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[ ३४९ ] जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और पञ्चाङ्गीके ऊपरीकादि अनेक शास्त्रों के अनुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणको को मानने वालोंको भूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये भी शास्त्रानुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंको माननेवालोंकी वृथाही निन्दा करके श्री जिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजी है।
४ चौथा-श्रीआवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि और सहद्दत्ति वगैरह पञ्चांगीके अनेक शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे हरियावहीका प्रतिक्रमण खुलासापूर्वक कहा है सोही श्रीजिनाजाके आराधक मा. स्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि सात महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे सपा रोक्त शास्त्रों के पाठोंको मूलमन्त्ररूपी जानते हुवे भी अलग छोड़ करके उसीके विरुद्ध बालजीवोंको कराते हैं-देखिये षड़ावश्यक करने के लिये मूलमन्त्ररूपी श्रीआवश्यकजी है उसीकी चूर्णि और यहवृत्तिके अनुसार उभयकाल (सांम और सवेर दोन वख्त ) षड़ावश्यकरूपी प्रतिक्रमण करनेका मंजूर करते हैं तथापि उसी शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे हरियावही करना कहा है उसीको मंजूर नही करते हैं जिन्होंको मूलमन्त्र रूपी श्रीआवश्यकादि पञ्चाङ्गीके शाखोंकी श्रद्धाधाडे श्री. जिनाजाके आराधक आत्मार्थी कैसे कहे जावे और उन्होंने षडाश्यवक भी कैसे सार्थक होगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और विशेष आश्चर्य्यकी बात तो यह