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[ ४० ] सत्कष्टसे १८० दिनके छ मासका कल्प कहा है और मास पद्विके अभावसे आषाढ़ चौमासीसै पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दसवे पञ्चकमें पचासवें दिन भाद्र पद शुक्ल पञ्चमीको पर्युषणा करने में आती थी परंतु कारणसे श्रीकालकाचार्यजीने एकौन पञ्चाशवे (४९) दिन भाद्र शुदी चौथको पर्युषणा करी है जिसका संबंधी विस्तार पूर्वक दोनु चर्णिमें कहा है सो दोमुं चूर्णिके पर्युषणा सम्बन्धी बिस्तारवाले दोनु पाठ भावार्थ सहित इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ९२ से लेकर १०४ तक छप गये है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। परन्तु बड़ेही अफसोसकी बात है कि सातवें महाशयजी दोनुं चूर्णिके आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके फिर मास सृद्धिके अभावसे ४९ वे दिने पर्युषणा करनेवाले पाठको मास सद्धि दो श्रावण होते भी लिखके दोनों चूर्णिकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में यावत् ८० दिने पर्युषणा स्थापन करनेके लिये बाल जीवोंको अधूरे पाठ लिख दिखाते कुछ भी लज्जा नहीं पाते हैं सो भी कलयुगि विद्वत्ताका नसूना है इसलिये मास वृद्धिके अभाव के विस्तार वाले सब पाठोंको छोड़ करके मास वृद्धि होते भी उसीमेंसे अधूरपाठ सातवेंमहाशयजीने लिखे है सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे शास्त्रविराधक उत्सूत्र भाषणाचार्य के गुण प्रगट दिखाये है सो तो विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार लवंगे, और सुप्रसिद्ध विद्वान् तीसरे महाशयजी श्रीविनय विजयजीने भी, पण्डितहर्षभूषणजीकी और धर्मसागरजीकी धूर्ताई में पड़कर अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे ऊपरको दोनों चूर्णिके मधूरे पाठ श्रीसुखबोधिका वृत्तिमें लिखे है उसी तरहसे वर्तमानमें सातवें नहाशयजीने भी किया परन्तु
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