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अवश्यही गिना जाता हैं इस लिये धर्मकायों में और गिनती का प्रमाण में अधिक मासका शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक प्रमाण करना ही उचित होनेसे आत्मार्थियों को अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये । अधिक मास को प्रमाण करना इसमें कोई भी तरहका हठवाद नहीं हैं किन्तु अधिक मास की गिनती निषेध करना सो निःकेवल शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें हैं. – तथापि इन तीनों महाशयोंने बड़े जोरसे अधिक मासकी गिनती निषेध किवी तब उपरोक्त समीक्षा मुजेभी अधिक मासकी गिनती करने के सम्बन्ध की करनी पड़ी और आगे फिर भी इन तीनों महाशयोंने अपनी चातुराई अधिक मास को निषेध करने के लिये प्रगट किवी है जिसमें के एक तीसरे महाशय श्री विनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिका वृत्तिका पाठ इसही पुस्तक के पृष्ठ ६९ 9019९ मे छपा था जिसमेका पीछाडीका शेष पाठ रहा था जिसको यहाँ लिखके पीछे इसीको समीक्षा भी करके दिखाता हु श्रीसुखबोधिकावृत्ति के पृष्ठ १४७ की दूसरी पुढी की आदि से पृष्ठ १४८ के प्रथम पुठी की मध्य तक का पाठ नीचे मुजब जानो यथा:--
किं काकेन भक्षितः किं वा तस्मिन्मासे पापं न लगति उत बुभुक्षा न लगति इत्याद्युपहस न्मास्वकीयं ग्रहिलत्वं प्रकटयत स्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेवपि सम्वत्सरिक क्षामणे, बारसरहं माषाणमित्यादिकं दधिक मारु मंगी करोषि एवं चतुर्मास क्षामणे ऽधिकमास सद्भावेपि, चउरहंमासाणमित्यादि पक्षिक क्षामणकेऽधिक तिथि संभवेपि, पन्नरसरहं दिवाणमिति च षे
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