे जब दो पौष अथवा दो आषाढ़ होते थे तब उस समय कोई भव्य जीवोंको श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणककी तपश्चर्यादि करनेका इरादा होता था तब पहिले श्रीपानीजी महाराजकों पूछके पीछे करते थे जिसमें दो मासके कारणसें कोई भगवान्का प्रथम मासमें कल्याणक होया होवे उसी कल्याणकको प्रथम मासमें आराधन करते थे और कोई भगवान्का दूसरे मासमें कल्याणक होया होवे उसी कल्याणकको दूसरे मासमें माराधन करते थे जिससे जिन जिन भगवान् का जो जो कल्याणक मास वृद्धिके कारणसे प्रथम मासमें अथवा दूसरे मासमें होया. होवे उसीको उसी मुजब श्रीज्ञानीजी महाराजको पूछके आराधन करते थे, पक्षवत, अर्थात् अमुक भगवान् का अमुक कल्याणक अमुक मासके प्रथम पक्षमें होया होवे उसीकों प्रथम पक्षमें आराधन करते थे और दूसरे पक्ष में होया होवे उसीको दूसरे पक्षमें आराधनं करते थे उसी तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३६ ] नासके कारण श्रीज्ञानीजी महाराजके कहने सुजब कल्याणक आराधन करने में आते थे और अधिक मासको गिनती में भी करनेमें आता था इसलिये अधिक मासकी गिनती करनेसें श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणक गिनती में नही बढ़ सकते है और इस पञ्चमें कालमें भरत क्षेत्र में श्रीज्ञानीजी महाराजका अभाव होनेसे और लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी वृद्धि होनेके कारणसें प्रथम मासका प्रथम कृष्णपक्ष और दूसरे मासका दूसरा शुक्लपक्ष में मास तिथि नियत कल्याणकादि धर्मकार्य्य तथा लौकिक और लोकोत्तर पर्व करनेमें आते है जिसका युक्तिपूर्वक दृष्टान्त सहित सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामको समीक्षामें लिखने में आवेगा सो पढ़नेसें विशेष निर्णय हो जावेगा इस लिये न्यायरत्नजी कल्याणक बढ़ जाने के भयसें अधिक मासकी गिनती निषेध करते है सो जैन शास्त्रोंके विरुद्ध उत्सूत्रभाषण करते है सो उपरके लेखसें पाठकवर्ग भी विशेष विचार सकते है । और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीनें लिखा है कि ( अधिक महिनोंके कारणसें कभी दो भादवे हो तो दूसरे भाद्रवेमें पर्युषणा करना चाहिये जैसे दो आषाढ महिने होते है तब भी दूसरे आषाढ़ में चातुर्मासिक कृत्य किये जाते है वैसे पर्युषणा भी दूसरे भाद्रवेमें करना न्याययुक्त है ) उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं कि हे सज्जन पुरुषों उपरके लेखमें न्यायरत्नजीने मासवृद्धि के कारण दो आषाढ़ और दो भाद्रपद लिखे जिससे अधिकमास गिनती में सिद्ध होगया फिर अधिक मासको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३७ ] गिनती में लेनेवालोंको दूषण लगाना यह तो न्यायरत्नजीका हठवाद प्रत्यक्ष अन्यायकारक है सो पाठकवर्ग भी विचार सकते है । और भी दूसरा सुनो-खास न्यायरत्नजीनें संवत् १९६६ की सालका बयान याने शुभाशुभका फल संक्षिप्त जैनपत्र के साथ में जूड़ा हेण्डबिल में प्रसिद्ध किया है उसीमें [ इस वर्ष में श्रावण महिना दो है ऐसा लिखा है तथा अधिक मास के कारण दोनु ही श्रावणकी गिनती सहित तेरह मासों के प्रमाणसे तेरह अमावस्या और तेरह पूर्णिमाकी सब घड़ियोंकी गिनती दिखाई है और प्रथम श्रावण वदी १९ तथा १२ के दिन और दूसरे श्रावण वदी १० के दिन अच्छा योग्य बताया है और प्रथम श्रावण शुद्धी में सप्त नाड़ीचक्र में सूर्य्य और गुरु जलनाड़ी पर आनेका लिखा है और प्रथम श्रावण शुदी पञ्चमीके दिन सिंह राशि पर शुक्र आनेका लिखा है फिर दूसरे श्रावण शुक्लपक्षमें बुधका उदय होगा वहां दुनियाके लोग सुखी रहनेका लिखा है फिर प्रथम श्रावण वदी ४ बुधवार तक दुर्मति नामा संवत्सर रहनेका लिखा है बाद याने प्रथम श्रावण वदी पञ्चमी गुरुवारका दुन्दुभि नामका संवत्सर लगनेका लिखा है फिर दूसरे श्रावणमें मीन राशि पर शनि और मङ्गल वक्र होनेका लिखा है ] इस तरह से खुलासाके साथ न्यायरत्नजी अपने स्वहस्ते दोनु श्रावण महिनोंको बरोबर लिखते है गिनती में लेते है छपाके प्रसिद्ध करते है ( और दोनु श्रावणके कारण से तेरह मासेांके ३८३ दिनका वर्ष दुनिया में प्रसिद्ध है) इस पर निष्पक्षपाती आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको न्याय दृष्टिसें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३८ ] विचार करना चाहिये कि न्यायरबजी आप स्वयं दोनु श्रावण मासकी हकीकत जूदी जूदी लिखते है फिर गिनती निषेध भी करते है यह तो ऐसे हुवा कि ममजनमी बन्ध्या अथवा मम वदने जिट्टा नास्ति, इस तरहसे बाललीलावत् न्यायरत्नजी विद्याके सागर हो करके भी कर दिया हाय अफसोस, अब इस जगह मेरेको लाचार होकर लिसना पड़ता है कि न्यायरबीजीकी विद्वत्ताको चातुराई किस देशके कोणेमें चली गई होगा सो पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसें किये बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनती में प्रमाण करके तेरह मासका अभिवर्द्धित संवत्सर अनेक सिद्धान्तों में कहा है जिसके उत्यापनका भय म करते उलटा अधिक मासको गिनती करने वालोंको मायावृत्तिसें मिथ्या दूषण लगादिये और फिर आपभी अधिक मासको प्रमाण करके लोगों में ज्योतिषशासके वि. द्वान् भी प्रसिद्ध होते है परन्तु अधिक मासको गिनतीमें करनेवालोंको मिथ्या दूषण लगानेका और पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप मिथ्या वाक्यके फल विपाकका जरा भी भय नही करते है इसलिये जैन शास्त्रानुसार तो दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेके और विसंवादी भाषणके कर्मबन्धकी आलो. चनाके लिये बिना अथवा भावान्तरमें भोगे बिना कूटना बहुत मुश्किल है सो जैन शास्त्रोंका तात्पर्यके जानकार विवेकी पुरुष स्वयं विचार सकते है और न्यायरनजीको भी उत्सूत्र भाषणका भय हो तो न्याय दृष्टि में तत्वार्थको अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३० ] तथा और भी न्यायरत्नजीको थोड़ासा मेरा यही कहना है कि अधिकमासको आप कालपुरुषकी चोटी जान कर गिनती में नही लेनेका ठहराते हो तब तो दो आषाढ़, दो श्रावण दो भादवेका लिखना आपका वृथा हो जावेगा और दो आषाढ़ादि मासोंको लिखते हो तथा उसी मुजब वर्तते हो तब तो कालपुरुषकी चोटी कहके अधिकमासको गिनती में निषेध करते हो सो आपका वृथा है और दो आषाढ़, दो श्रावण, दो भादवे लिखना सब धर्म और कर्मका व्यवहार भी दोनु मासका करना फिर गिनती में नही लेना यह तो कभी नही हो सकता है इसलिये दोनु मासका धर्म और कर्मका व्यवहारको मान्य करके दोन मासको गिनती में लेना सो ही न्यायपूर्वक युक्तिकी बात है तथापि निषेध करना धर्मशास्त्रोंके और दुनियाके व्यवहारसे भी विरुद्ध है इस लिये इसका मिथ्या दुष्कृत ही देना आपको उचित है नही तो पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्यका जो विपाक श्रीधर्मरत्नप्रकणकी वृत्तिमें कहा है सो पाठ इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ८६ । ८७ । ८८ में छपगया उसीके अधिकारी होना पड़ेगा सो आप विद्वान् हो तो विचार लेना ; और दो आषाढ़ होनेसे दूसरे आषाढमें चौमासी कृत्य किये जाते है जिसका मतलब न्यायरत्नजीके समझमें नहीं आया है सो इसका निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामकी समीक्षा करनेमें आवेगा और दो भादवें होने सें दूसरे भादवेंमें पर्युषणापर्व करना न्याय युक्त न्यायरत्नजी ठहराते है परन्तु शास्त्रसम्मत न्याय युक्त नही है क्योंकि C Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४० ] शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने अवश्यही पर्युषणा करना कहा है और दो भादवें होने दूसरे भादवेमें पर्युषणा करनेसे ८० दिन होते हैं जिससे दूसरे भादवेमें ८० दिने पर्युषणा करना और ठहराना शास्त्रोंके और युक्तिके विरुद्ध है इसलिये प्रथम भादवे में ही ५० दिने पर्युषणा करना शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक न्याय सम्मत है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयों के नामको समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १४० । १४१ । १४२ की आदि तक अच्छी तरहसे छप गया है उसीको पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। __ और फिर भी न्यायरत्न जीने अपनी बनाई मानवधर्म संहिता पुस्तकके पृष्ठ ८०० की पंक्ति ४ सें १० तक तिथियाँ की हानी तथा वृद्धिके सम्बन्धमें और पृष्ठ ८०९ की पंक्ति २२॥ सें पृष्ठ ८०२ पंक्ति १० तक पर्युषणामें तिथियांकी हानी तथा वृद्धि के सम्बन्धमें शास्त्रों के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे उत्सूत्र भाषणरुप लिखा है जिसकी समीक्षा मागे तिथि निर्णयका अधिकार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा वहां अच्छी तरह से न्याय रत्नजीकी कल्पनाका ( और न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें जो तिथियांकी हानी तथा वृद्धि सम्बन्धी उत्सत्र भाषण किया है उप्तीका भी ) निर्णय साथ साथमेंही करनेमें आवेगा सो पढ़नेसे तिथियांकी हानी तथा वृद्धि होनेसे धर्मकार्यों में किसी रीतिसे वर्तना चाहिये जिसका अच्छी तरहसें निर्णय हो जावेंगा;इति पाँचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समाता ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] और सप्टेम्बर मासकी २७ मी तारीख सन् १९०८ आश्विन शुक्र २ वीर संवत् २४३४ के रविवारका मुम्बई में प्रसिद्ध होनेवाला जैन पत्रके २४ वें अङ्कके पृष्ठ ४ में गत वर्षे न्यायरत्नजीकी तरफसे लेख प्रसिद्ध हुवा हैं जिसमें खास करके श्रीखरतरगच्छ वालोंको श्रीमहावीर स्वामीजीके ६ कल्याणकके सम्बन्धमें पूछा हैं और आपने श्रीहरिभद्र सूरिजी महाराजके तथा श्रीअभयदेवसरिजी महाराजके विरुद्धार्थ में श्रीपञ्चाशक मूलसूत्रका तथा तवृत्तिका अधूरा पाठ लिखके श्रीमहावीर स्वामीजीके पांच कल्याणक स्थापन करके ६ कल्याणकका निषेध किया है सो उत्सूत्र भाषण करके अनेक सूत्र, चूर्णि, वृत्ति, प्रकरणादि शास्त्रों के पाठोंका उत्थापन करके श्रीगणधर महाराजके, श्रीश्रुत केवली महाराजके, पूर्वधर महाराजोंके और बुद्धिनिधान पूर्वाचार्यों के वचनका अनादर करते पञ्चमकालके अपने हठवादको विद्वत्ता न्यायरत्नजीने अनन्त संसारकी बढ़ाने . वाली प्रसिद्धकरी हैं जिसकी समीक्षा और आगस्ट मासकी २९ वी तारीख सन् १९०९ दूसरे श्रावण सुदी १३ वीर संवत् २४३५ रविवारका जैन पत्रके २१ वें अङ्कके पृष्ठ १५ वा में जो न्यायरत्नजीकी तरफसे फिर भी लेख प्रसिद्ध हुवा हैं उसी में 'खरतरगच्छ मीमांसा, नामकी किताब छपवा कर प्रसिद्ध करके [ जैसे न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्तममाधारी, पुस्तकका नाम रस्कके वास्तविक में उत्सूत्र भाषण का मिथ्यात्वरूप पाखण्डको प्रगट किया हैं ( जिसका किञ्चिन्मात्र इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १५१ और पृष्ट २९५ । २१६ में दिखाया हैं, उसीका नमुनारूप पर्युषणा सम्बन्धी समीक्षा भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४२ ] इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १५७ से २१४ तक उपरमें छप चुकी हैं) तेसेही न्यायरत्न जीने भी प्राय उन्ही बातोंको अपनी चातुराईसें कुछ कुछ न्यूनाधिक करके ] मिथ्यात्वका पोष्टपेषणरूप मानु अपनी और अपने गच्छ वासी हठग्राही भक्तजनोंकी संसार वृद्धिका कारणरूप, शास्त्रानुसार सत्य बातोंका निषेध और शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में कल्पित बातोंका स्थापनकर पुस्तक प्रगटकरके अविसंवादी अत्युत्तम जैनमें विसंवादरूप मिथ्यात्वका झगड़ा फैलाना न्यायरत्नजी चाहते हैं, जिसकी और गत वर्ष के लेखकी समालोचनारूप समीक्षा इस जगह लिखके न्यायरत्नजीके उत्सूत्र भाषणकी तथा कुतर्कों की चातुराईका दर्शाव प्रगट करना चाहुं तो जरूर करके २५० अथवा ३०० पृष्ठका यहां विस्तार वढ़ जावें जिससे आडों महाशयोंके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी अबी जो समीक्षा सरू हैं उसीमें अन्तर पड़ जावें और यह ग्रन्थ भी बहुत बड़ा हो जावें इसलिये अबी यहां न्याय रत्नजी सम्बन्धी विशेष न लिखते पर्युषणा सम्बन्धी विषय पूरा होये बाद अन्तमें थोड़ासा संक्षिप्तसे लिखने में आवेगा जिससे श्रीजिनाजा इच्छक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको सत्यासत्यका निर्णय स्वयं मालुम हो सकेगा ; और अब छठे महाशय श्रीवल्लभाविजयजीकी तरफसे पर्युषणा सम्बन्धी जो लेख जैन पत्रमें प्रगट हुवा है उसीकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं-जिसमें प्रथमही आगष्ट मासकी ८ वी तारीख संवत् १९०९ गुजराती प्रथम श्रावण वदी १ रविवारका मुम्बईसें प्रसिद्ध होने वाला जैनपत्रके १८ वें अङ्कके पृष्ठ १० विषे गुजराती भाषामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४३ ] प्रश्नोत्तर रूपे हैं जिसमें किसी मुम्बईवाले श्रावकने प्रम किया हैं कि ( पर्युषण पर्व पेला श्रावणमां करिये तो दोष लागेके केम ) इस प्रश्नका श्रीपालणपुर से श्रीवल्लभविजयजीनें यह जबाब दिया कि ( पर्युषणपर्व पेला श्रावणमां नज धाय आज्ञाभङ्ग दोष लागे ) इस लेखका मतलब ऐसे निकलता है कि गुजराती प्रथम श्रावण बदी हिन्दी दूसरे श्रावण वदीसें लेकर दूसरे श्रावण शुदीमें अर्थात् आषाढ़ चतुर्मासीसे पधात दिने पर्युषणा करने वालोंको जिनाज्ञा भङ्गके दूषित ठहराये तब श्रीलश्कर से श्रीबुद्धिसागरजीने श्रीपालणपुर श्रीवल्लभविजयजीको सुन्दर ओपमा सहित वन्दनापूर्वक विनय भक्तिसें एक पोष्टकार्ड लिख भेजा उसीमें लिखा था कि - आगष्ट मास की-८ वीं तारीखका जैन पत्रके १८ वें अङ्क में (पर्युषण पर्व पेला श्रावणमां नजधाय आज्ञाभङ्ग दोष लागे ) यह अक्षर जिस सूत्र अथवा वृत्तिके आधारसें आपने छपवाये होवें उसी सूत्र अथवा वृत्तिके पाठ लिखकर भेजने की कृपा करना आपको मध्यस्थ और विद्वान् सुनते हैं इस लिये आपने शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी कल्पनायें झूठ नही छपवाया होगा तो जरूर शास्त्रपाठके अक्षर लिख कर भेजेंगे इत्यादि- इस तरहका पोष्टकार्ड में मतलब लिख कर खानगी में भेजाथा सो कार्ड श्रीवल्लभविजयजीको श्रीपालणपुरमें खास हाथोहाथ पहुंच गया परन्तु श्रीवल्लभविजयजीनें उस कार्डका कुछ भी प्रीका जबाब लिखकर नहीं भेजा जब कितनेही दिन तक तो जवाब आनेकी राह देखी तथापि कुछ भी जबाब नही आया तब फिर भी -C Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४४ ] संपर श्रीवाभाविजयजीको, उपर लिखे मतलबके लिये मेजने में आया तोभी श्रीवल्लभ विजयजीने कुछ भी जबाब नही दिया तब श्रीपालणपुरके प्रसिद्ध आदमी पीताम्बर भाई हाथी भाई महताके नामसे एक पत्र लिखा उसीमें भी विशेष समाचार पर्युषणा सम्बन्धी श्रीवल्लभविजयजीने दूसरे प्रावणमें आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने पर्युषणा करने वालोंको आज्ञाभङ्गका दूषण लगाया जिसका खुलासे उत्तर पूछाया था और उसी पत्रमें ५० दिने पर्युषणा शास्त्रकारोंने करनेका कहा हैं उसी सम्बन्धी पाठ भी लिख भेजे थे वह पत्र श्रीवल्लभविजयजीको पीताम्बर भाईने पहुंचाया और जबाब भी पूछा इतने पर भी श्रीवल्लभविजयजीने अपनी बातका जबाब नही दिया और शास्त्रों के पाठोंको प्रमाण भी नहीं किये परन्तु व पक्षपातका पण्डिताभिमानके जोरसें अन्याय कारक विशेष झगड़ा फैलानेका कारण करके माया वृत्ति से आप निर्दूषण बन कर श्रीबुद्धिसागरजीकों दूषित ठहरानेके लिये अकोबर मासको ३१ वी तारीख सन् १९०९ आसोज वदी ३ वीर संवत् २४३५ का अङ्क २९ वा के पृष्ट ४-५ में अपनी चातुराईको प्रगट करी हैं जिसको इस जगह लिख दिखाता हुं ; [खबरदार ! होवो होशियार ! ! करो विचार ! निकालो सार ! ! ! लेखक-मुनि-बल्लभ विजय-पालणपुर, इसमें शक नहीं कि, अंग्रेज सरकारके राज्य में, कलाकौशल्यकी अधिकता हो चुकी है, हो रही है और होती रहेगी ! परंतु गाम वसे वहां भङ्गी चमारादि अवश्य होते हैं ! तद्वत् अच्छी अच्छी बातोंकी होशियारीके साथ में बुरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४५ ] बुरी बातोंकी होशियारी भी आगे ही आगे बढती हुई नजर आती है ! इस वास्ते खबरदार होकर होशियारीके साथ विचार कर सार निकालनेका ख्याल रखना योग्य हैताकि पीछेसे पश्चात्ताप करनेकी जरूरत न रहे! - राज्य अंग्रेज सरकारका हैं कानून (कायदे) सबके लिये तैयार है। चाहे अमीर हो, चाहे गरीबहो; चाहे राजा हो, चाहे रंक हो! चाहे शहरी हो, चाहे गॅवार हो! जो एक कहेगा दो सुनेगा ! थोडे समयकी बात है, लश्कर से बुद्धि सागर नामा खरतर गच्छीय मुनिके नामका पत्र हमारे पास आया, जिसमें पर्युषणाकी बाबत कुछ लिखा था, हमने मुनासिवं नहीं समजा कि' वृथा समय खोकर परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम किया जावे ! कितनेही समयसै गच्छ संबंधी टंटा प्रायः दबा हुवा है, तपगच्छ खरतरगच्छ दोनो ही गच्छ प्रायः परस्पर संपसे मिले जुलेसे मालुम होते है' उनमें फरक पड़नेसे कुछ दबे हुए जैन शासनके वेरिओंका जोर हो जानेका सम्भव है। यह तो प्रसिद्धही है कि दोनोंकी लड़ाई में तीसरेका काम हो जाता है। यद्यपि महात्मा मोहनलालजी महाराज खरतर गच्छुके थे, तथापि तपगच्छवाले उनको अधिकसे अधिक मान देते थे ! यही गच्छ पक्षकी कुछक शांति लोकोंके देखने में आती थी ! मरहूम महात्मा भी तपगच्छकी बाबत अपना जुदा ख्याल नहीं जाहिर करते थे ! बलकि खुद आप भी तपगच्छकी समा. चारी करते थे जो कि प्रायः प्रसिद्ध ही है परन्तु सूर्पनखा समान जीव उभय पक्षकों दुःखदायी होते हैं तद्वत् बुद्धिसागर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४६ ] खरतर गच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मन:कामना पूर्ण न होनेसे, रावणके समान हुँढियांका सरणा लेकर सुद्धारंभ करमा चाहा है।] . - पाठकवर्गकों छठे महाशमजी श्रीवालमविजयजीके उपर का लेखकी समालोचनारुप समीक्षा करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो मेरेको इतना ही कहना उचित है कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभाविजयजी साधु नाम पारक होकर सास आप झगड़े का मूल सड़ा करके दूसरेको दूषित करना और अन्याय कारक माया वृत्तिका मिथ्या भाषणसे आप निर्दूषण बनना चाहते है तो सर्वथा अनुचित हैं क्योंकि प्रथम ही आपने (शास्त्रकारोंकी रीति मूजब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार आषाढ़ चौमासीसें पचास दिने प्रावणवृद्धिके कारणसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंकों) आज्ञाभङ्ग का दूषण लगा के जैन पत्रमें छपवा कर प्रगट कराया तब श्रीलश्करसें श्रीबुद्धिसागरजीने आपकों खानगीमें शास्त्रका प्रमाण पूछा पा उन्हीकों शास्त्रका प्रमाण आप खानगीमें पीछा नही लिख सके और अन्यायकी रीतिसे उलटा रस्ता पकड़के सानगीको वार्ताको प्रसिद्धीमें लाकर कृथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और अङ्गी चमार सूर्पनखा वगैरह अनुचित शब्दोंको लिखके विशेष झगड़ेका मूल सड़ा करके भी आप निर्दूषण बनकर अपने अन्यायको न देखते हुए और शाखके पाठकी बात न्याय रीतिसें पूछने वाले को दूषित ठहराते हुए अपने योग्यता मानक शब्द प्रगढ़ किये याने लौकिकमें कहते हैं कि जैसी होवे कोठे, वैसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1*ibili [ २४ ] निकले होठे,-अर्थात् जिस आदनीके जैसी बात दिलमें होवे उस आदमीसें वैसेही अन्तरकी बातके सूचकरूप शब्द करके सहित भाषा निकलती है तैसे ही छठे महाशयजीने भी मानु अपनी आत्मामें रहनेवाले गुणोंके सूचक शब्द लिखके प्रसिद्ध किये है सो वह द्रव्य शब्दके भाव गुण छठे महाशयजी श्रीवविजयजीमें अवश्य ही दिखते हैं सोही पाठकवर्गको दिखाता हुं और साथ साथमें छठे महाशवजीकी अन्याय कारक अभ्याम्य बातोंकी समीक्षा भी करता हुं;.. छठे महाशयजीने ( गाम बसे वहाँ भङ्गी चमारादि अवश्य होते हैं ) यह अक्षर लिखे हैं इस पर मेरेको इतना ही कहना उचित है कि श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके माराधन करनेवाले जो सज्जन है सोही मानों गाम बसता है उसी गामरूपी मीजिनशासनमें उत्सत्र भाषक निन्दकादि भी चमारोंकी तरह उक महाशयजी आदि वसते है सो उस गामको निन्दारूप मलिनताकों उठाते हुए भी आप पवित्र बनना चाहते है सो कदापि नही बन सकते हैं और आगे फिर भी लिखा कि ( अच्ची अच्छी बातोंकी होशियारीके सापमें बुरी बुरी बातोंकी होशियारी भी आगे ही आगे बढ़ती हुई नजर आती हैं) ठे नहाशयजीके इन अक्षरों पर मेरेको यही कहना पड़ता है कि इस अंग्रेजी राज्यमें कलाकौशल्यता और न्यायशीलताके कारणसें श्रीनिमेश्वर भगवान्की आज्ञारूपी अच्छी अच्छी होशियारीकी वृद्धि के साथ सायमें बुरी बुरी होशियारीकी तरह प्रथम कदाग्रहके बीज लगानेवाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४८ ] तथा अन्यायमें चलनेवाले और दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेवाले उठे महाशयजी वगैरह अनेक पक्षपाती पुरुष बुरी बुरी होशियारीकी बातोंका सरणा लेते हैं सो बड़ी ही अफसोसकी बात हैं ; 12 और आगे फिर भी छठे महाशयजीनें लिखा है कि ( खबरदार होकर होशियारीके साथ विचारकर सार निकालनेका ख्याल रखना योग्य हैं ताकि, पीछेसे पश्चात्ताप करने की जरूर न रहें ) इन अक्षरोंको लिखके छठे महाशयजी दूसरेकों होशियार होनेका बताते हैं परन्तु अपनी आत्माकी तरफ कुछ भी होशियारी न दिखाते हुए बिन विचारा काम करके इन भव तथा पर भव और भवो भवमें पश्चात्ताप करनेका कुछ भी भय नही रखते हैं क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् उत्तम धुरन्धराचायोंने और खांस कठे महाशयजीके ही पूर्वज पूज्यपुरुषोंने अनेक सूत्र, वृत्ति, चूर्णि प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमें आषाढ़ चौमासीसे एक मास और वीश दिने याने पचास दिने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन करना कहा है और इस वर्तमान कालमें लौकिक पञ्चाङ्ग में श्रावणादि मासोंकी वृद्धि होने के कारण आषाढ़ चौमासीसे पचास दिन दूसरे श्रावण में पूरे होते हैं तब शास्त्रानुसार पचास दिनकी गिनती से दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवाले श्रीजिवेश्वर भगवान्की आज्ञा के आराधक ठहरे और जैन शासनके प्रभावक तथा युगप्रधान और बुद्धिनिधान उत्तमाचाय्योंकी श्रीजिनाज्ञा मुजब दूसरे श्रावण में पर्युषणा करनेकी अनुक्रमें अखण्डित महत परम्परा (अनुमान १४०० वर्ष हुए जैन पञ्चाङ्गके अभाव , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] मैं आत्मार्थी पुरुषोंकी) चली आती है उसी मुजब मोक्षात्रिलाबी सज्जन वर्त्तते हैं जिन्हों को छठे महाशयजीनें अपनी क्षुद्रबुद्धिकी तुच्छ विद्वत्ताके अभिमानसें उत्सूत्र भाषणका भयं न करते एकदम आज्ञा भङ्गका दूषण लगाके छापामें छपानेको आशा करी और शास्त्रानुसार चलने वालोंको मिथ्या दूषण लगानेके कारणसे झगड़ा फैलानेके कारण का जरा भी विचार नहीं किया और जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने पचास दिने पर्युषणा करनेका कहा है उसीके अनुसार आत्मार्थी सज्जन पुरुष दूसरे श्रावणमें पचास दिने पर्युषणा करते है जिन्होंको छठे महाशयजी आज्ञाशङ्गका दूषण लगाते है जिससे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके वचनका अनादर होकर उन महाराजोंकी महान् आशातना होती है तथा अनेक सूत्र, पूर्णि, वृत्ति, प्रकरजादि शास्त्रोंके पाठोंके मुजब नहीं वर्त्तनेसे उत्थापन होता है और उन महाराजोंकी आशातना तथा अनेक शास्त्रों के पाठोंका सत्यापन और उन महाराजोंकी आज्ञानुसार अनेक शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त वर्त्तने वालोंको स्वपक्षपातके पंडिताभिमानसें मिथ्या दूषण लगाना सो निःकेवल उत्सूत्रभाषणरूप है और उत्सू भाषण के लिये ;-- श्रीभगवतीजी सूत्रमें १ तथा तद्वृत्तिमें २ श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रमें ३ तथा तीनकी छ (६) व्याख्यायोंमें श्रीशवैकालिक सूत्रमें १० तथा तीनकी चार व्याख्यायेर्नि१४ श्रीपगाङ्गजी (सूत्रकृताङ्गणी) सूत्रकी नियु फिमें ९५ तथा तद्वृत्ति १६ मीसमवायाजी सूत्रमें ११ तथा तद्वृत्ति १८ श्री आवश्यकजी सूत्रकी पूर्णिमें १९ श्री आवश्यकजी मत्रकी . ܬ ३२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ܘ www.umaragyanbhandar.com Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५० ] यहरतिमें २० तथा प्रथम लघु वृत्तिमें २१ और दूसरी लघु वृत्तिमें २२ श्रीविशेषावश्यक २३ तथा तवृत्तिमें २४ श्रीसाधुप्रतिक्रमणसूत्रकी पत्तिमें २५ श्रीमूलशुद्धिप्रकरणमें २६ श्रीमहानिशीष सत्रमें २७ श्रीधर्मरत्नप्रकरणमें २८ तथा तद्वृत्ति २९ श्रीसङ्घपटक वहद्दत्तिमें ३० श्रीश्राद्धविधि वृत्तिमें ३१ श्रीआगम अष्टोत्तरीमें ३२ तथा तवृत्तिमें ३३ श्रीसन्देहदोलावलीवृत्तिमें ३४ श्रीसम्बोधसत्तरीमें ३५ तथा तवृत्तिमें ३६ श्रीवैराग्यकल्पलतामे ३७ श्रोत्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्रमें ३६ और श्रीकल्पसूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४५ इत्यादि अनेक शास्त्रों में और भाषाके स्तवन, पद, ढाल वगैरहमें भी अनेक जगह लिखा है कि शास्त्र पाठ तथा एकाक्षरमात्री प्रमाण नही करनेवाला निनाव उत्सूत्र भाषककों श्रीतीर्थकर गवघर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य परम गुरुजन महाराजोंकी आशातना करने वाला और उन्हीं महाराजोंके वापकों न मानता हुवा उत्थापन करने वाला बहुलकर्मी, माया सहित मिथ्या भाषण करने वाला, संयमसे भ्रष्ट, घोर नरक में गिरने वाला, चतुरगतिकप संसारमें कटुक विपाक दारुण (भयङ्कर ) फलको भोगने वाला, सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट, मिथ्यात्वी, दुर्लभबोधि, अनन्त संसारी, मोहन्यादि आठ कोंके चीकणे बन्धको बाँधने वाला, पापकारी इत्यादि अनेक विशेषण शाखोंमें कहे हैं जिसके सब पाठ इस जगह लिखनेसें बहुत विस्तार हो जावे तथापि भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये घोड़ेसे पाठ भी लिख दिखाता हुँ; - श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कृत श्रीउत्तराध्ययनवृत्तौ अष्टादशाध्ययने-संमतराजर्षि क्षत्रियमुनिर्वदति हे महामुने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C ¿ २५१ ] ये पापकारिणो नराः पापं असत् परूपणं कुर्वन्तीत्येवं शीलाः पापकारिणो ये नराः भवन्ति ते नराः घोरे भीषणे ( भयङ्करे ) नरके पतन्ति च पुन: धर्म सत् परूपणरूप चरित्राराध्यदिव्यं दिवः सम्बम्धीनों उत्तमां गतिं गच्छन्ति इत्यादि ॥ इस पाठ में उत्सूत्र परूपणा करने वालेकों भयङ्कर नरक और सत्य परूपणा करने वालेकों देव लोगकी गति कही हैं । और श्रीशान्तिसूरिजीकृत श्रीधर्मरत्न प्रकरण मूल तथा तद्वत्ति श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत भाषा सहित श्री पालीताणा से श्रीजैनधर्म विद्याप्रसारकवर्गकी तरफ से. छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके तीसरे भागके पृष्ठ ८२ । ८३ । ८४ का पाठ गुजराती भाषा सहित मीचे मुजब जानो ;यथा -- अइ साहस मेयं जं, उस्सुत्त परूवणा कडुविवागा ॥ जाणतेहिवि दिज्जर, नि सो सुप्रये ॥१०९॥ मूडनो अर्थं तत्सूत्रपरूपया कटवां फल आपनारी के एवं जाणतांछतां पण जेओ. सूत्रबाह्य अर्थमां निश्चयआपी. देले ते अति साहसले ॥ १०९ ॥ टीका- - ज्वलज्ज्वालानल प्रवेशकारिनर साहसादप्यधिकमतिसाहसमेतद्वर्त्तते यदुत्सूत्रपरूपणा सूत्रनिरपेक्ष देशना कंटुविपाका दारुणफला जानानैरवबुध्यमानैरपि दीयते वितोर्य्यते निर्देश्या निश्चयः सूत्रबाह्य जिनेन्द्रागमानुक्तेऽर्थे वस्तु विचारे किमुक्तं भवति - दुभासिएण इक्केण, मरीईदुक्खसागरं पत्तो अमिओ कोडा कोडिं, सागर सिरिनामधिज्जाणं ॥१॥ उस्सुत्तमाचरन्तो-बंधकम्म सुचिक्कणं जीवो । संसारच पवढइ, मायामोसं च कुवदय ॥ २ ॥ उम्मग्गदेमओ मग्ग-नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १२ j ओ गूढहिययमाइलो। सढसीलोयससल्थी-तिरिया बंधए जीवो ॥३॥ उम्भग्गदेसणाए-धरणं नासन्ति जिणवरिंदाणं । वावन्नदसणा खलु-महुलभातारिसादटुं ॥४॥ इत्याद्यागम वचनानि श्रुत्वापि स्वाग्रहग्रहग्रस्त चेतसो यद न्यथान्यथा व्याचक्षते विदधति -तन्महासाहसमेवा नर्वापारासार. संसार पारावारोदरविवरमावि भूरिदुःखमाराङ्गीकारादिति । टीकानो अर्थ-बहती पागमा पेसमास्माफ्सनासाहसकरतां पण अधिक आ अतिसाहसछे के सत्रनिरपेक्ष देशना कडवां एटले भयङ्कर फल आपनारीछे एम जाणनारा होइने पण सत्रबाह्य एटले जिनागममा नही कहेल अर्थमां एटले वस्तु विचारमा निर्देश एटले निश्चय आपीदेछे-एटलेशुंकयु तेकहेछे-मरीचि एकदुर्भाषितथी दुःखनादरियामां पही क्रोडाक्रोडसागरोपम भम्यो । १। उत्सत्र आचरतां जीव चौकणा कर्म बांधे संसारवधारेले अने मायामृषा करेछे । २। उन्मार्गनी देशना करनार मार्गनो नाशकरनार गूढहृदयथी मायावी शठ अने सशल्य जीव तिर्यंचनो आयुष्य बांधेछे।३। जेओ उन्मार्गनी देशनाथी जिनेश्वरना चारित्रनो नाशकरेछे तेवा दर्शनभ्रष्ट लोकोने जोवा पणसारा नहीं।४। आवगेरे आगमना वचनो सांभलीने पण पोतामा आग्रहमां ग्रस्त बनी जे कांड आईं अवलु बोलेछे तथा करेछे ते महा साहसजछे केमके एतो अपार भने असार संसाररूप दरि याना पेटमां धनार अनेक दुःखमुंभार एकदम अङ्गीकार करवा तुल्य छ । .. . और फिर भी तीसरा भाग पृष्ठ २४२ का पाठ भाषा सहित नीचे मुजब जानो यथा- . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] अयनत्राशयः-सम्यक्त्व जानवरषयोः कारचं अतएवमानमः ता दंसपिस्सनाणं, नाणेण विणा हुंति परणगुणा । अगुणस्स नत्वि मुक्खो, नत्यि अमुल्लास्स निवाणं ॥९॥ इति तच गुरुबहुमानिन एव भवत्यतो दुःकरकारकोपि तस्मिअवज्ञानविदयात् तदाताकारिच भूयाद्यत उक्त-...... छहहम इसमदुबालसेहि, मासह मास खमणेहिं ॥ .. .. ... आकरंतो गुरुवपणं, अपंत संसारिओ अणिओ ॥१॥इत्यादि यहां आशय एके के सम्यक्त्व ए जान अने चारित्रनु कारणछे जे नाटे आगममा आरीते कहेलंछे-सम्यक्त्व वंतनेल जान होयछे अने ज्ञान विना चारित्रना गुण होता नयी भगुतीने नोक नयी अने मोक्ष वगरनाने निर्वाण मथी, हवे ते सम्यक्स्व तो गुरुनो बहुमान करनारनेज होयरे एपी करीने दुःकरकारी पईने पण तेनी अवा नहीं कर तां तेना मायाकारी ने बाडे कोढुं के यठ, भटम, दशम, द्वादश तथा अगासलमण अने माससमस करतो पको पण जो पुरुनो बम नही माने तो अनंत संसारी पायछे। .... और श्रीरत्रशेखरसूरिजी कृत श्रीमाढविधित्तिका गुजरातीभाषान्तर था:-चीनमलाल शांकलचंद मारफतीयाने श्रीमुंबई में छपवा कर प्रसिद्ध किया है जिसके पृष्ठ, १८८ का लेख नीचे मुजब जानो ;... आशातनाना विषयमा उत्सूत्र [ सूत्रमा कहेला आशययी विरुद्ध ] भाषणकरवायी अरिहंतमी के गुरुनी अव हेलना करवी ए मोटी आशातनाओ अनन्तसंसारनी हेतुळे. जेमके उत्सूत्र प्ररूपणापी सावधाचार्य, मरीची,जमाली,कुल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] मालुसीसाथ विगेरे घणाक जीवो अनन्त संसारी या कपाले के-उत्सूतभासगाणं, बोहिनासो .. अणंतसंसारो। पाण चए वि घिरा उस्सुत्तं ता न भासंति ॥१॥ तित्ययर पवयण सूअं, आयरिगणहरं महढी। आसायंतो बहुसो, अणंत संसारिओ होई ॥२॥ उत्सूत्रना भाषकने बोधिबीजनो नाश थापछे अने अनन्त संसारनी वद्विथायछे माटे प्राणजतां पस धीरपुरुषो उत्सूत्र वचन बोलता . नथी तीर्थङ्कर, प्रवचम [ जैनशासन ] जान, आचार्य, गणधर, उपाध्याय, सानादिकमी महर्द्धि कसाधु, साधु ए ओनी आशातमा करतां प्राणी अणुकरी अनन्त संसारी थायछे । __ और सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीआवश्यकभाष्य [विशेषावश्यक] में कहा है यथा--जे जिनवयणु-तिको, बयणं भासन्ति जे उमति । सम्मदिठीणं तं, दसणपि संसार बुद्धि करंति ॥९॥... ___ भावार्थ:-जो प्राणी श्रीजिनेश्वर भगवान् का वचनके विरुद्धवचन [उत्सूत्र] भाषण करता होवे और उसीको जो मानता होवे उस प्राणीका मुख देखना भी सम्यक्त्वधारियोंको संसार वृद्धि करता है ॥१॥. . ___ अब आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुषों को निष्पक्षपातकी दीर्घदृष्टि से विचार करना चाहिये कि उत्सूत्र भाषण करने वाला तो संसारमें रुले परन्तु उत्सूत्र भाषकका मुख देखने वाले अर्थात् उस उत्सूत्र भाषक सम्यगदर्शनसें भ्रष्ट, दुष्टा. चारीको श्रद्धापूर्वक वन्दनादि करने वालोंको भी संसार की वृद्धिका कारण होता है तो फिर इस वर्तमान पञ्चम कालमें वत्सूत्र भाषकोंको परमपूज्यमानके उन्हीके कहने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५५ ] मुजब धर्तने वाले गच्छपक्षी दृष्टिरागी विचारे भोले जीवोंके कैसे कैसे हाल होवेंगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें-- ___ उपरमें उत्सूत्र भाषक सम्बन्धी इतना लेख लिखनेका कारण यही है कि उत्सूत्रभाषक पुरुष प्रीतीर्षपती श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी और अपने पूर्वजोंकी आशातना करने वाला और भोले जीवोंको भी उसी रस्ते पहुंचानेके कारणसे संसारकी वृद्धि करता है जिससे उसीकों पर अवमें तथा भवो भवमें नरकादि अनेक विडम्बना भोगनी पड़ती है इसलिये महान् पश्चात्तापका कारण बनता है और इस भवमें भी उत्सूत्र भाषकको अनेक उपद्रव भोगने पड़ते है, तैसे ही उठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीने भी उत्सूत्र भाषण करके श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधक पुरुषोंको मिथ्या माताअङ्गका दूषण लगाकर जैनपत्र प्रसिद्ध कराके झगरेका मूल खड़ा किया और बड़े जोरके साथ पुनः जैनपत्रमें फैलाया जिससे आत्मार्थी निष्पक्षपाती सज्जनपुरुष तथा अपने [ छठे महाशयजीके ] पक्षधारी श्रीतपगच्छके सज्जन पुरुष और सास छठे महाशयजीके मांडलीके याने श्रीन्यायाम्भोनिधिजीके परिवार वाले भी कितने ही पुरुष छठे महाशयजी श्रीवल्लभाविजयजीपर पूरा अभाव करते है कि ना एक वथा जो संपसे कार्य होतेथे जिसमें विघ्नकारक झगड़ा खड़ा किया है इसलिये छठे महाशयजीको इन भवमें भी पूरे पूरा पश्चात्ताप करनेका कारण होगया है तथा करते भी है। . और उत्सूत्र भाषण करके दूसरोंको मिया दूषण लगाः . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] कारणसें उपरोक्त शास्त्रोंके प्रमाणानुसार पर सदमें तथा भवोभवमें कठे महाशयजीको पूरे पूरा पश्चाताप करना पड़ेगा इस लिये प्रथमही पूर्वापरका विचार किये बिना पश्चाताप करनेका कार्य्य करना छठे महाशयजी को योग्य नही था तथापि किया तो अब मेरेको धर्मबन्धु की प्रीति कठे महाशयजीको यही कहना उचित है कि आपको उपरोक्त कायोंसे संसार वृद्धिके कारण से यावत् भवोभवमें पश्चात्ताप करनेका भय लगता होवे तो नच्छका पक्षपात और पण्डिताभिमान को दूरकरके सरलतापूर्वक मन वचन कायासें श्रीचतुर्विध संघसमक्ष उपर कहे सो आपके कायोंका मिथ्या दुष्कृत देकर तथा आलोचना लेकर और अपनी भूल पीढी ही जैनपत्र द्वारा प्रगट करके उपरोक्त उत्सूत्र भाषणके फल विपाकोंसें अपनी आत्माको बचा लेना चाहिये नही तो बड़ी ही मुश्किली के साथ उपर कहे सो विपाकोंको भवान्तरमें भोक्ते हुए जरूर ही पश्चात्ताप करनाही पड़ेगा वहां किसीका भी पक्षपात नही है इस लिये आप विवेक बुद्धिवाले विद्वान् हो तो हृदयमें बिचार करके चेत जावो मैंने तो आपका हितके लिये इतना लिखा है सो मान्य करोगे तो बहुत ही अच्छी बात है आगे इच्छा आपकी ;-- और आगे फिर भी छठे महाशयजी -- अंग्रेज सरकार के कायदे कानून दिखाकर एक कहेगा दो सुनेगा ऐसा लिखते हैं इस पर मेरेको बड़ेही अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि इठे महाशयजी साधु हो करके भी इतना मिष्यत्वको वृथा क्यों फैलाते हैं क्योंकि सम्यक्त्वधारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५७ ] आत्मा सज्जन पुरुष होते हैं सो तो अपनी भूलको मंजूर कर दूसरेकी हितशिक्षारूप सत्य बातको प्रमाण करके उपकार मानते हुए सुख शान्तिसें संप करके वर्तते हैं और मिथ्यात्वी होते है सो सत्य बातकी हितशिक्षाको कहनेवाले पर क्रोधयुक्त हो कर अपनी भूलको न देखते हुए अन्यायसें झगड़े का मूल खड़ा करनेके लिये (हितशिक्षाको ग्रहण नही करते हुए ) एककी दो सुमाकर रागद्वेषसे विसंवाद करते हैं तैसेही छठे महाशयजीने भी एककी दो मुनानेका दिखाया परन्तु शास्त्रार्थसे न्याय पूर्वक सत्य बातको ग्रहण करने की तो इच्छा भी न रख्खी, इस बातको दीर्घ दृष्टि से सज्जम पुरुष अच्छी तरहसे विशेष विचार सकते हैं,-- ___ और सरकारी कानून कायदेका छठे महाशयजीने लिखा है इस पर भी मेरेको यही कहना पड़ता है कि प्रथम झगड़ा खड़ा करनेवाले और दूसरोंको मिथ्या दूषण उगानेवाले तथा मायावत्तिकी धूर्ताचारीसें वक्रोक्तिकरकेपण्डिताभिमानसें मनुचित शब्द लिखनेवाले और खानगी में न्याय रीतिसें पूछने वालेको प्रसिद्धी में लाकर उसीको अयोग्य ओपमा लगाके अवहेलना करने वाले आप जैसोंको हितशिक्षा देने के लिये तो जरूर करके सरकारी कानून तैयार हैं परन्तु आप साधुपदके भेषधारी हो इसलिये सज्जन पुरुष ऐसा करना उचित नहीं समझते सपापि आप तो उसीके योग्य हो-महाशयजी याद रस्तो-सरकारके विरुद्ध चलनेसें इसीही भवमें जलविशिक्षा मिलती है तैसेही श्रीजिनेबर भगवानको . आचाके विरुद्ध चलने वाले उत्सूत्र भाषकको भी इस भवमें लौकिकमें तिर ३३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] स्कारादि तथा पर मवमें और भवो भव, सूब गहरी वारं. पार नरकादिमें शिक्षा मिलती है इस बातका विचार सज्जन पुरुष जब करते हैं तब तो आपके गुरुजन न्यायांभोनिधिजी वगैरहको और आपके गच्छवासी हठग्राही जो जो पूर्व उत्सूत्र भाषक हुए है तथा वर्तमानमें आप जैसे है और भी आगे होगे उन्होंको क्या क्या शिक्षा मिलेगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने क्योंकि आप लोग उत्सव भाषणकी अनेक बातें कर रहे हो जिसमेंसें थोड़ीसी बाते नमुना रूप इस जगह लिख दिखाता हूं;...१ प्रथम-अधिकमासको गिनती में निषेध करते हो सो उत्सूत्रभाषण है। - दूसरा-अधिकमास होनेसे तेरह मासोंके पुण्यपापादि कार्य करके भी तेरह मासोंके पापकृत्योंकी आलोचना नही करते हो और दूसरे तेरह मासीके पापकृत्योंकी आलो. पना करते है जिन्होंको दूषण लगाके निषेध करते हो तो भी उत्सूत्र भाषण है। .. ३ तीसरा-श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी मानानुसार अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करनेवालीको मिथ्या दूषण लगति हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ४ चौथा-जैन ज्योतिषाधिकारे सर्वत्र शास्त्रों में अधिक मासको गिनतीमें अच्छी तरहसें खुलासके साथ प्रमाण करा है तथापि आप लोग जैन शास्त्रों में अधिक मासको गिनती में प्रमाण नहीं करा है ऐसा प्रत्यक्ष महा मिथ्या बोलते हो सो भी सत्सूत्र भाषण है। ...५ पांचमा-पर्युषणाधिकारे सर्वत्र जैन शास्त्रों में आषाढ़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] चौमासीसें दिनोंकी गिनती करके पचास दिनेही नियम करके पर्युषणा करनेका कहा है तथापि आप लोग दो श्रावण अथवा दो भाद्रपद होनेसे ८० दिने पर्युषणाकरने हो और ८० दिनके ५० दिन भोले जीवोंको दिखाते हो सो भी माया सहित उत्सूत्र भाषण हैं। ६ छठा-मासद्धिके अभावसे भाद्रपदमें पर्युषणा करनी कही है तथापि आप लोग मासवृद्धि दो प्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा ठहराते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। सातमा-श्रीनिशीथ भाष्य १ तथा धूर्णिमें २ मीवरस्कल्पभाष्य में ३ तथा चूर्णिमें ४ और वृत्तिमें ५ श्रीसमवायाज जीमें ६ तथा तवृत्तिमें ७ इत्यादि अनेक शास्त्रों में मासद्धिके अभावसे चार मासके १२० दिनका वर्षाकालमें पचासदिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी 90 दिम स्वभाविक रहते हैं जिसको भी आप लोग वर्तमान में दो बावणादि होने पांच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें भी पर्युषणा पिछाड़ी ७० दिन रहनेका ठहराते हो सो मी उत्सूत्र भाषण है। ८ आठमा-अधिक . मास होनेसे प्राचीन काल में भी पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन रहते थे तथा वर्तमानमें भी श्रावणादि अधिक मास होनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी १००दिन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक रहते हैं जिसको निषेध करते हो और १०० दिन मानने वालोंको दूषण लगाते हो तो भी उत्सूत्र भाषण हैं। नवमा-अधिक मासके ३० दिनोंका शुभाशुभकृत्य तथा धर्मकर्म और सर्व व्यवहारको गिनतीमें लेकर मान्य करते हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६० ] पन्यापानुसार दो भाचिननास होनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी मालिक नक १०० दिन होते हैं जिसके ७० दिन अपनी कल्पनासें कहते हो सो भी प्रत्यक्ष अन्यायकारक उत्सूत्र भाषण है। १० दशमा-जैन शास्त्रों में मास वृद्धिको बारह मासोंके जपर शिखररूप अधिक मासको कहा है और लौकिकमें भी पुरुषोत्तम अधिक मास कहा हैं इसलिये धर्मव्यवहारमें अधिक मास बारह मासोंसे विशेष उत्तम महान् पुरुषरूप है जिसको भी आप लोन नपुंसक निःसत्व सुच्छादि कहके भोले जीवोंके धर्मकार्यों में हानी पहुंचानेका कारण करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण हैं। - ११ इग्यारमा-अधिक मासको कालचूलाकी उत्तम • ओपमा गिनती करने योग्य शास्त्रकारोंने दिनी हैं तथापि आप लोग कालचूला कहनेसे अधिक मास गिनती में नही आता है ऐसा कहते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ... १२ बारहमा-अधिक मासमें प्रत्यक्ष वनस्पति फलफूलादि प्रफलित होती है तथापि आप लोग नही फूलनेका कहते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । ... . १३ तेरहमा-अधिक मासके . कारणसे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणघरादि महारोजोंने अभिवर्द्धितसंवत्सर तेरह 'मासोंका कहा है तथापि आप लोग अधिक मासको गिनतीमें निषेध करके श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महारानोंका कहा हुवा अभिवर्द्धित संवत्सरका प्रमाणको तथा अभिवर्द्धित संवत्सरकी संज्ञाको नष्ट कर देते हो इसलिये श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना कारक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६९ ] मनन्त संसारकी वाद्विरुप यह भी नहान् उत्सत्र भाषण है। १४ चौदहमा+श्रीननशासोंमें पदव्यरूप शाश्वती वस्तुयोर्मेसें कालद्रवरूपभी एक शाश्वती वस्तु है जिसका एक समयमात्र भी जो कालव्यतीत होणावें उसीका गिनती में कदापि निषेध नही हो सकता है यह अनादि स्वयं सिद्ध मर्यादा है तथापि आपलोग समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्षसे, दो पक्षका जो एकमास बनता हैं उसी को गिनतीमें निषेध. करके अनादि स्वयं सिद्ध मर्यादाको अपनी कल्पनासे तोडमोडकरके ३० मासे-एकमासका गिनतीमें निषेध करनेके हिसाबर्स, ३० वर्ष-एकवर्ष, ३०युगेएकयुग, इसी तरहसें, ३० कोडा कोडी सागरोपमें-एक कोडाफोडी सागरोपमके कालको-उडा कर गिनतीमें निषेध करनेका वथा प्रयास करते हो सो भी यह महान् उत्सूत्र भाषण है। ___ और १५ पंदरहमा-जैनपञ्चाङ्ग का अबी वर्तमानकालमें विच्छेद है तथापि आपलोंगोंकी तरफसें मिथ्यात्वको वद्धिकारक मनमानी अपनी कल्पनाका पञ्चाङ्गको जैनपञ्चाङ्ग ठहराकर प्रसिद्ध करवाते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है १६ सोलहमा-श्रीनिशीथसबके भाष्यादि शाखोंमें सूर्योदयकी पर्व तिथिको न माननेवालेको मिथ्यात्वी कहा है और लौकिक पञ्चाङ्ग में दो चतुर्दशी वगैरह तिथियां होती है उसी में पर्वरूप प्रथम चतुर्दशी सूर्योदयसे लेकर महोरात्रि ६०पड़ी तक संपूर्ण चतुर्दशीका ही वर्ताव रहता है उसीमें अपर्व सूप त्रयोदशीके वर्तावका गम भी नही है. तथापि आप लोग अपने पक्षपातके जोरसे और पविताभिमानका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६२ ] फन्दसें जबरदस्ति सूर्योदयकी पर्वरूप प्रथम चतुर्दशीको पर्वरूप नही मानते हुए, अपर्वरूप त्रयोदशी बनाकर के संख्याते, असंख्याते, अनन्ते जीवोंकी हानी तथा अब्र यदि पञ्चाश्रव सेवनका और सब संसार व्यवहारके काय्योंसे आरम्भादि होनेका कारणमें अधोगतिके रस्ता की खरूप कायोंमें आपलोग कटीबद्ध तैयार हो और अपने संयनरूप जीवितव्यके नष्ट होनेका और मिथ्यात्वी बननेका कुछ भी भय नही करतेहो इस लिये यह ਜੀ उत्सूत्र भाषण है । ११ सतरहमा - भी इसीही तरहसें लौकिक पञ्चाङ्गमें दो दूज, दो पञ्चमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, वगैरह सूर्यो - दयको पर्व तिथियां होती है जिसको बदल कर, अपर्वकी - दो एकन, दो चतुर्थी, दो सप्तमी, दो दशमी वगैरह करके मानते हो सो भो उत्सूत्र भाषण है । १८ अठारहना भी इसीही तरहसे विशेष करके लौकिक पञ्चाङ्गमें संपूर्ण चतुर्दशी पर्वरूप तिथि होती है और दो पूर्णिमा तथा दो अमावस्या भी होती है जिसको तोडमोड़ करके संपूर्ण चतुर्दशीकी, त्रयोदशी और दो पूर्णिमाकी तथा दो अमावस्याकी भी दो त्रयोदशी कोइ भी जैनशास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कपोल कल्पनासें बना लेते हो सो भी उस भाषण हैं । १९ एगुनवोशना- डौकिक पञ्चाङ्गमें जब कोई कोई वख्त दो पूर्णिमा अथवा दो अमावस्या होती है उसीमें चन्द्र अथवा सर्य्यका ग्रहण प्रथम पूर्णिमाको अथवा प्रथम अमावस्याको होता है जिसको सब दुनिया मानती है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६३ ] शास्त्रों में भी पूर्णिमा अथवा अमावस्या के दिन ग्रहण होने का कहा है तथापि आप लोग सब दुनियाके तथा शास्त्रों के भी विरुद्ध होकर के प्रगट पने ग्रहवयुक्त पूर्णिमा अथवा अमावस्याको चतुर्दशी ठहराकर चतुर्दशीकाही ग्रहण मानते हो यह तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक उत्सूत्र भाषण है। २० वीशमा- चतुर्दशी का क्षय होनेसे पाक्षिककृत्य पूर्णिमा अथवा अमावस्याको करमेका जैनशास्त्रों में कहा है तथापि आप लोग नही करते हो और दूसरे करने वालोंको दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । २१ एकवीशमा- आप लोग एकान्त आग्रहसे सूर्योदय के बिनाकी तिथिको पर्वतिथि में नही मानना, ऐसा कहते हो परन्तु जब चतुर्दशीका क्षय होता है तब सूर्योदयकी त्रयोदशीको चतुर्दशी कहते हो तो भी उत्सूत्र भाषण है । २२ बावीशमा-श्रीजेनज्योतिषकी गिनती मुजब, चन्द्र के गतिकी अपेक्षा श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति तथा श्रीसूर्य्यप्रज्ञप्ति वृत्ति वगैरह अनेक जैनशास्त्रोंमें पर्वकी तिथियांके क्षय होनेका लिखा है और लौकिक पञ्चाङ्गमें भी कालानुसार पर्वकी तिथियांका क्षय होता है और जैन पञ्चाङ्गके अभाव से लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब वर्त्तनेकी पूर्वाचारयोंकी खास आज्ञा है, तैसेही आप लोग दीक्षा, प्रतिष्ठा वगैरह धर्म व्यवहार के कार्यो में घड़ी, पल, तिथि, वार, नक्षत्र, योग राशिचन्द्र, शुभाशुभ मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास वगैरह सब व्aहार लौकिक पञ्चाङ्गानुसार करते हो तथापि आप लोग, लौकिक पञ्चाङ्गमें जो पर्व तिथियांका क्षय होता है उसीको नही मानते हो और माननेवालोंको दूषण लगाके निषेष करते हा सा भी उत्सूत्र भाषण है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २० तेवीशमा-लौकिक पञ्चाङ्गमें दो चतुर्दशी होती है उन्हीके मुजब आप लोगोंके पूर्वजोंने भी दो चतर्दशी लिखी है जिसको आप लोग नही मानते हो और लौकिक पञ्चाङ्ग मुजव युक्तिपूर्वक कालानुसार और पूर्वाचार्योंकी परम्परासें दो चतुर्दशी वगैरह पर्व तिथियांको माननेवालेको दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सत्र भाषण है। - २४ चौवीशमा-आपके पूर्वज कृत ग्रन्यमें तिथिका शुद्धाशुद्ध सम्बन्धी जो प्रमाण बताया है उसी मुजब आप लोग नही मानते हो और स्वच्छन्दाचारीसै ( अपनी मति की कल्पना करके) संपूर्ण प्रथम पर्वतिथिको अपर्व ठहरा करके दूसरी-दो अथवा तील पल ( एक मिनिट) मात्र की अल्पतर तिथिमें जाते हो और दूसरे-कालानुसार युक्ति पूर्वक तथा विशेष धर्मपद्धिके लाभका कारण जामके प्रथम संपूर्ण.६० पड़ीही पर्वतिथिको मानते हैं तैसही दूसरी पर्वतिथिको भी यथायोग्य मानते हैं जिन्होको दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषस है। .... .... इस तरहकी अनेक बातें आपलोगों में उत्सूत्र भाषणकी हो रही है जिसका तथा आपके गुरुजी श्रीन्यायाम्भो निषिजीने भी जैन सिद्धान्त समाचारी पुस्तकका नाम रखके अनुमान ५० जगह उत्सूत्र भाषण करा है जिसका भी नमुनारूप थोड़ीसी बातें आगे लिखने में आवेंगे और उपरकी सब बातोंका निर्णय शस्त्रों के प्रमाणसें और युक्तिपूर्वक मेरे लिखीत इन्ही ग्रन्यको आदिसें अन्त तक स्थिरचित्तसें सत्यग्राही होकर निष्पक्षपातसे मध्यस्य दृष्टि रखकर विशुद्धभावसे पढ़नेवाले आत्मार्थी सज्जम पुरुषों को अच्छी तरहसे मालूम हो सकेगा ;-. .. . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] है और उत्सूत्र भाषणके फलविपाक सम्बन्धी उपरमें ही पृष्ट २४ से २५६ तक लिखने में आया है उसीका भय लगता हो, तथा श्रीजिनेश्वर भगवान् के वचन पर आपलोगोंकी कुछ भी श्रद्धा हो, और अपनेही श्रीतपगच्छके नायक श्रीदेवेन्द्र सूरिजी तथा श्रीरत्नशेखर सूरिजीके उत्सूत्र भाषक सम्बन्धी उपरोक्त वाक्योंको आपलोग सत्यमानतेहो, और श्रीदेवेन्द्र सूरीजी कृत श्रीधर्मरत्नप्रकरण पत्ति आपलोगोंके समुदाय में विशेष करके व्याख्यानाधिकार तथा पठन पाठनमें भी वारंवार आती है उन्हीके वाक्पार्थकी आपके हृदयने धारणा हो, तो ऊपरका लेखको परमहितशिक्षारूप समझके सत्सत्र भाषण करते हो जिसको छोड़ो, तथा उत्सूत्र भाषण करा होवे उसीका मिथ्या दुष्कृत देवो, और गच्छके पक्षपात को तथा पण्डिताभिमानको छोड़के श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा मुजब शास्त्रों के महत् प्रमाणानुसार आषाढ़ चौमासी से ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेका और अधिक मासको गिनतीमें प्रमाणादि अनेक सत्य बातोंकों ग्रहण करो, और भक्तजनोंकों करावो जिससे आपकी और आपके भक्तजनोंकी आत्मसिद्धिका रस्तापावा-श्रीजिनाजारूपी सम्यक्त्वरत्नके सिवाय मोक्ष. साधनमें गच्छका पक्षपात तथा पण्डिताभिमान कुछ भी काम नही आता है इसलिये गच्छ पक्षको छोड़के श्रीजिनाजा मुजब सत्यबातको ग्रहण करना सही आत्मार्थी विवेकी विद्वान् सज्जन पुरुषोंको परम उचित है। __और आगे फिर भी छठे महाशयजीने लिखा है कि ( थोड़े समयकी बात हैं बुद्धिसागर नामा खरतरगच्छीय ३४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६६ ] मुनिके मानका पत्र हमारे पास आया जिसमें पर्युषणाको 'बाबत कुछ लिखाया हमने मुनासिब नही समजा कि चुधा समय खोकर परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम किया जावे ) इस लेखपर मेरेको वड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि श्रीवल्लभविजयजी में अपनी मायावृत्तिकी चतुराईको सूब प्रगट करी है क्योंकि प्रथम अपनेंही दूसरे श्रावण में पर्युषणा करने वालोंको आज्ञातङ्गका दूषण लगाया था उसी सम्बन्धी आपको श्रीबुद्धिसागरजी शास्त्रका प्रमाण खानमीमें ही पत्र भेजके पूछा था जिसका जबाब पीछा खानगी में ही लिख भेजने में तो छठे महाशयजी आपको बहुत समय वृथा खोनेका और परस्पर ईर्षाकी वृद्धि होनेका बड़ा ही भय लगा परन्तु लम्बा चौड़ा लेख जैनपत्र में भङ्गी चमारादि शब्दोंसें तथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और श्रीबुद्धिसागरजीको सूर्पनाकी वृथा अमुचित ओपमा लगाके उन्हकी खानगीकी पूजी हुई बातको ( पीछा ही खानगीमें जबाब न देते हुए ) प्रसिद्धमें लाकर अन्यायके रस्ते से उन्हकी अवहेलना करनेमें और श्रीखरतरगच्छवालोंके परमपूज्य प्रभावकाबाजी श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजका श्रीजिनाचा मुजब अनेक शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त सत्यवाक्यको पक्षपातके जोरसे अप्रमाण ठहरा कर श्रीखरतरगच्छवालों के दिल में पूरे पूरा रंज उत्पन करके और दूसरे गुजराती भाषाके लेखमें भी सर्व संघको, कान्फरन्सको, शेठियोंको, बकीलको, बेरिस्टरको, नाणाकोथली ( रुपैयोंकी चेली ) वगैरहको सावधान सावधान करके श्रीसंपके आपस में और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६० ] कोर्ट कचेरीमें बड़ेही भारी भगके कारण करनेका लेख लिखने में तथा प्रसिद्ध करानेमें तो छठे महाशयगी श्रीवल्लभ विजयजी आपको खूब लम्बा चौड़ा समय भी मिल गया, और परस्पर आपसमें ईर्षाकी वृद्धि होनेका किञ्चित् भी भय न लगा परन्तु श्रीबुद्धिसागरजीके पत्रका जबाब खानगीमें लिखनेसें बठे महाशयजीको वृथा समय खोनेका तथा परस्पर की वृद्धि करनेवाला काम करने का भय लगा, यह कैसी अलौकिक विद्वत्ताकी चातुराई ( सज्जन पुरुषोंको आश्चर्य उत्पनकारक ) छठे महाशयजी आपने गच्छ पनी दृष्टिरागी बालजीवोंको दिखाकर अपनी बातको जमाई सो आत्मार्थी विवेकी विद्वान् पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे। और आगे फिर भी छठे महाशयजीमें लिखा है कि ( कितनेही समयसें गच्छ सम्बन्धी टंटा प्राय दबा हुआ है तपगच्छ खरतरगच्छ दोनोंही पक्ष प्रायः परस्पर संपसे मिले जुलेसे मालूम होते हैं) इस लेख पर भी मेरेको यही कहना उचित है कि गच्छ सम्बन्धी टंटा दबाकरके शान्त करनेका और संपसे वर्तनेका श्रीखरतगचवालोंकी महान् सरलताका कारण है क्योंकि श्रीतपगच्छके तो भाप जैसे अनेक महाशय. संपके मूलमें अनी लगाके श्री खरतरगच्छवालोंकी सत्य बातका निषेध करनेके लिये सत्सूत्र भाषण करके अपनी मति कल्पनाकी मिथ्या बातका स्थापन करनेके लिये विशेष करके हर वर्षे गांम गांममें पर्युषणाके व्याख्यानाधिकारे प्रीजिनेश्वर भगवान्की आजानुसार अनेक शास्त्रों के महत् समाज मुजब अधिक मासकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिनती अनादि स्वयं सिद्ध है जिसका खण्डन करके और श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् धुरन्धराचार्योंमें और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके भी पूर्वाधाोंने श्रीवीर. प्रभुके, छ कल्याणक अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक कहे हैं तथापि आप लोग श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी और अपने पूर्वजोंकी आशातनाका भय न करते उन्ही महाराजांके विरुद्ध हो करके, छ कल्याणकका निषेध करते हो और श्रीखरतरगच्छवालोंके ऊपर मिथ्या कटाक्ष करते हुए अनेक बातोंका टंटा खड़ा करनेका कारण करनेवाले आप जैसे अनेक कटीबद्ध तैयार है और अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते है इस बातको इसीही ग्रन्थको संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेगे और इसका विशेष विस्तार इसीही ग्रन्यके अन्तमें भी करने में आवेगा वहां श्रीखरतरगच्छवालोंकी कैसी सरलता है और श्रीतपगच्छवाले आप जैसोंकी कैसी वक्रता है जिसका भी अच्छी तरहसे निर्णय हो जावेंगा। - और आगे फिरभी छठे महाशयजीने लिखा है कि ( उनमें-अर्थात्, तपगच्छके खरतरगच्छके आपसमें-फरक पड़नेसें कुछक दबे हुए जैनशासनके वेरियोंका जोर हो जानेका सम्भव है) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना पड़ता है कि--छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी आप श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके आपसमें विरोध बढ़ाकर संपको नष्ट करना नही चाहते हो और दोनुं गच्छको संपसे मिले जुलेसें रहनेकी जो आप अन्तर भावसे इच्छा रखते हो तबतो श्रीजिनाज्ञा मुजब अनेक महत् शास्त्रों के प्रमाण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ } युक्त श्रीखरतरगच्छ वालोंकी सत्य बातोंको प्रमाण करने अपनी कल्पित बातोंको छोड़ दो और श्रीखरतरगच्छवालों पर मिथ्या आक्षेप जो आपने उत्सूत्र भाषण करके करा है तथा श्रीबुद्धिसागरजी पर जो जो अन्यायसें अनुचित लेख लिखके जैनपत्रमें प्रसिद्ध कराया है जिसकी क्षमा मांगकर उत्सूत्र भाषणका मिथ्या दुष्कृत दो और अपनी मूलको पिछीही जैन पत्र में प्रगट करके सुखशान्तिसें संप करके वत्तों तब दोन गच्छके संप रखने सम्बन्धी आपका लिखना सत्य हो सकेगा परन्तु जब तक उठे महाशयजी आपके बिना विचारके करे हुए अनुचित कार्योंकी आप क्षमा नही मांगोंने और सत्य बातोंका ग्रहण भी नही करते हुए अपनी कल्पित बातोंके स्थापन करनेके लिये जो वार्ताका प्रकरण चलता होवे उसीको छोड़के अन्यायके रस्तेसे अन्यान्य अनुचित बातोंको लिखके विशेष झगड़ा बढ़ाते रहोंगे लब तो दोन गच्छके संप रखने सम्बन्धी भापका लिखना प्रत्यक्ष मायावृत्तिका मिथ्या है और भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है अथवा लिखने मात्रही है सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेगे और दोन गच्छके मापसमें वादविवादके कारणसें दबे हुए जैनशासनके वेरियोंका जोर होनेसें मिथ्यात्व बढ़नेका छठे महाशयजी जो आपको भय लगता होवे तो आपनेही प्रथम जैनपत्रमें शास्त्रानुसार चलनेवालोंको मिथ्या दूषण लगाके उत्सूत्र भाषणसे झगड़ा खड़ा करा और पुनःपुनः ( दीर्घकाल चलने रूप ) जैन पत्रमें फैलाया है जिसको पिछीही अपने हाथसें मिथ्या दुष्कृतसे समाके साथ अपनी भूलको जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७० ] पत्रही सुधार लो जिससे दोन गच्छवालोंके मापसमें संप बना रहेगा और दोनु गच्छके आपसमें संपको नष्ट करनेवाले माप लोगोंकी तरफसें पर्युषणाके व्याख्यानमें तथा छापे द्वारा जो जो कार्य करने में आते हैं उसको भी बंध कर दीजिये जिससे दोनु गच्छवालोंके भापसमें जो संप है उसीसें भी खूब गहरा विशेष संप हो जावेगा; तब जैन शासनके वेरियों का कुछ भी जोर नही हो सकेगा, इतने पर भी आप जैसे शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक सत्य बात को ग्रहण नही करते हुए, अन्यायसे वाद विवाद करके झगड़ेको बढ़ाते रहोंगे जिस पर जो जो जैनशासनके निन्दक शत्रयोंका जोर बढ़नेका कारण होगा तो जिसके दोषाधिकारी खास आप लोगही होवोंगे सो विवेकबुद्धिसैं हृदय में विचार लेना, और आगे श्रीमोहनलालजीके सम्बन्ध में लिखकर तपगच्छकी समाचारीके बाबत जो आपने लिखा है इसका जवाब-अबी नवमें महाशय श्रीमाणकमुनिजी प्रगट हुवे हैं जिसने अपनी अकलका नमुना जैन पत्र में प्रगट करा है उसीका जबाब आगे लिखने में आवेगा वहां श्रीमोहनलालजी सम्बन्धी भी लिखने में आवेगा;____ और छठे महाशयजीने फिर भी अपनी विद्वत्ता की चातुराईका दर्शाव दिखाया है कि-( सूर्पनखा समान जीव उभय पक्षको दुःखदायी होते है तद्वत् बुद्धिसागर खरतरगच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मन:काममा पूर्ण न होनेसें रावणके समान ढूंढियोंका सरणा लेकर युद्धारम्भ करना चाहा है) इस लेख पर मेरेको इनताही कहना है कि-जैसे किसी पण्डितको किसी आदमीमें कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २११ ] खातका खुलासा पूछा तब उस परिडतकी उसी बातका खुलासा करनेकी बुद्धि नही होनेसे अपने विद्वत्ताकी इज्जत रखनेके लिये उस बातका सम्बन्धको छोड़के मिष्प्रयोजन की वृथा अन्यान्य बातोंको लाकर अनुचित शब्दोंसे यावत् क्रोधका सरणा ले करके अपनी विद्वत्ताकी बातको जमाता है परन्तु विवेकी विद्वान् पुरुष उस पण्डितका मिथ्या पण्डिताभिमानको और अन्याय के पाखण्डको अच्छी तरह से समझ लेते हैं-तैसेही कठे महाशयजी आपने भी करा अर्थात् आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंको आज्ञाभङ्गका डूषण लगाने सम्बन्धी श्रीबुद्धिसागरजीनें आपको शास्त्रका प्रमाण पूछा उसीको शास्त्रका प्रमाण बताने की आपकी बुद्धि नही होनेसें और शास्त्रका प्रमाण भी आपको नही मिलनेसें ऊपर कहे सो नामधारी पण्डितवत् आपने भी अपनी विद्वत्ताकी इज्जत रखने के लिये शास्त्रका प्रमाण बतानेके सम्बन्धको छोड़ करके निष्प्रयोजनकी वृथा अन्यान्य बातेंकों लिखकर अनुचित शब्दसे यावत् क्रोधका सरणा लेकर अपनी विद्वत्ताको जमानी चाही परन्तु मिष्पक्षपाती विद्वान् पुरुषोंके आगे आपका मिथ्या पण्डिताभिमानका और अन्याय के पाखरष्ठका दर्शाव अच्छी तरहसें खुल गया हैं कि इठे महाशयजीके पास शास्त्रका प्रमाण न होनेसे श्रीबुद्धिसागरजीको सूर्पनखाकी ओपमा वगैरह प्रत्यक्ष मिथ्या वाक्य लिखके अपने नानकी हासी कराई है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीनें सूर्प खाकी तरह दोन पक्षको दुःखदाई होने का कोई भी कार्य्य नही करा है तथा न ढूंढियांका सरणा लिया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५२ ] और न युद्धारम्भ करना चाहा है तथापि श्रीवल्लभ- . विजयजीने मिथ्या लिखा यह बड़ाही अफसोस है परन्तु 'सतीको' भी वेश्या अपने जैसी समझती है तद्वत् तैसेही छठे महाशयजीने भी निर्दोषी श्रीबुद्धिसागरजीको दोषित ठहरानेके लिये अपने कृत्य मुजब सूर्पनखाके समानका तथा ढूंढियांका सरणा लेनेका और युद्धारम्भ करनेका मिथ्या आक्षेप करा मालूम होता है क्योंकि उपरके कृत्य छठे महाशयजीमेंही प्रत्यक्ष है सोही दिखाता हूं; जैसे-सूर्पनखा दोन पक्षवालोंको दुःखदाई हुई तैसेही वठे महाशयजी (श्रीवल्लभविजयजी) भी दोनुं गच्छवालोंके आपसका संपको नष्ट करनेके लिये वाद विवादसे झगड़ेका मूल लगाके दोनुं गच्छवालोंको तथा अपने गुरुजनोंके मामको और अपने सम्प्रदायवालोंको भी दुःखदाई हुवे है इस लिये मेरेको भी इस ग्रन्थ की रचना करके आठों महाशयोंके उत्सूत्र भाषणके कुतोंकी ( शास्त्रानुसार मौर युक्तिपूर्वक ) समीक्षा करके मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखाने के लिये इतना परिश्रम करना पड़ा है सो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले विवेकी मध्यस्थ पुरुष स्वयं विचार लेवेगे;. और छठे महाशयजी आप लोग अनेक बातों में ढूंढियां का सरणा ले कर उन्हेंाकाही अनुकरण करते हो जिससे थोड़ीसी बातें इस जगह दिखाता हूं; १प्रथम-श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजीको मानने पूजनेका निषेध करनेके लिये ढूंढिये लोग अनेक प्रकारकी श्रीजिनमूर्तिको निन्दा करते हुए भनेक कुतकों करके भोले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१३ ] जीवोंके सत्यवातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रक्तको, हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते है तैसेही श्री अनन्त जिनेश्वर भगवानों का कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको गिनतोमें निषेध करनेके लिये, आप लोग भी अधिकमासको अनेक प्रकार जिन्दा करते हुए अनेक कुतर्को करके भोले जीवोंके सत्य बातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नका हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते हो इसलिये श्रीजैनशासन के निन्दक मिथ्यात्वी ढूंढियांका सरक्षा आपही लेते हो । २ दूसरा -- श्रीजैनशास्त्रों में नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव, यह चारोंही निक्षेपे मान्य करने योग्य, उपयोगी कहे हैं तथापि ढूंढिये लोग उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनन्त संसारकी वृद्धि कारक, स्थापनादि निक्षेपोंको निषेध करके बिना उपयोग के ठहराते हैं तैसेही श्रीजैनशास्त्रामें द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसें, चारोंही प्रकार की चुलाका प्रमाण गिनती करने योग्य, उपयोगी कहा है और गिनती में भी लिया है तथापि आप लोग उत्सूत्र भाषण का भय न करते कालचूलादिका प्रमाणको गिनती में निषेध करके प्रमाण नही करते हो सो भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ३ तीसरा - इंडिये लोग 'मूलसूत्र मानते हैं मूलसूत्र मानते हैं' ऐसा पुकारते हैं परन्तु अपनी मति कल्पनासे अनेक जगह शास्त्रों के पाठोंका उलटा अर्थ करते हैं और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको तथा अर्थको भी छुपाते हैं और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातोंको करके मिथ्यात्वमें फसते हैं और भोले जोवोंको फसाते हैं तैसेही आपलोग भी 'पञ्चाङ्गी मानते हैं पञ्चाङ्गी मानते हैं' ऐसा ३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१४ ] पुकारते हो परन्तु अपनी मति कल्पनासे अनेक जगह शास्त्रोंके पाठोंका उलटा अर्थ करते हो और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको तथा अर्थको भी लुपाते हो और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातों करके मिथ्यात्वमें फसते हो और भोले जीवोंको फसाते हो (इसका विशेष खुलासा आगे करनेमें आवेगा) इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो। ४ चौथा-जैसे ढूंढिये लोगोंकी गांम गांममें वारम्वार श्रीजिन प्रतिमाजीकी और श्रीजैनाचार्योंकी निन्दा अवहेलना करनेकी आदत है जिमसें अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते हैं तैसेही आप लोगोंकी भी गांम गांममें श्रीपर्युषणापर्वका व्याख्यान वगैरहमें श्रीवीरप्रभुके छ (६) कल्याणककी और श्रीजिनेन्द्र भगवान् का तथा पूर्वाचायौँका प्रमाण करा हुवा अधिक मासको निन्दा अवहेलना करनेकी आदत है जिससे आप लोग भी उत्सूत्र भाषणका भय न करते हुए संसार सृद्धिसें कुछ भी डरते नही हो इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो। ५ पाँचमा-जैसे ढूंढिये लोग चर्चा करो चर्चा करो ऐसा पुकारते हैं परन्तु चर्चाका समय आनेसें मुख छिपाते हैं और जो बातकी चर्चा करनेकी होवे जिसकी शास्त्रार्थ से न्यायपूर्वक चर्चा करनी छोड़कर अन्यायसें निष्प्रयोजन की अन्य अन्य बातोंका झगड़ा खड़ा करके यावत् क्रोधका सरणा लेकर-रांड नपुती जैसी सुथा लड़ाई करके निन्दा ईर्षासे संसार वृद्धिका कारण करते है परन्तु शास्त्रोक्त चर्चा वार्ताकी रीतिसें एक भी बातके सत्यअसत्यका निर्णय करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करनेकी इच्छाही मही रखते हैं तैसेही आप लोगोंके भी कृत्य है (इस बातका इस ग्रन्यके अन्तमें खुलासा करनेमें आवेगा ) इस लिये उपरकी बातमें भी ढूंढियांका सरणा आप लोगही लेते हो। . ६ छठा-जैसे कितनेही ढूंढिये लोग शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक श्रीजिनमूर्तिको मानने पूजने वगैरहकी सत्य बातोंको जानते हुए भी अपने मत कदा ग्रहको कालमें फस करके इस लोककी मामता पूजनाके लिये अपने दृष्टिरागी भक्तजनोंके आगे मिथ्यात्वके उदयसें सत्य बातोंका निषेध करके अपने अन्ध परम्पराकी उत्सूत्र भाषणरुप कल्पित बातोंका स्थापन करके संसार वृद्धिका कार्य करते हैं तैसेही कितनीही बातोंमें आपके गुरुजी न्याया. म्भोनिधिजी (श्रीआत्मारामजो) में भी किया है और आप लोग भी करते हो (जिसका खुलासा आगे करने में आता है) इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आप लोगही सातमा-जैसे कितनेही ढूंढिये श्रीजैन तीर्थोंको छोड़के अन्य मतियोंके मिथ्यात्वी तीर्थों में जाते हैं तैसेही खास मोवनभविजयजीनें भी कराया अर्थात् घासीराम और जुगलराम इन दोनुं ढूंढक साधुयोंने (श्रीजिनेश्वर भग. वान् तुल्य श्रीजिनमूर्तिकी तथा श्रीजमशासनके प्रभाविक महान् उत्तम श्रीजैनाचार्योंकी ) द्वेष बुद्धिसें वृथा निन्दा करनेका और शास्त्रोंके विरुद्ध होकरके उत्सूत्र भाषणका तथा अपनी मति कल्पना मुजब मिथ्या बातोंमें वर्तनेका मिथ्यात्वरूप ढूंढक मतका पाखण्डको संसार वृद्धिका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७६ ] जानकर छोड़ दिया और शास्त्रानुसार सत्य बातोंको ग्रहण करनेकी इच्छासे श्रीवल्लभविजयजीके पास जैन दीक्षा लेने को आये तब श्रीवविजयजीनें तथा उन्हेंोंके दृष्टिरागी श्रावकोंने विचार किया कि--घासीराम और जुगलरामने ढूंढक मतके साधु भेषमें अनुचित कार्यों ( असूचीकी क्रियायों) से अपने शरीरको अपवित्र किया है इसलिये इन दोनुका शरीर प्रथम पवित्र कराके पीछे दीक्षा देनी चाहिये ऐसा विचार करके दोन को पवित्र करनेके लिये जैन तीर्थों में न भेजते हुए. अन्य मतियोंके मिथ्यात्वी तीर्थ में काशी गङ्गाजी भेजकरके पवित्र कराये (इसका विशेष आगे लिखनेमें आवेगा) इसलिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो। . इत्यादि अनेक बातों में छठे महाशयजी आप लोगही ढूंढियांका सरणा लेकर उन्होंकाही अनुकरण करते हो, तथापि आपने श्रीबुद्धिसागरजीको ढूंढियांका सरण लेनेका लिखा है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीने ढूंढियांका सरणा लेनेका कोई भी कार्य नहीं करा है इतने पर भी आपके दिलमें यह होगा कि श्रीबुद्धिसागरजीने ढूंढियाकी मारफत पत्र हमको पहुंचाया इसलिये ढूंढियांका सरणा लेनेका हमने लिखा है तो भी महाशयजी यह आपका लिखना सर्वथा अनुचित है क्योंकि दुनियामें यह तो प्रसिद्ध व्यवहार है कि--कोई गांम में किसी आदमीको एक पत्र भेजा जिसका जबाब नहीं आया तो थोड़े दिनोंके बाद दूसरा भी पत्र भेजने में आता है, दूसरे पत्रका भी जवाब नहीं आनेसे तीसरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७७ ] बेरे उसी गांमका प्रतिष्ठित आदमी नारफत अथवा अपना जानकार संवेगी तथा इंडिया तो क्या परन्तु ब्राह्मण, सेवग, वगैरह हरेक जातिका हरेक धर्मवाला पुरुषकी मारफत लसीका निर्णय करनेमें आता है तैसेही श्रीबुद्धिसागरजीने भी किया अर्थात् दो पत्र आपकी शास्त्रका प्रमाण पूछनेके लिये भेजे तथापि आपका कुछ भी जबाब नहीं आया तब तीसरी बेर प्रसिद्ध आदमी अपना जानकार के मारफत, आपको भेजे हुए पूर्वोक्त पत्रोंका जबाब पूछाया उसमें सरणा लेनेका कदापि नहीं हो सकता है परन्तु आप लोग अनेक बातोंमें ढूंढियांका सरणा लेते हो सो ऊपरमेंही लिख आया हूं सो विचार लेना; और दो गच्छवालोंके आपसमें वादविवाद तथा कोर्ट कचेरीमें झगडा टंटा रूप वृथा युद्ध करनेको तथा कराने को आपही तैयार हो सो तो आपके लेखसे प्रत्यक्ष दीखता है । महाशयजी अब-- किसकी मनः कामना पूर्ण न होनेसें किसीने ढूंढियांका सरणा लेकर युद्धारम्भ करना चाहा है और सूर्पनखाकी तरह दोन पक्षको दुःखदाई भी कौन हुवा है सो ऊपरका लेखको तथा आगेका लेखको और इन्ही ग्रन्थको पढ़कर हृदयमें विवेक बुद्धि लाकर विचार कर लीजिये, ... --- और भी आगे छठे महाशयजी अपने और अपने गुरुजी न्यायाम्भोनिधिजीके उत्सूत्र भाषणके कृत्योंका तथा उन कत्योंके फल विपाकोंको न देखते हुए श्रीबुद्धिसागरजी ने शास्त्रोंके पाठोंका प्रमाण सहित पत्र लिखकर पालणपुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] निवासी महता पीताम्बरदास हाथीभाईको भेजा था उस पत्रके शालोंके पाठोंको छोड़करके और विद्रग्राही हो करके उस पत्र पर द्वेषबुद्धिसें छठे महाशयजीने वृथाही आक्षेप किया है और उनके साथ कितनीही निष्प्रयोजनको बातें लिखी है उसीका जबाब आगे (कठे महाशयजीके दूसरे गुजराती भाषाके लेखका जबाब छपेगा ) वहां लिखने में आवेंगा ; और आगे फिर भी उठे महाशयजीनें लिखा है कि (बनारस प्रसिद्ध हुवा मुनि धर्म्मविजयजीके शिष्य मुनि विद्याविजयजीका, पर्युषणा विचार नामा लेख देख लेना ) इसपर भी मेरेको प्रथम इतनाही कहना है कि तीसरे महाशयजी श्रीविनयविजयजीनें श्रीसुखबोधिका वृतिमें पर्युषणा सम्बन्धी प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़ करके गच्छ कदाग्रह के हठवादसे उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनेक कुतर्कों करी है (जिसका निर्णय इसीही ग्रन्थके पृष्ठ सें १५० तक उपरमेंही छप चुका है ) उन्हीं कुतर्केौंको देखके सातमें महाशयजी श्रीधर्म्मविजयजी तथा उन्हके शिष्य विद्याविजयजी भी कदाग्रहकी परम्परामें पड़के उत्सूत्र भाषणकेही कुतर्केका संग्रह करके, शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय के विरुद्ध होकरके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर भोले जीवोंकों मिथ्यात्व में गेरनेके लिये अपना लेख प्रगट करा है (इसका जवाब आगे छपेगा ) उसीकोही गुजराती भाषामें जैन पत्रवालेने भी अपना संसार बढ़ानेके लिये अपने जैन पत्र में प्रगट करा है और उसी उत्सूत्र भाषणको कुलकको छठे महाशयजी आप भी देखनेका लिखकर उन्होको पुष्ट pen Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७९ ] करके उसी तरहके उत्सूत्र भाषण कलमाप्त करने के लिये आप भी उसीमें फसे, हाय अफसोस-ग कदाग्रहके बस होकरके अपना पक्ष जमाने के लिये सत्य असत्यका निर्णय किये बिना अपनी मतिकल्पनासे इतने विद्वान् कहलाते भी स्वच्छन्दाचारीसें लिखते कुछ भी विचार नही किया यह तो इस कलियुगकाही प्रभाव है,... और दूसरा यह है कि न्याय अन्यायको न देखने वाले तथा दूष्टिरागके झूठे पक्षग्राही और कदाग्रहके कार्यमें आगेवान ऐसे श्रीकलकत्तानिवासी प्रीतपगच्छके लक्ष्मीचंदजी सीपाणीको पालणपुरसे श्रीवल्लभ विजयनीकी तरफका पत्र आया था उसी पत्रमें ६-७ जगह मिथ्या बातें लिखी है उसी पत्रके अक्षर अक्षरका उतारा, मेरे ( इस प्रत्यकारके ) पास है उसी उतारेकी नकलको यहाँ लिखकर उसीकी समीक्षा करनेका मेरा पूरा इरादा पा परन्तु विस्तारके कारणसे सब न लिखते नमुनारूप एक बात लिख दिखाता हूं___ छठे महाशयजी श्रीवनभविजयजी लक्ष्मीचन्दजी सीपाणीको लिखते हैं कि [ बनारससे पर्युषणा विचार नामा ट्रेकट निकला है उसीकाही भाषान्तर छापेवाटेने छापा है इसमें हमारा कोई मतलब नही है ना हम इस बातको मन वचन काया करके अच्छी समझते हैं] इस जगह सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि सीपाशीजीके पत्रमें पर्युषणा विचारको तथा उसीका भाषान्तर छापेवालेने छापेमें प्रसिद्ध करा है उसीको छठे महाशयजी मन, वचन, काया अच्छा नही समझते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२० । तो फिर उसी बातको याने पर्युषणा विचारको देख लेमेका लिख करके उसीको छापामें पुष्ट किया, यह तो प्रत्यक्ष मायावृत्तिका कारण है इसलिये जो सीपाणीजीके पत्रका वाक्य छठे महाशयजी सत्य मानेंगे तो छापेमें पर्युषणा विचारको पुष्ट करनेका जो वाक्य लिखा है सो वथा हो जावेंगा और छापेका वाक्य सत्य मानेंगे तो सीपाणीजीके पत्रका वाय मिथ्या हो जावेगा और पूर्वा. पर विरोधी विसंवादी दोन तरह के वाक्य कदापि सत्य नही हो सकते हैं इसलिये दोनुमेंसें एक सत्य और दूसरा मिथ्या माननाही प्रसिद्ध न्यायकी बात है, जिससें सीपाणी जीके पत्रका वाक्यको सत्य मानोंगे तो छापेका लेख विसंवादीरूप मिथ्या होनेकी आलोचना छठे महाशयजी आप को लेनी पड़ेगी और छापेका वाक्यको सत्य मानोंगे तो. सीपाणीजीके पत्रका वाक्य विसंकादीरूप मिथ्या होनेकी आलोचना लेनी पड़ेगी और पर्युषणा विधारमें उत्सूत्र वाक्य लिखे हैं उसीके अनुमोदनके फलाधिकारी होना पड़ेगा सो विवेक बुद्धि हो तो अच्छी तरह विचार लेना ;___ और छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीके खबरदारका इस लेखमें तथा सावधान सावधानका दूसरा गुजराती भाषाका लेखमें और सीपाणिजोके पत्रका लेखमें इन तीनों लेखोंका वाक्यमें कितनीही जगह मायावत्ति ( कपट ) का संग्रह है इससे श्रीवल्लभविजयजीको कपट विशेष प्रिय मालूम होता है और पाचन्द्रोदय की पुस्तकमें भी श्रीवल्लभाविजयजीको 'दम्भप्रिय' लिखा है सोही नाम उपरके कृत्योंसे सत्य कर दिखाया है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८१ ] और इसके आगे दम्भप्रियजी श्रीवल्लभविजयजीने अपने लेखके अन्तमें जो लिखा है उसीको यहां लिखके ( पीछे उसीकी समीक्षा कर ) दिखाता हूं; [बुद्धिसागर मुनिजी ! याद रखना वो प्रमाण माना जावेगा, जो कि-तुम्हारे गच्छके आचार्यों से पहिलेका होगा मगर तुम्हारेही गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावगा ! जैसा कि तुमने श्रीजिनपति सूरिजीकी समाचारीका पाठ लिखा है कि, दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावणमें और दो भाद्रपद होवे ती पहिले भाद्रपदमें पर्युषणापर्वसांवत्सरिक कृत्य-करना ! क्योंकि, यही तो विवादास्पद है कि, श्रीजिनपतिसूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिव किया है.हां यदि ऐसा खुलासा पाठ पञ्चाङ्गीमें भाप कहीं भी दिखा दे कि, दो श्रावण होवे तो पीछले भाषण में और दो भाद्रपद होवे, तो पहिले भाद्रपदमें--सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केशलुश्चन, अष्टमतपः, चैत्यपरिपाटी, और सर्वसंघके साथ खामणाख्य पर्युषणा वार्षिक पर्व करना, तो हम मान. नेको तैयार है !] ऊपरके लेखकी समीक्षा करके. पाठकवर्गको दिखाता हूं कि-हे सज्जन पुरुषों . छठे. महाशयजी दम्मप्रियेजीके अन्तरमें कपट भरा हुवा होनेसे ऊपरका लेख भी कपटयुक्र लिखा है क्योंकि (बुद्धिसागर मुनिजी याद रखना वो प्रमाण माना जावेंगा जो कि तुम्हारे गच्छके आचार्योसे पहिले का होगा) यह. अक्षर छठे महाशयजीके मायावृत्तिसें दूष्टि रागी भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है. नतु प्रमाण __३६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्थकर गणरायाले हरियावहारयाणक, सामयिकापर्युषणा [ २ ] करनेके लिये यदि जपरके अक्षर प्रमाण करनेके लिये होवे तो-अधिक मासकी गिलती, तथा पचास(५०) दिने पर्युषणा और श्रीवीरप्रभुके छ (६) कल्याणक, सामयिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही वगैरह अनेक बाते श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने और पूर्वधरादि श्रीजैन शासनके प्रभाविक पूर्वाचार्योने पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में प्रगटपने खुलासेके साथ कही है जिस पर छठे महाशयजी की श्रद्धा नही जिससे प्रमाण नही करते हुए उलटा निषेध करके उत्सूत्र भाषणसें संसार वृद्धिका भय नही रखते हैं। वहीही आश्चर्यकी बात है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी तथा पूर्वाचार्यों की कथन करी हुई अनेक बातें प्रमाण न करते हुए उत्सूत्र भाषणरूप अपनी मतिकल्प नासै चाहे वैसा बर्ताव करना और पूर्वाचार्यों का प्रमाण मंजूर करनेका दिखाकर आप भले बनना यह तो प्रत्यक्ष मायावृत्तिसें छठे महाशयजीने अपने दम्भप्रिये नामको सार्थक करके विशेष पुष्ट करनेके सिवाय और क्या लाभ उठाया होगा सो इन्ही ग्रन्यको पढ़नेवाले सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ;- . ___ और आगे फिर भी दम्भप्रियेजीने लिखा है कि ( तुम्हारेही गच्छ के आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावेंगा) यह लिखना छठे महाशयजी दम्भप्रियेजीको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना कारक पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंका उत्थापनरूप मिथ्यात्वको बढ़ाने वाला संसार वृद्धिका कारणभूत हैं क्योंकि १प्रथमतो-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी परम् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८३ ] परानुसार पक्षाङ्गीके अनेक प्रमाणमुक्त श्रीखरतरगच्छके बुद्धि निधान प्रभाविकाचार्योंने अनेक शास्त्रोंकी रचना भव्य जीवोंके उपगारके लिये करी है जिसको न माननेवाले दम्भप्रियेजी जैसे प्रत्यक्ष श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना करनेवाले पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके उत्यापक श्रद्धारहित जैनाभास मिथ्यात्वी बनते हैं इस बातको विशेष सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिसें स्वयं विचार लेवेंगे, २ दूसरा यह है कि--श्रीखरतरगच्छ प्रसिद्ध करनेवाले श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजकृत श्रीअष्टकजी सूत्रकी वृत्ति तथा श्रीपञ्चलिङ्गी प्रकरण मूल और तत्ति श्रीखरतरगच्छ के श्रीजिनपति सूरीजी कृत और श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रसिद्ध बुद्धिनिधान महान् प्रभाविक श्रीमदक्षयदेवसूरिजी महाराजनें श्रीनवाङ्गी वृत्ति उपरान्त श्रीउवाइजी श्रीपञ्चाशक जी श्रीषोडषकजी वगैरहकी अनेक वृत्ति और प्रकरणस्तोत्रादि बहुतही शास्त्रोंकी रचना करी है तथा और भी श्रीखरतरगच्छके अनेक आचार्यों ने सैकड़ो शास्त्रोंकी रचना करी है जिन्हकोमानते हैं व्याख्यानमें बांचते हैं तथापि दम्भप्रियेजी (तुम्हारे गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावेंगा) ऐसा लिखते हैं सो कितनी मायावत्तिसे अन्याय कारक है इसको भी निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार सकते हैं ;___ और श्रीजिनेश्वर सूरिजीसें निश्चय करके श्रीखरतरगच्छ प्रसिद्ध हुवा है इसलिये श्रीनवाङ्गीवृत्तिकार श्रीमदभयदेव सूरिजी भी श्रीखरतरगच्छमें हुवे हैं तथापि श्रीजिनवल्लभ सूरजीसें अथवा श्रीजिनदत्त सूरिजीसें १२०४ में खरतर हुवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८४ ] ऐस कहते हैं सो मिथ्यावादी है इसका विशेष विस्तार शास्त्रों के प्रमाण सहित इस ग्रन्थके अन्त में करने में आवेंगा, ३ तीसरा यह है कि खास दम्भप्रियेजीके गुरुजी श्रीन्यायाम्भोनिधिजीनें चतुर्थ स्तुतिनिर्णयः पुस्तक में श्रीखरतरगच्छके श्री अभयदेव सूरिजी श्रीजिनवल्लभ सूरिजी श्री जिनपतिसूरिजी वगैरह आचाय्योंकी समाधारियों के पाठ लिखे हैं और श्रीखरतरगच्छ के आचार्य्यका वचनको नही मानने वालोंको पृष्ठ के मध्य में मिथ्यात्वी ठहराये हैं ( इसका खुलासा इन्ही ग्रन्थके पृष्ठ १५० | १६० में छपगया है) और दम्भप्रियेजी श्रीखरतरगच्छ के आचार्य्यजीका लेख प्रमाण नही करके अपने गुरुजीके लेखसे ही आप मिथ्यात्वी बनते हैं सो भी बड़ीही आश्चर्य्यकी बात है ; ४ चौथा यह है कि दम्भप्रियेजी श्रीखरतरगच्छ के आचार्यजीका लेख प्रमाण नही करते हैं इसको देखके और भी कितनेही अज्ञानी तथा गच्छ कदाग्रही अपने अपने गच्छके आचाय्यका लेखको प्रमाण मान करके और सब गच्छवालों के आचाय्यका लेखको प्रमाण नही मानेंगे जिस मैं श्रीजिनवाणीरूपी पञ्चाङ्गीके सैकड़ो शास्त्रोंका उत्थापन होगा और अपनी अपनी मतिकल्पना करके चाहे जैसा वर्ताव करना संस करेंगे तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की अति उत्तम, अविसंवादी, श्रीजैनशासनकी अखण्डित मर्यादा भी नही रहेगी और कदाग्रही लोग अपने अपने पक्षका आग्रह में फसके मिथ्यात्व बढ़ाते हुवे संसार वृद्धि करेंगे जिसके दोषाधिकारी दम्भप्रियेजी वगैरह होवेंगे और आप दूसरे गच्छके आचार्य का लेख प्रमाण नही करोंगे तो दूसरे गच्छवाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५ आपके गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण नही करेंगे जिसमें भी वृथा वाद विवादसे मिथ्यात्व बढ़ता रहेगा और सत्य असत्यका निर्णय भी नही हो सकेगा और दम्भप्रियजी अनेक गच्छोंके आचार्योंका लेखको प्रमाण करते हैं परन्तु श्रीखरतरगच्छ के आचार्यका लेख प्रमाण नहीं करते हैं यह भी तो प्रत्यक्ष अन्यायकारक हठवादका लक्षण है इसलिये दम्भप्रियेजी वगैरह महाशयोंसें मेरा यही कहना है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महारजोंकी परम्परा मुजब, पञ्चाङ्गीके प्रमाण पूर्वक कालानुसार, न्यायकी युक्ति करके सहित श्रीखरतरगच्छके आचाका तो क्या परन्तु सब गच्छके आचार्योंका लेखको प्रमाण करना सोही आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको परम उचित है। वैसेही इस ग्रन्थकारने श्री श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागर जी तथा श्रीजयविजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों महाशयोंके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लिखित पाठोंको इसीही ग्रन्यके आदिका भागमें पृष्ठ ९ । १० । ११ में लिखे है और उसीका भावार्थः भी पृष्ठ १२ से १५ तक लिखके उसीका तात्पर्य्यको पृष्ठ १६ में प्रमाण किया हैं ( और इन तीनों महाशयोंने प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़के गच्छ कदाग्रहका मिच्या पक्षको स्थापन करनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक बातें लिखी है जिसकी समीक्षा भी शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ६८ से १५० तक उपरमें छप गई है ) और भी श्रीतपगच्छके अनेक आचार्यों के लेख प्रमाण करने में आते हैं जैसे इस ग्रन्थकारने श्रीतपगच्छके आचार्योंके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लेखोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८६ 1 प्रमाण किये हैं-तैसेही छठे महाशयजी आप भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी वाणीरूप पञ्चाङ्गीको श्रद्धापूर्वक प्रमाण करनेवाले आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी होवोंगे तो श्रीखरतरगच्छके आचार्यों के शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लेखों को अवश्यही प्रमाण करके अपने मिथ्या हठवादको जलदी ही छोड़ देवोंगे तो ऊपर कहे सो दूषणोंका बचाव होनेसे बहुत लाभका कारण होगा आगे इच्छा आपकी ;__ और आगे फिर भी दम्भप्रियेजीने लिखा है कि (तुमने श्रीजिनपति सूरिजीकी समाचारीका पाठ लिखा है कि दो प्रावण होवे तो पीछले श्रावणमै और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपदमें पर्युषणापर्व-सांवत्सरिक कृत्य करना ) यह लिखना मी छठे महाशयजी आपका कपटयुक्त है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीने पूर्वधरादि महाराजकृत तीन शास्त्रों के पाठ लिखके भेजे थे जिसके पूर्वधराचार्यजी महाराजके मूलसूत्रके तथा चूर्णिके दोन पाठोंको छुपाते हो सोही छठे महाशयजी आपका कपट है इसलिये में इस जगह प्रथम आपका कपटको खोलकरके पाठक वर्गको दिखाता हूं१ प्रथम श्रीचौदह पूर्वधर श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठ लिखा था उसी पाठमें आषाढ़ चौमासीसें एकमास और वीशदिने पर्युषणा करना कहा है श्रावण अथवा भाद्रपदका नियम नही कहा है परन्तु ५० दिनका नियम है सोही दिनोंकी गिनतीसे ५० दिने पर्युषणा करना चाहिये श्रीकल्पमूत्रका मूलपाठ भावार्थ सहित इसीही ग्रन्थके आदिमें पृष्ठ ४।५।६में छप गया है सोही पाठ इस वर्तमान कालमें आत्मार्थियों को प्रमाण करने योग्य है ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८७ ] २ दूसरा श्रीपूर्वधर पूर्वाचार्यजी कृत श्रीवहत्कल्पचूर्णिका पाठ लिख भेजा था सोही श्रीवहत्कल्पचूर्णिके तीसरे उद्देशके पृष्ठ २६४ से २६५ तकका पर्युषणा सम्बन्धी पाठको यहां लिख दिखाता हूं तथाच तत्पाठः.. इदाणिं जंमि काले वासावासं ठाइतवं, जञ्चिरं वा जाए वा विहीए तं भणन्ति, आसाढ़ गाथा बाहिं ठिया गाथा, उस्सग्गेण जाय आसाढ़पुसिमाए चेव पज्जोसवेंति, असत्ति खेत्तस्स बाहिंठाइत्ता, वसभा खेतं अतिगन्तुं वासावासजोग्गाणि, संथारग खेल्स मल्ल गादीणि गिरहन्ति, काइयउच्चारणा भूमिओ बंधन्ति, ताहे आसाढ़पुणिमाए अतिगन्तुं,पञ्चेहिं दिवसेहिं पज्जोसवणा कप्प कथित्ता, सावणबहुलपरूखस्स पञ्चमीए पज्जोसवेंति पज्जोसवित्ता, उक्कोसेणं मग्गसिरबहुलदसमीओ जाव, तत्य अत्थितवं, किंकारणं पश्चिस्कालं वसति जतिचिरूखल्लो वासं वा पडति, तेण इचिरं इधरा कत्तियपुसिमाए चेव णिग्गन्तवं, एत्यतु गाया अस्मिात्र पज्जोसवेइ इत्यर्थः॥ अणभिगहितं गाम, निहत्था जति पुच्छन्ति, ठितत्यं वासावासं एवं, पुच्छितेहिं, भणियचं, ण ताव ठामो केचिरंकालं एवं, वीसतिरायं वा मासं, कथं, जति अधिमासतो पडितो तो बीसतिरायं, गिहिखातं ख कज़्जति, किंकारणं, एत्थ अधिमासओ चेव मासो गणि. ज्जति, सो वीसाए समं, वीसतिरातो भमति चेव, अथ स पडितो अधिमास तो वीसतिरातं मासं, गिहिणात व कज्जति, किं पुण एवं उच्यते । असिवादि गाथाई, असिवादीणि कारणाणि जाताणि, अथवा ण णिरातं वासं आरद्धं, ताधे लोगो चिंतेजा. अणावुठित्ति तेण धम संग्गहे करेंति, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८६ ] असंघरं ताणं णिग्गमणं दो तेहियभणियं ठियामोति, पच्छा लोगो भणेज्जा एत्तिल्लयपि एते ण याणन्ति एवं पवयणोवधातो भवति, ठियामोतिय अणि ते लोगो चिंतेइ जाणते अवस्स वरिसइ ताघे लोगो घरछंदेण हलक्रुलियादी करेंति, तम्हा सवीसति राते मासे अभिग्रहीतं गृहीज्ञातमित्यर्थः । एत्य उगाथा एत्थेति, आसाढ चउम्मासिए पडिक्कते, पञ्चेहिं पञ्चेहिं दिवसेहिं गतेहिं, जत्थ जत्य वासावासयोग्गं खेत्तं पडिपुस्मतत्य तत्य पज्जोसवे यां, जाव सवीसइ रातो मासो, उस्सग्गेण पुण आसाढ़सुद्धदसमि पच्छ«, इयसत्तरी गाथा, एवं सत्तरी भवति, सवोसति राते मासे पज्जो सवेत्ता, कत्तिय पुणिमाए पहिकमित्ता, बितियदिवसे जिग्गयाण, पञ्चसत्तरी भद्दवयअमावसाए पज्जोसवेताणं, भद्दवयबहुलदसमीए असीति, मक्यबहुलपञ्चमीए पञ्चासीति सावणपुसिमाए पठत्ति, सावणसुद्धदसमीए पञ्चणवत्ति, सावण सुद्धपञ्चमीए सतं, सावण अमावसाए पंचुत्तरं सयं, सावणबहुलदसमीए दसुत्तरं सतं, सावणबहुलपञ्चमीए पणरसुत्तर सतं,आसाढ़पुसिमाए वीमुत्तरं सतं, कारणे पुण छम्मासितो जेठोत्ति उक्कोसो उग्गहो भवन्ति, कथं जति वा पच्छ अस्य व्याख्या, कत्तिएण गाथा उवहिए, आसाढ मासकप्पए कते वासावासपाउग्ग खेत्तासती, तत्थेव वासो कातव्बो, पञ्चहिं दिवसेहिं पज़्जोसवणा कप्पं कथिता, चाउम्मासिए चेव पज्जोसवेंति, तं पुण इमेण कारणेण मग्गसिर अत्थिज्जा जति वासति पच्छद्धं आलम्बणं मासं पड़ेति, चिरकलो, आसाढ़े वासा रत्तिया चत्तारि मग्गमिरोय एते छम्मासिओ जेट्ठोग्गहो, पत्थाणेहिं पवत्तेहिंपि णिग्गतवं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] ... देखिये अपरके पाठमें पर्युषणाधिकारे चेव निश्चय करके अधिकमासको गिनतीमें कहा है और पूर्वधरादि उपबिहारी महानुभावोंके लिये निवासरूप पर्युषणा (योग्यक्षेत्र तथा उपयोगी वस्तुयोंका योग होनेसे) उत्सर्गसे आषाढ़पूर्णिमाकोही करनी कही परन्तु योग्यक्षेत्रादिके अभावसे अपवादसें पांच पांच दिनकी वृद्धि करते अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीश दिन (श्रावण शुक्लपञ्चमी) तक तथा चन्द्रसंवत्सरमें पचास दिन ( भाद्रपदशुक्लपञ्चमी) तक पर्युषणा करनी कही-आषाढ़पूर्णिमाकी तथा पांच पांच दिन की वृद्धिको पर्युषणाको अधिकरणदोषोंकी उत्पत्ति न होने के कारण गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अज्ञात पर्युषणा कही है इसका विशेष खुलासा इन्ही ग्रन्थमें अनेक जगह छपगया है और वीशदिने तथा पचास दिने गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई ज्ञातपर्युषणा कही उसीमें वार्षिक कृत्य वगैरह करने में आतेथे इसकाभी खुलासा इन्ही ग्रन्यमें अनेक जगह छप गया है जिसमें भी विशेष विस्तार पूर्वक पष्ठ ९०० से ११७ तक अच्छी तरहसे निर्णय करने में आया है। और मासवृद्धिके अभावसे पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक ७० दिन रहते हैं तैसेहीमासद्धि होनेसें पर्यषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते हैं इसका भी विस्तार अनेक जगह पगया है जिसमें भी विशेष करके पृष्ठ १२० से १२९ तक और १७४ में १८३ तक अच्छी तरहसें निर्णयके साथ छपगया है और उत्कृष्टसें १८० दिन का कल्प कहा है ; और तीसरा श्रीजिनपतिसूरिजी कृत श्रीसमाचारी ग्रन्थकापाठलिखभेजाथा सोहीपाठ यहां दिखाताई यथा : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९० ] rear अहिगमासे चाउमासीओ ॥ पसास इमे दिने, पज्जोसवणा कायदा न असीमे, इति · भावार्थ:-श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होतो भी आषाढ़ चौमासीसें पचासमै दिन पर्युषणा करना चाहिये परन्तु अशीमें दिन नही करना । इस जगह सज्जन पुरुषों को विचार करना चाहिये कि ऊपरोक्त तीनों शास्त्रों के पाठ आगमानुसार तथा युक्ति पूर्वक होने से छठे महाशयजीको प्रमाण करने योग्य थे तथापि गच्छका पक्षपात के और पण्डिताभिमानके जोरसें ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंको प्रमाण न करते हुवे श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको तथा श्रीबृहत्कल्पचूर्णिके पाठको छुपाकरके मायावृत्तिसें श्रीजिनपति सूरिजी की समाचारीके पाठ पर अपने विद्वत्ताको चातुराई दिखाई है कि (यही तो विवादास्पद है कि श्रीजिनपति सूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकमजारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिब किया है ) उठे महाशयजीके इस लेख पर मेरेको वड़ाही आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि श्रीवल्लभविजयजीको अनुमान २२ । २३ वर्ष दीक्षा लिये हुए है तथा कुछ व्याकरणादि भी पढ़े हुए सुनते हैं परन्तु इस जगह तो श्रीवल्लभविजयजीनें अपनी खूब अज्ञता प्रगट करी हैं क्योंकि श्रीनिशीथसूत्र के लघु भाष्य में, १ तथा वृहद्भाष्य में २ और पूर्णिमें ३ श्रीवृहत्कल्पसूत्रके लघु भाष्यमें ४ तथा बृहत्भाष्यमें ५ और चूर्णिमें ६ श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रमें 9 तथा चूर्णिमें ८ श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें ९ तथा तद्वृत्ति में १० और श्रीस्थानाङ्गजी सूत्र की वृत्ति में १९१ इत्यादि अनेक शास्त्रों में कहा है कि पचास दिने अवश्य ही पर्युषणा , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] करनी चाहिये। तथापि पर्युषणा करने योग्यक्षेत्र नहीं मिले तो विजन ( जङ्गल ) में भी वृक्ष नीचे पचास वें दिन जरूर पर्युषणा करनी परन्तु पचासमें दिमको रात्रिको उल्लङ्घन नही करना यह बात तो प्रसिद्ध है इसीके सम्बम्धर्मे इन्ही ग्रन्थके आदिमें श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रकी वृत्तिका पाठ पृष्ठ १८१९ में और श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठ पृष्ठ २१ से २५ तक, और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रकी चूर्णिका पाठ पृष्ठ ९१ से २४ तक, और श्रीनिशीथसत्रकी चूर्णिका पाठ पृष्ठ १५ सें तक, तथा तद्भावार्थ पृष्ठ १०० से १०५ तक छप गया है, उपरोक्त शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे पांच पांच दिनोंकी वृद्धि करते (दशवें पञ्चकमें) पचासवें दिने प्रसिद्ध पर्युषणा मासवृद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सर में करनी कही है और मासवृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरमें पांच पांच दिनोंकी वृद्धि करते (चौथे पञ्चकमें)वीशवें दिने प्रसिद्ध पर्युषणा कही सो प्राचीनकालाश्रय पूर्वधरादि उग्रविहारी महाराजोंके लिये श्रीजैनज्योतिषके पञ्चाङ्ग मुजब वर्त्तनेके सम्बन्धमें कही परन्तु अबी इस वर्तमानकालमें जैन पञ्चाङ्ग के अमावसे और पड़ते कालके कारणसे ऊपरका व्यवहार श्रीसन्धकी आज्ञासै विच्छेद हुवा है सोही दिखाता हूं। श्रीतीत्योगालिय (तीर्थोद्गार) पयन्नामें कहा है -यथा ;वीसदिणेहिं कप्पो, पंचगहाणीय कप्पठवणाय, नवसय तेणउएहिं, वुच्छि का संघआणाए ॥१॥ देखिये ऊपरकी गाथामें वीश दिनका कल्प, तथा पांच पांच दिनकी वृद्धि करके अज्ञातपर्युषणास्थापन करनेसे पिछाड़ी कालावग्रह संबंधी श्रीवहत्कल्पवृत्ति, श्रीदशाश्रुतचूर्णि, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९२ ] "श्रीनिशीथ चूर्ण, श्रीवृहत्कल्पचूर्णिके, पाठ खुलासापूर्वक छप नये हैं सोही पंचकपरिहानीका कल्प, और कल्प स्थापना याने योग्य क्षेत्रके अभाव से पांच पांच दिनकी वृद्धिसें अज्ञातपर्युषणा स्थापन करे उसी रात्रिको वहां श्रीकल्पसूत्र के पठन करनेका कल्प, यह तीनों बातें वीर संम्वत् ९९३ ( विक्रम संम्वत् ५२३ ) में श्रीसंघकी आज्ञा विच्छेद हुई । तब चन्द्रसंवत्सर में और अभिवर्द्धितसंवत्सर में भी आषाढ़ चौमासी ५० दिने पर्युषणा करनेके कल्पकी मर्यादा रही तथा पचासवें दिनही श्रीकल्पसूत्रके पठन करनेके कल्पकी मर्यादा भी रही और उसी वर्षे श्रीमान् परम उपगारी श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीजैनशास्त्रोंको पुस्तका रूढमें किये उसी समय श्री शम्श्रुतस्कन्धसूत्र के आठमें अध्ययनको लिखती वरूत, जिन चरित्र तथा स्थिरावली और साधुसमाचारीका संग्रह करके अष्टम अध्ययनको संपूर्ण किया तब पांच पांच दिनको वृद्धिसें अभिवर्द्धित सम्वत्सर में चार पञ्चक वीश दिनका तथा चन्द्रसम्वत्सरमें दशपञ्चकका ( कल्प) व्यवहारको म लिखा और चन्द्रसं० अभिवर्द्धितसं० इन दोनु सम्वत्सरोंमें५० दिनका एकही नियम होनेसें पचास दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा करनेका नियम दिखाया है यह श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रका अष्टमाध्ययन श्रीकल्पसूत्रजीके नामसे जूदा भी प्रसिद्ध है उसी श्रीकल्पसूत्रका पर्युषणा सम्बन्धी पाठ भावार्थ सहित इन्ही ग्रन्थकी आदि पृष्ठ ४५६ तक छप चुका है सोही पाठार्थ सूर्य्यकी तरह प्रकाश करता है कि इस वर्त्तमानकाल में आबाढ़ चौमासीसे पचास दिन जहां पूरे होवे वहांही पर्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९३] चणा करनी चाहिये इसीही श्रीकल्पसूत्रके मूळ पाठादिके अनुसार भोजिनपतिसूरीजीने समाचारीमें लिखा है किअधिक मास हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करना परन्तु असी दिने नही करना चाहिये इस लेखको देखके छठे महाशयजी लिखते हैं कि (यहोतो विवादास्पद है श्रीजिन पति सूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसें दफे मुजब किया है) इस पर मेरेको इतनाही कहना है कि श्रीकल्पसूत्रके पर्युषणा सम्बन्धी साधुसमाचारीका मूलपाठ इन्ही ग्रन्थ के पृष्ठ ४ । ५ में छपा है उसी मूलपाठके अनेक दफे मुजब श्रीजिनपति सूरिजीने समाचारीमें पूर्वोक्त हुकम जारी किया है सो श्रीजैन आगमानुसार है इसका निर्णय ऊपरमेंही कर दिखाया हैं इसलिये छठे महाशयजी आपको श्रीजिनपति सूरिजी के वाक्य में जो शङ्कारूपी मिथ्यात्वका भ्रम पड़ा है सो उपरका लेखको पढ़के निकालदो और मिथ्या पक्षको छोड़कर मत्य बातको ग्रहण करके, निःसन्देहरूपी सम्यक्त्व रत्नको प्राप्तकरो क्योंकि आपके विवादास्पदका निर्णय उपरमेही होगया है । और पृष्ठ १५७ से १६५ तक भी पहिले छपगया है । वड़ेही आश्चर्यकी बात है कि- श्रीवल्लभविजयजीको २२ । २३ वर्ष दीक्षा लिये हुवे और हर वर्षे गांम गांममें श्रीपर्युषण पर्व के व्याख्यानमें खुलासा पूर्वक व्याख्या सहित वंचाता हुवा श्री कल्पसूत्र के मूलपाठका तथा मूलपाठके व्याख्या का अर्थ भी उन्हकी समझमें नही आया होगा इसलिये ५० दिने पर्युषणा करनेका श्रीजिनपति सूरिजी का लेख पर शङ्का करी इससे मालूम होता है कि पर्युषणा सम्बन्धी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९४ ] श्री कल्पसूत्र के पाठसे तथा तद्पाठकी व्याख्यासें आप अज्ञ होवेंगे अथवा तो भोले जीवोंको गच्छ कदाग्रहका भ्रम में गेरनेके लिये जानते हुवे भी तीसरे अभिनिवेश मिथ्यात्व के आधिन हो करके मायावृत्तिसें लिखा होगा सो विवेकी विद्वान् स्वयं विचार लेवेंगे : और आगे छठे महाशयजी दम्भप्रियजीमें फिरभी लिखा है कि ( हाँ यदि ऐसा खुलासा पाठ पञ्चाङ्गीमें आप कहीं भी दिखा देवें कि दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावण में और दो भाद्रपद होवें तो पहिले भाद्रपद में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केश लुञ्चन, अष्टमतपः, चैत्यपरिपाटी, और सर्व सङ्घके साथ खानणारूप पर्युषणा वार्षिकपर्व करना तो हम मानने को तैयार है ) श्रीवल्लभविजयजीके इस लेखपर मेरेको प्रथमतो इतना ही कहना है कि ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनें - वालोंको आपने आज्ञा भंगका दूषण लगाया तब श्रीबुद्धिसागरजीनें आपको पत्र द्वारा पूछा कि कौनसे शास्त्रोंके पाठ मुजब ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंको आपने आज्ञा भङ्गका दूषण लगाया है सो बतावो इस तरहसें शास्त्रका प्रमाण पूछा उसीको आप शास्त्रका प्रमाणतो बता सके नहीं तब पंडिताभिमान के जोर की मायावृत्तिसे निष्प्रयो-जनकी अन्य अन्य बातें लिखके उल्टा उन्होंने ही शास्त्रका प्रमाण पूछने लगे सो दंभप्रियजी यह आपका पूछना अन्यायकारक है क्योंकि प्रथम आपने ही आज्ञा भंगका दूषण लगाया है इसलिये प्रथम आपको ही शास्त्रका प्रमाण बताना न्याययुक्त उचित है तथापि जब तक आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९५ ] अपनी बात संबन्नी शास्त्रका प्रमाण नही बतावोगे तब तक आपका दूसरोंको पूछना है सो निकेवल बाललीलावत् विवेकशून्यतासे अपने नामकी हासी करने का कारण है सो विद्वान् पुरुष स्वयं विचार सकते है. दूसरा-श्रीवल्लभविजयजी में मेरा (इस ग्रन्थकारका) बड़ेही आग्रहके साथ यही कहना है कि आपने ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंको आशा अंगका दूषण लगाया सो शासप्रमाण मुजब और न्यायकी युक्ति करके सहित सिद्ध कर दिखावो अथवा नहीं सिद्धकरसकोतो श्रीचतुर्विध संघ समक्ष मन बचन कायासें अपनी उत्सूत्रभाषणके भूलकी क्षमा मांगकर मिथ्या दुष्कृतसें अपनी भात्माको भवान्तर में उत्सूत्रभाषण की शिक्षा भोगनेसें बचालेवो ; और आप इन दोनु मेसें एक भी नहीं करोगे और इस बातको छोड़कर निष्प्रयोजनकी अम्यअन्य बातोंसें इधा वाद विवाद खण्डन मरहन तथा दूसरेकी निन्दा अवहेलनासे झगड़ा टंटा कर के आपसमें जो जो संपसे शासन उमतिके और भव्य जीवोंके उद्धारके कार्य होते है जिसमें विघ्न कारक राग द्वेष निन्दा ईर्षासें कर्म बन्धके हेतु करोगे करावोगे और मिथ्यात्वको वढावोगे जिसके दोषाधिकारी निमित्त भूत दम्भप्रियजी श्रीवविजयजी खास आपही होवोगे इस लिये विष्प्रयोजनकी अन्याय कारक वृथा अन्य अन्य बातों को छोड़कर अपनी बात संबन्धी शास्त्रका प्रमाण दिखावो अथवा अपनी भूल समझके क्षमाके साथ मिथ्या दुष्कृतदेवो नहीं तो आप आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी हो ऐसा कोई भी सज्जन नहीं मान सकेंगे किन्तु इस लौकिकमें दृष्टिरागि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९६ ] यो पूजता मानताके लिये पण्डिताभिमान के जोरखें. उत्सून भाषण से संसार वृद्धिका भय न करते बालजीवोंकों कदाग्रहमें गेरके मिथ्यात्वको बढानेवाले आप हो सोतो. श्रीजैमशास्त्रोंके तात्पर्यको जाननेवाले विवेकी सज्जन अवश्य ही मानेंगे यह तो प्रसिद्धही न्यायकी बात है ; तीसरा यह है कि दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषण पर्व करने संबन्धी पञ्चाङ्गीका पाठ पूरके मानने को छठे महाशयजी आप तैयार हुए हो परन्तु अपनी तरफसें पंचांगीका पाठ बता सकते नहीं हो इससे यह भी सिद्ध होगया कि इस वर्तमान कालमें दो श्रावण अथवा दो भाद्रपद होने से पर्युषणापर्व कबकरना जिसकी आपको अबीतक शास्त्रोंके प्रमाण मुजब पूरे पूरी मालूम नहीं है तो फिर दूसरों को आज्ञा भंगका दूषण लगाके निषेध करना यहतो प्रत्यक्ष आपका महासिघ्या उत्सूत्र भाषणरूप वृषा ही झगड़े को बढानेवाला हुवा सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ; Dund . चौथा औरभी सुनो यहतो प्रसिद्ध बात है कि आषाढ चौमासीसे ५० दिने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन वार्षिक कृत्यादिसें करना कहा है इस न्यायके अनुसार दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने पर्युषणा करना सोतो अल्प बुद्धिवाले भी समझ सक्ते है । तो फिर क्या छठे महाशयजीकी इतनी भी बढिनहीं है सो ५० दिने दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करने संबंधी पञ्चाङ्गी का पाठ पूछते है । इसपर कोई कहेगा कि छठे महाशयजी की ५० दिने पर्युषणा करनेकी बुद्धि तो हैं । इसपर मेरेको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९७ ] 4 इतनाही कहना है कि ५० दिने पर्युषणा करने की बुद्धि तो फिर जानते हुवे भी तीसरे अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के अधिकारी क्यों बनके पञ्चाङ्गीका प्रमाण पूछकर के भोलेजीवों को संशयरूपी मिथ्यात्वका भ्रममें गेरे है और अधिकमास की गिनती निश्चय करके स्वयं सिद्ध हैं सो कदापि निषेध नहीं हो सकती है जिसका खुलासा इस ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है इसलिये दो श्रावण होते भी ८० दिने भाद्रपद में अथवा दो भाद्रपद होनेसे भी ८० दिने दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा अपनी मति कल्पनासें श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध क्यों करते है क्योंकि पचासवें दिनको रात्रिको भी उल्लङ्घन करनेवालेको शास्त्रों में आज्ञा विराधक कहा है इसलिये ८० दिने पर्युषणा करनेवाले अवश्यही आज्ञाके विराधक है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है और ८० दिने पर्युषणा करनेका कोई भी श्रीजेनशास्त्रों में नहीं लिखा है परन्तु ५० दिने पर्युषणा करनेका तो पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंमें लिखा है सो इसीहीं ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है तथापि दंभप्रियजी ने अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में ५० दिने पांच कृत्योंसें पर्युषणा वार्षिक पर्व करने संबंधी पंचांगका पाठ पूछके भोले जीवोंको भ्रममें गेरे है सो दंभप्रियेजीके मिथ्यात्वका भ्रमको दूर करनेके लिये और मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इस जगह मेरेको इतनाही कहना है कि-श्रीकल्पसूत्र के मूलपाठ में ५० दिने पर्युषणा करनी कही है इसलिये श्रावणमासकी वृद्धि होनेसें दूसरे श्रावण में अथवा भाद्रपदना सकी वृद्धि होने सें प्रथम भाद्रपदमें जहां ५०दिन पूरे होवे वहांही प्रसिद्ध पर्युषणा में ३८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २८ ] साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्योंसें वार्षिकपर्व कर. मेका समझना चाहिये क्योंकि जहां प्रसिद्ध पर्युषणा वहांही धार्षिक कृत्यादि करनेका नियम है सो तो श्रीकल्पसूत्रकी मव (९) व्याख्यायोंमें श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छा दिके सबी टीकाकारोंने खुलासा पूर्वक लिखा है इसका विस्तार इसीही ग्रन्थकी आदिसें लेकर पृष्ठ २० तक छप गया है और उन्ही टीकाओंमें पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्योंसें वार्षिक पर्वरूप प्रसिद्ध पर्युषणा करनी कही है सो तो मास वृद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें नतु मासद्धि होते भी अभिवर्द्धित संवत्सरमें क्योंकि प्राचीनकालमें भी पौष अथवा आषाढ़ मासकी द्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीश दिने प्रावणशुक्ल पञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पाँच कृत्योंसें प्रसिद्ध पर्युषणा जैनपञ्चाङ्गानुसार करनेमें आती थी इस बातका निर्णय श्रीकल्पसूत्रकी टीकाओंमें तथा इसीही ग्रन्थमें अनेक जगह और विशेष करके पृष्ठ १०७ - १९७ तक छप गया है परन्तु इस वर्तमान कालमें वीश दिने पर्युषणा करनेका कल्पविच्छेद होनेसें तथा जैन पञ्चाङ्गके अभावसें और लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी सृद्धि होनेके कारणसें ५० दिनही प्रसिद्ध पर्युषणा वार्षिक कृत्यादिसे करनेकी शास्त्रोंकी तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वज पूर्वाचार्योकी मर्यादा है सो तो इस ग्रन्थकी आदिसेंही लेकर ऊपर तकमें अनेक जगह छप गया है और सातमें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नामकी सभी क्षामें भी छपेगा ( और वर्षाकालमें जीवदयादिके लियेही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ल्ल ] खास करके दिनोंकी गिनती से पर्युषणा करनेका श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक कहा है) इस लिये इस वर्त्तमान कालमें दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें ५० दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा सांवसरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्यों सहित अवश्यही निश्चय करके करनी चाहिये सो पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के प्रमाजानुसार तथा युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो ऊपरके लेखको तथा इस ग्रन्थको आदिसैं अन्ततक आदों महाशयों के लेखकी समीक्षाको पढ़नेवाले मोक्षाभिलाषी सत्यवाही सज्जन: स्वयं विचार लेवेंगे तथा छठे महाशयजी आप भी हृदयमें विवेक बुद्धि लाकरके न्याय दृष्टिसें पढ़कर अच्छी तरहसें विचारो और आप सत्यवादी महा व्रतधारी आत्मार्थी होवो तो पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाणानुसार और खास आपके गच्छके भी पूर्वाचाय्योंकी मर्यादानुसार ५० दिने दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपद में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पाँच कृत्योंसे प्रसिद्ध पर्युषणा वार्षिकपर्व करनेका ऊपरोक्त प्रत्यक्ष न्यायानुसार तथा युक्तिपूर्वक शास्त्रोंके प्रमाणको ग्रहण करो और शास्त्रोंके प्रमाण बिना तथा युनिके विरुद्धका मिथ्या कदाग्रहको छोड़ो और ५० दिने पर्युषणापर्व करनेका निषेध करने सम्बन्धी जितनी कुतकीं करनी है सो सबीही संसारवृद्धिकी हेतुरूप तथा भोले जीवोंकी सत्यबात परसें श्रद्धा भ्रष्ट करके गच्छ कदाग्रहके मिध्यात्वका भ्रम में गेरनेके लिये अपने विद्वत्ताको हासी करानेवाली है सो भवभीरू मोक्षाभि. लाषी आत्मार्थियोंको करनी उचित नही है तो फिर छठे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • www.umaragyanbhandar.com Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०० ] महाशयजीने शास्त्रानुसार ५० दिने पर्युषणा पर्व करने वालोंको मिथ्या आजाभङ्गका दूषण लगाके उत्सूत्र भाषणरूप ८० दिने पर्युषणा करनेका पुष्टकिया जिसकी आलो. धना लिये बिना कैसे आत्मका सुधार होगा सोन्यायदूष्टि वाले सज्जन स्वयं विचार लेखेंगे ;- अब छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीने दूसरे गुजराती भाषाके लेखमें मिथ्यात्वके झगड़े को बढ़ानेके लिये जो लेख लिखा है उसीका नमूना यहाँ लिख दिखा करके पीछे उसीकी समीक्षा करता हूं-नवेम्बर मासकी ७वीं तारीख सन् १९०९ गुजराती आश्विन वदी १ हिन्दी कार्तिक वदी १ वीर संवत् २४३५ का जैनपत्रके ३० वा अङ्कके पृष्ठ पांचमा • की आदिमें ही लिखा है कि, . [वन्दे वीरम्-लेखक मुनि वल्लभविजय मु. पालणपुर - सावधान ! सावधान !! सावधान !!! . ... आचार्य सावधान ! उपाध्याय सावधान ! पन्यास सावधान ! गणी सावधान ! साथसाध्वी सावधान ! यतीवर्ग सावधान ! श्रावक श्राविका सावधान ! शेठीयाओ सावधान ! कोन्फरन्स सावधान ! वकील प्लीडर सावधान ! बेरिस्टअटलो सावधान ! नाणा कोथली सावधान ! लागता वलगता सावधान ! कागज कलम सावधान ! खड़ीओ रुशनाई सावधान ! सावधान ! सावधान !! सावधान !!! तपगच्छमाम धरावनार सावधान ! खरतरगच्छीय सावधान ! छठे महाशयजीके इन अक्षरों पर मेरेको वड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि श्रीवल्लभविजयजीको विवेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०९ ] बुद्धि कैसी शून्य होगई है सो अपनी हासी करानेवाले बिना विचारे शब्द लिखते कुछ भी लज्जा नही आई क्योंकि श्रीवल्लभाविजयजी आत्मार्थी महाब्रतधारी साधु होते तो वकील, बेरिस्टर, और नाणा कोपली, वगैरहको सावधान ! सावधान !! पुकारके कोर्ट कचेरीमें झगड़ा बढ़ानेकी तैयारी कदापि नही करते तथापि करी इससे विवेकी सज्जन स्वयं विचार डेवेंगे कि-श्रीवल्लभविजयजीने भेष धारण करके साधु नाम धराया परन्तु अन्तरमें श्रद्वारहित होमेसे शास्त्रार्थ पूर्वक सत्य असत्यका निर्णय करना छोड़ करके श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें कोर्ट कचेरीमें झगड़ेको बढ़ाने के लिये श्रीजैनशासनकी निन्दा करानेवाले तथा मिथ्यात्वको बढ़ानेवाले और अपने नामको लज्जनीय शब्द लिखते पूर्वापरका कुछ भी विचार न किया और शक्त दिवाने बड़ेही पागलकी तरह-नाणा कोथली (रूपैयोंकी घेली) तथा कागद कलम और खड़ीओ रुशनाई (द्वात पाही) अचेतन अजीव वस्तुयोंको सावधान ! सावधान !! पुकारा-वाह क्या विद्वत्ताकी चातुराईका नमूना वठे महाशयजीने प्रकाशित किया है सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे,___ और दूसरा यह है कि खास छठे महाशयजीकी सम्मति पूर्वक पञ्जाब अमृतशहरसें, घासीराम और जुगलरामको गङ्गाजी भेजकर पवित्र करवाये जिसका कारण संक्षिप्तसे इसीही अन्यके पृष्ट १७५-१७६ में छपगया है और विशेष विस्तार पूर्वक पञ्जाब लाहोरसें जसवन्तराय जैनीकी मारफत श्रीआत्मानन्द जैन पत्रिका मासिक पत्र प्रसिद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ pop ] होता है उसी में सन् १९०८ के २-३ अङमें छप चुका है उसी पासीराम और जुगलरामको गङ्गाजी भेजकर पवित्र कराने सम्बन्धी ढूंढकसाधुनामधारक कुंदनमलने १४ पृष्ठकी छोटीसी एक पुस्तक बनाकरके प्रगट कराई है सो पुस्तक छठे महाशयजीने वांची है और उन्हके पास भी है उसी पुस्तकमें छठे महाशयजीके गुरुजी न्यायामोनिधिजी श्रीआत्मारामजी सम्बन्धी तथा श्रीजनश्वेताम्बर मूर्तिपूजने वालों सम्बन्धी और श्रीसिद्धाचलजी श्रीगीरनारजी श्रीआबूजी श्रीसमेतशिखरजी वगैरह नीजैनतीर्थों सम्बन्धी अनेकतरहके अनुचित शब्द लिखके निन्दा करी है उसीके निमित्त भूत छठे महाशयजी बगैर हुवे हैं और उसी पुस्तकके पृष्ठ ३-४में घासीराम और जुगलरामको गङ्गाजीके जलसें पवित्र कराये तैसेही छठे महाशयजीके गुरुजी श्रीमात्मारामजीको गङ्गाजीके जलसें पवित्र न करानेके कारण अपने गुरुजीको और अपने गुरुजीकी सम्प्रदायमें दीक्षा लेनेवालोंको अपवित्र ठहरनेका कलङ्क लगवाया और पृष्ठ ११ में घासीराम, जुगल रामको गङ्गाजी भेजने वालोंको तथा भेजाने वालोंको और सम्मती देकर अच्छा समझने वाले छठे महाशयजी आदिको मिथ्यात्वी, पाखण्डी, वगैरह शब्दोंका इनाम दे कर फिर पृष्ठ १३ के अन्त में गङ्गाजी भेजने वालोंको श्रीजैनशासनको लांछन (कलङ्क) लगानेवाले ठहराकरके तीन वार धीक्कारका इनाम दिया है। ....... इस जगह निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि श्रीजैनतीर्थोंकी तथा श्रीजैनतीर्थों को मानने वालोंकी द्वेष बुद्धिसें बड़ेही अनुचित शब्दोंसे निन्दा करके www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०३ ] भारी कhin बंध किये हैं और श्रीजैनशासनके निन्दकोंकों भी उसी रस्तो पहुंचानेके लिये नरकादि अधोगतिका सार्थवाह ( कुंदनमल ढूंढक ) बना है और पुस्तक प्रगट कराई हैं जिसमें छठे महाशयजीके गुरुजीकी तथा उन्हों के सम्प्रदाय वालोंकी भी निन्दा करी हैं तथा खास छठे महाशयजी वगैरहको भी अनेक शब्द लिखते तीनवार धीक्कार भी लिख दिया हैं और श्रीजैनशासनको मिन्दा करके मिथ्यात्व बढ़ानेका कारण किया - उसीको तो छठे महाशयजीमें कुछ जबाब भी न दिया और सर्व श्रीसङ्घको तथा वकील, बेरिस्टर वगैरहको सावधान करके कोर्ट कचेरी में श्रीजैनशासनके निन्दक कुंदनमल्लको शिक्षा दिलानेकी किञ्चिन्मात्र भी बहादुरी न दिखाई परन्तु श्री खरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें वृधाही कोर्ट कचेरीमें झगड़ा फैलाने के लिये और मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये, वकील, बेरिस्टर, वगैरको सावधान करके बड़ीही बहादुरी दिखाई हैं सो बड़ीही आश्चर्य्यकी बात है कि श्रीजैनशासन के दुशमन निन्दकी से तो मुख छिपाते हैं और आपसमें झगड़ा करनेकी बहादुरी दिखाते कुछ लज्जा भी नही पाते है, अब इठे महाशयजीको मेरा ( इस ग्रन्थकारका ) इतनाही कहना है कि आप सम्यक्त्वी और श्रीजैनशासन के प्रेमी होवो तो प्रथम श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें न्यायानुसार शास्त्रार्थ पूर्वक अन्तरका पक्षपात छोड़कर सत्य असत्यका निर्णय करके असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण करो और श्रीजैनशासन के निन्दक कुंदनमलके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०४ ] मिथ्यात्वका पाखण्डको च्छेदन करनेके लिये अपनी बहा दुरी प्रगट करो-जबतक कुंदनमलके मिथ्यात्व वढ़ानेवाले लेखका जबाब आप नही देवोगे तबतक आपकी विद्वत्ता वृथाही समझने में आवेगी और ढूंढकोके मुखपर शाही फिरानेके इरादेसे कार्य करनेकी अक्कल आपने दोडाई थी परन्तु पूर्वापरका विचार किये बिना कार्य कराया जिससे भापकही मुखपर शाही फिरने जैसा कारण बनगया और श्रीजैनतीयोंकी तथा अपने गुरुजी वगैरहको निन्दा कराने के निमित्त भूत दोषाधिकारी भी आपकोही बनमा पड़ा है और अपने बड़ोको अपवित्र ठहरानेका कलङ्क भी लगवाया है इसलिये कंदनमल ढूंढकके निन्दारूपी मिथ्या गप्पोंका जबाब देना आपकोही उचित है. तथापि उन्हका जबाब देना आपको मुश्किल होवे तो आपके मण्डलीमें विद्वत्ता का अभिमान धारण करनेवाले बहुतसें साधुजी है उन्हके पास उसीका जबाब दिलाना चाहिये इतने पर भी आप की तथा आपके मण्डलीके साधुओंकी कुंदनमल्लके लेखका जबाब देनेकी बुद्धि नही होवे तो मेरी तरफसे इस ग्रन्थको संपूर्ण हुए बाद "कुंदनमलके मिथ्यात्वका पाखण्डच्छेदन कुठार" नामा अन्य आप लिखो तो बनाकर प्रगट करू जिसमें श्रीजैनतीों पर तथा श्रीजैनतीर्थों को माननेवालों पर और आपके गुरुजी वगैरह पर जो जो आक्षेप करके दूषण लगाया है जिसका न्यायानुसार युक्तिपूर्वक अच्छी तरहसे जबाब लिखके सबके आक्षेपको दूर करनेमें आवेगा और कुंदनमलने अपने अन्तर गुण युक्त जो जो शब्द लिखे हैं उसीकाही न्याय युक्तिपूर्वक खास कुंदनमलकेही अपर घटानेमें आवेगा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२९ ] अब सत्यग्राही सज्जन पुरुषोंको निष्पक्षपाती हो करके विचार करना चाहिये कि एक सामायिक विषयमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियाव ही सम्बन्धी २१ शास्त्रों के प्रत्यक्ष प्रमाणोंको न्यायके समुद्र हो करके भी श्रीआत्मारामजीने छोड़ दिये और आप उन्ही शास्त्रोंके पाठोंकी श्रद्धा रहित बनकरके उन्ही शास्त्रोंके तथा उन्हीं शास्त्रकार महाराजों के विरुद्धार्थ में प्रथम इरियाबही स्थापन करने के लिये ऊपरोक्त कैसा अनर्थ करके कहीं उपधानसम्बन्धी, कहीं साधुके जाने आने सम्बन्धी कहीं चैत्यवन्दनसम्बन्धी, कहीं स्वाध्यायसम्बन्धी, कहीं षड़ावश्यकरूप प्रतिक्रमणसम्बन्धी, कहीं पौषधमम्बन्धी, इत्यादि अनेक तरहके अन्य अन्य विषयोंके सम्बन्ध में शास्त्रकार महाराजोंने इरियावही कही है जिसके बदले उन्हीं शास्त्रकार महाराजों के विरु द्वार्थ में सामायिक में प्रथम दरियाव ही स्थापन करने के लिये आगे पीछे के पाठोंकों छोड़ करके अधूरे अधूरे पाठ लिखते न्यायाम्भोनिधिजीको पर भवका कुछ भी भय नही लगा और इस लौकिक में भी अपनी विद्वत्ताको हासी करानेके कारणरूपं इतना अन्याय करते कुछ शर्म भी नहीं आई इसलिये सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभते पोछे हरियावही सबी गच्छोंके प्रभाविक पुरुषोंने अनेक शास्त्रों में प्रत्यक्ष पने अविसंवादरूप खुलासा पूर्वक लिखी है जिसको जानते हुवे भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के जोरसे श्रीहरिभद्रसूरिजी श्री अभयदेवसूरिजी श्रीदेवेन्द्रसूरिजी वगैरह प्रभाविक पुरुषोंको विसंवादीका मिथ्या दूषण लगा करके सामायिक में प्रथम इरियावही स्थापनेका विसंवाद ४२ , 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३० ] रूपी मिध्यात्वको बढ़ाने वाला भंगड़ा ( अविसंवादी श्रीजैनशासन में इस वर्त्तमान कालके बालजीवोंकी श्रद्धाभ्रष्ट करने के लिये) श्रीआत्मारामजीने अपनी विद्वत्ताके अभि मान से खूबही फैलाया है ; और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिक्षंतेका उच्चारण करनेका निषेध करके प्रथम इरियावही स्थापन करने सम्बन्धी ऊपरोक्त जैनसिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तक में जैसे उत्सूत्र भाषणों से मिथ्यात्व फैलाया है तैसेही श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक निषेध करके पाँच कल्याणक स्थापन करने वगैरह कितनी बातों में भी खूबही उत्सूत्र भाषणों से मिथ्यात्व फैलाया है जिसका खुलासा आगे लिखुंगा – और श्रीआत्मारामजीको अपने पूर्व भवके पापोदयसें पहिले ढूंढियोंके मिथ्या कल्पित मतमें दीक्षा लेनी पड़ी थी वहाँ भी अपने कल्पित मतके कदाग्रहकी बात जमाने के लिये अनेक शास्त्रोंके उलटे अर्थ करते थे तथा अनेक शास्त्रोंके पाठोंको छोड़के अनेक जगह उत्सूत्र भाषण करके संसार वृद्धिका भय न करते हुवे भोले दृष्टिरागियोंको मिथ्यात्वकी भ्रमजाल में गेरते थे और मिथ्यात्वरूप रोगके उदयसे श्री जिनेश्वर भगवान्‌की आज्ञा मुजब सत्य बातोंको कल्पित समझते थे और श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा विरुद्ध अपने मत पक्षकी कल्पित मिथ्या बातोंकों सत्य समझते थे और हजारों श्रीजैन शास्त्रोंको उत्थापन करके सत्य बातोंके निन्दुक शत्रु बनते थे इत्यादि अनेक तरहके कासे अपने ढूंढक मतकी मिथ्या कल्पित बातोंको पुष्ट करके अपने मतको फैलाते थे परन्तु कितनेही वर्षे के बाद अपने पूर्व भवके महान् पुष्पोदय होनेसे ढूंढकमतके पाख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३१ ] सहकीसबपोल दिनदिनप्रति खुलतीगई जिससे कल्पित ढूंढकमत को भोजनशास्त्रोंकेविरुद्ध और संसारद्विका हेतु भूत जानकर डोदिया और पीजैनशास्त्रोंके प्रमाणानुसार सत्यबातोंको ग्रहण करनेके लिये संवेगपक्ष अङ्गीकारकरके अनेकशास्त्रोंका अवलोकन किया और श्रीजैनतत्त्वादर्श, अज्ञानतिमिरभास्कर, तत्वनिर्णयप्रासाद वगैरह भाषाके ग्रन्थोंका संग्रह करके प्रसिद्धभी कराये जिससे विद्वान्भी कहलाये तथा दूढकमतकी मिथ्यात्वरूप पाखन्डके भ्रमजालसे कितनेही भव्यजीवोंका उद्धार भी किया और अनेक भक्तजनोंसे खबही पूजाये-शिष्यवर्गका समुदाय भी बहुत हुवा तथा शुद्ध प्ररूपक, उत्कृष्टिक्रिया धरने वाले भी कहलाये और श्रीमद्विजयानन्दसूरि-न्यायाम्भोनिधिजीवगैरह पदवियोंकोभी प्राप्तमये जिससे दुनियामें प्रसिद्ध मी हुवे परन्तु यह तो दुनियाने प्रसिद्ध बात है, कि-जिस भादमीका जो स्वभाव पहिलेसे पड़ा होवे उस आदमीको कितनेही अच्छे संयोगोंसे चाहे जितना उत्तम गिनो अथवा श्रेष पदने स्थापनकरो तो भी अपना पहिलेका पड़ा हुवा स्वभाव नहीं फुटता है सोही बात नीति शास्त्रोंके 'मुभाषितरत्न भान्हागारम्' मामा अन्य के पृष्ठ १०६ में कही है। तैसाही वर्ताव म्यायाम्भोनिधिजी नामधारक श्रीआत्मारामजीने भी किया है, मर्यात-पूर्वोक्त ढू'ठकमतके साधुपनेने अनेक शास्त्रोंके विरुद्धार्थमें अनेक जगह उत्सूत्र भाषणकरने वगैरह के कार्यो का जो पहिले स्वभाव था सो नहींजानेके कारणसे उसीमुजबही संवेगपक्षेने मी अपने विद्वत्ताके अभिमानसे कल्पितबातोंको स्थापन करनेके लिये पर भवका भय न करके एक 'जैनसिद्धान्त समाचारी' परन्तु बास्तव, उत्सूत्रोंके कुयुक्तियोंकी भ्रमखाड" नामक पुस्तक बनुमान १६० शास्त्रोंकेविरुद्ध लिखके, ६० जगह अन्दाज उत्सूत्र www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३२ ] भाषण भी लिखे हैं जिसके नमूनारूप एक सामायिक विषय सम्बन्धी संक्षिप्तसे ऊपर मेंही लिखने में आया है, और पर्युषणाके विषयमें भी अनेक जगह उत्सूत्र भाषण किये है उसकी भी समीक्षा इसही ग्रन्थके पृष्ट १५१ से २९६ तक छप गई है सो पढ़ने से निष्पक्षपाती सत्यग्राही सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे । और 'शुद्धसमाचारी' की पुस्तक में पौषधाधिकारे विधिमार्ग उत्सर्गसे- अष्टमी, चतुदर्शी, पूर्णिमा और अमावस्या इनच्यारों पर्वतिथियों में पौषध करने सम्बन्धी श्रीसूयगडांगजी, उत्तराध्ययन जी, उववाईजी, धर्मरत्नप्रकरण वृत्ति, योगशास्त्र वृत्ति, धर्म बिन्दु वृत्ति, नवपद प्रकरण वृत्ति, समवायांग वृत्ति, पंचाशक वृत्ति, आवश्यक चूर्णि, तथा बृहद् वृत्ति, और श्रीभगवतीजीसूत्र वृत्ति, वगेरह शास्त्रोंके पाठ दिखाये थे जिसका तात्पर्यार्थको समझे बिना शास्त्रोंके विरुद्ध होकर हमेशां पौषधकरनेका ठहरानेके लिये श्री आवश्यक सूत्रको चूर्णिमें तथा बृहद्वृत्तिमें और लघुवृत्ति और श्रीप्रवचनसारोद्धार वृत्तिमें, श्रीसमवायांगजी सूत्रकी वृत्ति श्रीपंचाशकजीकी चूर्णिमें तथा वृत्तिमें और श्रीतपाशकदशांग वृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रोंमें श्रावकको ११ पडिमाके अधिकारने पांचवी डिमाको विधिमें "श्रावक दोनमें ब्रह्मचर्य व्रत पाले और रात्रिको नियम करें" ऐसे खुलासे पाठ हैं तिसपरभी न्यायभोनिधिजीने अन्धपरंपरासे विवेक शून्य होकर शास्त्रकार महाराजोंकेविरुद्धार्थमें अपनीमतिकल्पना से श्री आवश्यकवृत्ति वगैरहके पाठका" दिवसका ब्रह्मचर्यपाले रात्रिको कुशीलसेवे” ऐसा वीपरीत अर्थ करके मैथुन सेवनकी हिंसाका उपदेश करनेका शास्त्रकारोंको झूठा दूषण लगाके वडाभारी अनर्थ करके जैनसिद्धांत समाचारी नामक पुस्तकमें दुर्लभबोधिका कारण किया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३३ ] इत्यादि इसी तरहसे अनेक बातों बहुत उत्सूत्रोंसे वहा अनर्थ किया है उसके सबका निर्णयतो "आत्मभ्रमोच्छेदन भानुः" के अवलोकनसे अच्छी तरहसे हो जावेगा। और न्यायाम्भोनिधिजीने 'जैनसिद्धान्त समाचारी' पुस्तकका नाम रक्खा परन्तु वास्तवमें उत्सूत्र भाषणोंके और कुयुक्तियों संग्रहको पुस्तक होनेसे आत्मार्थी भव्यजीवोंके मोक्षसाधन में विघ्नकारक और भोजिनालासे बालजीवोंकी भद्धाबाट करनेवाली मिथ्यात्वके पाखन्डको भ्रमजालरूप हैं सो इसके बनानेवालोंको, तथा ऐसी जाल बनाने में संसारइद्धिकी भूत खूबही दलाली कोशिस करनेवालोंकों, और मिथ्यात्वको बढ़ा करके संसारने भ्रमानेवाली ऐसीजाल प्रगट करने मीभावनगरकी मीजैनधर्मप्रसारकसमाके मेम्बरलोग उस समय आगेवान् हुए जिन्होंको, और इसके बनानेको खुसीमानकर अनुमोदना करनेवालोंको और इसी मुजब अन्धपरंपरा गड्डरीह प्रवाहकी तरह चलकर श्रीजिनाजानुसार सत्यबातों की निन्दा करनेवालोंको, भोजिनेश्वर भगवान्की आनाके भाराधक सम्यक्त्वी आत्मार्थी जैनी कैसे कहे जावे इस बातको तत्त्वग्राही मध्यस्थ सज्जनस्वयं विचारलेवेंगे और शास्त्रोंकेविरुद्ध तत्सूत्रप्ररूपणा करनेवालेको मिथ्यात्वी अनन्त संसारी अनेकशास्त्रों में कहा और न्यायाम्भोनिधिजी नाम धारक श्रीआत्मारामजीने तो एक 'जैन सिद्धान्त समाचारों नामक पुस्तकमें इतने शास्त्रोंके विरुद्ध लिखके इतने उत्सूत्र भाषण किये हैं तो फिर पहिले टूटकमतकी दीक्षाने और अन्यकार्यो में कितने उत्सूत्रभाषण करकेकितने शास्त्रोंकेविरुद्ध प्ररूपणाकरी होगी जिसके फल विपाकका कितना अनन्त संसार कढ़ाया होगा सो तो श्रीजानीजी महाराज जाने। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३४ ] और न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीजैनतत्वादर्शमें, अचान तिमिर मास्करमें, और श्रीजैनधर्मविषयिक प्रश्नोत्तर नामा पुस्तकमेंजो सन्दूत्रभाषणरूपलिखा है जिसकेसम्बन्धमें आगे लिखनेमें आवेगा और इस तरहसे अनेक शास्त्रोंकेपाठोंकी श्रद्धारहित तथा शास्त्रोंके भागेपीछेके सम्मन्धवालेपाठोंको छोड़करके शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें अधूरे अधूरे पाठलिखके उलटे वीपरीत पर्य करनेवाले और शास्त्रकारमहाराजोंको विसंवादीकानिच्या दूषण लगानेवाले और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराणोंकी आज्ञानुसार सत्यबातोंका उत्थापन करके अपनी मतिकल्पनासे अन्धपरम्पराकी मिथ्या बातोंको स्थापन करते दुवे। अविधिरूप उन्मार्गके पाखण्डको फैलाने में सार्थवाहको बरह आगेवान बननेवाले और अपनेही गच्छके प्रभावक पुरुषों दूषित ठहरानेवाले और बाल जीवोंको सत्य बातोंके निन्दक बना करके दुर्लभबोधिके कारणसे संसारकीखाड़मे गेरनेवाले ऐसे ऐसे महान् अनर्थ करनेवालेको गच्छपक्षकादृष्टिरागसे-गीतार्थ, पायाम्मोनिधिजी (न्यायके समुद्र ) और युगप्रधान, कलिकाल सर्व समान जैनाचार्य वगैरहकी लम्बी लम्बी ओपमालगाके ऐसे उत्सूत्री गाढ़कदाग्रहियोंकी महिमा बढ़ा करके आडंबरसे मोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें फंसानेके लिये उत्सूत्रभाषणोंके महान् अनर्थका विचार न करके उपरोक्त मिथ्या गुण लिखनेबालोंकी पागतिहोगी तथा कितनासंसारबढ़ावेंगे औरसम्यक्त्व रल कैसे प्राप्तकर सकेंगे सो तो श्रीज्ञानीजीमहाराज जाने। अब प्रीजिनेश्वर भगवान्को माजाके आराधक सज्जन : पुरुषोंको मेरा इतमाही कहना है कि अपरके लेखको पड़के दृष्टिरागके पक्षपातको न रखते हुये संसार सृद्धिको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३५ ] हेतुभूत मिथ्या बातको छोड़ करके आत्मकल्याणके लिये सत्य बातोंके तत्त्वग्राही होना चाहिये और छठे महाशय जीने ढूंढियांको भी अपने सामिल करके सामायिकसम्बन्धी तथा कल्याणक सम्बन्धी और जैन सिद्धान्त समाचारी सम्बन्धी लिखके अपने पक्षकी बात जमानेका परिश्रम किया इसलिये मेने भी सामायिक सम्बन्धी और जैन सिद्धान्त समाचारी सम्बन्धी ऊपरमें इतना लिखके सत्यग्राही भव्यजीवोंको संक्षिप्तसे शास्त्रार्थ दिखाया है और कल्याणक सम्बन्धी पर्युषणका विषय पूरा हुवे बाद पीछे से लिखने में आवेगा सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेंगा ;___ अब छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजोको मेरा ( इस ग्रन्थकारका) इतनाही कहना है कि आषाढ़चौमासीसें पचास दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंको आपने आज्ञा भङ्गका दूषण लगाया तब श्रीलश्करसे श्रीबुद्धिसागरजीने आपको पत्रद्वारा शास्त्र का प्रमाण पूछा उन्हको शास्त्रका प्रमाण आपने बताया नही और छापे में भी पर्युषणा विषयसम्बन्धी शास्त्रार्थ पूर्वक निर्णय करना छोड़ करके अपनी बात जमानेके लिये निष्प्रयोजनकी अन्य अन्य बातोंको लिखके प्रगट करी और अन्यायसें विशेष झगड़ा फैलानेका कारण किया इसलिये मेने भी आपके अन्यायको निवारण करनेके लिये मुख्य मुख्य बातोंका संक्षिप्त ते खुलासा करके सत्य तत्त्वग्राही सज्जन पुरुषोंको दिखाया हैं जिसको पढ़नेसे न्याय अन्यायका तथा श्रोजिनाज्ञाके आराधक विराधकका निर्णय निष्पक्षपाती पाठकवर्ग स्वयं कर लेवेंगे और मरिदिने एक उत्सूत्र भाषणसे एक कोड़ा कोड़ी सागरोपम जितना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] संसार बढ़ाया इस न्यायानुसार आपके गुरुजी न्यायालो. निधिजीने इतने उत्सूत्र भाषणों में कितना ससार बढ़ाया होगा सो तो आप लोगोंको भी न्याय दृष्टि में हृदयमें विचार करना उचित है और अब आप लोग भी उसी तरहके उत्सूत्र भाषणोंसें मिथ्या झगड़ा करते हुए श्रोजिने. श्वर भगवान् की आज्ञानुसार मोक्ष मार्गको हेतुरूप सत्य. बातोंका निषेध करके श्रोजिनाज्ञा विरुद्ध संसार वृद्धि की हेतु. भूत मिथ्या कल्पित बातोंको स्थापन करके बाल जीवोंकी सत्यबात परसे श्रद्धाभ्रष्ट करते हो और मिथ्यात्व को बढ़ाते हो सो कितना संसार वढ़ावोगे सो तो श्रीज्ञानीजी महा. राज जाने -यदि आपको संसार वृद्धिका भय होवे और श्रीजिनाज्ञाके आराधन करने की इच्छा होवे तो जमालिके शिष्योंकी तरह आपसी करों तथा न्यायाम्भोनिधिजीके समुदायवालोंको भी ऐसेही करना चाहिये क्योंकि जमा. लिके उत्सूत्र परूपनाको उन्ह के शिष्यों को जबतक मालूम नही थी तबतक तो जमालिके कहने मुजबकी सत्य माना परन्त जब अपने गुरुको श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध उत्सूत्र परुपनाकी मालूम होगई तब उसीको छोड़ करके श्रीवीरप्रभुजीके पास आकर सत्यग्रा ही होगये तैसेही न्यायाम्भो. निधिजीके शिष्यवर्गमें भो जो जो महाशय आत्नार्थी सत्य ग्राही होवेंगे सो तो दृष्टि रागका पक्ष को न रखके अपने गुरुकी उत्सूत्र भाषणकी बातोंको छोड़कर शास्त्रानुसार सत्य बातोंको ग्रहण करके अपनी आत्माका कल्याण करेंगे और भक्तजनको करावेंगे। इति छठे महाशयजोके लेखकी संक्षिा समीक्षा समाप्ता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] और सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीको . तरको 'पर्युषणा विचार'नामा छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तक प्रगट हुई है जिसमें पञ्चाङ्गीके अनेक शालों के विरुद्ध तथा श्रीतीपंकर गाधरादि महाराजांकी और खास अपनेही गच्छके पूर्वाचायोंकी आशातना कारक और सत्य बातका निषेध करके अपने गच्छ कदाग्रहकी मिथ्या कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समझो बिना शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमे बिना सम्बन्धके और अधूरे अधूरे पाठ दिखाके उलटे तात्पर्य्यसें उत्सूत्र भाषण रूप अनेक कुतों करके अपने पक्षके एकान्त आग्रहसे दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे है और अपनी विद्वत्ताकी हासी कराई है इसलिये अब में इस जगह भव्य जीवोंके मिथ्या त्वका भ्रम दूर होनेसे शुद्ध श्रद्धानरूपी सम्यक्त्वकी प्राप्तिके उपगारके लिये और विद्वत्ताके अभिमानसें उत्सूत्र भाषण करनेवालोंको हित शिक्षाके लिये पर्युषणा विचारके लेखकी समीक्षा करके दिखाता हूं; यद्यपि पर्युषणा विचारको पुस्तकमें लेखक नाम विद्या विजयजीका छपा है परन्तु यह ग्रन्यकार उसीकी समीक्षा उन्हीके गुरुजी श्रीधर्मविजयजीके नामसें लिखता हैं जि. सका कारण इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ६६८ में छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये इस ग्रन्थकारको सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नामसेही समीक्षा लिखनी युक्त है सोही लिखता है जिसमें प्रथमही. पर्युषणा विचारके लेखकी आदिमें लिखा है कि .( आत्मकल्याणाभिलाषी भव्यजीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्योंको करते हैं) इस लेखको देखतेही मेरेको वड़ाही विचार उत्पन्न हुवा कि-सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी और उन्होंकी समुदायवाले साधुजी बहुत वर्षोंसें काशीमें रह करके अभ्यास करते हैं इसलिये विद्वान् कहलाते हैं परन्तु श्रीजैनशास्त्रोंका तात्पर्य उन्होंकी समझमें नही आया मालूम होता है क्योंकि आत्मार्थी प्राणियोंको निर्मूलता समूलता इन दोनुका विचार अवश्यमेव करना उचित है और निर्मूलता, याने-शास्त्रों के प्रमाण बिना गच्छ कदाग्रहके परम्पराकी जो मिथ्या बात होवे उसीको छोड़ देना चाहिये और समूलता, याने शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त कदाग्रह रहित गच्छ परम्पराकी जो सत्य बात होवे उसीको ग्रहण करना चाहिये और हेय, शेय, उपादेय, इन तीनो बातोंकी खास करके प्रथमही विचारने की आवश्यकता श्रीजैनशास्त्रों में खुलासा पूर्वक दर्शाई है, इसलिये निर्मूलता, हेय त्यागने योग्य होनेसें और समूलता, उपादेय ग्रहण करने योग्यहोनेसे दोनुं का विचार छोड़ देना कदापि नही हो सकता है और आत्मकल्याणाभिलाषी निर्मूलता त्यागने योग्यका तथा समूलता ग्रहण करने योग्यका विचार जबतक नही करेगा तबतक उसीको श्रीजिनाजा विरुद्ध वर्त्तनेका अथवा श्रीजिनाजा मुजब वर्तनेका, बन्धका अथवा मोक्षका, मिथ्यात्वका अथवा सम्यक्त्वका, संसार वृद्धिका अथवा आत्मकल्याणके कार्योंका, भेदभावके निर्णयको प्राप्त नही हो सकेगा और जबतक ऊपरकी बातोंकी भिन्नताको नही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३९ ] समझेगा तबतक उसीको आत्म कल्याणकारस्ता भी नही मिले गा तो फिर भाव करके श्रीजिनाज्ञा मुजब श्रावकधर्म और साधुधर्म कैसे बनेगा याने - निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ करके धर्मकृत्योंके करनेवालोंको मोक्ष साधन नही हो सकेगा है क्योंकि उन्हें का धर्मकृत्य तो तत्वातत्वका उपयोगशून्य होजाता है इसलिये आत्मार्थी प्राणियोको निर्मूलता समूलताका विचार करना अवश्यही युक्त है तथापि सातवे महाशयजीने दोनंका विचार छोड़नेका लिखा हैं सो जैनशास्त्रोंके विरुद्ध होनेसें मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सून भाषण है इस बातको तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ; और ( अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्यों की करते हैं ) सातवें महाशयजीके इन अक्षरों पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि अपनी परम्परापर आरूढ होकर धर्मकृत्यों को करनेका जो आप कहते हो तब तो पर्युषणा विचारके लेखमें आपको दूसरोंका खगहन करके अपना मण्डन करना भी नहीं बनेगा क्योंकि सबी गच्छवाले अपनी अपनी परम्परापर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करते हैं जिन्हेंांका खण्डन करके अपना मण्डन करना सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक बुथा है और परम्परा द्रव्य और भावसें दो प्रकारको शानकारोंने कही है जिसमें पञ्चाङ्गीके प्रमाण रहित बर्ताव सेो तो गच्छ कदाग्रहकी द्रव्य परम्परा संसार वृद्वकी हेतु भूत होनेसे आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य है और पञ्चाङ्गीके प्रमाण सहित वतीव सो भाव परम्परा मोकी कारण होनेसें आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४० ] और द्रव्य भाव परम्पराका विशेष विस्तार देखनेकी इच्छा होवे तो श्रीखरतरगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीमवाकी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजीकृत श्रीआगम-अष्टोत्तरी नामा ग्रन्थ 'आत्म- हितोपदेश -नामा पुस्तकमें' गुजराती भाषा सहित श्रीअहमदाबादसे उपके प्रसिद्ध होगया है सो पढ़नेसें अच्छी तरहसें मालूम हो जायेंगा । और श्री सर्वच कथित श्रीजैनशासन अविसंवादी होने से श्रीतीर्थङ्कर भगवानोंके जितने गणधर महाराज होते हैं उतनेही गच्छ कहे जाते हैं उन्ह सबीही गच्छवाले महानुभावोंकी ऐकही परूपना तथा एकही वर्ताव होता है और इस वर्त्तमान कालमें तो बहुतही गच्छवालोंके आपस में अनेक तरहके विसंवाद होनेसे जुदी जुदी परूपमा तथा जुदा जुदा वर्ताव है और बहुतही गच्छ वाले अपने अपने गच्छकी परम्परा सुजब धर्मकृत्य करते हुवे आप श्रीजिनाज्ञाके आराधक बनते हैं और दूसरे गच्छवालों को झूठे ठहरा करके निषेध करनेके लिये - राग, द्वेष, निन्दा, ईर्षा खण्डन मण्डन करके, आपसमें बड़ाही भारी विसंवादसे मिथ्यात्वको बढ़ानेवाला झगड़ा करते हैं इसलिये वर्तमान कालमें अपनी अपनी परम्परापर दृढ़ रहने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सूत्र भाषण है क्योंकि अपनी अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करने वाले सबी गच्छवाले श्री जिनाज्ञाके आराधक हो जायेंगे तो फिर अविसंवादी श्री जैनशासनकी मर्यादा कैसे रहेगा इसलिये वर्तमान कालमें अपने अपने गच्छपरम्पराकी बातोंका पक्षपात न रखते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४९ ] हुवे श्रीजिनाजा विरुद्ध पञ्चाङ्गीके प्रमाण रहित कल्पित बातोंको छोड़ करके श्रीजिनाना मुजब पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वक सत्यबातोंको ग्रहण करके अपनी आत्माका कल्याण करनेके कार्यों में उद्यम करना चाहिये जिससे आत्मकल्याण होगा नतु तत्वातत्वका विचारशून्य अन्धपरम्परामें-जैसे कि, ८० दिने पर्युषणा करना १, फिर मायात्तिसे अधिक मासका निषेध भी करना २, तथा श्री वीरप्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करना ३, और सामायिक करते पहिलेही हरियावही करना ४, और आंबीलमें अनेक द्रव्य भक्षण करने कराने ५, इत्यादि अनेक बातें शास्त्रों के प्रमाण बिना गहरीह प्रवाहकी तरह मात्माधियोंको त्यागने योग्य गम कदाग्रहकी द्रव्य परम्परा प्रचलित है नतु शास्त्रों प्रमाणानुसार भावपरम्परा पयोंकि भीतीर्थकर गणपरादि महाराजोंकी मानानुसार पञ्चाङ्गीके अनेक शाखोंमें दिनोंकी गिनतीसें ५० दिने पर्युषणा कही है , और अधिकमासको भी खुलासा पूर्वक गिनतीमें लिया है २, तथा श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंको भी अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक कहे हैं ,और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण करना कहा है, और आंबीलमें भी दो द्रव्योंका भक्षण करना कहा है , सोही अपरोक्त बातें शास्त्रानुसार भावपरम्परा में होनेसे भात्मा. र्थियोंको ग्रहण करने योग्य है इन अपरकी बातोंका निर्णय भाठोंही महाशयोंके उत्सूत्र भावणके लेखोंकी समीक्षा सहित इस प्रन्यको संपूर्ण पढ़नेवाले निष्पक्षपाती तत्व. पाही सन पुरुषोंकोस नाइनोजावेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४२ ] देखिये सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने शास्त्रविशारदकी पदवीको अङ्गीकार करी है तथापि पर्यषणा विचारके लेखकी आदिमेंही श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ने सम्बन्धी और अपनी २ परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकार्य कहने सम्बन्धी दो उत्सूत्रभाषण प्रथमही बालजीवोंको मिथ्यात्व में फँसानेवाले लिख दिये और पूर्वापरका कुछ भी विचार विवेक बुद्धिसें हृदय में नही किया इसलिये शास्त्रविशारद पदवीको भी लजाया - यह भी एक अलौकिक आश्चर्य्यकारक विद्वत्ताका नमूना है, खैर अब पर्युषणा विचारके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूं पर्युषणा विचारका प्रथम पृष्ठके मध्य में लिखा है कि( पक्षपाती जन परस्पर निन्दादि अकृत्यों में प्रवर्तमान होकर सत्यधर्मको अवहेलना करते हैं ) इस लेखपर श्री मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीनें अपने कृत्य मुजब तथा अपने अन्तरगुण युक्त ही ऊपरका लेख में. सत्यही दर्शाया है क्योंकि खास आपही अपने पक्षकी कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्यबातोंको निषेध करके सत्यवातोंकी तथा सत्यबातों को मानने वालोंकी निन्दा करते हुवे कुयुक्तियों से बालजीवों को मिध्यात्वके भ्रम में गेरनेके लियेही पर्युषणा विचारके लेखमें उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अविसंवादी श्रीजैनशासन में विसंवादका झगड़ा बढ़ानेसे श्रीजैनशासनरूपी सत्यधर्म की अवहेलना करनेमें कुछ कम नही किया है सो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४३ ] तो पर्युषणाविचारके लेखकी मेरी लिखी हुई सब समी. क्षाको पढ़नेवाले सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ;___और आगे फिरभी सातवें महाशपजीने पर्युषणा विचारके प्रथम पृष्ठकी पंक्ति १५वीं से पंक्ति८ वीं तक लिखा है कि (क्षयोपशमिक मतिज्ञानवान् और श्रुतज्ञानवान् पुरुष वे युक्ति प्रयुक्ति द्वारा अपने अपने मन्तव्यके स्थापन करने के लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुए मालूम पड़ते हैं ) सातवें महाशयगीका यह लिखना उपयोगशून्य ताके कारणसे है क्योंकि क्षयोपशमिक मतिज्ञानवान् और श्रुतज्ञानवान् पुरुष वे युक्तिप्रयुक्ति द्वारा अपने अपने मन्तव्य को स्थापन करनेके लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले सातवें महाशयजी ठहराते है तो क्या वर्तमान कालमें साधु और श्रावक श्रीजिनाज्ञाकी सत्यबातरूपी अपना मन्तव्य स्थापन करनेके लिये और श्रीजैनशासनके निन्दक ढूंढिये और तेरहा पन्थी लोगोंकों तथा अन्यमति. योंको भी समझानेके लिये युक्ति प्रयुक्ति करनेवाले सबीही अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले ठहर जायेंगे सो कदापि नहीं इसलिये सातवें महाशयजीका ऊपरका लिखना उत्सूत्र भाषणरूप भूलका भरा हुवा है क्योंकि जो जो कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये जानते हुवे भी कुयुक्तियों करके बालजीवोंको मिथ्यात्वमें गेरेंगे सो अभि. निवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले ठहरेंगे किन्तु सब नही ठहर सकते हैं परन्तु यह बात तो सत्य है कि 'जैसा खावे अब-तैसा होवे मन' इस कहावतानुसार अपने पक्षकी कल्पित बातें जमानेके लिये खास आप अनेक बातों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४४ ] मिथ्यात्व सेवन करनेवाले हैं सो आगे अभिनिवेशिक लिखने में आवेगा ; और पर्युषणा विचारके प्रथम पृष्ठको १९ वीं पंक्तिसें दूसरे पृष्ठकी पंक्ति दूसरी तक लिखा है कि ( सिद्धान्तका रहस्य ज्ञात होने पर भी एकांशको आगे करके असत्य पक्षका स्थापन और सत्य पक्षका निरादर करनेके लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करते दिखाई पड़ते हैं ) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीनें अपने कृत्य मुजबही जैसा अपना ही उपरके लेखमें लिख दिखया है इसका खुलासा मेरा आगेका लेख पढ़नेसें पाठकवर्ग स्वयं विचार कर लेवेंगे वर्ताव था वैसा - और पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठ को पंक्ति इसे ६ तक लिखा कि ( तत्र वार्षिकंपर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां कालि कसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति- अर्थात् भाद्रपद खुदी पञ्चमीका साम्वत्सरिक पर्व था पर युगप्रधान कालिकाचार्य्यके समय से चतुर्थी में वह पर्व होता है) इस लेख पर भी मेरेको इतना ही कहना है कि सातवें महाशयजीनें उपर के लेखसें वर्त्तमान कालमें दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करनेके लिये परिश्रम किया सो भी उत्सूत्र भाषण है क्योंकि आषाढ़ चौमासीसे पचास दिने पर्युषणा करनेकी श्रीजेमशास्त्रों में मर्यादा पूर्वक अनेक जगह व्याख्या है इसलिये दो श्रावण होनेसें ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्यु - षणा करना शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक है तथापि मासवृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करते हैं सो मिथ्या हठवादसैं उत्सूत्र भाषण करते हैं क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४५ ] मासद्धिके अभावसे पचास दिने भाद्रपद में पर्युषणा कही है नतु मासवृद्धि दो श्रावण होते भी। .. ओर आगे फिर भी पर्युषणा विवारके दूसरे पृष्ठकी ७ वी पंक्ति में १८॥ वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( वासाणं सवीसइराइ मासे वइक्वते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं इत्यादि समवायाङ्गसूत्रके पाठका पूर्वभाग 'सवीसइ राइमासे वह कंते' पकड़कर उत्तर पाठकी क्या गति होगी इसका विचार न रख मूलमन्त्रको अलग छोड़कर दूसरे श्रावण के सुदीमें पर्युषणापर्वके पाँचकृत्य 'संवत्सरप्रतिक्रान्ति लञ्चनचाष्टमं तपः। सर्वार्हद्भक्तिपूजा च सङ्घस्य क्षामणं मिथः ॥ १॥ अर्थात् १ सांवत्सरिकप्रतिक्रमण, २ केशलुच्चन, ३ अष्टमतपः, ४ सर्वमन्दिरमें चैत्यवन्दन पूजादि, ५ चतुर्विध सङ्घके साथ क्षामणा करते हैं और भक्तों को कराते हैं )। ___सातवें महाशय जीने ऊपरके लेखमें दूसरे श्रावण शुदी में पांचकृत्यों सहित पर्युषणा करनेवालोंको श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका उत्तर भागको छोड़ करके पूर्वभागको पकड़ने वाले ठहराये है सो अज्ञातपनेसे मिथ्या है क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ मासवृद्धिके अभावसे श्रीजैनपञ्चाङ्गा. नुसार चार मासके १२० दिनका वर्षाकालमें चन्द्रसंवत्सरसम्बन्धी प्राचीनकालाश्रयी है और वर्तमानकालमें श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठानुसार तथा उन्हीकी अनेक व्याख्यायोंके अनुसार आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने में आती हैं इसलिये श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका उत्तरभागको छोड़कर पूर्वभागको पकड़ने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wojepureyque been MMM jeanserenepeque eseweupnseelps [ ३४६ ] और ( उत्तरपाठकी क्या गति होगी ) सातवें महाशयजीका यह लिखना भी विद्वत्ता के अजीर्णताका है क्योंकि श्रीसमवायाजी सूत्रका पाठ चार मामके वर्षाकाल सम्बन्धी होनेसें चार मासके वर्षाकालमें उसी मुजब वर्ताव होता है। सातवें महाशयजी श्रीगणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामी परन्तु जी कृत श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका तथा श्री अभयदेव सूरिजी कृत तद्वृत्तिके पाठका अभिप्रायः जाने बिना सूत्र - कार तथा वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थमें दो श्रावणादि होनेसे पाँच मासके १५० दिनका वर्षाकाल में उमी पाठको आगे करके बालजीवोंको मिथ्यात्व के भ्रममें गेरते हुवे उत्सूत्र भाषणरूप कदाग्रह जमाते हैं सो क्या गति होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने । देखिये बड़ेही आश्चर्य्यकी बात कि - अपना कदाग्रहकी उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित बातको जमानेके लिये ( उत्तरपाठकी क्या गति होगी ) ऐसा तुच्छ शब्द लिखके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठ पर आक्षेप करते कुछ लज्जा भी नही पाते हैं यह भी एक कलयुगी विद्वत्ताका नमूना है । और (मूलमन्त्रको अलग छोड़कर) यह लिखना भी 'चोर डंडे-कोटवालको' इस न्यायानुसार खास मातवें महाशयजी आप अनेक बातों में मूलमन्त्ररूप अनेक शास्त्रों के मूलपाठों को अलग छोड़ते हैं फिर दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाते हैं सो उचित नहीं है क्योंकि दूसरे श्रावण में पर्युषणा करनेवाले श्रीकल्पसूत्रका मूलमन्त्ररूपी पाठके अनुसारही करते हैं। और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ चार मासके वर्षाकालसम्बन्धी होनेसें उसी मुजबही वर्त्तते हैं इसलिये दूसरे Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४१ ] श्रावण में पर्युषणा करने वालोंको मूलमन्त्रको अलग छोड़ने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्या है और सातवें महाशयजी अनेक बातोंमें मूलमन्त्ररूपी अनेक शास्त्रों के मूलपाठोंको जानते हुवे भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के अधिकारी बन करके अलग छोड़ते हैं सोही दिखाता हूं ;-- १ प्रथम -- - हर वर्षे गांम गांममें वंचाता हुवा सुप्रसिद्ध श्री कल्पसूत्र में पर्युषणा सम्बन्धी मूलमन्त्ररूपी विस्तारसें पाठ है उसीके अनुसार इस वर्तमान काल में श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी प्राणियों को पर्युषणा करनी चाहिये तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिध्यात्वको सेवन करते हुवे ( श्रीकल्पसूत्रका मूलमन्त्ररूपी पाठ हसीही ग्रन्थके पृष्ठ ४ । ५ में छप गया है ) उसीको जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और श्रीकल्पसूत्र के पाठानुसार दूसरे श्रावमें पर्युषणा करने वालोंको झूठे ठहराकर मिथ्या 'दूषण लगाते हुवे निषेध करते हैं इसलिये शास्त्रानुसार वर्त्तने वालों की वृथा निन्दा करके श्रीजिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना । ( तिरस्कार ) करने वाले काशी निवासी सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी है । २ दूसरा - श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अनन्त काल हुवे अधिकमासको गिनती में खुलासा पूर्वक प्रमाण किया है तथा आगे करेंगे और सूत्र, निर्युक्ति, भाव्य, चूर्णि, वृत्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में अधिक मासको गिनती में लेने सम्बन्धी विस्तार पूर्वक पाठ है सो कितनेही तो इसीही ग्रन्थके पृष्ठ २१ से ६५ तक छप गये हैं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४८ ] और भी अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने सम्बन्धी अनेक शास्त्रों के प्रमाण आगे भी लिखने में आवेंगे उसीके अमुसार और कालानुसार युक्तिपूर्वक श्रीजिनाज्ञाके आराधन करने वाले आत्मार्थियोंको अधिकमासकी गिनती निश्चय करके प्रमाण करनी चाहिये तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करते हुवे श्री. अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उत्थापन करके पञ्चाङ्गीके मूलमन्त्ररूपी प्रत्यक्ष पाठोंको जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणों सहित कालानुसार और सत्य युक्तिपूर्वक अधिकमासकी गिमती प्रमाण करते हैं जिन्होंको भूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते है इसलिये शास्त्रानुसार अधिक मासको प्रमाण करने वालोंको वृथाही निन्दा करके श्रीजिनाजारपी सत्यधर्मकी अवहेलना करनेवाले भी सातवें महाशयजी है। ३ तीसरा-प्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने (श्री आचाराङ्गजी सूत्रकी चूलिकाके मूलपाठमें तथा श्रीस्थानाङ्ग जी सूत्रके पांचवें ठाणेके मूलपाठमें और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठ वगैरह) पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके मूलमन्त्ररूपी पाठोंमें घरम तीर्थङ्कर श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को खुलासापूर्वक कहे हैं (इसका विशेष निर्णय शालोके पाठों सहित आगे लिखने में आवेगा) इसलिये श्रीनिमाज्ञाके आराधक पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंकी श्रद्धावाले आत्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि सातवें महाशयजो अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे ऊपरोक्तशास्त्रों के पाठोंकी मूलमन्त्ररूपी ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uoojepueuquebedeun MMM leins 'eigun-iepueuques uEMseureupnseeius [ ३४९ ] जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और पञ्चाङ्गीके ऊपरीकादि अनेक शास्त्रों के अनुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणको को मानने वालोंको भूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये भी शास्त्रानुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंको माननेवालोंकी वृथाही निन्दा करके श्री जिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजी है। ४ चौथा-श्रीआवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि और सहद्दत्ति वगैरह पञ्चांगीके अनेक शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे हरियावहीका प्रतिक्रमण खुलासापूर्वक कहा है सोही श्रीजिनाजाके आराधक मा. स्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि सात महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे सपा रोक्त शास्त्रों के पाठोंको मूलमन्त्ररूपी जानते हुवे भी अलग छोड़ करके उसीके विरुद्ध बालजीवोंको कराते हैं-देखिये षड़ावश्यक करने के लिये मूलमन्त्ररूपी श्रीआवश्यकजी है उसीकी चूर्णि और यहवृत्तिके अनुसार उभयकाल (सांम और सवेर दोन वख्त ) षड़ावश्यकरूपी प्रतिक्रमण करनेका मंजूर करते हैं तथापि उसी शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे हरियावही करना कहा है उसीको मंजूर नही करते हैं जिन्होंको मूलमन्त्र रूपी श्रीआवश्यकादि पञ्चाङ्गीके शाखोंकी श्रद्धाधाडे श्री. जिनाजाके आराधक आत्मार्थी कैसे कहे जावे और उन्होंने षडाश्यवक भी कैसे सार्थक होगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और विशेष आश्चर्य्यकी बात तो यह Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५० ] है कि-खास सातवें महाशयजी केही परमपूज्य श्रीतपगच्छके ही प्रभाविक श्रीदेवेन्द्रमूरिजीने श्रीश्राद्धदिनकृत्य सूत्रकी वृत्तिमें, श्रीकुलमण्डनसूरिजीने श्रीविचारामृतसंग्रहनामा ग्रन्थमें, श्रीरत्नशेखरसूरिजीने श्रीवन्दीता मत्रकी वृत्तिमें, और श्री हीरविजय मरिजीके सन्तानीये श्रीमानविजयजीने तथा श्रीयशोविजयजीने श्रीधर्मसंग्रहकी वृत्तिमें खुलासा पूर्वक सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करना कहा है इन महाराजांको सातवें महाशयजी शुद्धपरूपक आत्मार्थी श्री जिनाज्ञाके आराधक बुद्धि निधान कहते हैं जिसमें भी विशेष करके श्रीयशोविजयजी के नाम में श्रीकाशी ( वनारसी ) नगरी में पाठशाला स्थापन करी है तथापि उन महाराजोंके कहने मुजब सामायिकाधि. कारे प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण नही करते हैं फिर उन महाराजांको पूज्य भी कहते हैं यह तो प्रत्यक्ष उन महाराजोंके कहने पर तथा पञ्चाङ्कीके शास्त्रों पर श्रद्धा रहितका नमूना है। यदि सातवें महाशयजी अपने गच्छके प्रभाविक पुरुषोंके कहने मुजब तथा श्रीयशोविजयजीके नामसें पाठशाला स्थापन करी है उन महाराज के कहने मुजब वर्त्तने. वाले,तथा उन महाराजांके पूर्णभक्त, और पञ्चाङ्गीके शास्त्रों पर श्रद्धा रखने वाले होवेंगे,तब तो सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण करके अपने भक्तोंसें जरूरही करावेंगे तो सातवें महाशयजीको आत्मार्थी समझने में आवेंगा । सामा. यिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते २१ शास्त्रों में लिखी है परन्तु प्रथम इरियावही किसी भी शास्त्र में नही लिखी है इसका सुलासा पूर्वक निर्णय इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ३१० से ३२९ तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५१ ] उपर ही छपगया है उसीको पढ़ करके भी सातवें महाशय जी अपने कदाग्रहके वस होकरके शास्त्रानुसार सत्यबात को प्रमाण नहीं करेंगे तो अपने गच्छके प्रभाविक पुरुषों के वाक्य पर तथा श्रीयशोविजयजीके नामसे पाठशाला स्थापन करी है उन महाराजके वाक्य पर और पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंके पाठों पर श्रद्धा रखनेवाले आत्मार्थी है ऐसा कोई भी विवेकी तत्त्वज्ञ पाठकवर्ग नही मान सकेगा जिसके नामसें पाठशाला स्थापन करी है उसी महाराजके वाक्य मुजब प्रमाण नही करना यह तो विशेष लज्जाका कारण है इत्यादि अनेक बातों में सातवें महाशयजी अभिनिवे. शिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे मूलमन्त्ररूपी पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंके पाठोंको जानते हुवे भी अलग छोड़ करके शास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी मतिकल्पनासें कुयुक्तियों का सहाराले करके उत्भूत्र भाषणमें वर्तते हैं और पञ्चाङ्गी के प्रमाण सहित शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक ऊपरोक्ता दि अनेक बातोंको प्रमाण करने वालोंको झूठे ठहरा करके मिथ्या दूषण लगा कर ऊपरोक्त बातोंको निषेध करते हैं इसलिये श्रीजिनेश्वरभगवान्की आज्ञानुसार वर्त्तने वालेकी वृथा निन्दा करके शास्त्रानुसार ऊपरोक्तादि बातों के विरुद्ध अविसंवादी श्रीजैनशासनमें विसंवादरूपी मिथ्यात्वका झगड़ा बढ़ानेसें अविसंवादी श्री जैनशासनरूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजीही है। और पञ्चाङ्गीके शास्त्रों के पाठोंकों प्रत्यक्ष देखते हुवे भी प्रमाण नहीं करते है और अपना कदाग्रहकी कल्पित कुयुक्तियों को आगे करके दृष्टिरागी झूठे पक्षग्राही बालजीवोंकों मिथ्यात्वमें गेरते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५२ ] इसलिये सत्यपक्षका निरादर करके असत्य पक्षका स्थापन करनेवाले भी सातवें महाशयजी है इस बातको निष्पक्ष पाती आत्मार्थी विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;___ और श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठानुसार तथा उन्हीकी अनेक व्याख्यानुसार आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालों पर द्वेष बुद्धि करके आक्षेपरूप सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठकी १८॥ वीं पंक्ति में २० वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( वस्तुतः तो भगवान्की आज्ञाके आराधक भव्यजीवों पर कल्पित दोषोंका आरोप करके अपने भक्तोको भ्रमजाल में फंसाकर संसार बढ़ाते हैं) __सातवें महाशयजीका इस लेखको देखकर मेरेको बड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है कि जैसे दुढिये तेरहा पन्थी लोग अपने कदाग्रहकी कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञानुसार वर्त्तने वाले पुरुषोंकी झूठी निन्दा करके संसार वृद्धिका कारण करते हैं तैसेही सातवें महाशयजी भी इतने विद्वान् कहलाते हुवे भी अपने कदाग्रहकी कल्पित बातको स्थापन करने के लिये श्रीजिनेश्वर भगवान्को आज्ञानुसार वर्तनेवाले पुरुषोंकी जूठी निन्दा करके संसार वृद्धिका कारण करते हैं क्योंकि-श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजांकी आज्ञानुसार सत्र, नियुक्ति, भाष्य,चूर्णि, वत्ति और प्रकरणादि अनेक शास्त्र में प्रगटपने आषाढ़ चौमासीसे दिनांकी गिनतीके हिसाबसे ५० दिने निश्चय करके श्रीपर्युषणापर्वका आराधन करमा कहा है उसीके अनुसार श्रीकल्पमत्रके मूलपाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ़ [ ३५३ ] वर्त्त - सुजन तथा उन्हींकी अनेक व्याख्यायोंके पाठ मुजब मान कालमें दो श्रावण होनेसें दूसरे श्रावणमें चौमासीखें ५० दिने श्रीपर्युषणापर्वका आराधन आत्मार्थी प्राणी करते हैं और दूसरे भव्यजीवोंकों कराते हैं जिन्होंको तो मिथ्या दूषण लगा करके संसार बढ़ाने वाले ठहराना और आप श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञा विरुद्ध तथा पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़ करके अपनी मतिकल्पनायें यावत् ८० दिने पर्युषणा करते हैं और बालजीवोंकों भी कुयुक्तियोंसे भ्रमा करके कराते हैं इसलिये श्रीजिनाज्ञाकी सत्यबातका निषेध करके भी शुद्ध परूपक बनते हुवे संसार वृद्धिका भय नही करना सो मिध्यात्वीके सिवाय और कौन होगा । और आगे फिर भी सातवें महाशयजीनें पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठके अन्त २९ । २२ वीं पंक्क्रिमें लिखा है कि ( उन जीवों पर भावदया लाकर सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टिसे पर्युषणा विचार लिखा जाता है) इस लेखसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों पर और करानेवालों पर भावदया लाकर सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टिसे पर्युषणा विचार लिखनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो निःकेवल बालजीवोंको कदाग्रह में फँसाकर के मिथ्यात्ववढ़ाने के लिये संसार वृद्धिके निमित्तभूत उत्सूत्र भाषण करते क्योंकि प्रथमतो दूसरे श्रावण में पर्युषणा करने वाले पचाङ्गी के अनेक शास्त्रानुसार करते हैं जिसके सम्बन्धमें इसीही - पाठार्थ ग्रन्थकी आदि २१ पृष्ठ तक अनेक शास्त्रों के प्रमाणसहित छप गये हैं इसलिये शास्त्रानुसार वर्तने वालोंको ४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५४ ] झूठे ठहरा करके भावदया दिखाना सो तो प्रत्यक्ष महा मिथ्या है। और भावदयाका स्वरूप जाने बिना सातवें महाशयजी भावदया वाले बनते हैं सो भी तौतेकी तरह तात्पर्य समझे बिना रामराम पुकारने जैसा है क्योंकि सातवें महाशयजी भावदयाका स्वरूपही नही जानते हैं इसलिये अबमें पाठकवर्गको भावदयाका स्वरूप संक्षिप्तसे दिखाता हूं श्रीजैनशास्त्रोंमें भावदया उसीको कहते हैं कि-प्रथमतो चतुर्गतिरूप संसारमें अनन्त कालसे नरकादिमें परिभ्रमणको वेदना वगैरह स्वरूपको जान करके संसारकी निवृत्तिके लिये श्रीजिनेन्द्र भगवानोंका कहा हुवा आत्महितकारी धर्मको श्रद्धापूर्वक अङ्गीकार करके श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजबही धर्मकी परूपना करे और मोक्षकी इच्छासे उसी मुजबही प्रवते तथा दूसरोंको प्रवर्त्तावे और सब संसारी प्राणियों को भी ऐसेही होनेकी इच्छा करे सोही उत्तम पुरुष भावंदया कर सकता है, परन्तु सातवें महा. शयजी तो उत्सूत्र भाषणोंसें संसार वृद्धिका भय नहीं करने वाले दिखते हैं क्योंकि श्रीजिनेन्द्र भगवानोंने तो अधिक मासको गिनतीमें लेने का कहा है तथापि सातवें महाशयजी अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करनेकी श्रद्धा रहित होनेसे उत्सूत्रभाषणरूप अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करते हैं इसलिये सातवें महाशयजी काशीनिवासी श्रीधर्मविजयजी श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजब वर्तने वाले नहीं है किन्तु श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके विरुद्ध अपनी मतिकल्पनासें कुयुक्तियों करके बालजीवोंको मिथ्यात्व www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५५ ] भ्रममें फंसाने वाले होनेसे उन्होंमें भावदयाका तो सम्भवही मही हो सकता है किन्तु संसार वृद्धिकी हेतुभूत भावहिंसाका कारण तो प्रत्यक्ष दिखता है। .. और सातवें महाशयजीने सिद्धान्तानुसार परोपकार दूष्टिसें पर्युषणा विचार नहीं लिखा है किन्तु पञ्चाङ्गीके सिद्धान्तोंके विरुद्ध बालजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी शुद्ध अवारूप सम्यक्त्वरत्नसें भ्रष्ट करनेको उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अपने कदाग्रहकी कल्पित बात जमानेके आग्रह सें पर्युषणा विचारके लेखमें पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यकों समझे बिना अज्ञताके कारणसे कुतकोंकाही प्रकाश किया है सो तो मेरा सब लेख पढ़नेसे निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ;-- . ____ और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी आदिसे 9 वी पंक्ति तक लिखा है कि ( उत्तम रीतिसे उपदेश करते हुए यदि किसीको राग द्वेषकी प्रणति हो तो लेखक दोषका भागी नही है क्योंकि उत्तम रीतिसें दवा करने पर भी यदि रोगीके रोगकी शान्ति महो और सत्य हो जाय तो वैद्यके सिर हत्याका पाप नहीं है परिणाममें बन्ध, क्रियासे कर्म, उपयोग, धर्म, इस न्यायानुसार लेखकका आशय शुभ है तो फल शुभ है) • अपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीकी बालजीवों निध्यात्वमें फंसाने वाली मायावृत्तिकी चातुराईका नमूना तो देखो-भाप अपने कदाग्रह पक्षपातसें नीजनशासनकी उमतिके काम्पों में विभकारक संपको नहरक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५६ 1 इचाही आपस में झगड़ा बढ़ाने के लिये 'पर्युषणा विचारनामा' पुस्तक प्रगट कराई जिसमें दूसरे श्रावण में पर्युषणा करने वालों पर खूबही आक्षेपरूप अनुचित शब्द लिख करके भी आप निदूषण बनना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकते है क्योंकि पर्युषणा विचारके लेख में सत्यबातको मानने वालोंकी झूठी निन्दा करके वृथाही अपनी मतिकल्पना से मिथ्या दूषण लगाये है और उत्सूत्र भाषणोंसे बालजीवों को भी मिथ्यात्व में फँसाये हैं इसलिये ऊपरकी इन बातों के दोषाधिकारी तो सातवें महाशयजी प्रत्यक्षही दिखते हैं यदि सातवें महाशयजीको ऊपरकी बातोंके दूषणोंसे संसार वृद्धिका भय होवे और आत्मकल्याणकी इच्छा होवे तो अबसे भी झगड़ेके काय्यौमें न फँस के इस ग्रन्थको संपूर्ण पढ़ करके सत्यबातको ग्रहण करें और पर्युषणा विचारके लेखको अपनी भूलोंकी क्षमापूर्वक मिथ्या दुष्कृत सहित आलोचना लेवें तो सातवें महाशयजीको शुभ इरादे उत्तम रीतिका उपदेश करनेवाले तथा उत्सूत्र भाषणका भय रखनेवाले समझने में आवेंगे इतने पर भी सातवें महाशयजी पर्युषणा विचारके लेखेोंको अपने दिल में सत्य समते होवें तो श्रीकाशी में मध्यस्थ विद्वानोंके समक्ष ( पर्युषणा विचारके लेखोंको ) शास्त्रोंके प्रमाण सहित युक्तिपूर्वक सत्य करके दिखावे अन्यथा कदाग्रहसे सत्यartist छोड़ करके कल्पित वातांको स्थापन करनेमें तो संसार वृद्धिके सिवाय और क्या लाभ होगा सो सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेवें ; और उत्तम रीति से दवा करनेके भरोसे विश्वासघात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५७ ] करके विष मिश्रित दवा देकर रोगीको मृत्युके सरण प्राप्त करने वाला वैद्य नाम धारक पुरुष महापापी होता है तसेही कर्मरूपी रोगसे पीड़ित व्यजीवोंको उत्तम रीतिका उपदेश देनेके भरोसें विश्वासघातसे उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित कुयुक्तियोंका विष मिश्रित उपदेश करके भव्य. जीवोंको श्रीजिनाजारूप सम्यक्त्वरत्न जीवतव्यसें भ्रष्ट करके मिथ्यात्वरूप मरणके सरण प्राप्त करनेवाला वेषधारी साधु नाम धारक पुरुष महापापी होता है तैसेही सातवेंमहाशयजीने भी पर्युषणा विचारके लेखमें अध्यजीवोंको उत्तम रीतिका उपदेश करनेके बहाने उत्सूत्र भाषणरूप कुतकोंका विष मिश्रित उपदेश करके भव्यजीवोंको मिथ्यात्वरुप मत्युके सरण प्राप्त किये है इसलिये भव्य जीवोंको मिथ्यात्वरूप पत्युके सरण प्राप्त कर. के दोषाधिकारी सातवे महाशयजी है यदि सातवें महा. शपजीको अपरोक्त दूषणके फल विपाकका भय होवे तो अपने कत्यकी आलोचना लेवेंगे ;__ और अपने कदाग्रहकी कल्पित बातको जमानेके लिये उत्सूत्र भाषणको और कुयुक्तियोंकी बातें लिखनेवालेका परिणाम भी अच्छा नही होता है तथा क्रिया भी अच्छी नहीं होती है और उपयोग भी अच्छा नही होता है इसलिये पर्युषणा विचार लेखक अपनेको अच्छा इस फलको चाहना करते सो कदापि नही हो सकेगा किन्तु पर्युषणा विचारक लेखमें शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणोंकी तपा युक्तियोंकी और शास्त्रानुसार वर्तने वालोंकी भूठी निन्दा करके मिया दूषण उगानेकी कल्पना भरी होने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५८ ] संसारवृद्धि के फल तो मिलनेका दिखता है इस बातको. श्रीजैनशास्त्रोंके तत्त्वज्ञ पुरुष अच्छी तरहसे विचार लेवें ; और भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठको ८ । । १० पंक्तियोंमें लिखा है कि ( अधिक मासको लेखा में गिनकर पर्युषण पर्व करनेवाले महानुभावों को नीचे लिखे हुए दोषों पर पक्षपात रहित विचार करनेकी सूचना दी जाती है ) । इस लेख को देखकर मेरेको वड़ेही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको बिना समझे ऊपरके लेखमें इन्होंने श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचाय्योंकी और खास अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योंकी आशातनाका कारण रूप संसार वृद्धिके हेतुभूत खूबही अक्षतायें अनुचित डिला है क्योंकि अनन्ते काल हुवे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाषाय्योंने अधिकमासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करते आये हैं तथा वर्त्तमान इस पञ्चम कालमें भी. श्रीजिनाज्ञाके आराधक सबीही आत्मार्थी जैनाचाय्याने अधिक मासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करी है और आगे भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराज जो जो होवेंगे सो सबीही अधिक मासको गिनती में ले करही पर्युषणा करेंगे और अनेक आस्त्रोंमें अधिकनासको गिनती में लेकरही पर्युषणा करनी लिखी है इसलिये अधिक मासको गिनती में लेकरके जो पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाशाके आराधक है और अधिक मासको गिनती में छोड़ करके पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाचा के विराधक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५९ ] उत्सूत्र भाषण करने वाले हैं तैसेही सातवें महाशय जी आप अधिक मासको गिनतीमें नही लेते हुवे अधिक मासको गिनतीमें ले करके पर्युषणा करने वालोंको मिथ्या दूषण लगाके उत्सूत्रभाषणसे ऊपरोक्त महाराजांकी आशातना करके संसार सुद्धिका कुछ भी भय नही करते हैं। हा अति खेदः ? ___और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी ११ वीं पंक्तिसे १९ वी पंक्ति तक लिखा है (प्रथम दोष-आषाढ़ चौमासी बाद पचास दिनके भीतर पर्युषणापर्व करे इस नियमकी रक्षा करते हुए तत्तुल्य दूसरे नियमका सर्वथा भङ्ग होता है क्योंकि पचासवें दिवस संवत्सरी और उसके पीछे सत्तरवें दिन चौमासी प्रतिक्रमण करके पीछे मुनिराजोंको विहार करना चाहिये यदि दूसरे श्रावणमें सांवत्सरिक कृत्य करोंगे तो सौ दिन बाकी रहेंगे तब सत्तर दिनका नियम कैसे पालन किया जायगा इसका विचार करो ) - ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि ऊपरके लेखमें दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने वालों को सातवें महाशयजीने प्रथम दोष लगाया सो निःकेवल अज्ञताके कारण से मिथ्या लिखके उत्सूत्र भाषण किया है क्योंकि श्रीनिशीथभाष्य में १, तथा चूर्णिमें २, श्रीवृहकल्पभाष्यमें ३, तथा चूर्णिमें ४, और वृत्तिमें ५, श्रीसमवायाङ्गजी मत्रमें ६, तथा कृत्तिमै ७, श्रीस्थानाङ्गजीकी वृत्तिमें ८, श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्तिकी वृत्तिमें ९, श्रीकल्पसूत्रकी पाँच व्याख्यायोंमें १४ श्रीयुषणा कल्पचूर्णिमें १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीगन्धाचारपयन्नाकी वृत्तिमें १६ इत्यादि शास्त्रों में नासवृद्धिके अभावसे चन्द्रसम्वत्सरमें चारमासके १२० दिन का वर्षाकालमें ५० दिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक 90 दिन रहते है जिसके सम्बन्धमें एसीही ग्रन्यके पृष्ठ ९४ तथा और १२० । १२९ वगैरहमें कितनीही जगह पाठ भी छप गये हैं और मासवृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित संवत्सरमें जैनपञ्चाङ्गानुसार आषाढ़ चौमासीसे वीश दिने पर्युषणा करनेमें आती थी तब भी पर्युषखा के पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते थे इसका भी विशेष खुलासा इसीही ग्रन्यके पृष्ठ १०७ से १२३ तक छप गया है और वर्तमान कालमें जैनपञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासांकी रद्धि हो तो भी ५० दिनेही पर्यु: षणा करनेकी मर्यादा है सो भी इसीही ग्रन्थकी आदिसे पष्ठ २७ तक और छठे महाशयजी श्रीवल्लभाविजयजीके लेस की समीक्षामें पृष्ठ २८६ से २९ तक बप गया है इसलिये वर्तमानकालमें दो श्रावणादि होनेसें पाँच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें ५० दिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते हैं सो भी शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक होनेसे कोई भी दूषण नही है इसका भी विशेष निर्णय इसीही ग्रन्यके पृष्ठ १२० सें १२९ तक और पष्ठ १७७ के अन्तसै १८५ तक छप गया है इसलिये दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों को पर्युषणा पिछाड़ी ७० दिन रखने सम्बन्धी और १०० दिन होनेसें दूषण लगाने गम्बन्धी सातवें महाशयजी लिखना अज्ञात सूचक और उत्सूत्र भाषण है। सो पाठकवर्ग विचारलेवेंगे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६९ ) और आगे फिर भी सातवे महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी २०वीं पंक्तिसें चौथे पृष्ठकी दूसरी पंक्ति तक लिखा है कि ( दूसरा दोष-भाद्रसुदीमें पर्युषणा पर्व कहा हुवा है तत्सम्बन्धी पाठ आगे कहेंगे अधिकमास मानने वाले प्रावण सुदीमें पर्युषणा करते हैं शाखानु कूल न होनेसें आनाभन दोष है ) इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जनपुरुषों मास पद्धिके अभावसें चन्द्रसंवत्सरमें भाद्रपद में पर्युषणा होनेका दोनुं चूर्णिकार महाराजोंने कहा है तथापि सातवें महाशयजीने वर्तमानकालमें मासवृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा स्थापन करनेके लिये आगे पीछेके सम्बन्ध वाले पाठोंको छोड़ करके दोनुं चूर्णिकार महाराजोंके विरुद्ध थोडासा अधूरा पाठ मायावृत्तिसे आगे लिखा जिसकी समीक्षा मैंसी आगेही कगा । परन्तु इस जगह तो दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों को सातवें महाशयजीने शास्त्र विरुद्ध ठहरा करके आशा भङ्गका दूसरा दूषण उगाया है सो शास्त्रोंके प्रमाणपूर्वक वर्तने वालोंको झूठे ठहरा करके मिथ्यादूषण लगाया है तथा उत्सूत्र भाषणसे सत्य बातका निषेध करके मिथ्यात्व बढ़ाया है और अपने विद्वत्ताकी हासी भी कराई है क्योंकि अधिकमासको गिनतीमें लेनेका श्रीजैनशास्त्रानुसार तथा कालानुसार लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब और युक्तिपूर्वक निश्चय करके स्वयं सिद्ध है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध नही हो सकती है इसका विशेष विस्तार छहों महाशयोंके लेखोंकी समीक्षामें अच्छी तरहसें छप गया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६२ ] और आषाढ़ चौमासीसे पचास दिने अवश्यही पर्युषणा पर्व करनेका सर्वत्र शास्त्रों में कहा है जिसका भी विशेष विस्तार इसीही ग्रन्थकी आदिसें लेकर ऊपर तकमें अनेक जगह छप गया है इसलिये वर्तमान काल में ५० दिनके हिसाब से दूसरे श्रावण में पर्युषणापर्व करना सो शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक सत्य होनेसें उसी मुजब वर्तनेवालोंको जो सातवें महाशयजीने दूषण लगाया हैं सो निःकेवल संसार वृद्धिके हेतुभूत उत्सूत्र भाषण किया है इस बातको निष्पक्षपाती पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे । और देखिये बड़ेही आश्चर्य की बात है कि सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं और हरवर्षे गांव गांवमें श्रीकल्पसूत्रका मूल पाठको तथा उन्हीं की वृत्तिको व्याख्यानमें वांचते हैं उसी में ५० दिने पर्युषणा करनेका लिखा है उसी मुजबही दूसरे श्रावणमें ५० दिने पर्युषणा करते हैं जिन्होंको अपनी मति कल्पनायें आज्ञाभङ्गका दूषण लगाना सो विवेकशून्य कदाग्रही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी और अपनी विद्वत्ताको हासी करानेवाले के सिवाय दूसरा कौन होगा सो भी पाठकवर्ग विचार लेवेंगे ; और आगे फिर भी सातवें महाशयजीनें पर्युषणा विचारके चौथे पृष्ठको तीसरी पंक्तिसे चौदह वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( अधिक मासके मानने वालोंको चौमासी क्षमापना के समय 'पंचरहं मासाणं दसरहं पक्खाणं पञ्चासुतरसयराइं दिआणमित्यादि' और सांवत्सरिक क्षमापना के समय 'तेरसयहं मासाणं छवीसरहं पक्खाणं' पाठकी कल्पना करनी पड़ेगी । यदि ऐसा करोगे तो कल्पित आचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेसे फलसे वञ्चित रहोगे, क्योंकि शास्त्र में तो 'चहुएहं मासाणं अद्वरहं पक्माणं' इत्यादि तथा 'बारसण्हं मासाणं चउवीसरह पक्खाणं' इत्यादि पाठ है इसके अतिरिक्त पाठ नहीं है उसके रहने पर यदि नई कल्पना करोगे तो कल्पनाकुशल, आज्ञाका पालन करनेवाला है या नहीं, यह पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवे महाशयजीके जपरका लेखको देखकर मेरेको बड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि सातवें महाशयजीके विद्वत्ताकी विवेक बुद्धि ( ऊपरका लेख लिखते समय ) किस जगह चली गई होगी सो मासवृद्धिके अभावकी बातको मासवद्धि होतेभी बाल जीवोंको लिख दिखाकरके अपनी बात जमानेके लिये दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाते हुवे उत्सूत्र भाषणसें संसार सुद्धिका भय हृदय में क्यों नहीं लाते हैं क्योंकि जिस जिस शास्त्रमें सांवत्सरिक क्षामणाधिकारे बारह मास, चौबीश पक्ष लिखे हैं सो तो निश्चय करके मासवृद्धिके अभावसे चन्द्र संवत्सर संबंधी है नतु मास वृद्धि होतेभी अभिवर्द्धित संवत्सर में क्योंकि मासरद्धि होनेसे तेरह मास और छबीश पक्ष व्यतीत होने पर भी बारह मास और चौवीश पक्षके क्षामणा करना ऐसा कोई भी शास्त्र में नहीं लिखा है। ___ और श्रीचन्द्रप्राप्ति सूत्र में १, तपा तवत्तिमें २, श्रीसूर्यप्राप्ति सूत्रमें ३, तथा तवृत्तिमें ४, प्रीसमवायाङ्गजी सूत्र ५, तथा तवृत्ति, ६, श्रीनिशीपचूर्णिमें ७, श्रीजंबूद्वीपप्राप्ति सूत्रमें , तथा तीनकी पांच पत्तियों में १३, श्रीप्रवचन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६४ ] सारोद्वार में १४, तथा तवृत्तिमें १५, श्रीज्योतिषकरगडपयनामें १६, तथा तवृत्तिमें १७, इत्यादि अनेक शास्त्रों में मास वृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित संवत्सरके १३ मास, २६ पक्ष सुलासा पूर्वक लिखे हैं और लौकिक पञ्चाङ्गमें भी अधिक मास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षका वर्ष लिखा जाता है और सब दुनिया भी धर्मकर्मके व्यवहार में अधिकमासके कारणसें तेरह मास छवीश पक्षको मान्य करती है उसी मुजबही सब जैनी लोग भी वर्तते हैं इसलिये अधिक मासके होनेसे तेरह मास, धीश पक्षका धर्म, पापको गिनतीमें लेकर सतनेही महिनोंके धर्मकायौंकी अनुमोदना और पाप कार्यों की आलोचना लेनी शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक है क्योंकि अधिक मास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षमें धर्म, और अधर्म, करके धर्मकायाकी गिनती नहीं करना और पापकायाकी आलोचना नहीं करना ऐसातो कदापि नहीं हो सकता है। ___और जब श्रीअनन्त तीर्थडर गणधरादि महाराजोंने अधिकमासको गिनतीमें प्रमाण किया है और अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह मास छवीश पक्षका कहा हैं तो फिर श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध अपनी मतिकल्पनासे बारह मास चौवीश पक्ष कहके एक मासके दो पक्षोंको छोड़ देना और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा अभिवर्द्धित संवत्सरके नामका खंडन करना बुद्धिमान कैसे करेंगे अपितु कदापि नहीं। और श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण किया है तथापि सातवे महाशयजी उत्सूत्र भाषक होकरके उसीका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६५ ] निषेध करनेके लिये कटिबद्ध तैयार है तो फिर तेरह मास छवीस पक्ष कहेंगे ऐसा तो संभव ही नहीं हो सकता है। जब अधिक मासको गिनतीमें लेनेको ही जिन्हको लज्जा आती है तो फिर तेरह मास छवीश पक्ष कहना तो विशेष उन्हको लज्जाकी बात होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है। ___ और सातवें महाशयजी शास्त्रोंके पाठ मंजूर करने वाले होवें तो फिर अधिक मासको श्रीअनंत तीर्थङ्कर गण. धरादि महाराजोंने प्रमाण किया है जिसका अधिकार इसी ही ग्रन्थके पृष्ठ ३२ से ४८ तक वगैरह कितनी ही जगह छप गया है और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते का उच्चारण किये पीछे इरियावही करनी वगैरह अनेक बातें शास्त्रों में विस्तारपूर्वक कही है जिसको तो प्रमाण न करते हुवे उलटा उत्थापन करते हैं फिर शास्त्रके पाठकी बात करमा सो कैसी विद्वत्ता कही जावे इस बातको पाठक. वर्ग भी विचार सकते हैं। शंका-अजी आप ऊपरमें अनेक शाखोंके प्रमाणोंसें और युक्तियों से तेरह मास छबीश पक्षकी गिनती करके उतनीही आलोचना लेकर उतनेही क्षामणे सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करनेका दिखाते हो परन्तु सांवत्सरिक प्रति क्रमणकी विधिमें ३ मास, २६ पक्षके, क्षामणे करके उतने ही भासोंकी मालोचना लेनी किसी शाबमें क्यों नहीं डिसी है। समाधान-भो देशानुप्रिय ! सांवत्सरिक प्रतिक्रमबकी विधि में १३ मास, २६ पक्ष के क्षामणे करके उतने ही मास पक्षोंकी आलोचमा लेनी किसी भी शाखा में नहीं लिखी है यह तेरा कहना अज्ञात सूचक है क्योंकि श्रीकाब. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यक पूर्णि में १ तथा वहत्ति में २, और लघुपत्ति में ३ श्रीप्रवचन सारेरद्वार में ४, तथा सहवृत्ति में ५, और लघुवृत्तिमें ६, श्रीधर्मरत्न प्रकरणको कृत्तिमें 9, श्रीअभयदेव सूरिजीकृत समाचारी ग्रन्थ में ८, श्रीजिनप्रभसूरिजीकृत विधि प्रपा समाचारी में ९, श्रीजिनपति सूरिजीकृत समाचारी में १०, श्रीसमाचारी शतकनामा ग्रन्थ में ११, श्रीषडावश्यक ग्रंथ में १२, श्रीतपगच्छ के श्रीजयचन्द्र सूरिजीकृत प्रतिक्रमण गर्भहेतुनामा ग्रंथ में १३, श्रीरत्नशेखरसूरिजीकृत श्रीश्राद्धविद्धि वृत्ति में १४, प्राचीन प्रतिक्रमण गर्भहेतुनामा ग्रंथमें १५, और श्रीपूर्वाचार्यों के बनाये समाचारियोंके चार ग्रंथोंमें १९, इत्यादि अनेक शास्त्रोंमें देवसी और राइ प्रतिक्रमणके अनंतर पाक्षिक प्रतिक्रमणके मुजबही चौमासी और सांवत्सरिक प्रति. क्रमण की विधि कही है और चौमासी सांवत्सरिक शब्दका नामांतर कहके चौमासी में २०, लोगस्स का कायोत्सर्ग तथा पांच साधुओंको क्षमानेकी और सांवत्सरिक में ४० लोगस्सका कायोत्सर्ग तथा ७ वा वगैरह साधुओंको क्षमाणेकी भिन्नता दिखाई है और क्षमाणा के अवसर में संवच्छर शब्द का ग्रहण करने में आता है। संवत्प्तर कहो । सांवत्सरी कहो। संवच्छरी कहो। बार्षिक कहो। सबका तात्पर्य एक है और संवत्सर शब्द यद्यपि-नक्षत्र संवत्सर १ । ऋतु संवत्सर २। सूर्य संवत्सर ३. चंद्र संवत्सर ४. और अभिवर्द्धित संवत्सर ५ इन पांच प्रकार के अर्थों में ग्रहण होता है परन्तु क्षामणा के अवसर में तो दो अर्थ ग्रहण करने में आते हैं जिसमें प्रथम मास वृद्धि के अभावसें चन्द्र संवत्सर के बारह मास और चौवीश पक्ष अनेक शास्त्रों में कहे हैं और दूसरा भास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६७ ) वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरके तेरह मास और छबीश पक्ष भी अनेक शास्त्रों में कहे हैं इसलिये सांवत्सरिक क्षामणेमें मास वृद्धिके अभावसे चंद्रसंवत्सर संबन्धी बारह मास चौबीस पक्ष कहने चाहिये और मास वृद्धि होनेसे अभि. वर्द्धित संवत्सर सम्बन्धी तेरह मास छबीश पक्ष कहने चाहिये और जिस शास्त्र में बारह मास चौबीश पक्ष लिखे होवें सो चन्द्रसंवत्सर सम्बन्धी समझने चाहिये। इतने पर भी मासवृद्धि होनेसे तेरह मास छबीश पक्ष व्यतीत होने पर भी बारह मास चौबीश पक्ष जो बोलते हैं सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनाका बर्ताव करके श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा अभिवर्द्धित संवत्सरके नामको खंडन करके उत्सूत्र भाषणसे संसार वृद्धिका कारण करते हुवे गुरुगम रहित श्रीजैनशास्त्रों के तात्पर्यको नहीं जाननेवाले हैं क्योंकि देखो सर्वत्र शास्त्रों में साधुके बिहारकी व्याख्याने नव कल्पि विहार साधुको करनेका कहा है सो मासद्धि के अभावसें होता है परन्तु शीतकालमें अथवा उष्णकालमें मासवृद्धि होनेसे अवश्य करके १० कल्पिविहार करनेका प्रत्यक्ष बनता हैं तथापि कोई हठवादी शीतकालमें अथवा उष्णकालमें मास वद्धि होतेभी नवकल्पि विहार कहनेवालेको माया मिथ्या का दूषण लगता है क्योंकि जैसे कार्तिक पीछे साधने वि. हार किया और मास कल्पके नियम मजब विचरता है उसी समय शीतकाल में अथवा उष्णकाल में अधिक मास होगया तो उस अधिक मास में अवश्य करके दूसरे गांव विहार करेगा परन्तु एकही गांव में दो मास तक कदापि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६८ नहीं ठहरेगा जब अधिक मास में विहार करके दूसरे गांव जावेगा तब उसीको दश कल्पि विहार हो जावेगा क्योंकि चारमास शीतकालके चारमास उष्ण कालके तथा एक अधिक मासका और एक वर्षाऋतुके चारमासका इस तरहसे अवश्य करके दसकल्पि विहार होता है तथापि नव कल्पि कहनेवाला तो प्रत्यक्ष माया सहित मिथ्याभाषण करनेवाला ठहरेगा सो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं और जैसे मास वृद्धि होनेसे दसकल्पि विहार करने में आता है तैसेही मा. सवृद्धि होनेसें तेरह मास छबीश पक्षोंकी गिनती करके उतनेही क्षामणे करने में आते हैं सो आत्मार्थी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधक सत्यग्राही भव्यजीव तो मंजूर करते हैं परन्तु उत्सूत्र भाषक कदाग्रही विद्वत्ता के अभिमानको धारण करनेवालोंकी तो बातही जुदी है। और अधिक मासकी गिनती श्रीतीर्थकर गणधरादि महा. राजोंकी कहीहुई है जिसको संसारगामी मिथ्यात्वी श्रीजि. मात्राका विराधकके सिवाय कौन निषेध करेगा और अधिक मासको माननेवालों को दूषण लगाकरके फिर आप निर्दूषण भी बनेगा। सो विवेकी पाठकवर्ग विचार लेखेंगे। और अधिक मासके कारणसे ही तेरह मास छबीश पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सर श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने कहा है इस लिये अवश्य करके पांच मासका एक अभिवर्द्धित चौमासा भी मामना चाहिये। (शङ्का ) अधिक मासके कारणसें पांच मासका अभिबर्द्धित चौमासा किस शास्त्र में लिखा है। (समाधाम) भो देवानुप्रिय ! ऊपर ही ३६३, ३६५ पष्ठ में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६९ ] ११ शास्त्रोंके प्रमाण अधिक मासके कारण से तेरह मास aatr पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सर संबंधी रूपे हैं उसी शास्त्रों तथा युक्तियां और प्रत्यक्ष अनुभव से भी अधिक नासके कारण से पांच मासका अभिवर्द्धित चौमासा प्रत्यक्ष सिद्ध होता है क्योंकि शीतकालके, उष्णकालके, और बर्षाकालके चार चार मासका प्रमाण है परन्तु जैन पंचांगानुसार और लौकिक पंचांगानुसार जिस ऋतुमें अधिक मास होवे उसी ऋतुका अभिवर्द्धित चौमासा पांच मासके प्रमाणका मानना स्वयं सिद्ध है इस लिये अधिकमासके कारणसें चौमासा पांचमास दशपक्षका और सांवत्सरी में तेरह मास छवीशपक्षका अवश्य करके व्यवहार करना चाहिये । - शङ्का - अजी आप अधिक मासके कारणसे चौमासामें पांच मास, दशपक्षका और सांवत्सरी में तेरह मास छवीश पक्षका व्यवहार करना कहते हो सो क्षामणाके अवसर में तो हो सकता है, परन्तु मुहपत्ती (मुखबखिका) की प्रतिलेखना करते, वांदणा देते, अतिचारोंकी आलोचना करते वगैरह कार्यों में चौमास में पांच मास, दश पक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीश पक्षका व्यवहार कैसे हो सकेगा । समाधान - भो देवानुप्रिय - जैसे मास वृद्धिके अभाव सें चौमासीमै चार मास, आठ पक्षका और सांवत्सरी में बारह मास, चौवीश पक्षका, अर्थ ग्रहण करने में आता है और मुखवस्तिकाकी प्रतिलेखनामें, वांदणा देनेमें, अतिचारोंकी आलोचना वगैरह कार्योंमें उतने ही मास पक्षोंकी भावना होती है, तैसे ही मास वृद्धि होने के कारण से चौमासीमें पांच मास, दश पक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीस पक्षका ४७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 10 ] अर्थ ग्रहण होता है इसलिये चौमासीमें और सांवत्सरिक कार्योंमें भी उतने ही मास पक्षोंकी भावना करने में आती है, - और जैसे चंद्रसंवत्सरमें-सांवत्सरिक प्रतिक्रमसमें क्षामणाधिकारे 'बारसरहं मासाणं ग्धीसरहं पक्वाणं तिन्निसयसढी राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोडके बारह मास, चौवीश पक्ष, तीन सौ साठ ( ३६० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करनेमें आती है और चौमासी प्रतिक्रमण में 'चउगहं मासाणं अट्ठरहं पक्खाणं वीसुत्तरसय राइंदियाणे' इत्यादि पाठ बोलके चार मास, आठ पक्ष, एक सौ वीश रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है, तैसे ही अभि. वर्द्धित संवत्सरमें भी सांवत्सरिक क्षामणाधिकारे 'तेरसगई मासाणं छठवीसरहं पक्षाणं तिलिसयणउ राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोलके तेरह मास,छवीश पक्ष, तीन सौ नब्बे (३९० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है और अभिवर्द्धित चौमासेमें भी 'पंचरहं मासाणं दसरहं पक्लाणं पंचासुत्तरसय राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोलके पांच मास, दश पक्ष एक सौ पचास ( १५० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है। ऊपरमें श्रीआवश्यकचूर्णि, श्रीप्रवचनसारोद्धार, श्रीधर्मरत्न प्रकरणवृत्ति और श्रीअभयदेवसूरिजीकृत समाचारी वगैरह शास्त्रों के प्रमाण प्रतिक्रमण संबंधी लिखने में आये हैं, उन्हीं शास्त्रोंके अनुसार ( संवच्छर ) संवत्सर शब्दके ऊपरोक्त न्यायानुसार चंद्र,अभिवर्द्धित इन दोनु संवत्सरोंका अर्थ ग्रहण होनेसे क्षामणा संबंधी जपरका पाठ अपरोक्त शास्त्रोंके अनुसार ही समझना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पक्ष-अजी आप उपरोक्त शास्त्रोंके अनुसार चन्द्र संवत्सरका और अभिवर्द्धित संवत्सरका अर्थ ग्रहण करके चंद्रमें बारह मासादिसें और अभिवर्द्धितमें तेरह मासादिसें सांवत्सरीमें क्षामणा करनेका लिखतेहो परन्तु किसी भी पूर्वाचार्यजीने कोई भी शाबमें ऐसा खुलासा क्यों नहीं लिखा हैं। सत्तर पक्ष-मो देवानुप्रिय ! तेरेमें श्रीजैनशास्त्रोंके तारपयार्थको समझनेकी गुरुगम बिना विवेक बुद्धि नहीं है इसलिये बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेके लिये वथा ही ऐसी कुतर्क करता है क्योंकि जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों मे संवत्सर शब्दके चंद्र और अभिवर्द्धितादि जुदे जुदे अर्थ कहे हैं जिसमें चन्द्र के बारह मास,चौवीस पक्ष और अभिवर्द्धितके तेरह मास,छवीश पक्ष खुलासे कह दिये है,इसलिये पूर्वाचार्योंने संवत्सर शब्दको ही ग्रहण करके व्याख्या करी है और यह तो अल्पबुद्धिवाला भी समझ सकता है कि जब अधिक मासकी गिनती शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने प्रमाण करी है और प्रत्यक्षमें वर्तते हैं इसलिये पापकृत्योंकी आलोचनामें तो जरूर ही अधिक मास गिमतीमें लेना सो तो न्यायकी बात है परन्तु विवेकशून्य हठवादी होगा सो ऐमी कुतर्क करेगा कि-अधिक मासकी मालोचना कहां लिखी है जिसको यही कहना चाहिये कि अधिक मासको गिनतीमें लेकर फिर आलोचना नहीं करनी कहां लिखी है इसलिये ऐसी वृथा कुतोंके करनेसें मिथ्यात्व बढ़ानेके सिवाय और कुछ भी लाभ नहीं उठा. सकेगा, बोंकि नब अधिक मासकी गिनती मंजर है तो फिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ आलोचना तो स्वयं मंजूर हो चुकी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको उत्सूत्र भाषण करके निषेध करते हैं और प्रमाण करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो पुरुष अधिक मासकी आलोचना नही करे तो उन्होंके मति कल्पनाकी बातही जुदी है परन्तु श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजांकी आशानुसार अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने वालोंको तो अवश्य ही अधिक मासकी आलोचना करना उचित है। इतने पर भी जो नहीं करने वाले हैं सो श्रीजिनाजाके उत्यापक हैं। और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी भाव परंपरानुसार चंद्रसंवत्सरका और अभिवर्द्धित संवत्सरका यथोचित भवसर पर जुदा जुदा अर्थ ग्रहण करके सांवत्सरीमें क्षामणा करनेकी अनुक्रमे अखंडित मर्यादा चली आती है इसलिये पर्वाचार्यों ने अधिक मासकी गिनती करनेकी तो सभी जगह व्याख्या करी है परन्तु क्षामणा सम्बन्धी संवत्सरशब्द लिखा है जिसका कारण यही है कि अधिक मास प्रमाण हुआ तो क्षामणे करने का तो स्वयं प्रमाण हो चुका, जब सम्वेगी साधु मान लिया, तब महाव्रतधारी तो स्वयं सिद्ध हो चुका। जब श्रीजिनेश्वर भगवान्की मूर्तिको श्रीजिन सदृश मान्य करी तब उसीको वंदना पूजना तो स्वयं सिद्ध हो गया। जब व्याख्यान वांचना मंजूर कर लिया, तब जानकार तो स्वयं सिद्ध होगया। ऐसे ऐसे अनेक दृष्टान्त प्रत्यक्ष हैं सो विशेष पाठकवर्गभी विचार सकते हैं। ___ और श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्यको नहीं जानने वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१३६ ] हठवादी पुरुषोंको तो श्रीप्रवचनसारोद्वार, तथा वृत्ति, और श्रीधर्मरत्नप्रकरण वृत्ति, और श्रीअभयदेवसूरिजी वगैरह पूर्वाचार्यै के बनाये समाचारियोंके ग्रन्थ और प्रतिक्रमण गर्भ हेतु, श्रीश्राद्धविधिवृत्ति, वगैरह शास्त्रोंके अनुसार सांवत्सरी में बारह मास चौवोश पक्षके ज्ञामणा करनेका ही नहीं बनेगा क्योंकि इन शास्त्रों में तो बारह मास चौवीश पक्ष भी नहीं लिखे हैं तो फिर बारह मासादिका अर्थ ऊपर के शास्त्रोंके अनुसार कैसे मान्य करेंगे और पांचों ही प्रतिक्रमणोंकी विधि ऊपरके शास्त्रों में कही है इसलिये ऊपर कहे सो शास्त्रोंके अनुसार पांच प्रतिक्रमणोंकी विधिको तो मान्य करनीही पड़ेगी और संवत्सर शब्द से बारह मासका अर्थ ग्रहण करोंगे तो मासवृद्धि होनेसें तेरह मासका भी अर्थ ग्रहण करनाही पड़ेगा सो तो न्यायकी बात हैं और पहिलेके काल में ऐसी कुतर्के करनेवाले विवेकशून्य कदाग्रही पुरुष भी नहीं थे नहीं तो पूर्वाचार्यजी जरूर करके विस्तारसें खुलासा लिख देते क्योंकि जिस जिस समयमें जैसी जैसी कुतकें करनेवाले पूर्वाचाय्यैौ के समय में जो जो हठवादी पुरुष थे जिन्होंको समझानेके लिये वैसे वैसेही खुलासा पूर्वाचाय्याने विस्तारसे किया है जैसे कि ईश्वरवादी, नास्तिक, वगैरहो के लिये और श्रीजिनमूर्त्तिको तथा जिनमूर्त्तिको पूजा सम्बन्धी शास्त्रोक्त विधिको वर्णन करी हैं, परन्तु मूर्तिके और पूजाके सम्बन्धमें वर्त्तमान समय जैसी युक्तियां लिखने की जरूरत नहीं थी जिसका कारण कि उस समय श्रीजिनमूर्तिके तथा उसीकी पूजा के निषेधक ढूंढिये, तेरहपन्थी, बगैरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७४ ] कुमुक्तियां करने वाले पुरुष नहीं थे परन्तु वर्तमान समय में श्रीजिनमूर्ति के निन्दक विशेष कुयुक्तियां करने लगे तो वर्तमान काठमें उसीके स्थापनेके लिये विशेष युक्तियां भी होती है। तैसेही इस वर्तमान कालमें तेरह मास छवीश पक्षक निषेध करने वाले सातवें महाशयजी जैसे शास्त्रों के तात्पर्य्यको नहीं जानने वाले पैदा हुवे तो उसीको स्थापन करनेके लिये इतनी व्याख्या भी मेरेको इस जगह करनी पड़ी नहीं तो क्या प्रयोजन था, अब न्यायदृष्टिवाले सत्यग्राही भव्यजीवोंको मेरा इतनाही कहना है कि जैसे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने श्रीसूयगडाङ्गजी, श्रीदशवैकालिकजी, श्रीउत्तराध्ययनजी वगैरह शास्त्रोंमें साधुके उद्देश करके व्याख्या करी है उसीको ही यथोचित साध्वीके लिये भी समझना चाहिये और श्रीवन्दीतासूत्रकी-"घउत्थे अणुव्वयंमि, निच्चपरदारगमण विरइओ ॥ आयरियमप्पसत्थे, इत्यपमायप्पसंगणं ॥ १५ ॥ अपरि गहिआ इत्तर" इत्यादि गाथायोंमें और अतिचारोंकी आलोचना वगैरहमें श्रावकका नाम उद्देश करके व्याख्या करी है उसीकोही यथोचित श्राविकाके लियेही समझना चाहिये इतने पर भी कोई विवेक शून्य कुतर्के करे किअमुक अमुक बातें साधुके और श्रावकके लिये तो कही है परन्तु साध्वी और श्राविकाके लिये तो नहीं कही है ऐसी कुतर्क करनेवालेको अज्ञानीके सिवाय, तत्त्वज्ञ पुरुष और क्या कहेंगे । तैसेही जिस जिस शास्त्र में चन्द्रसंवत्सरको अपेक्षासें जो जो बातें कही है उसीकेही अनुसार यथोचित अवसर, अभिवर्द्धित संवत्सरसम्बन्धी भी समझनी चाहिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७५ ] तथापि विवेकशून्य हठवादी कोई ऐसी कुतर्क करें किअमुक शास्त्र में मासवृद्धि के अभाव से चन्द्रसम्बत्सर के लिये बारह मासके क्षामणे कहे हैं परन्तु मासवृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित सम्वत्सर के लिये तो कुछ नही कहा है, ऐसी कुतर्क करने वालेको अज्ञानीके सिवाय, तत्त्वज्ञ पुरुष और क्या कहेंगे क्योंकि एकके उद्देश्य से जो व्याख्या करी होवे | उसीके ही अनुसार दूसरेके लियेही यथोचित समझनेको श्रीजैनशास्त्रों में मय्यादा है इसलिये जूदे नाम उद्देश्य करके जूदी जूदी व्याख्या शास्त्रकार नहीं करते हैं। परन्तु जो सत्यग्राही विवेकी आत्मार्थी होवेंगे सो तो सद्गुरुकी सेवासे श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यक समझके सत्यबात ग्रहण करेंगे और विवेक रहित हठवादी होगें जिसके कमौका दोष मत शास्त्रकारों का, जैसे--- श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यायोंमें प्रसिद्ध बात है कि कोई साधु स्थण्डिले जङ्गल में गयाथा सो कुछ ज्यादा देरीसें गुरु पास आया तब उस साधुको गुरु महाराजने देरी से आनेका कारण पूछा तब उस साधुने रस्ते में नाटकीये लोगोंका नाटक देखनेके कारण देरी आना हुवा सो कहा, तब गुरु महाराजने नाटकीये लोगोंका नाटक देखनेकी साधुको मनाई करी तब विवेकी बुद्धिवाले चतुर ये वे तो नाटकणी लुगाइयोंका नाटक वर्जनेका भी स्वयं समझ गये, और विवेक बिनाके थे सो तो नाटकणी लुगाइयोंका नाटक देखनेको खड़े रहे, तब गुरु महाराजके कहने पर विवेक रहित होनेसे बोलेको आपने नाटकीये लोगोंका नाटक देखनेकी मनाई करोथी परन्तु नाटकणी लुगाईयों का नाटक देखने को तो मनाई नही करी थी तब गुरु महा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजने कहा कि जब नाटककीय लोगोंका नाटक वर्जन किया तब नाटकणी लुगाइयोंका नाटक तो विशेष रागका कारण होनेसे स्वयं वर्जन समझना चाहिये तब उन्होंने गुरु महाराजके कहने मुजबही मंजूर किया-और हठवादी मूर्ख थे सो तो गुरु महाराजकोही दूषित ठहराने लगे कि आपने नाटकीये लोगोंका नाटक वर्जन किया तो फिर नाटकणी लुगाइयोंका नाटक क्यों वर्जन नहीं किया परके लेखका क्षामणाके सम्बन्धमें तात्पर्य ऐसा है जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने संवत्सर शब्दके चन्द्र, अभिवद्धितादि जूदे जदे भेद प्रमाण सहित कहे हैं और सांवत्सरिक क्षामणाके अधिकारमें संवत्प्तर शब्दसें व्याख्या करी है जिसमें मासद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें बारह मासादिसे क्षामणा करने में आते हैं उसीकेही अनुसार विवेक बुद्धिवाले चतुर होगे सो तो मासवृद्धि होनेसे तेरह मासादिसें क्षामणा करनेका स्वयं समझ लेवेंगे और विवेक रहित होवेंगे सो शास्त्रोंके अनुसार युक्तिपूर्वक गुरु. महाराजके समझानेसें मान्य करेंगे और विवेक रहित हठवादी होवेंगे सो तो शास्त्रोंका प्रमाण और युक्ति होने पर भी शास्त्रकार महाराजोंकोही उलटे दूषित ठहराधेगे कि अधिक मासकी गिनतीको प्रमाण करके तेरह मास छवीश पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सरको शास्त्र. कार लिख गये तो फिर अधिकमास होनेसे तेरह मास रवीश पक्षके क्षामणे करनेका क्यों नहीं लिख गये, इस तरहसे अपनी वक्र जड़ता प्रगट करके बालजीवोंको भी मिथ्यात्वमें फँसावेंगे, पर भवका भय नहीं रखेंगे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१७ ] और शास्त्रकारोंको मिथ्या दूषण लगाके,फिर आप मिर्दूषण भी बनेंगे, सो तो कलियुगकाही प्रभावके सिवाय और क्या होगा सो तत्त्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे। प्रश्नः-श्रीजैनशास्त्रों में चन्द्रसंवत्सरके ३५४ दिनका और अभिवर्द्धित संवत्सरके ३८३ दिनका प्रमाणकहा है फिर सांवत्सरी सम्बन्धी चन्द्रसंवत्सरमें ३६० दिनके और अभिवर्द्धित संवत्सर में ३९० दिनके क्षामणे करनेका आप कैसे लिखते हो। ___ उत्तरः-भो देवानुप्रिय, श्रीजिनेन्द्र भगवानोंका कहा हुआ नयगर्भित श्रीजिन प्रवचनको शैली गुरुगम और अनु . भव बिना प्राप्त नहीं हो सकती है क्योंकि यद्यपि श्रीजैनशास्त्रोंमें चन्द्रसंवत्सरके ३५४ दिन, ११ घटीका, और ३६ पलका प्रमाण कहा है और अभिवर्द्धित संवत्सरके ३८३ दिन, ४२ घटीका, और ३४ पलका प्रमाण कहा है सो चन्द्रके विमानकी गतिके हिसाबसे निश्चय नय संबन्धी समझना चाहिये और जो चन्द्रसंवत्सरमें ३६० दिनके और अभिवर्द्धितमें ३९० दिनके क्षामणे करने में आते हैं सो दुनियाकी रीतिसे, व्यवहार नय करके, लोगोंको सुखसें उच्चारण हो सके इसलिये बहुत अपेक्षासें समझना चाहिये। और व्यवहार नयसें चन्द्र संवत्सरमें ३६० दिनका और अभिवर्द्धित संवत्सरमें ३९० दिनका उच्चारण करके क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नय करके तो जितने समयसें सांवत्सरीमें क्षामणे करने में आवेंगे उतनेही समय तकके पापकृत्योंकी आलोचना हो सकेगी सो विशेष पाठकवर्ग भी स्वयं विषार लेवेंगे और चौमासी पाक्षिक देवसीराइ प्रतिक्रमण सम्बन्धी भी निश्चय नयकी और व्यवहार ४८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] नयकी अपेक्षा केलिये आगे लिखंगा- अब सत्यग्राही तत्त्वज्ञ पुरुषोंको न्यायदृष्टिसे विचार करना चाहिये कि अधिक मासके कारणसें चौमासीमें पांच मासादिसें और सांवत्सरिमें १३ मासादिमें क्षामणे करनेका अनेक शास्त्रोंके प्रमाणानुमार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष अनुभवसे स्वयं सिद्ध है सो तो मैंने कपरमें ही लिख दिखाया है परन्तु सातवें महाशयजी कोई भी शास्त्रके प्रमाण बिना पांच मास होते भी चार मासके क्षामण करने का और तेरह मास होते भी १२ मासके क्षामणे करनेका लिख दिखाके फिर शास्त्रानुसार पांच मासके और तेरह मासके क्षामणे करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो अपने विद्वत्ताकी हांसी करा करके, संसार वृद्धिके हेतुभूत उत्सूत्र भाषणके सिवाय और क्या होगा सो पाठकवर्गको विचार करना चाहिये। और भी आगे पर्युषणा विचारके चौथे पृष्ठकी १५ वीं पंक्तिसे २१वीं पंक्ति तक लिखा है कि-( दूसरी बात यह है किसी समय सोलह (१६) दिनका पक्ष होता है और कभी चौदह दिनका पक्ष होता है उस समय 'एक पख्खाणं पन्नरसरहं दिवसाणं' इस पाठको छोड़कर क्या दूसरी पाठकी कल्पना करते हो यदि नही करते तो एक दिनका प्रायश्चित्त बाकी रह जायगा जैसे तुम्हारे मतमें 'चउरह मासाणं' इत्यादि पाट कहनेसे अधिकमासका प्रायश्चित्त रह जाता है )___ अपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीके ऊपरका लेखको देखकर मेरेकों बड़ाही विचार उत्पन्न होता है कि-सातवें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] महाशयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं तथापि श्रीजैन शास्त्रों के तात्पर्य समझे बिना अपने कदाग्रहके कल्पित पक्षको स्था. पन करने के लिये वृथाही क्यों उत्सूत्र भाषण करके अपनी अज्ञता प्रगट करी है क्योंकि लौकिक ज्योतिषके गणित मुजब वर्तमानिक पञ्चाङ्गमें तिथियांकी हानी और वृद्धि होनेका अनुक्रमे नियम है और अधिकमासकी तो सर्वथा करके वृद्धि ही होनेका नियम है परन्तु तिथिकी हानी होनेसे १४ दिन का पक्षकी तरह, मासकी हानी होकर ११ मासका वर्ष कदापि नहीं होता है इसलिये तिथिको हानी अथवा वृद्धि हो तो भी दुनियाके व्यवहारमें १५ दिनका पक्ष कहा जाता है जिससे क्षामणे भी १५ दिनके करने में आते हैं और मासकी तो हानी न होते, सर्वथा वृद्धिही होती है इसलिये दुनियाके व्यवहार में भी तेरह मासका वर्ष कहा जाता है परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासका वर्ष कोई श्री बुद्धिमान विवेकी पुरुष नहीं कहते हैं जिससे मासद्धि होनेसे क्षामणे भी १३ मासकेही करने में आते हैं, परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासके क्षामणे करनेका कोई भी बुद्धिवाले विवेकी पुरुष नहीं मान्य कर सकते हैं। इसलिये तिथियांकी हानि वृद्धि होनेका नियम होनेसे और मासकेसदा वृद्धि होनेका नियम होनेसे दोनका एक सदृश व्यवहार होनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो कदापि नहीं हो सकता है। और निश्चय व्यवहारादि नय करके श्रीजिन प्रवचन चलता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्गमें १६ दिनका अथवा १४ दिनका पक्ष होते भी व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिन के क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नयकी अपेक्षामे तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] १६ दिनके अथवा १४ दिनके जितने समय तक जितने पुण्य पापादि कार्य करने में आये होवे उतनेही पुण्य कार्योंकी अनुमोदना और पापकार्योंकी आलोचना करने में आवेगी, देवती राइ प्रतिक्रमणवत् अर्थात् देवती और राइप्रतिक्रमणका सांम और सवेरमें चार चार पहरका काल कहा है परन्तु कोई कारण योग संध्या समय देवसी प्रतिक्रमण म होसके तो रात्रिका बारह बजे (मध्यानरात्रि) के समय तक भी प्रतिक्रमण करने का अवसर मिलनेसे करने में आसके तब निश्चय नय करके तो छ पहरके पाप कार्योंकी आलोचना होगी परन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षासें चार पहरके अर्थवाला देवसी शब्द ग्रहण करके देवसी क्षामणे करनेमें आवेंगे अब देखिये अर्द्धरात्रि तक छ पहरमें प्रतिक्रमण करके भी व्यवहार नयसे चार पहरके अर्थवाला देवसी शब्द ग्रहण करने में आवे और पुनः कारण योगे पहर रात्रि शेष रहते ३ बजे ही दूसरीबार राइ ( रात्रि ) प्रतिक्रमणकरनेका कारण पड़ गया तो एक पहर अथवा सवा पहरमें रात्रि प्रतिक्रमण करती समय निश्चय नय करके तो उतनेही समय तकके पापकायोंकी आलोचना होगी परन्तु व्यवहार नयसे चार पहरके अर्थवाला राइ शब्दही ग्रहण करने मेंआवेगा तैसेही लौकिक पंचाङ्ग मुजब १४ दिने किंधा १५ दिने अथवा १६ दिने पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आवे तो निश्चय नय करके तो उतनेही दिनोंके पापकायोंकी आलोचना करने में आवेगी परन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिनका पक्ष कहने में आता है इसलिये१५ दिनके अर्थवाला पाक्षिक शब्द ग्रहण करके क्षानणे भी करने में आते हैं, परन्तु व्यवहार नयका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८१ ] भङ्गके दूषण से डरनेवाले अन्य कल्पना कदापि नहीं करेंगे सो विवेकी सज्जन स्वयंविचार लेवेंगे। और सातवें महाशयजी १६ दिनका पक्षमें १५ दिनके क्षामणे करने में एक दिनका प्रायश्चित बाकी रहने संबंधी और १४ दिनका पक्षमें भी १५ दिनके क्षामणे करनेमें एकदिन का बिना पाप किये भी प्रायश्चित ज्यादा लेने सम्बन्धी ऊपरके लेखसे ठहराते हैं सो निःकेवल अज्ञातपनसे व्यव. हार नयका भङ्ग करते हैं जिससे श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लंघन रूप उत्सूत्र भाषक बनते हैं सो भी पाठकवर्ग विचार लेवेंगे। और यद्यपि श्रीजैनपञ्चाङ्ग की गिनतीसें तिथि की वृद्धि होनेका अभाव था तथा पौष और आषाढ़ मासकी वृद्धि होनेका नियम था परन्तु लौकिक पञ्चाङ्गमें तिथि की वृद्धि होनेका गिनती मुजब नियम है और हरेक मासोंकी वृद्धि होनेका भी नियम है । जब जैन पञ्चाङ्गके बिना लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब तिथि को वृद्धिको सातवें महाशयजी मान्य करके सोलह (१६) दिनका पक्षको मंजूर करते हैं तो फिर लौकिक पञ्चाङ्गानुसार श्रावण भाद्रपदादि मासोंकी वृद्धि होती है जिसको मान्य नहीं करते हुवे उलटा निषेध करनेके लिये पर्यषणा विचारके लेखमें वृथा क्यों परिश्रम करके निष्पक्ष. पाती विवेकी पुरुषों से अपनी हांसी कराने में क्या लाभ उठाया होगा सो मध्यस्थ दृष्टिवाले सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे. और ( जैसे तुम्हारे मतमें 'चतरहं मासाणं' इत्यादि पाठ कहने से अधिक मासका प्रायश्चित्त रह जाता है) सातवें महाशयजीके ऊपरके लेखपर मेरेको इतनाही कहना है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८२ ] अधिक मासको मानने वालोंके मतमें तो अधिक मास होने से पांच मासहोते भी चार मास कहनेसें पांचवा अधिक मासका प्रायश्चित्त बाकी रह जाता है इसलिये अधिकमास होनेसे पाँच मास जरूर बोलने चाहिये सो तो बोलतेही हैं इसका विशेष निर्णय कपरमें हो गया है, परन्तु पाँच मास होते भी चार मास बोलने में पाँचवा अधिक मासका प्राय. श्चित्त उसीके अन्तर्गत आजानेका ऊपरके अक्षरोंसें सातवें महाशयजीने अपने मतमें ठहरानेका परिश्रम किया है सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना प्रत्यक्ष मायावृत्ति मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये अज्ञ जीवोंको कदाग्रहमें गेरनेका कार्य किया है क्योंकि अधिक मास होनेसें पांचमासके दश पक्ष प्रत्यक्ष में होते हैं और खास सातवें महाशयजी वगैरह भी सब कोई अधिक मासके कारण से पाँच मासके दश पाक्षिकप्रतिक्रमण भी करते हैं फिर पांचमास दश पक्ष नहीं बोलते हैं सो यह तो 'मम वदने जिहा नास्ति' की तरह बाललीलाके सिवाय और क्या होगा से विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेगे;-- और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके पांचवें पृष्ठकी प्रथम पंक्तिसे छट्ठी पंक्ति तक लिखा हैं कि ( अब लौकिक व्यवहार पर चलिए लौकिक जन अधिक मासमें नित्यकृत्य छोड़कर नैमित्तिककृत्य नहीं करते जैसे यज्ञोपवीतादि अक्षयतृतीया दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से पूर्णिमा तक दश लाक्षणिक पर्वमानते है) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों श्रीजिनेन्द्र भगवानोंने तो अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] मासको गिनतीमें ले करके ही पर्युषणा करने का कहा है तथापि सातवे महाशयजी पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्रों के तात्पर्य्यको समझे बिना अज्ञात पनेसै उत्सूत्र भाषक हो करके अधिक मासका निषेध करनेके लिये गच्छपक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्व में फंसाने वाली अनेक कुतोंका संग्रह करते भी अपने मंतव्यको सिद्ध न कर सके तब लौकिक व्यव. हारका सरणा लिया तथापि लौकिक व्यवहारसें भी उलटे वर्तते हैं क्योंकि लौकिक जन (वैष्णवादि लोग) तो अधिक मासमें विवाहादि संसारिक कार्य छोड़कर संपूर्ण अधिक मासको बारहमासोंसे विशेष उत्तम जान करके 'पुरुषोत्तम अधिक मास' नाम ररूखके दान पुण्यादि धर्मकार्य विशेष करते हैं और अधिक मासके महात्मकी कथा अपने अपने घर घरमें ब्राह्मणोंसे वंचाकर सुनते हैं। अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-लौकिकजन भी जैसे बारह मासोंमें संसारिक व्यवहारमें वर्तते हैं तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मासोंमें भी वर्तते हैं और बारह मासोंसे भी विशेष करके दानपुण्यादि धर्मकार्य अधिक मासमें ज्यादा करते हैं और विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य नहीं करते हैं परन्तु बिना मुहूर्त के धर्मकायाको तो नही छोड़ते हैं और सातवें महाशयजी लौकिक जनकी बातें लिखते हैं परन्तु लौकिक जनसे विरुद्ध हो करके धर्मकार्यों में अधिक मासके गिनती का सर्वथा निषेध करते कुछ भी विवेक बुद्धिसें हृदयमें विचार नहीं करते है क्योंकि लौकिक जन की बात सातवें महाशयजी लिखते हैं तबतो लौकिकजन की तरहही सातवें महाशयजीको भी वर्ताव करना चाहिये सो तो नही करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८४ ] हुवे उलटेही वर्त्तते हैं सो भी बड़ेही आश्चर्य्यकी बात है । और यज्ञोपवीत, विवाह वगैरह मुहूर्त निमित्तिक कार्य तो चौमासे में, मलमास में, सिंहस्थ में, अधिक मासमें, रिक्ला तिथि में, और ग्रहण वगैरह कितनेही योगोंमें नहीं होते हैं परन्तु बिना मुहूर्त्तका पर्युषणादि धर्म कार्य तो चौमासेमें रिक्ता तिथि होने पर भी करनेमें आते हैं इसलिये मुहूतं निमितिक कार्य अधिक मासमें न होनेका दिखा कर के बिना मुहूर्त्त का पर्युषण पर्वका निषेध करना सो सर्वथा उत्सूत्र भाषण करके भोले जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे संसार वृद्धिका कारण है सो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं । और यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य्य अधिकमास में नहीं होनेका सातवें महाशयजी लिख दिखा करके पर्युषणा भी अधिक मासमें नहीं होनेका ठहराते हैं तब तो सिंहस्थ, सिंहराशीपर गुरुका आना होवे तब तेरह मासमें यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त निमित्त कार्य्य नहीं करनेमें आते हैं उसीकेही अनुसार सातवें महाशयजी को भी तेरह मास में पर्युषणादि धर्म कार्य्य नहीं करना चाहिये । यदि करते होवे तो फिर गच्छ कदाग्रही बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फँसानेका वृथा क्यों परिश्रम किया सो तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विवार लेवेंगे -- और मुहूर्त्त निमित्तिक संसारिक कार्योंके लिये तथा बिना मुहूर्त्तका धर्म कार्योंके लिये विशेष विस्तार से चौथे महाशय भी न्यायांभीनिधिजीके लेखकी समीक्षा में इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ १९४ से २०४ तक अच्छी तरह से छप गया है सो पढ़ने से सर्व निःसंदेह हो जावेगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८५ ] और अक्षयतृतीया दीपालिकादि सम्बन्धी आगे लिखनेमें आवेगा । और ( दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीसे पूर्णिमा तक दशलासfusपर्व मानते हैं ) सातवें महाशयजीका इस लेखपर मेरेको इतनाही कहना है कि-दिगम्बर लोग तो केवलीको आहार, स्त्रीको मोक्ष, साधुको वस्त्र, श्रीजिनमूर्त्तिको आभूषण, नवाङ्गी पूजा वगैरह बातोंको निषेध करते हैं और श्वेताम्बर मान्य करते हैं इसलिये दिगम्बर लोगोंकी अधिक are सम्बन्धी कल्पनाको श्वेताम्बर लोगोंको मान्य करने योग्य नहीं है क्योंकि श्वेताम्बर में पञ्चाङ्गी के अनेक प्रमाण अधिक मासको गिनती में करने सम्बन्धी मौजूद हैं इसलिये दिगम्बर लोगोंकी बातको लिखके सातवें महाशयजीने अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करनेको उद्यम करके बालजीवोंको कदाग्रह में गेरे हैं सो उत्सूत्र भाषणरूप है और सातवें महाशयजी दिगम्बर लोगोंका अनुकरण करते होंगे तब तो ऊपरकी दिगम्बर लोगोंको बातें सातवें महाशयजीका भी मान्य करनी पड़ेंगी यदि नहीं मान्य करते होवें तो फिर दिगम्बर लोगोंकी बात लिखके वृथा क्यों कागद काले करके समयको खोया सो पाठकवर्ग विचार लेवेंगे और आगे फिर भी पर्युषणा विचारके पाँचवे पृष्ठको 9 वीं पंक्ति से कटु पृष्ठको पाँचवीं पंक्ति तक लिखा है कि[ अधिकमास संक्षी पञ्चेन्द्रिय नहीं मानते, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि एकेन्द्रिय वनस्पति भी अधिक मासमें नहीं फलती । जो फल श्रावण मासमें उत्पन्न होने ४९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला होगा वह दूसरेही प्रावणमें उत्पन्न हागा न कि पहिलेमें। जैसे दो चैत्र मास होगे तो दूसरे चैत्रमें आम्रादि फलेंगे किन्तु प्रथम चैत्रमें नहीं। इस विषयको एक गाथा आवश्यकनियुक्तिके प्रतिक्रमणाध्ययनमें यह है"जइ फुल्ला कणिआरया चूअग अहिमासयंमि घुटुमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पञ्चंता करिति इमराई" ॥ १॥ ___ अर्थात अधिकमासकी उद्घोषणा होनेपर यदि कर्णि. कारक फूलता है तो फूले, परन्तु हे आम्रवृक्ष ! तुमको फूलना उचित नहीं है, यदि प्रत्यन्तक ( नीच ) अशोभन कार्य करते हैं तो क्या तुम्हें भी करना चाहिये !, सज्जनाको ऐमा उचित नहीं है। इम बातका अनुभव पाठकवर्ग करें यदि अभ्यासको सफलता हो तो जैसे कुशाग्रबुद्धि आज्ञानिबद्ध हृदय आचायोंने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हें भी लेखामें नहीं लेना चाहिये। जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषोंसे मुक्त होकर आज्ञाके आराधक बनोगे।] __ ऊपरके लेखकी ममीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि--हे सज्जन पुरुषो सातवें महाशय जीने गच्छ पक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेके लिये ऊपर के लेख में था क्यों परिश्रम किया है क्योंकि प्रथम तो ( अधिक मास संज्ञी पञ्चेन्द्रिय नही मानते ) यह लिखनाही प्रत्यक्ष महा मिथ्या है क्योंकि सज्ञी पञ्चेन्द्रिय सब कोई अधिक मासको अवश्य करके मानते हैं सो तो प्रत्यक्ष अनुभवसेही सिद्ध है और 'एकेन्द्रिय वनस्सति अधिक. मासमें नही लनेका' ति महाशयजी लिखते हैं सो भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या है क्योंकि वनस्पतिका फलना और फलोंका, फलोंका उत्पन्न होना सा तो समय, हवा, पानी, ऋतुके, कारणसे होता है इसलिये वनस्पतिको समय ( स्थिति ) परिपाक न हुई होवे तथा हवा भी अच्छी न होवे जलका संयोग न मिले तो अधिक मासके बिना भी वनस्पति नहीं फलती है और फल भी उत्पन्न नही होते हैं और अधिक मासमें भी स्थिति परिपक्व होनेसे हवा अच्छी लगनेसे जलका संयोग मिलनेमें फलती है और फलोंकी, फलोंकी उत्पत्ति भी होती है। ___और जैसे बारह मासांमें उत्पन्न होना, वृद्धि पामना, पालमा, फलना, नष्ट होना, वगैरह वनस्पतिका स्वभाव है तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मास में भी है सो तो प्रत्यक्ष दिखता है। और 'जो फल प्रावण मासमें उत्पन्न होनेवाला होगा सो पहिले प्रावणमें न होते दूसरे प्रावणमें होगा' ऐसा भी सातवे महाशयजीका लिखना अजातसूचक और मिथ्या है क्योंकि जैन पञ्चाङ्गमें और लौकिक पञ्चाङ्गमें अधिक मासका व्यवहार है परन्तु मुसलमानोंमें, बङ्गलामें, अंग्रेजीमें, तो अधिकमासका व्यवहार नहीं है किन्तु अनुक्रमसें मासांकी तारीख मुजब व्यवहार है जब लौकिकमें अधिक मास होनेसे अधिक मासमें वनस्पतिका फूलना, फलना नही होनेका सातवें महाशयजो ठहराते हैं तो क्या लौकिक अधिकमासमें जो मुसलमानांकी, बङ्गलाकी और अंग्रेजीकी ३० तारीखेांके ३० दिन व्यतीत होवेंगे उसीमें भी वनस्पतिका पूलना फलना नहानेका सातवे महा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] प्रयजी ठहरा सकेंगे सो तो कदापि नहीं तो फिर वृथा क्यों कदाग्रही बालजीवोंको मिथ्यात्वकी श्रद्धामें गेरनेके लिये अधिक मासमें वनस्पतिको नहीं फलनेका उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या स्थापन करते हैं सो न्यायदृष्टि वाले विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ॥ ___ और अधिक मासको वनस्पति अङ्गाकार नही करती है इत्यादि लेख चौथे महाशयजी न्यायाम्भोनिधिजीने भी बालजीवोंको मिथ्यात्वमें गेरनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप लिखा था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ २०५ सें २९० तक छप गई है सो पढ़नेसे विशेष निर्णय हो जावेगा। ___और 'दो चैत्र मास होंगे तो प्रथम चैत्रमें आम्रादि नहीं फलते दूसरे चैत्रमें फलेगें इस विषय सम्बन्धी आवश्यक नियुक्तिके प्रतिक्रमण अध्ययनकी एक गाथा' सातवें महाशयजीने लिख दिखाई-सो तो निःकेवल अपने विद्वत्ता की अजीर्णता प्रगट करी है क्योंकि श्रीआवश्यक नियुक्ति के रचने वाले चौदह पूर्वधरश्रुतकेवली श्रीमान् भद्रबाहु खामीजी जैनमें प्रसिद्ध हैं उन्ही महाराजको अनुमान २२७०वर्ष व्यतीत होगये हैं उन्होंके समयमें अठाशी ग्रहोंके गतिकी मर्यादा पूर्वक जैनपञ्चाङ्ग सुरुथा उसीमे पौष और आषाढ़ मासके सिवाय चैत्रादि मासोंकी वृद्धिकाही अभाव था तो फिर श्रीआवश्यक नियुक्तिके गाथाका तात्पर्य्यार्थको गुरु गमसे समझे बिना दूसरे चैत्रमें आम्रादि फलनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो विवेकी बुद्धिमान् कैसे मान्य करेगे अपितु कदापि नहीं। __और श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथा लिखके अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] भासको गिनतीमें लेनेका सातवें महाशयजीने निषेध किया है सो भी निःकेवल गच्छ पक्षके आग्रहसे और अपनी विद्वत्ता के अभिमानसे दृष्टिरागी अज्ञजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने के लिये नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायको जाने बिना वृथाही परिश्रम किया है क्योंकि नियुक्तिकार महाराज चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली थे इसलिये श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांका कहा हुवा और गिनतीमें प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको निषेध करके उत्सूत्र भाषण करने वाले बनेंगे यह तो कोई अल्पबुद्धि वाला भी मान्य नहीं करेगा तथापि सातवें महाशयजीने नियुक्तिकी गाथासे अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करके चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली महाराजको भी दूषण लगाते कुछ भी पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसे हृदय में नहीं किया यह तो बड़ेही अफसोसकी बात है। ___ और खास इसीही श्रीआवश्यक नियुक्निमें समयादि कालकी व्याख्यासे अधिक मासको प्रमाण किया है उसी नियुक्तिको गाथा पर श्रीजिनदासगणि महत्तराचार्यजीने चूर्णिमें, श्रीहरिभद्र सूरिजीने वृहद्धृत्तिमें, श्रीतिलका. चार्यजीने लघुशत्तिमें, और मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने श्रीविशेषावश्यकवृत्तिमें, खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है उसीसे प्रगट पने अधिक मासकी गिनती सिद्ध हैं सो इस जगह विस्तारके कारणसे जपरके पाठोंकों नहीं लिखता हूं परन्तु जिसके देखने की इच्छा होवे सो नियुक्तिके चौवीसथा-अध्ययनके पृष्ठ ५१में, वृहद् यत्तिके पृष्ठ २०६ में और विशेषावश्यकी वृत्तिके पष्ठ ४५ में देख लेना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९० ] अब इस जगह विवेकी पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि खास निर्युक्लिकार महाराज अधिकमासको प्रमाण करने वाले थे तथा खास श्रीआवश्यक नियुक्ति में ही अधिक Hraar प्रमाण किया है सो तो प्रगट पाठ है तथापि सातवें महाशयजीने गच्छपक्षके कदाग्रहसें दृष्टिरागियोंको मिथ्यात्व के झगड़े में गेरनेके लिये निर्मुक्तिकार चौदह पूर्वधर महाराज के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप अपनी मति कल्पनासें, निर्युक्तिकी गाथा लिखके उसीके तात्पर्य्यक समझे बिनाही अधिक मासको गिनती में निषेध करनेका वृथा परिश्रम किया सो कितने संसारको वृद्धि करी होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और तत्त्वज्ञ पुरुष भी अपनी बुद्धिमें स्वयं विचार लेवेंगे । अब इस जगह पाठकवर्गको निःसन्देह होनेके लिये नियुक़िकी गाथाका तात्पर्य्यर्थको दिखाता हूं । श्री नियुक्रिकार महाराजने श्री आवश्यक नियुक्ति में क. (६) आवश्यकका वर्णन करते प्रतिक्रमण नामा चौथा आवश्यक में "पडिक्कमणं १ पडिअरणा २, पडिहरणा ३ वारणा ४ जियतिय ५ ॥ जिंदा ६ गरहा 9 सोही ८, पडिक मणं अट्टहा होइ ॥ ३ ॥ इस गाथासे आठ प्रकारके नाम प्रतिक्रमण के कहे फिर अनुक्रमे आठोंही नामोके निक्षेपोंका वर्णन किया हैं और भव्यजीवोंके उपगार के लिये " अढाणे १ पासए २ दुदुकाय ३ विसभोयणा तलाए ४ ॥ दोकमा ५ चितपुति ६ पइमारियाय 9 वत्थेव ८ अट्ठणय" ॥ १२ ॥ इस गाथासे प्रतिक्रमण सम्बन्धी आठ दृष्टांत दिखाये जिसमें पांचवा णियत्ति अर्थात् निवृत्ति सो उन्मार्ग से हट करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९१ ] सन्मार्ग में प्रवर्तने सम्बन्धी दो कन्याका एक दृष्टांत दिखाया है जिसकी चूर्णिकारने, बृहद् वृत्तिकारने और लघुवृत्तिकारने खुलासा पूर्वक, व्याख्या करी है और द्रव्य निवृत्ति पर दृष्टांत दिखाके, फिर भाव निवृत्ति पर उपनय करके दिखाया है, उसीके सब पाठोंको विस्तार के कारणसे इस जगह नहीं लिखता हूँ परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो चूर्णिके २६४ पृष्ठ में, तथा वृहद् वृत्तिके २३३ पृष्ठ में देखलेना । और पाठकवर्गको लघुवृत्तिका पाठ इस जगह दिखाता हूं श्रीतिलकाचार्यजी कृत श्री आवश्यक लघुवृत्तिके १९६ पृष्ठ यथा , , एकत्र नगरे शाला, पतिः शालासु तस्य च ॥ धूर्त्तावयंति तेष्वेको, धर्ती मधुरगी सदा ॥१॥ कुविंदस्य सुता तस्य, तेन सार्द्धमयुज्यत ॥ तेनोचे साथ नश्यामो यावद्वेत्ति न कञ्चनः ॥२॥ तयोचेमे वयस्यास्ति, राजपुत्री तथा समं ॥ संकेतो - स्ति यथा द्वाभ्यां पतिरेक करिष्यते ॥ ३॥ तामप्यानयतेनोचे, साथ तामप्यचालयत् ॥ तदा प्रत्यूषे महति गीतं केनाप्यदः स्फुटं ॥ ४ ॥ “ जइ फुल्ला कस्सियारया, अगअहि मासयंमिघुमि ॥ तुह न खमं फुल्लेउ, जद पञ्चंता करिति डमराइं" ॥ " नखमं नयुक्तं प्रत्यंता नीचकाः डमराणि विप्लवरूपाणि शेषं स्पष्ट ॥ श्रुत्वैव राजकन्या सा दध्यौ चतं महातरुम् ॥ उपालब्धो वसंतेन, कर्णिकारोऽथमस्तरुः ॥५॥ पुष्पितो यदि किं युक्तं, तवोत्तमतरोस्त्वया ॥ अधिक मास घोषणा, किं न श्रतेत्यस्य गीः शुभा ॥६॥ चेत्कुबिंदी करोत्येवं, कर्त्तव्यं किं मयापि तन् ॥ निवृत्तासामिषाद्रव, करंडोमेस्ति विस्मृतः ॥ १ ॥ राजसूः कोपि तत्राहि, गोत्रस्त्रासितो ১১ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ܬ www.umaragyanbhandar.com Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] निजः ॥ तज्ज्ञातं शरणी चक्रे, प्रदत्ता तेनतस्य सा ॥८॥ तेन श्वशुर साहाय्यानिर्जित्यनिजगोत्रजान् ॥ पुनर्लेभे निजं राज्यं, पहराज्ञी बभूव सा ॥ २९ ॥ नित्ति व्यतोभाणि, भावे चोपनयः पुनः ॥ कन्यास्थानीया मुनयो, विषया धर्स सन्निभाः ॥१०॥ योगीति गानाचार्योपदेशात्तेभ्यो निवर्त्तते ॥ सुगते जनं सस्या, दुर्गतेस्त्वपरः पुनः ॥ ११ ॥ __ अब विवेकी तत्त्वज्ञपुरुषोंको इस जगह विचार करना चाहिये कि राज्यकन्या उन्मार्गमें प्रवर्तने लगी तब उसी को समझानेके लिये कविने चातुराईसे दूसरेकी अपेक्षा ठे कर "जइ फल्ला" इत्यादि गाथा कही है सो तो व्याख्याकारोंने प्रगट करके कहा है तथापि सातवें महाशयजी नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायको समझे बिनाही राजकन्याके दृष्टान्तका प्रसङ्गको छोड़ करके बिना संबंधकी एक गाथा लिखके अधिक सासमें वनस्पतिको नहीं फूलनेका ठहराया परन्तु दीर्घ दृष्टिसे पूर्वापरका कुछ भी विचार न किया क्योंकि वसन्त ऋतु मुखसे बोलके आम्र को ओलम्भा देती नहीं, तथा आम सुनता भी नहीं और जैन ज्योतिषके हिसाबसे वसंत ऋतुमें अधिक मास होता भी नहीं, और अधिक मास होनेसे वनस्पतिको कोई उद्घोषणा करके सुनाता भी नहीं है। परन्तु यह तो ग्रन्थकार महाराजने अपनी उत्प्रेक्षारूप चातुराईसे. दूसरेकी अपेक्षा ले करके प्रासङ्गिक उपदेशके लिये कहा है इसलिये वास्तवमें अधिक मासकी उद्घोषणा आम्रको सुना करके वसन्त ऋतुके ओलंभा देने सम्बन्धी नहीं समझना चाहिये क्योंकि वर्तमानिक पञ्चाङ्गमें चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] प्रावणादि मासोंकी शुद्धि होनेसे उन अधिक मासोंके समयमें देशदेशान्तरे आम्र वृक्षादिका फूलना, फलना और आमोंका उत्पत्ति होना प्रत्यक्ष देखने में और सुनने में आता है और किसी देश में नाघ, फाल्गुन मासमें तो क्या परंतु हरेक भासोंमें भी आम्र फूलते हैं और अधिक मासके बिना भी हरेक मासोंमें कणियर भी फूलता रहता है इसलिये शामत्रकार महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध और कारण कार्य तथा आगे पीछेक सम्बन्ध की प्रस्ताविक बातको छोड़ करके अधूरा सम्बन्ध लेकर शब्दार्थ ग्रहण करनेसे तो वडेही अनर्थका कारण होजाता है, जैसे कि-श्रीसूयगडाज. जीमें वादियों के मत सम्बन्धकी बातको, श्रीरायप्रशेनीमें परदेशी राजाके सम्बन्धकी बातको श्री आवश्यकजीकी और श्रीउत्तराध्ययनजीकी व्याख्यायों में निहवोंके सम्बन्धकी बातको, और श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यायों में श्रीआदिजिने. खर भगवान्के वार्षिक पारणेके अवसरमें दोनं हाथोका विवादके सम्बन्धकी बातको इत्यादि पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में बैंकड़ो जगह शब्दार्थ और होता है परन्तु शास्त्रा कार महाराजका अभिप्राय औरही होता है इसलिये उस जगहको व्याख्या लिखते पूर्वापरका सम्बन्ध रहित और शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय विरुद्ध निःकेवल शब्दार्थको पकड़ करके अन्य प्रसङ्गकी अन्य प्रसङ्गमें अधूरी बातको लिखने वाला अनन्त संसारी मिथ्या दृष्टि निहूव कहा जावे, तैसेही श्रीआवश्यक नियुक्तिकार महाराज के अभिप्रायके विरुद्धार्थमैं शब्दार्थको पकड़ करके बिना सम्बन्धकी और अधूरी बात लिखके जो सातवें महाशयजीने बालजीवों ५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिथ्यात्वमें फंसानेका उद्यम किया है सो निःकेवल उत्सूत्र भाषण रूप होनेसे संसार रद्धिका हेतुभूत है सो विवेकी तत्त्वज्ञ पुरुष अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेवेंगे ;___ और फिर भी श्रीआवश्यकनियुक्तिको गाथाकी बातपर सातवें महाशयजीने अपनी चातुराई भोले जीवोंको दिखाई है कि ( कुशाग्र बुद्धि आज्ञा निबद्ध हृदय आचाय्यौंने अधिक मासको गिनतीमें नहीं लिया है उसी तरह तुम्हे भी लेखामें नहीं लेना चाहिये जिससे पूर्वोक्त भनेक दोषोंसे मुक्त होकर आज्ञाके आराधक बनोगे ) सातवे महाशयजीका यहभी लिखना अपनी विद्वत्ताके अजीर्णतासे संसार वृद्धिका हेतु भूत उत्सूत्र भाषण है क्योंकि नियुक्तिकी गाथामें तो अधिक मासकी गिनती निषेध करने वाला एक भी शब्द नहीं है परन्तु श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने अनन्ते कालसे अधिक मासको गिनतीमें लिया है इस लिये तत्त्वज्ञ बुद्धिवाले श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक जितने आत्मार्थी उत्तमाचार्य्य हुवे है उन सबी महानुभावोंने अधिक मासको गिनतीमें लिया है और आगे भी लेवेगे इसलिये इसकलियुगमें जो जो अधिक मासको गिनतीमें लेने का निषेध करनेवाले हो गये हैं तथा वर्त मानमें सातवें महाशयजी वगैरह है सो सबीही पञ्चाङ्गीकी श्रद्धा रहित श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक है क्योंकि अधिक मासको मिनतीमें करने सम्बन्धी २२ शालोंके प्रमाणतो इसीही ग्रन्थके पृष्ठ २७।२८ में छप गये हैं और श्रीगवती. जीमें २३, तथा तवृत्तिमें २४, श्रीअनुयोगद्वारमें २५, तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९५ ] तवृत्तिमें २६, श्रीव्यवहारवृत्तिमें २७, श्रीआवश्यकनियुक्तिमें स, तथा धूर्णिमें २९, प त्तिमें ३०, लघुपत्तिमें ३१, और मीविशेषावश्यकवृत्तिमें ३२, श्रीकल्पसूत्रमें ३३, तथा श्रीकल्प. सूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४०, प्रोजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें ४१, तथा श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिको पांच व्याख्यायोंमें ४६, श्रीगच्छाचार पयमाकी वृत्तिमें ४७, श्रीज्योतिषकरण्डपयन्नामें ४८, तथा तत्तिमें ४९, श्रीदशावतस्कन्धसूत्रकी चूर्णिमें ५०, श्रीविधिप्रपामें ५१, श्रीमण्डलप्रकाशमें ५२, सैन प्रश्नमें ५३, और नवतत्वको चार ब्यास्यायोंमें ५७, और श्रीतत्त्ववार्थकी वृत्तिमें ५८, इत्यादि पञ्चाङ्गी भनेक शास्त्रोंके प्रमाणोंसे अधिक मासकी गिनती स्वयं सिद्ध है। इसलिये श्रीजिनाजाके आराधक पञ्चाङ्गीको श्रद्धावाले मात्मार्थी प्राणियोंको तो अधिक मासकी गिनती अवश्यमेव प्रमाण करना चाहिये जिससे कुछ भी दूषण नहीं लग सकता है परन्तु निषेध करने वाले है सो और पञ्चाङ्गी मुजब अधिक मासका प्रमाण करनेवालोंको अपनी कल्पनासे मिथ्या दूषण लगाते हैं सो संसारमें परिभ्रमण करने वाले उत्सूत्र भाषक और भनेक दूषणोंके अधिकारी हो सकते है सो तो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं। __ और पञ्चाङ्गीके एक भक्षरमात्रको भी प्रमाण न करने वाले को तथा पञ्चाङ्गीके विरुद्ध थोड़ीसी बातकी भी परूपना करने वालेको मिथ्या दूष्टि निहूव कहते है सो तो प्रसिद्ध बात है तो फिर पञ्चाङ्गोके अनेक शास्त्रानुसार अधिक मासकी गिनती सिद्ध होते मो, नही मानने वालेको और इतने पञ्चाङ्गीके शाके प्रमाण विरुद्ध परूपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९६ ] करने वालेको मिथ्या दृष्टि महानिहूव कहने में कुछ हरजा होवेतो तत्त्वज्ञ पुरुषोंको विचार करना चाहिये। - अब अनेक दूषणौंके अधिकारी कौंन हैं और जिनाजाके आराधक कौंन हैं सो विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ; और भी आगे पर्युषणा विचारके छ? पृष्ठकी ६ पंक्ति से १८ वी पंक्ति तक लिखा है कि ( वादीकी शङ्का यहाँ यह है कि अधिक मासमें क्या भूख नहीं लगती, और क्या पापका बन्धन नहीं होता. तथा देवपूजादि तथा प्रति. क्रमणादि कृत्य नहीं करना ? इसका उत्तर यह है कि क्षधावेदना, और पापबन्धनमें मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवोंको तथा अढाईद्वीपके बाहर रहने वाले तिर्यच्चाको क्षुधावेदना तथा पापबन्ध नहीं होना चाहिये। वहाँ पर मान पक्षादि कुछ भी कालका व्यवहार नहीं है। देवपूजा तथा प्रतिक्रमणादि दिनसै बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्म के प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किन्तु लेना ले जाना आदि गृहकार्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों) ___ ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीने प्रथम वादीकी तरफसे शङ्का उठा करके उसीका उत्तर देनेमें खूबही अपनी अज्ञता प्रगटकरी है क्योंकि क्षधा लगना सो तो वेदनी कर्मके उदय से सर्व जीवोंको होता है और वेदनी कर्म अधिक मासमें भी समय समय में बन्धाता है तथा उदय भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९७ ] आता है और उसकी निवृत्ति भी होती है इसलिये अधिक मासमें क्षुधा लगती है और उमीकी निवृत्ति भी होती है । और पाप बन्धनमें भी मन, वचन, कायाके योग कारण है उसीसे पाप बन्धन रूप कार्य्य होता है और मन, बचन, कायाके, योग समय समय में शुभ वा अशुभ होते रहते हैं जिससे समय समय में पुण्य का अथवा पाप का बन्धन भी होता है और समय समय करकेही आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, माम, संवत्सर, युगादिसें यावत् अनन्ते काल व्यतीत होगये हैं तथा आगे भी होवेंगे इसलिये अधिक मासमें पुण्य पापादि कार्य्य भी होते हैं और उसीकी निवृत्ति भी होती है और समयादि कालका व्यतीत होना अढ़ाई द्वीपमें तथा अढ़ाई द्वीप के बाहर में और ऊद्ध लोकमें, अधोलोक में सर्व जगह में है इसलिये यहां के अधिक मासका कालमें वहां भी समयादिसें काल व्यतीत होता है इसीही कारण यहाँके अधिक मासका काल में यहांके रहने वाले जीवोंकी तरहही वहांके रहनेवाले जीवों को वहां भी क्षुधा लगती है और पुण्य पापादिका बन्धन होता है और यद्यपि वहां पक्षमासादिके वर्तावका व्यवहार नहीं है परन्तु यहां भी और वहां भी अधिक मासके प्रमाणका समय व्यतीत होना सर्वत्र जगह एक समान है इसीही लिये चारोंही गतिके जीवोंका आयुष्यादि काल प्रमाण यहांके संवत्सर युगादिके प्रमाणसें गिना जाता है जिससे अधिकमासके गिनतीका. प्रमाण संवत्सर, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपन, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, वगैरह सबी कालमें साथ गिना जाता है तथापि सातवें महाशयजी अधिक मासके. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] कालमें नारकी जीवोंको तथा अढाई द्वीपके बाहेर रहने वाले जोवोंको क्षधा वेदना तथा पापबन्धन नहीं होनेका लिखते हैं सो अज्ञताके सिवाय और क्या होगा सो .. पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ; और ( देवपूजा प्रतिक्रमणादि दिनचे बद्ध है लास बद्ध नही है नित्य कर्मके प्रति अधिकमास हानिफारक नही है ) सातवें महाशयजोकर यह भी लिखना मायावृत्तिसे बालजीवोंको भ्रनानेके लिये मिथ्या है क्योंकि देवपूजा प्रतिक्रमणादि जैसे दिनसे प्रतिबद्धवाले है तैोही पक्ष, मासादिसे भी प्रतिबद्ध वाले है इसलिये पक्ष, मासादिने जितनी देव पूजा और जितने प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य किये जावे उतनाही लाभ मिलेगा और पुण्य अथवा पाच कार्य से आत्माको जैसे दिवस लामकारक अधवा हानिकारक होता है तैसेही पक्ष मासादिमें पुण्य अथवा पाप होनेसें पक्ष मासादि भी लाभकारक अथवा हानिकारक होता है इसलिये पक्ष मासादिकके पुण्य कायौंकी अनुमोदना करके सस पक्ष मासादिको अपने लाभकारी माने जाते हैं तैसेही पक्ष मासादिमें पापकार्य हुवे होवे उसीका पश्चात्ताप करके उसीकी आलोचना लेने में आती है और उसी पक्ष मासादिको अपने हानिकारक समझे जाते हैं और एक पक्षके १५ राइ तथा १५ देवसी और एक पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आता है तैसेही एक मासमें ३० राइ तथा ३. देवती और दो पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आते हैं मो तो प्रत्यक्ष भनु सबसे प्रसिद्ध है इसलिये एक मातके ३० दिनों में सब संसार व्यवहार और पुण्य पापा कार्य हाते तोता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] महाशयजी उसीकी गिनतीका निषेध करते हैं सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक वृथा है इस बातको पाठकवर्ग भी स्वयं विचार सकते हैं और तीनो महाशयोंने भो ऊपर की बात संबन्धी बाललीलाकी तरह लेख लिखा था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ १४२/१४३ छप गई है सो पढ़ने से विशेष निःसन्देह हो जावेगा ; और ( जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्रीके प्रति निष्फल है किन्तु लेना लेजाना आदि गृहकार्य्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों ) इन अक्षरों करके सातवें महाशयजीने देवपूजा मुनिदान आवश्यकादि ३० दिनोंमें धर्मकार्य्य होते भी पर्युषणादि धर्मकाय्यौमें ३० दिनों का एक मासको गिनती में निषेध करनेके लिये अधिक मानको नपुंसक ठहरा करके बालजीवोंको अपनी विद्वत्ताको चातुराई दिखाई है सेा तो निःकेवल उत्सूत्र भाषण करके गाढ़ मिध्यात्वते संसार वृद्धिका हेतु किया है क्योंकि श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने जैसे मन्दिरजी के ऊपर शिखर विशेष शोभाकारी होता है उसी तरह कालका प्रमाणके ऊपर शिखररूप विशेष शोभाकारी कालचूलाकी उत्तम ओपमा अधिक मासको दिई है और अधिकमास को गिनती में सामिल ले करकेही तेरह मासांका अभिवर्द्धित संवत्सर कहा है जिसका विस्तारसें खुलासा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ४८ से ६५ तक उपगया है तथापि सातवें महाशयजीने श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घनरूप तथा आशातना कारक और पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़ करके अधिक मासको नपुंसककी हलकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat में www.umaragyanbhandar.com Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ००४ [ भोषमा लिखके अधिक मासकी हिलना करो और संसार वृद्धिका कुछ भी भय न किया सो वड़ेही अफसोसकी बात है; और वैष्णवादि लोग भी अधिकमासको दानपुण्यादि धर्मकाय्यौमें तो बारह मासांसे भी विशेष उत्तम " पुरुषो - तम अधिक मास” कहते हैं और उसीकी कथा सुनते हैं और दानपुण्यादि करते हैं और पञ्चाङ्गमें भी तेरह मास, aatr पक्षका वर्ष लिखते हैं सो तो दुनिया में प्रसिद्ध है तथापि सातवें महाशयजी अधिक मासको नपुंसक कहके उसको गिनती में निषेध करते हुवे, तेरहमा अधिक मासको सर्वथाही उड़ा देते हैं और दुनियाके भी विरुद्धका कुछ भी भय नहीं करते हैं से भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका नमूना है क्योंकि सातवें महाशयजी काशी में बहुत वर्षोंसे ठहरे हैं और अधिक मास होने से पुरुषोत्तम अधिक मासके महात्म की कथा काशीमें और सब शहरोंमें अनेक जगह बंधाती है सो तो प्रसिद्ध है और जैनशास्त्रानुसार तथा लौकिक शास्त्रानुसार धर्मकायों में अधिक नाम श्रेष्ठ है, तथापि सातवें महाशयजी नपुंसक ठहराते हैं से तो ऐसा होता है कि किसी नगर में एक शेठ रहता था, सो रूपलावण्य करके युक्त और धर्मावलम्बी था इसलिये उसीने परस्त्री गमनका और वेश्या के गमनका वर्जन किया था, सो शेठ किसी अवसर में बजारके रस्ते से चला जाता था उसी रस्तेमें कोई व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मकान आया, तब वह शेठ उसीका मकान के पासमें हो करके आगेको चला गया परन्तु उसीके मकानपर न गया तब उस शेठको देखकर वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०१ ] व्यभिचारिणी स्त्री और वेश्या कहने लगी कि, यह तो नपुंसक है इसलिये हमारे पास नहीं आता है । अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि जैसे उस व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मन्तव्य एस शेठसे परिपूर्ण न हुवा तब उसीको नपुंसक कहके उसीकी निन्दा करी परन्तु जो विवेकबुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होवेंगे सैा तो उस शेठको नपुंसक न कहते हुवे उत्तमपुरुष ही कहेंगे, तैसेही सातवें महाशयजी भी अधिक मासको faraiमें लेनेका निषेध करनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक कुयुक्तियों का संग्रह करते भी अपना मन्तव्यको सिद्ध नहीं कर सके तब नपुंसक कहके अधिक मासकी निन्दा करी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घन होनेसे संसार वृद्धिका भय न किया परन्तु जो विवेक बुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होयेंगे सेा ता अधिक मासको नपुंसक न कहते हुवे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार विशेष उत्तमही कहेंगे सा तत्व पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ; और अधिक मासको नपुंसक कहके धर्म कार्योंमें निवेध करनेके लिये चौथे महाशयजीने भी उत्सूत्र भाषण रूप कुयुक्तियों के संग्रहवाला लेख लिखके बाल जीवोंका मिथ्यात्व में गेरनेका कारण किया था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ट २०० से २०४ तक अच्छी तरह से खुलासा पूर्वक छप गई है सो पढ़नेसे विशेष निःसन्देह हो जावेगा ;और जैसे धर्मी पुरुषों को पर स्त्री देखने में अभ्धेकी तरह होना चाहिये परन्तु देव गुरुके दर्शन करने में तो ५१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०२ ] धार आंख वालेकी तरह हो जाना चाहिये तैसेही यह शेठ पुरुष है परन्तु पर मत्री के गमनका और वेश्याके गमनका वर्जन करनेवाला धर्मावलम्बी होनेसे उनके साथ मैथुन सेवन करनेमें तो नपुंसककी तरह हैं परन्तु अपने नियमका प्रतिपालन करके ब्रह्मचर्य धारण करने में तो समर्थ होनेसे उत्तम पुरुषकी तरह है अर्थात् आपही उस गुणसे उत्तम पुरुष हैं इसी न्यायानुसार यद्यपि अधिक मास भी गिनतीके प्रमाणका व्यवहारमें तो बारह मासों के बरोबरही पुरुष रूप है उसीमें वैष्णव लोग दान पुण्यादि विशेष करते हैं और उसीके महात्म्यकी कथा सुनते हैं इसीलिये उसीको पुरुषोत्तम अधिक मास कहते हैं । और श्रीजैन शास्त्रों में भी मन्दिरके शिखरवत् कालका प्रमाणके शिखर रूप उत्तम ओपमा अधिक मासको है। उसीमें मुहूर्त नैमित्तिक विवाहादि भारम्भ वाले संसा. . रिक कार्य नहीं होते हैं परन्तु धर्म कार्य तो विशेष होते हैं इसलिये उपरोक्त न्यायानुसार मुहूर्त नैमित्तिक आरम्भ वाले संसारिक कार्यों में तो अधिक मास मपुंसककी तरह है परन्तु धर्म कार्यों में तो विशेष उत्तम होनेसे सबसे अधिक है इसलिये इसका अधिक मास ऐसा नाम भी सार्थक है तथापि धर्म कार्यों में और गिनतीका प्रमाण में उसीको नपुंसक ठहरा करके अधिक मासकी निन्दा करते हुए उसीकी गिनती निषेध करते हैं तो वह व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका अनुकरण करनेवाले हैं सा पाठकवर्ग विचार लेवेंगे और अब सातवें महाशयजीके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूंपर्युषणा विधारके छ8 पष्टको १० वीं पंक्तिसे सातवें पृष्टकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०३ ] चौथी पंक्ति तक लिखा है कि-(जन पञ्चाङ्गानुसार तो एक युगमें दो ही अधिक मास आते हैं अर्थात् युगके मध्यमें आषाढ़ दो होते हैं और युगान्त में दो पौष होते हैं। दो श्रावस्म दो भाद्र और दे। आश्विन वगैरह नहीं होते । इस भावकी सूचना देने वाली पाठ देखो:"जई जग मज्जे तो दोपोसा जई जग अन्ते दो आसाढ़ा" यद्यपि जैन पञ्चाङ्गका विच्छेद हो गया है तथापि युक्ति और शास्त्र लेख विद्यमान है) सातवें महाशयजीका इस लेख पर मेरेको इतनाही कहना है कि-शास्त्रके पाठसे एक युगमें दो अधिक मास होनेका आप लिखते हो सो यह दोनों अधिक मास जैन शास्त्रानुसार गिनती में लिये जाते थे तो फिर ऊपरमेंही "कुशाग्रह बुद्धि आज्ञा. निबद्ध हृदय आचार्योंने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है" ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा विचारके सब लेख में अधिक मासकी गिनती निषेध क्यों करते हो क्या आपको शास्त्रकी वाक्य प्रमाण नहीं है, यदि है तो आपका निषेध करना संसार सुद्धिका हेतु भूत उत्सूत्रभाषण होनेसे बाल जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने वाला है से विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार सकते हैं___ और शास्त्र के पाठमें तो युगके मध्यमें दो पौष और युगान्तमें दो आषाढ़ खुलासे कहे हैं तथापि सातवें महाशयजी युगके मध्यमें दो आषाढ और युगान्तमें दो पौष लिखते हैं सो तो बहुत वर्षों से काशी में अभ्यास करते हैं ...इसलिये विद्वत्ताके - अजीर्णतासे उपयोग शून्यताका कारण है ; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और श्रीचन्द्रप्रजप्ति, श्रीसूर्यप्राप्ति, श्रीजब द्वीप प्रअधि और भोज्योतिषकरंडपयश वगैरह शाखानुसार तथा उनकी मात्यायोंके अनुसार अधिक मास होनेका कारण का नया विनतीका प्रमाणको जो सातवें महाशयजी किसी महगुरुसे पर तात्पर्यापको समझते और श्री भगवतीजी श्रीभनुयोगद्वार बगैरह शास्त्रानुसार समय, आवलिकादि कालको मायाको विचारते तो अधिक मासकी गिमती निषेध कदापि नहीं करते और दो प्रावण, दो भाद्र, दो भाचिन वगैरह नहीं होमेका लिखने के लिये लेखनी भी नहीं चलाते से पाठक वर्ग विचार सधैगे :____ और भी मागे पर्युषणा विचारके सातवें पृष्ठमें लिखा है कि (लौकिक पञ्चाङ्गानुसार अधिक मासको लेखामें गिमने धाले महाशयोंसे पूछता हूं कि यदि माश्चिन दो होंगे तो साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणान्तर सत्तरवें दिनमें चौमासी प्रति. क्रमण करोगे कि नहीं, यदि नहीं करोगे तो समवायाङ्ग सत्रके पाठकी क्या गति होगी? अगर चौमासीका प्रतिक्रमण करोगे तो दूसरे आश्विन मुदी पूर्णमासीके पीछे विहार करना पड़ेगा। आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे तो श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें न गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान्की भाशाके अनुसार भाद्र सुदी चौथके रोज साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते ) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि-जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार वर्ताव करनेको पूर्वाचार्यों की आज्ञा है इसलिये कालानुसार श्रीजैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०५ 1 शासन में लौकिक पञ्चाङ्ग मुजबही तिथि, वार, घड़ी, पल, नक्षत्र, योग, सूर्योदय, दिनमान, तिथिकी हनी, वृद्धि, राशि चन्द्र, पक्ष, मोस, मुहूर्त वगैरह से संसार व्यवहारमें और धर्म व्यवहारमें वर्ताव करनेमें आता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्गमें जिस मासकी वृद्धि होवे उसीको मान्य करके उसी मुजब संसार व्यवहारमें और धर्म व्यवहारमै वर्ताव होनेका प्रत्यक्षमें बनता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्गमें दो श्रावण, दो भाद्रपद और दो आश्चिम वगैरह होवे उसी के गिनतीको निषेध न करते हुवे प्रमाण करमा सो तो पूर्वाचार्योकी आज्ञानुसार तथा युक्ति पूर्वक और प्रत्यक्ष अनुभव से स्वयं सिद्ध है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध करने वाले अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करने वाले प्रत्यक्षमें बनते है तो तो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ; and और दो आश्विन होनेसे साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणके बाद १० दिने धीमासी प्रतिक्रमण करके दूसरे आश्विनमें विहार करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अधिक मास होनेसे साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणके बाद १०० दिने कार्त्तिक चौमासी प्रतिक्रमण करके विहार करने में आता है सेा शास्त्रानुमार और युक्ति पूर्वक न्यायकी बात है इसलिये कोई भी दूषण नहीं लब सकता है इसका खुलासा इसी ही ग्रन्थ के पृष्ठ ३५९ ३६० में छप गया है - और "समवायाङ्ग सूत्रके पाठकी क्या गति होगी" सातवें महाशयजीका यह लिखना अभिनिवेशिक मिथ्या. ast प्रगट करने वाला उत्सूत्र भाषण रूप संसार वृद्धिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६] हेतु भूत है क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ तो श्रीगण धर महारानका कहा हुआ है और धार मासके सम्बन्ध घाला है इसलिये उसीकी तो सदाही अच्छी गति है और चार मासके वर्षाकालमें उसी मुजब वर्तने में आता है परन्तु सातवें महाशयजी सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में पांच मासके वर्षाकालमें भी उसी पाठको स्थापन करने के लिये सूत्रके पाठ पर ही आक्षेप करते हैं और बाल जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरते हैं सो क्या गति प्राप्त करेंगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और “ आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे यह भी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्या है क्योंकि हम तो आश्विन मासको लेखा में गिन. करके १०० दिन कायम रखते हैं इस लिये मिथ्या भाषण करनेसे महाब्रतके भङ्गका सातवें महाशयजीको भय लगता हो तो मिथ्या दुष्कृत देना चाहिये और “श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें न गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान् की आज्ञाके अनुसार भाद्र सुदी चौथ के रोज सम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते" सातवें महाशयजीका इस लेख पर मेरेको इतनाही कहना है कि मास वृद्धिके अभावसे आषाढ चौमासीसे पचास दिने भाद्र शुदी चौथको पर्युषणामें सांवत्सरिक प्रतिक्रमण वगैरह करनेको तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा है परन्तु पचासवें दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करना नही कल्पता इसलिये दो श्रावण होनेसे श्री कल्पसत्रके तथा उन्हाँकी व्याख्यायों के अनुसार ५० दिमकी गिनतीसे दूसरे श्रावण में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०७ ] अथवा प्रथम भाद्र, पर्युषणा करना चाहिये परंतु मास वृद्धि दो श्रावण होतेभी ८० दिने भाद्र शुदी में पर्युषणा करके भी निर्दुषण बनने के लिये अधिक मासके ३० दिनोंको गिनतीमे छोड़करके ८० दिनके ५० दिन गच्छपक्षी बाल जीवोंके आगे कहके आप आज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकते है क्योंकि श्रीभगवतीजी श्रीअनुयोगद्वार श्रीज्योतिषकरंडपयन्न और नव तत्व प्रकरणादि शास्त्रानुसार तथा इन्हींकी ब्याख्यायोंके अनुसार समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मासादिसे जो काल व्यतीत होवे उसी कालका समय मात्रभी गिनतीमें निषेध नहीं हो सकता है तथापि निषेध करनेवाले पंचांगीकी श्रद्धारहित और श्री जिनाज्ञाके उत्थापक निन्हव, मिथ्या दृष्टि-संसार गामी कहे जावे, तो फिर एक मासके ३० दिनोंको गिनतीमें निषेध करने बालेको पंचांगीकी श्रद्धा रहित और श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी कहने में कुछ भी तो दूषण मालूम नही होता है इसलिये अधिक मास के ३० दिनोंकी गिनती निषेध करने वाले मिथ्या पक्षग्राहियोंकी आत्माका कैसे सुधार होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने । इसलिये दो आश्विन होनेसे भाद्र शुदी चौथसे कार्तिक तक १२० दिन होते है जिसके 90 दिन अपनी मति कल्पनासे बनाने वाले और दो श्रावण होनेसे माद्रतक ८० दिन होते हैं जिसके तथा दो भाद्र होनेसे दूसरे भाद्र तक ८० दिन होते हैं जिसके भी ५० दिन अपनी मति कल्प. नासे बनाने वाले अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी होनेसे आत्मार्थियोंको उन्होंका पक्ष छोड करके इस ग्रन्थको सम्पूर्ण पढ़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४०८ ] कर सत्य बातको ग्रहण करना चाहिये जिसमें आत्मकल्याण है नतु अधिक मासके गिनतीका निषेध रूप अंध परंपराका मिथ्यात्व में ; , और इसके आगे फिरभी मासष्टद्धि होतेभी भाद्र पदमें पर्युषण ठहराने के लिये पर्युषणा विचारके सातवें पृष्ठके अन्त ते आठवें पृष्ठ तक लिखा है कि- (पर्यवणाकल्पचूर्णि तथा महानिशीथचूर्णिके दसवें उद्देशेमें इसी तरहका पाठ है, “अम्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्नकालगेण सावाहणो भणिओ, भट्टवयजु रहपञ्चमीए पज्जोसवणा " इ० तथा “ तत्थ य सालवाहणो राया, सेा अ सावगो, सो अ कालगज्ज' इंतं सैाऊण निगओ, अभिमुद्दो समयसंघो अ महाविभूईए पविट्ठो कालगज्जो, पविट्ट हिंअभणिअं भद्द्वयमुद्ध पचमीपज्जोसविज्जई समण संघेण पडिवरणं ता रराणामणिअं तद्दिवसं गम लोगानुवत्तीए इंदो अणुजाणेयबो होहिति साहू चेइए अणुपज्जुवासिस्स तो हट्ठीए पज्जेोसवणा किज्जइ, आयरिएहिं भणिअं न वट्ठिति अतिक्कनितुं, ताहे रगणा भणिअं ला अणागए चउत्थीह पज्जोसबिति, आयरिहि भणिअं, एवं भवड, ताई उत्थीए पज़्जोसवियं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्पी पवत्तिआ, सा वाणुमता सव्वसाहूणमित्यादि । , " ऊपरकी पाठ साक्षात् सूचित करती है कि भाद्र खुदी atest सम्बत्सरिक प्रतिक्रमण वगैरह करना चाहिये । किन्तु जब दो श्रावण आवें तो श्रावण सुदी चौथके रोज साम्वत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो आग्रह करना क्या ठीक है ? दो भाद्र भावेंता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ gee ] किसी तरह पूर्वोक्त पाठका समर्थन करोगे। परनुसत्तर दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करना चाहिये ). __ ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाताहूं कि-हे सज्जन पुरुषो मातवे महाशयजोका ऊपरके लेखको मैं देखताहूं तो मेरेकोबड़ेही खेद केसाथ आश्चर्या उत्पन्न होता है कि, सातवें महाशय श्रोधर्मविजयजीने शास्त्रविशारदजैनाचार्यकी पदवी कोधारणकरी है परंतुअपनेकदाग्रहके कल्पित पक्षकीबातको मायावृत्तिसे स्थापित करके बालजीवोंको श्रीजिनाजासैभ्रष्टकरने के लिये उन्होंमें अभिनेवेशिक मिथ्यात्वका बहुतही संग्रहहोनेसे उसपदवीको सार्थक न करसके परन्तु शास्त्रविराधक उत्सूत्रभाषणाचार्यकी पदवीके गुण तो (सातवें महाशयजीमें) प्रगट दिखते है क्योंकि देखो सातवें महाभयजीने मास वृद्धि दो श्रावण होतेभी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करने के लिये पर्युषणाकल्पचूर्णिका और महानिशीथके दशवे उद्देशकी चूर्णिका पाठ लिख दिखाया परंतु शास्त्रकार महाराजोके विरुद्धार्थमें अधूरी बात भोले जीवोंको दिखानेसे संसारवृद्धिका कुछभी भय हृदयौनलाये मालूम होता है क्योंकि प्रथमतो महानिशीथकी चूर्णिका नाम लिखा सोतो उपयोग शून्यताके कारणसे मिथ्या है क्योंकि महानिशीथकी चूर्णि नहीं किंतु निशीथसूत्रकी चूर्णि है और पर्युषणाकल्प चर्णिमें तथा निशीथसूत्रकीचूर्णिमें खास पर्युषणाकेही संबंधकी व्याख्या में अधिक मासको गिनती में प्रमाण किया है और मास वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीस दिने पर्युषणाकही है तैसेही मास वृद्धिके अभावसे चंद्र संवत्सर, १० दिने पर्युषणा कही है और पञ्चक परिहासीका कालमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] सत्कष्टसे १८० दिनके छ मासका कल्प कहा है और मास पद्विके अभावसे आषाढ़ चौमासीसै पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दसवे पञ्चकमें पचासवें दिन भाद्र पद शुक्ल पञ्चमीको पर्युषणा करने में आती थी परंतु कारणसे श्रीकालकाचार्यजीने एकौन पञ्चाशवे (४९) दिन भाद्र शुदी चौथको पर्युषणा करी है जिसका संबंधी विस्तार पूर्वक दोनु चर्णिमें कहा है सो दोमुं चूर्णिके पर्युषणा सम्बन्धी बिस्तारवाले दोनु पाठ भावार्थ सहित इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ९२ से लेकर १०४ तक छप गये है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। परन्तु बड़ेही अफसोसकी बात है कि सातवें महाशयजी दोनुं चूर्णिके आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके फिर मास सृद्धिके अभावसे ४९ वे दिने पर्युषणा करनेवाले पाठको मास सद्धि दो श्रावण होते भी लिखके दोनों चूर्णिकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में यावत् ८० दिने पर्युषणा स्थापन करनेके लिये बाल जीवोंको अधूरे पाठ लिख दिखाते कुछ भी लज्जा नहीं पाते हैं सो भी कलयुगि विद्वत्ताका नसूना है इसलिये मास वृद्धिके अभाव के विस्तार वाले सब पाठोंको छोड़ करके मास वृद्धि होते भी उसीमेंसे अधूरपाठ सातवेंमहाशयजीने लिखे है सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे शास्त्रविराधक उत्सूत्र भाषणाचार्य के गुण प्रगट दिखाये है सो तो विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार लवंगे, और सुप्रसिद्ध विद्वान् तीसरे महाशयजी श्रीविनय विजयजीने भी, पण्डितहर्षभूषणजीकी और धर्मसागरजीकी धूर्ताई में पड़कर अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे ऊपरको दोनों चूर्णिके मधूरे पाठ श्रीसुखबोधिका वृत्तिमें लिखे है उसी तरहसे वर्तमानमें सातवें नहाशयजीने भी किया परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४११ ] पर भवका और विद्वानोंके आगे अपने नामको हासो करानेका कुछ भी पूर्वापरका विचार न किया, अन्यथा, अन्ध परम्पराके मिथ्यात्वको पुष्टीकारक शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें ऐसे अधूरे पाठ लिखके और कुयुक्तियोंका संग्रह करके बाल जीवोंको सत्य बात परसे श्रद्धा भ्रष्ट करनेके लिये कदापि परिश्रम नहीं करते, सो तो निष्पक्षपाती सज्जनोंको विचार करना चाहिये; और "जब दो श्रावण आवे तो श्रावण सुदी चौधके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो क्या आग्रह करना ठीक है" यह भी सातवें · महाशयजीका लिखना गच्छपक्षी बाल जीवोंको मिध्यात्व के भ्रममें गेरनेके लिये अज्ञताका अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका सूचक है क्योंकि दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युचणा करना ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिया है तो फिर दो श्रावण होते भी शाद्रपदमें पर्युषणा करनेका वृथा क्यों पुकारते है और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो श्रीकल्पसूत्र के मूलपाठानुसार तथा उन्हीं की अनेक व्याख्यायोंके अनुसार और युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो इसी ग्रन्थकी आदिमेंही विस्तारसे लिखने में आया है और खास सातवें महाशयजी भी श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठकी तथा उसीकी वृत्तिको हर वर्षे पर्युषणामें वांचते हैं उसीमें जैन पचाङ्गके अभाव से "जैनटिप्पनकानुसारेण मतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते च आषाढ एवं वर्द्धते नान्येनामास्तहिप्यनकंतु अधुना सम्यग् न ज्ञायतेऽतः पोश निर्दिनैः पशुबना सङ्गते - मुक्तेति बद्धा:-" ऐसे अक्षर किरणावली वृत्तिमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat MANGAYON www.umaragyanbhandar.com Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१२ ] तथा दीपिका वृत्ति और सुखबोधिका वृत्तिमै अपने ही गच्छके विद्वानांने खुलासा पूर्वक लिखे हैं सो सातवें महाशयजी अच्छी तरहसे जानते हैं और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावण में ५० दिन पूरे होते हैं इसलिये " जब दो श्रावण आवे तो श्रावण सुदी चौथके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो आग्रह करना क्या ठीक है" सातवें महाशयजीका यह लिखना मायावृत्तिसे अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको प्रगट करनेवाला प्रत्यक्ष सिद्ध होगया सो पाठकवर्ग भी विचार लेखेंगे, — - और ( दो भाद्र आवे तो किसी तरह पूर्वोक्त पाठका समर्थन करोगे परमसत्तर दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करना चाहिये ) सातवें महाशयजीके इस लेखपर भी मेरेको इलनाही कहना है कि- दो भाद्रआवे तब पूर्वोक्त पाठके अभिप्रायसे ५० दिनकी गिनती करके प्रथम भाद्रपद मे पर्युषणा करना सो तो न्यायकी बात है परन्तु दो भाद्र होते भी पिछाडीके 90 दिन रखनेके लिये दूसरे भाद्र में पर्युषणा करनेवालोंकी बड़ी भूल है क्योंकि पूर्वोक्त पाठमें कारण योगे ४० वें दिन पर्युषणा करी है परन्तु ५१ वें दिन भी नहीं करी है इस लिये दो भाद्र होनेसे दूसरे भाद्र में पर्युषणा करने वालोंको ८० दिन होते हैं इसलिये श्रीजिनाशा विरुद्ध बनता है और चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल में ५० दिने पर्यु - षणा करनेसे पिछाड़ी 90 दिन रहनेका दोन चूर्णिके पाठ खुलासा पूर्वक कहा है सो तो इसीही ग्रन्थ के पृष्ट ९४ और वैसे पाठ छप गये हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी पिकाडीके 90 दिन रखनेका आग्रह करने वाले अज्ञानियोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१३ ] पंक्तिमें गिनने योग्य है सो तो इस ग्रन्थ को संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार सकते हैं : और दो श्रावण तथा दो भाद्रपद और दो आश्विन हो तोभी आषाढ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्र में पर्युषणा करनी चाहिये जिससे पिछाडी १०० दिने चौमासी प्रतिक्रमण करनेमें आवे तो कोई दूषण नहीं है किन्तु शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इसका विशेष विस्तार पहिलेही छप चुका है। और नवमे पृष्ठके मध्य में तिथिसंबंधी लिखा है जिसकी तो समीक्षा आगे लिखंगा परन्तु आठवें पृष्ठके अन्तमें तथा नवमे पृष्ठके आदि अन्त में और दशवे पृष्ठकी आदिमें छट्ठी पंक्ति तक लिखा है कि(जैसे फाल्गुन और आषाढकी वृद्धि होने पर दूसरे फाल्गुनने और दूसरे आषाढमें चौमासी प्रतिक्रमणादि करते हो, उसी तरह अन्य अधिक मासमें भी दूसरेहीमें करना वाजिब है। वैसा नहीं करोगे तो विरोधके परिहार करने में भाग्यशाली नहीं बनोगे। एक अधिकमासमानने में अनेक उपद्रव खरे होते हैं और अधिकमासको गिनती में न लेनेवालेको कोई दोष नहीं है । उसी तरह तुम भी अधिक मासको निःसत्व मानकर अनेक उपद्रव रहित बनो। इस रीतिको व्यवस्था रहते हुए कदाग्रह न छटे तो भले स्वपरम्परा पाली परन्तु स्वमन्तव्य में विरोध न आवे ऐसा वर्तावकरना बुद्धिमानपुरुषोंका काम है। जैसे फाल्गुनके अधिक होनेपर दूसरे फाल्गुनमें नैमित्तिक कृत्य करते हो उसी तरह अन्य अधिकमास आने पर दूसरे महीने में मितिक कृत्योंके करनेका उपयोग रक्सो कि जिसमें कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] रोध न रहे । दो श्रावण हो,अथवा भाद्र हो तथा दो आश्विन होतोभी कोई विरोध नहीं रहेगा। तीर्थंकर महारा जकी आज्ञा सम्यक प्रकारसे पलेगी) अपरके लेखमें सातवें महाशयजीने अधिक मासको निःसत्व मान कर गिनतीमें निषेध किया तथा गिनतीमें लेनेवालाँको अनेक उपद्रव दिखाये और गिनतीमें नहीं लेनेवालोंको दूषण रहित ठहराये फिर मास वृद्धि होनेसे दूसरे मासमें नैमित्तिक कृत्य करनेका भी ठहराया इसपर मेरेको बड़ेही आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सातवें महाशयजीके विद्वत्ताको विवेक बुद्धि किस खाइमें चली गई होगी सो ऊपरके लेखमें विवेक शून्य होकर पूर्वापरका विचार किये बिनाही उटपटांग लिख दिया क्योंकि देखो सातवें महाशयजी यदि अधिक मासको निःसत्व मान करके गिनतीमें नहीं लेते होवे तबतो दो प्रावण, दो भाद्र, दो आश्विन, दो फाल्गुण और दो आ. षाढ़ मासोंका उन्हांका लिखनाही वन्ध्याके पुत्र समान हो जाता है और मास शुद्धि होनेसे दो श्रावणादि लिखते हैं तथा उसी मुजबही वर्ताव करते हैं तब तो अधिक मासको निःसत्व मान करके गिनतीमें निषेध करना ( गिनतीमें नहीं लेना ) सो ममजननीवंध्या समान बाल लीलाकी तरह होजाता है क्योंकि दो श्रावणादि लिखके उसी मुजब वर्ताव करना फिर मास इद्धि की गिनती निषेध करना यहतो विवेक शून्यके सिवाय और कौन होगा क्योंकि दो प्रावणादि लेखके उसी मुजब वर्ताव करते हैं इसलिये पीकी गिनतीका निषेध करना तथा गिमतीमें डेमे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९५ ] वालोंको अनेक उपद्रव दिखाने और आप दोन मासों को लिखके उसी मुजब वर्ताव करते भी, उसीको गिनतीमें न लेते हुये प्रत्यक्ष माया वृत्तिसे दूषण रहित बनना से सब बाल जोवोंको कदाग्रहमें फंसाकर उत्सूत्र भाषणसे संसार परिभ्रमणका हेतु है सो तो निष्पक्षपाती तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे;____और मास वृद्धि होनेसे मास तिथि नियत सब नैमित्तिक कृत्योंको दूसरे मासमें करनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं से भी अन्जताका सूचक है क्योंकि वर्तमानमें मास इद्धि होनेसे मास तिथि नियत कृत्य, आगे पीछे दोनों मासमें करनेमें आते हैं याने कृष्ण पक्षके तिथि नियत कृत्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्षमें करनेमें आते हैं और शुक्ल पक्षके तिथि नियत कृत्य दूसरे मासके दूसरे शुक्ल पक्षके करने में आते हैं : मित्रवत् न्यायसे अर्थात्-एक नगरमें सज्जनादि गुनगुत व्यवहारिया रहता था उसीने अपने भोजनकी तैयारी करी उसी समय उसीके मित्रका आगमन हुआ तब दूसरा भोजन बनानेका अवसर न होनेसे अपने भोजनमें से आधा भित्रको दिया और आधा आपने ग्रहण किया,उसी दृष्टान्तके न्यायसे एक नगर रूपी संवत्सर उसीमें सज्जनादि गुनयुक्त व्यवहारियावत् मास उसीके भोजन रूपी नैमित्तिक कृत्य और জঘিষ্ণ লাল কী লিঙ্কা জালাল হীন জাঘ জাথ नैमित्तिक कार्य बांट लिये समजो जैसे दो कार्तिक होगे तब श्रीसंभवनाथस्वामीके केवल ज्ञान कल्याणकके श्रीपनप्रभुजीके जन्मकल्याणकके तथा दीक्षाकल्याणकके, श्रीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] मिनाथजीके च्यवन कल्याणकके और श्रीमहावीरस्वामीके मोक्षकल्याणकके उच्छव तपश्चर्यादिकार्य, तथा दीपमालिका (दीवाली) और उसीके सम्बन्धीकार्य प्रथम कार्तिक मासके प्रथम कृष्ण पक्ष में करने में आवेंगे, दो चैत्र होनेसे श्रीपार्ष. नाथजीके केवल ज्ञानादि कार्य प्रथम चैत्रमें तथा श्रीवर्द्धमा. मस्वामीके जन्मादिके तथा ओलियों वगैरह दूसरे चैत्र में और दो आषाढ होनेसे श्रीआदिनाथजीके च्यवनादिके कार्य प्रथम आषाढमें और श्रीवर्द्धमानस्वामीके च्यवनादिके कार्य तथा चौमासी वगैरह दूसरे आषाढमें इसी तरह से सब अधिक मासों में समझना चाहिये । और इस बातका विशेष खुलासा पांचवें महाशयजी म्यायरत्नजीके लेखकी समीक्षामें भी लिखने में आया है सो इसीही ग्रन्थके पृष्ठ २३४।२३५।२३६ में छप गया है सो पढ़नेसे विशेष निर्णय हो जायेंगा; और मासवृद्धि होनेसे ऊपर मुजबही कल्याणकादि तपश्चर्या करने के लिये खास सातवें महाशयजीकेही पूर्वज श्रीतपगच्छमें सुप्रसिद्ध श्रीविजयसेनसूरिजीने भी कहा है तथाहि श्रीसेनप्रश्ने सप्तसप्तति (99) पृष्ठे यथा: प्रश्न:-चैत्रमास वृद्धौ कल्याणकादि तपः प्रथमेद्वितीये वा मासिकार्या। उत्तरम्-प्रथमचैत्रासित द्वितीयचैत्रमित पक्षाभ्यां चैत्रमास सम्बन्धी कल्याणकादि तपः श्रीतातपादैरपि कार्यमाणं दृष्ठमस्ति तेन तथैवकार्यमित्यादि। और लौकिकजन भी दो भाद्रपद होनेसे श्रीकृष्णाजीको जन्माष्टमी प्रथम भाद्रपदके प्रथम पक्षमें मानते हैं तथा दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] आश्विन होनेसे श्राद्धपक्ष प्रथम आश्विनमें और दशहरा दूसरे आश्विनमें, इसी तरह से सब अधिक मासांके कारण मास नैमित्तिक कार्य आगे पीछे दोनों में मानते हैं। परन्तु सातवें महाशयजी नैमित्तिक कार्य केवल दूसरे मासमें ही करनेका लिख करके दो कार्तिक होवे तब दिवाली वगैरह कृष्णपक्षके नैमित्तिक कार्य दूसरे कार्तिकमें तथा दो पौष होवें तब श्रीचन्द्रप्रभुजीके,श्रीपार्श्वनाथजीके जन्म, दीक्षारि कल्याणक दूसरेपौषमें और दो चैत्रहोनेसे श्रीपार्श्वनाथजीके केवल ज्ञान कल्याणकको दूसरे चैत्रमें इसी तरहसे कृष्ण पक्षक नैमित्तिक कार्य भी दूसरे मासमें ठहराते हैं सो शाखविरुद्ध होनेसे अजताका कारण है क्योंकि ऊपरोक्त लेखानुसार ऊपर कार्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्ष में होने चाहिये से तो न्याय दूष्टि वाले विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे और उपरोक्त नैमित्तिक कार्योंके लेखसे दो भाद्रपद होनेसे पर्युषखा भी दूसरे भाद्रपदके दूसरे शुक्लपक्षमें सातवें महाशयजी ठहराते हैं से भी निषकेवल अपनी अज्ञानता को प्रगट करते हैं क्योंकि मास नैमित्तिक कार्य अधिक मास होनेसे आगे पीछे दोनों मासमें करने में आते हैं पर पर्युषणा वैसे नहीं हो सकती है क्योंकि पर्युषणा तो दिनों के प्रतिबद्ध होनेसे अषाढ़ चौमासीसे ५० दिनकी गिनतीने अवश्य करके करनेका अनेक शास्त्रों में प्रगट पाठ है इसलिये दो भाद्रपद होनेसे पर्युषणा दूसरे भाद्रपदमें नहीं किन्तु प्रथम भाद्रपदमें ५० दिनकी गिनतीसे शास्त्रोंको प्रमाण करने वाले आत्मार्थियों को करनी चाहिये और प्राचीन कालमें जैन पञ्चांगानुसार मास वृद्धि होनेसे श्रावणमें पर्यु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१८ ] षणा करनेमे आतीथी तथा वर्तमानकालमें दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने में आती है इसलिये मासद्धि होतेभी भाद्रपद प्रतिबद्ध पर्युषणा नही ठहर सकती है किन्तु दिनोंके प्रतिबद्धही गिननेसे जहां व्यवहार से ५० दिन पूरे होवे वहांही करनी उचित है इतने परभी सातवें महाशयजी अपने कदाग्रहके हठवादसे शास्त्रोंके प्रमा. णोंको छोड़ करके नैमित्तिक कार्यों की तरह दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा करनेका ठहराते हैं तोभी उन्होंको प्रत्यक्ष विरोध आता है सोही दिखावते हैं कि-खास सातवें महाशयजीके पूर्वजने अधिक मास होनेसे कृष्ण पक्ष के नैमित्तिक कार्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्ष में करनेका कहा है उसी मुजब सातवें महाशयजी पर्युषणाकरें तब तो पर्यषणाके आठदिनोके उच्छव का भङ्ग हो जावेगा और पर्युषणामे पहिले कृष्णपक्षके चार दिनोके कार्य प्रथम भाद्रपदमें करने पड़ेगे फिर एक मास पर्यन्त मौन धारण करके पर्युषणामें पिछाड़ी के चार दिनोंके कार्य दूसरे भाद्रपदमे करें तब तो सातवें महाशयजीकी खूब विटंबना होजावे से तत्वज्ञ विवेकी जन स्वयं विचार लेवेगे:... और ओलियों छठे महीने करनेमें आती है परन्तु अधिक मास होनेसे सातवें महीने करने में आती है तथा चौमासी चौथै महीने करनेमें आता है परन्तु अधिक मास होनेसे पांचवें महीने करने में आता है सो तो न्यायपूर्वक युक्ति की बात है परन्तु पर्यषणा तो आषाढ चौमासीसे ५० दिने अपश्य करके करनेका कहा है, इसलिये अधिक मास हो तो भी ५० वें दिनकी रात्रिको भी उल्लंघनकरनेसे मिथ्या. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] स्वकी प्राप्ति होती है तो फिर दूसरे भाद्रपदमें ८० दिने पर्य। पणा करना सो तो कदापि श्रीनिमाजामें नहीं आ सकता है से भी विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे;- . __ और शास्त्रानुसार भावपरंपरा करके तथा युक्तिपूर्वक और लौकिक व्यवहार मुजब अधिक मास होनेसे नैमित्तिक कार्य आगे पीछे दोनों मासमे करने में आते हैं सोता सातवें महाशयजीके पूर्वजने भी लिखा है जिसका पाठ ऊपरही लिखने में आया है तथापि सातवें महाशयजो प्रथम मासको छोडकरके दूसरे मासमें नैमित्तिक कार्य करनेके लिये “वैसा नहीं करोगे तो विरोधके परिहार करने में भाग्य. शाली नहीं बनोगे ऐसे अक्षर लिखके प्रथम मासमें नैमित्तिक कार्य करने वालोंके विरोध दिखाते हैं से कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे झाले जीवोंको भ्रममे गेरने के लिये अपने पूर्वजके वचनको भी विरोध दिखाने वाले सातवें महाशयजी जैसे कलियुगि विनीत प्रगट हुवे है तो अपने पूर्वजोंको खेाटे कहके आप अले बनते हैं इसलिये आस्मार्थियों को इन्हकी कल्पित बात प्रमाण करने योग्य नही है,___ और (कदाग्रह न छूटे तो भले खपरंपरा पाले) सातवें महाशयजीका यह भी लिखना भोले जीवोंको कदाग्रहमें कंसाकर मिथ्यात्वको बढ़ानेवाला है सौता इसीही ग्रंथके पृष्ठ २ से ३४२ तकका लेख पढनेसे मालम हो सकेगा परंतु सातवें महाशयजीने अपरके लेखमें अपने अन्तरके भावका सूचन क्रिया मालूम होता है क्योंकि सातवें महाशयजी बहुत बात काशी में ठहर कर अपनी विद्वत्ता प्रगट कर रोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२० ] इसलिये भोले जीव जानते है कि सातवें महाशयजीकी तरफ से पर्युषणा विचारका लेख प्रगट हुवा है सेा शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वकही होगा परन्तु उसी लेखको तत्वज्ञ पुरुषों ने देखा तो निष्केवल शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थमें तथा उत्सूत्र भाषणोंके संग्रह वाला और कुयुक्तियोंके संग्रह वाला होनेसे अज्ञानी जीवांका मिथ्यात्वमें फंसाने वाला मालूम हुवा तब उसीकी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक समीक्षा मेरेको भव्यजीवों के उपकार के लिये इतनी लिखनी पड़ी है इसको बांधकर सातवें महाशयजोको अपनी विद्वत्ताके अभिमानसे और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके करणसै अपना मिथ्यापक्ष के कल्पित कदाग्रहको छोड़कर सत्य बात ग्रहण करनी बहुतही मुश्किल होनेसे ( कदाग्रह न छूटता भले स्व परंपरा पालो ) ऐसे अक्षर लिखके कदाग्रहको तथा शास्त्रों के प्रमाण बिना कल्पित बातोंकी अंध परम्पराको पुष्ट करके ओले जीवों को उसी में फंसाये और आपनेभी उसीका शरणाले करके अपना अन्तर मिथ्यात्त्वको प्रगट किया इसलिये इस ग्रंथकारका सब सज्जन पुरुषोंको यही कहना है कि जो अल्पकर्मी मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी होगा सोतो शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध अपने अपने कदाग्रहकी अन्ध परंपरा के पक्षका आग्रह में तत्पर न बनके इस ग्रंथके सम्पूर्ण पढ़ करके पंचांगी प्रमाण पूर्वक युक्ति सहित सत्य बातोंको ग्रहण करेगा दुसरोंसे करावेगा और बहुल कर्मो मिथ्यात्वी होगा सोता शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बातोंको जानकर केभी उसीको ग्रहण न करता हुआ अपने कदाग्रहकी अन्ध परम्परामे रहकर उसीको पुष्ट करने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२९] के लिये और सत्य बातोंका निषेध करनेके लिये नवीनधी कुयुक्तियों के विकल्प खड़े करके विशेष मिथ्यात्व फैलावेना और दूसरे भाले जीवोंको भी उसीमें फंसावेना सोती उसीकेही निवड़ कर्मों का उदय समझना परन्तु उसीमें शास्त्र कारका कोई दोष नहीं है इसलिये यहां मेरा खुलासा पूर्वक यही कहना है कि अधिकमासकी गिनती निषेध करनेवाले और गिनती प्रमाण करनेवालों को अनेक कुयुक्तियों से कल्पित दूषण लगानेवाले सातवें महाशयजी जैसे विद्वान् कहलाते भी निःकेवल अन्ध परम्पराके कदाग्रहमें पड़के बालजीवों को भी उसी में फंसाने के लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराज की और अपने पूर्वजोंकी आशातना करते हुवे पांगी प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़कर फिर शास्त्रकार नहाराजके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणों करके खूब पाखन्ड फैलाबाई और फैला रहे हैं जिससे श्रीतीर्थंकर महाराजकी आचाको उत्थापन करते हैं इसलिये अधिक मासको गिनती निषेध करनेवाले कदाग्राहियों को मिथ्यादृष्टि निन्हवेंकी गिनती गिनने चाहिये । यदि श्रीतीर्थंकर महाराजकी आज्ञाको अराधन करके आत्म कल्याणकी इच्छा होवे तो अचिक मासके निषेध करने सम्बन्धी कार्योंका निच्या दुष्कृत देकर उसीकी गिनती प्रमाण सुजध वर्तों नहीं तो उत्सूत्र भाषणोंके विपाकता भोगे बिना छूटने मुशकिल है;-- और फिरभी स्वपरम्परा पालने सम्बन्धी सातवें महाशयजीने लिखा है कि ( स्वमंतव्यने विरोध न जाये ऐसा बर्ताव करना बुद्धिमान पुरुषों का काम है) इस लेखापर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२२ ] श्री मेरेको इतनाही कहना है कि यह भी सातवें महाशयचीका लिखना अज्ञताका सूचक है क्योंकि श्रीजिनेश्वर भगवान्का कथम करा हुआ श्रीजिन प्रवचन अविसंवादी होनेसे सब गणधरों के सब गच्छोंकी एकही समाचारी होती है परन्तु इस वर्तमान कालमें तो सब गच्छ वालोंकी भिन्न भिन्न समाचारी है और शास्त्रों के प्रमाण विनाही अन्ध परम्परासे कितनी ही बातें चल रही है इसलिये शास्त्र प्रमाण बिनाको द्रव्य परम्परा पालने वालोंको तो श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध महान् विरोध प्रत्यक्ष दिखता है तथापि अपने अन्ध परम्परा के कदाग्रहको नही छोड़ते हैं फिर कुयुक्तियों से अपना कदाग्रहके inour पुष्ट करके विरोध रहित ( सातवें महाशयजी की तरह) बनना चाहते है सो तो बुद्धिमान पुरुष नहीं किन्तु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी पक्के कदाग्रही कहे जाते हैं इसलिये अपने आत्म साधनमें विरोध नही चाहनेवाले तत्वज्ञ पुरुषों को तो शास्त्र विरुद्ध अपनी परम्पराको छोड़ करके शास्त्रानुसार सत्य बातको ग्रहण करनाही परम उचित है; और पर्युषणा विचार के दशवें पृष्ठकी सातवीं पंक्तिसें दशवीं पंक्ति तक लिखा है कि ( हित बुद्धिसे लिखे हुए विषय पर समालोचना करना हो तो भले करो किन्तु शास्त्र मार्गसे विपरीत न चलनेके लिये सावधानी रखना समालोचनाको समालोचना शास्त्र मर्यादा पूर्वक करने को लेखक तैयार है ) सातवें महाशयजीके इस लेखपर भी मेरे को इतना ही कहना है कि जैसे कितनेही ढूंढ़िये तेरहा पंथी वगैरह कदाग्रही मायावृत्तिवाले धूर्त लोग अपने कदाग्रहके पक्षको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२३ ] बढ़ाने के लिये शास्त्रों के आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उसीके बीचमेंसे बिना सम्बन्धके अधूरे पाठके फिर उलट अर्थ करके उत्सूत्र भाषणोंसे तथा कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकी सत्य बातों परसे श्रद्धा भ्रष्ट करके अपने मिथ्यात्वके पाखण्ड में गेरके संसार वृद्धिका कारण करते हैं तो भी हितोपदेशसे अच्छा किया ऐसाअज्ञताके कारणसे वृषा पुकार करते हैं। तैसे ही पर्युषणा विचारके लेखकने भी किया, अर्थात अपने कदाग्रहमें मुग्ध जीवोंको फंसाने के लिये श्रीनिशीप चूर्णि वगैरह शास्त्रोंके आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उसीके बीचमेंसे शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थमें बिना सम्बन्धके अधूरे पाठ लिखके उलटे अर्थ करके उत्सूत्र भाष. णोंकी तथा कुयुक्तियों की कल्पनायोका पर्युषणा विचारक लेखमें संग्रह करके भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे हित बदिसे विषय लिखनेका ठहराते हैं सो कदापि नहीं ठहर सकता क्योंकि हितबुद्धिके बहानेमिथ्यात्व के पाखण्डकी रद्धिका कारण किया है इसलिये भव्यजीवोंके उपकारके लिये पर्युषणा विचारके लेख कीशास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक समालोचना करनी मेरेको सचित थी सो करी है जिसपर भी शास्त्रमार्गसे विपरीत न चलनेके लिये सावधानी रखनेका सातवें महा. शयजी लिखते हैं इसपर भी मेरेको इतनाही कहना है किखास आपही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे (शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक अधिक मासकी गिनती प्रमाण तथा श्रावण वृद्धिसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा और मासवृद्धिसै १३ मासके तामणे वगैरह) सत्य बातोंको ग्रहण नहीं करते हुए अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२४ ] कदाबहकी कल्पनाको स्थापन करनेके लियेऔर सत्यबातों का निषेध करने के लिये पर्युषणा विचारके लेख में उत्सूत्र भाषगोंको और कुयुक्तियोंके विकल्पोंके प्रत्यक्ष मिथ्या गप्योंको जिसके भी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक लिखनेवालेको शाख मार्गसे विपरीत न चलने के लिये सावधानी दिखाते हैं सो तो प्रत्यक्ष धूर्ताचारोका लक्षण है इमको पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेगे; और (समालोचनाकी समालोचना शास्त्र मर्यादा पूर्वक करनेको लेखक तैयार है ) सातवें महाश यजो के इस लेख पर भी मेरेको इतनाहीं कहना है कि-पञ्चांगीकी श्रद्धा रहित कदाग्रहमें आगेवान, अनिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करने वाले तथा अन्यायमें प्रवर्तने वाले होकरकेभी शास्त्रा. नुसार युक्ति पूर्वक मेरे सत्य लेखों की समालोचना आप कैसे कर सकोगे क्योंकि जो आप पञ्चागीकी श्रद्धा वाले आत्मार्थी तथा न्यायमें प्रवर्तने वाले होवो तबतो जो जो मैंने पर्युषणा विचारके लेखकी पंक्ति पंक्तिकी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्बक समालोचना करके आपके लेखोंको उत्सूत्र भाषण रूप प्रत्यक्ष मिथ्या ठहराये है और सत्य बातोंको प्रगट करी है उसीको आद्यन्त पर्यंत पढ़के अपनी उत्सूत्र भाषणोंकी और प्रत्यक्ष मिथ्या लेखोंके भूलों की श्री चतुर्विध संघ समक्ष आलोचना लेकर शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सत्य बातोंको ग्रहण करो पीछे मेरे लेखकी समालोचना करनेकी आपमें योग्यता प्राप्त होवे तब मेरे लेखकी समालोचना करनेको तैयार होना चाहिये। इतने परभी पर्युषणा विचार के सब लेखोंको आप सत्य समझते होवें तो पंक्ति पंक्तिके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] सब लेखाँको शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सिद्धकर दिखावो नहीं दिखाओ तो उसीकी आलोचना लेकर सत्य बातोंको ग्रहण करो और अपने सब लेखोंको शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सिद्ध नहीं करोंगे तथा अपनी भूलोंकी आलोचना भी नहीं लेवोंने औरसत्य बातोंको ग्रहण भी नहीं करेंगे तबतक मैंरे लेखकी समालोचना करनेकी आपमें योग्यता प्राप्त नहीं हो सकेगी लथापि आप केवल अपनी विद्वत्ताकी शर्म-केमारे, लौकिक लज्जासे अपनी उत्सूत्र भाषणोंकी तथा प्रत्यक्ष मिथ्या (पर्युषणा विचारके) लेखांकी भूलोंको छुपा करके शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सत्य बातोंके सम्बन्धका सब लेखको छोड़ करके बिना सम्बन्धका अधरा लेखकी कुयक्तियों के बिकल्पों से समालोचना करके शास्त्र मर्यादा पूर्वकके बहाने मुग्ध जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेके लिये पर्युषणा विचार के लेखकी तरह फिर भी उद्यम करोंगे तो उसी भी सबकी समालोचना करके आपके अन्यायके पाषण्डको शांत करनेके लिये मैंरेको जलदीसे लेखनी चलानी ही पड़ेगी इसमें फरक नहीं समझना ;. और पर्युषणा विचारके दशवे पृष्टकी १९ वीं पक्लिसे दश पृष्टके अन्त तक लिखा है कि ( पाठक महाशयोंको पक्षपात शून्य होकर निबन्ध देखने की सूचना दी जाती है स्नेहरागके वस होकर असत्यको सत्य नहीं मानना और गतानुगतिक नहीं बनना तत्वान्वेषी बनकर जल्दी पद्ध व्यवहारको स्वीकार करके भगवान् की आज्ञानुसार भाद्र मुदी चौथ के दिन सांवत्सरिक वगैरह पांच कृत्योंका आरा. धमकरके थोड़ेभवमें पञ्चमचानके हागीबनो इसतरण ५४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ ] का धर्मलाभ पाठकवर्गके प्रति लेखकदेताहै) इस रीति से सातवें महाशयजीने पर्युषणाविचारके लेखको पूर्ण किया । अब ऊपर के लेखको समीक्षा करते हैं कि-मच्छ के पक्षपातको स्न हरागसे असत्यको सत्यमाम करके गतानुगतिक गडरीह प्रवाहवत् अन्ध परम्पराकोही मानने वाले मिथ्या दृष्टि कहे जाते हैं इसलिये तत्वान्वषी बन करके शास्त्रानुसार युक्ति सम्मत सत्य बातोंका निर्णयपूर्वक ग्रहण करना सोआत्मार्थियोंका काम है इसलिये पक्षपात रहित पर्युषणा विचारके निबन्धको पढ़ा तो साफ मालूम हुआ कि पर्युषणा विचारके लेखकने अपनी अज्ञानताके कारणसे अपने गच्छका पक्षपात करके अन्ध परम्पराका मिध्यात्वको बढ़ानेके लिये पं० हर्ष भूषणजीकी धर्मसागरजीकी और विनयविजयजी avrrint, उत्सूत्र भाषणोंकी कल्पनायोंको सत्य मानकर श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञाको उत्थापन करके पर्युषणा विचारके लेखमें केवल शास्त्रोंके विरुद्ध सूत्र भाषणोंकी कल्पनायें भरी हुई होनेसे गच्छ पक्षके मिथ्या आग्रह करनेवाले बालजीवोंको श्री जिमाज्ञासे भ्रष्टकरके मिथ्या त्वमें फंसाने वाला और खास पर्युषणा विचारके डेखकको संसार वृद्धिका हेतु भूत प्रत्यक्ष देखनेमें आया इसलिये पर्युषणा विचारके लेखक के तथा अन्य आत्मार्थियोंके उपकारके लिये उसीकी समालोचना करके निष्पक्षपाती पाठक गणको सत्यबात दिखाई है सो इसको पढ़कर पर्युषणा विचारके लेखक वगैरह यदि आत्मार्थि होवेंगे तब तो गच्छके पक्षपात का आग्रहको न रक्खके असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके अपनी भूलोंको सुधारेंगे और अपनी विद्वत्ताके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२७ ] अभिमानी मिथ्यात्वी होवेंगे तो विशेष कदाग्रह बढ़ानेके लिये उद्यम करेंगे ( उसीका उत्तर तो देनाही होगा ) परन्तु इस ग्रन्थके प्रगट होनेसे मम्यक्त्वी अथवा मिथ्यात्वो की तो परिक्षा अच्छी तरहसे हो जावेगी :-- और सातवें महाशयजी अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में छोड़ करके दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा करमा सो शुद्ध व्यवहारसे भगवानकी आज्ञामे ठहराते हैं सो तो सोनेकी भ्रांतिसे केवल पीतल ग्रहण करने जैसा करके अपनी पूर्ण अक्षता प्रगट करते हैं क्योंकि अधिक मासकी गिनती छोड़नेसे तो अनन्त संसारकी वृद्धिका हेतुभूत मिध्यात्वकी प्राप्ति होती है इसलिये अधिक मासकी गिनती मिषेध करने वाले कदापि आज्ञाके आराधक नहीं बन सकते हैं किन्तु शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष वर्ताव से अधिकमासके ३० दिनोंको गिनतीने लेने से हो भगवानकी आज्ञाका नाराधन हो सकता इसलिये अधिकमासकी गिनती प्रमाण करना सोही तत्त्वान्वेषी शुद्ध व्यवहारको ग्रहण करनेवाले भगवानकी आज्ञा के आराधक हो सकेंगे इसलिये मासबृद्धि दो श्रावण होनेसे ५० दिनकी गिनती से दूसरे श्रावण में पर्युषण पर्व में सांवत्सरिक वगैरह कृत्योंका आराधन करनेवाले आत्मार्थी होनेसे पञ्चम केवलज्ञानके भागी हो सकेंगे । और अन्तमें पाठकवर्गको धर्मलाभ लेखकने लिखा है सो भी बुद्धिकी अजीर्णता प्रगट करी मालूम होती है क्योंकि पाठकवर्ग में तो पर्युषणा विचार के लेखको बांधनेवाले आचार्य, उपाध्याय, गणी, पन्यास तथा साधु साध्वी और लेखकसे दीक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ]. पर्याय अधिक मुनिमयडली वगैरह सब कोई आजाते हैं इसलिये सबको धर्मलाभ देनेकी पर्युषणा विचारके लेख ककी ताकत नहीं होते भी देता है तो बुद्धिकी अजीर्णतामें क्या न्यूनता रही है सो विवेकीजन स्वयं विचारसकतेहैं ; और सातवें महाशयजीने पर्युषणाविचार केलेख में अधिक मासकी गिनती निषेध करनेके लिये इतना परिश्रम किया है परन्तु अधिक मास किसको कहते हैं जिसकी भी तो उनको मालूम नहीं है क्योंकि, देखो दुनियाके व्यवहारमें तिथि कुहिकी तरह दूसरेको अधिक मास कहते हैं। तथा जैनशास्त्रों में भी दूसरेकोही अधिकमास कहा है ॥ और लौकिक पञ्चाङ्गमें दोनों मासके मध्यमें संक्रान्ति रहितकों भधिकमास कहते है परन्तु दिनोंकी गिनती में दोनों मासके ६० दिनांकों बराबर सब कोई लेते हैं इसलिये अधिक मासके दिनोंकी गिनती निषेध नहीं हो सकती है। और सातवें महाशयजी अधिक मासके ३० दिनोंकों गिनती में नहीं लेनेका लिख करके भोले जीवोंको बहकाते हैं परन्तु खास आपही अधिक मासके ३०दिनोंको गिनती में ले करके सर्व व्यवहार करते हैं से। तो प्रत्यक्ष दीखता है तथापि अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में नहीं लेनेका लिख करके भोले जीवोंको बहकाते हैं से तो 'ममजननी वन्ध्या' की तरह प्रत्यक्ष धूर्तताका नमूना है से तो विधेकी जन स्वयं विचार लेखेंगे। और सातवे महाशयजीने अधिकमासको नपुसक निः सत्व ठहराकर उसीको गिनती में छोड़देनेका लिखा है परंतु जब दो भाद्रपद होते हैं तब अधिक मास रूप दूसरे भाद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ ] पदमें खास आप पर्युषणा करते हैं और ८।१०।१५।२०।३०।४०४५ दिनके उपवासोंकी तपस्याकी गिनतीमें अधिक मासके ३० दिनको बराबर गिनते हैं। तो अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि खास आप अधिक मासके दिनोंको तपश्चर्याकी गिनतीमें लेते हैं तथा अधिक मासमेंही पर्युषणा करते हैं तथापि उसीको नपुसक निःसत्व ठहराकर दूष्टिरागी भोले भाले जीवोंको श्रीजिनाज्ञासे भ्रष्ट करते हैं सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से कितने संसार वृद्धिका हेतु है सो तत्वात स्वयं विचार लेवेगे,____ और पर्युषणा विचारका छपाई खर्चा और टपाल खर्चा श्रीयशोधिजयनीकी पाठशालाके सम्बन्धसे उगा? सो तो यहांके दलीपसिंहजी जौहरीके पास काशी की पाठशालालासे उदयराज कोचरका पोष्टकाई माया है उसी से तथा और भी कितनेही कारणोंसे सिद्ध होता है उसका विशेष विस्तार अवसर होनेसे पुनरावत्ति में लिखने में आधेगा और पर्युषणा बिचारका लेख काशी में उसी पाठशालेसै प्रगट भी हुवा है तथापि सातवें महाशयजी अपनी निन्दाकेभयसे श्री यशोविजयजी की पाठशालाके नामसे पर्युषणा विचारके लेखको प्रगट न कराते उदयराज कोपरके नामसे प्रगट कराया और श्रीकाशी (वाणारसी) का नाम भी न लिखाते प्रत्यक्ष मिथ्या फलोधीका नाम लिखाके मायाशत्ति से फलोधीके नामसे प्रगट कराया तो फिर अनुमान २० जगह उत्सूत्र भाषणोंवाटा तपा १० जगह प्रत्यक्ष मिथ्यालेखवाला और सत्य बात का निषेध करके अपनी कल्पनाकी मिथ्या बातको स्थापने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कुयक्तियों वाला और श्रीजिनाज्ञा मुजब वर्तनेवालोंको जूठी कल्पनासे दूषण लगाके अनन्त संसारका हेतु भूत मिथ्यात्यको बढ़ानेवाला पर्युषणा विचार के लेखमै अपमा नाम प्रगट करते लज्जा आवे तो निज शिष्यविद्या विजयजीका नाम लिख देवे तोभी कुछ विशेष आश्चर्य नहीं है सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे,-- और काशीनिवासी नातवें महाशयजी जेमतत्व दिग्दर्शन, आत्मोन्नति दिगदर्शन, जैनशिक्षादिग्दर्शन वगैरह छोटे बोटे लेखोंको तो अपने नामसे प्रगट करते हैं तथा विद्या. विनयजीभी अपने गुरुजीका लम्बा चौड़ा नाम समेत जनपत्र में अपना लेख प्रगट करते हैं और छोटी बोटी पुस्तके भी श्रीपशोविजयीकी पाठशाला के नामसे प्रगट करने में माती है परन्तु पर्युषणा विचारके लेखमें न तो सातवे महाशयनीका नाम लिखा तथा विद्याविजयजीनेभी अपने गुरुजीका माम भी नहीं लिखा और अपना निवास ठिकाना भी नहीं लिखा और श्रीयशोविजयजीकी पाठशालाका नाम भी महीं लिखा इसपर भी बुद्धिजन विचार करें तो स्वयं मालूम हो सकेगा कि सातवें महाशयजीने दुनियामें अपनी निन्दाकी शर्मके मारे गुपसुप प्रगट कराया है क्योंकि इतने विद्वान् ऐसे प्रसिद्ध आदमी होकरके भी गच्छके पक्षपातसे ऐसा अनर्थ क्यों किया इसका भेद न खुलनेके वास्त पाठ शालाका तथा पाठशालाके उत्पादकका नाम नहीं लिखा है परन्तु विवेकी बुद्धिजनोंके आगे तो ऐसी धर्तता नहीं खुप सकती है,--- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३१ ] और जैमपत्रका अधिपति आठवा महाशय श्रावकनाम धारक भगुभाई फतेचन्दने सेपेम्बर मासकी २२वीं तारीख सन् १९०९ दूसरे श्रावण बदी १३, परन्तु हिन्दी भाद्रपद कृष्ण १३ वीर संवत् २४३५ के जैनपत्रका २३ वा अङ्ककी आ. दिमेंही 'पर्युषणा विषे विचार' नामसे जो लेख प्रगट करा है सो तो सातवें महाशयजीके पर्युषणा विचारके लेखको ही गुजराती भाषामें लिखकी प्रगट किया है इसलिये . जैनपत्रवालेके लेखकी तो सातवें महाशयजीके लेखकी तरह अपर मुजबही समीक्षा समझ लेना और जैनपत्रवाला संप संप पुकारता है परन्तु एकएकको निन्दा करके कुसंपकी वृद्धि करता है तथा गच्छके पक्षपातसे सत्य बातोंका निषेध करके अपना मिथ्यापक्षको स्थापन करने के लिये उत्सूत्रभाषणोंसे दुर्गतिका रस्ता लेता है और अज्ञानी जीवोंकोभी वहांही पहुंचाने के लिये उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह जैनपत्रमें प्रगट करता है और कान्फरन्स सुकृत भण्डारादिसे शासनोन्नतिके कार्यों में विघ्नकारक गच्छोंके खगडनमण्डनका झगड़ा एक. बार नहीं किन्तु अनेकवार जैनपत्रमें उठाया है क्योंकि देखो पर्युषणा सम्बन्धी भी प्रथमही छठे महाशयजीकी मिथ्या कल्पनाकर उत्सूत्र भाषणका लेखको जैनपत्रमें प्रगट करके झगडेकी नीव रोपन करी तथा सातवें महाशयजीके भी उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहवाला लेखका भाषान्तर प्रगट करके उत्सूत्रभाषणोंके भयङ्कर विपाक लेनेके लिये दुर्गतिका रस्ता लिया और फिर भी छठे महाशयजी की तरफके श्रीखरतरगच्छ बालों को निन्दावाले तथा कोर्ट कचेरीमें झगड़ा लड़ाके दीर्घकाल पर्यन्त कुसंपकी वृद्धि करनेवाले देश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३२ ] लेखांको प्रगट करके अपनी पूर्ण मूर्खता प्रगट करी और पर्युषणा, सामायिक, कल्याणक, वगैरह बातोंका झगड़ा बढ़ाया है ( जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थके पढ़नेसे मालम हो सकेगा ) इसलिये जैनपत्रवाले आठवें महाशयको जो संसारवद्धिसे दुर्गतिमें परिभ्रमणका भय होवे तो उत्सूत्र भाष. णांका मिथ्या दुष्कृत देकर श्रीचतुर्विध संघ समक्ष उसीकी आलोचन लेवे तथा फिर कभी खण्डन मण्डन करके दूसरों की निन्दासे गच्छका झगड़ान उठावे और असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करे नहीं तो पक्षपातसे उत्सत्रभाषणके विपाक तो भोगे बिना कदापि नहीं छुटेंगे। और मैरेको बड़ेही खेदके साथ बहुतही लाचार हो करके लिखना पड़ता है कि-अधिक मांसके ३० दिनांकी गिनती निषेध करनेवाले उत्सत्र भाषक मिथ्या हठग्राही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वियोंकी विवेक बुद्धि कैसी नष्ट हो गई है सो पूर्वापरका विचार किये बिनाही अधिक मासके ३० दिनों में सर्वकार्य करते भी पक्षपातके आग्रहसे गडरीह प्रवाहकी तरह मिथ्यात्वकी अन्ध परम्परासे एक एककी देखादेखी तात्पर्य्यार्थके उपयोग शून्य होकरके उसीकोही पकड़कर उसीकी पुष्टि करते हैं परन्तु श्रीजिनाज्ञाका उत्थापन करके बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे अपनी आत्मघातका कुछ भी भय नहीं करते हैं क्योंकि पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक और युक्ति सहित श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी जैनाचार्य वगैरह अधिक मासके दिनोंकी गिनती प्रमाण करकेही प्राचीन कालमें पूर्वधरादि महाराज भी पर्युषणा करते थे तथा वर्तमानमेंशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] सब कोई आत्मार्थि जन अधिक मासकी गिनती प्रमाण करकेही पर्युषणा करते हैं और आगे भी ऐसेही करेंगे परन्तु शासननायक श्रीवर्द्धमान स्वामीके मोक्ष पधारे बाद अनुमान एक हजार वर्ष व्यतीत हुए पीछे उत्सूत्र भाषणों में आगेवान गच्छ कदाग्रही शिथिलाचारी धर्मधूर्त जैनामास पाखयही चैत्य वासियोंने पञ्चाङ्गी प्रमाणपूर्वक प्रत्यक्षसिद्ध होते भी कितनीही सत्य बातेको निषेध करके अपनी मति कल्पनासे उत्सूत्र भाषणरूप कुयुक्तियों करके श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध कल्पित बातोंकी प्ररूपणा करी और अधिसंवादी श्रीजैन शासनमें वि संवादके मिथ्यात्वको बढ़ाया था जिसमें शास्त्रानुसार तपा युक्ति पूर्वक अधिक मासकी गिनती तथा आषाढ़ चौमासीसे दिने श्रीपर्युषणा पर्वका माराधन करनेका प्रत्यक्ष दिखते हुए भी लौकिक पञ्चाङ्गम भासद्धि दो प्रावणादि होनेसे प्रत्यक्ष शास्त्रोके तथा युक्तिके भी विरुद्ध होकर यावत् ८० दिने श्रीप\षका पर्वका माराधन करनेका सर करके श्रीजिनामाका उत्थापनसे मिथ्यात्व फैला था और निर्दूषण बनने के लिये अधिक मासकी गिनती निषेध करके उत्सत्र भाषणोंकी कुयुक्तियों से अज्ञानीजीवोंको अपने मिथ्यात्वको भ्रमजालम फसाने के लिये धर्मधूर्ताई करने में कुछ कम नहीं किया था सो तो श्रीसंघपहककोव्याख्याओंके भवलोकनकरनेसे अच्छी तरहसे मालूम हो सकता। और कितनेही भारी कमें प्राणी तो उपरोक मिथ्यास्वकी भ्रमजाल में फसकर अन्धपरम्परासे उसीकाही पुष्ट करते हुए बाल जीवोंको अपने फंदमें फसाते रहते थे उसी मिथ्यात्वकी अन्धपरम्पराही अनुसार पं० श्रीहर्षभूषणजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३४ ] और धर्मसागर जी वगैरह जो जो लेख लिख गये हैं और वर्तमनमें 'शास्त्रविशारद जैनाचार्य्य'' की उपाधिधारक सातवें महाशयजी श्रीधर्म विजयजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् कहलाते भी उसी अन्धपरम्परासे मिध्यात्व के कदाग्रहको पकड़कर अज्ञ जीवोंको उसीमें फसानेके लिये उसीको विशेष पुष्ट करनेका उद्यम करते हैं परन्तु श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाका उत्थापन करके प्रत्यक्ष पञ्चाङ्गी प्रमाण विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से सज्जन पुरुषोंके आगे हास्य काहेतु करनेका कारण करते भी कुछ लज्जा नहीं पाते हैं सो तो इस कलियुगमें पाखण्ड पूजा नामक अच्छेरेका प्रभावही मालूम पड़ता है । इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषको ऐसे उत्सूत्र भाषकोंकी कुयुक्तियों के भ्रममें न पड़ना चाहिये और निष्पक्षपात से इस ग्रन्थको आदिसे अन्त तक बांचकर असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण भी करना चाहिये परन्तु गच्छके आग्रहसे उत्सूत्र भाषणकी बातोंको पकड़कर उसीमें नहीं रहना चाहिये । और भी श्रीधर्मसागरजीकी तथा श्रीविनयविजयजीकी धर्मघई का नमूना पाठक वर्गको दिखाहूं, कि देखो श्रीविनयविजयजीने श्रीलोकप्रकाश मामा ग्रथ बनाया है सो प्रसिद्ध है उसीमें अधिक मासको गिनती प्रमाण करी है अर्थात् समयादि सुक्षमकालसे आव foot मुहूर्तादिककी व्याख्या करके ३० मुहूतौंका एक अहोरात्रि रुप दिवस, सो १५ दिवसांस एकपक्ष, दो पक्षोंसे एक मास वारह मासोंसे चन्दसंवत्सर और अधिक मास होनेसे तेरह मासोंका अभिवर्द्धित संवत्सर इन पांचों संवत्सरों से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३५ ) एक युगके १८३० दिनोंके ५४९०० ( चौपन हजार नौ सौ ) मूहोंकी व्याख्या श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञाप्तिसूत्रके अनुसार श्रीवि. नय विजयजी लोकप्रकाशमैं स्वयं लिखते हैं तैसेही श्रीधर्मसागरजीने भी श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें अपर मजबही पांचोंके दो अधिकमासों के दिनोंकी तथा पक्षोंकी और मुहूतों की गिनती पूर्वक एक युगके १८३० दिनोंके ५४९०० मुहूर्त खुलासा पूर्वक लिखे हैं। तथापि बडेही खेदकी बात हैकि इन दोनों महाथयोंने गच्छकदाग्रहका पक्ष करके उत्सूत्रभाषणसे संसार वृद्धिका भय न रक्खा और बाउजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी सत्य बात परसे श्रद्धाभ्रष्ट करने के लिये श्री. रूपसूत्रको कल्पकिरणावलीवत्तिम तथा मुखबोधिका कृत्तिमें काल चलाके बहानेसे दोनों अधिक मासके ६० दिनोंकी गिनती निषेध करके अपने स्वहस्ये एक युगके दो अधिक भासद दिनोंकी मुहूतौकी गिनती पूर्वक १८३० दिनांके ५४९०० मुर्तीको श्रीतीर्थकर गणधर महाराजको आज्ञानुसार लिखे हैं उसीका अङ्गकारक दो अधिक मासके ६० दिनांके अनुमान १८०० मुहूतौके कालका व्यतीत होना प्रत्यक्ष होते भी उसीकी गिनती में से सर्वथा उड़ादेकर श्रीतीर्थंकरगण. धर महाराजके कपनका प्रमाण अङ्ग डालने वाले लेख लिखते पूर्वापरका विवेकबुद्विसे कुछ भी विचार न किया और उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके कुयुक्तियोंसे असामीजीवोंको भ्रमाने का कारण कियाइसलिये इन दोनों महाशयोंकी धर्मधूर्ताईमें कुछ कम होवे तो न्यायदृष्टिवाले विवेकीसज्जन स्वयं विचार लेवेंगे। और इन दोनों महाशयोंके अधिक मासके निषेध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] सम्बन्धी पूर्वापरविरोधि (विषमवादी) तथा उत्सूत्र भाषणोंकी कुयुक्तियांवाले और सम्यकत्व से भ्रष्ट करके मिथ्यात्वमें गेरनेवाले लेखोंको दीर्थ संसारीके सिवाय और कौन मान्य करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजांकी आशातनाकारक सउटा बर्ताव करेगा सो भी तत्व पुरुष न्याय दृष्टि वाले सज्जन स्वयं विचार लेखेंगे___और अधिक मासके निषेधक श्रीधर्मसागरजी श्रीजय विजयजी श्रीविनयविजयजी और पं० श्रीहर्षभूषणणी वगैरहोंने जो जो गच्छकदाग्रही दृष्टिरागी मुग्ध जीवोंको मिथ्यात्वके धममें गेरनेके लिये उत्सूत्र भाषणोंका और कुयुक्तियोंका संग्रह करके अपना संसार छद्धिका कारण करते हुए अपने ऐसे कल्पित डेखेको सत्य माननेवाले अपने पक्षग्राहियोंका भी संसार वृद्धिका कारण कर गये हैं सो इन सब सत्सूत्र भाषणरूप कल्पित कुयुक्तियोंके लेखांका निर्णय तो इस ग्रन्थ में अनुक्रमसे सातों महाशयोंके लेखांकी समीजामें होगया है सो इस ग्रत्यको आदिसे अन्त तक पक्षपात रहित होकर न्याय दृष्टिसे पढ़नेसे सब बातोंका अच्छी तरहसे निर्णय मालम होजावेगा । तथापि जो पं० श्रीहर्षभूषणजीने पर्युषणस्थिति नामक लेख में जो जो उत्सूत्र भाषणांका और कुयुक्तियोंका संग्रह करके मिथ्य त्वका कारण किया है उसीका दिग्दर्शनमात्र थोड़ासा नमूना इस जगह पाठकगणको दिखाता हूं यथा श्रीसोमंधरमरहतं नवापर्युषणास्थितिं ब्रुवेर्तितमाद्रस्य ध्यतं युक्त्यागमः ॥ नन्वशीत्यादिनः पर्युषणापर्वसिद्धान्ते क प्रोतमस्तीत्येबंचे तर्हि पंच मासात्मकं वर्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३१ ] चतुर्मासिकमपि सिद्धांते वर्वर्त्ति सत्यं परमधिकमासो ऽस्मा भिर्नगण्यमानोति एवं चेतर्हि अस्माभिरपि यदाधिकः श्रावण भाद्रपद वावर्द्धते तदा नगण्यते तेनाशीतिदिनानि पञ्चाशद्दिनान्येवेतीत्यादि । अब पं० हर्ष भूषणजी के ऊपरका लेखको तत्वज्ञ पुरुष निष्पक्षपात से विचारेंगेता प्रत्यक्ष पने उनके भ्रमजालका परदा खुल जावेगा क्योंकि युक्ति और आगम क्रमके बहाने उत्सून भाषणका संग्रह करके कुयुक्ति यांकी भ्रमजाल में बालजीबोंको गेरनेका कारण किया है तो तो प्रत्यक्ष दिखता है aira co दिने पर्युषणा करनेका किसी भी शास्त्र में नहीं कहा है परन्तु श्रावण भाद्रपदादि अधिक होनेसे पंचमासके १० पक्षोंके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा तो प्रत्यक्षपने अनुभव से देखने में आता है इसलिये निषेध नहीं हो सकता है और अधिक मासको गिनती में निषेध करके दूसरे श्रावण के ३० दिनांकी गिनतीमें छोड़कर ८० दिन के ५० दिन अपनी मतिकल्पनाते बनाते हैं से। मिल्केवल उत्सूत्र भाषण है क् कि शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वकसे ते ८० दिनके ५० दिन कदापि नहीं हो सकते हैं सो तो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले स्वयं विचार लेवेंगे । और फिर आगे । ननु 'अभिवद्द्यंभि वीसा इयरेसु सatesमासेr' मिशीषभाष्ये इत्यत्राधिकमासोगणिताऽस्ति । इस तरहसे अधिक मासको गिनती सम्बन्धी पूर्वपक्ष उठाकर उसीका उत्तर में 'आसाढ़ पुरिणमाएपविठा' इत्यादि निशीथ पूर्णिका अधरा पाठसे अज्ञात पर्युषणाकी और 'वीस दिणेहिंकप्पो' इत्यादि बिनाही प्रसङ्गको विच्छेद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] कल्पसम्बन्धी बात लिखके बालजीवोंको भ्रममँगेरें और अधिक मार्सकी गिनती निषेध दिखा कर अपनी विद्वत्ताकी चातुराई विवेकी तत्वज्ञ पुरुषोंके आगे हास्यकी हेतु रूप प्रगट करी है क्योंकि निशीथचूर्णिमेंही खास अधिक मासको गिनती प्रमाण करोहे और अज्ञात तथा ज्ञात पर्युषणा सम्ब न्धी विस्तारसे व्याख्या की है सो पाठ भावा सहित तीनों महाशयों के लेखों की समीक्षा में इसही ग्रन्थके पृष्ट ५ से १०४ तक छपगया है इसीलिये आगे पीछेके प्रसंग व. ले सब पाठको छोड़कर विना सम्बन्धके अधूरे पाठसे बाल जीवोंको भ्रममें गेरने सोभी उत्सून भाषण है । C और आगे फिर भी अधिक मासमें क्या क्षधा नहीं erhit तथा सूर्योदय नही होताहै और देवसिक पाक्षिक प्रतिक्रमण, देवपूजा मुनिदानादि क्रिया शुद्ध नहीं होती है सो गिनती में नहीं लेतेहो इस तरहका पूर्वपक्ष उठाकर उसीका उत्तर में पांचमासके चौमासेमें तुमभी चारमास कहते हो इत्यादि अज्ञानता से प्रत्यक्ष मिथ्या और उटपटांग लिखाई सोते वृथाही हास्य का हेतु कियाहै । और श्रीउत्तराध्ययनजी के २६ अध्ययनका पौरूष्याधिकारे मासबुद्धिके अभाव सम्बन्धी सविस्तर पाठको छोड़कर " असाढमासे दुप्यया * सिर्फ इत नाही अधूरा पाठ लिखके उत्सूत्र भाषण से भोले जीवोंका भ्रमानेका कारण किया है इसका निर्णयता तीनों महाशयों के लेखकी समीक्षा में इसही ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ । १३१ में छपगया है । 9 और श्री आवश्यक निर्युक्तिकी गाथाका तात्पर्यार्थको समझे बिना तथा प्रसंगकी बातको छोड़कर 'जइफुल्ला' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ ] इत्यादि गाथा लिखके उत्सूत्र भाषणसे मिथ्यात्वका कारण कियाहै जिस का निर्णयता चौथे और सातवें महाराजजी के लेखकी समीक्षामें इसही ग्रन्यके पृष्ठ २०५ से २१० तक और ३८५ से ३९५ तक सविस्तार छपगयाहै सो पढ़नेसे हर्षभूषणजी की शास्त्रार्थ शन्य विद्वत्ताका दर्शन अच्छीतरहसे होजावेगा। और श्रीनिशीथ तथा श्रीदशवैकालिकत्तिके नामसे चलासंबंधीकल्पित अधरा पाठ लिखके उसीपर अपनी मतिसे कुविकल्प उठाकर कालचलाके बहाने अधिक मासकी गिनती उत्सत्र भाषणरूप निषेध करके बाल जीवोंके आगे धर्म ठगाई फैलाईहै जिसका निर्णयतो 'जैन सिद्धांत समाचारी'के लेखकी समीक्षामें इसही ग्रन्थ के पृष्ठ ५८ से ६५ तक और पांचवें महाशयजी के लेखकी समीक्षामें पृष्ठ २० से २२३ तक अपगयाहै सो पढनेसे मालम होजावेगा। और रत्नकोष ज्योतिष ग्रन्थका १ श्लोक लिखके अधिक मासमें मुहर्त नैमित्तिक विवाहादि संसारिक कार्य नहीं होनेका दिखाकर विनामुहर्तका पर्युषणादि धर्म कायमी अधिकमासमें महाने का दिखाया सौमी उत्सूत्र भाषणहै इस बातका निर्णय चौथे महाशयके लेखको समीक्षा, पृष्ठ १४ से २०४ तक छप गया। ____ और भी इसीही तरहसे अधिक मासके ३० दिनों को गिनतीम निषेध करके ८० दिनके ५० दिन बालजीवोंके आगे सिद्ध करने के लिये कुयक्तियोंके विकल्पोका और उत्सत्र भाषाका संग्रह करके भी फिर जोजो मामवद्धिके अनाव सम्बन्धीत्रीपर्युषणा कल्पचर्णि, निशीपचर्णि,पर्युषणा कल्पटिप्पण और संदेहविषौषधियति सविस्तार वाले सब पाठों को छोड़करके उसीके पूर्वापरका संबंध विनाके और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४० ] थाकार महाराज के अभिप्राय विरुद्ध अघरे अधरे पार्टीको लिखके दृष्टिरागी गच्छकदाग्रही बिवेकशून्य मुग्ध जीव के आगे मास वृद्धि दो श्रावण होतेभी भाद्रपद में पर्युषणा ठहराकर दिखानेका प्रयास किया जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थमें अच्छी तरह से सविस्तार शास्त्रकार महाराज के अभिप्राय सहित शाओं के संपूर्ण पाठार्थों पूर्वक लिखने में आया है से पढने से निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार करलेवेंगे । औरमी सुप्रसिद्ध श्रीकुलमंडनसूरिजीने विचारामृत संग्रह नाना प्रकरण में पर्युषणाधिकारे पृष्ठ १३ में अधिक मासको गिनती निषेध करनेके लिये जो लेख लिखा है उसीका भी नमूना यहाँ दिखाता हूं। यथा युगतृतीय पंचम वर्ष संभावीयेोऽधिकमासः स्यात् मासोलाके लोकोत्तरेच चतुर्मास सांवत्सरिकादि प्रमाण चिंतायां क्वाप्युपयुज्यते, डोके दीपोत्सवाक्षयतृतीया भूमिदेोहादिषु शुद्ध द्वादश मासांतर्भाविष डोकोत्तरेचचतुर्मासिकेषु 'आसाढमासे दुप्पया' इत्यादि पौरुषी प्रमाण चिंतायां षण्यासायण प्रमाश्यां वर्षतिर्भावि जिनजन्मादि कल्याणकेषु वृद्वावासस्थित स्यविर नवविभागक्षेत्र कल्पमायांच नायंगण्यते कालचूलत्वादस्य । तथाहि । निशीथे दशवेकालिक तौच, चूला चातुर्विध्यं द्रव्यादिभेदात् तत्र द्रव्य धूला ताम्रचूलादि क्षेत्रचूला मेरोचत्वारिंशद्योजन प्रमाण चूलिका कालचूला युगेतृतीय पंचनवर्ष येोरधिक मासकः भावचूलातु दशवैकालिकस्य चूलिकाद्वयं । नच चूलाचूलावतः प्रमाण चिंतायां पृथक् व्यात्रियते I यथा । लक्षयोजन प्रमाणस्य मेरीः प्रमाणचिंतायां चूलिका प्रमाणमिति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४९ ) यश्चाधिक मासको जनशास्त्रे पौषाषाढरूपः लौकिक शास्त्र - द्यश्विन मासांत सप्तमासव्यवस्थित मासरूपोऽभिवर्द्धित नासौक्व चित्कत्येप्रयुज्यते । यदुक्त रत्नकोशाख्य ज्योतिषशास्त्र । यात्रा विवाह मंडनमन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि परिहर्त्तव्यानि बुधेः सर्वाणिनपुंसके मासि ॥ जति अहिमास पडितो तो वोसतीरायं गिहिणायं न कज्जति किं कारणं अथ अहिमासओ चेव मासा गणिज्जति तेः बोसाएसमं सवोसति रातो मासोसम्मतिचेव इति वृहत्कल्प चू० पत्र २९५ व ०३ । पुनः । जम्हा अभिचद्रिय वरिसे गिम्हवेव सोमासो अडकुन्तो तम्हावीस दिणा अणभिग्गहियंकीरइ निशी० चू०० १० पत्र ३१७ इहकल्प निशीथ चणिक्रदभ्यामपिस्वाभिगृहीतगृहस्य ज्ञातावस्थान व्यतिरिक्ततेषु कार्येषु क्वाप्यधिकमसिको नामग्रहणं प्रमाणीकृतो न दृश्यते इति । अब श्रीकुलमंडन सूरिजी कृत उपरके लेखको देखकर मेरेको बडेही अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि ऐसे सुप्रसिद्ध विद्वान् पुरुष आचार्यपदकेधारक होकर के भी स्वगच्छा ग्रहका पक्षपात करके उत्सूत्र भाषणोंसे संसारवृद्धिका भय न करते हुवे कुयुक्तियों का संग्रह से बालजीवों को मिथ्यात्व के भ्रम में गेरनेका उद्यम किया है सेा श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके वचनका उत्थापनरूप है क्योंकि पांच वर्षोंके एक युगमें तीसरे तथा पांचवे वर्ष जो पौष तथा आषाढको अधिकमास जैनशास्त्रों में कहा है उसीके ही मंदिरोंके शिखर वत् तथा मेरुचूलिकावत् और दशवेकालिकजो आचारांगजी की चलिकावत् कालचलाको उत्तम श्रेष्ठ ओपमा देकर दिनोंमें पक्षों में मासों में गिनती करके वर्ष तथा युगादि * ܬ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४२ ] का प्रमाणनीसमन्ततीर्थकर गणधरादि महाराजोंने कहाहै तथा श्रीबहतकल्पचर्णि श्रीनिशीथच णिमें निश्चय अधिक मासको मिन करके वीशदिने ज्ञात पर्युषणा कही है तथापि श्रीकुलमडनसूरिणीने पर्युषणाधिकारे कालचलाके बहाने अधिक मासको गिनतीमें निषेध किया सो श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजों की आज्ञा उत्थापन रूप सत्सूत्र भाषण है। और आसाढमासे दुप्पया,संबंधी तो उपरही हर्षभू. पणजीके लेखका उत्तर में सूचना करनेमें आगईहै। और स्थिवीर कल्पियोंके अधिकमासहोतेभी नव विभागक्षत्र याने नवकल्पि विहारकालिखासोझो प्रत्यक्षमिय्या है क्योंकि १० कल्पिविहारप्रत्यक्षपने होताहै इसकानिर्णय तथा दीवाली अक्षय तृतीयादि लौकिक संबंधी लिखाहै जिसका निर्णय और श्रीजिनेश्वर भगवान्के कल्याणक संबंधी लिखा है जिसका भी निर्णय तो सातवें महाशयजीके लेखकी समीक्षा होगया है। __और एक युगके दोनों अधिक मासांके दिनोंकी गिनती पूर्वक १८३० दिनोंमें सूर्यचारके दश [१०] अयण प्रीतीर्थकरगणधरादि महाराजांने कहेहैं सो श्रीचंद्रपन्नति श्रीसूर्यपन्नति श्रीजंबूद्वीपपन्नति श्रीज्योतिषकरंडपयन तथा इनही शास्त्रोको व्याख्यओं में और श्रीवहत्कल्पवृत्ति, मंडल प्रकरणादि अनेकशास्त्र में प्रगटपाठहै और लौकिकर्मशी अधिकमासहोनेसे उसीकेदिनांकीगिनतीपूर्वक १८३ दिने दहिणारण उत्तरायणमें सूर्यमंडलहोनेका प्रत्यक्षदेखनेमें आता है इसलिये ६ मासके अयणकाप्रमाणमें अधिकमास नही गिनने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३] संबंधी श्रीकुलमंडनमूरिजीका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है। और जैन पंचांगानुसार पौष तथा भाषाढ की पद्धि होती थी तबझी उसी के दिनोंको पर्युषणादि सब धर्म कार्यों में गिनती करतेथे सातो उपरमेही श्रीवहत्कल्पचर्णि श्रीनि. शीपचणिके पाठसे प्रत्यक्षदिखता है परन्तु वर्तमानकाले जैन पंचांग के अभावसे लौकिक पंचांगानुसार वर्ताव करने में आताहे उसी में चैत्रादि मासेकी वृद्धि होतीहै उसी के ३० दिनों में दुनियांका सब व्यवहार तथा धर्म व्यवहार प्रत्यक्षयनेहोताहै इसलिये उसीके दिनांकी गिनती निषे. ध नहीं होसकती है तथापि जो संक्रांति रहित मलमास केरोसे अधिक मासके दिनांकी गिनती निषेध करते? सो अपनी पूर्ण अज्ञानताले भोले जीवोंको गकदाग्रह में गेरनेका कार्य करते हैं क्योंकि संक्रांति रहित अधिक मास को मलमास कहा है तैसेही दो संक्रांति वाले क्षय मासको श्री मलमास कहा है परन्तु अधिक मासके तथा क्षय मास के दिनोंकी गिनती बरोबर करते हैं। तथाहि कमलाकर भट विरचित (लौकिक धर्मशास्त्र) निर्णय सिंधौमामा ग्रंथे । तत्र संक्षेपतःकालः षोढा-अब्दोयनमृतुर्मासः पक्षदिबस इति ॥ पुनस्तत्र वक्षमाणः प्रावणादि द्वादश मासै मतदई । म उमासेतु अति षष्ठिदिनात्मकः एको मासो द्वादश मासत्वमविरुद्धमिति ॥ तपाच व्यासः षष्ट्यातु दिवसेमांसःकथितो बादेरायणैः-इति ॥ अप मलमास क्षयमास निर्णय । अथ मल मासः तत्रैकमात्र संक्रांति रहितःसितादिश्चांदी मासा मल मासः एकमात्र संक्रांति राहित्यमसंक्रातित्व संक्राति द्वयत्वमच अप्रतिति । मल मासा द्वेधा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४४ ] अधिक मासः क्षयमासश्चेति । तदुक्तं काठक गृह्ये । यस्मिन् मासे न संक्रांति । संक्रांति द्वयमेववामलमासः। सविर्जयो मासः स्यातु त्रयोदशः। तथा चोक्तं हेमाद्रि नागर खंडे । नभो वा मभस्योवा मलमासा यदा भवेत् सप्तमःपित पक्षस्यादन्यत्रैवतु पंचमः ॥ ___ अब देखिये उपरोक्त शास्त्रों के पाठोंसे लौकिक शास्त्रों में अधिक मासके दिनोंकी गिनती करीहे इसलिये निषेध करने वाले गच्छकदाग्रहसे अज्ञानता करके प्रत्यक्ष मिथ्या भाषण करने वाले बनते हैं सोता पाठक वर्ग स्वयं विधार सकते हैं। ____और अधिक मासको बारह मासे जदा गिनके तेरह मासे का वर्ष कह तथा अधिक मासको जदा न गिनके संयोगिक मासके साथ गिने तो ६० दिवसका महिना मान के बारह मासका वर्षकहे तोओ तात्पर्याय सेतो दोनों तरह करके अधिक मासके दिनोंकी गिनती लौकिक शास्त्रोंमें प्रगटपने कही है इस लिये निषेध नही होसकतीहै। ___और संक्रांति रहित अधिक मासको मलमास कहा तैसेही दो सक्रांति वाले क्षयमासको भी मलमास कहाहै सो चैत्रसे आश्विन तक सात मासों में से हरेक अधिक मास होते हैं तैसेही कार्तिकसे पौष तक तीनमासों में से हरेक मास क्षयभी होते है और जैसे तीसरे वर्ष अधिक मास होता है सो प्रसिद्ध है तैसेही कालांतर में क्षय मासभी होताहैं सो लौकिक शास्त्रों में प्रसिद्ध है । ___ औरमारुद्धि के अभावमें आषाढ़ चौमासीसेपंचम पितृपक्ष होताहै परंतु श्रावण भाद्रपद मासदी वृद्धि होनेसे अधिक मासके दोनोपक्षोंकी गिनती पूर्वक सप्तम पितृपक्ष लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४५ ] . और अधिक तथा क्षय संज्ञा वाले मास समुच्चयके व्यव. हार में तो संयोगिक मासके सामिल गिने जाते है परंतु भिना मिन्त्र व्यवहारमैं तो दोनों मासों के दिनों की गिनती जदी जादी करने में आतीहै से अधिक मास संबधी तो उपरमें तथा इसग्रन्थों लिखने में आगयाहै परंतु क्षयमास संबंधी थोड़ा सा लिखदिखाताहूं कि जब कार्तिक मासका क्षय होवे तब उसीके दिनोंकी गिमतीपूर्वक ओलियोंकी आश्विन पर्णिमा से १५ दिने दीवाली तथा श्रीवोरप्रभु के निर्वाण कल्याणक तथा २० वे दिन ज्ञानपंचमी और ३० वें दिन कार्तिक पूर्णिमा सो चौमासा पूरा होनेसे मुनि विहार होताहे इस तरहसे मार्गशीर्ष पौषका भी क्षय होवे तब मौन एकादशी, पौष दशमी वगैरह पर्व तपा और श्रोजिनेश्वर भगवान् के जन्मादि कल्याणकांकी तपश्चर्यादि कार्य करने में आते हैं। ___ अब श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक सज्जन पुरुषों को न्याय दृष्टि से विचार करना चाहिये कि-क्षयमाम के दिनोंमें दीवाली वगैरह वार्षिक वर्ष किये जातेहै उसी मुजबही श्रीतपगच्छ के सबी महाशय करते हैं इसलिये क्षय मासके दिनों की गिमती निषेधकरनेकातो किसीभी महाशय जीने कुछभी परिश्रम म किया। और पर्युषणामें तथा पर्यु - षणासंबंधी मासिक डेढमासिक तपश्चर्यादि कार्योंमें अधिक मासके दिनों की गिनती प्रत्यक्षपने करते हुवेभी दूसरे गच्छ वालो से द्वेषबुद्धि रखके अधिक मासकी गिमती निषेध करनेके लिये उत्सूत्र भाषणेसे कुयुक्तियोंका संग्रह करनेका श्रीतपगच्छ के अनेक महाशयोंने खूबही परिश्रम कियाई सौ तो प्रत्यक्षपने स्वगच्छाग्रहके इठवाद का नमूनाहे सो इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६ ] हातको इस ग्रन्थके पढनेवाले सज्जन खयं विचार वंगे। और अधिक मासको कालचला कहते हुए भी नपुंसक लिखते हैं सभी प्रीसमन्ततीर्थकर गणधरादि महारानों की आशातमा करनेके बरोबरहै तथाविवाहादि मुहूतनैमित्तिक संसारिककार्योंके लियेनी उपरमही हर्षभषषजीके लेखमंसूचना करने में आगई हैं। . और वीशदिनकी बात पर्युषणाके सिवाय और कार्यों में अधिकमासको प्रमाण करनेका नही दिखता है यह लिखना श्री श्रीकुटमंहनसूरिजी का प्रत्यक्ष मिथ्या है बोकि दिनों को पक्षोंकी मासकी गिनतीका कार्य में,चौमासके वर्षक युगके प्रमाणकी गिनतीका कार्य में, क्षामोंके कार्यमें, सामायिक प्रतिक्रमण पौषध देवपूजा उपवास शीलवतादि नियमांका प्रत्यास्थानों के गिनतीका कार्यो में चौमासी छमासी वर्षी तथा वीतस्थानकनीके और पर्युषणादि तप के दिनों की गिनतीके कार्यों में और भागनेोके योग वहनादि कार्यों में अधिक मासके दिनांकी गिनती को प्रमाण गिनने में मातीहै सो तो प्रत्यक्ष अनुभव की प्रसिद्ध बात है। और एकजगह अधिकमासको कालचूलालिखते हैं दूसरी जगह नपुंसक लिखते हैं तथा एकजगह श्रीबृहत्कल्पवर्णि श्रीनिशीपचाणिकेपाठोंसे 'धेव' निश्चय अधिकमासको गिनतोकरने का लिखते हैं दूसरी जगह नही गिनने का लिखते हैं इसतरहसे बालजीवों को भ्रममें गेरनेवाले पूर्वापरविरोधि (विसंवादी) लेखलिखते कुछभीविचार न किया सोभी कलयुगी विद्वत्ता का नमूना है। और आगे फिरभी जो जैन पंचाङ्गानुसार प्राचीन काउमें अभिवर्द्धितसम्बस्सरमें वीरादिमे अर्थात् प्रावणशदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४१ ] पंचमीको ज्ञात पर्यषणा वार्षिककृत्यादिपूर्वक करने में आती थी, उसीको वर्षाकालकी स्थितिरूप गृहस्थी लोगोंके आगे कहने मात्रही वार्षिककृत्योरहित ठहराने के लिये और अभि वर्द्धितमें भी ५० दिने भाद्रपदमें वार्षिक कृत्यों सहित पर्युष णाको ठहरानेकेलिये चूर्णिकारादि महाराजों के अभिप्रायको समझो बिनाही उलटा विरुद्धार्थ में और अधिक मास संबंधी पूर्वापरकी सब व्याख्याके पाठोंको छोड़करके अधिकरण दोषोके तथा उपद्रवादिके संबंध वालेअधूरेपाठ लिखके फिर चंद्रसम्बत्सर में ५० दिन की तरह अभिवर्द्धितसंवत्सर में २० दिने ज्ञात पर्युषणा दिखाकरके ५० दिनकी ज्ञात पर्युषणामैं तो बार्षिक कृत्य करनेको सिद्ध करते हैं परंतु २० दिनकी ज्ञात पर्युषणाको अपनीमतिकल्पनासे गृहस्थी लोगोंके आगे वर्षास्थितिरूप ठहराकर वार्षिक कृत्योंको निषेध करते हैं सो कदापि नहीं होसकताहै क्योंकि ५१ दिनकी ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्योंकी तरह २० दिनकी ज्ञात पर्युषणामें भी वार्षिक कृत्य शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है इसका सविस्तार निर्णय तीनों महाशयोंके लेखांकी समीक्षामें इसही ग्रन्थके पृष्ठ १०७ से ११७ तक अच्छी तरहसे छपगया है इस लिये जो श्रोकुलमंडन सूरिजीने २० दिनकी पर्युषणाको वार्षिक कृत्यों रहित ठहराने के लिये मास वृद्धि के अभाव संबंधी पाठोंको मास वृदिहाती भी अधरे अधूरे लिखके बाल जीवोंको दिखायेहै सो आत्मापिनेका लक्षण नहीं है । सौता न्यायदृष्टिवाले सज्जन स्वयं विचार लेखेंगे। और अभिवर्द्धित, वीश दिने ज्ञात पर्युषणा बार्षिक कृत्यों पूर्वक करनेसे । प्रथम चौथे वर्षे ११ । ११ मासे तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] दूसरे पंचम वर्षे १३ । १३ मासे और तीसरे वर्षे १२ मा वार्षिक कृत्य होनेका दिखाकर पांच वर्षोंके ६० नाम श्रीकु: लमंटन सूरिजी लिखते है साला श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महाराजों की आज्ञाको प्रत्यक्षपने उत्थापनकर के उत्सूत्र भाषण करनेवाले बनते हैं क्योंकि अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण में पर्यषणा करने से जैनशास्त्रानुसारता प्रथम चौथे वर्षे १३ । १३ मासे और दूसरे तोनरे पंचमें वर्षे १२ । १२ मासे वार्षिक कृत्य होने का बनता है और पांच वर्षोंके ६२ मास श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार जैनशास्त्रों में प्रसिद्ध है । और मासवृद्धिसे तेरहमा सहोतेभी १२ मासके क्षामणे लिखते है सेrभी अज्ञानताका सूचक है क्योंकि मासवृद्धि होने से तेरहमास छवोशपक्ष के क्षामणे किये जाते है इसका निर्णय सातवे म० ले० समीक्षा में इसही ग्रन्थ के पृष्ठ ३६३ से ३१८ तक छपगया है सेा पढने से सब निर्णय होजावेगा । और जैनशास्त्रों में मुख्य करके एकबातकी व्याख्या करते है उसीकेही अनुसार यथोचित दूसरी बातोंके लिये भी समझा जाता है इसलिये जिन जिन शाखा में चंद्रसंवत्सर में ५० दिने तथा अभिवर्द्धित संवत्सरमें २० दिने ज्ञात पर्यु षणा कही सा यावत् कार्तिक तक खुलासा लिखा है जिसपर विवेक बुद्धिसे विचार किया जावेता जैसे चंद्रसंवत्सर में ५० दिन जहां पूरे होवे वहां स्वभावसेही भाद्रपद समजते हैं तैसेही अभिवर्द्धित संवत्सर में २० दिन जहां पूरे हेावे वहां भी स्वभाविक रीतिसे श्रावण समजना चाहिये । और चार मासके १२० दिनका वर्षा काल में ५० दिने पर्यावणा करने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ge 1 पिकाडी कार्तिक तक 9 दिन स्वभावसेही रहते है तैसेही २० दिने पर्यषणा करनेसे भी पिछाडी कार्तिक तक १०० दिनो स्वयं समझना चाहिये तथापि चंद्र संवत्सर में भाद्रपदकी तरह अभिवर्द्धित संवत्सर, श्रावणमें पर्युषणा करनेका तथा पर्यषणाके पिछाडी 90 दिनकी तरह १०० दिन रहनेका कहाँ कहा है, ऐसी प्रत्यक्ष अज्ञानताको सूचक कुयुक्ति करके बाल जीवोंको भ्रमानेसे कर्म बंधके सिवाय और कुछमी लाभ नहीं होने वालाहै । क्योंकि जिन जिन शास्त्रों में चंद्रसंवत्सर,५० दिने भाद्रपदमैं पर्युषणाकरके पिछाडी ७० दिन कार्तिक तकका लिखाहै और अभिवर्द्धितमें २० दिने पर्यषणा करनेका भी लिख दियाहै उसी शामता पाटोंके भावार्थ से अभिवर्द्धितमें २० दिने प्रावणमें पर्यषणा करनेका और पर्यषणा के पिछाडी १०० दिन रहनेका स्वयं सिद्ध है सोतो अल्प मतिवालेभी समझसकते हैं। और फिरभी २० दिनको ज्ञात तथा निश्चय और प्रसिद्ध पर्यषणामें वार्षिक कृत्यों का निषेध करने के लिये आषाढ पूर्णिमा की अज्ञात तथा अनिश्चय और अप्रसिद्ध पर्युषणामें वार्षिककृत्यकरनेका दिखातेहै सोमी अज्ञानताकासूचक है क्यों कि वर्षकी परतीहुये बिना तथा अज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य कदापि नहीं होसकते हैं किन्त वर्ष की पूर्तिहोनेसे जात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य हेाते हैं और अधिक मास होनेसे श्रावणमें १२ मासिक वर्ष पूरा होजाता है इसीलिये श्रावण में जातपर्युषणा करके वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादिक कार्य करने में आते हैं। और मासद्धि होतेभी भाद्रपदमें पर्युषणा स्थापन करने के लिये श्रीजीवाभिगमजी सत्रका एकपदमात्र लिखदिखाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५० ] साता अपनी विद्वात्ताकी हासी कराने जैसा कियाहै क्योकि वहांता श्रीनन्दीश्वरध्वीपाधिकारे जिन चैत्योंकी व्याख्या करके वहां चौमासीमें तथा संवत्सरीमें और श्रीजिनेश्वर भगवान्के जन्मादि कल्याणकोंमें भवन पति बगैरह बहुत देवोंको अठाईउच्छव करनेका लिखाहै परन्तु वहां भाद्रपद कातो नाममात्र भी नहीं है सौ मूत्र वृत्ति सहित छपाहुवा श्रीजीवा भिगमजीके पृष्ठ ८४३ में खुलासा पूर्वक अधिकारहै इस लिये ऐसे ऐसे पाठोंको लिखके बाल जीवोंको भ्रममें गेरनेसे तो अपने कल्पित बातकी पुष्टि कदापि नहीं हो सकती है सो विवेकी पाठक गणभी स्वयं विचार सकते हैं। ___और श्रीकुलमंडन सूरिजी के उपरोक्त लेख के अनुसार ही धर्मसागरजीनेभी तस्करवृत्ति कर के धर्म धूर्ताईसे निजको तथा गच्छ कदाग्रही बालजीवों को दुर्लभबोधिका कारण करने के लिये 'तत्वतरंगिणो' ग्रन्थ का नाम रखके वासत्विक में 'कुयुक्तियोंकी भ्रमजाल' बनाकर उसी में पर्युषणा संबंधी मिथ्यात्वका कारणरूप जो लेख लिखा है जिसका निर्णय तथा 'प्रवचनपरिक्षा' नामक ग्रन्थ भी उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहसे कुयुक्तियों करके पर्युषणा संबंधीजो लेख लिखा है जिसका निर्णय तो ऊपरके लेखको तथा इस ग्रन्थ को विवेक बुद्धिसे पढ़नेवाले तत्वज्ञ पुरुष स्वयं ही समझ लेवे गे:-- अब पाठकगणको मेरा इतमाही कहना है कि-श्रीजैन शास्त्रों में अधिक मासको कालचूलाकी जो उत्तम ओपमा देते हैं उसीके दिनोकी गिनती करने में आती है तथा लौकिक शास्त्रानु नार और प्रत्यक्ष पने बर्तावकी सत्ययुक्तियोंके अनुसार करके भी अधिकमासके दिनो की गिनती क. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५१ ] रने में आती है जिसका विस्तार पूर्वक इस ग्रन्थ में छपगया है इसलिये कालचूडा वगैरह के बहाने करके कुयुक्तियों से उसी के दिनों की गिनती निषेध करने वाले श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके लोपी उत्सूत्रभाषक बनते हैं, सो तो इस ग्रन्थको पढ़ने वाले तत्वज्ञ स्वयं विचार सकते हैं इसलिये श्रीजिश्वर भगवानकी आज्ञा के आराधन करने की इच्छावाले जे आत्मार्थी सज्जन होवें गे सो तो अधिकमामके दिनों की गिनती निषेध करनेका संसारवृद्धिका हेतुभूत उत्सूत्र भाषणका साहस कदापि नहीं करेंगे, और भव्यजीवों को इस ग्रन्थको पढ़ कर के भी अधिकमास के निषेध करने वालों का पक्ष ग्रहण करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से बालजीवों को कुयुक्तियों के भ्रम में गेरनेका कार्य करनाभी उचित नही है और गच्छका पक्षपात छोड़कर न्याय दृष्टिसे इस ग्रन्थका अवलोकन करके अधिकमास के दिनोकी गिनती पूर्वकही पर्युषणादि धर्म व्यव हारमें वर्ताव करना सोहो सम्यक्त्वधारी आत्मार्थियों को परम उचित है इतने परभी जो कोई अपने अन्तर मिथ्यात्व के जोर से अज्ञ जीवोंको भ्रमानेके लिये अधिक मासको गिनती निषेध संबंधी कुयुक्तियों का संग्रह करके पूर्वापरका विचार किये बिनाही मिथ्यात्वका कार्य करेगा तो उसीका निवारण करनेके लिये और भव्य जीवोंके उपकार के लिये इस ग्रन्थ कारकी लेखनी तैयारही समझना । अब पर्युषणासंबंधी लेखकी समाप्तिके अवसर में पाठक गणको मेरा इतनाही कहना है कि श्रीतपगच्छके विद्वान् कहलाते जोजो महाशय की श्री अनंततीर्थंकर गणधरादि महाराज के विरुद्धार्थमें पंचांगी के अनेक प्रमाणोंको प्रत्यक्षपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 452 ] उत्थापन करके उत्स भाषणोंसे कुयुक्तियों के संग्रह पूर्वक अधिकमासको कालचूला वगैरहके बहानेसे निषेधकरने संबंधी-कल्पकिरणावली तथा सुखबोधिकात्तिवगैरहके लेखों को हरवर्षे श्रीपर्युषणापर्व के दिनों में बांचते हैं जिसको गच्छकदा ग्रही पक्षपाती अज्ञचीव श्रद्धापूर्वक सत्यमानते हैं ऐसे उपदेशक तथा प्रोता श्रीजिनाजाके आराधक पंचांगीकी श्रद्धावाले सम्यक्त्वी आत्मार्थी हैं ऐसा कोइभी विवेकीतत्वज्ञ तो नही कहसकेगे। बोंकि श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महाराजांका प्रमाण कियाहुवा कालचलाकी श्रेष्ट ओपमा वाला अधिकमासको निषेधकरने वालों में प्रत्यक्षपने श्रीजिनजा का विराधकपना होनेसे मिथ्यात्वसिद्ध होताहे सो तत्वात स्वयं विचार सकते हैं / इसलिये मिथ्यात्वसे संसार में परिभ्रमण करने का भय करने वाले तथा श्रीजिनाज्ञामुजब वर्तने की इच्छा करने वाले विवेकियोंको तो श्रीजिनका विरुद्ध उपरोक्त कार्य करना तथा उसी मुजब श्रद्धा रखना उचित नही है किंतु श्रीजिनाशामुजब पर्युषणाके व्याख्यान सुनने वाले भव्यजीवोंके आगे अधिक मासकी गिनती करनेका शास्त्र प्रमाणपूर्वक सिद्धकरके दूसरे प्रावणमें वा प्रथम भाद्रपद में श्रीपर्यषणा पर्वका आराधन करना तथा दूसरोंसे करना सोही आत्महितकारीहै सो तत्वदृष्टिसे विचारना चाहियेःइति अधिक मासके निषेधक उत्सूत्र भाषी कुयुक्तियों करनेवाले सातवें महाशयजी वगैरहे।के पर्युषणा सम्बन्धि अन्न जीवोंको मिथ्यात्वमें गेरनेके लेखांकी संक्षिप्त समीक्षा समाप्ता // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com