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[ ४०३ ] चौथी पंक्ति तक लिखा है कि-(जन पञ्चाङ्गानुसार तो एक युगमें दो ही अधिक मास आते हैं अर्थात् युगके मध्यमें आषाढ़ दो होते हैं और युगान्त में दो पौष होते हैं। दो श्रावस्म दो भाद्र और दे। आश्विन वगैरह नहीं होते । इस भावकी सूचना देने वाली पाठ देखो:"जई जग मज्जे तो दोपोसा जई जग अन्ते दो आसाढ़ा" यद्यपि जैन पञ्चाङ्गका विच्छेद हो गया है तथापि युक्ति
और शास्त्र लेख विद्यमान है) सातवें महाशयजीका इस लेख पर मेरेको इतनाही कहना है कि-शास्त्रके पाठसे एक युगमें दो अधिक मास होनेका आप लिखते हो सो यह दोनों अधिक मास जैन शास्त्रानुसार गिनती में लिये जाते थे तो फिर ऊपरमेंही "कुशाग्रह बुद्धि आज्ञा. निबद्ध हृदय आचार्योंने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है" ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा विचारके सब लेख में अधिक मासकी गिनती निषेध क्यों करते हो क्या आपको शास्त्रकी वाक्य प्रमाण नहीं है, यदि है तो आपका निषेध करना संसार सुद्धिका हेतु भूत उत्सूत्रभाषण होनेसे बाल जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने वाला है से विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार सकते हैं___ और शास्त्र के पाठमें तो युगके मध्यमें दो पौष और युगान्तमें दो आषाढ़ खुलासे कहे हैं तथापि सातवें महाशयजी युगके मध्यमें दो आषाढ और युगान्तमें दो पौष लिखते हैं सो तो बहुत वर्षों से काशी में अभ्यास करते हैं ...इसलिये विद्वत्ताके - अजीर्णतासे उपयोग शून्यताका
कारण है ;
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