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[ ३९६ ] करने वालेको मिथ्या दृष्टि महानिहूव कहने में कुछ हरजा होवेतो तत्त्वज्ञ पुरुषोंको विचार करना चाहिये। - अब अनेक दूषणौंके अधिकारी कौंन हैं और जिनाजाके आराधक कौंन हैं सो विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;
और भी आगे पर्युषणा विचारके छ? पृष्ठकी ६ पंक्ति से १८ वी पंक्ति तक लिखा है कि ( वादीकी शङ्का यहाँ यह है कि अधिक मासमें क्या भूख नहीं लगती, और क्या पापका बन्धन नहीं होता. तथा देवपूजादि तथा प्रति. क्रमणादि कृत्य नहीं करना ? इसका उत्तर यह है कि क्षधावेदना, और पापबन्धनमें मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवोंको तथा अढाईद्वीपके बाहर रहने वाले तिर्यच्चाको क्षुधावेदना तथा पापबन्ध नहीं होना चाहिये। वहाँ पर मान पक्षादि कुछ भी कालका व्यवहार नहीं है। देवपूजा तथा प्रतिक्रमणादि दिनसै बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्म के प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किन्तु लेना ले जाना आदि गृहकार्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों) ___ ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीने प्रथम वादीकी तरफसे शङ्का उठा करके उसीका उत्तर देनेमें खूबही अपनी अज्ञता प्रगटकरी है क्योंकि क्षधा लगना सो तो वेदनी कर्मके उदय से सर्व जीवोंको होता है और वेदनी कर्म अधिक मासमें भी समय समय में बन्धाता है तथा उदय भी
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