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और श्रीचन्द्रप्रजप्ति, श्रीसूर्यप्राप्ति, श्रीजब द्वीप प्रअधि और भोज्योतिषकरंडपयश वगैरह शाखानुसार तथा उनकी मात्यायोंके अनुसार अधिक मास होनेका कारण का नया विनतीका प्रमाणको जो सातवें महाशयजी किसी महगुरुसे पर तात्पर्यापको समझते और श्री भगवतीजी श्रीभनुयोगद्वार बगैरह शास्त्रानुसार समय, आवलिकादि कालको मायाको विचारते तो अधिक मासकी गिमती निषेध कदापि नहीं करते और दो प्रावण, दो भाद्र, दो भाचिन वगैरह नहीं होमेका लिखने के लिये लेखनी भी नहीं चलाते से पाठक वर्ग विचार सधैगे :____ और भी मागे पर्युषणा विचारके सातवें पृष्ठमें लिखा है कि (लौकिक पञ्चाङ्गानुसार अधिक मासको लेखामें गिमने धाले महाशयोंसे पूछता हूं कि यदि माश्चिन दो होंगे तो साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणान्तर सत्तरवें दिनमें चौमासी प्रति. क्रमण करोगे कि नहीं, यदि नहीं करोगे तो समवायाङ्ग सत्रके पाठकी क्या गति होगी? अगर चौमासीका प्रतिक्रमण करोगे तो दूसरे आश्विन मुदी पूर्णमासीके पीछे विहार करना पड़ेगा। आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे तो श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें न गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान्की भाशाके अनुसार भाद्र सुदी चौथके रोज साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते )
इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि-जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार वर्ताव करनेको पूर्वाचार्यों की आज्ञा है इसलिये कालानुसार श्रीजैन
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