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[ २३३ ] उत्यापन करते है और चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी उपरका पाठ भीगलवर महाराजने कहा है तथापि इसका तात्पर्य समझे बिना दो प्रावख होनेसे पांच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें उपरका पाठ सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में न्यायरत्नजी लिखते हैं इसलिये न्यायरत्नजीको श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठोंका तात्पर्य्य समझ में नही आया मालुम होता है तो फिर न्यायरत्न का और विद्यासागरका जो विशेषण श्रीशान्तिविजयजी ने धारण किया है सो कैसे सार्थक हो सकेगा सो पाठक वर्ग सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिसें स्वयं विचार लेना ;. और न्यायरत्नजी कालपुरुषकी चोटीकी भ्रान्ति में
अधिक मासको गिनतीमें निषेध करते हैं सो भी जैन शास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना उत्सूत्र भाषण करते हैं इसका निर्णय इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४८ से ६५ तक तथा चारों महाशयोंके नामकी समीक्षामें और खास न्यायरत्न जीकेही नामकी समीक्षामें उपरमें पृष्ठ २२० । २२९ । २२२ तक अच्छी तरहसें खुलासाके साथ छप गया है सो 'पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा कि शिखररूप चूलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य दिनी है इसलिये चोटी कहके निषेध करनेवाले मिथ्यावादी है सो उपरोक्त लेख में पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना ;- और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीने लिखा है कि ( अधिक महिनेको गिनती में लेमेसें तीसरा यह भी दोष आयगा कि चौइस तीर्घरोंके कल्याणिक जो जिस जिस महिनेकी तिधिमें आते हैं गिनती में वे भी बढ़ जायगें
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