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३- अधिक महीनेके अभाव संबंधी भाद्रपदमै पर्युषणा करनेके व उसके पीछे ७० दिन रहनेके और १२ मासी क्षामणे वगैरह के सामान्यपाठ को अधिक महीना होवे तबभी आगे लाते हैं । और अधिक महीनेसंबंधी " पचाशतैव दिनेः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः " कल्पसूत्रकी सर्व टीकाओं के इस विशेषपाठको, तथा स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पन्चूर्णि, वृत्ति, पर्युषणाकल्प चूर्णि वगैरह शास्त्रोंके १०० दिन रहने संबंधी आदि विशेषताके पाठोकी सत्य बातोंको छुपाकरके छोड देते हैं, सो यह सर्वथा अनुचित है ।
४- धार्मिक कार्य करने में १२ महीनोंके सर्व दिन, या अधिक म हीना होवे तब १३ महीनों केभी सर्व दिन, वा क्षय महीनेकेभी सर्व दिन बरोबर समानही हैं, उनमें कर्मबंधन के संसारिक कार्य और कर्म निर्जराके धार्मिक कार्य हमेशा बराबर होते रहते हैं, इसलिये तत्वदृष्टि से तो उनसे एक समय मात्र भी गिनती में नहीं छुट सकता. जिसपर भी कार्तिकादि क्षयमहीनेके ३० दिनोंमें दीवाली, ज्ञानपंचमी, चामासी वगैरह धार्मिक कार्य करते हुए भी अधिक महीने के ३० दिनोंको तुच्छ समझकर बडी निंदा करते हैं, या कालचूलाके नामसे गिनती में छोड देनेका कहते हैं, सो सर्वथा जिनाशाका उत्थापन करते हैं ।
५- - जैन ज्योतिषविषयसंबंधी प्ररूपणा आगमानुसार करनी और श्रद्धाभी उसी मुजबरखनी, परंतु अभी पडताकालमें जैनटिप्पणा बंध होने से उस मुजब व्यवहार नहींकरसकते. और लौकिक टिप्पण मुजब व्यवहार करने में आता है । इसलिये अभी जैन शास्त्रमुजब पौष- आषाढ अधिक होनेसंबंधी पाठ बतलाकर लौकिक टिप्पणासंबंधी चैत्र; श्रावणादि अधिकमहीनें मान्यकरनेका निषेध नहीं करस. कते । और जैसे जिनकल्पी व्यवहार अभी विच्छेद है तोभी उन्हकी प्ररूपणाकरनेमें आती है, तैसेही पौष--आषाढ बढने की प्ररूपणा तो शास्त्रानुसार करसकते हैं, मगर मास पक्ष तिथि वगैरहका वर्तव तो लौकिक टिप्पणा मुजबही करना योग्य है ।
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इन सर्व बातें का विशेष निर्णय ऊपरके भूमिका के लेख में और इस ग्रंथ में अच्छी तरहसे हो चुका है । यहाँ तो उसका संक्षिप्तसार मात्रही बतलाया है. मगर विशेष निर्णय करनेकी अभिलाषावाले पाठकगण इसग्रंथको संपूरणतया वांचेंगे तो सबखुलासा हो जावेगा
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