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[७४] किया और दूसरोपर गेरकर मौनही करबैठे, तथा दूरसेही फिर " अधिकमासनिर्णय" की छोटीसी किताब छपवाकर प्रगटकी उसके बाद थोडे रोज पीछे आप मुंबई दादर आये, तब मैंने आपको दोनों किताबों संबंधी शास्त्रार्थकरनेकी सूचना पत्रद्वारा दीथी उसकी नकल नीचे मुजब है :__"श्रीदादर मध्ये श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्री. मुंबईवालकेश्वरसे मुनि मणिसागरकी तरफसे सूचना. मैंने कलरात्रिको आपके दादर आनेकासुनाहै उससेआपको सूचनादेताहूं,कि-आप ने “ पर्युषणापर्व निर्णय" और " अधिकमासनिर्णय" दोनोंपुस्तकोमें बहुत जगह शास्त्रविरुद्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणारूप लिखाहै, आपने दोनोंपुस्तकों में सर्वथा शास्त्रविरुद्ध और कल्पित बातोंकाही संग्रहकियाहै, इसलिये हम सभामे शास्त्रार्थ से आपकी दोनो पुस्तके जिनाशाविरुद्ध सिद्ध करनेको तैयारहे, शास्त्रार्थ किये बिना आप चले जावोंगे तो झूठे समझे जावोंगे, विशेष क्यालि, शास्त्रार्थका विज्ञापन नं. १ आपको पहिलेभी भेज चुका हूं, कल दादर आढुंगा. आप जाना नहीं. इसका उत्तर अभाही लालबागमें आदमीके साथ पीछा भेजना में लालबाग जाताई, हस्ताक्षर मुनि-मणिसागर, पौष शुदी १ रविवार, सं० १९७४."इस मुजबपत्र पौषशुदी१ को आदमीभेजकर आपकोपहुंचाया,और दूजके दिन खास मैं और मुनि श्रील. ब्धिमुनिजी, तथा अंचलगच्छीय मुनि दानसागरजी और केवल. चंदजी चारोही ठाणे दादर आये, और शास्त्रार्थ करनेका आपसे. कहा, तब आपने भी अन्य मुनियोंकी तरह आनंदसागरजीकी आडलेकर दो महीनोबाद शास्त्रार्थकरनेका कहाथा,सो २महीनेकी जगह ४ महीने होगये, अब जलदी करो. आनंदसागरजी तो आडी आडी बातोसे दूसरेका नाम आगे करते हैं, अपना नामसे लिखतेभी डरते है, तो सभामे नियमानुसार क्या शास्त्रार्थ करेंगे, और आपने कि ताबे बनवानेमें किसी आगेवानोंकी व आनंदसागरजी वगैरह मुनि योकी आडन ली, तो फिर उसका खुलासा करनेमें दूसरोकी आड. लेते हो-यही आपका अन्याय समझा जाताहै. वालकेश्वर में जबहमारे गुरुजी महाराजकेसाथ आपकी मुलाकात हुईथी, तबभी झगडीया वगैरह तीर्थयात्राको जाकर आये बाद शास्त्रार्थ करने का मंजू. र कियाथा, सो आप यात्राकरके आगये, अब आमनेसामने या लेख. द्वारा वा सभामें आपकी इच्छाहो वैसे शास्त्रार्थ करना मंजूरकारये,
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