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विरुद्ध ही करके अधिकमासको गिनती निषेध करनेका प्रयास करते हैं सो वड़ी हो शर्मकी बात- हे और काललासम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीनें आगे लिखा हैं उसकी समीक्षा में भी आगे करूंगा
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और ( दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो सो तो कल्पष्यवच्छेद हुवा है यह सर्वजन प्रसिद्ध है ) इन अक्षरों कोभी में देखता हूं तो न्यायांभोनिधिजीका अन्याय देखकर मूके बड़ाही आफसोस आता है क्योंकि शुद्ध समाचारी कारने जिस अभिप्रायसे लिखा था उसीको समझे बिना अन्याय मार्ग खण्डन करना न्यायांभोनिधिजीको उचित नही हैं क्योंकि शुद्धसमाचारी कारने तो इस कालमें पचास दिनेही पर्युषणा करनी चाहिये इस बातकी पुष्टिके लिये शुद्ध समाचारीके पृष्ठ १५७ । १५८ में श्रीकल्पसूत्रजीका मूलपाठ, श्रीवृइस्कल्पचूर्णिका पाठ, और श्रीसमवायाङ्गजीका पाठ, लिखके पचास दिनेही पर्युषणा दिखाई थी परन्तु दशपञ्चक लिखके कुछ पाँच पाँच दिने प्राचीन कालकी रीतिसे पर्युषणा नही लिखी थी तथापि न्यायांभोनिधिजी शुद्धसमाधारी कारके अभिप्रायके विरुतार्थमें दशपञ्चकका कल्पविच्छेदकी बात लिखके पचास दिनकी पर्युषणाको निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकेगा और आगे फिर भी लिखा है कि - ( लौकिक टिप्पणाके अनुसारसें हरेक वर्ष में आषाढ़ शुदी चतुर्दशीसें लेके भाद्रवा शुदी ४ और तुम्हारे कहने में दूसरे श्रावण शुदी ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगें क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४९ दिन आजायगें और किसी वर्ष में
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