________________
[ २३२ ] एक समय मात्र भी जो काल व्यतीत हो जावे उसकी अव. श्यही गिनती करने में आती है तो फिर दो अधिक मासको गिनतीमें लेने इसमें तो क्याही कहना याने दो अधिक मासकी निश्चय करके भवश्यही गिनती करमा सोही सम्य. कत्व धारियों को उचित है इसलिये दो अधिक मासकी गिनती निषेध करके ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन न्यायरत्नजीने उत्सूत्र भाषणरूप अपनी कल्पनासे 'बनाये सो कदापि नही बन सकते है इसलिये दो श्रावण होनेसे अनेक शास्त्रानुसार पचास दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करना और पर्युषणाके पिहाड़ी १०० दिन भी अनेक शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक रहते है जिसको सान्य करने में कोई दूषण नही हैं तथापि न्यायरबजीने दूषण लगाया सो मिथ्या है इस उपरके लेखका विशेष विस्तार तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पष्ठ १९७ में पृष्ठ १२८ तक तथा चौथे महाशयके नामकी समीक्षामें भी पृष्ठ १७४ - पृष्ठ १८५ तक भी अच्छी तरहसे सूत्रकार श्री गाधर महाराजके तथा वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय सहित युक्तिपूर्वक छप चुका है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा ;
तथा थोडासा और भी सुन लिजीयें कि, श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें श्रीगणधर महाराजने तथा कृत्तिकार महाराजमें अनेक जगह खुलासापूर्वक अधिक मासको 'गिनती प्रमाण किया है तथापि न्यायरत्नजी हो करके सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में अधिक मासकी गिनती निषेध करके मूलसूत्रके पाठोंको तथा वृत्तिके पाठोंको
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com