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४- देवानंदामाताकी कुक्षिमें भगवान आये सो ही नीचगौत्र कर्म विपाकरूपहै, उनका क्षय हुए बाद उचगौत्रके कर्मका उदय होनेसेही गर्भपहार करना पडा है, तो भी शास्त्रकार महाराजोंने तो देवानंदाकी कुक्षिमे आनेको तथा त्रिशलामाताकी कुक्षिमें आनेको, इन दोनों कायौको तीर्थकर भगवानके चरित्रमें उत्तमतापूर्वक कल्याणकारक माने हैं। जिसपर भी त्रिशलामाताके गर्भ में आनेको नीचगौत्र कर्म - विपाकरूप अतिनिंदनीक कहकर जो लोग वर्षौंवर्ष पर्युषणा के मांग लिक पर्व दिनोंके व्याख्यानमें प्रत्यक्ष झूठ बोलकर भगवानकी निंदा करते हैं, सो तीर्थकर भगवान् के अवर्णवाद बोलनेवाले होने से आशातना दोषी ठहरते हैं ।
५- जैसे श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने श्रीस्थंभनपार्श्वनाथजी की प्रतिमाको प्रकट किया, उनका आशय समझेबिना कितनेक ढूंढिये व तेरापंथी लोग जिनप्रतिमाकी नवीन प्ररूपणा कहे, तो उन्होंकी आज्ञानता समझी जावे. मगर तत्त्वदृष्टिवाले विवेकीलोग जिनप्रतिमाकी नवीन प्ररूपणा कभी नहीं कहेंगे, किंतु आगमोक्त प्राचीनही कहेंगे । तैसेही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजनेभी षष्ट कल्याणकको प्रकट किया, उनका आशय समझे बिना कितनेक लोग उनकी नवीन प्ररूपणा कहते हैं, वो उन्होंकी अज्ञानता समझनी चाहिये. मगर तत्त्व दृष्टिवाले विवेकीलोग उनकी नवीन प्ररूपणाकभी नहीं कहेंगें, किंतु आगमोक्त प्राचीन ही कहेंगे.
६ - भगवान के शरीर-इन्द्रीय पर्याप्तिके अवयव [ पुलपरमाणु ] देवानंदामाताके शरीर से बने हुए थे, और उसी शरीर से त्रिशला - माता के गर्भ में भगवान् आगयेथे, यहबात आश्चर्यकारक होनेले श
- इन्द्रीय पर्याप्त बदले बिनाभी शास्त्रकार महाराजोंने उनको अलग भव गिना है। उनमें प्रत्यक्षपने व्यवन कल्याणकपना दिख लानेके लियेही खास कल्पसूत्रके मूलपाठ में त्रिशलामाताने १४ स्वcr देखे हैं उन संबंधी " ए ए चउदस सुमिणे, सव्वा पासेई तित्थयर माया । जं यणि वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरिहा ४७॥ " यह पाठ लिखा है, और इसपाठकी सुबोधिका टीकामें इस प्रकार व्याख्या किया है "अत्र प्रसंगेन एतेषां स्वप्नानां गर्भकाले सकलजिनराजजननीविलोकनीयत्वं दर्शयन्नाह एतान् चतुर्दश स्वप्नान् सर्वा: पश्यंति तीर्थकर मातरः । यस्यां रजन्यां उत्पद्यंते, कुक्षौ महायशसः अर्हन्तः ॥४७॥ इसी तरहसेही सर्व टीकाओंमेभी ऐसेही भावार्थका
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