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[ २४० ] शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने अवश्यही पर्युषणा करना कहा है और दो भादवें होने दूसरे भादवेमें पर्युषणा करनेसे ८० दिन होते हैं जिससे दूसरे भादवेमें ८० दिने पर्युषणा करना और ठहराना शास्त्रोंके और युक्तिके विरुद्ध है इसलिये प्रथम भादवे में ही ५० दिने पर्युषणा करना शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक न्याय सम्मत है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयों के नामको समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १४० । १४१ । १४२ की आदि तक अच्छी तरहसे छप गया है उसीको पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। __ और फिर भी न्यायरत्न जीने अपनी बनाई मानवधर्म संहिता पुस्तकके पृष्ठ ८०० की पंक्ति ४ सें १० तक तिथियाँ की हानी तथा वृद्धिके सम्बन्धमें और पृष्ठ ८०९ की पंक्ति २२॥ सें पृष्ठ ८०२ पंक्ति १० तक पर्युषणामें तिथियांकी हानी तथा वृद्धि के सम्बन्धमें शास्त्रों के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे उत्सूत्र भाषणरुप लिखा है जिसकी समीक्षा मागे तिथि निर्णयका अधिकार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा वहां अच्छी तरह से न्याय रत्नजीकी कल्पनाका ( और न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें जो तिथियांकी हानी तथा वृद्धि सम्बन्धी उत्सत्र भाषण किया है उप्तीका भी ) निर्णय साथ साथमेंही करनेमें आवेगा सो पढ़नेसे तिथियांकी हानी तथा वृद्धि होनेसे धर्मकार्यों में किसी रीतिसे वर्तना चाहिये जिसका अच्छी तरहसें निर्णय हो जावेंगा;इति पाँचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समाता ॥
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