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शंकारूपी शल्यको एकप्रकारले मिथ्यात्वही कहाहै, उसका निवारण करनेकेलिये और शास्त्रानुसार सत्य बातोंका निर्णय बतलानेके लिये वर्तमानिक सर्व शंकाओंका समाधान सहित मैने यह ग्रंथ बनायाहै, मगर मैरी तरफसे किसी तरहका नवीन विवाद शुरूकरनेकेलिये न. ही बनाया. इसलिये इस ग्रंथके बनानेमें सुबोधिका, किरणावली वां चनेवाले कितनेक विद्वान् मुनि महाशयही कारणभूत हैं, पाठक गण इसमें मैरेको किसी तरहका दोषी न समझें, मैने तो उन्होंकी शंकाऔका समाधान लिखा है.
४- शुद्धश्रद्धाविना द्रव्यसे व्यवहारमें चाहे जितनेधर्मकार्य करें, तो भी आत्म कल्याण करने वाले नहीं होते, और आग्रही लोगोंकी अभी अलग २ प्ररूपणा होनेसे भोले जीवोंको जिनाज्ञानुसार सत्य बातकी प्राप्ति होना बहुत मुश्किल होरहा है. और अविसंवादी रूप आगम-पंचांगी-प्रकरण-चरित्रादि सर्वशास्त्रोको मानने वालों में पर्युषणा-छ कल्याणक-सामायिकादि विषयों संबंधी शास्त्रकारमहाराजो. के अभिप्रायको न समझनेसे व्यर्थही विसंवाद होरहाहै, उसकानिर्ण. य करनेके लिये और भव्यजीवाको शुद्धश्रद्धारूप सम्यक्त्व रत्नकी प्राप्तिके उपकारकेलिये मैने यह ग्रंथ बनायाहै । मगर किसी गच्छके साधु-श्रावकोको किसी अन्य गच्छमें ले जानेके लिये नहीं बनाया. किसी गच्छमें रहो, परंतु आपसमें राग द्वेष निंदा ईर्षा अंगतविरो
धादिक बखेडे छोडकर शुद्ध श्रद्धापूर्वक आत्मिक कल्याण करनेके लियेही इस ग्रंथकी रचना करने में आयी है, इसलिये पक्षपात छोड. कर इस ग्रंथको वारंवार पूरेपूरा वांच,विचार,मननकर सत्य समझकरके शांति पूर्वक शुद्ध श्रद्धासहित अपना आत्मसाधन करके आस्मार्थी पाठकगण मेरे परिश्रमको सफल करेगे.
५-जिनाज्ञानुसार शुद्धश्रद्धापूर्वकभावसे धर्मकार्य करनेका योग महान्पुण्योदयहोवे तब प्राप्तहोताहै, इसलिये उसमें लोकपूजा बहुत समुदायवैगरकी प्रवृत्तिमुजब करना योग्यनहीं है. इसकालमें आत्मा“अल्पही होते है. कदाचित् गच्छ-गुरुपरंपरा-बहुत समुदाय वगैरह बाह्यकारणोंसे आज्ञामुजब क्रियाकरनेका योग न बनसके तोभी शुद्धश्रद्धा-प्ररूपणा तो आज्ञामुजब सत्यबातोंकीही करना योग्यहै,उ. ससे भवांतरमें सुलभबोधिकी प्राप्ति हो सकेगी. मगर गुरु-गच्छलोकसमुदायके आग्रहसे जिनाज्ञा बाहिर क्रिया करतेहुए आशामुजब सत्यबातोका निषेध करनेसे भवांतरमे दुर्लभबोधिकी प्राप्ति होतीहै,
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