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( १८ ) भी दिखाते हैं कि-श्रीनिशीषसत्रके लघुताध्यमें १ तपा रहदायमें ३, और चूर्णिमें ३, श्रीदशाश्रुतस्कन्ध पूर्णिमें ४, और कृत्तिमें ५, श्रीसत्कल्पसूत्रके लघमाध्यमें ६, वहदाध्यमें , तथा चूर्णिमें, और वृत्तिमें , श्रीस्थानाङ्गणी सूत्रको शु. त्तिमै १०, श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्ति ११ तथा नियुकिको एत्तिमें १२ और श्रीकल्पसूत्रकी चार वृत्तिमोंमें १६, श्रीगच्छाचारपयकाकी पत्तिमें १७, श्रोविधिप्रपासमाचारोमै १८, श्रीसमाधारीशतक १९, इत्यादि अनेक शाखा खुलासा पूर्वक लिखा है कि-अभिवर्द्धित संवत्सरमैं भाषाढ़ चौमासीसे लेकरके २० दिने, याने प्रावण सुदी पञ्चनीको पर्युषणा करने में आती थी। सो इसीही विषय सम्बन्धी सी ग्रन्थकी आदिमेंही श्रीकल्पसत्रकी व्याख्या. भोंके पाठ भावार्थ सहित तथा श्रीशरत्कल्पवत्तिका पाठ पष्ठ २३।२४ में, श्रीपर्युषणाकल्पपूर्णिका पाठ पृष्ठ ९२ में तपा श्रीनिशीषचर्णिका पाठ पष्ठ ५।६ में छप गया है और भागे भी कितनेही शाखोंके पाठ कृपेगे जितको और अब इसीही वातका विशेष खुलासा करता हूं जिसको विवेक बुद्विसे पक्षपात रहित होकर पढ़ेोगे तो प्रत्यक्ष नि. जय हो जावेगा कि अनिवर्द्धितम वीशदिने पर्युषणा होती थी इसके विषय में उपरोक्त अनेक शास्त्रोंके पाठोंके साथ श्रीतपगच्छके श्री क्षेमकीर्तिसरिजी कृत श्रीरकरुपपत्तिण पाठ भी पष्ठ २३ तथा २४ में विस्तार पूर्वक छपगया है तपापि इस जगह थोडासा फिर भी डिस दिखाता हूं तपाच तत्पाठ यथा
इस्थमनभिगृहीतं वियन्तं कालंवक्तव्यं, उच्यते। यद्यसि बर्द्धितो सौ सवत्सरस्तता विंशतिरात्रिदिवानि अप चंद्रोसी ततः सविंशतिरात्रं मास यावदन मिगृहीतं कर्तव्यं । तेसन्ति
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