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राजने कहा कि जब नाटककीय लोगोंका नाटक वर्जन किया तब नाटकणी लुगाइयोंका नाटक तो विशेष रागका कारण होनेसे स्वयं वर्जन समझना चाहिये तब उन्होंने गुरु महाराजके कहने मुजबही मंजूर किया-और हठवादी मूर्ख थे सो तो गुरु महाराजकोही दूषित ठहराने लगे कि आपने नाटकीये लोगोंका नाटक वर्जन किया तो फिर नाटकणी लुगाइयोंका नाटक क्यों वर्जन नहीं किया
परके लेखका क्षामणाके सम्बन्धमें तात्पर्य ऐसा है जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने संवत्सर शब्दके चन्द्र, अभिवद्धितादि जूदे जदे भेद प्रमाण सहित कहे हैं और सांवत्सरिक क्षामणाके अधिकारमें संवत्प्तर शब्दसें व्याख्या करी है जिसमें मासद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें बारह मासादिसे क्षामणा करने में आते हैं उसीकेही अनुसार विवेक बुद्धिवाले चतुर होगे सो तो मासवृद्धि होनेसे तेरह मासादिसें क्षामणा करनेका स्वयं समझ लेवेंगे और विवेक रहित होवेंगे सो शास्त्रोंके अनुसार युक्तिपूर्वक गुरु. महाराजके समझानेसें मान्य करेंगे और विवेक रहित हठवादी होवेंगे सो तो शास्त्रोंका प्रमाण और युक्ति होने पर भी शास्त्रकार महाराजोंकोही उलटे दूषित ठहराधेगे कि अधिक मासकी गिनतीको प्रमाण करके तेरह मास छवीश पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सरको शास्त्र. कार लिख गये तो फिर अधिकमास होनेसे तेरह मास रवीश पक्षके क्षामणे करनेका क्यों नहीं लिख गये, इस तरहसे अपनी वक्र जड़ता प्रगट करके बालजीवोंको भी मिथ्यात्वमें फँसावेंगे, पर भवका भय नहीं रखेंगे,
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