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यश्चाधिक मासको जनशास्त्रे पौषाषाढरूपः लौकिक शास्त्र - द्यश्विन मासांत सप्तमासव्यवस्थित मासरूपोऽभिवर्द्धित नासौक्व चित्कत्येप्रयुज्यते । यदुक्त रत्नकोशाख्य ज्योतिषशास्त्र । यात्रा विवाह मंडनमन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि परिहर्त्तव्यानि बुधेः सर्वाणिनपुंसके मासि ॥ जति अहिमास पडितो तो वोसतीरायं गिहिणायं न कज्जति किं कारणं अथ अहिमासओ चेव मासा गणिज्जति तेः बोसाएसमं सवोसति रातो मासोसम्मतिचेव इति वृहत्कल्प चू० पत्र २९५ व ०३ । पुनः । जम्हा अभिचद्रिय वरिसे गिम्हवेव सोमासो अडकुन्तो तम्हावीस दिणा अणभिग्गहियंकीरइ निशी० चू०० १० पत्र ३१७ इहकल्प निशीथ चणिक्रदभ्यामपिस्वाभिगृहीतगृहस्य ज्ञातावस्थान व्यतिरिक्ततेषु कार्येषु क्वाप्यधिकमसिको नामग्रहणं प्रमाणीकृतो न दृश्यते इति ।
अब श्रीकुलमंडन सूरिजी कृत उपरके लेखको देखकर मेरेको बडेही अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि ऐसे सुप्रसिद्ध विद्वान् पुरुष आचार्यपदकेधारक होकर के भी स्वगच्छा ग्रहका पक्षपात करके उत्सूत्र भाषणोंसे संसारवृद्धिका भय न करते हुवे कुयुक्तियों का संग्रह से बालजीवों को मिथ्यात्व के भ्रम में गेरनेका उद्यम किया है सेा श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके वचनका उत्थापनरूप है क्योंकि पांच वर्षोंके एक युगमें तीसरे तथा पांचवे वर्ष जो पौष तथा आषाढको अधिकमास जैनशास्त्रों में कहा है उसीके ही मंदिरोंके शिखर वत् तथा मेरुचूलिकावत् और दशवेकालिकजो आचारांगजी की चलिकावत् कालचलाको उत्तम श्रेष्ठ ओपमा देकर दिनोंमें पक्षों में मासों में गिनती करके वर्ष तथा युगादि
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